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मोहन राके श: नाटककार के बारे में

मोहन राके श का जन्म 8 जनवरी, 1925 को अमृतसर में करम चंद गुगलानी के घर हुआ था, जो पेशे से वकील थे। उनके पिता भी

सामाजिक कार्यों में लगे हुए थे और कई साहित्यिक और सांस्कृ तिक संगठनों के प्रमुख थे। इस प्रकार, मोहन को अपने पिता से साहित्य और

संगीत में रुचि विरासत में मिली। जब मोहन सोलह साल का था, तब उसके पिता का निधन हो गया और वह भारी कर्ज छोड़ गया। मोहन पर

अपने पिता का बहुत प्रभाव था। हालाँकि, अपने पिता के निधन के बाद शुरू में मोहन की बड़ी बहन ने घर की ज़िम्मेदारी संभाली, जब तक कि

मोहन ने अपनी शिक्षा पूरी नहीं कर ली।

मोहन ने लाहौर से संस्कृ त में एम.ए. किया और देश के बंटवारे के बाद वे अपने परिवार के साथ जालंधर चले गए। बाद में उन्होंने अपनी

शिक्षा जारी रखी और हिंदी साहित्य में एम.ए. भी किया। मोहन ने शुरू में एक शिक्षक के रूप में अपना करियर शुरू किया और स्कू ल और

कॉलेजों में पढ़ाया। लेखन को पूर्णकालिक करियर के रूप में अपनाने का फै सला करने से पहले वे कु छ समय के लिए एक लघु कथा पत्रिका के

संपादक थे।

बाद में, वे काम की तलाश में बॉम्बे चले गए। वहाँ उन्होंने नौकरी पाने के लिए संघर्ष किया और तीन दिनों तक उनके पास खाने के लिए पैसे

नहीं थे। आखिरकार जब उन्होंने अपना सामान पैक करने का फै सला किया तो उन्हें सिडेनहैम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स से मात्र 75 रुपये के वेतन

पर अंशकालिक शिक्षक के रूप में पढ़ाने के लिए नियुक्ति पत्र मिला। उन्होंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया क्योंकि उन्हें भूख लगी थी।

बाद में उन्होंने एलफिं स्टन कॉलेज में लेक्चररशिप के साथ इसे पूर्णकालिक बना दिया। हालांकि, उन्होंने नौकरी खो दी। इसके बाद, उन्होंने कु छ

समय के लिए जालंधर और दिल्ली में पढ़ाया और कु छ समय के लिए शिमला के एक स्कू ल में भी पढ़ाया। उसके बाद एक बार फिर उन्होंने अपनी

नौकरी छोड़ दी और जालंधर लौट आए और डीएवी कॉलेज में शामिल हो गए। पूर्णकालिक लेखक बनने के लिए उन्होंने वह नौकरी भी छोड़ दी।

मोहन राके श को कहानी के बाद सफलता नाट्य-लेखन के क्षेत्र में मिली। हिंदी नाटकों में भारतेंदु और प्रसाद के बाद का दौर मोहन

राके श का दौर है जिसें हिंदी नाटकों को फिर से रंगमंच से जोड़ा। हिन्दी नाट्य साहित्य में भारतेन्दु और प्रसाद के बाद यदि लीक से हटकर
कोई नाम उभरता है तो मोहन राके श का। हालाँकि बीच में और भी कई नाम आते हैं जिन्होंने आधुनिक हिन्दी नाटक की विकास-यात्रा में

महत्त्वपूर्ण पड़ाव तय किए हैं; किन्तु मोहन राके श का लेखन एक दूसरे ध्रुवान्त पर नज़र आता है। इसलिए ही नहीं कि उन्होंने अच्छे नाटक

लिखे, बल्कि इसलिए भी कि उन्होंने हिन्दी नाटक को अँधेरे बन्द कमरों से बाहर निकाला और उसे युगों के रोमानी ऐन्द्रजालिक सम्मोहक से

उबारकर एक नए दौर के साथ जोड़कर दिखाया। वस्तुतः मोहन राके श के नाटक के वल हिन्दी के नाटक नहीं हैं। वे हिन्दी में लिखे अवश्य गए हैं,

किन्तु वे समकालीन भारतीय नाट्य प्रवृत्तियों के द्योतक हैं। उन्होंने हिन्दी नाटक को पहली बार अखिल भारतीय स्तर ही नहीं प्रदान किया वरन्

उसके सदियों के अलग-थलग प्रवाह को विश्व नाटक की एक सामान्य धारा की ओर भी अग्रसर किया। प्रमुख भारतीय निर्देशकों इब्राहीम

अलकाजी, ओम शिवपुरी, अरविन्द गौड़, श्यामानन्द जालान, राम गोपाल बजाज और दिनेश ठाकु र ने मोहन राके श के नाटकों का निर्देशन

किया।

मोहन राके श के दो नाटकों आषाढ़ का एक दिन तथा लहरों के राजहंस में ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को लेने पर भी आधुनिक मनुष्य के

अंतर्द्वंद और संशयों की ही गाथा कही गयी है। एक नाटक की पृष्ठभूमि जहां गुप्तकाल है तो दूसरा बौद्धकाल के समय के ऊपर लिखा गया है।

आषाढ़ का एक दिन में जहां सफलता और प्रेम में एक को चुनने के द्वंद्व से जूझते कालिदास एक रचनाकार और एक आधुनिक मनुष्य के मन की

पहेलियों को सामने रखते हैं वहीं प्रेम में टू टकर भी प्रेम को नहीं टू टने देने वाली इस नाटक की नायिका के रूप में हिंदी साहित्य को एक

अविस्मरणीय पात्र मिला है। लहरों के राजहंस में और भी जटिल प्रश्नों को उठाते हुए जीवन की सार्थकता, भौतिक जीवन और अध्यात्मिक

जीवन के द्वन्द, दूसरों के द्वारा अपने मत को दुनिया पर थोपने का आग्रह जैसे विषय उठाये गए हैं। राके श के नाटकों को रंगमंच पर मिली

शानदार सफलता इस बात का गवाह बनी कि नाटक और रंगमंच के बीच कोई खाई नही है। मोहन राके श का तीसरा व सबसे लोकप्रिय नाटक

आधे अधूरे है । जहाँ नाटककार ने मध्यवर्गीय परिवार की दमित इच्छाओ कुं ठाओ व विसंगतियो को दर्शाया है । इस नाटक की पृष्ठभूमि

एतिहासिक न होकर आधुनिक मध्यवर्गीय समाज है । आधे अधूरे मे वर्तमान जीवन के टू टते हुए संबंधो ,मध्यवर्गीय परिवार के कलहपुर्ण

वातावरण विघटन ,सन्त्रास ,व्यक्ति के आधे अधूरे व्यक्तित्व तथा अस्तित्व का यथात्मक सजीव चित्रण हुआ है । मोहन राके श का यह नाटक ,

अनिता औलक की कहानी दिन से दिन का नाट्यरुपांतरण है ।

मोहन राके श की कृ तियाँ:


उन्हें 1950 के दशक में उभरे हिंदी साहित्य के नई कहानी साहित्यिक आंदोलन के अग्रदूतों में से एक माना जाता है। उन्होंने शुरू में

कहानियाँ लिखना शुरू किया और बाद में कई नाटक लिखे। इस बीच, उन्होंने 1962-1963 तक कु छ समय के लिए सारिका पत्रिका के

संपादक के रूप में भी काम किया । उनके नाटक आषाढ़ का एक दिन (1958) ने उन्हें स्वतंत्रता के बाद के युग के एक महत्वपूर्ण

नाटककार के रूप में स्थापित किया। इसने न के वल हिंदी साहित्यिक परिदृश्य को प्रभावित किया बल्कि हिंदी रंगमंच को भी महत्वपूर्ण रूप

से पुनर्जीवित किया।

उनकी उल्लेखनीय कृ तियाँ हैं आषाढ़ का एक दिन (1958), लहरों के राजहंस (1968) आधे अधूरे (1969), पैरों तले की

ज़मीन (1973), अंडे के छिलके , अन्या एकांकी तथा बीज नाटक (1973) रात बीतने तक, तथा अन्या ध्वनि नाटक (1974). इसके

अलावा उन्होंने अँधेरे बंद कमरे (1961), ना आने वाला कल (1968) और अंतराल (1972) भी लिखीं । साहित्य और रंगमंच में

उनके योगदान के लिए उन्हें संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित किया गया।

आज चर्चा में आए नाटक की तरह लहरों के राज हंस भी मोहन के चर्चित नाटकों में से एक है। इसे पहले एक लघुकथा के रूप में

लिखा गया था और बाद में मोहन ने इसे ऑल इंडिया रेडियो जालंधर के लिए एक रेडियो नाटक में बदल दिया और सुंदरी के रूप में

प्रसारित किया । नाटक के अंतिम संस्करण को सामने लाने में बीस साल लग गए। तब तक वे इसके विभिन्न संस्करणों का निर्माण कर रहे थे।

अरविंद गौड़, श्यामानंद जालान, ओम शिवपुरी और राम गोपाल बजाज जैसे कई प्रतिष्ठित भारतीय रंगमंच निर्देशकों ने समय के साथ इस

नाटक का मंचन किया। इस नाटक को लिखने की पूरी प्रक्रिया को भी मोहन की डायरी, लेखन और पत्रों का उपयोग करके एक नाटक

बनाया गया, जिसमें नाटक पर चर्चा की गई थी। नाटक का शीर्षक पांडु लिपियाँ रखा गया था और इसे दिल्ली स्थित थिएटर ग्रुप सेकं ड

फाउंडेशन द्वारा बहुत ही रचनात्मक तरीके से मंचित किया गया था।

अब हम नाटक आषाढ़ का एक दिन पर चर्चा करने जा रहे हैं । इस नाटक को पहली बार 1960 में श्यामानंद जालान के निर्देशन

में कोलकाता स्थित थिएटर ग्रुप अनामिका ने खेला था। इसके बाद 1962 में दिल्ली के नेशनल स्कू ल ऑफ ड्रामा (NSD) में थिएटर के

दिग्गज इब्राहिम अलकाज़ी ने भी इसका मंचन किया। इस नाटक ने राके श को उस समय का सबसे बड़ा आधुनिक हिंदी नाटककार बना
दिया। आषाढ़ का एक दिन नाटक का अंग्रेजी में अनुवाद अपर्णा धारवाड़कर और विनय धारवाड़कर ने संयुक्त रूप से वन डे इन द सीजन

ऑफ रेन के रूप में किया है । सारा के . यूस्ले ने भी इसका अनुवाद वन डे इन आषाढ़ के रूप में किया है ।

मोहन राके श की साहित्यिक शैली :

मोहन राके श की लेखन शैली स्वतंत्रता के बाद के बदलते परिदृश्य का परिणाम थी। उन्होंने अन्य लेखकों के साथ मिलकर मध्यम वर्ग

के समाज के मानवीय जीवन और चिंताओं को प्रस्तुत करने का प्रयास किया, जो एक बड़े बदलाव से गुजर रहा था। उन्होंने मुख्य रूप से

पुरुष और महिला संबंधों पर ध्यान कें द्रित किया है, विशेष रूप से महिलाओं की छवि पर, क्योंकि समाज बदल रहा था। महिलाएं तब घर के

अखाड़े में प्रवेश कर रही थीं और अपनी पहचान बना रही थीं। यह पूरी तरह से नया था और घरेलू जीवन में कई संघर्षों को जन्म दे रहा था।

रिश्तों की पीड़ा और आंतरिक उथल-पुथल की ओर ध्यान आकर्षित करने के लिए, नाटककार ने रोज़मर्रा की आम भाषा का

इस्तेमाल किया है। दिलचस्प बात यह है कि इस विशेष नाटक, आषाढ़ का एक दिन में कालिदास को भी शामिल किया गया है। संस्कृ त कवि

और नाटककार कालिदास के समय के सार को चित्रित करने के लिए, राके श ने कु छ संस्कृ त शब्दों को छिड़का है और कालिदास और

मल्लिका के संवादों में विशेष रूप से काव्यात्मक भावना को देखा जा सकता है।

नाटक की पृष्ठभूमि:

नाटक का शीर्षक कालिदास के मेघदूत से लिया गया है , जो संस्कृ त में है। मोहन राके श का नाटक कालिदास के मेघदूत को पढ़ने के

बाद की भावना और अनुभव का परिणाम है । उन्होंने कहा, "जब मैं मेघदूत पढ़ता था, तो मुझे लगता था कि कहानी एक बेदखल यक्ष के बारे

में कम और एक ऐसे कवि के बारे में है, जो अपनी आत्मा से अलग हो गया है और उसने अपने अपराध-बोध को अपनी रचना में डाल दिया

है" (www.revolvy.com में संदर्भित, "आषाढ़ का एक दिन")। हालाँकि, यह कवि के जीवन को दर्शाता एक ऐतिहासिक नाटक

नहीं है। बल्कि यह उस समय की कला और राजनीति के बीच के तनाव को विशेष रूप से संस्कृ त के महान कवि और नाटककार कालिदास

और उनकी प्रेरणा के माध्यम से प्रस्तुत करता है। शीर्षक के बारे में, हिंदू कै लेंडर के अनुसार, आषाढ़ भारत में वर्षा ऋतु की शुरुआत का

महीना है और यह जून और जुलाई के महीनों के बीच आता है

नाटक की सेटिंग:
लगभग हर नाटक में सेटिंग एक महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है जो नाटककार द्वारा नाटक लिखते समय इच्छित माहौल को समझने

और बनाने में मदद करती है। कई बार नाटककार नाटक के साथ-साथ सेटिंग के बारे में भी लिखते हैं। इस नाटक की सेटिंग ज़्यादातर नाटक

के पाठ में ही लिखी गई है। दो मुख्य पात्रों के रिश्ते और भावनाओं को समझने के लिए नाटक की सेटिंग बहुत महत्वपूर्ण है। बदलते समय से

लेकर बढ़ती दूरियों तक, दीवारों पर बनी पेंटिंग और घर के दूसरे सामान समेत हर चीज़ का विस्तार से वर्णन किया गया है।

नाटक की पृष्ठभूमि हिमालय के एक गांव में है। नाटक के तीनों अंक आषाढ़ माह की बरसात के दिन शुरू होते हैं। पर्दा उठने से पहले

और उठने के कु छ सेकं ड बाद तक हल्की गड़गड़ाहट और बारिश की आवाज सुनाई देती है। फिर दृश्य एक साधारण कमरे में खुलता

है। कमरे की दीवारें लकड़ी की हैं जिनके निचले हिस्से को नरम मिट्टी से लीपा गया है और बीच-बीच में लाल रंग से स्वस्तिक बनाए गए हैं।

सामने का दरवाजा एक अंधेरे बरामदे की ओर जाता है। दरवाजे के दोनों तरफ आले हैं जिनमें बुझे हुए दीये रखे जाते हैं। बाईं ओर का

दरवाजा दूसरे कमरे की ओर जाता है। दरवाजा खुला होने पर एक चारपाई का कोना दिखाई देता है। चारपाई के तख्तों को भी मिट्टी से लीपा

गया है। इस पर लाल चाक से शंख और कमल बनाए गए हैं

कमरे के एक तरफ चूल्हा और उसके आस-पास मिट्टी और कांसे के बर्तन हैं। दूसरी तरफ खिड़की से थोड़ी दूर पर अनाज रखने के

