Download as pdf or txt
Download as pdf or txt
You are on page 1of 18

श्रीमद भागवत 3.6.

3-4

सो ऽनुप्रववष्टो भगवाांश्
चेष्टा-रूपेण तां गणम्
भभन्नां सांयोजयाम् आस
सुप्तां कमम प्रबोधयन्
॥ 3.6.3 ॥

शब्दार्म
सः – वह; अनुप्रववष्टः – इस
तरह बाद में प्रवेश करते हुए;
भगवान्– भगवान्; चेष्टा-रूपेण
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

– अपने प्रयास काली के रूप में;


तम्—उनको; गणम्— सारे
जीव जजनमें देवता सम्मिजलत हैं ;
भभन्नम् – पृर्क्-पृर्क्;
सांयोजयाम् आस - कायम करने में
लगाया; सुप्तम्–सोई हुई; कमम
– कमम; प्रबोधयन् –प्रबुद्ध करते
हुए।
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

अन्वय- चेष्टारूपेण (अपने


प्रयास काली के रूप में क्रिया
शवि द्वारा ) तां गणम्( उन
समस्त तत्त्वों में ) अनुप्रववष्टः
(इस तरह बाद में प्रवेश करते
हुए) सुप्तां(अप्रकट) कमम (
उनकी क्रियाओां को )
प्रबोधयन्(प्रकाजशत करके)
भभन्नां(उन अममजलत घटकों को )
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

सांयोजयमास( सम्मिजलत
क्रकया)।
अनुवाद
इस तरह जब भगवान् अपनी
शवि से तत्त्वों के भीतर प्रववष्ट हो
गये तो सारे जीव प्रबुद्ध होकर
ववभभन्न कायों में उसी तरह लग
गये जजस तरह कोई व्यवि वनद्रा
से जगकर अपने कायम में लग
जाता है ।
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

श्रीधरी 3.6.3
उन सबों में चेष्टारूपेण अर्ामत्
क्रिया शवि के द्वारा कमम अर्ामत
उन सबों की क्रिया अर्वा जीवों
के अदृष्ट को भगवान् ने जागृत
कर ददया और उसके पश्चात् वे
सभी प्राकृत तत्त्व जो अलग-
अलग र्े उन सबों को एक में
ममला ददया|
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

तात्पयम : हर जीव सृमष्ट के लय के


पश्चात् अचेत रहता है और
भगवान् की भौवतक शवि के
सार् उनमें ही प्रवेश करता है। ये
व्यमष्ट जीव पहले से चली आ रही
बद्ध आत्माएँ हैं , क्रकन्तु प्रत्येक
भौवतक सृमष्ट में उन्हें अपने
आपको मुि करने तर्ा स्वतांत्र
आत्माएँ बनने का अवसर प्रदान
क्रकया जाता है। उन्हें वैददक ज्ञान
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

का लाभ उठाने का तर्ा यह पता


लगाने का क्रक भगवान् के सार्
उनका क्या सम्बन्ध है , वे क्रकस
तरह मुि बन सकते हैं , और ऐसी
मुवि में परम लाभ क्या है ,
अवसर प्रदान क्रकया जाता है।
वेदों का समुभचत अध्ययन करके
मनुष्य अपने पद से अवगत होता
है और इस तरह भगवान् की ददव्य
भवि करता हुआ िमशः
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

वैकुण्ठलोक को प्राप्त होता है।


भौवतक जगत में व्यमष्ट आत्माएँ
अपनी ववगत अपूणम इच्छाओां के
अनुसार ववभभन्न कायों में लगी
रहती हैं। क्रकसी ववशेष शरीर के
ववघटन के बाद व्यमष्ट आत्मा हर
वस्तु को भूल जाती है , क्रकन्तु
सवमकरुणामय भगवान्, जो क्रक
साक्षी परमात्मा के रूप में हर
व्यवि के हृदय में स्थित हैं , उसे
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

जागृत करते हैं और उसे उसकी


ववगत इच्छाओां की याद ददलाते
रहते हैं। इस तरह वह अपने
अगले जीवन में उसी के अनुसार
कमम करने लगता है । इस अदृष्ट
मागमदशमन को भाग्य कहा जाता है
और कोई भी वववेकशील व्यवि
समझ सकता है क्रक इससे प्रकृवत
के तीन गुणों में उसका भौवतक
बन्धन बना रहता है।
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

