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(सरोज) -अश्वस्थामा-आशुतोष गर्ग
(सरोज) -अश्वस्थामा-आशुतोष गर्ग
(सरोज) -अश्वस्थामा-आशुतोष गर्ग
आशुतोष गग
मंजुल प ल शग हाउस
मंजुल प ल शग हाउस
कॉरपोरेट एवं संपादक य कायालय
तीय तल, उषा ीत कॉ ले स, 42 मालवीय नगर, भोपाल—462003
व य एवं वपणन कायालय
7/32 , अंसारी रोड, द रयागंज, नई द ली-110002
वेबसाइट: www.manjulindia.com
वतरण के
अहमदाबाद, बगलु , भोपाल, कोलकाता, चे ई,
हैदराबाद, मु बई, नई द ली, पुणे
कॉपीराइट © 2017 आशुतोष गग
यह सं करण 2017 म पहली बार का शत
ISBN 978-81-8322-806-0
आशुतोष गग इस पु तक
के लेखक होने क नै तक ज़ मेदारी वहन करते ह
यह पु तक इस शत पर व य क जा रही है क काशक क ल खत पूवानुम त के बना इसे या इसके कसी भी ह से को
न तो पुनः का शत कया जा सकता है और न ही कसी भी अ य तरीक़े से, कसी भी प म इसका ावसा यक उपयोग
कया जा सकता है। य द कोई ऐसा करता है तो उसके व कानूनी कारवाई क जाएगी।
सम त अ भलाषा
के ाता
भगवान कृ ण के
ीचरण म
वषय-सूची
आभार
भू मका
1
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उपसंहार
आभार
य हकरतेमेरीकाफ़
पहली कृ त नह है य क मुझे अनुवाद तथा संपादन आ द से संबं धत काय
समय बीत चुका है और इस बीच मेरे नाम से अनेक पु तक का शत हो गई
ह। परंतु मौ लक उप यास के संदभ म, यह अव य मेरा थम यास है।
लेखक क या ा, सव के समान होती है य क लेखक को अपनी पु तक के काशन
से वही आनंद और संतोष ा त होता है, जो ी को संतान के ज म के बाद मलता है!
लेखक क इस आनंद द या ा म अनेक लोग उसके हमसफ़र होते ह, जो क़दम-क़दम पर
उसके लेखन को सँभालते और साधते ह। वे उसके दमाग़ म चल रही उधेड़-बुन को सुलझाते
ह, अपने सुझाव ारा कथा क पेचीद गय को र करते ह और बीच-बीच म उ प हताशा
और मायूसी के ण म लेखक को ेरणा दे ते ह। वे लोग, लेखक को उसके अंतमन क
गहराइय से भावना के लभ मो तय को चुनने और उ ह काग़ज़ पर उतारने म सहायता
करते ह। यही वे लोग ह, जो लेखक को दरअसल, लेखक बनाते ह!
मुझे भी इस उप यास क संक पना से लेकर इसके काशन और फर आपके हाथ म
इसके प ँचने तक क या ा म अनेक लोग ने े रत कया है।
सव थम, म अपने माता- पता को णाम करता ,ँ जनका आशीवाद मुझे सदै व ा त
आ है। मेरे पताजी डॉ. ल मी नारायण गग ने, जो वयं एक स लेखक व अनुवादक ह,
ह पौरा णक सा ह य से मेरा कुछ इस तरह प रचय करवाया क पौरा णक कथाएँ, मेरे ान
और चतन का ह सा बन ग । मेरी माताजी, ीमती आशा गग, सदा मेरे लए साहस और
संघष का काश- तंभ रही ह। उ ह ने मुझे सखाया है क संघषशील , कभी उदास
नह हो सकता! उनका यही गु -मं मुझे बना थके, काय करते रहने क असीम ऊजा दे ता
है। म अपनी प नी गुंजन का दय से ध यवाद करता ,ँ जो मेरे काय म मुझे सतत सहयोग
दे ती ह, मेरे लखे मसौद को बार-बार धैयपूवक सुनती ह और जनके सुझाव से मेरा लेखन
खर होता चलता है। म अपने यो य पु , अ और चाँद-सी पु ी, अ पूणा को भी हा दक
ध यवाद दे ता ँ य क वे ेम-भरी खल खलाहट और अपने अनंत नेह ारा, मेरे त
जीवन म आनंद और उ लास के छोटे , कतु अनमोल ण भरते ह।
म अपने उन सम त म को ध यवाद दे ना चाहता ँ, ज ह ने हमेशा मेरे लखे को
सराहा; म उ ह क शंसा और ो साहन से आज इस पड़ाव तक प ँच पाया ँ। म अपने
उन सभी म का भी आभारी ँ, जनके साथ मने इस पु तक क वषय-व तु पर अनेक
बार व तार से चचा क और उ ह ने इसम मह वपूण सुझाव दे कर, इसे प र कृत प दे ने म
ब मू य योगदान दया है।
म अपने काशक, मंजुल प ल शग हाउस, और वशेषकर, ी वकास रखेजा तथा
ी क पल सह का दय से आभारी ँ, ज ह ने इस कथा के पौरा णक एवं सामा जक
मह व को समझा तथा इसे पु तक प म, पाठक के सम तुत करके समाज के त
अपने दा य व का शंसनीय नवहन कया है।
म अंत म, ीह र व णु के अवतार, भगवान ीकृ ण को बारंबार णाम करता ,ँ जो
मेरे भीतर सहज- ा एवं अनंत ऊजा के ोत ह!
भू मका
पौ रामहाभारत।
णक सा ह य म दो ंथ सबसे अ धक लोक य माने जाते ह - रामायण और
जहाँ एक ओर रामायण भाइय के बीच अटू ट ेम को दशाती भ - धान
रचना है, वह महाभारत राजतं और कूटनी त पर आधा रत चचेरे भाइय के बीच ए
र रं जत यु क महागाथा है।
महाभारत ह का एकमा ऐसा ंथ है, जो धा मक, पौरा णक, ऐ तहा सक और
दाश नक सभी कोण से मह वपूण माना जाता है। व का सबसे लंबा महाका होने
के कारण, महाभारत को ह धम म ‘पंचम वेद’ भी कहा गया है। ह क एक अ य
प व पु तक ‘ ीम गव ता’ भी महाभारत का ही अंश है। संपूण महाभारत म एक लाख
से अ धक ोक ह। वेद ास ारा र चत महाभारत क एक अ य वशेषता उसक
वशालता है। इसका अनुमान उसके थम पव के एक ोक से लगाया जा सकता है,
जसका आशय यह है:
जो यहाँ (महाभारत म) है वह आपको संसार म
कह न कह अव य मल जाएगा,
कतु जो महाभारत म नह है, वह संसार म
आपको अ य कह नह मलेगा!