लिए इस्तेमाल की जाने वाली मिट्टी की चार बड़ी-बड़ी सुराही हैं। उन पर कु शा घास लगी हुई है जिसे एक पत्थर से टिका कर रखा गया है।

खिड़की के पास लकड़ी की एक सीट है जिस पर बाघ की खाल बिछी हुई है। चूल्हे के पास दो कु र्सियाँ हैं। अंबिका इनमें से एक कु र्सी पर बैठी

हुई धान को टोकरी में डाल रही है। खिड़की की तरफ देखते हुए वह गहरी साँस लेती है और फिर अपना काम फिर से शुरू कर देती है।

सामने का दरवाज़ा खुलता है और मल्लिका अपने गीले कपड़ों में काँपती हुई अंदर आती है। अंबिका बिना ऊपर देखे काम करना जारी रखती

है। मल्लिका कु छ देर के लिए झिझकती है, फिर अंबिका के पास आ जाती है।

नाटक का कथानक और सारांश:


नाटक तीन भागों में विभाजित है। सेटिंग वही रहती है, लेकिन स्वस्तिक चित्र धीरे-धीरे फीके पड़ जाते हैं और घर की कु छ वस्तुएं

गायब हो जाती हैं।

मल्लिका और कालिदास एक बरसात के दिन बारिश और प्रकृ ति का आनंद लेने के लिए बाहर जाते हैं। मल्लिका की माँ, अंबिका को

अपनी बेटी का कालिदास के साथ घूमना पसंद नहीं है। मल्लिका घर लौटती है और अपनी माँ को नाराज़ पाती है। कालिदास ने शादी न करने

की कसम खाई है लेकिन मल्लिका कालिदास से प्यार करती है। एक राज्य अधिकारी आता है और घोषणा करता है कि कालिदास को उज्जैन

के राजा द्वारा सम्मानित किया जाना है। कालिदास सम्मान स्वीकार नहीं करना चाहते हैं लेकिन उनके चाचा, मातुल चाहते हैं कि वे राज्य

का सम्मान स्वीकार करें। कालिदास के मामा मातुल उत्तेजित और क्रोधित होते हैं क्योंकि कालिदास राजा का सम्मान स्वीकार करने के लिए

उज्जैन नहीं जाना चाहते हैं।

हालाँकि मल्लिका दुखी है लेकिन वह कालिदास को उज्जैन जाने और सम्मान स्वीकार करने के लिए मना लेती है। आधे मन

से कालिदास जाने के लिए राजी हो जाते हैं। अंबिका, मल्लिका की माँ अपनी बेटी के बारे में चिंतित है क्योंकि कालिदास ने शहर जाने से

पहले उसकी बेटी से शादी करने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। विलोम, एक ग्रामीण जो खुद को कालिदास का दोस्त कहता है, मल्लिका

में रुचि रखता है। मल्लिका विलोम को पसंद नहीं करती है लेकिन वह कभी-कभी अंबिका से मिलने के बहाने आता है। वह मल्लिका का

कालिदास से मिलना पसंद नहीं करता। वह जानना चाहता है कि कालिदास ने उज्जैन जाने से पहले मल्लिका के साथ क्या करने की योजना

बनाई है। हालाँकि, कालिदास वापस लौटने का कोई वादा किए बिना उज्जैन के लिए निकल जाता है लेकिन मल्लिका उसका इंतज़ार करती है।

समय बीतता है और हम देखते हैं कि मल्लिका उसी घर में घर के कामों में व्यस्त है। अब वह घर के वे सारे काम करती है

जो पहले उसकी माँ किया करती थी। मल्लिका की माँ बीमार है। मल्लिका अपनी माँ की देखभाल करती है। इस बीच, कालिदास एक प्रसिद्ध

लेखक बन गए हैं। अचानक उज्जैन से दो महिला विद्वान, रंगिनी और संगिनी, मल्लिका के घर आती हैं। वे कालिदास के जीवन पर काम कर

रही हैं। वे अपने क्षेत्र के काम को अंजाम देने के लिए उसके घर आई हैं। हालाँकि, मल्लिका उनके अजीब व्यवहार और सवालों को नहीं समझ

पाती है। वे निराश होकर लौट जाती हैं।


कालिदास और उनकी पत्नी कश्मीर जा रहे हैं। वह अब कश्मीर के शासक हैं। कालिदास मल्लिका से मिलने नहीं आते। गुप्त

राजकु मारी प्रियंगुमंजरी, जो कालिदास से विवाहित है, मल्लिका से मिलने आती है। मल्लिका दुखी है, लेकिन यह नहीं दिखाती। राजकु मारी के

जाने के बाद विलोम आता है और मल्लिका से बहस करता है और पूछता है कि कालिदास उसके घर क्यों नहीं आए। मल्लिका विलोम को जाने

के लिए कहती है। मल्लिक रोता है और अंबिका उसे शांत करती है। मल्लिका कालिदास की रचनाएँ खरीदती है और उन्हें पढ़ती है।

आषाढ़ की वही बरसात का दिन फिर आ गया है। कालिदास के मामा मातुल मल्लिका के घर आते हैं। मातुल अब बैसाखी के सहारे

चलते हैं। जब मातुल महल में रहने के दौरान कालिदास से मिलने गए थे, तो वे फर्श पर फिसल गए और उनका पैर टू ट गया। इसी बरसात के

दिन कालिदास मल्लिका के घर आते हैं। वे आपस में बातचीत करते हैं और कालिदास को लगता है कि मल्लिका अभी भी उनके लौटने का

इंतज़ार कर रही है। कालिदास मल्लिका के पास वापस लौटते हैं और उसके साथ एक नया जीवन शुरू करते हैं। हालाँकि, मल्लिका अब विलोम

से शादी कर चुकी है।

विलोम दरवाज़ा खटखटाता है और कालिदास को देखकर उसे उसकी सही जगह दिखाता है और कालिदास को मेहमान बताता है

क्योंकि अब घर का मालिक वही है। विलोम आता है और मल्लिका से मेहमानों का ख्याल रखने के लिए कहता है। कालिदास और मल्लिका

कु छ देर बात करते हैं और अचानक कमरे के अंदर से बच्चे के रोने की आवाज़ आती है और मल्लिका बच्चे को देखने जाती है। कालिदास को

पता चलता है कि मल्लिका विलोम के बच्चे की माँ है। यह देखकर कालिदास वहाँ से चला जाता है और मल्लिका कालिदास के नक्शेकदम पर

चलना चाहती थी लेकिन अपने बच्चे की खातिर वहीं रुक जाती है।

मोहन राके श ने कु ल चार नाटक लिखे हैं जिनमें से चौथा नाटक ‘पैर तले की ज़मीन‘ वे पूरा नहीं कर सके । शेष तीन नाटक ‘आषाढ़ का

एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे-अधूरे’ के माध्यम से लेखक ने क्या कहना चाहा है, इस पर इकाई में विचार किया गया है।

उनके पहले दो नाटकों का कथानक इतिहास आधारित है। आप इससे पूर्व प्रसाद का नाटक ‘स्कं दगुप्त’ भी पढ़ चुके हैं, उसका कथानक

भी इतिहास पर आधारित है। मोहन राके श ने इतिहास को नाटकों का आधार क्यों बनाया और उनके माध्यम से उन्होंने जो कहना चाहा है, क्या

उसका संबंध वर्तमान से है? इस इकाई में इस पहलू पर भी विचार किया गया है।
मोहन राके श के नाटक प्रसाद के नाटकों से काफी अलग हैं। प्रसाद के नाटक अपनी साहित्यिक मूल्यवत्ता के बावजूद रंगमंच पर सफल

नहीं थे जबकि राके श के नाटक दोनों दृष्टियों से सफल थे। उनकी इस सफलता का कारण नाटक और रंगमंच संबंधी उनके सोच में निहित था।

इकाई का अध्ययन करने से आप मोहन राके श के नाटक संबंधी चिंतन से भी परिचित हो सकें गे।

मोहन राके श के सभी नाटकों की सैकड़ों प्रस्तुतियाँ प्रख्यात निर्देशिकों द्वारा सफलतापूर्वक की गई है। मोहन राके श के नाटकों के संदर्भ में

नाटक और रंगमंच के अंतःसंबंधों पर भी इकाई में विचार किया जाएगा।

मोहन राके श के नाटकों में ‘आधे-अधूरे’ का विशिष्ट स्थान है। इसका कथानक इतिहास आधारित नहीं है। इसको लेकर काफी वाद-विवाद

भी होता रहा है, इसके बावजूद इसकी श्रेष्ठता और सफलता असंदिग्ध है। ‘आधे-अधूरे’ के इस महत्व पर भी इकाई में विचार गया जाएगा।

मोहन राके श का नाटक ‘आधे-अधूरे’ स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के दौर में लिखा गया है। इसका कथानक मध्य वर्ग के जीवन से संबंधित है।

एक शहरी मध्यवर्गीय परिवार की कहानी इसमें कही गई है जो धीरे-धीरे टू ट रहा है। पुरुष महेंद्रनाथ एक असफल व्यक्ति है और पत्नी सावित्री की

नौकरी से ही घर का खर्च चलता है। पति की असफलता और दब्बूपन ने पत्नी के जीवन को रिक्तता से भर दिया है और इससे मुक्ति पाने के लिए

वह ऐसे पुरुष की तलाश में है. जो उसे इस खालीपन से आजाद कराए। लेकिन इस नाटक के सभी पात्र आधे-अधूरे हैं और मुक्ति की तलाश के

बावजूद वे उसी नियति से बंधे चक्कर लगाते रहते हैं। मध्यवर्ग की इस विडंबना को ही मोहन राके श ने प्रभावशाली रूप में नाटक में प्रस्तुत किया है।

मोहन राके श ने अपनी रचनाओं में स्त्री-पुरुष संबंधों की गहरी पड़ताल की है। यह कोशिश हमें इस नाटक में भी नज़र आती है। नाटक की

सफलता रंगमंच पर प्रदर्शन से सिद्ध होती है। इस दृष्टि से मोहन राके श हिंदी के पहले ऐसे नाटककार हैं जिनके सभी नाटक रंगमंच पर अत्यंत

सफलतापूर्वक खेले जाते रहे हैं। मोहन राके श का नाट्य संबंधी सोच प्रसाद के सोच से भिन्न है। वे नाटक की सफलता उसके रंगमंच पर प्रदर्शन में

मानते हैं। मोहन राके श के नाटकों के इन पक्षों पर इस इकाई में विचार किया गया है। इस इकाई को पढ़ने से पूर्व आप’आधे-अधूरे’ अवश्य पढ़ें।

अन्यथा आप इकाई में कही गई बातों को सही परिप्रेक्ष्य में नहीं समझ पाएँगे।

मोहन राके श का नाट्य कर्म

मोहन राके श असाधारण प्रतिभा के धनी कलाकार थे। उन्होंने गद्य की प्रायः सभी विधाओं में साहित्य सजन किया। लेकिन उन्हें सबसे

अधिक ख्याति नाट्य लेखन में मिली। उनके लिखे तीन नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’ और ‘आधे-अधूरे अपनी

साहित्यिक और रंगमंचीय उत्कर्षता के कारण आज भी अत्यंत लोकप्रिय हैं। आधे-अधूरे’ नाटक आधुनिक मध्यवर्गीय जीवन से संबंधित है जबकि
‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘लहरों के राजहंस’ ऐतिहासिक कथानकों पर आधारित हैं। उनका चौथा और अंतिम नाटक ‘पैर तले की ज़मीन’

उनकी मृत्यु के बाद प्रकाशित हुआ। नेमिचंद्र जैन के अनुसार, ‘इसे वह स्वयं पूरा नहीं कर पाये थे और मृत्यु से पहले के वल पहला अंक और दूसरे

का कु छ अंश ही लिखा जा सका था। ये अंश भी कई बार लिखे जाने के बावजूद अभी एक तरह के मसौदे के रूप में ही थे जिनके आधार पर उनके

मित्र कमलेश्वर ने नाटक का दूसरा अंक लिखकर उसे प्रकाशित कराया। इस अधूरेपन के बावजूद, पहला अंक अत्यंत संभावनापूर्ण नाटकीय

स्थिति को प्रस्तुत करता है।’ (मोहन राके श के संपूर्ण नाटक, सं0 नेमिचंद्र जैन, राजपाल एंड संस, दिल्ली, पृष्ठ 15, संस्करण 1973)

मोहन राके श का पहला नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन ‘, 1958 में प्रकाशित हुआ था। तीन महीने के बाद ही उसका दूसरा संस्करण

प्रकाशित हुआ और इसके बाद से कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। यह नाटक अत्यंत लोकप्रिय है। इसकी साहित्यिक उत्कर्षता और रंगमंचीय

सफलता ने मोहन राके श को एक सफल नाटककार के रूप में स्थापित कर दिया। इस नाटक के लिए मोहन राके श ने संस्कृ त के महाकवि और

नाटककार कालिदास के जीवन प्रसंगों को आधार बनाया है। कालिदास के बारे में प्रामाणिक रूप से कु छ भी कहना मुश्किल है, लेकिन प्रचलित

किवदंतियों को आधार बनाकर जो प्रश्न मोहन राके श ने उठाया है, उसका संबंध कालिदास और उनके समय से रहा हो या न रहा हो, हमारे समय

से काफी गहरा है। राज्याश्रय और रचनाकर्म में परस्पर संबंध हमेशा विवाद का विषय रहा है। इस नाटक की कथावस्तु में लेखक और राज्य के

बीच संबंधों से उत्पन्न रचनाकार के द्वंद्व को गहरी संवेदना के साथ प्रस्तुत किया गया है।

इतिहास के बारे में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए मोहन राके श ने लिखा था, ‘इतिहास या ऐतिहासिक व्यक्तित्व का आश्रय साहित्य को

इतिहास नहीं बना देता। इतिहास तथ्यों का संकलन करता है, उन्हें एक समय तालिका में प्रस्तुत करता है। साहित्य का ऐसा उद्देश्य कभी नहीं

रहा। इतिहास के रिक्त कोष्ठों की पूर्ति करना भी साहित्य का उपलब्धि क्षेत्र नहीं है। साहित्य इतिहास के समय से बँधता नहीं, समय में इतिहास का

विस्तार करता है, युग से युग को अलग नहीं करता, कई-कई यूगों को एक साथ जोड़ देता है। इतिहास की नाटककार की समझ हमें यही बताती है

कि उसके लिए इतिहास अतीत की घटनाओं का संकलन नहीं है बल्कि साहित्य के लिए इतिहास अतीत और वर्तमान को जोड़ने का माध्यम है।

मोहन राके श को कालिदास में इसी संबद्धता के सूत्र दिखाई देते हैं। यही कारण है कि वे इतिहास-व्यक्ति कालिदास की बात नहीं करते बल्कि उस

कालिदास की बात करते हैं जो उनकी रचनाओं से बना है। स्वयं लेखक के शब्दों में, ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास का जैसा भी चित्र है, वह

उसकी रचनाओं में समाहित उसके व्यक्तित्व से बहुत हटकर नहीं है, हाँ, आधुनिक प्रतीक के निर्वाह की दृष्टि से उसमें थोड़ा परिवर्तन अवश्य किया

गया है।
यह इसलिए कि कालिदास मेरे लिए एक व्यक्ति नहीं, हमारी सृजनात्मक शक्तियों का प्रतीक है, नाटक में वह प्रतीक अंतर्द्वद्व को संके तित

