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विद्यापति काव्य में राधा
विद्यापति काव्य में राधा
लेक्चर सिंख्या-9
करु अभभलाख मनदह पदपुंकि अदहनभस कोर अगोरर॥ (विद्यापति पदािली, पद सुंख्या 2 पष्ृ ठ:
36)
राधा के रूप िर्वन में विद्यापति ने अत्युंि रूधच ली है. शैशि से यौिनास्था के विकास के
क्रम में शरीर में होने िाले पररििवनों को िो दिव ककया है, जिसमें अत्युंि माुंसलिा है और
िर्वन अत्युंि प्रकृििादी हो िािा है लेककन सौंदयव िर्वन इसभलये विलक्षर् हो उठिा है क्योंकक
िय पररििवन की अिस्था में राधा के मनोभािों को प्रकि ककया गया है, सौंदयव केिल उपजस्थति
नहीुं है िह उसके प्रकिीकरर् में भी है कक िह ककस िरह प्रकि होिा है िब उसके प्रति कवि
का ध्यान िािा है।
खने-खने नयन कोन अनसरई;खने-खने-बसन-घूभल िन भरई॥
एक ही शब्दों की आितृ ि (िैसे खने, हे रर) से विद्यापति ने पद में ही सौंदयव नही रचा राधा के
तनश्छल सौंदयव की भी व्युंिना की है। राधा ऐसी तनश्छल है कक िह अपने आय में पररििवन
के इस धचह्न को नहीुं पहचान पा रही है और इस दशा में अपने शरीर की भाि भुंधगमा को
भी तनयुंबिि नहीुं कर पा रही है। उसके स्िाभाि में एक विचलन आ गया है िो उम्र के िय
सुंधध की ििह से है। विद्यापति ने इस आयगि मनोभाि को खूब पकड़ा है।
हरर बबन दे ह दगध भेल रे , झामर भेल सारी॥ ( विद्यापति पदािली, पद सुंख्या- 206 पष्ृ ठ
सुंख्या -139)
अपिस होएि िगि भरर हे , ितन करऊ उघारी॥ (विद्यापति पदािली, पद सुंख्या- 59 पष्ृ ठ
सुंख्या -67)
उपरोक्ि पद में राधा को अपनी साड़ी की ही नहीुं उसके फिने से होने िाले अपयस की धचुंिा
है। कृष्र् ने उसका मागव रोक भलया है िह अकेली पड़ गई है इसभलये िह उसे बिमार कह कर
सुंबोधधि करिी है। सौंदयव की यह सहििा यह तनदोषिा ही विद्यापति की राधा और उनके
सौंदयव िर्वन की विशेषिा है।
राधा िहाुं िहाुं पैर रखिी है िहाुं िहाुं सरोिर बन िािा है, िैसे ही उसके शरीर का अुंग
झलकिा है िो लगिा है कक बबिली दमक रही है। राधा के इस पारस रूप को विद्यापति ने
सम्पर्
ू व श्रद्धा और हृदय की पविििा से तनभमवि ककया है, इसमें िो लोग शुंग
ृ ार का पाधथवि
रूप धचिर् माि खोिना चाहे , उन्हें कौन रोक सकिा है” ककुं ि विद्यापति का यह िर्वन राधा
के सौन्दयव की ददव्यिा का प्रकाशक भी है, इसमें सुंदेह नहीुं’।