महाभारत म अ ारह क सं या का वशेष मह व है। कौरव और पांडव के बीच आ यु
अ ारह दन चला। दोन प क सेना का स म लत सं या बल अ ारह अ ौ हणी था,
जसम यारह अ ौ हणी कौरव क और सात अ ौ हणी पांडव क थी। संपूण महाभारत
ंथ भी अ ारह पव म वभ है और महाभारत के भी म पव के अ तगत व णत
ीम गव ता म भी अ ारह अ याय ह। कुल मलाकर, रामायण क तुलना म, महाभारत
के त लोग के मन म कौतूहल और च अ धक दे खने को मलती है। महाभारत का
अचं भत कर दे ने वाला रोचक कथानक तथा और उसके वल ण एवं गु पा पाठक को
अंत तक बाँधे रखते ह।
महाभारत यु को धम-यु भी कहा जाता है य क इसम कौरव तथा पांडव, मशः
अधम एवं धम के तीक ह और रामायण क भां त, महाभारत का अंत भी अ याय पर, याय
क वजय तथा धम क पुन थापना के साथ आ है। य धन के नेतृ व म यु रत सभी
कौरव अहंकार और हठ क वेद म वाहा हो गए और अंत म पांडव वजयी ए।
धम-अधम क ऐसी कथा म, पा का अ छे और बुरे खेम म बँट जाना वाभा वक
होता है। धम का साथ दे ने वाले को अ छा, और अधम के प धर को बुरा ही माना जाता है।
महाभारत म भी ऐसा ही आ। अधम य धन का साथ दे ने वाले सभी पा को राचारी
मान लया गया, फर चाहे वे कत - न ा के तीक गंगा-पु भी म ह , यु -कौशल म
पारंगत ोणाचाय अथवा अपने अ त व क तलाश करता महारथी कण! इ तहास सा ी है
क संसार ने इन महान यो ा एवं नी त- नपुण लोग को सदाचारी होने के बावजूद भी,
य धन के प म यु करने के अपराध के लए कभी मा नह कया।
कौरव प के इन लभ पा के बीच, एक पा ऐसा भी है जसके व क आभा
अ य पा क चकाच ध म मंद पड़ गई। एक ऐसा पा , जो तन से जीवन-भर कपट य धन
के साथ रहा, ले कन जसका मन नै तकता से नह डगा। उस पा ने क मय के बीच रहते
ए भी अपनी आ मा को छल और कपट क काली व षत छाया से सदै व र रखा। एक
ऐसा अनूठा व, जसने अपने नी त- य दय को य धन क मूढ़ हठध मता के
नरंतर आघात से बचाए रखा। महाभारत के यु के दौरान, उस पा से दो ऐसे अपराध हो
गए, जनके कारण भगवान ीकृ ण ने उसे शाप दया क उसके शरीर के घाव कभी नह
भरगे और वह अपने सड़े ए, जजर तन को लए चरकाल तक पृ वी पर भटकता रहेगा!
ऐसा माना जाता है क वह , ीकृ ण ारा दए गए दं ड क पीड़ा आज तक भोग रहा
है । महाभारत का वह अनूठा पा है - अ थामा! कहते ह, कृ ण ारा दए गए शाप के
कारण, अ थामा हज़ार वष के बाद, आज भी जी वत है और अपने पाप का प रणाम
भोग रहा है।
यह स य है क अ थामा ने यु के अंत म ऐसे कुकम कए, ज ह ने उसक जीवन-
भर क शु चता और सौ यता को छ - भ कर डाला। म यह भी मानता ँ क उसके ये
कम अ य अपराध क ेणी म आते ह। यह भी स य है क य धन जैसे कपट और
कुबु वाले का साथ दे ने के कारण अ थामा नदनीय है। परंतु फर यह भी स य है
क ये सारी बात अ -स य ह!
कोई भी , पूरी तरह न अ छा होता है और न बुरा। येक मनु य के भीतर
अ छाई और बुराई दोन का समावेश होता है और महाभारत के अ य पा क भां त,
अ थामा म भी उसी तरह क चा र क बलताएँ मौजूद थ , जैसा क अ य मनु य म
होती ह। य धन के त न ा के फल व प, प र थ तवश, अ थामा ारा कए गए
अनु चत कम क बात करते समय, हम यह भी मानना पड़ेगा क वह एक अद य यो ा था
और उसके भीतर स दयता एवं नी तवान होने के ल ण भी व मान थे। उसके व के
स ण को समझे और जाने बना ही, उसे य धन के समक , राचारी व समझा जाता
है। केवल इस लए क उसने हताशा व ोधा तरेक क थ त म ूण-ह या जैसा घनौना एवं
धम व अपराध कया, उसके व के अ य गुण तथा चा र क वशेषता क सरे
से उपे ा कर दे ना उस महान यो ा के साथ अ याय है। महाभारत के यु म ऐसे अनेक पा
ह जो अ थामा क भां त छलपूण र पात के दोषी ह, कतु सबसे अ धक क दायक और
द घका लक दं ड केवल अ थामा को मला।
यहाँ, भगवान ीकृ ण के दं ड वधान को चुनौती दे ना मेरा ल य नह है य क
ीकृ ण वयं ई र का अवतार ह और ई र के वधान म ु ट होने क क पना करना थ
है। इसी त य को यान म रखते ए, अ थामा भी उस शाप से उ प क को भोगने के
दौरान, आ म-मंथन तथा न प ता से अपने वहार का व ेषण करता रहता है। वह
अपने जीवन क अ छ -बुरी घटना को याद करता है तथा कृ ण ारा दए गए उस अ यंत
द घका लक शाप के कारण को खोजने का यास करता है। अंत म, वह कृ ण के उस
वकट शाप का औ च य समझने म सफल हो जाता है। उसे पता लगता है क कृ ण ने उसे
भयंकर दशा म जी वत छोड़कर, आधु नक मानव समाज को मह वपूण संदेश दया है!
मने बचपन से आज तक, जब भी महाभारत क कथा को पढ़ा-सुना, मेरे मन म
अ थामा के त सदा सहानुभू त व क णा के भाव ही जा त ए। इस लए मने सोचा था
क य द कभी महाभारत के कसी पा पर कुछ लखने क इ छा ई तो म अ थामा पर
अव य लखूँगा य क म चाहता ँ क लोग अ थामा के व को प रपाट से थोड़ा
हटकर समझने का यास कर। यही कारण है क मने इस उप यास म, महाभारत क गाथा
को अ थामा के कोण से तुत करके, उसके स दय प को उकेरने और ीकृ ण का
स दय पहले दया संदेश अपने सुधी व आधु नक पाठक तक प ँचाने का यास कया है।
इस काय से ीकृ ण ारा शा पत अ थामा के तन के घाव बेशक न भर सक, कतु उसक
न कपट आ मा पर लगे हजार वष पुराने आघात पर मरहम अव य लगेगा!
आजकल अनेक ट वी चैनल और सोशल मी डया आ द म अ थामा के ाचीन
मं दर और जंगल म दखाई दे ने क ख़बर भी दे खने-सुनने म आती ह। यहाँ तक क
अ थामा को खोजने के यास भी कए जाते रहे ह। अ थामा को अमर मानकर, उसक
खोज करने वाले लोग के लए भी इस उप यास म एक संदेश है, जसे समझने और उस पर
अमल कए जाने क आव यकता है।
एक बात और! लोग ायः चीज़ को प प से दे खना चाहते ह कतु हमेशा ऐसा
संभव नह होता। आपके और मेरे कोण के अलावा एक और कोण होता है, जो
तट थ रहता है; वह इधर या उधर नह झुकता। कसी के च र के वषय म ज द -से
नणय दे ना ब त सरल है ले कन हम इस वृ से बचना चा हए य क इस ज दबाजी से,
उस के साथ अ याय होने क संभावना बढ़ जाती है। म जानता ँ क अ थामा के
बारे म लोग क आम धारणा कैसी है। य द यह उप यास अ थामा के वषय म आपके
कसी पूवा ह को चुनौती दे ता है या आपको उसके वषय म दोबारा सोचने पर ववश करता
है, तो म इसे अपनी रचना मक सफलता समझूँगा।
चूं क यह मेरा पहला मौ लक उप यास है, ब त संभव है क मुझसे अ ानतावश, बीच-
बीच म अ भ अथवा त य-संबंधी ु टयाँ ई ह । म अपने सुधी पाठक से उन -
अ भूल के लए मा माँगता ँ तथा अनुरोध करता ँ क वे बे हचक, मुझे अपने
सुझाव और त याएँ भेज, ता क म अपनी आने वाली पु तक म उन सुझाव का यान
रख सकूँ।
तो आइए, म अब आपको अ थामा के पास लए चलता ँ, जो कसी अ ात नजन
वन म आपको अपने कोण से महाभारत क ऐ तहा सक कथा और अपने मन क था
सुनाने को उ सुक बैठा है!
