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श्री कृष्ण कृपा कटाक्ष स्तोत्र
श्री कृष्ण कृपा कटाक्ष स्तोत्र
श्रीकृ ष्ण कृ पाक टाक्ष स्तोत्र एक हिन्दू धार्मिक स्तोत्र है जो भगवान श्रीकृ ष्ण की स्तुति में गाया जाता है। इस स्तोत्र
का पाठ करने से भक्तों का मानना है कि उन्हें भगवान श्रीकृ ष्ण की कृ पा प्राप्त होती है और उनके जीवन में सुख,
शांति, और समृद्धि आती है। यह स्तोत्र भक्तों को भगवान श्रीकृ ष्ण के निकट लाता है और उनके चरणों में अनन्य
भक्ति और समर्पण की भावना को जगाता है।
मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं,
विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम्।
करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं,
महेन्द्रमानदारणं नमामि कृ ष्ण वारणम्॥
स्तोत्र के विभिन्न श्लोकों में भगवान श्रीकृ ष्ण के दिव्य गुणों, उनकी लीलाओं, और उनकी कृ पा के महत्व का वर्णन
किया गया है। यह भक्तों को आत्मिक उन्नति की ओर मार्गदर्शन करता है और उनके हृदय में भक्ति और प्रेम की
भावना को उत्पन्न करता है।
इस स्तोत्र का पाठ या जप करने से भक्तों को अध्यात्मिक लाभ और आंतरिक शांति का अनुभव होता है, और
उनका मन विश्वास और समर्पण से भर जाता है। यह स्तोत्र भक्तों के लिए एक आध्यात्मिक अभ्यास और साधना
का मार्ग प्रशस्त करता है, जिससे वे भगवान श्रीकृ ष्ण के अधिक निकट आ सकते हैं।
यह प्रार्थना भगवान श्रीकृ ष्ण के असीम कृ पा और भक्ति के महत्व को दर्शाती है। इसकी व्याख्या निम्नलिखित है:
मूकं करोति वाचालं पंगु लंघयते गिरिम्। यत्कृ पा तमहं वन्दे परमानन्द माधवम्।।
अर्थ: जिसकी कृ पा से मूक व्यक्ति वाचाल (बोलने वाला) बन जाता है और लंगड़ा व्यक्ति पहाड़ को
पार कर लेता है, ऐसे परमानंद रूपी माधव (भगवान श्रीकृ ष्ण) को मैं नमन करता हूँ।
व्याख्या: यह पंक्ति भगवान श्रीकृ ष्ण की असीम कृ पा को दर्शाती है, जिससे असंभव प्रतीत होने वाले
कार्य भी संभव हो जाते हैं।
नाहं वसामि वैकु ण्ठे योगिनां हृदये न च। मद्भक्ता यत्र गायन्ति तत्र तिष्ठामि नारद।।
अर्थ: मैं (भगवान श्रीकृ ष्ण) न तो वैकु ण्ठ में रहता हूँ और न ही योगियों के हृदय में; जहाँ मेरे भक्त
गान करते हैं, मैं वहाँ विराजमान हूँ, हे नारद।
व्याख्या: यह पंक्ति भगवान श्रीकृ ष्ण के भक्तों के प्रति उनके प्रेम को दर्शाती है। भगवान कहते हैं कि
वे उस स्थान पर उपस्थित रहते हैं, जहाँ उनके भक्त उनकी भक्ति में लीन होकर गान करते हैं। यह
उनके भक्तों के प्रति उनके अनन्य समर्पण और प्रेम को दर्शाता है।
इस प्रार्थना में नारद मुनि भगवान श्रीकृ ष्ण की कृ पा को प्राप्त करने की गहरी इच्छा व्यक्त करते हैं। उन्होंने बताया
कि भगवान श्रीकृ ष्ण की कृ पा से हर कोई अपने अवगुणों को विजयी बना सकता है और सभी को उनका