करने के लिए है जो किसी भी काल में सजनशील प्रतिभा को आंदोलित करता है। व्यक्ति कालिदास को उस अंतर्द्वद्व में से गुजरना पड़ा या नहीं,

यह बात गौण है। मुख्य बात यह है कि हर काल में बहुतों को उसमें से गुजरना पड़ा है। हम भी आज उसमें से गुजर रहे हैं। हो सकता है व्यक्ति

कालिदास का यह नाम भी वास्तविक न हो, पर हमारी आज तक की सृजनात्मक प्रतिभा के लिए इससे अच्छा दूसरा नाम, दूसरा संके त मुझे नहीं

मिला।”

इतिहास और इतिहास-चरित्रों को वर्तमान परिप्रेक्ष्य में देखने की इस समझ को यदि हम ध्यान में नहीं रखेंगे तो मोहन राके श के ऐतिहासिक

कथानकों पर आधारित नाटकों के महत्व को भी नहीं समझ पाएंगे। यह बात सिर्फ मोहन राके श पर ही लागू नहीं होती, जयशंकर प्रसाद पर भी लागू

होती है, जिन्होंने ऐतिहासिक कथानकों को आधार बनाकर नाटक लिखे थे।

मोहन राके श का दूसरा नाटक ‘लहरों के राजहंस’ का संबंध भी इतिहास से है। भगवान बुद्ध के छोटे भाई नंद के जीवन से संबंधित इस

नाटक को उन्होंने अश्वघोष के काव्य ‘सौन्दरनंद’ की कथा के आधार पर निर्मित किया है। स्वयं नाटककार का मानना है कि ‘जो स्वतंत्रता

‘सौन्दरनन्द’ के लेखक ने उपलब्ध तथ्यों से आगे जाने में ली, वही स्वतंत्रता यदि आज का लेखक सौन्दरनन्द के तथ्यों से आगे जाने में लेता है, तो

‘पुराणसर्वस्व’ व्यक्तियों को चौंकना नहीं चाहिए।’ इतिहास को नाट्य वस्तु का आधार बनाते हुए भी अपनी बात कहने के लिए उससे बंधे रहने की

अनिवार्यता मोहन राके श नहीं स्वीकार करते। वे ‘लहरों के राजहंस’ की प्रेरणा को स्पष्ट करते हए लिखते हैं, यहाँ नन्द और सुंदरी की कथा एक

आश्रय-मात्र है, क्योंकि मुझे लगा कि इसे समय में परिक्षेपित किया जा सकता है। नाटक का मूल अंतर्द्वद्व उस अर्थ में यहाँ भी आधुनिक है जिस अर्थ

में ‘आषाढ़ का एक दिन’ के अंतर्गत है।’

मोहन राके श के उपर्युक्त कथन से स्पष्ट है कि उन्होंने ‘लहरों के राजहंस’ की रचना भी इतिहास की पुनर्रचना करने के लिए नहीं की बल्कि

इसकी रचना के पीछे भी प्रेरणा आधुनिक है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में राजसत्ता और रचनाकार का अंतर्द्वद्व है तो इस नाटक में जीवन के प्रति राग

और विराग का। ऐतिहासिक कथानकों के माध्यम से इन सवालों को रखने के पीछे लेखक का उद्देश्य संभवतः यह रहा है कि वह यह बता सके कि इन

सवालों से प्रत्येक युग का रचनाधर्मी और संवेदनशील व्यक्ति जूझता है। इनसे जूझे बिना कु छ भी सार्थक नहीं रचा जा सकता।

‘लहरों के राजहंस’ रंगमंच पर उतना सफल नहीं रहा जितना कि ‘आषाढ़ का एक दिन ‘। लेकिन इस नाटक को भी पर्याप्त प्रसिद्धी मिली और इसको

लेकर साहित्यिक हलकों और रंगकर्मियों और रंगप्रेमियों के बीच व्यापक चर्चा हुई।

मोहन राके श का तीसरा नाटक ‘आधे-अधूरे’ का कथानक इतिहास पर आधारित नहीं है। इसमें उन्होंने समकालीन यथार्थ पर आधारित

कथावस्तु को ही लिया है। एक मध्यवर्गीय शहरी परिवार की कहानी इसमें कही गई है। अपने पहले के दो नाटकों की तरह इस नाटक में भी मध्यवर्गीय
जीवन के माध्यम से मोहन राके श ने स्त्री-पुरुष संबंधों में आते बदलाव को दर्शाया है। प्रसिद्ध रंग निर्देशक इब्राहीम अलकाजी ने ‘आधे-अधूरे’ पर

टिप्पणी करते हए लिखा था, ‘यह नाटक मध्यवर्गीय जीवन की शुष्क, विनाशकारी रिक्तता का प्रखर दस्तावेज़ है और विकृ त मूल्यों, भ्रांतियों एवं

दोगली नैतिकता का निर्मम अनावरण, जो उस रिक्तता के कारण है।’

मोहन राके श का चौथा और अधुरा नाटक ‘पैर तले की ज़मीन’ का कथानक भी समकालीन यथार्थ से संबंधित है। राके श ने यदि अपने पहले दो

नाटक ऐतिहासिक कथानक पर लिखे तो शेष दोनों नाटकों का संबंध आधुनिक सामाजिक यथार्थ से है। कई अर्थों में उनका अंतिम नाटक पहले के

नाटकों से भिन्न है। पहले के तीनों नाटकों में लेखक ने स्त्री-पुरुष संबंधों के माध्यम से अपनी बात कही थी लेकिन अपने चौथे नाटक में चरित्रों में वैसा

कोई संबंध नहीं है। वे संयोग से एकत्र हुए हैं और मृत्यु के आसन्न संकट से उत्पन्न स्थितियाँ ही इस नाटक की कथावस्तु का आधार है। रंगकर्मी प्रतिभा

अग्रवाल ने नाटक पर टिप्पणी करते हुए लिखा है, ‘ ‘पैर तले की ज़मीन’ भी आधुनिक जीवन की विसंगति, अवसाद एवं घुटन को लेकर लिखा गया

नाटक है। इस नाटक की मूल प्रवृत्ति अस्तित्ववादी है, परिवेश घर से बाहर कश्मीर में एक टू रिस्ट क्लब है। पात्र सब अलग-अलग हैं तथापि नियति ने

उस एक दिन के लिए उन्हें एक स्थल पर ला रखा है और अचानक भयंकर बाढ़ के कारण ट्ररिस्ट क्लब को शहर से जोड़ने वाला पुल टू टने लगता है

और उनक सम्पर्क बाहर की दुनिया से कट जाता है। आसन्न मृत्यू की छाया में उन पात्रों की परिवर्तित मनोवृत्ति का बड़ा मनोवैज्ञानिक विश्लेषण एव

चित्रण राके श ने किया है। कु छेक घंटों बाद बाढ़ के पानी के कम होने की सूचना मिलती है, टेलीफोन की घंटी बज उठती है, जीवन के बचने का

आश्वासन मिलता है, सब पुनः पहले की मनःस्थिति को प्राप्त होते हैं।’

मोहन राके श का कु ल नाट्य कर्म यही है, लेकिन उनके तीनों पूर्ण नाटक हिंदी में ही नहीं भारतीय नाटकों में अपना विशिष्ट स्थान रखते हैं। आगे के

भागों में नाटक और रंगमंच संबंधी मोहन राके श की दृष्टि को समझने और उसका विवेचन करने का प्रयत्न करेंगे।

मोहन राके श का नाटय चिंतन

एक नाटककार के लिए मंच की सीमाओं का परिज्ञान आवश्यक है। मोहन राके श को मंच की सीमाओं का गहरा ज्ञान था। वे मंच और दर्शकों

को दृष्टि में रखकर नाटक लिखते थे। लेकिन मंच और दर्शक के लिए वे नाटक का स्तर नहीं गिराते थे। साहित्यिक स्तर और रंगमंच – दोनों के सार्थक

समन्वय के वे पक्षधर थे। पारसी रंगमंच स्तरीय न होने कारण उन्हें अनुकू ल नहीं लगा और प्रसाद का जटिल रंगमंच भी उनकी मान्यता के विपरीत था।

पारसी रंगमंच के संबंध में मोहन राके श लिखते हैं – “हिंदी रंगमंच ने उन पारसी कम्पनियों की हीन और गली-सड़ी विरासत लेकर जन्म लिया, जो

स्वयं घटिया दर्जे के यूनानी रंगमंच से प्रेरणा लेकर पनपी थीं। हिंदी में कविरत्न पं० राधेश्याम कथावाचक की कृ तियाँ ही इस रंगमंच के अनुकू ल बन

सकीं। इससे अधिक की शायद आशा भी नहीं की जा सकती थी।’ (मोहन राके श : साहित्यिक और सांस्कृ तिक दृष्टि, पृष्ठ 98-99)।
प्रसाद के संबंध में राके श का मत है – ‘प्रसाद जी ने पारसी कम्पनियों की परम्परा से तो नाता तोड़ा, पर न उन्होंने भारतेंदु की परम्परा को आगे ले

जाने का प्रयत्न किया और न ही रंगमंच की किसी नयी परम्परा का संके त दिया। यद्यपि उनका विचार था कि परिष्कृ त बुद्धि के अभिनेता हों, सुरुचि –

सम्पन्न सामाजिक हों और पर्याप्त द्रव्य काम में लाया जाये तो उनके नाटक अभिनीत होकर अभीष्ट प्रभाव उत्पन्न कर सकते हैं, पर उनके नाटकों के

शिल्प को देखते हुए उनसे सहमत होना असंभव प्रतीत होता है।

प्रसाद जी का रंगमंच के साथ संपर्क नहीं रहा,शायद इसीलिए वे रंगमंच की सीमाओं से परिचित नहीं हो सके ” (साहित्यिक और

सांस्कृ तिक दृष्टि, पृष्ठ 100) भारतेंदु की रंग-दृष्टि हिंदी रंगमंच को विकास की ओर ले जा सकती थी। राके श लिखते हैं – “भारतेंद के मौलिक नाटकों

में रंगमंच के संबंध में उनकी स्पष्ट दृष्टि का परिचय अवश्य मिलता है। लोकरुचि और परम्परा, दोनों को मान्यता देते हुए उन्होंने संस्कृ त नाटक के

रंगशिल्प को नये साँचे में ढालने का प्रयत्न किया। भारतेंदु की पात्र-कल्पना तथा उनके दृश्य-संयोजन का जनसाधारण में नाटक की स्थापना करने की

इच्छा को व्यक्त करते हैं। भारतेंदु की दृष्टि को आगे विकसित किया जाता तो अब तक हिंदी रंगमंच का एक निश्चित रूप हमारे सामने आ गया होता।’

नाटक के लिए रंगमंच का महत्व स्वीकार करते हुए राके श लिखते हैं – “लिखा गया नाटक एक हड्डियों के ढाँचे की तरह है जिसे रंगमंच का

वातावरण ही मासंलता प्रदान करता है। उनके अनुसार सही रंगमंच की खोज के लिए आवश्यक है – ‘अपने जीवन और परिवेश की गहरी पहचान-

आज के अपने घात-प्रतिघातों की रंगमंचीय संभावनाओं पर दृष्टिपात। यह खोज ही हमें वास्तविक नये प्रयोगें की दिशा में ले जा सकती है और उस

रंग-शिल्प को आकार दे सकती है जिससे हम स्वयं अब तक परिचित नहीं हैं।’ हिंदी रंगमंच की विपन्न स्थिति को देखते हुए राके श सहज मंच के

हिमायती है – “तकनीकी रूप से समृद्ध और संश्लिष्ट रंगमंच भी अपने में विकास की एक दिशा है, परंतु उस से हटकर एक दूसरी दिशा भी है और

मुझे लगता है कि हमारे प्रयोगशील रंगमंच की वही दिशा हो सकती है। वह दिशा रंगमंच के शब्द और मानवपक्ष को समृद्ध बनाने की है – अर्थात्

न्यूनतम उपकरणों के साथ संश्लिष्ट से संश्लिष्ट प्रयोग कर सकने की| यहीं रंगमंच में शब्दकार का स्थान महत्वपूर्ण हो उठता है।।’ अन्यत्र और स्पष्ट

करते हुए वे कहते हैं – ‘हमारी अपेक्षा न्यूनतम तकनीकी उपादानों के आश्रय से रंगमंच के विकास की है, और उसके लिए विशिष्ट तकनीकी

सुविधाओं से सम्पन्न प्रदर्शन-गृहों की अपेक्षा और निर्भरता से हमें, जहाँ तक बन पड़े, अपने को मुक्त करना होगा। उन परिस्थितियों से हम सब

परिचित हैं, जिनके कारण हमारे यहाँ अच्छे से अच्छे नाट्य प्रयोगों के तीन-तीन, चार-चार से अधिक प्रदर्शन नहीं हो पाते। और इतना भी संभव बनाने

के लिए आयोजकों को कितना श्रम करना पड़ता है और कितनी आर्थिक क्षति झेलनी पड़ती है, यह सब हमसे छिपा नहीं है।’

मोहन राके श नाट्य रचना में उपयुक्त भाषा पर विशेष बल देते हैं – ‘शब्द मूलतः ध्वनि तथा लय ध्वनि का धर्म होने से किसी भी तरह के

शब्द प्रयोग की सार्थकता उसके लय – नियोजन पर निर्भर करती है। यह लय-नियोजन अपने से ही कई-कई बिम्बों तथा मिथकों के संसर्ग मन में

जगाकर शब्दों के व्याकरण-विश्लेषित अर्थ से परे बहुत-से अनिर्वचनीय तथा विश्लेषणातीत अर्थों की अनुगूंज मन में पैदा कर सकता है। इस लय-
नियोजन के नाटकीय प्रयोग की संभावनाएँ असीमित हैं। एक नाटक के अंतर्गत साधारण से साधारण ढंग से बोले गये शब्दों के तो अपने अर्थ-संसर्ग

रहते ही हैं, उन अर्थ-संसगों में किसी विशेष लय के संयोग से बहुत चामत्कारिक प्रभाव पैदा करने वाले दूसरे-दूसरे अर्थ संसर्ग भी लाये जा सकते हैं।’

एक अन्य स्थान पर वे कहते हैं – ‘आज के रंगमंच के लिए उपयुक्त शब्द प्रस्तुत करने में समकालीन नाटककार बहुत हद तक असफल रहा है। रंगमंच

को किसी भी तरह की चकाचौंध का पर्याय बना देना, उसके अंतर्हित तर्क को ही पराजित करना है। शब्द, अभिनेता, और इन दोनों का संयोजन करने

वाले निर्देशक के अतिरिक्त और कु छ ऐसा नहीं है जो नाटकीय रंगमंच की अनिवार्य शर्त हो। पर इससे शब्द का दायित्व बहुत बढ़ जाता है। … मैं

सिनेमाई अभिनय की तुलना में रंगमंचीय अभिनय में अभिनेता की उन्मुक्तता को भी बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ, परंतु यह उन्मुक्तता तभी सार्थक है, जब

वह उस संयम के अंतर्गत हो, जो शब्द का है।”

मोहन राके श रंगमंच और नाटक को सिनेमा और रेडियो से अधिका प्राणवान् मानते हैं। वे लिखते हैं – “सिनेमा और रेडियो के विशिष्ट और