—आशुतोष गग
नई द ली
ईमेल: ashutoshgarg343@gmail.com
1
क हते ह, मनु य के ज म के साथ ही उसक मृ यु का समय भी नधा रत हो जाता है,
ले कन मेरे साथ ऐसा कुछ नह आ। जहाँ तक मेरे ज म का है, वह तो अपने
पूव नयो जत समय पर ही आ, कतु मेरे ज म के हज़ार वष बाद भी नय त ने मेरी मृ यु के
समय और थान के वषय म अभी तक कोई नणय नह लया है। हालां क, मेरे जीवन क
दशा दे खकर इस बात क संभावना भी बनती है क वधाता ने नयमानुसार, मेरे ज म क
भां त, मेरी मृ यु का समय तो नधा रत कया था कतु, मेरी प र थ तय और मेरे कम
( ज ह शायद अब कम क जगह, कम कहना बेहतर होगा) के फल व प, नय त ने उसे
अ न त काल के लए थ गत कर दे ना उ चत समझा। मेरे समय म कुछ ऐसे समकालीन
ानी व त व-वे ा लोग भी थे जो, य द आज जी वत होते तो शायद मुझे मेरी मृ यु के
वषय म कुछ बता पाते। परंतु यह भी मेरा ही भा य है क वह सब एक-एक करके
शता दय पूव वग या नरक - कौन जाने कहाँ - गमन कर गए और म आज भी अपनी मृ यु
क ती ा म पृ वी पर अकेला, बेसहारा और बेहाल भटक रहा ँ।
मुझे अपनी जजर शारी रक अव था तथा हेय मनोदशा का वणन करने क इ छा तो
नह है, कतु आपको यह बताना इस लए अ नवाय है य क इस कथा के अंत म आपको
मेरे कम और उनके लए मुझे मले दं ड का न प व ेषण करना है। इसके बाद ही आप
यह समझ पाएँगे क मेरे बारे म आपने अब तक जो कुछ पढ़ा है, सुना है, और आप जो कुछ
मेरे वषय म सोचते ह, या वह सचमुच सही है!
मेरा तन ल लुहान हो गया है और म अनेक असा य आ ध- ा धय से त ँ। मेरे
शरीर पर लगे घाव से नरंतर मवाद का ाव होता रहता है, जसके कारण मेरे तन से
भयंकर गध आती है। इस कारण नान कए बना तो चैन मलने का ही नह , और
नान करने के बाद थ त और बगड़ जाती है य क पानी पड़ने से मेरे घाव गीले हो जाते
ह, फर उनसे हो रहा मवाद का ाव और उससे उ प गध भी बढ़ जाती है। मेरी दशा क
चरम सीमा यह है क मुझे वयं नह पता क अब मेरे तन म र क मा ा अ धक है अथवा
मवाद क ! मेरे तन के कसी भी अंग क बात कर तो यही थ त है। मेरे बाल मूँज से भी
यादा कड़े हो चुके ह। मेरे भीतर अब उ ह न तो सुलझाने क ह मत शेष है और न ही धैय।
मेरे नाख़ून इतने बड़े और काले हो चुके ह क उ ह यदा-कदा दे खकर म वयं भयभीत हो
जाता ँ। साधारण मनु य के दाँत कुछ ही वष म गरने लगते ह और फर उसे खाने-पीने म
परेशानी होती है, ले कन मेरी थ त भयावह है। आपको यह जानकर शायद आ य होगा क
मेरे अ धकतर दाँत अभी तक ह, कतु समय के साथ वे इतने काले, स त और टे ढ़े हो गए ह
क मुझे कसी व तु के खाने का एहसास नह होता और ायः मुझे यह भी पता नह लगता
क मेरे मुँह म फल ह या कंकड़! अपनी पैनी और वण-श पर कभी मुझे इतना गव
था क श द-भेद बाण चलाने म पांडु-पु अजुन के अ त र मेरा कोई सानी नह था।
तथा प, आज मेरी थ त ऐसी है क मेरे ने कु वंश क महारानी गांधारी के ने क तरह
अथहीन हो चुके ह य क मुझे आँख होते ए भी साफ़ दखाई नह दे ता। जहाँ तक बोलने
व सुनने का है, तो यहाँ भी मुझसे यादा अभागा कोई नह य क ीकृ ण के शापवश
कई शता दय से मुझे इन बीहड़ व नजन वन म बात करने वाला कोई नह मला है।
मेरा मन जब ब त खी हो जाता है, तो सामा य मनु य क भां त, मेरा भी रोने का मन
करता है। म चाहता ँ क मेरी आँख से आँसू नकल ता क मेरा मन हलका हो सके, ले कन
मेरा भा य अपनी चरमाव था म है और वह मुझे ऐसी अव था म ले आया है जहाँ अब मेरी
आँख से अ ु भी नह नकलते। उनके थान पर भी ने से र क बूँद ही टपकती ह।
पछले लगभग पाँच सौ वष से मने दन के काश म वचरण करना छोड़ दया है य क
सूय क गम से मेरी वचा पुराने चथड़े क तरह, जगह-जगह से फटने लगी है। एक नजन
बीहड़ क गहन गुहा अब मेरा नवास थान है। ब त वष पूव म जब कभी हलके काश म
बाहर जाया करता था तो मने यान दया क जंगल के व य एवं ह पशु-प ी तक मेरे
नकट आने से डरते थे। मुझे दे खकर उनक आँख म भय क छाया मँडराने लगती थी। धीरे-
धीरे मुझे इस बात म कोई संदेह नह रहा क मेरा प उन ख़तरनाक जीव-जंतु से भी
अ धक वीभ स हो चुका है। इसी कारण अब म केवल अमाव या के गहन अँधकार म ही
बाहर आता ँ जससे क म और वे एक- सरे को दे ख नह पाते तथा हमारे संसार म पर पर
कसी कार के टकराव क थ त उ प नह होती। ऐसे म, ब त-से नशाचर ा णय को
मेरी अनुप थ त का लाभ मलता है और उन दन उस े म उनका एकछ शासन होता
है। परंतु म जब कभी एक माह म एक बार, अपनी बारह हाथ ऊँची वशाल कतु जीण काया
को कसी तरह ढोते ए अपनी गुहा से बाहर नकलता ँ तो नशाचर जगत के वे सब ह
पशु भयभीत होकर अपनी-अपनी माँद म बक जाते ह और ास रोके मेरे भोजन से नवृ
होने क ती ा करते ह। इतने वष के एकाक तथा व य जीवन ने मुझे अनोखे पशु म
प रव तत कर दया है। मेरे लए जीवन क इस अप र मत अव ध के दौरान, फल और मांस
का अंतर मट गया है और वाद अपना मह व खो चुका है। म फल के रस और पशु के
र का अंतर भूल चुका ँ। जो आनंद मुझे कसी रसदार फल को चूसने म आता है, वही
तृ त मांस के लोथड़े को कुतरने म मल जाती है।
मेरे तन के इन घाव से कह अ धक पीड़ादायक, पाँच अबोध बालक क ह या और
नद ष उ रा के गभ थ बालक के वध से उ प ला न का दं श है। मेरे उसी कम के दं ड
व प ीकृ ण ने मुझे यह शाप दया क मेरे तन के घाव कभी नह भरगे और म इस सड़ी
काया को लए हज़ार वष तक इसी कार पृ वी पर भटकता र ँगा। उ ह ने यह भी शाप
दया क म जब तक जी वत र ँगा, मेरी कसी से बात नह हो सकेगी। ीकृ ण यह
शाप दे कर ही नह के, उ ह ने मेरे अपने छु रे से काटकर, मेरे म तक क वह द म ण भी
नकाल ली, जो ज म के समय मेरे म तक म लगी ई थी। वही म ण मेरी असाधारण बु ,
श और साम य का ोत थी। उस म ण का घाव मेरे माथे से आज भी रसता है।
कृ ण के उसी दय- वदारक शाप के फल व प म हज़ार वष से इस म यलोक म
भां त-भां त के असा य क के साथ अपने पाप का बोझ उठाकर घूमने को बा य ँ। कुल
मलाकर, मेरा जीवन पशु से बदतर हो गया है और म वयं जी वत होकर भी कसी सड़े-गले
शव से अ धक कुछ नह ँ! यूँ कहने को, म चरंजीवी ँ, अमर ँ कतु पूण स य यह है क
म शा पत ँ, कलं कत ँ और इस वशाल पृ वी पर कोई ऐसा मनु य नह जो मेरे ख को
कम कर सके। यह मेरे अपयश क पराका ा है क समूची पृ वी पर आपको मेरे नाम का
कोई सरा नह मलेगा।
जी हाँ, मेरा नाम अ थामा है और म अभी ज़दा ँ!