आशीर्वाद प्राप्त हो सकता है। उनका स्थान उनके भक्तों के हृदय में होता है, जो उनकी भक्ति और प्रेम से उन्हें
स्तुति करते हैं।
यह श्रीकृ ष्ण कृ पाकटाक्ष स्तोत्र का पहला श्लोक है, जो भगवान श्रीकृ ष्ण की महिमा और उनके भक्तों के प्रति कृ पा
को व्यक्त करता है। इसकी व्याख्या निम्नलिखित है:
यह श्लोक भगवान श्रीकृ ष्ण के चरित्र, उनकी दिव्यता, और उनके भक्तों के प्रति उनके प्रेम और कृ पा की गहराई
को व्यक्त करता है।
मनोजगर्वमोचनं विशाललोललोचनं,
विधूतगोपशोचनं नमामि पद्मलोचनम्।
करारविन्दभूधरं स्मितावलोकसुन्दरं,
महेन्द्रमानदारणं नमामि कृ ष्ण वारणम्॥
यह श्रीकृ ष्ण कृ पाकटाक्ष स्तोत्र का दूसरा श्लोक है, जो भगवान श्रीकृ ष्ण के दिव्य गुणों और उनके लोक-सुधारक
कार्यों को प्रकाशित करता है। इसकी व्याख्या निम्नलिखित है:
इस श्लोक के माध्यम से भगवान श्रीकृ ष्ण की अद्भुत शक्तियाँ, उनके सौंदर्य और उनकी दयालुता का वर्णन किया
गया है, जो उन्हें उनके भक्तों के लिए अत्यंत प्रिय और पूजनीय बनाता
यह श्रीकृ ष्ण कृ पाकटाक्ष स्तोत्र का तीसरा श्लोक है, जो भगवान श्रीकृ ष्ण के सौंदर्य और उनके व्रजवासियों के प्रति
प्रेम को वर्णित करता है। इसकी व्याख्या निम्नलिखित है:
यह श्लोक भगवान श्रीकृ ष्ण के अनुपम सौंदर्य, उनके प्रेमपूर्ण संबंधों, और उनके भक्तों के प्रति उनकी कृ पा की
महिमा को प्रकट करता है।
यह श्रीकृ ष्ण कृ पाकटाक्ष स्तोत्र का चौथा श्लोक है, जो भगवान श्रीकृ ष्ण की दिव्यता, उनके भक्तों के प्रति कृ पा
और सम्पूर्ण जगत के पोषण की भावना को व्यक्त करता है। इसकी व्याख्या निम्नलिखित है:
यह श्लोक भगवान श्रीकृ ष्ण की अद्भुत शक्तियों, उनके भक्तों के प्रति उनके अनन्य प्रेम, और समस्त सृष्टि के पोषण
करने की उनकी दिव्य क्षमता को प्रकट करता है।
यह श्रीकृ ष्ण कृ पाकटाक्ष स्तोत्र का पांचवां श्लोक है, जो भगवान श्रीकृ ष्ण के दिव्य गुणों, उनकी अनुपम सौंदर्यता
और उनके भक्तों के प्रति उनके अद्वितीय प्रेम को वर्णित करता है। इसकी व्याख्या निम्नलिखित है:
भुवो भरावतारकं भवाब्धिकर्णधारकं , यशोमतीकिशोरकं नमामि चित्तचोरकम्।
अर्थ: जो पृथ्वी के भार को कम करने के लिए अवतरित हुए, जो भवसागर के नाविक हैं, जो यशोदा
के किशोर पुत्र हैं, उन चित्त चोर (श्रीकृ ष्ण) को मैं नमन करता हूँ।
व्याख्या: यह पंक्ति भगवान श्रीकृ ष्ण के विभिन्न रूपों और कार्यों का वर्णन करती है। वे पृथ्वी पर
बढ़ते हुए भार को कम करने के लिए अवतार लेते हैं, भक्तों को संसार के भवसागर से पार कराने में
सहायता करते हैं, और उनकी मनमोहक लीलाओं से सबके चित्त को चुरा लेते हैं।
दृगन्तकान्तभंगिनं सदा सदालिसंगिनं, दिने-दिने नवं-नवं नमामि नन्दसम्भवम्॥
अर्थ: जिनकी आकर्षक दृष्टि से अंत नहीं है, जो सदैव सुदामा जैसे भक्तों के साथ हैं, जो प्रतिदिन
