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सेमस्े टर

1
-4

अन्य गद्य विद्याए ँ

विषय-िस्तु
इकाई I

पाठ 1: 'लोभ और प्रीति' : आचार्य रामचंद्र शुक्ल

पाठ 2: 'बसन्त आ गर्ा है ' : हजारी प्रसाद तिवेदी

इकाई II

पाठ 3: 'प्रेमचंद के साथ दो तदन' : बनारसीदास चिुवेदी

पाठ 4: 'ठकुरी बाबा' : महादे वी

इकाई III

पाठ 5: 'वैष्णव जन' : तवष्णु प्रभाकर

पाठ 6: 'शार्द' : मोहन राकेश

इकाई IV

पाठ 7: 'अंगद का पााँ व' : श्रीलाल शुक्ल

पाठ 8: 'ठे ले पर तहमालर्' : धमयवीर भारिी

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प्रश्न 1- 'लोभ और प्रीति' तिबंध का प्रतिपाद्य तलखिए।

उत्तर - पररचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल तहं दी तनबंध परं परा के र्ुग प्रवियक है


तजनका "लोभ और प्रीति" नामक तनबंध सुप्रतसद्ध है , तजसे

तचंिामणी तनबंध संकलन से तलर्ा गर्ा है । र्ह शुक्ल जी का


मनोतवकारपरक तनबंध है , तजसमें तवचार तकर्ा है तक लोभ और

प्रीति ऐसे भाव है तजनका संबंध मनुष्य के जीवन व्यवहार से बहुि


गहरा है।

'लोभ और प्रीति' तिबंध का प्रतिपाद्य

लोभ : तकसी प्रकार का सुख र्ा आनंद दे ने वाली वस्तु के संबंध में मन की ऐसी स्थिति तजसमें उस वस्तु की
कमी का एहसास होिे ही उसकी प्रास्थि, साथ र्ा सुरक्षा की िीव्र इच्छा उत्पन्न हो जािी है , लोभ कहलािी है।

प्रीति : तकसी तवशेष वस्तु र्ा व्यस्थि के प्रति होने पर लोभ सास्थिक (पतवत्र) रूप को प्राि करिा है , तजसे
प्रीति या प्रेम कहिे हैं।

रामचंद्र शुक्ल के अिुसार - “तकसी वस्तु के प्रति मन में जो ललक होिी है वह लोभ है और तकसी व्यस्थि

तवशेष की चाह प्रीति है।“

“लोभ और प्रीति”

• लोभ वस्तु परक होिा है और प्रेम व्यखिपरक। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के तनबंध की शैली र्ह है तक वे
पहले उसे पररभाषा में बांधिे हैं तिर उसकी व्याख्या करिे हैं । जहााँ लोभ सामान्य र्ा जाति के प्रति होिा
है वहां वह लोभ ही रहिा है। पर जहााँ तकसी जाति के एक ही तवशेष व्यस्थि के प्रति होिा है वहां वह

प्रीति का पद प्राि करिा है ।


• लोभ और प्रीति को पररभातषि करने के पश्चाि् शुक्ल जी इनके मध्य भेद बिािे हुए तलखिे हैं तक 'लोभ

सामान्योन्मुख होिा है और प्रेम 'तवशेषोन्मुख'। र्ानी लोभ तकसी भी वस्तु जैसे संपति, ज़मीन, धन आतद
से हो सकिा है लेतकन प्रीति तकसी तवतशष्ट से ही होिी है ।

• 'लोभ' का एक रूप तकसी वस्तु के अच्छे लगने से सम्बद्ध है तकंिु , केवल अच्छा लगना ही लोभ नहीं है
अतपिु तकसी वस्तु के प्राि होने , दू र न होने दे ने र्ा उसे नष्ट न होने दे ने की िीव्र इच्छा भी लोभ के ही

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अंिगयि आिी है । इस प्रकार शुक्ल जी अच्छे लगने वाले इच्छा भाव को प्रीति और नष्ट न होने दे ने की

आकांक्षा को लोभ के रूप में वगीकृि करिे हैं।


• 'लोभ और प्रीति' का तववेचन सामातजक दृतष्ट से भी तकर्ा है। शुक्ल जी हास्य-व्यंग्य को समातहि करिे

हुए आगे बढ़िे हैं और धन के संदभय में लोभ पर अपने तवचार रखिे हुए तलखिे हैं तक आज की राजनीतिक,
सामातजक, धातमयक बािें केवल धन पर आतश्रि होकर रह गई हैं।

लोतभयों पर व्यंग्य का बाण चलािे हुए तलििे है तक "मोटे आदतमर्ों! िुम ज़रा सा दु बले हो जािे , अपने

अंदेशे से ही सही-िो न जाने तकिनी ठठररर्ों पर मााँ स चढ़ जािा।" र्हााँ लेखक ने सामातजक शोषण पर
गहरा व्यंग्य करिे हुए अमीर-ग़रीब का भेद स्पष्ट तकर्ा है। र्ह व्यंग्य बाण उन संपन्न अत्याचाररर्ों के तलए

है जो लोभ में आकर ग़रीब, लाचार लोगों का शोषण करिे हैं।

• “लोभ और प्रीति” में शुक्ल जी िे लोभ के दो भेद बिाए हैं - एक सामान्य और दू सरा तवतशष्ट।

1. सामान्य लोभ : उनके अनुसार सामान्य लोभ के अंिगयि "अच्छा िािा, अच्छा कपडा, अच्छा घर िथा

धि” को रखा गर्ा है, जो व्यस्थि की सामान्य जरूरिों के अंिगयि आिे है व इस िरह का लोभी व्यस्थि
सामातजक तनंदा का पत्र नहीं हो सकिा।

2. तवतशष्ट लोभ : तवतशष्ट लोभ के अंिगयि “राजधमम, आचायमधमम, सत्ता का लालच, सामातजक शोषण”

को रखा गर्ा है, जो समाज में तनंदा का पात्र है। शुक्ल जी कहिे है तक ‘लोभ’ आज के र्ुग मे धन पर ही
केंतद्रि हो गर्ा है।

• लोभ चाहे तजस वस्तु का हो; जब बहुि अतधक बढ़ जािा है , िब उस वस्तु की प्रास्थि उसके उपभोग से
मन नहीं भरिा। मनुष्य चाहिा है तक वह बार-बार तमले र्ा बराबर तमलिी रहे। उदाहरण के तलए, धन

का लोभ जब रोग होकर तचि (मन) में जगह बना लेिा है , िब प्रास्थि होने पर भी और प्राि करने की भी
इच्छा जगी रहिी है। तजसके कारण मनुष्य हमेशा आनंद के प्रति उत्सुक और तवमुख रहिा है।

• “लोभ और प्रीति” में शुक्ल जी िे प्रीति के दो क्षेत्र बिाए हैं - वैर्स्थिक क्षेत्र िथा सामातजक क्षेत्र।

1. वैयखिक क्षेत्र : इसके अंिगयि प्रेम का प्रभाव सीतमि रूप में रहिा है, तजसे शुक्ल जी ने एकांतिक प्रेम
कहा है । एकांतिक प्रेम का क्षेत्र समातजकिा और पाररवाररक जीवन से तभन्न रहिा है । इसके उदाहरणस्वरूप

शुक्ल जी ने “कृष्ण के प्रति गोतपर्ों के प्रेम” को रे खांतकि तकर्ा है। वे कहिे हैं तक भस्थि मागय में आने वाले
लगभग सभी प्रेम 'एकांतिक' ही हैं।

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2. सामातजक क्षेत्र : सामातजक क्षेत्र में प्रेम का प्रभाव सामातजक स्तर पर होिा है जो जनतहिकारी होिा है ।

र्ह व्यापक होिा है िथा साहस और वीरिा से भरा रहिा है क्ोंतक इसमें कियव्यतनष्ठा, दृढ़िा, धीरिा तनतहि
होिी है। र्ह प्रेम का दू सरा रूप है जो लोक जीवन से जुडा रहिा है िथा लोक जीवन के मध्य घतटि होिा

है। र्हााँ शुक्ल जी ने 'राम' के िारा प्रेम की आदशय कल्पना की है।

तिष्कषम

'लोभ और प्रीति' आचार्य रामचंद्र शुक्ल का एक मनोतवकार संबंधी तनबंध है। इस तनबंध में उन्ोंने मानवीर्
भावों 'लोभ' और 'प्रीति' का तवस्तृि तवश्लेषण तकर्ा है । लोभ और प्रीति ऐसे मनोभाव है तजनका प्रत्यक्ष व

परोक्ष संबंध मनुष्य जीवन के व्यवहार से है। इसी पररप्रेक्ष्य को उन्ोंने तनबंध में प्रस्तुि तकर्ा। जीवन के प्रति
अनुराग, कमय पर बल और स्वदे श के प्रति प्रेम का भाव, उन्ोंने लोभ और प्रीति तनबंध में प्रतिपातदि तकर्ा।

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प्रश्न 2- तिबंध के ित्त्ों के आधार पर 'लोभ और प्रीति' तिबंध की समीक्षा कीतजए।

उत्तर - पररचय

आचार्य रामचंद्र शुक्ल का तनबंध "लोभ और प्रीति" चार प्रमुख ित्ों - वैर्स्थिकिा, वैचाररकिा,

भावनात्मकिा, और एकसूत्रिा पर आधाररि है। इस तनबंध में शुक्ल जी ने लोभ और प्रीति के भावों का गहराई
से तवश्लेषण तकर्ा है, उन्ोंने अपने मौतलक तचंिन और प्रभावी लेखन के आधार पर तहंदी सातहत्य की 'तनबंध'

तवधा को समृद्ध तकर्ा है । तनबंध तलखने के तलए तजस गंभीरिा और सूक्ष्म तववेचन दृतष्ट की आवश्यकिा होिी
है, वह उनके तनबंधों में स्पष्ट रूप से तदखाई दे िी है ।

तिबंध के ित्त्ों के आधार पर 'लोभ और प्रीति' तिबंध की समीक्षा

1. वैयखिकिा

'वैर्स्थिकिा' तनबंध का वह िि है जो गद्य तवधा के केंद्र में तदखाई दे िा है। इसमें तनबंधकार के व्यस्थित्
का प्रभाव स्पष्ट रूप से वतणयि होिी है । तकसी भी तनबंध में लेखक अपने व्यस्थिगि भावनाओं और तवचारों

को अतभव्यस्थि प्रदान करिा है व उनके व्यस्थित् का प्रभाव उनकी प्रस्तुति पर स्पष्ट पडिा है । तनबंधकार
तवषर् के अनुसार व्याख्या करके मन में उत्पन्न हो रहे भावों को सरलिम रूप में प्रस्तुि करिा है।

उदाहरण के तलए, आचार्य शुक्ल के तनबंध 'लोभ और प्रीति' में उनके व्यस्थिगि तवचारों का प्रभाव शुरू से
अंि िक तदखाई दे िी है। शुक्ल जी ने 'लोभ और प्रीति' की पररभाषा दे िे समर् कई उदाहरणों का उपर्ोग

तकर्ा है। उन्ोंने कभी भावुकिा, िो कभी गहन तवचारों के माध्यम से अपने तवचार प्रस्तुि तकए हैं। उनके
लेखन में व्यंग्य और तवनोद का भी समावेश होिा है , तजससे उनके तनबंध पढ़ने में रोचक बने रहिे हैं और

नीरस नहीं लगिे। उनके तनबंधों में लोक और शास्त्र दोनों का समन्वर् तमलिा है। जब शास्त्रीर् तववेचन करिे
समर् र्तद गंभीरिा आिी है िो वे इसे सरल और सहज बनाने के तलए लोभ से जोडिे हैं।

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2. वैचाररकिा

गद्य सातहत्य की रचना में तवचार तनबंध तवधा का सबसे महत्पूणय ित् है , तजसमें रोचकिा ओर वैचाररकिा

का समावेश सवायतधक होिा है। तनबंध में रचनाकार अपने स्विंत्र और मौतलक तवचारों को अनुभवों के साथ
प्रस्तुि करिा है व तवचारों के िारा ही तनबंध सिल हो पािा है। इसी िि के आधार पर पाठक तनबंध को

पूणय सजगिा के साथ आत्मसाि करिा है । आचार्य शुक्ल अपने तवचारों की सघनिा, प्रौढ़िा और गहराई के
तलए प्रतसद्ध है, उनका प्रत्येक तनबंध गंभीर तवचारों से प्रभातवि है।

उदाहरण के तलए, 'लोभ और प्रीति' एक तवचारात्मक तनबंध है तजसमें लेखक ने दोनों ही मनोभावों का

तवस्तार से तवश्लेषण है। 'लोभ' िथा 'प्रीति' दोनों ही मनोभावों पर उन्ोंने अपने मौतलक तवचार प्रस्तुि तकए
हैं। र्े तवचार अत्यंि सूक्ष्मिा के साथ अतभव्यि होिे हैं और दोनों मनोभावों के तवतवध पक्षों को तवश्लेतषि

करिे हैं। वे तलखिे हैं तक 'लोतभर्ों का दामन जोतगर्ों के दामन से तकसी प्रकार कम नहीं होिा।' लोभ के
बल से वह काम और क्रोध को जीिे हैं , सुख की वासना का त्याग करिे हैं , मान-अपमान में समान भाव रखिे

हैं।

3. भावात्मकिा

तवचार और भाव का समन्वर् आचार्य शुक्ल के तनबंधों की तवशेषिा है। उनके तनबंधों में कहीं बुस्थद्ध का अतधक

प्रभाव है िो कहीं हृदर् का है। शुक्ल जी के तनबंधों में गहन तचंिन और भावात्मकिा का भी समन्वर् तमलिा
है। जब तनबंधों में बुस्थद्ध की अतधकिा से नीरसिा आने लगिी है , िो शुक्ल जी अपनी रचनाओं को भावनाओं

के रस उन्ें रोचक बना दे िे हैं। भावात्मकिा उनके तनबंधों को रोचक बना दे िा है ।

उदाहरण के तलए, 'प्रीति' पर चचाय करिे हुए शुक्ल जी का हृदर् िब प्रकट होिा है जब वे दे श प्रेम के बारे

में तलखिे हैं। वे कहिे हैं , "र्तद दे श प्रेम के तलए हृदर् में जगह बनानी है िो दे श के स्वरूप से पररतचि हो
जाओ। बाहर तनकलो और दे खो तक खेि कैसे लहलहा रहे हैं , नाले झातडर्ों के बीच कैसे बह रहे हैं , टे सू के

िूलों से वनिली कैसी लाल हो रही है।"

र्ह प्रसंग पूरी िरह से दे श प्रेम के रं ग में रं गा हुआ है। दे श प्रेम की र्े भावनाएाँ सीधे तनबंधकार के हृदर् से
तनकली हैं , जहााँ भावुकिा के साथ बौस्थद्धकिा का अनोखा समन्वर् तदखाई दे िा है ।

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4. एकसूत्रिा

वैर्स्थिकिा, वैचाररकिा, भावात्मकिा जैसे ििों के साथ ही आचार्य शुक्ल के तनबंधों में एकसूत्रिा भी तदखाई

दे िी है। एकसूत्रिा तकसी भी तनबंध का सशि िि है तजसके अभाव में तनबंध अपना स्वरूप खो सकिा
है। इसके तबना तकसी भी तनबंध में संवेदना का संचार कर पाना कतठन हो जािा है। तनबंधकार तकसी तवषर्

को केंद्र में रखकर उसे रोचक बनािा है और स्वर्ं को पाठक से जोडिा है । पाठक और रचनाकार के बीच
र्ह घतनष्ठ संबंध िभी िातपि होिा है , जब तवषर् एक सूत्र में बंधा रहिा है।

आचार्य शुक्ल अपने तनबंधों में तकसी एक भाव और एक तवचार को एक ही सूत्र में बााँधकर चलिे हैं और र्ह

एकसूत्रिा आरं भ से अंि िक बनी रहिी है।

उदाहरण के तलए, 'लोभ और प्रीति' नामक तनबंध में भी आचार्य शुक्ल ने इन दोनों ही भावों को केंद्र में रखा

है। इन दोनों को पररभातषि करने के साथ-साथ उन्ोंने इनमें अंिर भी स्पष्ट तकर्ा है और अलग-अलग
उदाहरण भी तदए हैं। लोभ और उसके तवतभन्न सोपानों का तवश्लेषण तकर्ा है। इस तनबंध में आचार्य शुक्ल

ने प्रेम, सहानुभूति, क्रोध, घृणा, दे श प्रेम आतद पर बाि की है और इन तवषर्ों पर चचाय करिे-करिे वे भावुक
होकर कई बार बहिे भी चले गए हैं तकंिु तिर भी उनकी वैचाररक जागृति बनी रही है तजससे वे अपने मूल

तवषर् पर केंतद्रि रहिे हैं। र्ह िारिम्यिा कहीं भी टू टिी तदखाई नहीं दे िी।

तिष्कषम

आचार्य शुक्ल जी ने तनबंधों में तवतभन्न शैतलर्ों का प्रर्ोग तकर्ा तजससे , बाि पाठक िक पहुाँच जाए। इसके

तलए मूल रूप में उन्ोंने तवचारात्मकिा, भावात्मकिा, तववेचन, तवश्लेषण और व्यंग्य-तवनोद को अपनार्ा है।
उनकी भाषा में कसाव और सजावट है , जो 'तनबंध' की आदशय गद्य तवधा को प्रकट करिा है । उनकी तवश्लेषण

क्षमिा अतििीर् है और उनके तनबंधों में मौतलकिा और लोक कल्याण का भाव उमडा है।

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प्रश्न 3- हजारी प्रसाद तिवेदी तिबंध ‘बसंि आ गया है’ का सार अपिे शब्ों में तलखिए।

उत्तर - पररचय

"बसंि आ गर्ा है " हजारी प्रसाद तिवेदी िारा तलस्थखि एक प्रतसद्ध तनबंध संग्रह है जो उनके तनबंध-संग्रह