2
ा परहालांयुगकमउ हएअमरता,
महाभारत यु के समय से एक और
मेरी तरह शाप के प म नह , ब
है जसे अमर व ा त है।
क वरदान व प ा त ई
थी। मेरी तरह मेरे मामा कृप भी, ज ह संसार कृपाचाय के नाम से अ धक जानता है, अब
तक जी वत ह। महाभारत के यु के बाद और पांडव के हमालय म महा थान के कुछ
समय बाद तक कृप मामा और मेरी मुलाक़ात होती रही। परंतु ीकृ ण के शापवश मेरे
सामा जक संबंध भी कटने लगे थे और लोग ने मुझसे मलना-जुलना और बातचीत करना
लगभग बंद कर दया था। शायद यही कारण था क उस घटना के कुछ ही वष बाद मेरे मामा
ने भी मेरा साथ छोड़ दया। कृपाचाय शायद जानते ह क म कहाँ ँ, कतु मुझे उनके वषय
म अब कोई जानकारी नह है।
यह कथा म सुना रहा ँ इस लए वैसे तो मेरा और मेरे माता- पता का उ लेख पहले
होना चा हए, परंतु चरंजीवी का संदभ नकल आया तो मने अपने मामा कृपाचाय का
उ लेख कर दया। अब जब कृपाचाय क बात उठ ही गई है, तो म इस महागाथा का आरंभ
भी उ ह क कथा से करता ँ। वैसे भी, इस नजन बीहड़ म बैठकर मेरे पास इन बात को
मरण करने के अ त र कोई अ य वक प भी नह है। कृपाचाय वभाव से अ यंत सौ य
और सहनशील थे। उनके नाम क भां त उनके ज म क कथा भी ब त रोचक है।
अं गरस वंश म एक तेज वी बालक ने ज म लया जो बाद म मह ष गौतम के नाम से
व यात आ। गौतम मु न तथा उनक प नी अह या के घर एक वल ण बालक ने ज म
लया। ज म के समय ही, उसके तन पर शर (बाण) बँधे थे तथा वह ब ल काया से यु था।
अपने पु का यह अद्भुत प दे खकर मह ष गौतम क स ता क ठकाना न रहा और
ब त वचार करने के उपरांत उ ह ने अपने शरयु बालक का नाम शर ान रख दया।
बालक शर ान का मन आरंभ से ही वेदा यास म कम और धनुवद म अ धक लगता था। एक
मह ष क संतान क व ा ययन म अ च होना मह ष गौतम के लए नराशा के साथ-साथ
अचरज का वषय था। परंतु जस बालक का ज म ही बाण के साथ आ हो, उसके
धनु व ा के पूव सं कार कतने बल रहे ह गे, इसक सहज ही क पना क जा सकती है!
अपने पु क तभा को यान म रखते ए गौतम ऋ ष ने व ध के वधान म ह त ेप न
करने का नणय कया और अपने पु शर ान को धनुवद को अंगीकार करने क सहष
अनुम त दे द । इसका प रणाम वही आ, जो होना चा हए था।
समय के साथ, शर ान ने ब ल व ओज वी युवक का प धारण कर लया और वह
धीरे-धीरे धनु व ा म पारंगत हो गए। शर ान क काया यो ा क अव य थी कतु एक
मह ष का पु होने के नाते तप या का गुण भी शर ान को नैस गक प से ा त आ था।
उ ह ने अपने पता के मागदशन म कठोर तप ारा एक-एक करके सभी कार के अ -
श ा त कर लए और वह एक े तप वी के साथ-साथ असाधारण यो ा भी बन गए।
वल ण धनु व ा और तपोबल क म हमा से शी ही पृ वीलोक म, शर ान क क त
पताका फहराने लगी।
शर ान जब धनु व ा का अ यास करते तो दे वतागण भी उसे ऊपर से दे खा करते थे
और जब वह धनुष को कंधे से उतारकर, कुशासन पर तप या के लए बैठते तो भी दे वलोक
म उथल-पुथल आरंभ हो जाती थी। इ तहास सा ी है, पृ वी पर जब-जब कसी यो ा या
तप वी के यश का डंका बजता है, तो उसके नाद से य द कसी को अपने भु व पर सबसे
पहले आँच आने का भय उ प होता है, तो वह दे वराज इं ह! ऐसी वषम प र थ तय म
इं हमेशा से जो करते आए ह, उ ह ने इस बार भी उसी कृ य क पुनरावृ क । य ही इं
ने शर ान का यशोगान सुना, उ ह ने शर ान के तप म व न डालने तथा क त को कलं कत
करने के उ े य से जानपद नाम क दे वक या को शर ान के पास भेज दया। शर ान जस
समय अपने आ म म तप या म लीन थे, जानपद ने उनके आ म म वेश कया। दे वक या
क अलौ कक सुगंध से शर ान का आ म महक उठा। वहाँ वचरण कर रहे पशु-प ी भी
ककर जानपद को दे खने लगे। जानपद धीमे क़दम से शर ान के समीप प ँच गई। उसके
कामुक तन क मादक सुगंध य ही शर ान तक प ँची, उसने अपना जा ई भाव ऋ ष पर
छोड़ दया। द सुगंध से भा वत होकर शर ान ने धीरे-से आँख खोली तो जानपद को
सामने खड़ा दे खकर हत भ रह गए। शर ान के ने म सहसा उ प ई चमक से प था
क जानपद के प एवं लाव य ने उ ह स मो हत कर दया था।
“तुम कौन हो दे वी? तुम मेरे आ म म कस योजन से आई हो?”