विकसित शिल्प के बावजूद उनकी अपनी सीमाएँ हैं। रेडियो नाटक मात्र ध्वनि की सीमाओं में आबद्ध है श्रोता को अपने लिए अपनी कल्पना से चित्रों के

निर्माण का आयास करना पड़ता है। तीसरे आयाम का अभाव सिनेमा नाटक की सीमा है, जिसके कारण पर्दे पर दिखाई देने वाली रंगीन या कृ ष्ण-श्वेत

छायाकृ तियाँ अयथार्थ के भ्रम को नहीं मिटा पातीं। सिनेमा में तीसरे आयाम का विस्तार हो जाने पर भी कै मरे की आँख से देखे गये चरित्र जीते-जागते

इंसानों का स्थान न ले पायेंगे, इसलिए रंगमंच की संभावनाएँ असंदिग्ध हैं। रंगमंचीय नाटकों में बढ़ती हुई लोकरुचि इस बात का प्रमाण है। दूसरे,

समाज के सभी क्षेत्रों और वर्गों के लोगों में अभिनय की रुचि वर्तमान रहती है। सिनेमा और रेडियो सबकी अभिनय-रुचि की परितृप्ति का साधन नहीं

बन सकते, उनके लिए रंगमंच ही एक मात्र साधन है। रंगमंच सिनेमा और रेडियो के लिए अच्छे चरित्रों के चयन का कें द्र भी बन सकता है।”

मोहन राके श नाटककार, रंग-निर्देशक तथा अभिनेता के सहयोगी प्रयास को रंगमंच के विकास के लिए आवश्यक मानते हैं – ‘हमारी रंग-

अवधारणा को विशेष रूप से मानवीय पक्ष पर ही निर्भर रहकर चलना होगा। अर्थात नाटककार, रंग-निर्देशक तथा अभिनेता, इन तीनों के सहयोगी

प्रयास को ही प्रमुखता देकर कल की संभावनाओं की खोज करनी होगी।” मोहन राके श नाटककार और निर्देशक के बीच उपयुक्त तालमेल के पक्षधर

हैं। वे नहीं चाहते कि निर्देशक नाटक के साथ मनमानी करे, या नाटककार ज्यों-का-त्यों नाटक मंचित करने का आग्रह करे। वे लिखते हैं – ‘रंगमंच की

पूरी प्रयोग – प्रक्रिया में नाटककार के वल एक अभ्यागत, सम्मानित दर्शक या बाहर की इकाई बना रहे, यह स्थिति मुझे स्वीकार्य नहीं लगती। न ही यह

कि नाटककार की प्रयोगशीलता उसकी अपनी अलग चारदीवारी तक सीमित रहे और क्रियात्मक रंगमंच की प्रयोगशीलता उससे दूर अपनी अलग चार

दीवारी तक। इन दोनों को एक धरातल पर लाने के लिए अपेक्षित है कि नाटककार पूरी रंग-प्रक्रिया का एक अनिवार्य अंग बन सके । साथ ही यह भी कि

वह उस प्रक्रिया को अपनी प्रयोगशीलता के ही अगले चरण के रूप में देख सके ।’


नाटककार और निर्देशक के बीच सही सामंजस्य होना चाहिए। नाटक का रंगमंच पर खरा उतरना आवश्यक है। मोहन राके श लिखते हैं –

‘बहुत बार ऐसा होता है कि अपेक्षाओं के अनुसार नाटकों की रचना की जाती है, पर कई बार ऐसा भी होता है कि एक नाटक के लिए विशेष रंगमंच का

संयोजन किया जाता है। परंतु दोनों ही स्थितियों में नाटककार के सामने रंगमंच के रूप -विधान का स्पष्ट होना आवश्यक है। तथाकथित साहित्यिक

नाटक साहित्यकृ ति होते हुए भी नाटक नहीं होता। विचार और भावपूर्ण गुम्फित भाषा नाटकीयता की कसौटी नहीं है। संवादों और घटनाओं को दृश्यों

और अंकों में बाँट देना ही पर्याप्त नहीं, नाटककार के लिए यह आवश्यक है कि वह जो कु छ लिखता है उसे आँख मूंदकर अपनी कल्पना के रंगमंच पर

घटित होते हुए भी देखे। लिखा हुआ नाटक अपने में पूर्ण कृ ति नहीं होती। रंगमंच की पृष्ठभूमि और पात्रों का अभिनय उसे पूर्णता प्रदान करते हैं। एक

कृ ति के रूप में नाटक तभी सफलता प्राप्त कर सकता है जबकि उसमें रंगमंच पर अभिनीत होने की संभावनाएँ निहित हों।’

मोहन राके श हिदी रंगमंच के विकास और दर्शकों की कमी पर भी विचार करते हैं। उनका मानना है – “हिंदी का वास्तविक रंगमंच

राजकीय आयोजनों से नहीं, समर्थ नाटककारों और अभिनेताओं तथा निर्देशकों के हाथों विकसित होगा। यदि नाटक जीवन के द्वंद्वों का चित्रण करेगा

तो रंगमंच को भी जीवन की परिस्थितियों के अनुकू ल ढलना होगा। हिंदी रंगमंच को हिंदी भाषी प्रदेश की सांस्कृ तिक पूर्तियों और आकांक्षाओं का

प्रतीक बनना होगा।’ दर्शकों के विषय में उनका कहना है – ‘दर्शक-वर्ग में गंभीर रंगमंच के संस्कार न होना अपने में कोई बहुत बड़ा तर्क नहीं है,

क्योंकि यह संस्कार धीरे-धीरे चाहे विकसित हो, अपने आप विकसित नहीं होगा। उसके लिए जैसे-तैसे यह संभव बनाना ही होगा कि हमारे रंग-प्रयोग

एक विस्तृत दर्शक समुदाय तक पहुँच सकें ।’ इस प्रकार मोहन राके श का नाट्य चिंतन, नाटक और रंगमंच के व्यापक स्वरूप को अपने में समाहित

किये हुए है।

नाटक और रंगमंच के अंत सम्बधो में संगति

नाटक रंगमंचीय विधा है। नाटक की सही परीक्षा रंगमंच पर होती है। नाटक को हम सुनते भी हैं और देखते भी हैं। नाटक जब मंचित होता है तो उसमें

के वल पात्र ही नहीं बोलते – पूरा मंच बोलता है – मंच सज्जा, रूप सज्जा, वेशभूषा सभी बोलते हैं। यहाँ तक कि पात्र का पूरा शरीर बोलता है। अतः

जिस नाटक में जितनी ही अधिक मंचीय संभावनाएँ होती हैं, वह नाटक उतना ही अधिक सफल होता है। रंगमंच सजीव और साकार कला माध्यम है।

रंगमंच का तात्पर्य के वल रंगस्थली या रंग – मंडप से नहीं है। इसकी परिधि में रंगशाला, नाटक, पात्र, वेश-भूषा, अभिनय, मंचीय उपकरण आदि सभी

आ जाते हैं। रंगमंच ऐसा दृश्य और श्रव्य माध्यम है, जिसमें सभी ललित कलाएँ समन्वित हो जाती हैं। भरतमुनि ने ‘नाट्यशास्त्र’ में लिखा है कि ऐसा

कोई भी ज्ञान, शिल्प, विद्या, कला, योग या कर्म नहीं है जो नाट्य में न हों।

रंगमंच का क्षेत्र बड़ा व्यापक है। इसकी ओर शिक्षित और अशिक्षित, सभी आकृ ष्ट होते हैं। सामूहिक कला होने के कारण रंगमंच से दर्शकों में भावात्मक

एकता स्थापित होती है। इससे दर्शकों का मनोरंजन तो होता ही है, साथ ही यह उनको अपनी सांस्कृ तिक परम्परा से भी जोड़ता है, और उनके मानस
को परिष्कृ त करता है। इससे समाज में मानवीय मूल्यों की स्थापना होती है। रंगमंच कथ्य को व्यापकता के साथ अभिव्यक्त करता है और इसका प्रभाव

भी दर्शकों पर गहरा पड़ता है, क्योंकि यह गतिशील कार्य व्यापार से युक्त है। यह दर्शकों को सीधे कलाकृ ति से जोड़ता है।

नाटक और रंगमंच का संबंध अन्योन्याश्रित है। बिना रंगमंच के नाटक अपूर्ण है और बिना नाटक के रंगमंच। जो नाटककार रंगमंच की सीमाओं को

जानता है और उनको दृष्टि में रखकर नाटक लिखता है, उसके नाटक प्रायः अधिक सार्थक और मंच के अनुकू ल होते हैं। वैसे तो पर्याप्त साधन और

मंचीय उपकरण उपलब्ध होने पर जटिल और गंभीर नाटक भी मंचित कर लिए जाते हैं, पर उनसे रंगमंच का व्यापक विकास नहीं हो पाता। हिंदी का

रंगमंच अभी अधिक समृद्ध नहीं है अतः इसके लिए सहज अभिनेय नाटक ही उपयुक्त है। मोहन राके श के सभी नाटक, रंगमंचीय सीमाओं को दृष्टि में

रखकर लिखे गये हैं। मोहन राके श नाट्य लेखन को बड़ी गंभीरता से लेते थे और हर नाटक पर पर्याप्त श्रम करते थे। उन्होंने रंगनिर्देशक के साथ

मिलकर अपने नाटकों में रंगमंचीय अपेक्षाओं के अनुसार सुधार भी किया।

मोहन राके श के तीनों ही नाटक एक मंचबन्ध में संयोजित हैं। ‘आषाढ़ का एक दिन’ का कथ्य तीन अंकों में विभक्त है और तीनों ही अंक एक-एक

दृश्य के हैं। अंकों का ‘सेट’ मल्लिका के घर का कमरा है। मंच सज्जा यथार्थवादी है, लेकिन एक बार ‘सेट’ लगा देने के बाद फिर उसे हटाना नहीं

पड़ता। इसी तरह ‘लहरों के राजहंस’ नाटक भी तीन अंकों का है – सभी अंक एक-एक दृश्य के हैं। पूरा नाटक सुंदरी के कक्ष में ही चलता है। मंच

सज्जा इसमें भी यथार्थवादी है। मंच पर रखी गयी, पुरुष और नारी मूर्ति प्रतीकात्मक है – दायीं और शिखर पर पुरुष-मूर्ति, बाहें फै ली हुई तो आँखें

आकाश की ओर उठी हुई। बायीं और शिखर पर नारीमूर्ति, बाहें संवलित तथा आँखें धरती की ओर झुकी हुई। ‘आधे-अधूरे’ नाटक का कथ्य दो भागों

में विभक्त हैं, दोनों भाग एक दृश्यीय हैं। दोनों भागों के मध्य, छोटा-सा ‘अंतराल-विकल्प ‘ है। मंच-बंध एक है – सावित्री के घर का एक कमरा। इस

नाटक की मंच सज्जा भी यथार्थवादी है।

मोहन राके श ने अपने तीनों नाटकों में, मंच सज्जा, वेश-भूषा और अभिनय के पर्याप्त निर्देश दिये हैं। ‘आधे-अधूरे’ में अभिनय से संबंधित निर्देश काफी

विस्तृत हैं। एक संश्लिष्ट निर्देश का स्वरूप इस प्रकार है – ‘हल्के अभिवादन के रूप में सिर हिलाता है, जिसके साथ ही उसकी आकति धीरे-धीरे

धुंधलाकर अँधेरे में गम हो जाती है। उसके बाद कमरे के अलग-अलग कोने एक-एक करके आलोकित होते हैं और एक आलोक व्यवस्था में मिल जाते

हैं। कमरा खाली है। तिपाई पर खुला हुआ हाई स्कू ल का बैग पड़ा है जिसमें से आधी कापियाँ और किताबें बाहर बिखरी हैं। सोफे पर दो-एक पुराने

मैगज़ीन, एक कैं ची और कु छ कटी-अधकटी तस्वीरें रखी हैं। एक कु रसी की पीठ पर उतरा हुआ पाजामा झूल रहा है। स्त्री कई-कु छ सँभाले बाहर से

आती है। कई-कु छ में कु छ घर का है, कु छ दफ्तर का, कु छ अपना। चेहरे पर दिन-भर के काम की थकान है और इतनी चीज़ों के साथ चलकर आने

की उलझन। आकर सामान कु रसी पर रखती हुई वह पूरे कमरे पर एक नज़र डाल लेती है।’ मोहन राके श के नाटकों में दिये गये रंगसंके त, नाटककार

की रंगमंच में गहरी पैठ के परिचायक हैं।


मोहन राके श ने अपने नाटकों में संकलन-त्रय पर भी ध्यान रखा है। वे स्थान, काल और समय का पूरा ध्यान रखते हैं। ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक

में अंकों के बीच कु छ वर्षों का अंतराल है। ‘लहरों के राजहंस’ नाटक की पूरी कथा चौबीस घंटे की अवधि में संयोजित है। इसी प्रकार ‘आधे-अधूरे’

नाटक के बीच का अंतराल भी एक दिन का ही है। नाटक के स्थान में तो वे कोई परिवर्तन करते ही नहीं। प्रत्येक नाटक एक स्थान में ही घटित होता

है।

मोहन राके श नाटक के वस्तु संयोजन में भी बड़े कु शल हैं। वे वस्तु को बड़े स्वाभाविक और मनोवैज्ञानिक ढंग से संयोजित करते हैं। वस्तु अपने पूरे

कार्य व्यापार के साथ आगे बढ़ती है। कहीं-कहीं वे पात्र के प्रवेश के पूर्व ही उसकी भाव-भूमि निर्मित कर देते हैं, इससे कथ्य सहज ही गतिशील हो

जाता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कालिदास के प्रवेश के पूर्व ही अम्बिका और मल्लिका के वार्तालाप द्वारा, कालिदास के मनोभाव और स्थिति को

स्पष्ट कर दिया जाता है। इसके साथ ही कहीं-कहीं पात्र के अचानक प्रवेश द्वारा कौतूहल की सृष्टि की गयी है। मोहन राके श विचार को, प्रायः संवेदना से

जोड़कर प्रस्तुत करते हैं, इससे नाटक में नीरसता नहीं आने पाती। कहीं-कहीं रोचक प्रसंगों की भी अवतारणा की गयी है, पर थे प्रसंग मूल कथा से

पूरी तरह जुड़े हैं। जैसे ‘आषाढ़ का एक दिन’ में अनुस्वार और अनुनासिक का कार्यव्यापार।

रंगमंचीय भाषा, शब्द की संगति और लय-ध्वनि पर भी राके श पूरा ध्यान रखते हैं। रंगमंचीय भाषा की दृष्टि से ‘आधे-अधूरे’ नाटक की भाषा एक

मानक है। सहज, स्वाभाविक और गतिशील भाषा का प्रयोग इस नाटक में किया गया है। एक उदाहरण देखिए – ‘तुम्हारा घर है तुम बेहतर जानती हो।

कम-से-कम मानकर यही चलती हो। इसीलिए बहुत कु छ चाहते हुए भी मुझे अब कु छ भी संभव नजर नहीं आता। और इसीलिए फिर एक बार पूछना

चाहता हूँ तुमसे – क्या सचमुच किसी तरह तुम उस आदमी को छु टकारा नहीं दे सकती?’