'अशोक के िूल' से तलर्ा गर्ा है। र्ह तनबंध-संग्रह 1948 ई. में प्रकातशि हुआ था। इस संग्रह के कई तनबंधों
में शांति-तनकेिन के पररवेश का तज़क्र तमलिा है। 'बसंि आ गर्ा है ' तनबंध में भी शांति-तनकेिन के प्राकृतिक

पररवेश की झलक है। हजारी प्रसाद तिवेदी तनबंध-लेखन के क्षेत्र में लतलि तनबंधों की रचना में उनका िान
अतििीर् है।

इस तनबंध में प्राकृतिक सौंदर्य , जैसे िूलों का स्थखलना और पेडों पर नई कोपलें आना, का सजीव तचत्रण है।
इसके अलावा, इस ऋिु का मानव जीवन पर सकारात्मक प्रभाव, नई ऊजाय और प्रेरणा का स्रोि होना भी

बिार्ा गर्ा है। तिवेदी जी की सरल और सरस लेखन शैली इस तनबंध को आकषयक और प्रभावशाली बनािी
है।

‘बसंि आ गया है’ तिबंध का सार

र्ह तनबन्ध उस समर् तलखा गर्ा है जब तिवेदी जी ‘शांति तनकेिन’ में तनवास कर रहे थे। तनबंध के आरं भ में

ही लेखक अपने आस-पास के कई पेड-पौधों का तचत्रण करिा है और र्ह तदखािा है तक इन पौधों पर मुदयनी
छाई हुई है और तकसी उमंग का तचह्न नहीं है।

तशरीष के पेड का वणयन करिे समर्, लेखक ने उसके असामान्य हालाि को स्पष्ट तकर्ा है। वह बिािे हैं तक
इस पेड पर पिों की कमी है और सूखे हुए शाखाओं को चीर रही हैं। लेखक सूखी तछस्थिर्ों के हवा चलने
पर खडखडाने की आवाज़ की िुलना हतिर्ों की माला पहने अघोरी के मदहोश होकर चलने पर हतिर्ों से
आने वाली आवाज़ से करिा है। साथ ही, तशरीष पर हजारी प्रसाद तिवेदी ने अलग से एक पूरा तनबंध तलखा

है तजसमें बसंि से ग्रीष्म ऋिु िक उसके िूले रहने के कारण उसे कालजर्ी अवधूि की संज्ञा दी है । लेतकन
र्हााँ न उसमें िूल आए हैं और न ही नए पिे। ऐसे ही लेखक नीम, केदार, मस्थिका, करबीर, कोररदार, के

िूलों के भी न स्थखलने र्ा उनमें बसंि का प्रभाव नहीं तदखने की बाि करिा है।

लेखक व्यंग्यात्मक स्वर में कहिे हैं तक "कहीं भी उिास नहीं, उमंग नहीं और उधर कतवर्ों की दु तनर्ा में
हिा हो गर्ा, प्रकृति-रानी नर्ा शंगार कर रही है , और तिर जाने क्ा-क्ा। वे पुनः जोर दे कर कहिा हैं तक
वे भी प्रकृति की सुंदरिा को दे ख सकिे हैं , लेतकन उनके पररवेश में बसंि का प्रभाव नहीं तदखिा। वह तिर

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आत्म-व्यंग्य से कहिा है तक शार्द उसका ही भाग्य अच्छा नहीं। अपने भाग्य की दु दयशा सातबि करने के

तलए कांचनार के पेडों का उदाहरण दे िा है , तजनमें पडोसी का पेड कमजोर होने पर भी िूलों से लदा है
और लेखक का पेड सबल-स्वि होकर भी िूलों से सूना पडा है। लेखक र्हााँ एक अंितवयरोध की ओर

इशारा करिा है तक बसंि ऋिु के आगमन की घोषणा हो जाने पर भी वास्तव में लेखक के पररवेश में उसके
लक्षण तदखाई नहीं पड रहे।

उन्ोंने अपने पढ़ाई के पेशे को हवाला दे िे हुए कहिे है तक भारि के नवर्ुवक उमंग और उत्साह से हीन

तदखाई दे िे हैं। लेखक बसंि को उमंग से जोडिे हुए र्ह कहना चाहिा है तक तजस िरह बसंि ऋिु का समर्
आ जाने पर भी उसके पररवेश के पेड-पौधों पर बसंि की उमंग का तचह्न नहीं तदख रहा है , उसी िरह

र्ुवाविा जो उमंग और उिास की उम्र है , तहंदुस्तान के र्ुवकों में उस उमंग का अभाव है। लेखक इस
प्रकार प्रकृति के उदाहरण से मनुष्य र्ा अपने दे श के र्ुवकों की मानतसक अविा पर भी तटप्पणी करिा है

और पेड-पौधों को संदेशा दे ने के बहाने संभविः र्ुवाओं को कहना चाहिा है तक र्ह वि उदासी र्ा
तनरुत्सातहि होने का नहीं बस्थि उमंग से भरा होने का है।

लेखक को प्रकृति से ही और कुछ उदाहरण र्ाद आिा है तक महुआ, जामुन, कतणयकार जैसे पेड बसंि पर

तनभयर नहीं रहिे। प्रकृति सभी पर एक ही तनर्म लागू नहीं करिी। लेखक समझिा है तक बसंि एक भावना
है, जो ऋिु र्ा उम्र से बंधी नहीं होिी। इसतलए वह तनष्कषय तनकालिे हैं तक "बसंि आिा नहीं, ले आर्ा जािा

है," र्ानी कोई भी जब चाहे बसंि का आनंद ले सकिा है। अंि में , वे हास्य में कहिे हैं तक उनके बुखार के

कारण उनके पेड ने िूलना बंद कर तदर्ा होगा, क्ोंतक कभी-कभी हमारी अविा के अनुसार ही हमें अपना
पररवेश तदखिा है।

तिष्कषम

'बसंि आ गर्ा है ' हजारी प्रसाद तिवेदी का एक महत्पूणय तनबंध है , तजसमें बसंि ऋिु का उिासपूणय वणयन
और इसके मानव जीवन पर सकारात्मक प्रभाव का तचत्रण है। तिवेदी जी ने सरल और सरस लेखन शैली में

प्रकृति के सौंदर्य और संस्कृति के प्रति अपने गहरे दृतष्टकोण को प्रस्तुि तकर्ा है। उनके तनबंधों में हास्य-
व्यंग्य का समावेश है और वे मानविा को बढ़ावा दे ने पर जोर दे िे हैं । उन्ोंने पेड-पौधों और िूलों पर

आधाररि तनबंधों के माध्यम से भारिीर् लोक-तवश्वासों, इतिहास, और संस्कृति पर गहरा दृतष्टकोण प्रस्तुि
तकर्ा है।

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प्रश्न 4- हजारी प्रसाद तिवेदी जी की भाषा-शैली बिािे हुए उिके तिबंध की तवशे षिाएँ बिाइए।

उत्तर - पररचय

हजारी प्रसाद तिवेदी जी की भाषा खडी बोली तहंदी थी। इन्ोंने खडी बोली तहंदी को गद्य की भाषा के रुप में

भी प्रधानिा दी है। उनकी भाषा में ित्सम शब्द अतधक प्रर्ोग होिे हैं। जो उनकी भाषा को सजीव बनािे है
साथ ही , तिवेदी जी अपने तनबंधों में तहन्दी ,िारसी और उदू य शब्दों का भी करिे है। जो उनकी भाषा को

लोकतप्रर् बनािी है । उनके तनबंधों में व्यंग्यात्मक शैली का भी प्रर्ोग भी अतधक तमलिा है।

हजारी प्रसाद तिवेदी जी की भाषा-शैली

• इनकी भाषा शैली में स्थक्लष्टिा के साथ सरलिा का समन्वर् दे खने को तमल जािा है । हजारी प्रसाद तिवेदी

की भाषा शैली उनके तनबंधों को प्रवाहमर्ी और तवषर्ानुकूल बनािी है। उनके तनबंध सांस्कृतिक तवषर्ों
से संबंतधि होिे है, तजससे कारण इनके तनबंधों में संस्कृि शब्दावली का प्रर्ोग तमलिा है, र्ह उनकी

भाषा के प्रवाह को बातधि नहीं करिा बस्थि उसे और भी अतधक सजीव और प्रभावी बनािा है।
• तिवेदी जी की शब्दावली में िद्भव शब्दों और तवतभन्न बोतलर्ों से तलए गए शब्दों का प्रर्ोग तमलिा है

उनकी भाषा में ित्सम शब्द अतधक होिे हैं। जो उनकी भाषा को अतधक जीवंि और लोकतप्रर् बनािे
हैं। साथ ही, इनके तनबंधों में तहन्दी ,िारसी और उदू य शब्दों का भी प्रर्ोग हुआ है। नाचीज़ लिा, कार्ल,

कंबखि कुछ उदू य शब्दों के उदाहरण है। जो इनके तनबंधों में दे खने को तमलिे है।
• तिवेदी जी मुहावरों और लोकोस्थिर्ों का प्रर्ोग भी सहज रूप से करिे है , जैसे- लहक उठना, सूखे

सावन भरे भादों। र्े मुहावरे और लोकोस्थिर्ााँ न केवल उनकी भाषा को सजािे हैं , बस्थि उसमें एक
तवशेष रागात्मकिा और सजीविा को उत्पन्न करिे हैं।

• भावनात्मक िलों पर तिवेदी जी की भाषा में रागात्मकिा दे खने को तमलिी है। उदाहरण के तलए,
तवष्णुकांिा घास की लिा के सौंदर्य का वणयन करिे समर् उनकी भाषा में एक अद् भुि भावुकिा और

तचत्रात्मकिा उभरकर आिी है , जो पाठक को प्रभातवि करिी है।


• तिवेदी जी की वणयनात्मक शैली अत्यंि स्वाभातवक एवं रोचक है। इस शैली में तहंदी के शब्दों की प्रधानिा

है, उन्ोंने गम्भीर तवषर्ों को तलखने के तलए व्यंग्यात्मक शैली का प्रर्ोग तकर्ा है। उन्ोंने व्यस्थिर्ों,
संिाओं और सामातजक कुरीतिर्ों पर व्यंग्य तकर्ा है। साथ ही , इन्ोंने व्याकरण िथा वियनी की

अशुस्थद्धर्ों पर तवशेष ध्यान तदर्ा,

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हजारी प्रसाद तिवेदी जी के तिबंध की तवशेषिाएँ :

व्यखित्व की आत्मीय अतभव्यखि- लतलि तनबंध में एक प्रकार से तनबंधकार अपने व्यस्थित् को ही

अतभव्यि कर रहा होिा है । इस तनबंध में भी हजारी प्रसाद तिवेदी के व्यस्थित् की तवशेषिाएाँ सहज रूप
में अतभव्यि हुई हैं। वे बडे आत्मीर् ढं ग से शांति तनकेिन में बैठे हुए अपने आसपास के वािावरण का बहुि

ही सजीव और आत्मीर् वणयन करिे हैं। उन्ोंने अपने तनबंध की शुरुआि उस िान के पेड-पौधों की स्थिति
के वणयन से की है। वे इन पेडों के बारे में इस िरह बाि करिे हैं जैसे वे उनके पररवार के सदस्य हों। उदाहरण

के तलए, वे बिािे हैं तक कौन सा पेड रवींद्रनाथ टै गोर ने लगार्ा था और कौन सा उनके तकसी तमत्र ने।

प्रकृति की उन्मुििा की घोषणा- इस तनबंध में तिवेदी जी का प्रकृति-प्रेम भी प्रकट होिा है। इसमें उन्ोंने
तवतभन्न प्रकार के पेड-पौधों का उिेख तकर्ा है। िूलों के सूखे होने र्ा उनके स्थखले होने पर जो शोभा होिी

है उसे तजस बारीकी से उन्ोंने व्यि तकर्ा है , वह उनके प्रकृति-प्रेमी होने की पुतष्ट करिा है। इस तनबंध में
प्राचीन काव्यों में प्रशंतसि मस्थिका, कतणयकार, केदार जैसे िूल भी हैं , िो अमरूद, नीम, जामुन, करबीर

(कनेर), पलाश जैसे सामान्य-पौधे भी। वे इस तनबंध में प्रकृति के उदाहरण से र्ह बिाने की कोतशश करिे
हैं तक जैसे प्रकृति में सभी िूल एक ही समर् र्ा समान अवतध के तलए नहीं स्थखलिे , उनमें एक स्वार्ििा है ,

वैसे ही सभी मनुष्यों के मन की स्थिति भी एक समान नहीं होिी और न ही समर् की घडी के अनुसार िर्
होिी है। तिवेदी जी र्ह संदेश दे ना चाहिे हैं तक मनुष्य जब चाहे जीवन की उमंग को अपना सकिा है , इसके

तलए उम्र र्ा समर् का बंधन जरूरी नहीं है।

तविोद-वृतत्त की व्यंजिात्मकिा- हजारी प्रसाद तिवेदी अपनी तवनोद-वृति (सेंस ऑफ़ ह्र्ूमर) के तलए

प्रतसद्ध हैं , लेतकन उनका तवनोद केवल हास्य पैदा करने के तलए नहीं होिा। उनके तवनोद में गहरी
व्यंजनात्मकिा होिी है , तजसका मिलब है तक वे हास्य के माध्यम से गहरे और महत्पूणय तवचार व्यि करिे

हैं। उनके शब्दों के पीछे तछपे भाव महत्पूणय होिे हैं , जो सीधे िौर पर नहीं कहे जािे।

वे बसंि ऋिु के वणयन को भी अपने तवशेष अंदाज में प्रस्तुि करिे हैं। बसंि का वणयन करिे हुए कहिे है तक
बसंि ऋिु का वणयन प्राचीन काल से ही कतवर्ों का तप्रर् तवषर् रहा है। उन्ोंने अक्सर 'कतवर्ों की दु तनर्ा में

हिा' जैसे शब्दों का इस्तेमाल तकर्ा है , जो कतवर्ों की तप्रर्िा को तदखािे हैं , लेतकन साथ ही वे उनकी
उन्नति में भी संदेश तछपािे हैं। उनके अन्य तवनोद में 'कमजोरों में भावुकिा ज़्यादा होिी होगी' के माध्यम से

भी एक गहरा संदेश तछपा होिा है। वे भावुकिा को कमजोरी माननेवालों पर व्यंग्य करिे हैं , क्ोंतक भावुकिा
को वे मन की उमंग र्ा पेड के िूलों से नहीं, बस्थि कुछ और संदेशों से जुडा दे खिे हैं। सारी दु तनर्ा में बसंि

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आने के हिे से अनजान पेड-पौधों को "कमबख्त" कहकर वे दरअसल इन्ें ग़लि नहीं बस्थि सही ही

ठहरा रहे होिे हैं।

तिष्कषम

हजारी प्रसाद तिवेदी की खडी बोली तहं दी में रतचि तनबंधों में ित्सम, िद्भव, िारसी, और उदू य शब्दों का

संर्ोजन तमलिा है , तजससे उनकी भाषा सजीव और लोकतप्रर् बनिी है । उनकी शैली में तवनोद-वृति, व्यंग्य,
और प्रकृति प्रेम की अतभव्यस्थि है।

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प्रश्न 5- 'प्रेमचंदजी के साथ दो तदि' रे िातचत्र की मूल-संवेदिा को अपिे शब्ों में तलखिए।

उत्तर - पररचय

बनारसीदास चिुवेदी तहंदी जगि में प्रतसद्ध संपादक और संस्मरणकार के रूप में जाने जािे है व रे खातचत्रों

के क्षेत्र में उनका कार्य बहुि की महत्पूणय है । 'प्रेमचंदजी के साथ दो तदन' बनारसी दास चिुवेदी िारा तलस्थखि
रे खातचत्र है तजसमें चिुवेदी जी के प्रेमचंद के घर जाने और उनके साथ दो तदन रहने का वृिांि है। इस वृिांि

में प्रेमचंद का व्यस्थित् उभर कर आिा है और उनकी सहृदर्िा िथा सौजन्यिा के दशयन होिे हैं ।

रे िातचत्र की मूल संवेदिा

1. प्रेमचंद जी का व्यखित्व : प्रेमचंदजी के साथ दो तदन' की शुरुआि तजस प्रसंग से होिी है वह बनारसी

दास चिुवेदी के नाम तलखा गर्ा प्रेमचंद का एक पत्र है तजसमें प्रेमचंद ने चिुवेदी के पत्र का उिर दे िे हुए

अपने घर आने का स्वागि तकर्ा है। इस रे खातचत्र के माध्यम से बनारसीदास िारा प्रेमचंद से तमलने के बाद
उनके व्यस्थित् का वणयन तकर्ा गर्ा है, तजसमें उन्ोंने प्रेमचंद जी को सरल-सहज स्वभाव, तवनम्रिापूणय

चररत्र को दशायर्ा है ।

• प्रेमचंदजी में सबसे बडा गुण र्ही है तक उन्ें धोखा तदर्ा जा सकिा है जो उनके सरल और सहज

तवश्वासी व्यस्थित् का पररचर् दे िा है।


• उदाहरण के िौर चिुवेदी जी बिािे है तक पत्र में प्रेमचंद ने अपना पिा तलखिे हुए बिार्ा है तक पाकय में

एक िालाब है। जो अब सूख चुका है। चिुवेदी जी ने इस सूखे िालाब का रे खातचत्र में सुंदर उपर्ोग करिे
हुए कहिे हैं तक प्रेमचंद जी ने बहुि से कष्ट पार्े हैं व अनेक मुसीबिों का सामना तकर्ा है , पर उन्ोंने
अपने हृदर् में कटु िा को नहीं आने तदर्ा। चिुवेदी जी कहिे है तक बेतनर्ा पाकय का िालाब भले ही सूख
जाए परं िु प्रेमचंद जी के हृदर् सरोवर से सरसिा (तनमयल भावना) कभी नहीं जा सकिी।

2. लेिि की शखि :

• इस रे खातचत्र में चिुवेदी जी प्रेमचंद के रहस्य की खोज करिे हैं जो तक जमकर काम करना है । चिुवेदी

