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पाठ-15

कपि करि हृदय विचार का भावार्थ

संदर्भ- प्रस्तुत कविता हमारी पाठ्य पुस्तक नूतन गुंजन हिंदी पाठमाला भाग आठ के ‘कपि करि हृदय विचार’
नामक ‘शीर्षक’ से ली गई हैं। इसके रचयिता ‘गोस्वामी तुलसीदास जी’ हैं।

प्रसंग -यह पंक्तियाँ तुलसीदासकृ त ‘रामचरित मानस’ के ‘सुंदरकांड’ से ली गई है इन पंक्तियों में उस समय
का वर्णन है जब रावण द्वारा हरण किए जाने के बाद अपने स्वामी श्रीराम के वियोग में चिंतित और दुखी
सीता अशोक वाटिका में अशोक वृक्ष के नीचे बैठी उस कै द से मुक्त होने के लिए बेचैन होकर आत्मदाह करने
का प्रयास कर रही हैं।

भावार्थ- 1-जहँ-तहँ-------------------निशिचर पोच।।

रावण की कै द में बंद सीता यह सोचकर चिंतित है कि अपनी शर्त के अनुसार एक -एक दिन करके जैसे ही
यह महीना बीतेगा राक्षस रावण मेरा वध कर देगा।

2-त्रिजटा सन---------------------- अब नहिं सहि जाई।।

इन पंक्तियों के द्वारा कवि यह कहना चाह रहे हैं कि- जब सीता जी से अपने स्वामी भगवान श्रीराम से
बिछु ड़ने का दुख असहनीय हो गया तो वह अपनी सेविका त्रिजटा से हाथ जोड़कर विनती करते हुए कहती हैं
कि हे माता! इस विपत्ति में एक आप ही मेरा सहारा हैं, अब मुझे अपने स्वामी से अलग होने का दुख सहा
नहीं जाता अतः अति शीघ्र आप कोई ऐसा उपाय कीजिए कि मैं अपना यह शरीर त्याग दू ।

3- आनि काठ-----------------------सूल सम बानी ।।

कवि कहते हैं कि- सीता जी त्रिजटा से विनती करती हुई कहती हैं कि- हे माता कहीं से लकड़ियाँ लाकर मेरी
चिता सजा कर उसमें आग लगा दीजिए ताकि मैं के वल अपने आराध्य श्री राम की ही सेविका रहूं मेरे स्वामी
के प्रति मेरी एकनिष्ठ भक्ति को सत्य सिद्ध कर दीजिए ।राक्षस रावण की कानों को चुभने वाली वाणी अब
मुझसे सही नहीं जाती है।

4-सुनत वचन---------------------------भवन सिधारी ।।

उपर्युक्त पंक्तियों के माध्यम से कवि ने बताया है कि-

जब सीता जी ने त्रिजटा से आत्मदाह के लिए अपनी चिता सजाकर स्वयं को अग्नि के हवाले करने की प्रार्थना
की तो त्रिजटा सीता जी का चरण पकड़ ली। तीनों लोकों की स्वामिनी सीता को इस तरह व्याकु ल देखकर
त्रिजटा उन्हें भगवान श्रीराम की यशपूर्ण कहानियां सुनाने लगी ताकि उनका व्याकु ल मन शांत हो जाए। उन्हें
श्री राम की शौर्य गाथा सुना कर धैर्य बंधाते हुए त्रिजटा कहती हैं कि हे कोमल राजकु मारी! यह अर्धरात्रि का
समय है। सभी सो रहे हैं।इस समय आग का मिलना संभव नहीं है। ऐसा कहते हुए वह अपने कक्ष में चली
गयी।

5-कह सीता------------- एकउ तारा।।


इन पंक्तियों के माध्यम से कवि ने यह कहा है कि -जब त्रिजटा अपने कक्ष में चली गयी तो सीता का मन
पुन: व्याकु ल हो गया ,वह सोचने लगीं कि आज ईश्वर ही मुझसे रूठ गए हैं, मैं इतनी अभागिनी हो गयी हूँ
कि न तो मुझे अग्नि मिलती है और न ही मेरी पीड़ा समाप्त होती है ।आकाश में दिखाई देने वाले असंख्य तारे
आग के ही गोले हैं किं तु एक भी तारा टू ट कर पृथ्वी पर आता नहीं है।

6-पावक मय---------------------------------मम शोका।।

इन पंक्तियों के द्वारा सीता जी के हृदय की विरह वेदना को व्यक्त करते हुए तुलसीदास जी कहते हैं कि-
आकाश में चंद्रमा स्वयं आग का गोला है किं तु मुझे अभागिनी जानकर वह भी मेरी विनती नहीं सुन रहा है ।हे
अशोक! अब तुम मेरी प्रार्थना स्वीकार करो और मेरे दुख को दूर कर अपना अशोक नाम सार्थक कर लो ।

