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मंत्र

परिभाषा

मंत्र वह ध्वनि है जो अक्षिों एवं शब्दों के समह


ू से बिती है । यह संपूर्ण
ब्रह्माण्ड एक तिं गात्मक ऊजाण से व्याप्त है जजसके दो प्रकाि हैं - शब्द एवं
प्रकाश। आध्याजत्मक धिातल पि इिमें से कोई भी एक प्रकाि की ऊजाण दस
ू िे के
बबिा सक्रिय िह ं होती। मंत्र मात्र वह ध्वनियााँ िह ं हैं जजन्हें हम कािों से

ु ते हैं, यह ध्वनियााँ तो मंत्रों का लौक्रकक स्वरुप भि हैं।


सि

ध्याि की उच्चतम अवस्था में साधक का आध्याजत्मक व्यजततत्व पूि तिह से

प्रभु के साथ एकाकाि हो जाता है जो अन्तयाणमी है । वह सािे ज्ञाि एवं 'शब्द'

(ॐ) का स्रोत है। प्राचीि ऋषषयों िे इसे शब्द-ब्रह्म की संज्ञा द - वह शब्द जो


साक्षात ् ईश्वि है ! उसी सवणज्ञािी शब्द-ब्रह्म से एकाकाि होकि साधक मिचाहा
ज्ञाि प्राप्त कि सकता है । मंत्र की उत्पषि षवश्वास से औि सतत मिि से हुई
है । आदद काल में मंत्र औि धमण में बडा संबंध था। प्राथणिा को एक प्रकाि का
मंत्र मािा जाता था। मिुष्य का ऐसा षवश्वास था क्रक प्राथणिा के उच्चािर् से
कायण की ससद्धध हो सकती है । इससलये बहुत से लोग प्राथणिा को मंत्र समझते
थे।

वेदों में मन्त्र-

ऋग्वेद - सबसे प्राचीि वेद - ज्ञाि हे तु लगभग 10 हजाि मंत्र हैं। इसमें दे वताओं
के गुर्ों का वर्णि औि प्रकाश के सलए 1975 मन्त्र हैं - कषवता-छन्द रूप में हैं।

सामवेद - उपासिा में गािे के सलये 1975 संगीतमय मंत्र हैं।

यजव
ु ेद - इसमें कायण (क्रिया) व यज्ञ (समपणर्) की प्रक्रिया के सलये 3750
गद्यात्मक मन्त्र हैं।

अथवणवेद - इसमें गुर्, धमण, आिोग्य, एवं यज्ञ के सलये 7260 कषवतामयी मन्त्र
हैं।
स्तुनत/स्तोत्र

संस्कृत सादहत्य में क्रकसी दे वी-दे वता की स्तुनत में सलखे गये काव्य को स्तोत्र
कहा जाता है । संस्कृत सादहत्य में यह स्तोत्रकाव्य के अन्तगणत आता है ।

ु ाि 'स्तोत्रं कस्य ि तष्ु टये' अथाणत ् षवश्व में ऐसा


महाकषव कासलदास के अिस
कोई भी प्रार्ी िह ं है जो स्तुनत से प्रसन्ि ि हो जाता हो। इससलये षवसभन्ि

दे वताओं को प्रसन्ि कििे हे तु वेदों, पुिार्ों तथा काव्यों में सवणत्र सूतत तथा
स्तोत्र भिे पडे हैं। अिेक भततों द्वािा अपिे इष्टदे व की आिाधिा हे तु स्तोत्र
िचे गये हैं। षवसभन्ि स्तोत्रों का संग्रह स्तोत्रित्िावल के िाम से उपलब्ध है ।

कुछ प्रमुख स्तोत्र

सशवताण्डव स्तोत्र

श्रीिामिक्षास्तोत्रम ्

मदहषासिु मददण िी स्तोत्र

षवष्र्ु सहस्रिाम स्तोत्र

लक्ष्मीसहस्रिामस्तोत्र

श्री गायत्री सहस्रिामस्तोत्र

उपासिा

उपासिा पिमात्मा की प्राजप्त का साधिषवशेष है । 'उपासिा' का शब्दाथण है -

'अपिे इष्टदे वता के समीप (उप) जस्थनत या बैठिा (आसि)'। आचायण शंकि की
व्याख्या के अिुसाि 'उपास्य वस्तु को शास्त्रोतत षवधध से बुद्धध का षवषय
बिाकि, उसके समीप पहुाँचकि, तैलधािा के सदृश समािवषृ ियों के प्रवाह से

द र्णकाल तक उसमें जस्थि िहिे को उपासिा कहते हैं'

उपासिा में गरु


ु की बडी आवश्यकता है । गुरु के उपदे श के अभाव में साधक
अकर्णधाि िौका के समाि अपिे गंतव्य स्थाि पि पहुाँचिे में कभी भी समथण

िह ं हाता। गुरु 'द क्षा' के द्वािा सशष्य में अपिी शजतत का संचाि किता है ।
द क्षा का वस्तषवक अथण है उस ज्ञाि का दाि जजससे जीवि का पशुत्वबंधि कट
जाता है औि वह पाशों से मुतत होकि सशवत्व प्राप्त कि लेता है ।

प्राथणिा

प्राथणिा एक धासमणक क्रिया है जो ब्रह्माण्ड के क्रकसी 'महाि शजतत' से सम्बन्ध


जोडिे की कोसशश किती है । प्राथणिा व्यजततगत हो सकती है औि सामूदहक भी।

इसमें शब्दों (मंत्र, गीत आदद) का प्रयोग हो सकता है या प्राथणिा मौि भी हो


सकती है ।

प्राथणिा के संबंध में कहा जाता है की :-प्राथणिा निवेदि किके उजाण प्राप्त कििे
की शजतत है औि अपिे इष्ट अथवा षवद्या के प्रधाि दे व से सीधा संवाद है ।
प्राथणिा लौक्रकक व अलौक्रकक समस्या का समाधाि है ।

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