“मेरा नाम जानपद है! म मण करती ई इधर से नकल रही थी क तभी आपके
ऊपर पड़ गई। आपका अ यंत भावशाली प दे खकर म वयं को रोक न सक और
भीतर चली आई। आपक चौड़ी छाती, पु कंधे तथा सुंदर ब ल काया से आपके शरीर म
दौड़ रहे य र का आभास मलता है, कतु आपके मुख के तेज एवं ने म तप या क
चमक से आपके तप वी होने का भी संकेत मल रहा है। कृपया आप वयं बताएँ क आप
ऋ ष ह अथवा य?” जानपद ने अपना असली योजन छपाते ए नाटक य ढं ग से
पूछा।
“दे वी, म मह ष गौतम का पु शर ान ँ। ज म से तो ऋ ष-पु ही ँ कतु मेरा मन
धनु व ा म अ धक रमता है और यही कारण है क यु -कौशल के सतत अ यास ने मेरी
काया को य जैसा प व सौ व दान कर दया है। आप अपने ववेक के आधार पर
जो चाह, समझ ल, कतु मेरी एक वनती है क आप यहाँ से त काल थान कर ता क म
अपनी तप या जारी रख सकूँ।”
“ऋ षवर, मुझे आपके ऋ ष अथवा यो ा होने से कोई सरोकार नह है। मुझे तो
आपके प ने मो हत कर लया है। मेरे लए अब यहाँ से लौट पाना संभव नह है। कृपया
मुझे अपनी दासी के प म वीकार कर।” ऐसा कहकर जानपद ने शर ान को झुककर
णाम कया और उनके अ यंत समीप आ गई। शर ान ने ब त यास कया ले कन वह
अपनी जानपद के अलौ कक स दय से हटा नह पाए। जस कार ाध के जाल म
फँसा पंछ छटपटाता है, उसी कार शर ान क इं याँ जानपद के स दय जाल म उलझकर
ाकुल होने लग । इं क चाल सफल हो गई थी। शर ान का युवा तन-मन पूरी तरह
जानपद के य स दय के वशीभूत हो गया था।
शर ान ने जस धनुष के ारा सम त संसार म अपने नाम का डंका बजाया था, उस
धनुष क यंचा चढ़ाना भी उनके लए संभव नह था। जानपद के प पर मो हत शर ान
के संयम का बाँध ढहने को ही था क अचानक उनका तप वी ववेक पुनः जा त हो गया
और उ ह ने अ यंत क ठनाई से कसी कार वयं को सँभाल लया। हालां क मन म उ प
ए वकार के चलते उनका ओज वी तन उ े जत हो चुका था। वयं को रोक लेने के
बावजूद शर ान का वीय ख लत हो गया और नीचे पड़े सरकंड पर गर गया। अपने मन
क चंचलता को दे खकर शर ान को अ य धक ला न ई और उ ह ने अपने धनुष, बाण और
मृगचम का सदा के लए याग कर दया तथा आ म छोड़कर चले गए। शर ान ने आ म तो
छोड़ दया, कतु उनके वीय क बलता से नीचे पड़ा सरकंडा दो भाग म वभ हो गया।
सरकंडे के उन दो भाग से दो शशु का ज म आ। एक बालक था और एक बा लका थी।
उधर दे वक या जानपद इं के ारा दए गए काय को पूण करने के प ात वहाँ से
अंतधान हो गई कतु शर ान के वीय से उ प बालक-बा लका का युगल वह धरती पर लेटा
रोता रहा। सामा य तौर पर, ऐसी थ त म वन के बीच थत आ म म असहाय व नवजात
शशु का जी वत बच पाना असंभव है, कतु य द ऐसा हो जाता तो यह कथा आगे कैसे
बढ़ती? इस लए, ऐसा कुछ नह आ!
संयोग से, उसी समय महाराज शांतनु आखेट पर नकले ए थे और वे घूमते ए
शर ान के आ म के नकट आ प ँच।े वहाँ उ ह नवजात शशु का क ण ं दन सुनाई
पड़ा तो वह तुरंत आ म के भीतर गए। बलखते ए ब च का ओजमयी प दे खकर शांतनु
को यह समझते दे र न लगी क उन दोन शशु म कसी तेज वी पु ष का अंश था। उ ह ने
दोन ब च पर कृपा करने का नणय कया और उ ह उठाकर अपने साथ महल म ले आए।
वहाँ शांतनु ने दोन ब च का पालन-पोषण अपनी संतान क भां त कया। उ चत समय पर
ब च के नामकरण का अवसर आया तो शांतनु ने इस काय के लए अपने गु एवं अ य
ा ण को बुलवाया।
य एवं पूजा-अचना समा त होने के बाद शांतनु ने अपने गु से कहा, “गु दे व, इन
दोन शशु के लए कोई उ चत नाम बताइए?”
गु जी ने अपनी आँख बंद क और कुछ पल सोचने के बाद बोले, “महाराज, चूं क इन
दोन ब च को आपक कृपा के कारण जीवनदान मला है, इस लए इनका नाम भी इसी गुण
के आधार पर रखना उ चत होगा। मेरा सुझाव है क आप बालक का नाम ‘कृप’ तथा
बा लका का नाम ‘कृपी’ रख।”
“जो आ ा, गु दे व! कृपया आप कृप और कृपी के भ व य के वषय म भी कुछ
बताएँ।”
“महाराज! भ व यवाणी करना ई र के वधान म व न डालने के समान होता है,
इस लए म इनके भ व य के वषय म कुछ नह क ँगा, कतु आपने पूछा है इस लए इतना
बता सकता ँ क यह बालक कृप अ यंत भा यशाली होगा और यह भारतवष के सबसे
श शाली वंश का कुलगु बनेगा।”
“अ त उ म!” शांतनु ने ह षत होकर कहा, “और गु दे व, कृपी? उसका भ व य कैसा
होगा?”
“कृपी का भा य व च होगा। इसका जीवन तप वनी के प म बीतेगा। यह अ -
श के सव े ाता क प नी बनेगी और एक अ यंत वीर पु को ज म दे गी कतु…”
“ कतु या गु दे व?” शांतनु के माथे पर चता क लक र उभर आ ।
“… मने कहा था महाराज क म अ धक कुछ नह क ँगा। अब चलता ँ। ई र इन
दोन ब च का क याण कर!” राजा शांतनु के माथे पर चता क लक र को छोड़कर,
गु दे व राजमहल से बाहर नकल गए।
इस बीच, आ म छोड़कर वन म तप या करने चले गए शर ान को अपने तपोबल से
अपनी दोन संतान तथा उनके ज म क कथा का बोध हो गया। वे भावुक हो गए और वयं
को उ ह दे खने से रोक न सके। शर ान त काल राजा शांतनु के पास जा प ँचे और वहाँ
उ ह ने शांतनु को अपने आ म म जानपद क पूरी कथा व तार से कह सुनाई। शर ान क
कथा सुनकर राजा शांतनु का कोमल दय ब त खी आ। उ ह ने शर ान से आ ह कया
क वे वयं बालक कृप को श ा-द ा, धनु व ा तथा सम त शा -वेद का ान दान
कर। अपने पु को श य के प म पाकर शर ान अ यंत स ए और उ ह ने शांतनु का
ताव सहष वीकार कर लया।
अपने परम ानी पता व गु के सा य म कुछ ही समय म कृप सभी वषय के
आचाय हो गए। राजा शांतनु के गु क भ व यवाणी के अनुसार, यही कृप आगे चलकर
कु वंश के कुलगु कृपाचाय के प म व यात ए।
यह मा संयोग है क कृपाचाय मेरे मामा ह और वह भी मेरी तरह चरंजीवी ह!
3
स चअकके लाँ तोबैठामेअपने
रा उ े य अपनी कथा सुनाना नह है। म तो यहाँ इस वीरान जंगल म
पाप का बोझ ढो रहा ँ। मेरे पास जो भी पुरानी मृ तयाँ ह उ ह
कभी-कभी याद करके अपना मन हलका कर लया करता ँ और यही कारण है क इस
कथा म घटना के कसी न त म म होने क संभावना कम है। इससे पहले क मुझे
कोई अ य बात मरण हो आए और मेरा कथानक भटक जाए, म आपको अपने पता के
ज म और फर अपने ज म के वषय म बताता ँ।
यह एक व च संयोग है क मेरे मामा कृपाचाय क भां त मेरे पता ोण का ज म भी
एक महान तप वी क उ े लत कामवासना के फल व प आ था। एक अ य भा यपूण
संयोग यह है क मेरे पता के ज म म भी दे वराज इं ने वही कु टल भू मका नभाई थी जो
उ ह ने मेरे मामा कृप के ज म के संदभ म नभाई थी।
कहते ह, उस समय गंगा ार नाम के एक थान पर मह ष भर ाज का आ म था।
उ ह ने अपने तशील वभाव से संपूण संसार म यश अ जत कया था। ऐसा माना जाता था
क उस काल म पृ वी पर मह ष भर ाज क गनती उन गने-चुने ऋ ष-मु नय म होती थी
ज ह ने अपने तप और संयम से अपनी सम त इ छा और कामना पर वजय ा त कर
ली थी। जैसा क मने पहले भी कहा है और आप भी यह बात जानते ह क पृ वीलोक पर
कसी भी मनु य के आ म-संयम एवं तप क वजय-गाथा का चार सुनकर दे वराज इं का
सहासन त काल डोलने लगता था और उनके पास ऋ ष-मु नय के आ या मक वजय-रथ
को रोकने का एकमा साधन था — अ सराएँ और उनका कामा ! इं के दरबार म एक से
बढ़कर एक अ सराएँ और दे वक याएँ थ , जनका उपयोग इं अपने मनोरंजन करने तथा
मनु य व दै य क तप या म व न डालने के लए कया करते थे। इं के दरबार क लगभग
सभी अ सराएँ कामुकता क तमाएँ होने के साथ-साथ पु ष-वशीकरण क कला म इतनी
द थ क उनके पात मा से ऋ ष-मु नय तथा बड़े-बड़े धुरंधर तप वय का य
संयम चूर हो जाता था और कुछ का तो शु पात भी हो जाया करता था!