जी तलखिे है तक जम के बैठ जाने में ही प्रेमचंदजी की शस्थि और तनबयलिा का मूल स्रोि तछपा हुआ है।

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इससे आशर् र्ह है तक प्रेमचंद जी मानतसक शस्थि इिनी प्रबल है तक वह कही भी एक जगह बैठकर

तकसी भी रचना का तनमायण कर सकिे थे।


• चिुवेदी जी कहिे है तक, र्तद कोई भला आदमी प्रेमचंदजी िथा सुदशयनजी को एक मकान में बंद कर

दे , िो सुदशयनजी तिकडम तभडाकर छि से नीचे कूद पडें गे और प्रेमचंदजी वहीं बैठे रहेंगे व वहााँ बैठे-
बैठे कोई गल्प तलख डालेंगें।

• इटली की एक लेस्थखका का उदाहरण दे िे हुए चिुवेदी जी ने बिार्ा है तक उन्ोंने अपने दे श के एक


प्रांि-तवशेष के तनवातसर्ों की मनोवृति का ऐसा बतढ़र्ा अध्यर्न तकर्ा और उसे अपनी पुस्तक में इिनी

खूबी के साथ तचतत्रि कर तदर्ा तक उन्ें 'नोबेल प्राइज' तमल गर्ा। इसी प्रकार, चिुवेदी जी बिािे है तक
प्रेमचंद जी के िारा ग्रामीण जीवन का अध्यर्न बहुि गहराई से तकर्ा गर्ा है िथा उनकी रचनाओं में

ग्रामीणों की भावनाओ का उच्च स्तरीर् तवश्लेषण तकर्ा गर्ा है।

3. प्रेमचंद और प्रसाद :

• चिुवेदी जी प्रेमचंद के साथ बािचीि करिे समर् प्रसाद की संस्कृितनष्ठ भाषा की आलोचना करिे है तक

वह सहज नहीं है और कृतत्रमिा से भरी हुई है। साथ ही चिुवेदी जी प्रसाद पर ऐसे ही आरोप लगािे हैं

तक प्रसाद जी की रचना के ‘प्रतिष्ठान’ और 'तसकिा' जैसे शब्दों के तलए उन्ें 'तहंदी-शब्दसागर िलाश
करना पडिा है , िब कहीं पिा लगिा है तक प्रतिष्ठान झूाँसी (िान) का प्राचीन नाम है , और तसकिा का

मिलब रे िी है । हमे िो सरल-मधुर भाषा पसंद है और प्रसादजी की 'तसकिा' हमारे मुाँह में करकरािी
है।' इस पर प्रेमचंद का जवाब है , 'इसमें अपराध आपका है , प्रसादजी का नहीं।'

• प्रेमचंद चिुवेदी जी को बिािे हैं तक, प्रसादजी प्रािः काल रोज र्हीं टहलने आिे हैं , आज उनके साथ ही
टहलेंगे। इस पर चिुवेदी जी कहिे है तक मेरा न चलना ही ठीक होगा, क्ोंतक पारस्पररक वाद-तववाद

की आशंका है , तिर प्रेमचंदजी कहिे है तक हम लोग सातहस्थत्यक तवषर्ों पर बािचीि करिे ही नहीं।
अन्य साधारण तवषर्ों पर बािे होिी है। इससे प्रसाद ओर प्रेमचंद के बीच पर्ाय ि स्नेह-संबंध का पिा

चलिा है।

4. लेिक का अथमशास्त्र :

• प्रेमचंद अपने र्ुग के बहुि लोकतप्रर् लेखक थे और उनके पाठकों की संख्या बहुि समृद्ध थी। इससे र्ह
अनुमान हो सकिा है तक प्रेमचंद जी को अपने लेखन से अच्छी खासी आमदनी होिी होगी। बहुि-से

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पाठकों को लगिा है तक अपने ग्रन्ों के कारण प्रेमचंद जी धनवान हो गर्े होंगे, पर र्ह धारणा पूणयिः

भ्रामक है ।
• चिुवेदी जी बिािे हैं तक प्रेमचंदजी को अपनी पुस्तकों से जो आमदनी होिी है , उसका एक अच्छा भाग

'हंस' और 'जागरण' के घाटे में चला जािा है। चिुवेदी इस बाि को दु भायग्यपूणय मानिे हैं व कहिे है तक
'तहंदीवालों के तलए सचमुच र्ह कलंक की बाि है तक उनके सवयश्रेष्ठ कलाकार को आतथयक संकट बना

रहिा है। इसमें कुछ दोष प्रेमचंदजी का भी हो, जो अपने प्रबंधन कौशल के तलए प्रतसद्ध नहीं हैं , और
तजनके व्यस्थित् में वह दृढ़ संकल्प भी नहीं है जो उन्ें सामान्य लोगों का तशकार बनने से बचा सके।

तिष्कषम

इस रे खातचत्र के माध्यम से बनारसीदास चिुवेदी ने प्रेमचंद के सहज, तवनम्र और ईमानदार व्यस्थित् को

पाठकों के समक्ष प्रस्तुि तकर्ा है। प्रेमचंद का लेखन, उनकी लेखनशस्थि, उनकी सादगी, और आतथयक
संघषों को बखूबी तचतत्रि तकर्ा गर्ा है। र्ह रे खातचत्र प्रेमचंद की महानिा को उजागर करिा है और तहंदी

सातहत्य के प्रेतमर्ों को उनके व्यस्थित् और जीवन के बारे में एक गहरी समझ प्रदान करिा है।

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प्रश्न 6- 'ठकुरी बाबा' संस्मरण का सार एवं मूल-संवेदिा पर प्रकाश डातलए।

उत्तर - पररचय

'ठाकुरी बाबा' एक व्यस्थि-केस्थिि संस्मरण है तजसमें ठकुरी बाबा मुख्य पात्र है । लेस्थखका ने इसमें ग्रामीण

समाज के लोगों के प्रति सहानुभूति और आिा को प्रकट तकर्ा है , जहााँ लोग बनावटी जीवन छोड कर सहज
जीवन जीिे है। इस रे खातचत्र में लेस्थखका के प्रर्ाग (संगम) के माघ कल्पवास का तचत्रण है। कल्पवास के

दौरान ग्रामीण पात्र उनके कुटी में शरण लेिे है । कल्पवास से िात्पर्य है - एक माह िक संगम के िट पर रहिे
हुए वेदाध्यर्न और ध्यान पूजा करना।

'ठकुरी बाबा' संस्मरण का सार एवं मूल-संवेदिा

'ठकुरी बाबा' संस्मरण का आरं भ में एक तदन अचानक से महादे वी वमाय के मन में एक माह का कल्पवास
करने का तवचार आिा है और वो अपनी सहातर्का-सहर्ोगी भस्थिन से इसकी िैर्ारी करने का आदे श दे िी

है। भस्थिन नाराज होकर कहिी है , "कल्पवास की उम्र आई िो वह भी हो जाएगी। क्ा एक ही तदन में सारे
तनर्म-धमय खत्म करने का संकल्प तलर्ा है ?" महादे वी जी कोई जवाब न दे कर सभी जरूरी चीजों को इकट्ठा

करके पूरी िैर्ारी के साथ संगम िल पर समुद्रकूप के पास पहुाँचिी है। वहााँ वह मिाहों से एक साधारण
और सुतवधाजनक पणयकुटी बनवािी है। तजसमें एक कोठरी पढ़ने-तलखने के तलए, एक कोठरी गृहिी के

सामान के तलए, एक कोठरी बैठकखाना र्ानी मेहमानों के तलए, एक कोठरी चूल्हा-चौका के तलए बनार्ी
जािी है। इस कल्पवास में चहुाँ -ओर पणयकुतटर्ों का सागर िैला हुआ है।

संक्रांति से एक तदन पहले शाम को, ग्रामीण र्ातत्रर्ों का एक समूह एक बूढ़े व्यस्थि के नेिृत् में महादे वी वमाय
की झोपडी के बरामदे में आिा है। महादे वी जी से बूढ़े व्यस्थि ने तवनम्रिा से पूछा, "तबतटर्ा रानी, क्ा हम

परदे तसर्ों को ठहरने की जगह तमल सकिी है ? हम बहुि दू र से पैदल आए हैं। र्हााँ ठहरने की जगह नहीं
तमल रही है। अब दीर्ा-बािी का समर् हो गर्ा है , कहााँ जाएाँ ?" उनकी बाि सुनकर महादे वी वमाय ने कहा,

"आप र्हीं ठहरें बाबा।"

वह शाम को सभी लोगों को नहीं दे ख पाईं, लेतकन सुबह संक्रांति स्नान से लौटकर दे खा िो वृद्ध ने बरामदे में
सामान िैला तलर्ा था और बाकी लोग दू सरे कमरे में बस गए थे व कुटी में भीड जमा हो गई थी। उन सभी

का रूप और हालाि बहुि ही कारुतणक और दर्नीर् थे।

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ग्रामीण यातत्रयों का वणमि

• उस भीड में एक सूरदास थे तजनके चेहरे पर चेचक के दाग थे , श्याम-वणय िथा और शरीर कमजोर था

और वह मंजीरा बजािे थे। वही पर एक प्रौढ़ व्यस्थि तिलक लगार्े एक एक मोटे व खुरदु रे कपडे पर
रं गीन तपटारी खोले बैठा था व वही दू सरी ओर दो तकशोर बालक अनेक छे दों वाले काले कंबल में तसकुडे

बैठे थे। इस कमरे के बाहर एक दु बले शरीर वाला अधेड व्यस्थि, तजसके मुख पर झुररय र्ों का ढे र और
कीचड से भरी हुई बेवाइर्ों (िटी एतडर्ां ) वाले पैर थे वो एक पुरानी छे दों वाली चादर में अपने कंकालशेष

ढााँचे को तछपाए धूप ले रहा था।


• स्थस्त्रर्ों की आतथयक स्थिति और भी तचंिनीर् थी। दो वृद्ध स्थस्त्रर्ााँ जाप के तलए ठं डी ज़मीन पर बैठीं थीं।

उनमें एक मुंतडि-मुंड स्त्री थी तजसके पैरों में कसे हुए गोल तचकने कडे और हाथ में चााँदी की एक-एक
चपटी चूडी थी जो उसकी श्रृंगारतप्रर्िा की तनशानी थी। दू सरी स्त्री के गले में काले धागे में दो बडे -बडे

मनके (रुद्राक्ष) की माला लटकी हुई थी, जो आभूषण परं परा के पालन के रूप में थे।
• एक वृद्ध-स्त्री की हालि ऐसी थी तक उसकी आाँ खें धुंधली थीं, उसकी नाक ठु िी पर झुकी हुई थी और

उसके चेहरे के भाव में एक दु खद उदासीनिा थी। दू सरी स्त्री अपनी छोटी काली आाँ खों को घुमाकर
और अपनी छोटी नाक के गोल नथनों को िुलाकर चारों ओर तबखरे हुए खाद्य पदाथों के रूप-रस-गंध-

शब्द की खोज-खबर ले रही थी।


• एक स्त्री ने महादे वी वमाय का तवशेष रूप से ध्यानाकतषयि तकर्ा जो िटे -पुराने कपडे संभल रही थी,

तजसने लाल तकनारी की मटमैली धोिी को नाक िक खींचकर घूाँघट कर रखा था। इसके हाथ की मोटी
कच्ची शबयिी रं ग की चूतडर्ााँ और पााँव के कुछ ढीले -पिले कडे िथा दो-दो तबछु वे उसकी तभन्न और

तवशेष सामातजक स्थिति का पररचर् दे िे थे। घूाँघट से बाहर तनकले मुख के अंश की बेडौल चौडाई और
व्यि तकर्ा हुआ सौम्य भाव दे खकर न आाँ ख उसे सुंदर कहिी थी और न मन उसे कुरूप मानिा था।

• एक श्यामांतगनी र्ुविी लहाँ गा पहने हुए बाहर बालू में गड्ढे खोद-खोदकर चूल्हा बना रही थी। उसका
मुख लंबा, रूखा, और हतिर्ों से भरा हुआ था तजसमें छोटी नथ पहनी हुई थी। उसके सिेद बूट वाले

लाल लहं गे का काला तकनारा कई जगह से िटा हुआ था व पीली पुरानी ओढ़नी से तदखाई दे ने वाला
उसका कमजोर शरीर िेजी से रे ि हटाने में लगा हुआ था।

• बच्चों की हालि िो और भी दर्नीर् थी। वृद्ध-र्ुवा स्थस्त्रर्ों के पास में वहीं एक ओर दो सााँवली लडतकर्ााँ
थीं तजनके गोल चेहरों पर लटकिी उलझी, रूखी और मैली लटें मानो दररद्रिा की कथा कह रही हों व

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दू सरी ओर िटी दरी के टु कडे पर एक काली-कलूटी बातलका िटा और िंग कुिाय पहने सो रही थी।

लेतकन सदी और नींद के संघषय की िीव्रिा में वो बीच-बीच में कााँप उठिी थी।
• एक अन्य बालक खंभे के सहारे बैठा हुआ था, अपनी आाँ खें मल रहा था और रोने का नाटक कर रहा

था। कुिे के अभाव में वह एक पुराने धारीदार िौतलर्े में तलपटा हुआ था। बालक भूखा होने के कारण
ऊपर लटके घी के बियनों और नीचे रखी भोजन की पोटली को दे खकर रो रहा था। वही पास में रखी

मैली चादर की तसकुडन र्े बिा रही थी तक सोने वाले ने ठं ड से गठरी बनकर राि काटी थी।

कल्पवास के दौरान महादे वी वमाय की ठकुरी बाबा से दू सरी मुलाकाि हुई िो वे बाबा की चाररतत्रक
तवशेषिाओं को दशायिी है , ठकुरी बाबा जो तिल के लड् डू, घी, आम का आचार, दही इत्यातद आतद महादे वी

वमाय को दे ने के तलए लाए थे, उनके मना करने पर भी उनकी थाली में डाल दे िे है और इसी तदन से महादे वी
का ग्रामीण लोगों के साथ अच्छा संबंध िातपि हो गर्ा।

महादे वी वमाय जब सुबह र्ूतनवतसयटी के तलए जािी है र्ा वहााँ से लौटकर आिीं िो जलपान की सुतवधा न होने

पर र्े ग्रामीण लोग उसे पूरा करिे थे। महादे वी वमाय के पणयकुटी आिे ही ग्रामीण लोग उनके तलए तवतभन्न
स्वातदष्ट और नए व्यंजन लेकर आ जािे थे, जैसे- बाजरे का दतलर्ा और दू ध, छोटी थाली में सिू, गुड र्ा पुए,

मुरमुरे चने र्ा भुने शकरकंद आतद। महादे वी इसे पंचार्िी कहिी है क्ोंतक सभी व्यस्थि उनके तलए अपने-
अपने चौके में से कुछ-न-कुछ बचाकर ले आिे थे व प्रेम भाव व अपनेपन से उन्े खाने के तलए पूछिे थे

जैसे- "दीदी, थोडा सा चख लो", "तबतटर्ा रानी, अगर आप छू भी दे िीं, िो मेरा तदल खुश हो जािा", "दीदी,

अगर आप थोडा सा चख लेिीं, िो र्ह सब व्यथय नहीं जािा"। इस प्रकार के अनुरोधों को अस्वीकार करना
उनके तलए मुस्थिल होिा था।

• कल्पवासी तदन में एक ही बार खािे हैं , और माघ महीने की ठं ड में भी आग न िापने के तनर्म का सख़्त

पालन करिे हैं। इसके पीछे दो मुख्य कारण होिे हैं - एक िो लकडी और अन्न की कमी और दू सरा
िपस्या की परं परा का पालन करना। सच्चे कल्पवासी अपने और आग के बीच में इिना अंिर बनाए

रखिे थे तजससे उनका धमय और कमय प्रभातवि न हों लेतकन महादे वी आग जलाकर चारपाई पर बैठकर
आग सेकिीं रहिी थीं।

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ठकुरी बाबा का जीवि

ठकुरी बाबा भाटवंश में जन्मे थे , जहां कतविा और सातहत्य उनकी तवरासि का तहस्सा था। उनका कतव-

स्वभाव उनके पररवार से तमला हुआ गुण था। उनके तकसान तपिा में तवशेष प्रकार की कतविा तलखने की
कला थी। उनके तपिा ने दो तववाह तकए थे।

पहली पत्नी से दो पुत्र थे, तजन्ें तपिा ने नीतिशास्त्र में कुशल बनार्ा व उनमें भावुकिा तबिुल भी नही थी।

पत्नी की मृत्यु के बाद, दू सरे तववाह से ठकुरी का जन्म हुआ लेतकन ठकुरी के जन्म के बाद उस स्त्री (ठकुरी
बाबा की मााँ ) का भी असामतर्क तनधन हो गर्ा। दू सरी पत्नी के प्रति तवशेष स्नेह के कारण तपिा िारा ठकुरी

को कौतटल्य बनाने का संकल्प तलर्ा गर्ा तकन्तु तशक्षा के कठोर भार के कारण तपिा भी तशक्षा का भार
अपने बडे पुत्रों पर छोडकर दु तनर्ा से अलतवदा हो गए।

ठकुरी के बडे भाई-भाभी बहुि कठोर और स्वाथी और 'सौिेले भाई बडे और गृहिी वाले थे, इसी से घर-
िार सब उन्ीं के अतधकार में रहा और छोटा भाई (ठकुरी) को चाकरी के बदले में भोजन-वस्त्र तमलिे थे।

बडे भाइर्ों ने जब लंबे समर् िक ठकुरी का तववाह नहीं तकर्ा, िो लोग उनको अतववातहि रखने पर
तटप्पतणर्ााँ करने लगे। िब एक सुशील बातलका से ठकुरी का तववाह करा तदर्ा गर्ा और भौजाइर्ों ने नर्ी

दे वरानी को सेवाधमय की तशक्षा दे ना शुरू तकर्ा। इस िरह घर में चाकरी करने वाले अब दो लोग हो गए।
लेतकन प्रेम और तनकटिा बढ़ने की बजार्, जेठातनर्ााँ चुग़तलर्ों के जररए दोनों के तदलों में नफ़रि का ज़हर