नया और अद्वितीय हैं, ऐसे नंद के पुत्र (श्रीकृ ष्ण) को मैं नमन करता हूँ।
व्याख्या: यह पंक्ति भगवान श्रीकृ ष्ण की अनंत सौंदर्यता, उनके भक्तों के साथ उनके अनन्य संबंध
और उनकी नित्य नवीनता को दर्शाती है। वे अपने दिव्य रूप और लीलाओं के माध्यम से प्रतिदिन
भक्तों के लिए नई आध्यात्मिक ऊर्जा और उत्साह का स्रोत बनते हैं।
इस श्लोक में भगवान श्रीकृ ष्ण के दिव्य गुणों, उनके लोकोत्तार सौंदर्य, और उनके भक्तों के प्रति उनके अद्भुत प्रेम
का गान किया गया है।
यह श्रीकृ ष्ण कृ पाकटाक्ष स्तोत्र का छठा श्लोक है, जो भगवान श्रीकृ ष्ण की दिव्य गुणों, उनके सौंदर्य, और उनके
लीलाओं की अद्भुतता को वर्णित करता है। इसकी व्याख्या निम्नलिखित है:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृ ष्ण के गुणों, उनके अद्वितीय प्रेम लीलाओं, और उनके दिव्य सौंदर्य की स्तुति की गई
है।
यह श्रीकृ ष्ण कृ पाकटाक्ष स्तोत्र का सातवां श्लोक है, जो भगवान श्रीकृ ष्ण के दिव्य गुणों और उनकी अतुलित
सौंदर्यता की स्तुति करता है। इसकी व्याख्या निम्नलिखित है:
इस श्लोक में भगवान श्रीकृ ष्ण के अद्वितीय गुणों और उनके सौंदर्य की स्तुति की गई है, जो उनके भक्तों के मन को
मोह लेते हैं।
यह श्रीकृ ष्ण कृ पाकटाक्ष स्तोत्र का आठवां श्लोक है, जो भगवान श्रीकृ ष्ण के विलक्षण लीलाओं, उनके अद्भुत
सौंदर्य और उनके दिव्य कार्यों को वर्णित करता है। इसकी व्याख्या निम्नलिखित है:
यह श्रीकृ ष्ण कृ पाकटाक्ष स्तोत्र का शुभ फल वर्णन करता है, जो इस स्तोत्र के पाठ या जप के लाभ को बताता है।
इसकी व्याख्या निम्नलिखित है:
यदा तदा यथा तथा तथैव कृ ष्णसत्कथा, मया सदैव गीयतां तथा कृ पा विधीयताम्।
अर्थ: जब भी, जैसे भी, वैसे ही श्रीकृ ष्ण की सच्ची कथाओं का गायन मैं सदैव करूँ , वैसी ही कृ पा
मुझ पर की जाए।
व्याख्या: इस पंक्ति में यह व्यक्त किया गया है कि भक्त भगवान श्रीकृ ष्ण की लीलाओं और कथाओं
को सदैव गाना चाहते हैं, और इस कार्य के माध्यम से वे भगवान की कृ पा की कामना करते हैं।
प्रमाणिकाष्टकद्वयं जपत्यधीत्य यः पुमान्, भवेत्स नन्दनन्दने भवे भवे सुभक्तिमान॥
अर्थ: जो व्यक्ति इस प्रमाणित आठ श्लोकों को जपता है या पढ़ता है, वह हर जन्म में नन्दनंदन
(श्रीकृ ष्ण) का सच्चा भक्त बनता है।
व्याख्या: इस पंक्ति में स्तोत्र के जप या पाठ के शुभ फल का वर्णन किया गया है। यह बताया गया है
कि इस स्तोत्र का नियमित अभ्यास करने से भक्त हर जन्म में भगवान श्रीकृ ष्ण की अनुकं पा प्राप्त
करता है और उनके प्रति अटूट भक्ति का विकास करता है।
इस प्रकार, श्रीकृ ष्ण कृ पाकटाक्ष स्तोत्र के पाठ या जप से भक्त को भगवान श्रीकृ ष्ण की कृ पा प्राप्त होती है और
उनके प्रति गहरी भक्ति और समर्पण की भावना विकसित होती है।
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