शर ान क भां त भर ाज मु न क या त ने भी इं को आ ांत कया आ था।
भर ाज कोई साधारण ऋ ष नह थे और उनके संयम क श एवं तपोबल से भयभीत होने
के कारण अ धकतर अ सरा ने उनक साधना भंग करने क चुनौती को वन ता से
अ वीकार कर दया। तब इं ने ब त सोच- वचार के उपरांत अपने दरबार म उप थत
घृताची नाम क एक अ यंत कामुक और पवती अ सरा को बुलाया।
“ या आ ा है दे वराज?” घृताची ने इं को णाम करते ए पूछा।
“आह, घृताची!” इं ने मु ध होकर घृताची को दे खा और कहा, “तुम मेरे दरबार क
े अ सरा म से हो। तुम सम त कला म नपुण हो और तु हारे अलौ कक स दय के
मोहजाल से बच पाना कसी साधारण मनु य के लए असंभव है। म चाहता ँ क तुम
पृ वीलोक पर जाओ और अपने प से भर ाज मु न के तपोबल को ीण कर दो।”
“परंत,ु ” घृताची ने सकुचाते ए कहा, “भर ाज मु न साधारण मनु य नह ह।”
“जानता ँ,” इं ने कहा, “परंतु तुम भी तो साधारण अ सरा नह हो, घृताची! तु हारे
लए भर ाज मु न को अपने माग से डगाना सरल नह कतु असंभव भी नह है। मुझे
व ास है क तुम इस काय म अव य सफल हो जाओगी। इसके अ त र , हमारे पास तक
करने का समय नह है। इसे हमारी राजा ा समझो!” घृताची ने इं को णाम कया और
भर ाज का तप भंग करने के लए गंगा ार चल पड़ी।
न य-कम से नवृ होकर मह ष भर ाज गंगा नान के उपरांत अपने आ म क ओर
लौट रहे थे क तभी उनक घृताची पर पड़ी जो नद से नान करके बाहर नकल रही
थी। भीगे व म उसके कामुक तन और भरे-पूरे अंग को दे खकर मह ष भर ाज क गए।
उ ह ने अपने ने बंद करके वयं को नयं त करने का यास कया। अगले ही ण उनक
आँख फर से घृताची के प का रसपान करने लग । उ ह ने ब त चाहा कतु वे घृताची के
ऊपर से अपनी हटा नह पाए। सर से पैर तक भीगे ेत व म लपट घृताची के
उ म कर दे ने वाले यौवन ने भर ाज के तपोबल क चंड अ न पर अपनी कामुकता का
मंद व सुखद छड़काव करना आरंभ कर दया था। कुछ ही ण म घृताची को दे खते-दे खते
ही भर ाज ख लत हो गए!
खलन का एहसास होते ही भर ाज सँभल गए, कतु उनसे भूल हो चुक थी। उ ह ने
अपने ओजपूण वीय को धरती पर नह गरने दया और उसे अपने य पा म रख लया।
उनके य पा का नाम ोण था। नयत समय पर, उस पा म से एक तेज वी बालक ने ज म
लया। मह ष भर ाज ने अपने य पा के नाम पर ही अपने पु का नाम ोण रखा।
भर ाज को पता था क उनके वीय से उ प पु , उ ह क भां त वल ण एवं तभावान
होगा। मह ष भर ाज ने अपने पु को अपना श य बना लया और सभी वेद-वेदांग क
श ा द । इसी के साथ, ोण को अ -श क भी श ा द गई। एक समय आया जब
पृ वी पर अ -श क व ा के संदभ म ोण से अ धक े कोई नह था। भर ाज मु न
अपने यो य पु को आ नेया नाम के एक वशेष अ का ान भी दे ना चाहते थे। परंतु
उ ह ने वह ान, ोण के ज म से पूव ही, अ नवे य को दे दया था, इस लए ोण को
आ नेया क श ा दे ने का काय अ नवे य ने संपूण कया। आगे चलकर, ोण कौरव
और पांडव के गु ोणाचाय कहलाए। मह ष भर ाज के लीन हो जाने के बाद ोण ने
अपने पता के आ म म रहना आरंभ कर दया। कालांतर म, ोण ने शर ान क पु ी कृपी
से ववाह कर लया। कृपी बड़ी धमशीला एवं जत या ी थी। ोण और कृपी के संयोग से
मेरा ज म आ। इसी संबंध के चलते मेरी माता कृपी के भाई कृपाचाय मेरे मामा हो गए।
मेरे ज म क कथा तो इतनी ही है। जहाँ तक मेरे नाम का है, तो उस नाम का
रह य मुझे बाद म मेरे माता- पता ने बताया था। ज म के समय सभी ब चे रोते ह और उनका
दन अ यंत सामा य दन होता है, कतु जब मेरा ज म आ तो मने उस समय अपने मुख
से उ चैः वा नामक अ के समान वर उ च रत कया था। इसी अ जैसे वर के कारण
मेरे पता ोण ने मेरा नाम ‘अ थामा’ रख दया।
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बा तअ उनयंत दन क है जब म कोई आठ-दस वष का था। मेरे पता ोण क आ थक थ त
दयनीय थी और हम लोग को ब त क ठनाई से दो समय का भोजन मल पाता
था। मेरे पता अ यंत वा भमानी पु ष थे। उ ह ने अ य धक बु मान एवं वल ण धनु व ा
के ाता होने के बावजूद कभी कसी से कसी कार के अनु ह क अपे ा नह क ।
भ ाटन से ही हमारा जीवन- नवाह होता था। यही कारण था क हमारी आ थक थ त म
ब त समय तक कोई सुधार नह आ।
एक दन म अपने कुछ साथी बालक के साथ खेलने के लए बाहर प ँचा तो दे खा क
उनके ह ठ पर कोई सफ़ेद पदाथ लगा आ था। मने उनसे पूछा तो पता लगा क वे सब
अपने-अपने घर से ध पीकर आए थे।
“ ध! भला यह या होता है?” मने कौतूहल वश अपने एक म से पूछा।
“अरे अ थामा, तुझे ध नह पता?” यह कहते ए सब लोग मुझ पर हँसने लगे। मने
यह बात अपनी माता को बताई तो उनक आँख भर आ । म उस समय उनके रोने का कारण
समझ नह सका।
मने माँ से कहा, “माँ, मुझे भी ध पीना है।”
माँ ने नम आँख से णभर के लए कुछ सोचा और फर रसोईघर म चली ग । कुछ ही
दे र म वे ध-जैसा ेत मीठा पतला घोल लेकर आ और मुझे पला दया। चूं क मने असली
ध कभी दे खा नह था और न पया था, इस लए वह सफ़ेद मीठा घोल पीकर मुझे लगा क
मने ध पी लया। म जब अपने सा थय के साथ खेलने गया बाहर गया तो वे मुझे दे खकर
फर हँसने लगे।
एक ने कहा, “अरे अ थ! यह आटे का घोल कहाँ से लगा लया मुँह पर?”