घोलने लगीं। दोनों में दू ररर्ााँ बढ़ने लगीं और दोनों ही भाई-भौजाइर्ों के शोषण के तशकार बनिे रहे।

कुछ समर् बाद ठकुरी की पत्नी ने एक कन्या को जन्म तदर्ा व कुछ समर् बाद उनकी पत्नी का तनधन हो
गर्ा। उन्ोंने अपनी बेटी की दे खभाल के तलए अलग घर की व्यविा की और अपनी बूढ़ी मौसी को गााँव से

ले आए, तकंिु बेला की दे खरे ख वे स्वर्ं करिे थे। उसे पीठ में लादकर काम करिे थे। जब वह छह-साि वषय
की हो जािी है िो उसकी सगाई अनाथ काव्यप्रेमी से शादी करवा दे िे है व उसे काम-काज सीखािे है तकन्तु

तशक्षा पूरी होिे ही उनके दामाद को चेचक रोग हो जािा है । इस स्थिति में ठकुरी ने बेला से पूछा िो उसने
बचपन के इस साथी को छोडने से मना कर तदर्ा। अब कतव ससुर (ठकुरी), उसकी बूढ़ी मौसी, अंधा दामाद

और रूपसी बेटी (बेला) एक तवतचत्र पररवार बन गर्ा। ठकुरी बाबा ने अपने दामाद को काव्य-गीि की पूरी
तशक्षा दी। ठकुरी बाबा का दु ख उनका साथ नहीं छोडिा है।

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ठकुरी बाबा एक संपन्न खेतिहर व्यस्थि थे। उनके पास घर में एक मुराय भैंस , दो पछाही गार्ें और एक हल

की खेिी थी तजससे जीवनर्ापन में कोई तवशेष समस्या नहीं थी। ग्रामीण व्यस्थि धातमयक होिा है , र्ह पररवार
हर वषय माघ मेले के अवसर पर गंगा िट पर कल्पवास करके पुण्य कमािा है और इनके साथ गााँव के अन्य

लोग भी वहााँ आ जािे हैं।

र्ह दल एक अनोखा और तवतवधिा से भरा हुआ समूह है , तजसमें हर कोई अलग-अलग कामों और मुद्राओं
में व्यस्त है। ठकुरी बाबा की बेटी बेला भोजन की िैर्ारी के तलए चूल्हा बनाने में व्यस्त है। उनका जमाई

तचकारा मंजीरे और डिली बजािे हुए सपनों में खोर्ा हुआ है। मौसी घी की हाँतडर्ा और काशीिल के बीच
बैठकर सांसाररक और आध्यास्थत्मक समस्याओं का समाधान करने में लगी है। र्ह सभी ठकुरी बाबा का

पररवार बना और अन्य व्यस्थि तवतभन्न वगों और जातिर्ों का प्रतितनतधत् करिे हुए एक साथ है।

महादे वी वमाय शोर-शराबे से दू र रहकर शांतितप्रर् जीवन जीिी थीं। एक तदन ठकुरी बाबा ने उनसे प्रेमपूवयक
कहा तक उनकी कुतटर्ा में भी एक बार भजन हो जाए िो अच्छा होगा। भजन-कीियन में शातमल होना महादे वी

के तलए सहज नहीं था, लेतकन ठकुरी बाबा के तवनम्र तनवेदन को दे खकर महादे वी ने 'हााँ ' कह दी। भजन के
तलए तदन िर् हो गर्ा और कुतटर्ा के बरामदे में सभी लोग एकतत्रि हो गए।

संध्या के समर्, एक छोटे से गमले में भगवान की मूतियर्ों को िातपि करके उनका पूजन तकर्ा गर्ा। भिों
ने भजन-कीियन तकर्ा और उन्ोंने अपने दे विाओं का सिान तकर्ा। सभी ने एक साथ तमलकर पूजन तकर्ा।

उन्ोंने भजन सुना, पूजा की और ध्यान तकर्ा। महादे वी जी कहिी है तक कृष्ण के जीवन में साधारण व्यस्थिर्ों
को इिना अपनापन क्ों तमलिा है ? इस प्रश्न का उिर उस तदन के भजन-कीियन में सहज ही तमल गर्ा जो

कही और तमलना कतठन था। भजन समाि होने के बाद सभी लोग वहीं बरामदे में अपने-अपने तबछौनों पर
सो गर्े। महादे वी वमाय तचंतिि हो रही थीं तक ऐसा क्ों होिा है तक इन साधारण लोगों के गुणों को लोग अतधक

महत् नहीं दे िे, जबतक वे ही सच्चे जीवन के असली जानकार होिे हैं ।

ठकुरी बाबा बहुि दर्ालु और तमलनसार व्यस्थि थे। ठकुरी बाबा ने कई माघ मेलों में महादे वी वमाय को दे खा
और उनसे मुलाकाि की और कई बार ठकुरी बाबा ने उनका स्वागि स्थखचडी, बाजरा पुए आतद पकवानों से

तकर्ा और कई बार अपने जीवन की कहानी सुनाई।

ठकुरी बाबा दो साल से माघ मेले में नहीं आ रहे थे। तपछली बार जब वे आए थे , िो वे कमजोर लग रहे थे।
उनके हाथ और पैर कााँप रहे थे िथा गले में पहले जैसी लोच नहीं थी। व्यस्थि समर् के सामने तकिना तववश

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है। इस भेंट में पिा चला था तक उनकी मौसी अब इस संसार से तवदा ले चुकी है। मौसी ठकुरी बाबा के जीवन

का स्वाभातवक तहस्सा थीं। उनके अभाव की अस्वाभातवकिा ने उन्ें हृदर् से तहला तदर्ा था। मौसी के जाने
के बाद ठकुरी बहुि टू ट गर्े थे। अब वे बहुि तचंतिि रहने लगे थे। वे सोचिे थे तक मौसी की िरह ही एक

तदन मैं भी बेला से तबछड जाऊाँगा िब उनके जाने के बाद बेला का क्ा होगा?

इस आत़िरी भेंट में ठकुरी बाबा से स्वास्थ्य के बारे में पूछने पर महादे वी को जवाब तमला तक, 'अब चला
चली कै तबररर्ा तनर्रार् आई है तबतटर्ा रानी! पाके पािन की भली चलाई। जौन तदन झरर जाएाँ िौन तदन

सही।' जब महादे वी वमाय हाँ सी में कहिीं तक, 'िुम स्वगय में कैसे रह सकोगे बाबा! वहााँ िो न कोई िुम्हारे कूट
पद और उलटबांतसर्ााँ समझेगा और र्ू आल्हा-ऊदल की कथा सुनेगा। स्वगय के गंधवय और अप्सराओं में िुम

कुछ न जाँचोगे।' िो उन्ोंने प्रसन्न होकर कहा, 'सो िो हम जातनि हैं तबतटर्ा! हम उहााँ अस सोर मचाऊब तक
भगवान जी पुन धरिी पै ढनकार् दे हैं। हम तिर धान रोपब, तकर्ारी बनाउब, तचकारा बजाउब और िुम पचै

का आल्हा-ऊदल की कथा सुनाउब। सरग हमका ना चही, मुदा हम दू सर नवा सरीर मााँगै बरे जाब ज़रूर।
ई ससुर िौ बनार् कै जरजर हुइगा' और वे गा उठे -चलि प्रान कार्ा काहे रोई राम।

इस आत़िरी भेंट में ठकुरी बाबा से स्वास्थ्य के बारे में पूछने पर महादे वी को जवाब तमला तक “उनके दु तनर्ा

से दू र जाने की बारी आ गई है”, तजसका जवाब महादे वी वमाय हाँसकर दे िी है तक, “िुम स्वगय मे कैसे रह
सकोगे बाबा”, दोनों की बािचीि के अंि में बाबा कहिे है तक मैं स्वगय मे भी गाऊाँगा और वे गा उठे – चलि

प्रान कार्ा काहे रोई राम। (इस पंस्थि का संबंध मानव जीवन के दु खों से है ।)

तिष्कषम

महादे वी िारा रतचि ठकुरी बाबा संस्मरण ने उनकी अतििीर् व्यस्थित् की झलक दी है । उनकी संस्कृति,

साधना, और समर् के प्रति गहरा ध्यान हमें जीवन के मूल्य को समझािे हैं। उनकी दृढ़िा और अनूठा
दृतष्टकोण हमें समर् का महत् समझािे हैं। र्ह कथा हमें आत्म-समीक्षा और जीवन की सामान्य बािों को

समझने के तलए प्रेररि करिी है।

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प्रश्न 7- 'ठकुरी बाबा' की चाररतत्रक तवशेषिाएँ बिाइए।

उत्तर - पररचय

'ठकुरी बाबा' महादे वी वमाय िारा रतचि संस्मरण है ।


महादे वी वमाय ने इसके माध्यम से ग्रामीण समाज के उस

तहस्से की सामातजक दशा का वास्ततवक तचत्रण तकर्ा है ,


जो जीने के तलए जरूरी बुतनर्ादी संसाधनों से भी वंतचि

है। लेतकन इसके बावजूद उनमें गहरी मानविा, करुणा,


जीवन का रं ग और मेहनि करने की क्षमिा मौजूद है। ठाकुर बाबा इसी वगय का प्रतितनतधत् करिे हैं।

'ठकुरी बाबा' की चाररतत्रक तवशेषिाएँ :

1. दातयत्वबोध : दातर्त्बोध ठकुरी बाबा की ऐसी तवशेषिा है तजसमें पत्नी की मृत्यु के बाद वह अपनी बेटी
बेला को मौसी को सौंपने के बजार् खुद उसकी दे खभाल करिे है । वह उसे पीठ पर लादकर सारा काम

करिे थे जो उसकी बेटी के तलए उसके प्यार और उिरदातर्त् को दशायिा है । बेला के तलए ठकुरी बाबा
उसके तपिा व मािा दोनों की भूतमका तनभाई। ठकुरी बाबा बेसहारा लोगों की रक्षा करिे थे। वह अपनी बूढ़ी

मौसी को गााँव से ले आिे है और एक अनाथ बच्चे को अपनाकर अपनी बेटी के साथ उसकी सगाई करवािे
है व उसे अपना कामकाज सीखािे है ।

2. सादगी और तविम्रिा : ठकुरी बाबा का सादगी भरा जीवन और तवनम्रिा उनके स्वर और व्यवहार में
स्पष्ट झलकिा है। महादे वी वमाय के कमरे में प्रवेश करने से पहले उनका 'तबतटर्ा रानी, का हमहाँ आर् सतकि

है?' कहना उनकी तवनम्रिा और सिान को दशायिा है।

3. आत्मीयिा और स्नेह : ठकुरी बाबा में आत्मीर्िा और स्नेह की गहन भावना थी। उन्ोंने महादे वी वमाय
को तिल का लड् डू, घी, आम का अचार और दही दे ने के तलए बार-बार आग्रह तकर्ा और उनके मना करने

पर भी अपनी चीजें उनकी थाली में डाल दीं।

4. संिोषी स्वभाव : ठकुरी बाबा का स्वभाव संिोषी था क्ोंतक वे अपनी आतथयक बदहाली और कतठनाइर्ों
के बावजूद जीवन में संिुष्ट रहिे थे। उन्ोंने अपने काव्य-प्रेम और गीि-संगीि को अपनी प्राथतमकिा बनाई,
जो तक वह वह-वाही पाने के तलए तकर्ा करिे थे परं िु इसे जीतवका का साधन बनाने की कोतशश नहीं की।

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5. शारीररक और माितसक अवस्था : ठकुरी बाबा के तसर का अग्रभाग खल्वाट और पीछे के सिेद केश

उनके जीवन के कतठनाइर्ों और अनुभवों का संकेि दे िे हैं। उनकी छोटी आाँ खों में तवषाद, तचंिन और ममिा
का सस्थितश्रि भाव उनकी मानतसक अविा को दशाय िा है । शरीर की दु बयलिा और कुछ झुककर चलने के

कारण उनकी लंबाई पर ध्यान नहीं जािा, तजससे उनकी शारीररक अविा का भी पिा चलिा है।

6. ग्रामीण पररवेश और साधारणिा : ठकुरी बाबा का हुतलर्ा और पररधान एक साधारण ग्रामीण वृद्ध का
था। नंगे पााँव और घुटनों िक ऊाँची धोिी पहने , वह साधारण ग्रामीण जीवन जीिे हुए भी महादे वी वमाय के

तलए तवशेष हो गए। उनके रूप-रं ग और हुतलए में साधारणिा और ग्रामीण पररवेश का प्रभाव स्पष्ट तदखिा
है।

7. उदार और सेवाभावी : ठकुरी बाबा की एक मुख्य चाररतत्रक तवशेषिा उनका उदार और सेवाभावी

स्वभाव है। वे सरल, तवनम्र, सज्जन और भावुक व्यस्थि थे, जो हमेशा दू सरों की मदद करने के तलए ित्पर
रहिे थे। वे हर तकसी को अपना अतितथ मानिे थे और तबना तकसी संकोच के अपनी चीजें बांटिे थे। दू सरों

को कुछ दे ने में उन्ें तवशेष प्रकार की आनंदानुभूति होिी थी, और वे स्वर्ं पूछ-पूछकर इस तवतनमर् व्यापार
को बढ़ावा दे िे थे।

उदाहरण के तलए, ठकुरी बाबा से कोई थोडी सी घी दे कर लोटा भर दू ध चाहिा है और कोई केवल चार
तमचों के बदले आलू-शकरकंद का िलाहार ले लेिा था।

8. सहृदय और तमलिसार : ठकुरी बाबा बडे ही सहृदर् और तमलनसार व्यस्थि थे, जो अपने कुटुं ब-कुनबे

के साथ बसंि-पंचमी के स्नान के समर् माघ मेले में आिे थे और महादे वी वमाय से तमलिे थे। उनके स्नेह -
दु लार और आतिथ्य से र्ह स्पष्ट होिा है तक वे दू सरों के साथ बहुि ही आत्मीर्िा और प्रेम से पेश आिे थे।

उनके िारा महादे वी वमाय का स्थखचडी, बाजरे के पुए आतद व्यंजनों से सत्कार करना और अपने जीवन का
आख्यान सुनाना भी उनकी तमलनसाररिा और सहृदर्िा को दशायिा है ।

तिष्कषम

महादे वी वमाय के इस तनबंध के अनुसार ठकुरी बाबा एक सहृदर्, तमलनसार, और दातर्त्बोध से पररपूणय
व्यस्थि थे, तजनमें गहरी मानविा, करुणा और संिोषी स्वभाव था। वे अपनी बेटी की दे खभाल कर अपने

उिरदातर्त् को तनभािे थे। उनका सादगी भरा जीवन, तवनम्रिा, और दू सरों की मदद करने की ित्परिा
उनकी महानिा को दशायिा है।

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प्रश्न 8- 'वैष्णव जि' की तकि ित्वों के आधार पर समीक्षा की जा सकिी है ?

उत्तर - पररचय
वैष्णव जन तो
"वैष्णव जि” एकांकी तवष्णु प्रभाकर िारा तलखा गर्ा ध्वतन रूपक
तेने कहिए
है, तजसमें में सत्य, प्रेम, और सच्चाई के माध्यम से मानविा को प्रेररि
तकर्ा जािा है। र्ह र्ुवा पीढ़ी को नैतिक मूल्यों के प्रति जागरूक

करिा है। इसमें संगीि, भावुकिा, और सादगी का प्रर्ोग होिा है जो


दशयकों को अपनी ओर आकतषयि करिा है । र्हााँ , कथावस्तु, पात्र

चररत्र-तचत्रण, संवाद र्ोजना, संकलन त्रर्, भाषा शैली, और उद्दे श्य जैसे छ: िि एकांकी की महत्पूणय ित्
हैं। "वैष्णव जि" सादगी और भावुकिा के माध्यम से मानविा के अतििीर्िा को प्रकट करिा है ।

'वैष्णव जि' की छः ित्वों के आधार पर समीक्षा की जा सकिी है :

1. कथावस्तु

“कथावस्तु वह िि है तजस पर तकसी एकांकी की भव्य इमारि खडी की जािी है र्ातन कहानी का ढांचा।“

िेमीचंद जैि एकांकी के कथानक अथवा कथावस्तु के संबंध में कहिे हैं तक एकांकी की रचना में साधारणिः

कथानक को सबसे महिपूणय अंग माना जािा है। कथानक मूलिः वह घटना तवन्यास है , तजसके िारा एकांकी
की भाव वस्तु को रूप तमलिा है।

• कथानक इतिहास, पुराण, धमय, लोक-गाथा, समाज, राजनीति, मानवीर्-भावना, जीवन-चररत्र र्ा कोई

प्रचारात्मक तवषर् कहीं से भी तलर्ा जा सकिा है ; तकंिु वह वास्ततवक जीवन से संबंतधि हो।
• कथानक में उिेजना, रोचकिा और तवस्मर् के गुण अवश्य वियमान हों। इसके अतिररि वह मनमाने
ढं ग से गढ़ा न जाए, उसका तनतश्चि प्रारं भ, तवकास और अंि हो।

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• कथानक से ही पात्रों के चररत्र का तवकास होिा है , उसमें स्वाभातवकिा िथा तवश्वसनीर्िा का भाव अवश्य

रहना चातहए।

'वैष्णव जन' में तवष्णु प्रभाकर प्रभाकर जी ने र्ुवा शस्थि को नैतिक मूल्यों के प्रति प्रेररि करने का प्रर्ास
तकर्ा है। कथानक की र्ह समस्त तवशेषिाएाँ तवष्णु प्रभाकर की आलोच्य एकांकी/ध्वतन रूपक वैष्णव जन'

में सहज ही दे खी जा सकिी हैं। इस प्रकार इस एकांकी की कथावस्तु का सुगतठि, सशि और प्रभावी रूप
सहज ही दे खा जा सकिा है ।