मोहन राके श की दृष्टि नाटक लिखने में पूरे रंग-तंत्र पर रहती है। इस संदर्भ में जीवन प्रकाश जोशी का एक कथन उल्लेख्य है – ‘राके श का दृश्य-

विधान, रंगमंचीय साज-सज्जा, मनोभावों के अभिव्यक्ति सूचक स्थिति संके त, वाद्य-वादन, स्वर-संचरण, कथोपकथन, व्यावहारिक अथवा

परिस्थितिजन्य प्रकट अंतर्द्वद्व, भाषा-शैली, चरित्र-घटना की एक आंतरिक अन्विति, अवांतर घटनाओं की संयोजना और सुष्ठ अभिव्यक्ति, इस

नाटककार के नाटकों को, अधिकतर अनौपचारिक अतः आस्वाद्य योग्य बनाये रखती है।’ मोहन राके श वस्तु और शिल्प-दोनों स्तर .पर रंगमंच से

संगति स्थापित करते हैं। उन्होंने अपने नाटकों में परम्परा और आधुनिकता का बड़ा सुंदर समन्वय किया है। एक ओर परिमार्जित भाषा है तो दूसरी

ओर रंगमंचीय भाषा की व्यापक भूमि। कहना न होगा कि मोहन राके श तीन नाटक लिखकर, जो कार्य कर गये. वह दर्जनों नाटक लिखने के बाद भी

दूसरे नाटककार नहीं कर सके । मोहन राके श के नाट्य लेखन के पीछे उनकी अनवरत साधना, रंगमंच के प्रति उनकी अटू ट निष्ठा और कला के प्रति

दायित्वबोध की महत्वपूर्ण भूमिका है।


मोहन राके श और आधे – अधूरे

मोहन राके श के नाटकों पर टिप्पणी करते हुए प्रख्यात नाट्य आलोचक नेमिचंद्र जैन ने कहा है, “हिंदी नाटक के क्षितिज पर मोहन राके श का उदय

उस समय हुआ जब स्वाधीनता के बाद पचास के दशक में सांस्कृ तिक पुनर्जागरण का ज्वार देश में, जीवन के हर क्षेत्र को स्पन्दित कर रहा था। उनके

नाटकों ने न सिर्फ हिंदी नाटक का आस्वाद, तेवर और स्तर ही बदल दिया, बल्कि हिंदी रंगमंच की दिशा को भी प्रभावित किया।’ मोहन राके श से

पहले भी हिंदी में कई नाटककार हुए जिन्होंने हिंदी में नाटक-लेखन की परंपरा को समृद्ध किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र से लेकर मोहन राके श तक की

अवधि के बीच जयशंकर प्रसाद, लक्ष्मीनारायण मिश्र, उपेंद्रनाथ अश्क, जगदीशचंद्र माथुर, लक्ष्मीनारायण लाल आदि कई नाटककार हुए। लेकिन

भारतेंदु के नाटक ‘अंधेर नगरी’ को छोड़कर कोई भी नाटक ऐसा नहीं था जिसे प्रदर्शन की दृष्टि से भी कामयाब कहा जा सके । जयशंकर प्रसाद

(जिनके नाटक ‘स्कं दगुप्त’ का आपने अध्ययन किया है) के नाटकों की साहित्यिक उत्कृ ष्टता और रचनात्मक मौलिकता को सभी ने स्वीकार किया,

लेकिन उनके नाटक मंच पर प्रस्तुति की दृष्टि से चुनौतीपूर्ण ही बने रहे। नाटककार यह मानते रहे कि उनके नाटक साहित्यिक कृ ति के रूप में उत्कृ ष्ट

हों, भले ही रंगमंच पर उनको उतनी सफलता न मिले।

परिणाम यह हुआ कि हिंदी रंगमंच का अपना स्वतंत्र विकास अवरुद्ध बना रहा या हिंदी में नाटक खेले भी गए तो वे अनूदित नाटक थे। रंगमंच के संबंधों

की इस दूरी को पाटने का काम मोहन राके श के नाटकों ने किया। जैसा कि इसी इकाई में हम मोहन राके श के कथन को उद्धृत कर चुके हैं जिसमें

उन्होंने कहा था कि ‘लिखा गया नाटक हड्डियों के ढाँचे की तरह है जिसे रंगमंच का वातावरण ही मासंलता प्रदान करता है।

मोहन राके श की यह दृष्टि प्रसाद की दृष्टि से पूर्णतः अलग थी। प्रसाद का तो मानना था कि, ‘रंगमंच की बाध्य-बाधकता का जब हम विचार करते हैं,

तो उसके इतिहास से यह प्रकट होता है कि काव्यों के अनुसार प्राचीन रंगमंच विकसित हुए और रंगमंचों की नियमानुकू लता मानने के लिए काव्य

बाधित नहीं हुए। अर्थात् रंगमंचों को ही काव्य के अनुसार अपना विस्तार करना पड़ा और यह प्रत्येक काल में माना जाएगा कि काव्यों के अथवा नाटकों

के लिए ही रंगमंच होते हैं। प्रसाद के इस सोच ने ही उनके नाटकों को मंच के लिए लगभग अनुपयोगी बना दिया।

प्रसाद के बाद के दौर में लिखे गए नाटकों में रंगमंच से इतना अलगाव तो नहीं दिखाई दिया, लेकिन उनमें से ज्यादातर नाटक कथ्य और अभिनेयता

दोनों दृष्टियों से साधारण ही साबित हुए। नाटक के माध्यम से अपने समय और समाज के ऐसे प्रश्नों को भी प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया जा सकता

है, जिसकी प्रस्तुति समय और समाज की सीमाओं को तोड़ती भी हो। ‘आषाढ़ का एक दिन ‘ हिंदी का ऐसा ही पहला नाटक था। उस समय के हिंदी

नाटक के परिदृश्य पर टिप्पणी करते हुए नेमिचंद्र जैन लिखते हैं ‘हिंदी नाटक की इस यात्रा में ‘आषाढ़ का एक दिन’ कई प्रकार से एक महत्वपूर्ण

पड़ाव तो है ही, इस दौर के नाटक-लेखन की श्रेष्ठतम उपलब्धियों में गिनने योग्य भी है। एक प्रकार से उपेन्द्रनाथ अश्क और जगदीशचंद्र माथुर ने,
विशेषकर जगदीशचंद्र माथुर ने, नाटक में सहज स्वाभाविकत और नाटकीयता के , यथार्थपरकता और काव्यात्मकता के , जिस मिश्रण का सूत्रपात

किया, उसकी महत्वपूर्ण परिणति ‘आषाढ़ का एक दिन’ में हुई है।’

‘आषाढ़ का एक दिन’ की अपार सफलता ने मोहन राके श को एक नाटककार के रूप में भी व्यापक-प्रतिष्ठा मिली। इसके बाद के उनके दोनों नाटकों

ने उनको प्रसादोत्तर काल का निर्विवाद रूप से सर्वश्रेष्ठ नाटककार बना दिया। हालांकि बाद के दोनों नाटकों को ‘आषाढ़ का एक दिन’ की तुलना में

कमजोर माना गया। इस दृष्टि से उनका तीसरा नाटक ‘आधे-अधूरे’ ज्यादा विवादास्पद रहा। जैसा कि इब्राहीम अलकाजी ने लिखा था, ‘यह रचना

तेज़ वाद-विवाद का बायस बनी। जहाँ एक ओर समीक्षकों ने इसे आधुनिक भारतीय रंगमंच में एक अन्यतम कृ ति और हिंदी नाटक में पहली गंभीर

उपलब्धि माना, वहीं दूसरी ओर कलात्मक दृष्टि से असार्थक लेखन कहकर इस पर प्रहार भी किया गया जो मध्यवर्ग का ऐसा एकतरफा विरूपित

चित्रण करता है, जिसकी कोई सामाजिक प्रासंगिकता नहीं।” सत्यदेव दुबे ने नाटक के सफल रंग-प्रदर्शन पर टिप्पणी करते हुए लिखा था, ‘इस नाटक

ने इस मिथक को ध्वस्त कर दिया कि हिंदी नाटककार समकालीन स्थितियों और हमारे जीवन से जुड़े हुए चरित्रों को लेकर नाटक नहीं लिख सकता।

‘आधे-अधूरे’ साहित्य और रंगमंच दोनों पर खरा उतरा।

आज तक भारत में कहीं भी हिंदी में प्रस्तुत होने वाले नाटकों में यह सबसे सफल है।’ इस बात को स्वीकार करते हुए भी नेमिचंद्र जैन का मानना है

कि ”आधे अधूरे’ कोई बड़ा विक्षोभकारी सर्जनात्मक अनुभव नहीं प्रस्तुत करता| आज के हमारे समाज में बहस्तरीय पारिवारिक या स्त्रीपुरुष संबंधों

की कोई गहरी या सूक्ष्म पहचान भी उससे नहीं मिलती। बल्कि शायद हिंदी रचनाजगत की संपूर्ण सर्जनात्मक चेतना के संदर्भ में ‘आधे-अधूरे’ की

विषय-वस्तु और उसके कलात्मक विस्तार में, एक ओर, घिसे-पिटेपन का, और दूसरी ओर, पश्चिमी समाज के सामाजिक संबंधों के साँचों की सतही

पुनरावृत्ति का आभास होता है। उस तरह की ताज़गी का एहसास नहीं होता जैसा ‘आषाढ़ का एक दिन’ में हुआ था।’

मोहन राके श के नाटक ‘आषाढ़ का एक दिन’ की जिस ताज़गी की बात नेमिचंद्र जैन ने की है, उसका संबंध नाटक के कथ्य और संरचना दोनों से है।

लेकिन बाद के नाटकों में कई समीक्षकों को यह प्रतीत होने लगा कि मोहन राके श उसी कहानी को दोहरा रहे हैं जिसे वे ‘आषाढ़ का एक दिन’ में कह

चुके हैं यद्यपि संदर्भ तीनों नाटकों में अलग-अलग हैं। इस एकरूपता और एकरसता को ही व्याख्यायित करते हए नेमिचंद्र जैन ने लिखा था, ‘उनके

तीनों नाटकों की विषयवस्तु पुरुष पात्र से जुड़ी है, पर हर नाटक का कें द्रीय चरित्र स्त्री बन जाती है। चाहे वे कालिदास-मल्लिका हों, नंद-सुंदरी हों, चाहे

सावित्री-महेंद्रनाथ। तीनों नाटकों में गलत स्त्री ही होती है। पुरुष उसे छोड़कर चले जाने के लिए मजबूर दिखाई पड़ता है। ‘आषाढ़ का एक दिन’ में

कालिदास और ‘लहरों के राजहंस’ में नंद एकबार वापस लौटकर दोबारा जाते हैं। आधे-अधूरे’ में महेंद्रनाथ लौटता तो है, पर फिर जाता नहीं, वहीं

रहने को मजबूर है। न जाने क्यों राके श अपने नाटकों में स्त्री-पुरुषों के बीच चरम साक्षात्कार कराने से कतराते हैं।
उनके सभी पुरुष पात्र स्त्री से खीझकर, निराश होकर, या अन्य किसी कारण से, खिसक जाने वाले भगोड़े हैं। वे अपने संबंधों की नियति का सामना

करन से बचते हैं। ऐसा लगता है कि एक ही अनुभव छोटे-छोटे परिवर्तन के साथ बार-बार दोहराया जा रहा है। उसमें ताज़गी, या आयाम अथवा स्तर

की नवीनता, बहुत ही कम है। महेंद्रनाथ और जुनेजा के साथ सावित्री के बहुत से संवादों में ‘लहरों के राजहंस’ के नये रूप में नंद और सुंदरी के बीच

अंतिम संवादों की बहुत ज्यादा अनुगूंज है।”

इन सारी सीमाओं के बावजूद ‘आधे-अधूरे’ नाटक का प्रदर्शन अत्यंत सफल रहा बल्कि कई समीक्षकों की दृष्टि में यह हिंदी का पहला सफलतम

नाटक था। इसमें सातवें दशक में शहरी मध्यवर्गीय पारिवारिक और सामाजिक जीवन का जो यथार्थ प्रस्तुत किया गया था, वह उन दर्शकों के जीवन

और मन के बहुत नज़दीक था और कहीं-न-कहीं इस नाटक ने उनके अपने अनुभव संसार को पुनर्सजित कर दिया था। लेकिन यह सृजन उस मध्यवर्ग

की अपनी भाषा और अपने मुहावरे में था। यह एक बड़ी उपलब्धि थी और इसी ने इसे सफल और सार्थक नाटक बनाया।

मोहन राके श ‘नयी कहानी’ आंदोलन से जुड़े रचनाकार थे। कहानियों और उपन्यासों के अलावा आपने नाटक भी लिखे। हिंदी नाटक परंपरा में मोहन

राके श के नाटकों का विशिष्ट स्थान है। मोहन राके श ने कु ल चार नाटक लिखे। ‘आषाढ़ का एक दिन’, ‘लहरों के राजहंस’, ‘आधे-अधूरे’ और ‘पैर

तले की ज़मीन’। ‘पैर तले की ज़मीन’ उनका आखरी नाटक था, जिसे वे पूरा नहीं कर सके । ‘आषाढ़ का एक दिन’ और ‘लहरों के राजहंस’

इतिहास आधारित नाटक हैं जबकि शेष दोनों नाटकों की कथा समकालीन यथार्थ पर आधारित हैं। इन सभी नाटकों में उठाई गई समस्याओं का संबंध

वर्तमान समय से है।

मोहन राके श का मानना था कि नाटक की सफलता और सार्थकता उसके रंगमंच पर प्रदर्शन से ही आंकी जा सकती है। इस दृष्टि के कारण उनके

नाटक रंगमंच पर प्रदर्शन के सर्वथा अनुकू ल थे। उनके सभी नाटकों को मंच पर सफलतापूर्वक प्रदर्शित किया जाता रहा है। इस दृष्टि से ‘आधे-अधूरे’

का विशिष्ट स्थान है। ‘आधे-अधूरे’ में शहरी मध्यवर्ग के विघटित होते परिवार की कहानी कही गई है। व्यवसाय में असफल पति, जीवन के अधूरेपन

से त्रस्त पत्नी और पति-पत्नी के तनाव और झगड़ों के बीच भविष्य के प्रति निराश बच्चों के पारस्परिक द्वंद्व की कहानी ‘आधे-अधूरे’ में है। ‘आधे-

अधूरे’ एक विवादास्पद रचना भी रही है, लेकिन रंगमंच पर इसकी अभूतपूर्व सफलता ने इसको श्रेष्ठ नाट्यकृ ति के रूप में स्थापित कर दिया है।

नाटक के कु छ पात्र:

कालिदास : वह इस नाटक का नायक है।

मल्लिका : वह अंबिका की पुत्री और कालिदास की प्रेरणास्त्रोत थी।

विलोम : विलोम स्वयं को कालिदास का मित्र बताता है। बाद में वह मल्लिका से विवाह कर लेता है।
रंगिनी और संगिनी : उज्जैन से आईं विद्वान महिलाएं जो मल्लिका के घर आती हैं।

अंबिका : मल्लिका की माता

मातुल : वह कालिदास के मामा हैं।

प्रियंगुमंजरी : वह राजकु मारी जिससे कालिदास ने विवाह किया।

दंतुल : राजपरिवार का एक सज्जन व्यक्ति।

अनुस्वार एवं अनुनासिक : राज्य अधिकारी

निक्षेप : ग्रामीण

नाटक के मुद्दे और विषय:

कला और राजनीति के बीच संघर्ष:

नाटक में कालिदास के चरित्र के माध्यम से कला और राजनीति के बीच के अंतर्द्वंद्व को दर्शाया गया है। कालिदास को सत्ता की चाह

नहीं है, लेकिन वह इसका कड़ा प्रतिरोध भी नहीं करता। वह मल्लिका की बात मान लेता है और दरबारी कवि बनने की अपनी यात्रा शुरू कर

देता है। वहां पहुंचकर वह जो भी साहित्यिक रचनाएं रचता है, वे उसके जीवन का प्रतिबिंब होती हैं, जो उसने अपनी प्रेरणा मल्लिका के साथ

गांव में बिताया है। वह गुप्त राजकु मारी से विवाह कर लेता है और मल्लिका से एक बार भी मिलने की इच्छा नहीं रखता। हालांकि, जब वह

मल्लिका से मिलता है, तो वह अपनी पीड़ा बताता है, लेकिन तब तक वह अपने जीवन की ध्रुवीयताओं के साथ तालमेल बिठाने की कोशिश

करता है। हालांकि, वह महल के जीवन को अपनाने में विफल रहता है। इस प्रकार, फटे-पुराने कपड़ों में थका हुआ वह मल्लिका के पास

लौटता है, लेकिन पाता है कि वह अब उसकी नहीं है।

कला और राजनीति के बीच इस तनाव को प्रस्तुत करने के लिए, नाटक में बारिश और मल्लिका ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कवि,

उसकी रचनात्मकता और प्रेरणा के बीच का संबंध तब टू ट जाता है जब वह उज्जैन जाता है। जब वह उज्जैन में होता है तो बारिश भी नहीं

होती। दूसरे अंक में दरबार के राजनीतिक और सामाजिक जीवन और जीवन, संस्कृ ति और कला को समझने के उनके अजीब तरीकों पर

ज़ोर दिया गया है जो गाँव के सभी लोगों को चकित कर देता है। कालिदास स्वयं से जुड़े हुए और उसके साथ सामंजस्य में नज़र आते हैं।

मल्लिका उन्हें कला से जोड़ती है और इस तरह उन्हें आज़ाद करती है। वह उनकी प्रेरणा के रूप में काम करती है और उन्हें उनकी
रचनात्मकता से जोड़ती है। शुरू में उन्हें अपने जीवन में मल्लिका के महत्व का एहसास नहीं होता लेकिन बाद में यह बात उनके लिए स्पष्ट हो

जाती है।

यद्यपि मल्लिका ही उसे उज्जैन जाने के लिए मनाती है, फिर भी वह बिना किसी प्रबल प्रतिरोध के चुपचाप जाने को तैयार हो जाता है।

यह कला या मल्लिका के प्रति प्रेम नहीं था जो उसे जाने से रोक रहा था। वह तो अपनी प्रतिक्रियाओं और सत्ता के लोभ से भयभीत था जो

कहीं न कहीं उसके अचेतन मन में छिपा था। बाद में जब वह लौटा तो उसने कहा कि मैं लौटा क्योंकि “… मैं सत्ता और अधिकार के अपने

प्रेम से मुक्त हो गया था।” (सारा, 235) वह आगे बताता है “मुझे डर था कि यह मुझ पर हावी हो जाएगा और मेरे जीवन की दिशा बदल

देगा। यह डर निराधार नहीं था।… क्या आपको आश्चर्य हुआ कि मैंने कश्मीर पर शासन करने की जिम्मेदारी ली? …मेरे लिए यह

स्वाभाविक था” (सारा, 237) इस प्रकार, सम्मान स्वीकार करने का प्रतिरोध नहीं बल्कि इसकी प्रतिक्रिया ही कालिदास को उज्जैन जाने

से रोक रही थी “…मुझे इस बात से आश्चर्य हुआ कि मैं महानता से कितनी दूर चला गया हूँ…मैं अब वही व्यक्ति नहीं रहा जो महानता

और गौरव की समझ रखता था”

सत्ता और अधिकार के पद पर रहते हुए वे कभी भी वही कालिदास नहीं हो सकते थे। वे धीरे-धीरे अपने पुराने स्वरूप से दूर होते चले

गए। उनके जीवन में वह बड़ी छलांग जिसने उन्हें महान और गौरवशाली माने जाने वाले से दूर कर दिया, तब हुई जब उन्होंने राजकु मारी से

विवाह किया और राजनीतिक सत्ता स्वीकार कर ली। इस प्रकार, कालिदास मातृगुप्त बन गए। वे दो परस्पर विरोधी पक्षों, यानी कालिदास

और मातृगुप्त को एक साथ एक व्यक्ति में जीवित नहीं रख सकते थे। इस प्रकार, उन्हें वह सब छोड़ना पड़ा जो उन्हें मुक्त होने से रोक रहा था।

उन्होंने अपना राज्य और नाम छोड़ने का फै सला किया और कला की महानता की ओर लौट गए। नाटक आगे पुरुष और महिला के बीच के

रिश्ते, एकतरफा प्यार, संस्कृ ति और प्रकृ ति के बीच संघर्ष आदि जैसे मुद्दों को छू ता है।

हिंदी साहित्य के इतिहास में नाट्य कला को एक ऊं चे आयाम पर पहुंचाने वाले मोहन राके श हिंदी साहित्य के सबसे सफल नाटककार हैं। साहित्य का मूल उद्देश्य

होता है-आनंद और यह आनंद हमें तब प्राप्त होगा जब कोई कृ ति सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों पर भी खरी उतरे। प्रस्तुत शोध आलेख में हम सौंदर्य, उसके

भारतीय दृष्टिकोण के विवेचन, उसके पाश्चात्य विवेचन तथा भौतिक जगत में आनंद की परिव्याप्ति पर चर्चा करेंगे। तत्पश्चात नाटक का सौंदर्यशास्त्रीय विवेचन

उसके पांच तत्वों के आधार पर करने के साथ ही मोहन राके श की अद्वितीय नाट्यकृ ति ‘आधे अधूरे’ को इन सौंदर्यशास्त्रीय तत्वों के आधार पर परखने का प्रयास
करेंगे। कथावस्तु, संवाद, भाषा-शैली, अभिनय, पात्र, सहायक तकनीक, वेशभूषा आदि तथा प्रेक्षानुकू लता के मानदंडों पर यह आधे अधूरे कितना खरा उतरेगा-यही

इस शोध आलेख का प्राप्य है।

बीज शब्द : मोहन राके श, नाटक, सौंदर्य, सौंदर्यबोध, नाट्य-आलेख, सहायक तकनीक, प्रेक्षकानूकू लता, भाषा-शैली, प्रकाश-योजना, ध्वनि-

संगीत, वेशभूषा, प्रेक्षा-गृह आदि।

मूल आलेख : हिंदी साहित्य का सामान्य विद्यार्थी जब हिंदी जगत में प्रवेश करता है और साहित्य का अवगाहन करना आरंभ करता है तो उसका सामना सबसे

पहले स्वाभाविक रूप से काव्य विधा से होता है। आदिकाल से ही गद्य की अपेक्षा पद्य का विकास हमें दीख पड़ता है। साहित्य का विद्यार्थी आदिकाल, भक्तिकाल

और रीतिकाल के बाद आधुनिक काल का अध्ययन करता है तब जा कर उसको गद्य का विकास समझने का अवसर मिलता है और इसी कड़ी में हिंदी गद्य के

विकास के विविध पहलुओं को परखते हुए वह हिंदी गद्य की सर्वाधिक प्रभावी विधा नाटक से परिचित होता है। हिंदी साहित्य का अध्ययन एक नया आयाम लिए

सामने आता है जब हम मोहन राके श के नाटक को पढ़ने लगते हैं। अभी तक हिंदी नाटक का विकास समझ रहे होते हैं, भारतेंदु के भारतीयता, सामाजिक

जागृति, छु आछू त निवारण, एकता आदि मानक मूल्यों से परिपूर्ण नाटक हम पढ़ रहे होते हैं, प्रसाद जी के उच्च संस्कृ तनिष्ठ भाषा व राष्ट्रप्रेम का उत्कट भाव लिए

ऐतिहासिक नाटक में डू ब उतर कर इस प्रश्न का विविध विद्वानों द्वारा प्रदत्त उत्तरों पर अपना मंतव्य स्थापित कर रहे ही होते हैं कि क्या वाकई प्रसाद जी को उस

कम विकसित काल में इतने उच्च स्तरीय नाटक लिखने चाहिए थे या कि अपनी भाषा को थोड़ा सरल किये जाना ठीक रहता? हम इन प्रश्न से रूबरू हो ही रहे होते

हैं कि मोहन राके श का नाटक आधे अधूरे से मिलना होता है। सच कहा जाए तो मिलना होता है लिखने की जगह सामना होता है लिखने का मन था। आधे अधूरे

बहा ले जाता है पाठक को अपने साथ और प्रखरता से आगे बढ़ते हुए एकाएक तीव्र संवेदना उत्पन्न करते हुए अंततः हम स्वयं को आधुनिकता के अवांछित प्रदेय के

अनचाहे कठघरे में खड़ा पाते हैं। पुस्तक को दो बार पढ़ना जितना लाज़मी था उतना ही लाज़मी था मोहन राके श जी के अन्य नाटकों के बारे में जानकारी भी प्राप्त

करना और उन्हें भी पढ़ना। ज्ञात हुआ कि दो और नाटक हैं, आषाढ़ का एक दिन और लहरों के राजहंस। आश्चर्य की बात यह है कि इन दोनों नाटकों के विषय

इतिहास से लिए जाने पर भी इन पर मोहन राके श की छाप साफ महसूस की जा सकती है। एकबारगी पढ़ने पर इतना अधिक प्रभावित कर सकने वाला यह नाटक

नाट्य सौन्दर्य की कसौटी पर कितना खरा है यह तो हम तभी जान पाएंगे जब हमें पता हो कि नाट्य साहित्य की अवधारणा क्या है, उसके प्रमुख तत्व क्या

हैं? आइये विचार करें।

सौन्दर्य आँखों को आकृ ष्ट करता है तथा यह और अधिक विस्तारित रूप ग्रहण कर के हृदय को आनंदमय बना देता है। ‘आनंद’ शब्द यूं तो एक सामान्य

प्रचलित शब्द है, किन्तु जब यही शब्द साहित्य के क्षेत्र में प्रवेश करता है, तो अपना अर्थगत विस्तार पाता हुआ ‘ब्रह्मानन्द सहोदर’ तक जा पहुँचता है। आनंद की
परिव्याप्ति वस्तुतः शारीरिक और मानसिक स्तरों को पार करती हुई अंततः आत्मिक स्तर तक होती है। सौन्दर्य का संबंध इस ब्रह्मानन्द तक न भी पहुंचता हो , तो

भी उन इंद्रियों को तो परितुष्ट करता ही है जो हमें उन साहित्यिक कृ तियों को हृदयंगम कराने का हेतु है। यह ‘आनंद’ शब्द अंतरतम तक तभी गुंजायमान होता

है, जब मनुष्य में लाभ-हानि की चिंता के स्थान पर देने ही का भाव हो।

सौन्दर्य का भारतीय विवेचन -

जहाँ तक सौन्दर्य के भारतीय विवेचन का प्रश्न है, वैदिक काल से ही इस विषय पर चिंतन होता आया है। सौन्दर्य का संबंध शरीर से है या चेतना

से? सौन्दर्य आत्मनिष्ठ है या वस्तुनिष्ठ?आनंद की प्राप्ति की राह में इस सौन्दर्य का भी विशेष महत्त्व है। हालांकि प्राचीनतम भारतीय साहित्य वेद में सीधे सीधे

सौन्दर्य शब्द का उल्लेख न मिल कर आनंद, मोह आदि शब्द मिलते हैं। डॉ॰ फतेह सिंह का कहना है कि “यद्यपि प्रारम्भिक वैदिक साहित्य में सुंदर, सौन्दर्य आदि

शब्दों का प्रयोग भी नहीं हुआ है, परंतु वहाँ नंद, मोह, आमोद, प्रमोद, प्रिय आदि शब्द द्वारा जिस अनुभूति की ओर संके त किया गया है, वह वस्तुतः वही

आनंदानुभूति है।”1 यही भाव वैदिक कालीन मनुष्य की सौन्दर्य चेतना को भी रेखांकित भी करते हैं। उस समय सौन्दर्य आध्यात्मिकता लिए हुए था तथा प्रकृ ति के

विविध उपागमों जैसे पर्वत, सागर, वायु, सूर्य सभी में दृशमान था। इसके बाद आए रामायण काल में थोड़ा सा परिवर्तन इस रूप में आता है कि अब मानव का मन

सामाजिक, राजनीतिक, नैतिक समस्याओं से जूझना शुरू करता है। “वैदिक युग की अनुभूति को दिव्य सौन्दर्य कहें तो रामायण काल की अनुभूति को मानव

सौन्दर्य कह सकते हैं।”2 रामायण में राम एक ऐसे पात्र हैं जो परिवेशगत सभी समस्याओं से जूझ रहे हैं और इसी मे वे एक दिव्य सौन्दर्य से महक उठते हैं। “आनंद

की अनुभूति में राम का उदात्त शोक उसका तत्व है और सौन्दर्य में करुणा को उचित स्थान देना रामायण का महत्त्व है।”3

एक और महाकाव्य महाभारत में सौंदर्य शांत रस की धारा बहाता हुआ है जो कर्म और संघर्ष भी अपने में समाहित किए है। एक तरफ कौरवों का ऐश्वर्य-

मद है, तो दूसरी ओर पांडवों का नीति-धर्म-बंधन। उस पर सोने पे सुहागा ये कि कृ ष्ण का उपदेश अर्जुन को व्यक्तिगत सुख-दुख, माया-मोहादि से परे ले जाता

है। “जीवन में विराट दृष्टि से मोह दूर हो जाता है, आँखें उज्ज्वल और तेजयुक्त, गति में वीरता और हृदय में एक अद्भुत प्रसाद का आविर्भाव होता है। व्यास ने इस

गंभीर अनुभव को शांति कहा है।”4 इसी गरिमायुक्त जीवन में उपलब्ध शांति में सौन्दर्य की एक आभा अंतर्निहित है। वेदों में जो सौन्दर्य अगोचर दिव्यता लिए था

भक्तिकाल में आकर वह मूर्तिमत्त व प्रत्यक्ष हो गया। डॉ॰ नगेंद्र लिखते हैं-“यहाँ भगवान की दो रूपों की कल्पना की गई है-ऐश्वर्य रूप और माधुर्य रूप। ऐश्वर्य रूप में
भगवान की अनंत शक्ति और अनुभूतियों का वर्णन और माधुर्य रूपों में अनेक अनुरंजकों सौंदर्य का। ------उसमें दिव्य सौन्दर्य के प्रति भक्त की भावना का विवेचन

तो विस्तार के साथ हुआ है किन्तु भावना के विषयभूत उस दिव्य सौन्दर्य का विवेचन अत्यंत विरल है।”5

सौन्दर्य के संबंध में जब आधुनिक चिंतकों के मत देखे जाते हैं तो सर्वप्रथम रवीन्द्रनाथ ठाकु र के शब्द दीख पड़ते हैं-“क्षुधा, तृप्ति की सनक में ही जिसमें