“यह आटे का घोल नह है; म ध पीकर आया ँ!” मने गव से कहा।
“अरे दे खो, अपना अ थ भी ध पीकर आया है!” सब साथी फर हँसने लगे।
म चढ़ गया और रोता आ घर लौट आया। कुछ दे र बाद पताजी घर आए। उ ह ने
जब यह घटना सुनी तो खी भाव से मेरी माँ को दे खने लगे।
माँ ने कहा, “द र ता का एहसास द र होने से भी अ धक क दायक होता है!”
“ब त आ! मुझे कुछ करना ही पड़ेगा!” पताजी क भँव तन ग थ , “इस तरह
द र ता का दं श सहना अब क ठन है।”
माता कृपी ने संयमपूवक पता से कहा, “य द छोट -छोट व तु के लए हम त दन
इसी तरह ल जत होना पड़ा तो कुछ दन बाद अ थामा का भरण-पोषण करना भी हमारे
लए क ठन हो जाएगा। आप कहते थे क गु कुल के समय का आपका म पद,
आजकल पंचाल दे श का राजा है। आप उसके पास जाकर सहायता य नह माँगते?”
मने पहले भी बताया क मेरे पता ब त वा भमानी थे। कसी के सामने साथ फैलाने
का वचार उ ह व म भी न आता, परंतु प नी व पु के उ रदा य व के भार और दन दन
बढ़ती द र ता ने आ ख़र ोण के आ म-स मान को व त कर दया।
अगले ही दन ोण पंचाल के लए रवाना हो गए। उ ह माग म पद के साथ गु कुल म
बताए दन याद आ रहे थे। बचपन क मीठ मृ तय से उनका मन व ां त महसूस कर रहा
था। उन सुखद मृ तय के सहारे पाँच घंटे क लंबी या ा को मानो पंख लग गए और जब
ोण वतमान म लौटे तो उ ह ने वयं को पद के राजमहल के सामने खड़ा पाया। उ ह ने मन
ही मन यह मान लया था क पद अपने बचपन के सखा को दे खते ही पहचान लेगा और
दौड़कर उससे लपट जाएगा। ोण को भरोसा हो गया क उनके बुरे दन समा त होने वाले
थे।
आ म व ास से भरे ोण ने गव के साथ सर उठाकर पद के दरबार म वेश कया।
जहाँ एक ओर अनेक वष क द र ता ने ोण क काया को जीण और उनके प को ीण
कर दया था, वह शासन और भोग- वलास ने पद के व म संप ता और वैभव क
चमक भर द थी। दोन ने एक- सरे को दे खा। ोण को दे खते ही पद के ने म नेह क
झल मलाहट उभर आई। ोण का अनुमान सही था क पद ने दे खते ही उ ह पहचान लया
था। फर वह ोण को गले लगाने के लए अपने सहासन से भी उठ गया। सबकुछ ोण क
क पना के अनुसार ही हो रहा था। सहसा पद को लगा, जैसे उसके सर पर रखा मुकुट
भारी हो गया था और वह उसके बोझ से उठ नह पा रहा था। राज-ग रमा ने पद को जकड़
लया और दरबा रय क उ सुक ने पद के पाँव म संकोच क बे ़डयाँ डाल द ।
“आप कौन ह और मुझसे या चाहते ह?” पद ने ल जा के पद के पीछे से छपकर
पूछा।
ोण अचं भत रह गए। परंतु वष के कटु अनुभव से उ ह यह समझते दे र न लगी क
उनके सामने गु कुल का सखा पद नह , ब क पंचाल नरेश पद खड़ा था। पद के छ
प से ोण के चेहरे पर आ य, अ व ास और नराशा के म त भाव उभर आए। यह
जानते ए क पद सबकुछ जानकर भी नासमझ बनने का ढ ग कर रहा था, ोण ने पुरानी
म ता और राज- त ा का स मान करते ए पद को एक और अवसर दे ने का फ़ैसला
कया।
“राजन! म आपका म ोण ।ँ आपको मरण होगा क हम दोन मेरे पता भर ाज
मु न के आ म म एक साथ पढ़ते थे। जब हमारी श ा-द ा समा त हो गई तो गु कुल से
थान करते समय आपने मुझसे कहा था, “ ोण! तुम मेरे सबसे अ छे म हो और म जब
राजा बन जाऊँगा तो उस समय तुम जो चाहोगे, तु ह मलेगा!”
पद ने अपने मृ त-पटल को टटोला। उसे ोण को दया यह वचन प दखाई दे रहा
था, परंतु अहंकार और राज त ा ने पद क बु पलट द ।
वह बोला, “अरे भ !ु लगता है तेरा मान सक संतुलन बगड़ गया है और तेरी बु ने
तेरा साथ छोड़ दया है। या तुझे इतना भी नह पता क म ता बराबर वाल म होती है?
अगर भूल से धनवान क म ता नधन से हो भी जाए तो वह अ धक नह चलती और शी
ही मट जाती है।”
मेरे पता को पद पर कतना ोध आया होगा, इसका अनुमान लगाना क ठन नह है!
य द वे चाहते तो अपने तपोबल से पद को शाप दे कर त काल दं डत कर सकते थे। परंतु
भर ाज ऋ ष का पु होने के नाते उ ह ात था क ोध को तुरंत कर दे ने से उसक
ती ता न केवल मंद पड़ जाती है अ पतु वह अनायास ही मादान क संभावना भी उ प
कर दे ता है। इसके वपरीत, य द ोध क चगारी को धैय एवं संयम क पत क नीचे छपा
लया जाए तो वह समय के साथ चंड अ न का प धारण कर लेती है और फर तशोध
ही उसके शमन का एकमा उपाय रह जाता है!
ोण ने कसी तरह संयम रखा और ोध को मन म ही दबा लया। वे नह चाहते थे क
पद को शाप ारा त काल दं डत करके उनका ोध शांत हो जाए। कहते ह, शूल को
नकालने के लए भी शूल क आव यकता होती है। ोण का आहत मन उस अपमान के
शूल को नकालने तथा उससे उ प पीड़ा का शमन करने हेतु कोई अ य उ चत तशोध
पी शूल खोजने लगा। उ ह ने पद पर एक तीखी डाली और मन म उसके सवनाश
का कठोर संक प लेकर चुपचाप राजमहल से बाहर नकल गए।
5
ो ण येतेकज़ क़दम
क़दम से चलते ए पंचाल रा य क सीमा से बाहर नकल आए थे। आगे बढ़ते
के साथ, उनके दय का ोभ बढ़ रहा था तथा तशोध क चंडता ती
होती जा रही थी। वह घूमते ए एक थान पर आ प ँच।े वहाँ ोण ने दे खा क कुछ बालक
एक कुएँ के अंदर झाँक रहे थे। वे उनके पास प ँचे और पूछा, “ब च , तुम कौन हो और इस
कुएँ म या दे ख रहे हो?”