2. पात्र चररत्र-तचत्रण

एकांकी में पात्रों का तवशेष महि है। पात्र के माध्यम से कथानक का वास्ततवक स्वरूप प्रस्तुि तकर्ा जािा
है। कथानक चररत्र तचत्रण के तवकास में सहार्क नहीं होिा लेतकन चररत्र तचत्रण के माध्यम से कथानक का

तनमायण तकर्ा जा सकिा है । अिः एकां कीकार अपने पात्रों का चुनाव इस प्रकार करिा है तक कथानक में
रोचकिा आ जािी है ।

डॉ. रामकुमार वमाम घटना से अतधक शस्थिशाली पात्र को मानिे हैं ; पर एकांकी में पात्र सीतमि रखे जािे हैं

क्ोंतक एकांकी अपने संतक्षि आकार में अतधक मात्रा को समेट नहीं सकिी।

• पात्र आकषयक होने चातहए। उसमें तवश्वसनीर्िा िथा मनोवैज्ञातनकिा, स्वाभातवकिा िथा सजीविा होनी
चातहए।

• इसके अतिररि उसमें संघषयशीलिा िथा पररवियनशीलिा होनी चातहए।

• तकसी भी उपन्यास, कहानी, नाटक, एकां की आतद में पात्रों की अपनी भूतमका होिी है। पात्र जहााँ कथा
को आगे बढ़ािे हैं वही रोचकिा और सजीविा का गुण भी िातपि करिे हैं ।

'वैष्णव जन' एकांकी पात्र चररत्र की दृतष्ट से एक सिल एकांकी है तजसमें पात्रों की सीतमि संख्या है।

पात्रों के दो प्रकार के होिे हैं -

1. वगमगि पात्र : वगयगि पात्र अपने वगय का प्रतितनतधत् करिा है।


2. व्यखिगि पात्र : व्यस्थिगि पात्र व्यस्थिगि भाव, तवशेषिाओं से र्ुि होिा है ।

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3. संवाद-योजिा

संवाद नाटक का आधारभूि िि है । अन्य तवधाओं की िुलना में र्ही नाटक/एकां की का तवतशष्ट िि है और

इसी के माध्यम से नाटक/एकांकी स्वर्ं दशयकों/श्रोिाओं के समक्ष आिी है ।

• नाटक/एकांकी में संवाद कथा को आगे बढाने का कार्य करिे हैं। उसे उद्दे श्य िक ले जाने में सहार्क
होिे हैं , पात्रों का चररत्र तचत्रण करिे हैं व उनके मनोभावों को व्यि करिे हैं।

• संवादों का संतक्षि, सरल, प्रभावी, प्रवाही और पूणय होना भी आवश्यक है ; िभी वह दशयक/श्रोिा को बााँधे
रखने में सिल हो सकिे हैं ।

• अच्छे संवादों में संवाद का छोटा होना, चुस्त होना, चटु ल होना, पात्रानुकूल होना, संदभायनुकूल होना माना
जािा है। र्ही संवाद रोचकिा और सजीविा का गुण भी लािे हैं।

आलोच्य एकांकी 'वैष्णव जन' एक ध्वतन रूपक होने के कारण ध्वतन पर ही संवाद का प्रभाव तटका होिा है।
रे तडर्ो/ध्वतन रूपक में संवाद िथा घटनाओं का वणयन संतक्षि होिा है। इसमें घटनाओं की प्रमुखिा होिी है।

'वैष्णव जन' में संवाद इस दृतष्ट से सिल तदखाई दे िे हैं ।

4. संकलि त्रय

एकांकी में संकलन त्रर् का खास ध्यान रखा जािा है। इसका अथम है - िान संकलन, काल संकलन और
कार्य अस्थन्वति।

• स्थाि संकलि से अतभप्रार् र्ह है तक नाटक का संपूणय कथानक एक ही िान पर घतटि होना चातहए।
• काल संकलि से अतभप्रार् र्ह है तक तजिना समर् नाटक के अतभनर् के तलए िर् तकर्ा गर्ा है , उिने
ही समर् में घटना का कथानक पूरा होना चातहए, र्ह नहीं तक रं गमंच पर दो घंटे के अंिराल में िीस
सालों की घटनाओं को तदखा तदर्ा जाए।

• कायम अखिति से आशर् र्ह है तक कथानक की समानिा बनी रहे अथायि कथानक में एक ही कथावस्तु
के तवतभन्न अंग वास्ततवक रूप से एक-दू सरे से जुडे हुए हो।

नाटक र्ा एकां की के माध्यम से समाज में संदेश पहुंचाने का प्रर्ास तकर्ा जािा है, तजसमें संकलन त्रर्

सामातजक पररवियन को प्रभातवि करिा है, आलोच्य एकांकी में तवष्णु प्रभाकर ने इसका पूरा ध्यान रखा है।

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5. उद्दे श्य

तवष्णु प्रभाकर िारा रतचि वैष्णव जन रचना में ईश्वर प्रास्थि के उद्दे श्य को पूणय करने के तलए सत्य के सहारे

प्रेम की प्रास्थि का मागय बिलार्ा गर्ा है , इस रचना में लेखक िारा गां धी जी के माध्यम से दु :ख दू र करने के
तलए “दू सरों की सेवा” को मागय बिार्ा है, गां धी जी का मुख्य उद्दे श्य मनुष्य के दु ख-ददय को दू र करना है।

• वैष्णव जन अपराध के समथयन को ही अपराध मानिा है, तजसके तलए इस रचना में गांधी जी िारा अपने

दोषों को मानकर उनके तलए पश्चािाप को दशायर्ा गर्ा है।


• वैष्णव जन के अनुसार उद्दे श्य प्रास्थि के तलए सत्य के मागय को अपनाने पर जोर तदर्ा गर्ा है।

• दु खों को सहकर, पररवियन के तलए मागय को तदखाने वाले ही ईश्वर के सच्चे दीवाने वैष्णव जन होिे है।

6. भाषा-शैली

प्रभाकर जी िारा “वैष्णव जन” एकांकी की भाषा-शैली में सरल िथा सुबोध भाषा का उपर्ोग तकर्ा गर्ा,

तजसमें संस्कृि के ित्सम शब्दों का प्रर्ोग तकर्ा गर्ा एवं आवश्यकिानुसार आत्मकथात्मक िथा वणयनात्मक
शैतलर्ों का प्रर्ोग तकर्ा गर्ा।

• प्रभाकर जी िारा इस एकां की में जनसम्पकय की भाषा का प्रर्ोग तकर्ा गर्ा।

• भाषा के शब्दों में वैष्णव, प्रेम, अहम, वंदना, संिोष, सत्य इत्यातद शब्दों का प्रर्ोग तकर्ा गर्ा।
• आत्मकथात्मक शैली िथा वणयनात्मक शैली के माध्यम से एकांकी को प्रभावपूणय बनार्ा गर्ा।

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प्रश्न 9- तिम्नतलखिि की सप्रसंग व्याख्या कीतजए :

वैष्णव जन िो िेने कतहए जे पीड पराई जाणे रे ,

पर दु ः खै उपकार करे िोए, मन अतभमान न आणे रे ।

सकल लोकमां सहुने वंदे, तनन्दा न करे कैनी रे ,

वाच काछ मन तनश्चल राखे, धन-धन जननी िैरी रे ।

वण लोभी ने कपट रतहि छे काम क्रोध तनवार्ाय रे

मणे नरसैर्ों िेनुं दरसन करिा कुल एकोिर िार्ाय रे ।

सम दृतष्ट ने िृष्णा त्यागी पर स्त्री जेने माि रे ,

तजह्वा थकी असत्य न बोले पर धन नव झाले हाथ रे ।

मोह मार्ा व्यापै नहीं जेने दृढ़ वैराग्य जैना मनमा रे ,

राम नाम शूं िाली लागी सकल िीरथ िैना िनमा रे ।

उत्तर -

वैष्णव जि िो ..................... िीरथ िैिा ििमा रे ।

प्रसंग - प्रस्तुत पंक्तिय ाँ ‘वैष्णव जन’ नामक एकांकी से अविररि हैं । इसके रचन क र सुप्रतसद्ध तवष्णु प्रभाकर

है तजनका एकांकीकारों में सवोपरर िान हैं । इन पंस्थिर्ों के माध्यम से तवष्ण प्रभाकर जी ने वैष्णव जन के
बारे में बिार्ा है और उनकी तवशेषिाओं को उजागर तकर्ा है।

व्याख्या - तवष्णु प्रभाकर जी ने इन पंस्थिर्ों के माध्यम से वैष्णव जन के स्वरूप को स्पष्ट तकर्ा है तक वैष्णव
जन ईश्वर का वह दीवाना होिा है , ईश्वर प्रेमी होिा है ; जो अपने ईश्वर को न िो शब्द से प्राि करिा है , न

शास्त्र से। उसकी खोज िो सत्य के सहारे , प्रेम के मागय से ही होिी है। वे कहिे हैं तक वैष्णव जन अथायि ईश्वर
का सच्चा प्रेमी उसे ही समझना चातहए जो दू सरे की पीडा को, कष्ट को आत्मसाि करना जानिा हो, समझिा

हो। जो दू सरे के दु ख को दे खकर दु खी हो जाए और उसे दू र करने के तलए कमयरि हो। वे स्पष्ट करिे हैं तक
वैष्णव जन वह होिा है जो ऐसा करिे हुए मन में अतभर्ान का भाव भी नहीं लािा है। वे स्पष्ट करिे हैं तक

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वैष्णव जन वह होिा है जो लोक में सबकी वंदना करिा है अथाय ि सबके सामने नम्रिा से झुकिा है , तकसी

की तनंदा नहीं करिा है । जो मन, वचन, कमय से तनश्चल बनकर सदै व परतहि में लगा रहिा है ; अथायि वाणी से
दृढ़ रहिा है , आचरण में दृढ़ रहिा है और मन से भी दृढ़ रहिा है। वह ना िो अशांि हो सकिा है और न

अस्थिर। वह सत्य को दे ख लेिा है और तिर तनश्चल हो जािा है। ऐसे वैष्णव जन की मािा भी धन्य होिी है।
वे कहिे हैं तक वैष्णव जन वह है जो समदृतष्ट रखिा है , जो िृष्णारतहि होिा है। जो एक पत्नी व्रिधारी होिा

है, सत्य वृिपालक होिा है ; र्ानी कभी असत्य नहीं बोलिा है। दू सरों के धन पर कुदृतष्ट नहीं रखिा है। वैष्णव
वह है जो मार्ा से परे होिा है। तजसमें वीिराग का भाव होिा है। जो राम नाम में ििीन होिा है । तजनके

रोम-रोम में सारे िीथय समार्े होिे हैं। ऐसी पतवत्रात्मा ही वैष्णव जन है।

तवशेष-

1. प्रभाकर जी ने ऐसी भाषा का प्रर्ोग तकर्ा है जो सबके तलए सुबोध और सरल है ।

2. गुजरािी और उदू य के शब्दों का प्रर्ोग तकर्ा गर्ा हैं ।

3. संस्कृि के ित्सम शब्दों का प्रर्ोग तकर्ा गर्ा है ।

अथवा

साधु मन का मैल त्यागो।

काम क्रोध संगि दु जयन की िािे अहतनयश भागो।

सुख दु ख दोनो सम करर जानै और मान अपमाना।

हषय शोक से रहे अिीिा, तिन जग िि तपछाना।

जन नानक र्ह खेल कतठन है , बोल गुरमुख जाना।

उत्तर -

प्रसंग - प्रस्तुि पंस्थिर्ााँ ‘वैष्णव जन’ नामक एकांकी से अविररि हैं जो तवष्णु प्रभाकर िारा तलखी गई हैं।

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व्याख्या - तवष्णु प्रभाकर ने गार्क के मुाँह से र्ह वाणी व्यि करवाई है , तजसमें वे सज्जनों को संबोतधि

करके बिाना चाहिे हैं तक हमें मन का मैल त्यागना होगा। काम, क्रोध छोडना होगा और दु जयनों की संगि से
तदन-राि दू र रहना होगा। सुख-दु ख, मान-अपमान दोनों को समान भाव के रूप में स्वीकारना होगा। नानक

दे व जैसे संि भी र्ही संदेश दे रहे हैं तक संसार में मनुष्य के तलए र्ह करना अत्यंि कतठन है , पर मनुष्य बनने
के तलए र्ह अतनवार्य है। र्ह बाि ज्ञानी जानिे हैं। अिः मनमुखों से दू र रहिे हुए गुरमुखों की शरण में जाना

होगा।

तवशेष-

1. प्रभाकर जी ने ऐसी भाषा का प्रर्ोग तकर्ा है जो सबके तलए सुबोध और सरल है ।

2. गुजरािी और उदू य के शब्दों का प्रर्ोग तकर्ा गर्ा हैं ।

3. संस्कृि के ित्सम शब्दों का प्रर्ोग तकर्ा गर्ा है ।

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प्रश्न 10- ‘शायद’ एकांकी का प्रतिपाद्य तलखिए।

उत्तर - पररचय

'शार्द' नामक एकांकी तजसे नाट्य प्रर्ोग की दृतष्ट से मोहन राकेश

ने बीज नाटक कहा, अपने आप में एक नई तवधा है। आज के


भागदौड वाले समर् में प्रत्येक व्यस्थि व्यस्त जीवन जीने को मजबूर

है। प्रकृति िथा आसपास के अन्य व्यस्थिर्ों के तवषर् में जानना िो


दू र, वह अपने आप से भी अपररतचि होिा चला जा रहा है। व्यस्थि

का लक्ष्य केवल अथयप्रास्थि (धन) रह गर्ा है और भावना िथा तववेक से वह शून्य होिा जा रहा है। जो व्यस्थि
इस भागदौड में हटकर अतधक साथयक जीवन चाहिा है , वह तनराशा और िनाव का सामना करिा है ।

मध्यवगीर् पररवार की तवडं बना को मूल आधार मानकर मोहन राकेश ने इस एकां की की रचना की है।

‘शायद’ एकांकी का प्रतिपाद्य

मध्यवगीर् पररवार का एक साधारण घर है , तजसमें पति और पत्नी तनवास करिे हैं। र्े दोनों केवल पुरुष और

स्त्री बनने को तववश हैं। दोनों ही तववाह के कुछ ही वषों में जीवन की नीरसिा, अकेलेपन, अथयहीनिा (धन
की कमी), ऊब, घुटन से बुरी िरह त्रस्त (परे शान) हैं। अथय का अभाव उनको बुरी िरह सिािा है। इसतलए

अभाव पीतडि होकर तनराश िथा असहार् जीवन तबिाना इनकी तनर्ति (भाग्य) बन जािी है।

• एकांकी के प्रारं भ में स्त्री िािे की मेज़ पर से जूठी प्लेटें हटािे हुए पुरुष से पूछिी है - तिर सोचने

लगे? पर डर े तसंग गाउन हाथ डाले तकसी अन्य तदशा की ओर दे ख रहा है , तिर स्त्री पुरुष से दु बारा पूछिी
है परिु वह तिर भी अन्य तदशा की और दे खिा रहिा है । पुरुष आँ िें झपकािे हुए कहिा है - 'नहीं!'

परं िु र्हााँ 'नहीं' का मिलब 'हााँ ' से है। इस िरह इनके जीवन में बहुि सारे 'ना' और 'हााँ ' एक दू सरे में
पररवतियि होिे रहिे हैं।

• पुरुष का टहलने में मन नहीं लगिा है। रोज शाम को खाना खािे समर् पुरुष का मन उदास हो जािा
है। वैसे दोनों के मन में अभाव और छटपटाहट है। स्त्री, पुरुष को मन बहलाने के तलए सूरि जाने की

सलाह दे िी है लेतकन पुरुष सोचिा है तक कहीं भी जाकर क्ा होगा ? सब जगह एक-सी हैं।
• स्त्री को बार-बार हाथ का एक्जीमा (त्चा रोग) सिािा है जो तिर से उभर आर्ा है। पुरुष को उसके
तमत्र दे व के िबादले से उदासी महसूस हो रही है । उसे अपनी कमीज़ में टं गा हुआ पेन भी नहीं तमलिा

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तजसका उपर्ोग वह रोज़ करिा है। कभी वह कहिा है तक- जाने क्ा बाि अभी तदमाग़ में आई थी ...

अचानक गार्ब हो गई। उसे कई बािें र्ाद रहिी हैं पर स्त्री के तलए दवाई लाने की बाि र्ाद नहीं रहिी।
वह अतधकातधक सोचिा ही रहिा है।

• पुरुष एक बार वह पहाड पर जाने का तवचार करिा है , तक कुछ तदन वहााँ तबलकुल अकेला रहाँ। पुरुष
की इस ऊब से स्त्री भी परे शान है , वह कहिी है - धक्के खािे तिरिे हैं तदन भर- स्कूल से बाज़ार और

बाज़ार से घर और तिर भी िुम खुश नहीं रहिे। मुझे हमेशा िुम्हारे बारे में बहुि दु ख होिा है।
• स्त्री भी पुरुष को खुश करने के तलए दाल-सब्जी बनािी है हालााँतक वह भी स्कूल में अध्यातपका है। पर

पुरुष को दफ्तर के काम में भी तदलचस्पी नहीं है। वह दफ्तर में बैठा हुआ सोचिा रहिा है तक हर वि
मेरे अंदर न जाने तकस चीज़ की उदासी बनी रहिी है ?