एके श्वर न हो उठे, हमारा जिसमें उसके फं दे से अलग हो सके , सौन्दर्य की ऐसी चेष्टा दिखाई पड़ती है।”6 यानी मात्र आवश्यकताओं की ही बात तक सीमित न रह

कर आंतरिक आनंद से जो व्यक्ति स्वयं के चित्त को जोड़ता है, वही सच्चा सौन्दर्य देख पता है। आधुनिक हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक प्रखर चिंतक आचार्य रामचंद्र

शुक्ल ने भी इस पर विचार करते हुए सुस्पष्ट शब्दों में कहते हैं-“कु छ रूप रंग की वस्तुएँ ऐसी होती हैं जो हमारे मन में आते ही थोड़ी देर के लिए हमारी सत्ता पर ऐसा

अधिकार कर लेती है कि उसका ज्ञान ही हवा हो जाता है और हम उन वस्तुओं की भावना के रूप में परिणत हो जाते हैं। हमारी अन्तःकरण की यह तदाकार

परिणति सौन्दर्य की अनुभूति है।”7 तो, भारतीय चिंतक सौन्दर्य को चित्त की मुक्तावस्था मानते हैं।

सौन्दर्य का पाश्चात्य विवेचन –

ईसा पूर्व 580 के आसपास से ही पश्चिमी दर्शनिकों ने सौन्दर्य पर चिंतन आरंभ कर दिया था। पाइथागोरस ने दिव्य के अर्थ में इसका एकाध जगह

विवेचन किया तो सुकरात ने अपने उपयोगितावादी चिंतन से सौन्दर्य को लिया है-“जो वस्तु उपयोगी है वह उस कार्य के लिए सौंदर्यशाली है और जो वस्तु उपयोगी

नहीं है उसमें सौन्दर्य नहीं है।”8 हालांकि अन्यत्र किसी और संदर्भ में सुकरात ने सौन्दर्य के लिए प्रीति शब्द का प्रयोग कर उसे आध्यात्मिक स्पर्श भी दिया है।

प्रख्यात विचारक प्लेटो शारीरिक, मानसिक और नैतिक सौन्दर्य को महत्त्व देते हुआ भी इन सब को क्षण भंगुर मानते है। आत्म-चैतन्य का जगत सौंदर्यबोध सर्वोपरि

तथा आनंद से युक्त होता है ऐसा मानते हुए वे कहते हैं कि “सौन्दर्यवान वस्तुएँ उत्पन्न होती हैं तथा समाप्त हो जाती हैं, पर यह सौन्दर्य ना तो प्रारम्भ ही होता है ना

समाप्त होता है। यह शाश्वत, अपरिवर्तनीय और अविनाशी है। सौंदर्यवान वस्तुएँ उसी शाश्वत सौन्दर्य की क्षणिक अभिव्यक्ति है।

अरस्तू के बाद आए प्लेटोनिस और लौंजाइनस ने अरस्तू का विरोध करते हुए प्लेटो के चिंतन को आगे बढ़ाया। लौंजाइनस ने सीधे सीधे सौन्दर्य का नाम

तो नहीं लिया किन्तु उनके द्वारा वर्णित उदात्त की अवधारणा में उदात्तता का आशय सौन्दर्य से ही लिया जाना चाहिए और लिया जाता है। मध्ययुगीन संत अगस्टिन
ब्रह्मांड को ईश्वर-रचित मान कर इस के सौन्दर्य को ईश्वरीय सौन्दर्य स्वीकारते हैं। एक्विनास ने अगस्टिन की अवधारणा में आनंद की बात और जोड़ कर पूर्णता

प्रदान की- “सुंदर वस्तु वही है जिसकी अवधारणा आनंदपूर्वक की जाए।”11 आधुनिक विचारक काण्ट ने भी सौन्दर्य को सुखवाद उपयोगितावाद के घेरे से बाहर

निकाल कर आनंद से सीधा संबन्धित किया। और हीगल का चिंतन तो कांट से भी आगे निकाल जाता है, जब वे मनुष्य की सर्वोच्च चेतना की भूमि से सौन्दर्य को

जोड़ देते हैं। वे इस चेतन सौन्दर्य को परम सत्ता के प्रतिरूप स्वीकार कर इसका श्रेष्ठत्व प्रमाणित करते हैं।

सारतः कहा जा सकता है कि विचारक चाहे भारतीय हो या पाश्चात्य, सभी ने शब्दों के मामूली हेर फे र से सौन्दर्य को बाह्य उपादानों से आरंभ करते हुए

अंततः परमात्मा से संबन्धित किया है।

भौतिक जगत में आनंद -

भौतिक जगत में आनंद की उत्पत्ति तभी होती है जब इंद्रियों का संयोग उसके विषयों से होता है। सौन्दर्यशास्त्र की सीमा में श्रवणेंद्रिय व करणेंद्रिय सुख

की स्वीकारोक्ति है। आनंद की उद्भावना करने वाले इस सौन्दर्य की सृष्टि सदैव कला के माध्यम से होती है। साथ ही कला की उद्भावना कला सम्बद्ध कलाकृ ति के

द्वारा होती है। इसी का परवर्ती क्रम यह है कि कोई भी कलाकृ ति संबन्धित माध्यम एवं वांछित परिवेश से निर्मित होती है। संबन्धित माध्यम से अभिप्राय है कि जैसे

पत्थर, धातु, मिट्टी आदि से मूर्ति का, रंग, फ़लक, तूलिका आदि से चित्र का तो स्वर, नाद,ऊर्जा आदि से संगीत का उद्भावन होता है।

कलाएं हृदय को आनंद से परिपूरित करती रहीं हैं और साथ ही कला समीक्षकों को भी आकर्षित करती रहीं हैं। इस तरह सभी कलाओं का विकास

उस कला का सौंदर्यशास्त्र भी विकसित करता रहा । नाटक भी एक कला है, बल्कि कहना चाहिए कि एकाधिक कलाओं का संयुक्त रूप है । इसका एकाधिक

कलाओं का संयुक्त रूप होना इसके पृथक सौंदर्यशास्त्र विकसित होने में शैथिल्य का कारण भी बना। साथ ही नाटक के स्वरूप और लक्ष्य का अन्य कलाओं की

अपेक्षा व्यापक होने के कारण किसी इतर कला का कोई एक सिद्धान्त इस पर भी सांगोपांग स्थापित किया जा सके यह भी संदिग्ध ही रहा। अतः नाटक का

सौंदर्यशास्त्र स्थिर करने के लिए एक से अधिक सिद्धांतों का सहारा लेना होता है,जो प्रतीति रूप परस्पर विरोधी भी हो सकते हैं। जैसा कि शोध लेख के आरंभ मे ही

हमने देखा कि सौंदर्यशास्त्र के बारे में उपलब्ध भारतीय व पाश्चात्य विचारकों की अवधारणाओं को तीन सिद्धांतों में वर्गीकृ त कर सकते हैं- प्रथम, सौन्दर्य वस्तुनिष्ठ

न होकर व्यक्तिनिष्ठ होता है। द्वितीय, सौन्दर्य की उद्भावना कलाकृ ति के निर्माणकारी अवयवों के संतुलन पर निर्भर है। साफ है कि यह सिद्धान्त प्रथम के विपरीत है।

तृतीय, उपयोगितावाद पर आधारित स्थापनाएँ कृ ति का सामाजिक पक्ष भी विचारती हैं। बहरहाल जब बात नाटक के सौंदर्यशास्त्रीय विवेचन की होती है तो इन
तीनों सिद्धांतों में समंजस्य स्थापित कर के उन पर अवलंबित ये पाँच तत्त्व विचारणीय होते हैं- “(1)नाट्य-आलेख, (2) अभिनय एवं पात्र, (3) सहायक

तकनीक, (4) प्रेक्षागृह, (5) प्रेक्षकानुकू लता।’’12 आइये हम संक्षेप में इन्हें समझें।

(1) नाट्य-आलेख : यह किसी भी नाटक का प्राण-तत्त्व है। यह कई मूल विशेषताओं को समेटे महत्त्वपूर्ण हो जाता है। जैसे- अच्छी कहानी, अभिनय की

संभावना लिए संवाद योजना, पात्रानुकू ल भाषा,रंग संके तों का समुचित प्रयोग आदि।

(2) अभिनय एवं पात्र : यह तत्त्व लिखित साहित्य को सहृदय तक संप्रेषित करने का माध्यम है। अभिनय के तीनों प्रकार आंगिक, वाचिक और सात्विक का

समुचित सामंजस्य नाटक को सजीव करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।

(3) सहायक तकनीक : रूप-सज्जा, वेषभूषा, प्रकाश व्यवस्था, संगीत और मंच व्यवस्था – इन पाँच तत्त्वों का समुचित और दृश्य के अनुरूप संयोजन सहायक

तकनीक के अंतर्गत समाहित है।

(4) प्रेक्षागृह : नाट्य सौन्दर्य का यह भी एक महत्त्वपूर्ण उद्भावक तत्त्व है। थिएटर के प्रकार व नाटक के विषयों के अनुकू ल इनका चयन नाट्य सौन्दर्य को कई गुना

बढ़ा देता है। प्रोसेनियाम, थ्रस्ट और एरीना थिएटर में से किसका चयन किया जाना है यह नाटक की प्रकृ ति पर निर्भर है। जैसे लोक नाटक और नुक्कड़ नाटक कभी

भी प्रोसेनियाम थिएटर में उपयुक्त नहीं प्रतीत होते ।

(5) प्रेक्षकानुकू लता : यह नाट्य सौन्दर्य का एक महत्वपूर्ण घटक है। क्योंकि कोई भी साहित्य रचना हो, आखिरकार उसका लक्ष्य तो प्रेक्षक ही है। दर्शकों की

रूचि का ध्यान रख कर समस्त नाट्य संयोजन आवश्यक है। जैसे लोक संस्कार लिए प्रेक्षक वर्ग को ज्यां पाल सार्त्र की किसी कृ ति का मंचन कर के बताना साहित्य

के दृष्टिकोण से उत्तम हो सकता है, किन्तु प्रेषणीयता के दृष्टिकोण से यह एक असफल प्रयास ही कहा जाएगा। तो, हमने सौन्दर्य तथा नाटक के सौन्दर्यशास्त्र के

विषय में भारतीय और पाश्चात्य विचारों और उनके आधार पर नाटक के तत्वों पर विचार किया। आइये हम अब यह विचार करने का प्रयास करें कि क्या मोहन

राके श जी का ‘आधे-अधूरे’ इन सौन्दर्यशास्त्रीय कसौटियों पर कितना खरा है।

(1) नाट्य-आलेख : जैसा कि हमने जाना कि यह किसी भी नाटक का प्राण-तत्त्व होता है। नाटक ही क्या, किसी भी विधा का प्राण-तत्त्व उसका आलेख होता

है, शेष सभी सौन्दर्य-तत्त्व इसी पर अवलंबित होते हैं। इसके अंतर्गत विशेष रूप से तीन तत्त्वों का अध्ययन किया जाता है-(क)कथावस्तु, (ख) संवाद और (ग)

भाषा-शैली।

(क) कथावस्तु – कथावस्तु के दृष्टिकोण से ‘आधे अधूरे’ एक अनूठा नाटक है। आधुनिक भौतिकवादी युग में व्यक्ति किस प्रकार अपनी लालसाएँ भी पूरी करना

चाहता है और इस बीच परिवार का भी भौतिक उन्नयन करने का मन होता है। इस बीच क्या कु छ नहीं टू ट जाता उसके भीतर, यही कथानक मे दर्शाया गया है।

महेन्द्रनाथ और सावित्री पति-पत्नी हैं, जिनके अशोक, बिन्नी और किन्नी तीन बच्चे हैं। कसे हुए कथानक में संवादों के माध्यम से ही कहानी का ज्ञान होता है कि महेंद्र

की आर्थिक स्थिति खराब है और बिन्नी मनोज के साथ घर छोड़ गई है। अशोक आवारागर्दी के अलावा कोई काम नहीं करता और किन्नी घर मे उचित सार-संभाल

न होने के कारण बिगड़ रही है। सावित्री ऑफिस में काम भी करती है और घर भी संभालती है जिस से वह बहुत परेशान रहती है । जुनैजा, जगमोहन और अन्य में
पूर्णता तलाशती सावित्री की अधूरी-सी महसूस हो रही ज़िंदगी को बहुत त्वरा से उभारा गया है। काम से लौटते ही सावित्री का चिढ़ना- “यह अच्छा है कि दफ्तर से

आओ, तो कोई घर पर दिखे नहीं। कहाँ चले गए थे तुम?पता नहीं ये क्या तरीका है इस घर का?”13

उन लोगों के आपसी तनाव का असर बच्चों पर भी पड़ता है। खुद सावित्री जब तब सब कु छ छोड़ कर जाने का मन बनाती है। अंत तक पता चलता है

कि हर इंसान अपने ही घर मे पराया हो जाना अनुभव करता है।महेन्द्रनाथ और सावित्री की तरह ही मध्यमवर्गीय परिवार एक टू टन में अपना जीवन व्यतीत करते हैं

और सिंघानिया जैसे लोगों से हैसियत में कमजोर होने के बाद भी इसलिए बनाए रखते हैं कि कभी कोई काम आ जाए। “यहाँ पर सब लोग समझते क्या हैं

मुझे? एक मशीन, जो कि सब के लिए आटा पीस कर रात को दिन और दिन को रात करती रहती है। मगर किसी के भी मन में ज़रा सा भी खयाल नहीं है इस चीज़

के लिए। कु ल मिला कर कहा जा सकता है कि यह नाटक मध्यमवर्गीय परिवार का आर्थिक दौड़ में लगे रहने, अतृप्त आकांक्षाओं के बने रहने तथा उन के

परिणामस्वरूप एक अतृप्त नारकीय जीवन जीते रहने की मजबूरी को बहुत नाटकीय तरीके से पेश करता है। यह परिस्थितिजन्य तनाव इतना प्रभावी उभरा है कि

कथानक का मुख्य अंश ही बन गया है।

(ख) संवाद: यह नाटक का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण तत्त्व है, क्योंकि नाटक का कथ्य, कथानक, भाव, विचार, उद्देश्य, समस्यांकन, पात्रों के अन्तः-बाह्य

चरित्र, संवेद्य, संवेदना और अनुभूतियाँ, यहाँ तक कि वातावरण की परिस्थितियों की वास्तविक अभिव्यक्ति संवादों के माध्यम से होती है। नाट्य-सौन्दर्य का यही

वह तत्त्व है जिससे कथानक की योजना, उसका मध्य, अंत आदि का पता चलता है। ‘आधे अधूरे’ एक ऐसा नाटक है जो अपने तीव्र संवेदना युक्त संवादों के कारण

बहुत प्रसिद्ध हुआ है। आलोच्य नाटक के संवाद अपनी आंतरिक लयात्मकता में मौलिक, सांके तिक एवं व्यंग्य प्रधान है। नाटक की भाषा में वही आक्रामकता है, जो

उसके चरित्र और घटनाओं में हैं। संवाद बहुत रोचकता लिए है तथा पात्र का अन्य व्यक्ति के प्रति क्या दृष्टिकोण है, उसे उभारने में पूरी तरह सक्षम है। दृश्य की मांग

के अनुरूप संवाद कहीं संक्षिप्त हैं, तो विचारभिव्यक्ति की मांग के अनुरूप कहीं लंबे भी। जैसे- बिन्नी और अशोक का वार्तालाप द्रष्टव्य है-

“लड़का : हा-हा !