“हम लोग कु वंश के राजकुमार ह, ऋ षवर! इस कुएँ म हमारी गद गर गई है। हम
सोच रहे ह क इसे बाहर कैसे नकाला जाए।” एक बालक ने कहा।
बालक का प रचय पाते ही ोण कुछ सोचने लगे। वे धीरे-से मु कराए। वे समझ गए थे
क उन बालक क सम या के नदान ारा ही उनक अपनी सम या का नवारण संभव था।
“बस, इतनी सी बात के लए परेशान हो?” ोण ने हँसते ए कहा। “जाओ और
ज द से आस-पास पड़े कुछ सरकंडे ले आओ। हम अभी तु हारी गद बाहर नकाल दे ते
ह।”
यह सुनकर बालक स हो गए। उ ह ने शी ही ोण के सामने ब त-से सरकंडे
लाकर रख दए और फर कौतूहल से ा ण क ओर दे खने लगे। ोण ने झटपट कुछ
सरकंडे उठाए और फर बाण क तरह नशाना साधकर, उ ह एक के बाद एक कुएँ म फकने
लगे। बालक ने दे खा क ोण ारा फके गए पहले सरकंडे ने गद को म य से ब ध दया था
तथा बाद म फके गए सरकंडे एक- सरे से जुड़ते जा रहे थे। कुछ ही पल म ोण ने अं तम
सरकंडा पकड़कर ऊपर ख चा तो उसके साथ गद स हत सभी सरकंडे कुएँ से बाहर नकल
आए। ोण का यह अद्भुत चम कार दे खकर बालक के आ य का ठकाना न रहा। वे
ख़ुशी-ख़ुशी अपनी गद लेकर राजमहल लौट आए। वहाँ जब उ ह ने अपने पतामह, भी म
को यह बात सुनाई तो भी म को यह समझते दे र न लगी क उनके राजकुमार को अ -श
क व ा दान करने हेतु उससे बेहतर गु नह मलेगा! भी म ने त काल राजक मय को
उस वल ण ा ण को राजमहल लेकर आने का आदे श दया। उधर ोण को भी भली-
भां त पता था क गद वाली बात सुनते ही उनक खोज आरंभ हो जाएगी और शी ही कोई
उ ह लेने आएगा। ऐसा ही आ!
राजक मय के साथ ोण राजमहल प ँच गए। भी म ने अ यंत आदर-स कार के साथ
मेरे पता का वागत कया और कहा, “ऋ षवर! म आपसे वनती करता ँ क आप यह
ह तनापुर म रहकर कु राजकुमार को धनुवद तथा अ -श क श ा द जए। आज से
कौरव का धन, रा य तथा वैभव आपका है। आपका आगमन हमारे लए अहोभा य है!”
यह कहकर भी म ने कु राजकुमार क श ा का दा य व ोण को स प दया।
इस बात से मुझे भी य लाभ आ। चूं क मेरे पता अब कु राजवंश के
उ रा धका रय के गु बन गए थे, तो यह वाभा वक था क मेरी श ा-द ा भी अपने
पता के सा य म राजसी ठाठ-बाट से होने लगी। इस बीच, मुझे पांडव और कौरव को
नकट से दे खने और उनके वभाव एवं च र को समझने का भी अवसर मला। म समय-
समय पर उनके वषय म भी बात क ँ गा।
भी म के साथ ई भट ने हमारे प रवार क द र ता को पलक झपकते र कर दया।
य प मेरे पता के लए उससे भी अ धक संतोष क बात यह थी क उ ह पद के साथ
तशोध का खेल खेलने के लए अब न सफ़ बसात मल गई थी, अ पतु अबोध कु
राजकुमार के प म मोहरे भी उपल ध हो गए थे। भा य से, म भी उन मोहर म स म लत
हो गया था। हालां क म इस बात को मानता ँ क पद ने मेरे पता ोण के साथ अपने
राजदरबार म जो कया वह सवथा अनु चत और अभ था, फर भी मेरा मानना है क पद
को सबक़ सखाने का जो तरीक़ा मेरे पता ने चुना, वह अ धक वकृत एवं अशोभनीय था।
अपनी हठ कामना क पू त हेतु मेरे पता, मुझे भी अपने वैमन य क आग म झ कने का
नणय ले चुके थे।
भी म ारा ोण क राजसी नयु से उनक मह वाकां ा पु होने लगी। अब उनके
पास अपने नजी यु -कौशल और ान के अ त र कु राजवंश का अवलंब भी उपल ध
था। उ ह ने पूरी न ा और लगन से कौरव तथा पांडव कुमार को धनु व ा एवं अ -श
का ान दे ना आरंभ कर दया। यूं तो सभी श य मेहनती थे, कतु पांडव राजकुमार अजुन म
कुछ व श था जसके कारण वह हम सबसे अलग एवं े था। न संदेह, अजुन म े
धनुधर बनने के सभी गुण थे। वह लगन, प र म और एका ता म हम सबसे आगे था। उसके
इ ह गुण के कारण वह शी ही मेरे पता ोण का सबसे य श य भी बन गया।
ोण को आचाय क पदवी मल चुक थी, कतु वे राजकुमार के गु होने के साथ-
साथ मेरे पता भी थे। गु होने के नाते सबको एक साथ पढ़ाना उनक ववशता था परंतु यह
वाभा वक था क उनका पतृ-मन सदा यह यास करता रहता क कैसे भी, वे मुझे पांडव
व कौरव से अ धक ान दान कर द। यहाँ तक क ऐसा करने के लए उ ह ने एक यु भी
खोज ली। अ यास के बीच म वह अपने श य को पानी लाने के लए भेज दे ते थे। पानी के
लए सबको एक-एक पा दया जाता था। ोण अपने अ य श य को पानी लाने के लए
सँकरे मुँह वाला पा दे ते थे, जब क मुझे जो पा मलता था, उसका मुँह चौड़ा था। इसके
फल व प मेरा पा अ य लोग के पा से पहले भर जाता था और म पानी लेकर ज द
लौट आता था। इतनी दे र म, मेरे पता अ य श य के प ँचने से पहले, मुझे अ - व ा का
कोई न कोई नया गु त रह य सखा दे ते थे जससे उनके अ य श य वं चत रह जाते थे।
अपने पता के इस वभाव म घुले छल से मेरा पहली बार तभी सामना आ जब
उ ह ने यह पा वाली यु अपनाई थी। उनके त मेरे मन म अ तशय स मान था, कतु
मुझे जब उनके च र क इस बलता का भान आ तो मुझे मन म ोभ तो आ। परंतु मुझे
भी उस समय जीवन का अनुभव कम था और मेरे भीतर भी कु राजकुमार से े बनने
क इ छा ा त थी। मेरी इसी मह वाकां ा ने ोण के इस छलपूण वहार को अनचाहे ढं ग
से मूक सहम त दान कर द ।
कुछ समय तो इस तरह चलता रहा, कतु एक दन अजुन को इस बात का पता लग
गया। उसे अपने गु के प पातपूण वहार पर ोध तो अव य आया होगा कतु ोण और
मेरे बीच गु - श य के अ त र पता-पु का भी संबंध था, इस लए हम दोन म से कसी
को कुछ भी कह पाना अजुन के लए क ठन था। सबकुछ जानते ए भी अजुन ने न तो इस
बात को अपने मन पर हावी नह होने दया और न ही उसने अपने गु के त मन मैला
कया। इसी लए मने पहले भी कहा और फर कहता ँ क अजुन हम सबसे अलग था।
उसने ोण क नदा अथवा शकायत करने के बजाय, उनक चाल क काट खोज ली और
वयं को ोण का स चा श य स कया। अजुन ने वशेष साधना ारा ोण से व णा
का योग सीख लया था, जसके ारा जल-वषा क जा सकती थी। अजुन अपना जल-पा
भरने के लए इस अ का योग करने लगा और वह भी अपना पा भरकर मेरे साथ ही
लौट आता था। पता नह य , ले कन अपने पता क कु टलता को असफल होते दे ख मुझे
अ छा लग रहा था। म च र क शु चता को धनु व ा से बढ़कर मानता ँ। यह बात वैसे तो
इतनी बड़ी नह थी ले कन जस कार न बू क सफ़ एक बूंद पड़ जाने से ध फट जाता है
और फर पीने यो य नह रहता, उसी तरह ोण के इस ु कपट के कारण मेरे न छल मन
म अपने पता के लए जो आदर था, उसक आधार शला को ठे स प ँची थी।
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