स्त्री कहिी है - िुम सोच-सोचकर उदास नहीं होिे बस्थि िुम उदास हो इसतलए सोचिे रहिे हो। िुम वही

कुछ चाहिे हो जो िुम्हारे पास नहीं होिा। तजन-तजन चीज़ों से िुम्हारा मन जुडा हुआ है उनसे िुम अपने को
कभी अलग नहीं कर पािे।"

• दोनों ने अपने घर में तबिी के बच्चे पाल रखे हैं । उन्ें दे खकर स्त्री खुश होिी है , शार्द इनके घर में भी

कोई अपना बच्चा हुआ होिा िो िो उनका दु ख कम होिा। पापा-मिी बनने की चाहि दोनों के मन में
है। तबिी का बच्चा पालना इसी का प्रिीक है।

• दोनों की अपनी-अपनी मजबूररर्ााँ होने के कारण वे तमलकर कहीं बाहर नहीं जा सकिे। स्वर्ं स्त्री को

भी लगिा है तक अच्छा था न घर बसािे न नौकरी करिे। पुरुष को लगिा है तक हर आदमी की अपनी


अलग तज़ंदगी होनी चातहए। स्त्री पूछिी है "तबना घर बार के? िो पुरुष अतनश्चर् के स्वर में उिर दे िा है ,
नहीं, घरबार भी हो और अलग तज़ंदगी भी हो।
• तवदे श जाने पर भी पुरुष को र्ह अकेलापन सिािा ही है। क्ोंतक वहााँ भी इसी प्रकार की झीलें , समुंदर,

सडकें, लोग, होटल, बार, तबस्थडंग र्े ही िो होिी हैं और क्ा रखा है इनमें ? एक बार स्त्री कहिी है , पहले
हम खुश रहिे थे िो आस-पास के लोग भी हमें खुश लगिे थे। अब लगिा है आसपास के लोग दु खी हैं ,

हम भी दु खी हैं ।
• इस प्रकार र्ह पूरा नाटक स्त्री और पुरुष के बीच के छोटे -छोटे संवादों से आगे बढ़िा है। वे दोनों सोने

का प्रर्त्न करिे हैं। रजाई खोलिी हुई स्त्री कहिी है , "अच्छा कल तिर बाि करें गे। दे खो ... शार्द ...! "

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इसके साथ ही पुरुष करवट बदलकर मुंह उसकी िरि कर लेिा है। िब तिर से उन्ें दरार भरवाने की

बाि र्ाद रखने की इच्छा होिी है।

अाँधेरा गहरा हो जािा है , बाहर से तबिी के बच्चे धीमी म्याऊाँ, म्याऊाँ तचिािे हैं । इस िरह एक गंभीर अाँधेरे
कमरे में गोिा खािे हुए काव्य की िरह 'शार्द' प्रतिध्वतनि होिा ही रहिा है।पति-पत्नी के संवादों के बल पर

मानतसक िनाव की प्रत्येक अनुभूति को र्हााँ कथ्य बनार्ा गर्ा है। अिः र्ह नाटक अतिभावुकिा में जीने
वाले दं पतिर्ों की घुटन का आलेख है।

आलोचिात्मक मूल्ांकि

'शार्द' नाटक का अतििीर् स्वरूप मनुष्य के जीवन के अतििीर् पहलुओं को दशाय िा है। मोहन
राकेश िारा रतचि र्ह एकां की रूपी बीज नाटक जीवन के अतनतश्चििा, अतनणयर्, और संदेह को

प्रस्तुि करिा है। नाटक के मुख्य पात्र स्त्री और पुरुष के जीवन का अतििीर् संबंध तदखािे हैं ,
जो तकसी अतनर्ंतत्रि गतिमान के भीिर हैं। नाटक का शीषयक 'शार्द' इसी अतनतश्चििा को प्रकट

करिा है , जो स्त्री और पुरुष के जीवन का अंिरं ग तहस्सा है। 'शार्द' एक माध्यतमक रूप से
अव्याख्याि और तवचार तवरोधी अनुभव को साझा करिा है , तजसमें व्यस्थि को अपने जीवन की

तनर्ति का सामना करना पडिा है। नाटक में प्रस्थिि तकए गए तवचार और अथों का संगम
'शार्द' के शीषयक में प्रतितष्ठि है। र्ह शीषयक न केवल नाटक की महिपूणयिा को उजागर

करिा है , बस्थि उसके माध्यम से समाज को मानवीर् अस्थस्तत् की अस्थिरिा का भी अनुभव


होिा है।

तिष्कषम

"शार्द" नामक एकांकी के माध्यम से नाटककार "मोहन राकेश" िारा आधुतनक र्ुग की समस्याओं को

प्रस्तुि करने का प्रर्ास तकर्ा गर्ा है तजसमें पति-पत्नी के संवादों को आधार बनाकर आज के र्ुग के नीरसिा
भरे जीवन को दशायने का प्रर्ास तकर्ा गर्ा है , जो अथयर्ुग (धनर्ुग) में मानवीर् समस्याओं को प्रस्तुि करिी

है।

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प्रश्न 11- 'अंगद का पाँव' व्यंग्य का सार एवं मूल संवेदिा पर प्रकाश डातलए।

उत्तर - पररचय

'अंगद का पााँव' श्रीलाल शुक्ल जी के िारा तलखा गर्ा प्रतसद्ध व्यंग्य है, तजसमें उन्ोंने आधुतनक समाज के

तदखावटी लोगों का वणयन करिे हुए कहिे है। तक तकस प्रकार लोग अपने स्वाथय के तलए एक दू सरे से आत्मीर्
संबंधों का तदखावा करिे हैं और एक दू सरे की चापलूसी करिे है ।

'अंगद का पाँव' व्यंग्य का सार

श्रीलाल शुक्ल का व्यंग्य लेख "अंगद का पााँव" आधुतनक समाज के लोगों के तदखावटी और ढोंगी जीवन को
उजागर करिा है। लेखक को स्टे शन जाकर लोगों को तवदा दे ने का चलन पसंद नहीं है , लेतकन एक तमत्र के

ऊाँचे सामातजक स्तर के कारण उसे तवदा दे ने के तलए स्टे शन जाना पडिा है। वहााँ और भी कई लोग मौजूद
हैं, जो तमत्र को तवदा दे ने आए हैं। उनके तवभाग के सभी कमयचारी वहााँ हैं , जो तमत्र को मालाएाँ पहना रहे हैं

और हाथ तमला रहे हैं । लेखक के तमत्र कुछ रस्मी बािें करके अपने प्रथम श्रेणी के तडब्बे के सामने खडा हो
जािा है, िातक टर े न चलिे ही चढ़ सके। तसग्नल हो चुका है , लेतकन टर े न नहीं चल रही, इसतलए वह वहााँ मौजूद

लोगों से बािें करने लगिा है ।

वहााँ एक आदमी है , जो ऊपरी मन से हर काम के आदमी को दावि के तलए बुलािा है और हर कोई उसे
हाँसकर टाल दे िा है । लेखक तमत्र भी उनकी दावि को टाल चुके थे। इसतलए उनके तमत्र कहने लगे तक

"इस बार आऊाँगा िो आपके र्हााँ ही रुकूाँगा।" उस आदमी ने कहा तक वह उसे सूचना दे िो वह अपनी

मोटर लेकर स्टे शन आ जाएगा। र्ह सुनकर साि है तक वह आदमी अपनी मोटर का हवाला दे कर अपना
सामातजक स्तर तदखाना चाहिा है । तमत्र ने कहा तक इस िकिुि की जरूरि नहीं है , मैं िो आपके घर के

सदस्य की िरह हाँ। इस पर वह आदमी भी तदखावे की बाि करिे हुए कहिा है , "जाइए साहब, अगर ऐसा
ही मानिे िो तबना एक शाम हमारे घर पर खाना खाए नहीं तनकल जािे।" िभी गाडी ने सीटी दे दी और लोग

आशापूणय तसग्नल की िरि दे खने लगे।

रे लवे स्टे शन पर तवदा दे ने आए लोग िरह-िरह की बािें कहकर अपना समर् तबिाने लगिे हैं । कोई कहिा
है तक तमत्र को पहुाँचिे ही तचट्ठी तलखनी चातहए, िो कोई कहिा है तक उस शहर के अमरूद अच्छे होिे हैं

और लाने चातहए। हैड क्लकम कहिे हैं तक तबस्तर सीट पर तबछा तदर्ा है। एकाउं टेंट कहिा है तक तसरहाना
दू सरी िरि होिा िो अच्छा होिा, क्ोंतक स्थखडकी का कोर्ला आाँ खों में तगर सकिा है। है ड क्लकम कहिे हैं

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तक स्थखडकी से हाथ तदखिा है। लेिक तटप्पणी करिा है तक इन सब बािों का कोई असर नहीं हुआ है,

क्ोंतक असली मिलब की बािें पहले ही हो चुकी थीं। अब सब तसिय गाडी के चलने का इं िजार कर रहे थे।
लेतकन गाडी नहीं चल रही थी, जैसे तथर्ेटर में तवलेन हीरो पर वार करने के तलए खंजर िाने खडा हो और

पदे की डोरी अटक जाए, वैसे ही सब टर े न के चलने इं िजार कर रहे थे।

टर े न न चलने के कारण, अिः तवदा दे ने आए लोगों ने तिर िरह-िरह की बािें करना शुरू कर तदर्ा। िभी
लेखक के तमत्र को एक िानीर् पुराना नौकर तदखाई दे िा है 'उसे दे खिे ही अचानक लेखक के तमत्र के मन

में समाजवादी व्यविा के प्रति तवश्वास पैदा हो जािा है । और वे नौकर की प्रशंसा करने लगिा, िभी नौकर
रोिे हुए अपनी पाररवाररक समस्याएाँ बिाने लगिा है । उसी समर् गाडय सीटी बजािे हुए तनकला, लेतकन हैड

क्लकय की बाि नहीं सुनी। लोग तिर तमत्र के पास आ गए और छोटे -छोटे गुट बना तलए। तकसी ने िुक तमलािे
हुए कहा तक इं तडर्न कल्चर में गेंदा, बैलगाडी और पेडा सबसे अच्छे हैं। दू सरे िे कहा, अंग्रेज चले गए

लेतकन उनकी औलादें छोड गए। िभी जवाब तमला तक तहंदुस्तानी रह गए लेतकन तदमाग खो गर्ा। इसी बीच
तकसी ने गुलाब की तवतभन्न तकस्मों की िारीि की। गाडी नहीं चली, इं तजन आवाज करिा रहा लेतकन गाडी

नहीं तहली।

वहीं भीड के तपछले तहस्से में खडे एक दशयनशास्त्र के प्रोिेसर अपने तकसी तमत्र को समझा रहे थे - 'जनाब,
हमारी तज़ंदगी का अतधकिर तहस्सा (िीन-चौथाई) दबाव और सामातजक मजबूररर्ों से भरा है , जबतक केवल

एक-चौथाई तहस्सा ही हमारी मजी का होिा है। र्ही कोएशयन है। र्ही तज़ंदगी है । गतठर्ा का मरीज़ हाँ पर

तमत्रों के तलए स्टे शन आकर घंटों खडा रहिा हाँ। िभी अचानक गाडय ने सीटी दी और गाडी तहली। लोग-बाग
दौडे आए। सबने तमत्र से एक बार तिर हाथ तमलार्ा। िभी एक व्यस्थि दौडकर आर्ा और जल्दी से हाथ
तमलाकर बडी हसरि से कहने लगे- 'काश! र्ह गाडी र्हीं रह जािी।' र्ही पर व्यंग्य-लेख समाि हो जािा
है।

मूल संवेदिा

'अंगद का पााँव' व्यंग्य तनबंध में लेखक ने आधुतनक मध्यवगीर् व्यस्थि की मानतसकिा को उजागर तकर्ा है।

र्ह तनबंध तसिय एक तवनोदी रचना नहीं है , बस्थि इसमें गहराई से उन मानतसक और सामातजक प्रवृतिर्ों
को तदखार्ा गर्ा है जो मध्यवगीर् लोगों को हास्यास्पद बना दे िी हैं। लेखक र्ह बिाना चाहिा है तक आज

का मध्यवगीर् व्यस्थि अपने से बडे रुिबे वाले लोगों से संपकय बनाने की कोतशश करिा है , चाहे वह अिसर
हो, नेिा हो र्ा धनी व्यस्थि। ऐसा इसतलए करिे है िातक भतवष्य में उनसे कोई लाभ तमल सके और उनका

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खुद का रुिबा भी बढ़ सकें। समाज में ऐसे लोगों की कमी नहीं है , जो ऐसी सोच रखिे हैं। तनबंध आधुतनक

मध्यवगीर् व्यस्थि की स्वाथी और अवसरवादी सोच को व्यंग्यात्मक िरीके से प्रस्तुि करिा है , जो तसिय अपने
िार्दे के तलए ऊाँचे लोगों के पीछे भागिे रहिे हैं।

लेखक एक व्यस्थि का वणयन करिा है , जो अपने स्वाथय के तलए हर महत्पूणय व्यस्थि को दावि पर बुलािा

है। वह तसिय इसतलए ऐसा करिा है िातक सिा के करीब रहकर लाभ कमा सके। उसी व्यस्थि से एक तमत्र
औपचाररक बािचीि करिे हुए कहिा है , "इस बार आऊाँगा िो आपके ही र्हााँ रुकूाँगा।" र्ह तमत्रिा र्ा स्नेह

से नहीं, बस्थि केवल औपचाररकिा के तलए कहा गर्ा है। दोनों जानिे हैं तक उनके बीच कोई सच्ची भावना
नहीं है , केवल स्वाथय का संबंध है। तिर भी, वे तदखावा करिे रहिे हैं। लेखक इस स्वाथी मानतसकिा का

व्यंग्य करिा है ।

लेिक 'अंगद का पाँव' तिबंध में तदिािे हैं तक कैसे लोग एक-दू सरे की चापलूसी करके अपने िार्दे के
तलए आत्मीर् संबंधों का तदखावा करिे हैं। तमत्र को तवदा करने आए लोग, चाहे नौकर हों र्ा उच्च अतधकारी,

सभी तमत्र के सामने बढ़-चढ़कर बािें करिे हैं िातक खुद को तहिैषी तदखा सकें।

लेखक रे लगाडी के नहीं चलने के कारण वहां खडे लोगों की स्थिति का वणयन करिे हुए कहिे है तक लोग

अपना समर् काटने के तलए इधर-उधर घूम रहे हैं और दे श की दशा पर चचाय कर रहे हैं। वे भारि को
"इं तडर्ा" के रूप में दे ख रहे हैं और उसे तपछडा हुआ मानिे हैं , जैसे तक भारि में तसिय बैलगाडी और गेंदे

के िूल ही होिे हैं। लेखक अपने दे श के प्रति उदासीनिा और नकली बािचीि की आलोचना करिे है।

लेखक बिािे हैं तक बुस्थद्धजीवी व्यस्थि भी अक्सर अपने तनष्ठा से भटक जािे हैं। लेखक एक दशयनशास्त्री
प्रोिेसर के उदाहरण से समझािे हैं , जो अपने तवचारों के अनुरूप जीवन नहीं जी सकिे हैं लेखक सामान्य

लोगों से अपने तसद्धांिों पर चलने की उिीद रखने की बेमानी को तदखािे हैं , क्ोंतक र्तद तशतक्षि व्यस्थि भी
समझौिा कर रहे हैं , िो सामान्य लोगों से ऐसा अनुमान लगाना अतधक उत्पीडक है ।

श्रीलाल शुक्ल समातजक मुद्दों पर अपना व्यंग्य करिे हैं। िथा उनके तनबंधों में हंसी और मनोरं जन नहीं,
व्याकुलिा और क्रोध का भाव अतधक झलकिा है। लेतकन वे तकसी को आहि र्ा क्षति पहुंचाना चाहिे नहीं

था। बस्थि वे समाज की समस्याओं को स्पष्ट करना और उसमें सुधार करने का मागय तदखाना चाहिे है उनके
िारा प्रस्तुि तकए गए तचत्र और कहातनर्ााँ आम जनिा को सोचने और कार्य करने के तलए प्रेररि करिी हैं ,
तजससे समाज में सकारात्मक पररवियन आ सकिा है ।

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अंगद का पााँव' तनबंध में वािायलाप की हास्यास्पदिा और उसका खोखलापन तदखावटीपन को उजागर करिे

हैं। दो व्यस्थिर्ों के बीच होने वाले वािायलाप में 'हें -हें ' की संवेदना तनष्पक्ष तदखिी है , जो व्यवहार की तनस्सारिा
और खोखलेपन को अतभव्यि करिी है। लेखक का मुख्य उद्दे श्य है तक पाठक समझ सकें तक वास्ततवकिा

और तदखावटीपन के बीच में क्ा अंिर है।

तिष्कषम

अंगद का पााँव व्यंग्य में श्रीलाल शुक्ल ने समाज की तदखावटी और स्वाथी मानतसकिा का व्यंग्यात्मक तचत्रण
तकर्ा है। लेखक ने तवदाई के अवसर पर लोगों के खोखले व्यवहार और औपचाररकिाओं को उजागर करिे

हुए र्ह दशायर्ा है तक कैसे लोग अपने स्वाथय और ऊाँचे लोगों से संबंध बनाने के तलए तदखावा करिे हैं ।

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प्रश्न 12- सप्रसंग व्याख्या कीतजए :

भीड के तपछले तहस्से में खडे एक दशयनशास्त्र के प्रोिेसर धीरे -धीरे अपने तकसी तमत्र को समझा रहे थे -

'जनाब, तज़ंदगी में िीन बटे चार िो दबाव है , कोएशयन का बोलबाला है , बाकी एक बटे चार अपनी िबीर्ि
की तज़ंदगी है। दे स्थखए न मेरा काम िो एक िख्त से चल जािा है , तिर भी दू सरों के तलए डर ाइं गरूम में सोिे

डालने पडिे हैं। िन ढााँकने को एक धोिी बहुि कािी है , पर दे स्थखए बाहर जाने के तलए र्ह सूट पहनना
पडिा है। र्ही कोएशयन है । र्ही तज़ंदगी है। गतठर्ा का मरीज़ हाँ पर तमत्रों के तलए स्टे शन आकर घंटों खडा

रहिा हाँ।

उत्तर -

भीड के तपछले तहस्से ..................... घंटों िडा रहिा हँ।

प्रसंग - प्रस्तुि गद्यांश 'गद्य गौरव' में संकतलि तनबंध- 'अंगद का पााँव' से तलर्ा गर्ा है। इसके लेखक सुप्रतसद्ध