बड़ी लड़की : यह किस बात पर?

लड़का : एक्टिंग देखा?

बड़ी लड़की : किसका ?

लड़का : मेरा !

बड़ी लड़की : तो क्या तू----?

लड़का : उल्लू बना रहा था उसे !

बड़ी लड़की : पता नहीं असल में उल्लू कौन बन रहा था।“15

अचानक बोलते- बोलते रुक जाना और दर्शक को सोचने पर मजबूर कर सकना ‘आधे अधूरे’ शीर्षक की संवादगत सार्थकता भी प्रदर्शित करता है।

संवादों की लाक्षणिकता एवं व्यंजना लिए इसके संवाद बहुत प्रभावशाली बन पड़े हैं- “वजह सिर्फ वह हवा है जो हम दोनों के बीच से गुजरती है।”16 इस नाटक
के संवाद पूर्णतया सहज और स्वाभाविक होने के साथ ही संप्रेषणीयता का गुण तो इतनी सहजता से समेटे है कि नाटककार जो कु छ भी कहना चाहता है, वह सभी

प्रकार के पाठक और दर्शक सहज ही ग्रहण कर लेते हैं। इस नाटक के संवादों की सफलता का एक प्रमाण और है- प्रसिद्ध रंगकर्मी डॉ. गिरीश रस्तोगी ने लिखा

है-“आधे अधूरे के संवादों में भावों की पूर्णता, अर्थ की सहज ग्राह्यता और पात्रानुकू लता का जवाब नहीं है। राके श के संवादों में निरर्थक प्रसंग, अर्थहीन शब्द, वाक्य

के गठन की शिथिलता, लड़खड़ाहट तथा अस्पष्टता कभी नहीं मिलेगी, क्योंकि वे कथा-विकास से अधिक चरित्र से जुड़े हुए हैं या समूचे रंगमंच से या रंगचेतना से।

हिन्दी नाटकों के संवादों में इस हद तक पात्र और रंगमंच से उनकी आंतरिकता से सूक्ष्म संबंध दिखाई नहीं देता।”17

(ग) भाषा-शैली : भाषा माध्यम है जिसके द्वारा लेखक के विचार पाठक या दर्शक तक संप्रेषित होते हैं। मोहन राके श ने इस नाटक में ना तो संस्कृ तनिष्ठ शब्दावली

प्रयुक्त की, न ही वैज्ञानिक शब्दावली। यथार्थवादी नाटककार की भाषा भी यथार्थपरक है। मोहन राके श की भाषा में व्यंग्यात्मकता, पात्रानुकू लता, प्रसंगानुकू लता

तथा परिवेश को उभारने का गुण विद्यमान है। इनमें सरलता-सहजता है-

“स्त्री: मैं नहीं लूँगी चाय।

बड़ी लड़की: सबके लिए बना रही हूँ एक-एक प्याली।

लड़का: मेरे लिए नहीं।

बड़ी लड़की: क्यों? पानी रख रही हूँ, सिर्फ पत्ती लानी है....

लड़का: अपने लिए बनानी हो, बना ले।

बड़ी लड़की: मैं अके ली पीऊं गी? इतने चाव से चीज-सेंडविच बना रही।”18

सायास तो नहीं पर अनायास व स्वाभाविक रूप से प्रचलित विदेशी शब्दों का भी प्रयोग हो गया है तो ये आरोपित न लग कर रोचक बन पड़ा है-

“प्रथम पुरुष: वह मुझसे तो तय कर के आता नहीं कि मैं उसके लिए मौजूद रहा करूँ घर पर।

स्त्री: कह दूँगी, आगे से तय कर के आया करे तुम से। तुम इतने बिज़ी आदमी जो हो ! पता नहीं कब किस बोर्ड मीटिंग में जाना पड़ जाय।

पति-पत्नी के बीच तनाव के समय का वार्तालाप जब व्यंग्य भरा हो जाता है, तब की मनःस्थिति का साक्षात चित्र भी संवाद द्वारा उभारा जाना नाटक

की एक अनन्य विशेषता है-

“पुरुष एक : मैं नहीं शुक्र मानता? जब-जब किसी नए आदमी का आना-जाना शुरू होता है यहाँ, मैं हमेशा शुक्र मानता हूँ। पहले जगमोहन आया करता था, फिर

मनोज आने लगा था।

स्त्री : और क्या- क्या बात रह गई है कहने को बाकी? वह भी कह डालो जल्दी से।”20

(2) अभिनय एवं पात्र : आधे-अधूरे की पात्र योजना विशेष उल्लेखनीय एवं अभिनेयता की व्यापक संभावनाओं को समेटे है। एक तो उन्होंने एक ही अभिनता द्वारा

चार पुरुषों का अभिनय कराने का मौलिक विचार प्रस्तुत इस लिए भी करना ठीक समझा कि एक बस वेषभूषा का अंतर है, वरना सब एक जैसे हैं। नाटक का हर
एक पात्र अपने वर्ग का कसा हुआ प्रतिनिधित्व कर रहा है। जैसे नायक महेन्द्रनाथ को लें- दोस्तों में लोकप्रिय लेकिन घर में पहले तो क्रू र, फिर क्रमशः असफल

पति, असफल पिता, असफल व्यापारी, निकम्मा, अके ला, रबर स्टैम्प और अंततः मान-अपमान की आवश्यक पीड़ा से मुक्त एक अस्तित्वहीन परजीवी। नायिका

सावित्री को नाटक की कें द्रीय भूमिका मिली है। सावित्री अपने पति को आधा-अधूरा मान कर जब-तब कोई और आसरा तलाशती एवं असफल हो कर पुनः उसी

परिवेश मे रहने को अभ्यस्त एक अति महत्वाकांक्षी आधुनिक महिला का जीवंत दस्तावेज है। बहुत बारीकी से रचा गया सिंघानिया का चरित्र-चित्रण राके शजी की

पैनी पकड़ का नतीजा है। भुल्लकड़ बॉस, जो अव्यवस्थित मानसिकता में जी रहा है, का साक्षात दर्शन कराया है। महेन्द्रनाथ के शोषक दोस्त

जुनेजा, मनोज, बिन्नी, किन्नी आदि सभी पात्र परंपरा से हटकर मोहन राके श के अपने अनुभव का बेजोड़ अंकन है। ये सभी पात्र अभिनेयता की व्यापक संभावना

लिए हुए है।

(3) सहायक तकनीक : जैसा कि हमने जाना कि मंच-सज्जा एवं दृश्य-बंध, प्रकाश-योजना, ध्वनि एवं संगीत तथा वेषभूषा एवं रूप सज्जा इन चार तत्त्वों का

समुचित और दृश्य के अनुरूप संयोजन सहायक तकनीक के अंतर्गत समाहित है।

(क).मंच सज्जा एवं दृश्य-बंध: जयशंकर प्रसाद जी के उलट मोहन राके श ने नाटक रचना मंचन को विशेष ध्यान में रख कर की। चूंकि नाटक दृश्य-काव्य के

अंतर्गत आता है, अतः नाटक में दृश्यों का प्रभावी होना आवश्यक है। मंच की दृष्टि से भी यह नाटक आधुनिक जीवन को जीवंत करता हुआ सशक्त उपस्थिति दर्ज

कराता है। मंच को बहुत अधिक बदलने की आवश्यकता नहीं होती। मकान का कमरा, सोफ़े , कु र्सियाँ, अलमारी, किताबें फाइलें आदि की मंच सज्जा जो न के वल

सामान्य है बल्कि बार-बार न बदलने के कारण नाट्य-मंचन को सुविधाजनक बना देती है। पात्रों के बिखरे जीवन का संके त करती मंचसज्जा, जिसमें टू टे

फर्नीचर, दीमक लगी फाइलें, गंदे चाय के प्याले आदि सम्मिलित है, बहुत प्रभावी बन पड़ी है। नाटककार ने मंचन की सहजता हेतु अपनी ओर से भी प्रयास किए

हैं। उन्होंने अभिनय संके तों द्वारा भी नाटक की अभिनेयता बढ़ा दी है- “पुरुष तीन: (जैसे बात को आत्मसात करता) हूँ! ( पल भर की खामोशी जिसमें वह कु छ

सोचता हुआ इधर-उधर देखता है, फिर जैसे किसी किताब पर आँख अटक जाने से उठ कर शेल्फ की तरफ चला जाता है।”21

(ख). प्रकाश योजना : आधे-अधूरे में बहुत सादे तरीके से किन्तु प्रभावशाली ढंग से प्रकाश योजना की गई है-“हल्के अभिवादन के रूप में सिर हिलाता है, जिसके

साथ ही उसकी आकृ ति धीरे-धीरे धुंधलाकर अंधेरे में गुम हो जाती है। उसके बाद कमरे में अलग-अलग कोने एक एक कर के आलोकित होते हैं और एक आलोक

व्यवस्था में मिल जाते हैं।”22 नाटक में जहाँ-जहाँ आवश्यकता हुई सहजता से प्रकाश संयोजन किया गया है। और तो और नाटक का अंत तो नाटक के नामकरण

को सार्थक करता प्रकाश संयोजन का अनुपम उदाहरण है - “प्रकाश खंडित होकर स्त्री और बड़ी लड़की तक सीमित रह जाता है। स्त्री स्थिर आँखों से बाहर की

तरफ देखती आहिस्ता से कु र्सी पर बैठ जाती है। बड़ी लड़की उसकी तरफ देखती है, फिर बाहर की तरफ। हल्का मातमी संगीत उभरता है जिसके साथ उन दोनों

पर भी प्रकाश मद्धिम पड़ने लगता है। तभी लगभग अंधेरे में लड़के की बाँह थामे पुरुष एक की धुंधली आकृ ति अंदर आती दिखाई देती है।

लड़का: (जैसे बैठे गले से) देख कर डैडी! देख कर.... उन दोनों के आगे बढ़ने के साथ संगीत अधिक स्पष्ट और अंधेरा गहरा होता जाता है।

(ग). ध्वनि एवं संगीत : नाटक में ध्वनि योजना का सार्थक एवं स्वाभाविक अवतरण हुआ है। रामगोपाल बजाज के अनुसार-“आधे-अधूरे नाटक के लिए मोहन

राके श द्वारा प्रयुक्त ध्वनि योजना ही सबसे बेहतर है। भले ही उन्होंने निर्देशक संगीतकार को प्रयोग के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया हो। पहले अंग के अंत के लिए पात्रों के
परस्पर अलगाव और उनके सम्बन्धों के काट काट कर बिखरने को अभिव्यक्त करने के लिए संगीत के कई प्रयोग दिखाए गए हैं, किन्तु अंत में पाया कि उस स्थिति

के कैं ची के चक-चक से बेहतर और कोई ध्वनि संभव नहीं है और अंततः उसे ही रखा गया है।”24

(घ). वेषभूषा एवं रूप सज्जा : वेषभूषा नाटक में जीवन और परिवेश को ही चित्रित नहीं करती, बल्कि नाट्य-प्रदर्शन को सम्मोहक भी बनाती है। वेषभूषा और रूप

सज्जा का कार्य यूं भी अपने में एक कलात्मक कार्य है क्योंकि अभिनेता का पूरा व्यक्तित्व का उभार उसी से होता है। आधुनिक युगीन नाटक होने के कारण आधे

अधूरे में वेषभूषा का चित्रांकन बहुत बारीकी से करना संभव भी हुआ व सार्थक भी। सरलता नाटक की वेषभूषा की मुख्य विशेषता है, क्योंकि एक ही पुरुष को पाँच

भूमिकाएँ करनी हैं तो के वल ऊपरी वस्त्र बदल कर काम चला लिया गया और बिन्नी, किन्नी और अशोक की पोशाक में कोई परिवर्तन नहीं और सावित्री भी के वल

दूसरे अंक के लिए साड़ी बदलती है। मोहन राके श ने नाटक के पात्र-परिचय के समय ही चरित्रों को ध्यान से इंगित किया है- “उम्र चालीस को छू ती हुई। चेहरे पर

यौवन की चमक और चाह फिर भी शेष।”25 कहना न होगा यह सावित्री का परिचय था, इसी प्रकार सभी का परिचय वेषभूषा सहित कर के नाटककार ने अपनी

सूक्ष्म दृष्टि का परिचय दिया है।

(4) प्रेक्षागृह : नाट्य-सौन्दर्य का यह महत्त्वपूर्ण एवं आवश्यक तत्त्व है। सुखद स्मृति एवं सफलता का एक अनुपम संयोग यह रहा कि मोहन राके श स्वयं इस के

मंचन के समय इस की योजना के अंग बनते थे और आवश्यक संशोधन करते थे। हमें नाट्यकर्मी ओम शिवपुरी का वक्तव्य जोकि भूमिका में देखने को मिलता है तो

प्रेक्षागृह चयन व सफल मंचन में हुई मेहनत का भी इशारा मिल जाता है- “नाटक के शुरू में कु छ प्रदर्शन बंद प्रेक्षागृहों में हुए। जब मुक्ताकाशी त्रिवेणी में प्रदर्शन की

बात आई, तो कु छ मित्रों ने शंका प्रकट कीं कि नाटक संभवतः खुले मंच के लिए उपयुक्त महीन है, उसमे नाटक के तनाव और सघनता के बिखर जाने का खतरा

है।.....बंद और खुले प्रेक्षागृह के अंतर से नाटक की प्रभान्विति पर कोई अंतर नहीं पड़ा।”26

(5) प्रेक्षकानुकू लता : यह नाट्य सौन्दर्य का एक महत्वपूर्ण घटक है। क्योंकि कोई भी साहित्य रचना हो, आखिरकार उसका लक्ष्य तो प्रेक्षक ही है। दर्शकों की रुचि

का ध्यान रख कर समस्त नाट्य संयोजन आवश्यक है। जब हम प्रस्तुत नाट्य-कृ ति को प्रेक्षकानुकू लता की कसौटी पर देखते हैं तो पाते हैं कि हिन्दी में आधुनिक

काल में अधिकतम मंचित व पसंद किए जाने वाले नाटकों में इसका प्रमुख स्थान है। दूसरी बात नाटक के अन्य तत्त्व जैसे भाषा, वेषभूषा, चरित्रांकन आदि जिस

सहज और जनसामान्य से जुड़े हैं उससे इसकी संप्रेषणीयता भी बहुत उच्च कोटी की रही है। एक बहुत बड़ा प्रेक्षक वर्ग होना इस नाटक की सफलता की एक

आधारभूत विशेषता रही है।

निष्कर्ष : हमने जाना कि सौन्दर्य क्या है, सौन्दर्यशास्त्र क्या है, इनके तत्त्व क्या हैं और इनकी कसौटी पर ‘आधे-अधूरे’ कहाँ ठहरता है? सौंदर्यशास्त्रीय प्रतिमानों

का विवेचन हमें साहित्य के मूल प्राप्य ‘आनंद’ से परिचित कराता है तो उन प्रतिमानों के आधार पर अभिव्यंजित तत्वों के आधार पर मोहन राके श के नाटक को

परीक्षित करना इस नाटक के निगूढ़ आनंददायी अवयवों से परिचित कराता है। हमने पाया कि आधुनिक काल का कोई नाटक सौंदर्य शास्त्र के इन तत्त्वों पर इतना

खरा शायद ही उतरे जितना कि हमने इस नाटक को पाया है.

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