7- नूतन किसलय -------------------कलप सम बीता।

कवि कहते हैं कि सीता जी को व्याकु लता पूर्ण स्थिति में अशोक से विनती करते हुए देखकर हनुमान जी को
यह चिंता सताने लगी कि अशोक के नए कोमल पत्ते अग्नि के समान लाल दिख रहे हैं कहीं ऐसा ना हो कि
वह उन पर द्रवित होकर उन्हें आग देकर उनके बिरह के दुख का अंत करने को तैयार हो जाए। इस विचार से
चिंतित उनका एक एक क्षण युगों की भाँति व्यतीत हो रहा था।

8-कपि करि----------------------------उठि कर गहेउ।

कवि कहते हैं कि हनुमान जी ने हर तरह से सोच विचार कर सीता जी के सामने श्री राम के द्वारा अपनी
निशानी के रूप में दी गई अंगूठी गिरा दी। अंगूठी गिरते देखकर सीता जी को लगा कि अशोक वृक्ष ने उनकी
प्रार्थना स्वीकार कर उन्हें आग का गोला दिया है इसलिए प्रसन्न होकर उन्होंने उठ कर उसे हाथ में ले लिया।

9- तब देखी------------------हृदय अकु लानी।।

हाथ में उठाकर जब सीता जी ने उसे देखा तो वह अत्यंत आकर्षक अंगूठी थी। जिस पर सुंदर अक्षरों में
भगवान श्री राम का नाम लिखा था। पहले तो सीता जी अंगूठी देखकर यह सोचकर प्रसन्न हुई कि उनके
स्वामी यहां तक आ गए हैं पर जैसे ही उन्हें रावण का छल याद आया वह अनिष्ट की आशंका से व्याकु ल हो
उठीं। 10-जीति को सकइ-----------------बोलेउ हनुमाना।

सीता जी के मन में उठने वाले ऐसे नाना प्रकार के विचारों को भाँप कर हनुमान जी ने अपनी मीठी वाणी में
उनसे कहा कि सृष्टि की रचना करने वाली माया ने अभी किसी ऐसे व्यक्ति का निर्माण नहीं किया जो उन्हें
जीत सके और माया से ऐसी अंगूठी बनाई नहीं जा सकती है।

11-रामचंद्र गुन-------------------------कथा सुनाई ।

फिर वही वृक्ष पर बैठे ही बैठे हनुमान जी ने अपने आराध्य भगवान श्री राम के गुणों का वर्णन करना आरंभ
कर दिया ।जिसे सुनते ही सीता जी के मन की व्याकु लता शांत हो गई और उनका सारा दुख दूर हो गया ।शुरू
से लेकर अंत तक हनुमान ने सारी राम कथा सीता जी को सुनाई जिसे वह बड़े मन से सुन रही थीं।

12-श्रवनामृत जेहि------------------------विसमय भयउ।


हनुमान जी से श्री राम कथा सुनकर सीता जी का मन प्रसन्न हो गया और उन्होंने हनुमान जी को संबोधित
करते हुए कहा कि कानों में अमृत की मिठास घोलने वाली राम कथा सुनाने वाले हे भाई! आप कौन हैं और
मेरे सामने क्यों नहीं आते ?माता सीता के इन प्रेम पूर्ण वचनों को सुनकर हनुमान जी वृक्ष से नीचे उतर कर
उनके समीप गए और उनके पास बैठकर उन्हें आश्चर्यचकित होकर देखने लगे।

13-राम दूत------------------------------सहिदानी।।

अपना परिचय देते हुए हनुमान जी ने कहा कि हे माता जानकी! करुणा के सागर भगवान श्री राम की सौगंध
खाकर कहता हूं कि मैं उन्हीं का भेजा हुआ दूत(सेव हूं यह अंगूठी मैं ही लेकर आया हूं मेरे स्वामी भगवान
श्रीराम ने आपको मेरी पहचान की निशानी के रूप में मुझे यह अंगूठी दी थी।

14-नर बानरहि---------------------------कर दास।

हनुमान के ऐसा कहने पर सीता जी ने उनसे कहा कि आपके साथ प्रभु श्री राम की मित्रता कब और कै से हुई
यह कथा आप हमें विस्तार से सुनाएं ।

माता पिता की आज्ञा पाकर हनुमान जी ने अपनी और प्रभु श्री राम की मित्रता की जो कहानी सीता जी को
सुनाई उसे सुनकर सीताजी को यह विश्वास हो गया कि मन वचन और कर्म हर तरह से हनुमान करुणा के
सागर श्री राम के ही सेवक है इसमें कोई संदेह नहीं है ।

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