सृमष्ट के आांजशक या पूणम लय के


तुरन्त बाद जीव की अचेत
सुप्ताविा को कुछ अल्पज्ञ
दाशमवनक भूल से जीवन की चरम
अविा मान बैठते हैं। आांजशक
भौवतक शरीर के ववलय के बाद
जीव केवल कुछ महीनों तक
अचेत रहता है और भौवतक सृमष्ट
के पूणम ववलय के बाद वह लाखों
वषों तक अचेत रहता है। क्रकन्तु
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

जब सृमष्ट पुनः जागृत होती है , तो


भगवान् उसे जगा कर पुनः कमम
में लगाते हैं। जीव शाश्वत है और
उसके कायों द्वारा प्रकट उसकी
जाग्रत चेतना - अविा उसके
जीवन की स्वाभाववक अविा
है। जागृत रहते हुए वह कमम
करना बन्द नहीं करता और इस
तरह वह अपनी ववववध इच्छाओां
के अनुसार कमम करता है । जब
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

उसकी इच्छाएँ भगवान् की ददव्य


सेवा करने के जलए प्रजशक्षक्षत की
जाती हैं , तो उसका जीवन पूणम हो
जाता है और वनत्य जाग्रत जीवन
का आनन्द पाने के जलए वह
वैकुण्ठ भेज ददया जाता है |
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

प्रबुद्ध-कमाम दैवेन
त्रयोवविंशवतको गणः
प्रेररतो ऽजनयत् स्वाभभर्
मात्राभभर् अमधपूरुषम्
॥ 3.6.4 ॥

शब्दार्म
प्रबुद्ध – जाग्रत; कमाम–
कायमकलाप; दैवेन – ब्रह्म की
इच्छा से; त्रयः - वविंशवतकः -
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

तेईस प्रमुख अवयवों द्वारा; गण:


– सांमेल; प्रेररत: – द्वारा प्रेररत;
अजनयत् – प्रकट क्रकया;
स्वाभभः – अपने; मात्राभभः –
स्वाांश से; अमधपूरुषम् – ववराट
रूप (ववश्वरूप) को।
अन्वय-प्रबुद्धकमाम ( जागृत
क्रिया शवि जजनकी र्ी ऐसे)
त्रयः - वविंशवतकः गण:( महा
भूत आदद तेईस तत्व समूह ने)
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

दैवेन ( ईश्वर के द्वारा ) प्रेररतः


( पररचाजलत होकर ) स्वभभ:
मात्राभभ: ( अपने अांश द्वारा )
अमधपुरुषां (ववराट देह )
अजनय़त् ( को उत्पाददत
क्रकया)।
अनुवाद
जब परम पुरुष की इच्छा से तेईस
प्रमुख तत्त्वों को सक्रिय बना ददया
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

गया तो भगवान् का
ववराट ववश्वरूप शरीर प्रकट
हुआ ।
तात्पयम : ववराट् रूप या ववश्व रूप
जजसकी वनवविशेषवादी बहुत
बडाई करते हैं , वह भगवान् का
वनत्य रुप नहीं है। यह भगवान्
की परम इच्छा द्वारा भौवतक सृमष्ट
के अवयवों के बाद प्रकट क्रकया
जाता है। भगवान् कृष्ण ने अजुमन
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

को यह ववराट या ववश्वरूप
वनवविशेषवाददयों को यह ववश्वास
ददलाने के जलए ददखलाया क्रक वे
ही आदद भगवान् हैं। कृष्ण ने
ववराट् रूप प्रकट क्रकया र्ा । ऐसा
नहीं है क्रक ववराट रूप द्वारा कृष्ण
प्रकट हुए, इसजलए ववराट रूप
भगवान् द्वारा वैकुण्ठ में प्रकट
क्रकया गया वनत्य रूप नहीं है। यह
भगवान् का भौवतक प्राकट्य है ।
श्रीमद भागवत 3.6.3-4

नवजजज्ञासुओां के जलए मन्दन्दर का


अचामववग्रह भगवान् का ऐसा ही
प्राकट्य है । क्रकन्तु भगवान् के
ववराट तर्ा अचाम रूप भौवतक
होने पर भी उनके वनत्य रूप से
अभभन्न हैं ।

You might also like