व्यंग्य-कथाकार श्रीलाल शुक्ल हैं। इसमें मध्यवगय के जीवन की दाशयतनक व्याख्या प्रस्तुि करने वाले सज्जन
जीवन का व्यावहाररक सूत्र समझा रहे हैं।

व्याख्या - जीवन का आधे से अतधक भाग अनेक प्रकार के दबावों को पूरा करिे -करिे बीि जािा है। र्े

दबाव अनेक प्रकार के हो सकिे हैं। अतधकां श में र्े सामातजक-आतथयक होिे हैं। इन्ीं से मध्यवगीर् व्यस्थि
के भौतिक जीवन की आवश्यकिाएाँ पूरी होिी हैं । अनेक बार व्यस्थि इसे चाहे अनचाहे पूरा करिा है।

दशयनशास्त्र के प्रोिेसर पात्र का मानना है तक हमारे जीवन का िीन बटे चार तहस्सा इसी दबाव के िहि काम

करिे बीििा है । इसे ही अंग्रेज़ी में कोएशयन कहा गर्ा है र्ानी दू सरे का दबाव। अपनी इच्छा के अनुसार
काम न कर पाना र्ा अपनी ितबर्ि की तज़ंदगी न जी पाना। पात्र के माध्यम से लेखक का मानना है तक

अपनी इच्छानुसार िो व्यस्थि एक बटे चार भाग तज़ंदगी ही जी पािा है। वह इसके तलए अनेक उदाहरण
प्रस्तुि करिा है । जैसे, एक आदमी को अपने घर में एक िख्त से ही काम चल जािा है। पर दू सरों के तलए

र्ानी समाज में अपनी प्रतिष्ठा को बनाए रखने के तलए डर ाइं ग रूम में सोिे डालने पडिे हैं। र्ही नहीं वास्तव
में िो आदमी को एक धोिी पहनने की आवश्यकिा होिी है पर अपना रुिबा बनाए रखने के तलए अतधक

से अतधक वस्तुओं के खरीदने की िाकि तदखानी पडिी है। हर रोज कपडे बदलकर पहनने पडिे हैं। सभ्य
तदखने के तलए टाई-सूट पहनना भी इसी क्रम में आवश्यक है। इसे ही लोग वास्ततवक जीवन समझिे हैं जो
दू सरों के तलए ही तजर्ा जािा है, अपने मन के अनुसार नहीं। मन दू ध पीने का होिा है पर कॉिी पीनी पडिी

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है। मन आसान रास्ते पर जाना चाहिा है। जासूसी उपन्यास पढ़ना चाहिा है पर तविान बने रहने के तलए

बडे -बडे दाशयतनकों को पढ़ना पडिा है। तजसमें उन्ें आधुतनक दशयनशास्थस्त्रर्ों का नामोिेख तकर्ा है । अंि
में, वे उदाहरण दे िे हैं तक गतठर्ा के रोग के कारण वे अतधक चल नहीं सकिे, खडे नहीं रह सकिे पर

सांसाररकिा तनबाहने के तलए घंटों स्टे शन पर खडे रहना पडिा है। इसीतलए उनका र्ह सूत्र ठीक प्रिीि
होिा है तक हम अपने जीवन िीन बटा चार तहस्सा सांसाररकिा के तनवायह र्ा सामातजक प्रतिष्ठा बनाए रखने

के तलए तबिािे हैं । अपने मन के तहसाब से िो एक बटा चार जीवन तजर्ा जािा है। अतधकांश लोग इसी प्रकार
का कृतत्रम जीवन जीिे हैं।

तवशेष-

1. जीवन की वास्ततवकिा को सूत्रात्मक िरीके से प्रस्तुि कर उसे तसद्धांि का रूप तदर्ा गर्ा है ।

2. आधुतनक जमयन दशयनशास्त्री काटय हीगल आतद का उिेख मनुष्य को समझने के क्रम में तकर्ा गर्ा है।

3. तवचार को सहज रूप में प्रस्तुि करने के तलए बोलचाल की भाषा-शैली, तजसमें उदू य -अंग्रेज़ी के शब्दों का
इस्तेमाल तकर्ा गर्ा है।

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प्रश्न 13- धममवीर भारिी की रचिा 'ठे ले पर तहमालय' का सार तलखिए।

उत्तर - पररचय

‘ठे ले पर तहमालर्’ धमयवीर भारिी जी का एक र्ात्रा-वृिांि है। तजसमें लेखक अपने साथी के साथ कौसानी

की र्ात्रा के अनुभवों को साझा करिे हैं । इसमें लेखक ने तहमालर् के प्राकृतिक सौंदर्य का सुंदर वणयन तकर्ा
है िथा उनके मन में तहमालर् की रहस्यमर् सुंदरिा का अनुभव करने की इच्छा पुनः जाग्रि होिी है।

'ठे ले पर तहमालय' का सार

धमयवीर भारिी के तनबंध संग्रह 'ठे ले पर तहमालर्' में कौसानी की र्ात्रा का वणयन है। लेख की शुरुआि एक
साधारण दृश्य से होिी है । लेखक अपने तमत्र के साथ पान की दु कान पर खडा है , िभी एक ठे ले वाला बिय

की तसस्थिर्ााँ लेकर गुजरिा है।

तमत्र कहिा है , "बिय िो तहमालर् की शोभा है।" र्ह सुनकर लेखक को लेख का शीषयक सूझिा है। ठं डी,
चमकिी बिय दे खकर लेखक के मन में कई भावनाएाँ उमडिी हैं। वह बिािा है तक तहमालर् की बिय से

ढकी हुई शोभा अिुलनीर् है , तजसे उसने इसे करीब से दे खा है।

लेखक अपनी एक र्ात्रा का अनुभव अपने तमत्र से साझा करिे हुए कहिा है तक वे अपनी पत्नी के साथ

कौसानी गए थे। नैनीिाल, रानीखेि, और मझकाली के कतठन रास्तों को पार करिे हुए वे कोसी पहुंचे। रास्ता
बहुि सूखा, बदसूरि और ऊबड-खाबड था, तजसमें पानी और हररर्ाली नहीं तदखी। वहााँ का मौसम उमस

भरा था। पूरे रास्ते सूखे पहाड ही नजर आ रहे थे। कतठन र्ात्रा के ऊपर, बस का डर ाइवर अनाडी और
लापरवाह था, तजससे र्ात्री बहुि परे शान हो गए। कोसी पहुाँचने पर वे कौसानी जाने वाली बस का इं िजार
करने लगे।

लेखक लगभग दो घंटे बाद आई दू सरी बस में अपने पररतचि शुक्ला जी से तमले , तजन्ोंने उन्ें कौसानी जाने
के तलए प्रेररि तकर्ा था। शुक्ला जी के साथ तचत्रकार सेन भी थे। कोसी से बस चलने पर रास्ते का दृश्य बदल

गर्ा और कोसी नदी, छोटे गााँव, मखमली खेि, और सोमेश्वर घाटी की सुंदरिा ने लेखक को सुकून तदर्ा।
एक तमत्र ने उन्ें बिार्ा था तक र्ह िान स्थस्वट् जरलैंड से भी सुंदर है और गााँधीजी ने र्हााँ 'अनासस्थि र्ोग'

पुस्तक की रचना की थी।

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कौसानी सोमेश्वर घाटी के उिर में पवयि की चोटी पर बसा एक छोटा गााँव था। और बस धीरे -धीरे अपने लक्ष्य

की िरि आगे बढ़ रही थी, लेतकन लेखक तनराश होने लगे थे। क्ोंतक कौसानी के करीब पहुाँचिे ही कोसी
नदी की सुंदरिा घटिी जा रही थी व लेखक धमयवीर भारिी जी ने कौसानी की तजस सुंदरिा का जो वणयन

सुना था, वहााँ वैसा कुछ भी नहीं तदख रहा था।

लेिक तहमालय के सौन्दयम का वणमि करिे हुए कहिे है तक जब बस कौसानी के अिे पर रुकी िो वहााँ
तबिुल उजाड-सा गााँव था, लेतकन बस से उिरिे ही जब उन्ोंने घाटी का सौंदर्य दे खा िो वे आश्चर्यचतकि

रह गए। र्ह सौंदर्य इिना पतवत्र था तक उनके मन में आर्ा तक जूिे उिार कर और पााँव पोंछ कर ही धरिी
पर अपने पैर रखने चातहए। तिर लेखक की दृतष्ट घाटी के पार गई, जहााँ उन्ें अपार सौन्दर्य के दशयन हुए।

लेखक को अचानक लगा तक वह तकसी दू सरे लोक में पहुाँच गर्ा हो। दे खिे ही दे खिे बादलों का एक टु कडा
तजसने तहमालर् की बिीली चोतटर्ों को ढक रखा था छट गर्ा और लेखक को तहमालर् की बिीली चोतटर्ााँ

नजर आई। िभी दे खिे-दे खिे वह पवयि बादलों में लुि हो गर्ा। एक पल के तलए बिय के नजारे ने सभी के
मन की उदासी को धुंधला कर तदर्ा।

लेखक को लगिा है तक तहमालर् में रहने वाले िपस्वी और साधक शांति और सुख को प्राि करने आिे हैं।

उसके मन में र्ह तवचार भी आर्ा तक र्ह बिय तकिनी पुरानी होगी; कौन जाने इन पहाडों पर र्ह अतवनाशी
बिय कब से जमी हुई है। र्ह सब दे खिे-दे खिे सूरज डूबने लगा अंधेरा होने पर लेखक और उनके साथी

उस दृश्य को दे खिे हुए आाँ खों में भरकर उठे और तिर वे चार् पीने चले जािे है । अंधेरे में चााँद तनकलने पर

लेखक को लगिा है जैसे बिय सो रही है। जब लेखक भारिी जी ने तहमालर् की चोतटर्ों और तहम का दशयन
तकर्ा, िो उन्ें र्ह अनुभव हुआ तक वास्ततवक और काल्पतनक सौंदर्य के बीच का अंिर तबिुल स्पष्ट नहीं
होिा।

लेखक स्वर्ं को तनशब्दिा की स्थिति में पािा है। वह तवचार करिा है तक इस तहमालर् को दे खकर लोग
क्ा-क्ा नहीं तलख लेिे पर मेरा मन एक कतविा िो दू र एक शब्द भी नहीं तलख पा रहा है। लेखक तवशाल

तहमालर् के सामने खडा होिा है , िो वे अपनी छोटाई का अहसास करिे हैं । लगिा है तक तहमालर् उन्ें और
ऊाँचा उठने की चुनौिी दे रहा है। अचानक से लेखक का ध्यान सहर्ात्री सेन के िारा गाई जाने वाली रतवंद्र

की पंस्थिर्ों पर जािा है, वह दे खिे है तक सेन बहुि खुश थे और वह शीषायसन करिे हुए तहमालर् को दे ख
रहे थे। उनसे पूछने पर उन्ोंने लेखक को बिार्ा तक वह 'तहमालर् को हर पसयपेस्थिव (नज़ररर्ा) से दे खना

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चाहिे हैं। अगले तदन लेखक और उनके साथी नीचे घाटी में उिरकर बैजनाथ की र्ात्रा करिे हैं जहााँ गोमिी

नदी बहिी हुई नज़र आिी है। उसके स्वच्छ जल में तहमालर् की पवयि तशखर की छार्ा तदखाई दे िी है।

अंि में, लेखक को वह दृश्य र्ाद आिा है जब उसने ठे ले पर बफ़य दे खकर अचानक उसे 'ठे ले पर तहमालर्'
कह तदर्ा था। वास्तव में प्रतितदन की व्यस्त तदनचर्ाय में बफ़य की वह झलक उसे अपनी इस र्ात्रा की र्ाद

तदलािी है। बिय दे खने की इच्छा उसके भीिर तिर से जागिी है और उसे बार-बार आकतषयि करिी है । और
अब लेखक तहमालर् को संदेश भेजने के तलए उत्सुक हो जािा है। वह तहमालर् को संदेश भेजने के तलए

बेचैन हो उठिा है और वह वापस अवश्य वहााँ जाएाँ गे क्ोंतक उनका मन केवल उन पतवत्र ऊाँचाइर्ों में लगिा
है।

तिष्कषम

लेखक धमयवीर भारिी के तनबंध "ठे ले पर तहमालर्" में कौसानी की र्ात्रा का वणयन करिे हैं। लेखक अपनी
कौसानी र्ात्रा का अनुभव साझा करिे हुए तहमालर् की सुंदरिा और उसके सौन्दर्य के प्रति आश्चर्य व्यि

करिे हैं। तहमालर् के सौन्दर्य ने उनके मन को प्रभातवि तकर्ा और उन्ें तहमालर् के साथ जुडने की
अतभलाषा जगाई।

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प्रश्न 14- 'ठे ले पर तहमालय' रचिा के आधार पर लेिक की भाषा-शैली पर तवचार कीतजए।

उत्तर - पररचय

धमयवीर भारिी जी की रचना 'ठे ले पर तहमालर्' उनकी अतििीर् भाषा-शैली का श्रेष्ठ उदाहरण है । उनकी

सरल, सहज, और आकषयक भाषा उनके भावों को सही ढं ग से प्रकट करिी है। रचना में तचत्रात्मकिा,
कलात्मकिा, और काव्यात्मकिा का सामंजस्य तदखाई दे िा है। जो पाठकों को र्ात्रा का अनुभव करने में

सहार्क होिा है। उनकी भाषा और वणयन शैली पाठकों को सरल और रचना को जीवंि बनािी है।

लेिक की भाषा-शैली

धमयवीर भारिी जी की भाषा कौशल उनके भावों को सही ढं ग से व्यि करने में मदद करिा है। इसके तलए

वे कई गुणों का प्रर्ोग करिे है। जैसे तक तचत्रात्मकिा, कलात्मकिा, काव्यात्मकिा, ध्वन्यात्मकिा और


प्रवाहमर्िा। धमयवीर भारिी जी की रचना 'ठे ले पर तहमालर्' इन सभी गुणों को सही ढं ग से उजागर करिी

है। इनकी भाषा शैली रचना को जीवंि और प्रभावशाली बनािी है।

धमयवीर भारिी जी अपनी रचना में वणयनात्मक िथा तववरणात्मक शैली का प्रर्ोग करिे है। उन्ोंने
तववरणात्मक शैली का प्रर्ोग करिे हुए अपनी र्ात्रा के दृश्यों को बहुि ही सुंदर िरीके से वणयन तकर्ा है ,

जैसे कोसी नदी का सुंदर वणयन, छोटे -छोटे सुंदर गााँव इत्यातद।

भारिी जी 'बिय' का केवल खुद अनुभव नहीं करिे है , बस्थि अपनी तचत्रात्मक (तबंबात्मक) भाषा के माध्यम

से पाठक को भी वह अनुभव करािा है। जब वे 'बिय' का वणयन करिे है , िो उसकी शैली एक पहाडी नदी
की िरह होिी है जो कभी धीरे -धीरे और कभी िेजी से बहिी है। इसका मिलब है तक लेखक की भाषा और
शैली बदलिी रहिी है , र्ह बदलाव भाषा को और भी सुंदर और प्रभावशाली बनािा है।

लेखक ने अपनी र्ात्रा का वणयन बहुि सरल और रोचक िरीके से तकर्ा है। उनकी सुगतठि और प्रवाहमर्ी
भाषा के कारण र्ह रचना पाठकों को आकतषयि करिी है। उनकी भाषा में काव्यात्मकिा भी है , जो पाठकों

को बहुि पसंद आिी है। लेखक की भाषा और वणयन शैली पाठकों को सुंदरिा और र्ात्रा का अनुभव करािी
है।

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तिष्कषम

'ठे ले पर तहमालर्' धमयवीर भारिी जी की रचना में बहुि ही सहज और सरल भाषा में प्रस्तुि तकर्ा गर्ा है।

लेखक ने नैनीिाल से कोसानी िक की र्ात्रा का तववरण रोमांचक िथा आकषयक ढं ग से प्रस्तुि तकर्ा है।
उन्ोंने भाषा में रोचकिा, सहजिा, सरलिा और आत्मीर्िा के गुणों को बहुि अच्छी िरह से समातहि तकर्ा

है। लेख में भाषा स्वाभातवक, मृदुल और गंभीर है , तजससे पाठकों का ध्यान आकतषयि होिा है।

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प्रश्न 15- तिम्नतलखिि पर तटप्पणी तकतजए :

(क) रामचंद्र शुक्ल की भाषा-शैली

(ि) बिारसी दास के रे िातचत्रों की शैलीगि तवशेषिाएँ

(ग) महादे वी वमाम के संस्मरण की भाषा-तशल्प

(घ) 'अंगद का पाँव' तिबंध की भाषा-शैली

उत्तर -

(क) रामचंद्र शुक्ल की भाषा-शैली

पररचय

प्रतसद्ध आलोचक, तनबंधकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल का जन्म 1884


ई. में उिर प्रदे श के बस्ती तजले के अगोना नामक गााँ व में हुआ था।

उन्ोंने सातहत्य की तवतवध तवधाओं में अपनी तवलक्षण प्रतिभा से अपना


तवतशष्ट िान बनार्ा। उनका र्ोगदान तहं दी सातहत्य को एक नर्ा

आर्ाम दे ने में महत्पूणय रहा है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मौतलक


तवचार और तचंिन के बाद तहंदी सातहत्य को उनकी सबसे बडी दे न

तचंिन-मनन को संप्रेतषि करने वाली भाषा है।


रामचन्द्र शुक्ल

रामचंद्र शुक्ल की भाषा-शैली

रामचंद्र शुक्ल जी भाषा के तजस स्तर से अपने तनबंध का प्रारं भ करिे हैं , अंि िक उस स्तर को बनाए रखिे
हैं। ऐसा शार्द ही होिा हो तक तनबंध का एक तहस्सा अतधक जीवंि और गररष्ठ (कतठन) हो और दू सरा तहस्सा

सरल हो। उनके लेखन का मानतसक सिह बराबर समान बना रहिा है। इसका एक कारण र्ह भी है तक वे
तनबंधों में भी मौतलक तचंिन करिे हैं। र्ह मौतलकिा उनकी शैली को प्रौढ़ बनाए रखिी है। आचार्य रामचंद्र

शुक्ल अपने मि को पुष्ट करने के तलए मान्य तविानों के मिों को प्रस्तुि नहीं करिे, जैसा आचार्य हजारी
प्रसाद तिवेदी के तनबंधों में दे खने को तमलिा है।

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रामचंद्र शुक्ल जी की भाषा शैली में तवतवधिा, सरलिा और स्थक्लष्टिा का अद् भुि समन्वर् है िथा

आलंकाररकिा और ठे ठपन भी साथ नज़र आिा है। शुक्ल जी ने लाक्षतणक भाषा का प्रर्ोग भी अपने तनबंधों
में तकर्ा हैं । तनबंध में शुक्ल जी की भाषा शुद्ध तहंदी है तजसमें संस्कृि के साथ-साथ उदू य िथा लोक भाषाओं

का सहज रूप में समावेश तमलिा है। उन्ोंने संस्कृि शब्दों के साथ-साथ अरबी-िारसी और अंग्रेजी के
प्रचतलि शब्दों का प्रर्ोग भी अपनी भाषा में तकर्ा है । र्था- शौकीन, बदिमीजी, मिलब, बेवकूिी आतद।

शुक्ल जी के तनबंधों की भाषा में सबसे बडी तवशेषिा र्ह है तक उसमें कहीं भी बोतझलपन, उलझन और

अस्पष्टिा नहीं है । वह व्याकरणसिि है , अशुस्थद्धर्ों से मुि है और तवराम तचन्ों का प्रर्ोग अत्यंि सजगिा
से तकर्ा गर्ा है । शुक्ल जी की भाषा में उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा आतद अलंकारों का प्रर्ोग है तकन्तु र्े अलंकार

चमत्कार प्रदशयन के तलए न होकर तवषर् को अतधक प्रभावशाली बनाने के तलए प्रर्ुि तकए गए है ।

आचार्य शुक्ल की भाषा की अतभव्यंजना शस्थि भी अत्यंि प्रबल है। उनकी भाषा में कभी ित्सम शब्दों की
बहुलिा, कभी अत्यंि सधी हुई पररष्कृि तहंदी, कभी संस्कृितनष्ठ शब्दावली िो कभी भाषा के व्यावहाररक

रूप के साथ ही मुहावरों का प्रर्ोग भी तमलिा है। वे कई बार िद्भव शब्दों का भी प्रर्ोग कर जािे हैं , जब वे
सहज पररहास वृति से अपने तवषर् से थोडा-सा भटकिे हैं। र्ह भटकन भी उनकी एक शैली है। सबकी

'टकटकी' 'टके' पर लग गई- इस िरह के सूचनात्मक वाक्ों में उनकी भाषा थोडी सहज होिी है।

आचार्य शुक्ल के तवचारात्मक तनबंधों की भाषा पाररभातषक शब्दावली र्ुि, गंभीर एवं पररष्कृि है । जबतक

मनोतवकार संबंधी तनबंधों की भाषा सहज, सरल, व्यावहाररक और बोलचाल के शब्दों से र्ुि है। तववेच्य
तनबंध मनोतवकार संबंधी तनबंध है तजसकी भाषा अत्यंि व्यावहाररक और लचीली है ।

तिष्कषम

कहा जा सकिा है तक रामचंद्र शुक्ल जी की भाषा-शैली उनके तनबंधों को एक तवतशष्ट पहचान दे िी है।
उनकी मौतलकिा, भाषा का सजीव और समृद्ध स्वरूप, अलंकारों का प्रभावी प्रर्ोग, और स्पष्टिा उनके

तनबंधों को पठनीर् और प्रभावशाली बनािे हैं ।

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(ि) बिारसी दास के रे िातचत्रों की शैलीगि तवशेषिाएँ

पररचय

बनारसीदास चिुवेदी जी का जन्म 24 तदसम्बर, 1892

तफ़रोजाबाद (उत्तर प्रदे श) में हुआ था। वे प्रतसद्ध तहन्दी


सातहत्यकार एवं पत्रकार थे। 'प्रेमचंदजी के साथ दो तदन' चिुवेदी

जी का प्रतसद्ध 'रे खातचत्र' है तजसमें कल्पना, िटििा और


तचत्रात्मकिा इनकी शैली के प्रमुख गुण दशायए गए है । बनारसी

दास चिुवेदी जी का रे खातचत्रों के क्षेत्र में उनका कार्य महत्पूणय


रहा है।
बिारसीदास चिुवेदी

बिारसी दास के रे िातचत्रों की शैलीगि तवशेषिाएँ :

बनारसीदास चिुवेदी के रे खातचत्र सरल और व्यंग्यपूणय हैं। उन्ोंने बिार्ा है तक जैसे एक अच्छे िोटो के तलए
कैमरा और तिल्म दोनों अच्छे होने चातहए, वैसे ही एक अच्छे रे खातचत्र के तलए लेखक में सोचने की शस्थि

और भावनात्मक तदल दोनों होने चातहए।

चिुवेदी ने तहंदी में स्कैच राइतटं ग को महत्पूणय िान तदलार्ा और माना है, तक हर व्यस्थि में कोई न कोई
अच्छा पहलू होिा है तजसे उजागर करना चातहए। उनके अनुसार, रे खातचत्र में छोटे -बडे का िकय नहीं होना

चातहए, बस्थि व्यस्थि के गुणों को प्रमुखिा दे नी चातहए।

बनारसी दास चिुवेदी के रे खातचत्र 'प्रेमचंद जी के साथ दो तदन' के तशल्प पक्ष को कल्पना, िटििा और

तचत्रात्मकिा के गुणों के आधार पर दे खा जा सकिा है । जो इस प्रकार है।

कल्पिा : बनारसी दास चिुवेदी बहुि पढ़े -तलखे और तवश्व सातहत्य के ज्ञािा थे। उन्ें र्ह पिा था तक केवल
िथ्यों पर आधाररि रचना श्रेष्ठ नहीं हो सकिी। इस रे खातचत्र में भी उन्ोंने कल्पना का उपर्ोग तकर्ा है।

प्रेमचंद के पत्र के अनुसार, वे सूखे िालाब की िुलना प्रेमचंद के व्यस्थित् की समृस्थद्ध से इस िरह करिे हैं
तक पाठक मंत्रमुग्ध हो जािा है। वे तलखिे हैं तक प्रेमचंद शुष्क बतनर्ापन से बहुि दू र हैं और भले ही बेतनर्ा
पाकय का िालाब सूख जाए, उनके हृदर् का सरोवर हमेशा सरस रहेगा। चिुवेदी जी ने एक अनोखा उदाहरण

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तदर्ा है। उन्ोंने कहा तक अगर प्रेमचंद और सुदशयन एक ही मकान में बंद हों, िो सुदशयन छि से कूद जाएं गे ,

लेतकन प्रेमचंद वहीं बैठे रहें गे। और वहां बैठे-बैठे प्रेमचंद एक कहानी तलख डालेंगे। प्रेमचंद के जमकर बैठ
जाने में ही उनकी असली िाकि और कमजोरी दोनों तछपी हैं।

िटस्थिा : िटििा का मिलब है तक लेखक अपने तवषर् का वणयन तनष्पक्ष होकर करें । चिुवेदी जी भी ऐसा

ही करिे हैं। उदाहरण के तलए, चिुवेदी जी बिािे हैं तक प्रेमचंद र्ात्रा करने से किरािे हैं , लेतकन इसे कमी
के बजार् वे इसे मजातकर्ा अंदाज में पेश करिे हैं। वे कहिे हैं तक प्रेमचंद पचास साल की उम्र में पहली

बार तदिी आए, जो कोई बडी बाि नहीं है , क्ोंतक सम्राट जॉजय पंचम भी एक बार ही तदिी आए थे। वे र्ह
भी कहिे हैं तक अगर प्रेमचंद इिने सालों बाद तदिी आए है।, िो इसमें तदिी की गलिी है , न तक प्रेमचंद

की। इस प्रकार चिुवेदी प्रेमचंद की कतमर्ों को भी सकारात्मक िरीके से पेश करिे हैं।

तचत्रात्मकिा : चिुवेदी जी बिािे हैं तक प्रेमचंद की मूाँछों के बाल 53% सिेद हो चुके हैं और उनकी उम्र
भी लगभग इिनी ही है। वे र्ह भी कहिे हैं तक तहंदी भाषा का मान सिान प्रेमचंद की वजह से ही है। तिर

वे प्रेमचंद के व्यस्थित् का वणयन करिे हुए कहिे हैं तक उनमें जरा भी अहंकार नहीं है। उनका कद छोटा
है, शरीर कमजोर है , और चेहरा भी बहुि प्रभावशाली नहीं है। चिुवेदी जी मजाक में कहिे हैं तक जब ईश्वर

ने सुंदरिा बााँटी थी, िो प्रेमचंद थोडी दे र से पहुाँचे थे। लेतकन प्रेमचंद की सच्ची और स्नेहमर्ी हाँसी इिनी
आकषयक है तक कोई भी भावुक लडकी उनके तलए अपना जीवन समतपयि कर सकिी है।

तिष्कषम

बनारसीदास चिुवेदी के रे खातचत्रों में कल्पना, िटििा और तचत्रात्मकिा के गुण प्रमुखिा से तदखाई दे िे हैं।
उनकी शैली सरल, सरस और व्यंग्यपूणय है। उन्ोंने प्रेमचंद जी के व्यस्थित् को तनष्पक्ष और सजीव िरीके

से प्रस्तुि तकर्ा है , तजससे उनके गुण और कतमर्ां सकारात्मक रूप में सामने आिी हैं। चिुवेदी ने तहं दी
स्कैच राइतटं ग को महत्पूणय िान तदलार्ा और व्यस्थि के गुणों को उजागर करने पर जोर तदर्ा।

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(ग) महादे वी वमाम के संस्मरण का भाषा-तशल्प

पररचय

महादे वी वमाय छार्ावाद की कवतर्त्री के रूप में तवशेष रूप से प्रतसद्ध

हैं। उनका जन्म सन् 1907 में उिर प्रदे श के िरुयखाबाद तजले में हुआ
था। उन्ोंने कुछ रे खातचत्र, कहातनर्ााँ िथा संस्मरण भी तलखे हैं जो

उनके दर्ालु, स्नेहमर् और सहानुभूतिपूणय व्यस्थित् का प्रदशयन करिे


हैं। वह सातहत्य अकादमी की सदस्यिा प्राि करने वाली पहली

लेस्थखका थीं। इन्ोंने अपनी रचनाओं एवं कृतिर्ााँ में संस्कृितनष्ठ र्ा
आम बोलचाल की भाषा- शैली का प्रर्ोग करिी है। महादे वी वमाम

महादे वी वमाम के संस्मरण का भाषा-तशल्प

महादे वी वमाय का भाषा-तशल्प पक्ष तवतशष्ट और अनूठा है । महादे वी वमाय अपने संस्मरणों को रुतचकर और
मातमयक बनाने के तलए दे शज और ग्रामीण भाषा का प्रर्ोग सहज-स्वाभातवक रूप में करिी हैं। साथ ही

इनकी रचनाओं में अवधी भाषा का प्रर्ोग उनके सातहत्य को तवतशष्टिा और गहराई प्रदान करिा है। इसके
साथ ही महादे वी वमाय जी ने अपने गीिों में सरल और ित्सम प्रधान खडी बोली का प्रर्ोग तकर्ा है। इसके

अलावा उन्ोंने अपनी महत्पूणय रचनाओं में उदू य , फ़ारसी और अंग्रेजी शब्दों का भी इस्तेमाल तकर्ा है।

महादे वी वमाय ने अपनी रचनाओं में मुहावरों और लोकोस्थिर्ों का प्रर्ोग तकर्ा है जो लोक जीवन की सजीविा

को दशायिा है। साथ ही, लक्षणा और व्यंजना की प्रधानिा इनकी भाषा की एक महत्पूणय तवशेषिा है।इस
प्रकार महादे वी जी की भाषा शुद्ध सातहस्थत्यक भाषा है।

महादे वी वमाय ने अपनी रचनाओं में रूपक, उपमा, पुनरुस्थि प्रकाश, अनुप्रास आतद अलंकारों का बहुि ही

कुशलिा से प्रर्ोग करिी हैं । इसके अलावा उन्ोंने अपनी काव्य रचनाओं में मानवीकरण का सुंदर प्रर्ोग
तकर्ा गर्ा है। साथ ही, महादे वी वमाय ने अपनी रचनाओं में तवर्ोग श्रृंगार और लक्षणा शब्द-शस्थि का प्रर्ोग

भी करिी है। तजससे इनकी रचनाओं में भावनाओं-प्रेम , तवरह , पीडा आतद की अतभव्यस्थि होिी है। इनके

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साथ ही कभी-कभी वे ित्सम शब्दों का प्रर्ोग कर जािी है जो उनके को रचनाओं को सरस और प्रभावपूणय

बनािी है।

महादे वी वमाय ने अपनी रचनाओं में कई शैलीर्ों का प्रर्ोग करिी है जैसें - वणयनात्मक, तवचारात्मक, तचत्रात्मक
एवं भावात्मक। इनके अतिररि तचत्रात्मक-शैली महादे वी वमाय की गद्य-भाषा का एक अतनवार्य और

आाँ िररक िि है। उन्ें ित्सम शब्दों के प्रति गहरा लगाव है। उनकी गद्य-शैली सरस और प्रवाहपूणय होिी
है।

तिष्कषम

महादे वी वमाय की भाषा-शैली सरल, प्रभावशाली और आकषयक है। उन्ोंने खडी बोली के साथ उदू य , अंग्रेजी
और फ़ारसी के शब्दों का सिलिापूवयक प्रर्ोग तकर्ा है। उनके लेखन में संवेदना, करुणा, दर्ा और संगीि

का अतििीर् मेल दे खने को तमलिा है। अपनी सृजनशील गद्य-भाषा से उन्ोंने व्यस्थि-जीवन और सामातजक
र्थाथय का संवेदनशील और सजीव तचत्रण तकर्ा है , जो पाठकों को गहराई से प्रभातवि करिा है ।

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(घ) 'अंगद का पाँव' तिबंध की भाषा-शैली

पररचय

व्यंग्य-कथाकार श्रीलाल शुक्ल का जन्म सन् 1925 में लखनऊ के एक

समीपविी गााँव में हुआ था। स्वािंत्र्योिर तहंदी सातहत्य में श्रीलाल शुक्ल
जी का िान बहुि ही महिपूणय है। कहातनर्ााँ , उपन्यास और व्यंग्य-

सातहत्य में श्रीलाल शुक्ल ने समकालीन समाज और जीवन का


वास्ततवक तचत्रण तकर्ा है। शुक्ल जी अंग्रेज़ी, उदू य , संस्कृि और तहन्दी

भाषा के तविान थे व इन्ोनें अपनी रचनाओं में बोलचाल की भाषा


पररचय श्रीलाल शुक्ल जी
शैली का प्रर्ोग तकर्ा है।

'अंगद का पाँव' तिबंध की भाषा-शैली :

शुक्ल जी के अतधकां श तनबंध आम बोलचाल की भाषा में हैं और इनमें आत्मीर्िा होिी है । सजीविा एवं
प्रभावशीलिा इनकी भाषा की मुख्य तवशेषिा है। कहीं-कहीं वे ऐसे तवशेषण-प्रर्ोग कर जािे हैं तजससे

अचानक ही व्यंग्य उत्पन्न हो जािा है उदाहरणाथय "अब उन्ोंने स्वातमभि मािहिों के हाथों गले में मालाएाँ
पहनीं, सबसे हाथ तमलार्ा, सबसे दो-चार रस्मी बािें कहीं, और िस्टय क्लास के तडब्बे के इिने नज़दीक खडे

हो गए तक गाडी छूटने का खिरा न रहे। र्हााँ स्वातमभि, शब्द तवशेष उिेखनीर् है। कहीं-कहीं उदू य , और
अंग्रेजी शब्द भी आिे हैं , लेतकन र्े इिने कतठन नहीं होिे तक व्यंग्य बोतझल हो जाए। उनके व्यंग्य में लखनवी

अंदाज़ होने के कारण कुछ कम प्रचतलि उदू य और अंग्रेजी के शब्द आ जािे हैं , जैसे ‘बेज़ार’, ‘मजमून’ र्ा
अंग्रेज़ी के ‘कोएशयन’ शब्द उदाहरण के तलए तलर्ा जा सकिा है।

श्रीलाल शुक्ल की अतधकिर रचनाएाँ व्यंग्य तवधा में है। उनकी सभी व्यंग्य रचनाएाँ वास्ततवकिा पर आधाररि
होिी हैं जो उनकी भाषा शैली की तवशेषिा है । श्रीलाल शुक्ल जी ने तमथकीर् तशल्प के साथ-साथ लोकोस्थिर्ों

और दे शज मुहावरों का प्रर्ोग भी कुशलिापूवयक तकर्ा है ।

अंगद का पााँव' तनबंध में श्रीलाल शुक्ल जी ने बािों का प्रत्यक्ष रूप से प्रस्तुतिकरण तकर्ा है , तजससे पाठकों
को आसानी से समझने में सहार्िा तमलिी है। श्रीलाल शुक्ल जी ने अपनी रचनाओं में संवाद शैली का अनूठा

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प्रर्ोग तकर्ा है । इसके अतिररि उन्ोंने तववेचनात्मक, सांकेतिक, व्यंग परक शैली ,भावात्मक शैली, और

वणयनात्मक शैली का प्रर्ोग भी अपनी रचनाओं में तकर्ा है ।

तिष्कषम

श्रीलाल शुक्ल जी की भाषा-शैली उनके तनबंधों को एक तवतशष्ट पहचान दे िी है उनकी भाषा में एक सहजिा
स्पष्टिा है । अलंकारों और मुहावरों का साथयक प्रर्ोग करना उनकी भाषा-शैली की प्रमुख तवशेषिा है , जो

उनके तनबंध को अतधक गहराई प्रदान करिा है।

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