औरंगाबाद

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औरंगाबाद, भारत के महाराष्ट्र राज्य में स्थित है, और मध्यकालीन भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता

है। इसकी समृद्ध सांस्कृ तिक विरासत और ऐतिहासिक महत्व इसे अद्वितीय बनाते हैं। औरंगाबाद को सिरे और
व्यापारिक समृद्धि का कें द्र माना जाता था, जो इसे एक रोचक विषय बनाता है।

मध्यकालीन काल में, औरंगाबाद मुग़ल साम्राज्य के एक महत्वपूर्ण शहर के रूप में उभरा था। इसकी स्थापना
मलिक अंबर द्वारा की गई थी, जो निज़ाम शाही वंश के प्रधान मंत्री थे, 17 वीं सदी के प्रारंभ में। औरंगजेब के
समय में, यह शहर उनकी सत्ता का कें द्र बन गया था।

औरंगजेब की प्रेरणा से, औरंगाबाद ने आर्कि टेक्चरल उत्सव और सांस्कृ तिक उन्नति के दौर में एक अहम भूमिका
निभाई। कई महत्वपूर्ण स्मारक, जैसे कि बीबी का मकबरा, जो औरंगजेब द्वारा उनकी पत्नी की याद में बनाई
गई थी, मुग़ल काल की वास्तुशिल्प की महानता को प्रकट करते हैं।

औरंगाबाद का रणनीतिक स्थान मध्यकालीन भारत में व्यापार और आर्थिक समृद्धि में महत्वपूर्ण रहा। यह
उत्तरी और दक्षिणी भारत के बीच व्यापार के कें द्र के रूप में काम किया, साथ ही दुनिया के अन्य हिस्सों के साथ
व्यापार किया।

औरंगाबाद का महत्व न के वल व्यापारिक बल्कि सांस्कृ तिक और शैक्षिक दृष्टि से भी था। यहां कई प्रमुख
विद्वान, कवि, और कलाकार रहे जो शहर की सांस्कृ तिक झलक को समृद्ध किया।

इसके अलावा, औरंगाबाद मध्यकालीन भारतीय राजनीतिक दृश्य को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता
था। मुग़ल सत्ता की सीट के रूप में, यह क्षेत्र के उत्तर में रखा गया था और उसने यहां पर विभिन्न इतिहासिक
घटनाओं को देखा।
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मध्यकालीन भारत में मुल्तान एक प्रमुख व्यापारिक और सांस्कृ तिक कें द्र था जो पाकिस्तान के पंजाब प्रांत में
स्थित है। यह एक महत्वपूर्ण नगर था जो सिंधु और यमुना नदी के संगम पर स्थित था, जिससे यह व्यापारिक
गतिविधियों का कें द्र बन गया। मुल्तान का नाम गुरु नानक देव जी के यात्राओं के विवरणों में भी मिलता है।

मध्यकालीन भारत में मुल्तान को एक व्यापारिक नगर के रूप में जाना जाता था, जो उत्तरी भारत और सभी
मध्य पूर्वी देशों के साथ व्यापार करता था। इसके व्यापारिक गतिविधियों ने इसे एक समृद्धि कें द्र बना दिया था।
मुल्तान के बाजारों में विभिन्न धरोहर, सामग्री, और वस्त्रों का विशाल विकल्प उपलब्ध था, जो इसे एक
व्यापारिक हब बनाता था।

इसके अतिरिक्त, मुल्तान एक महत्वपूर्ण सांस्कृ तिक कें द्र भी था। यहां कई मंदिर, मस्जिदें, और गुरुद्वारे थे, जो
विभिन्न धर्मों के श्रद्धालुओं को आकर्षित करते थे। इसके अलावा, यहां पर विभिन्न सांस्कृ तिक कार्यक्रम, मेले,
और उत्सव भी मनाए जाते थे, जो शहर की सांस्कृ तिक धरोहर को समृद्ध करते थे।

मुल्तान का राजनीतिक महत्व भी था। यह विभिन्न राजनीतिक घटनाओं का साक्षी रहा और विभिन्न
राजनीतिक शासकों की राजनीतिक महाशक्ति का कें द्र बना रहा। इसका संघर्ष अक्सर दिल्ली और लहौर के साथ
होता था जिससे इसका राजनीतिक महत्व बढ़ा।
मुल्तान का समृद्ध व्यापार, सांस्कृ तिक विविधता, और राजनीतिक महत्व ने मध्यकालीन भारतीय समाज में
इसके विशेष स्थान को बनाए रखा। यह एक समृद्धि और विविधतापूर्ण नगर था जो भारतीय इतिहास के
महत्वपूर्ण अध्यायों में एक अहम भूमिका निभाता है।
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मध्यकालीन भारत में चाम्पानेर एक महत्वपूर्ण ऐतिहासिक स्थल था। यह गुजरात के पास स्थित था और इसका
अवलोकन आज भी हमें मध्यकालीन संस्कृ ति और विरासत का एक सुंदर अंदाज प्रदान करता है। चाम्पानेर का
इतिहास आठवीं सदी से लेकर सतहवीं सदी तक फै ला हुआ है।

चाम्पानेर का समय अकबर के राज्य के समय में उच्च शिखर पर था। इस शहर में विभिन्न धर्मों के मंदिर,
मस्जिदें, और गुम्बद थे जो इसकी सांस्कृ तिक धरोहर को दर्शाते थे। चाम्पानेर की स्थापिति का समय तो समय
अनुसार विभिन्न किस्सों में बदलता रहा, लेकिन इसका विकास सतहवीं सदी में अबुल फ़ज़ल और अकबर के
समय में हुआ।

चाम्पानेर का ऐतिहासिक महत्व भारतीय संस्कृ ति और इतिहास के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। यहां के
संग्रहालयों, गुम्बदों, और मंदिरों में मध्यकालीन भारतीय संस्कृ ति की धारा का अध्ययन किया जा सकता है।
चाम्पानेर के इतिहास में विविधता और सांस्कृ तिक धरोहर का एक अद्वितीय संगम था जो आज भी हमें उस
समय की महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।
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डाभोई, जो आजकल गुजरात, भारत में स्थित है, मध्यकालीन काल में एक महत्वपूर्ण शहर था। इसे 6 वीं
शताब्दी में स्थापित किया गया था और सोलंकी वंश के शासनकाल में महत्वपूर्णता प्राप्त हुई। व्यापार मार्गों पर
इसका रणनीतिक स्थान इसके समृद्धि में योगदान किया।

मध्यकालीन काल में, डाभोई को उसके भव्य दुर्ग के लिए जाना जाता था, जो कि 13 वीं सदी में सोलंकी शासकों
द्वारा निर्मित किया गया था। दुर्ग की जटिल वास्तुकला, जिसमें उसके विशाल दरवाजे और जटिल नक्काशियाँ
शामिल थीं, उस समय की कारीगरी का परिचायक था।

डाभोई को जैन और हिंदू धर्म का कें द्र माना जाता था, जिसमें इसकी दीवारों के भीतर कई मंदिर बनाए गए थे। यह
नगर अपनी धार्मिक महत्ता से दूर-दूर तक तीर्थयात्रियों और भक्तों को आकर्षित करता था।

मुघलों और मराठों जैसे विभिन्न शासकों के शासनकाल के दौरान, डाभोई व्यापारिक और सांस्कृ तिक कें द्र के रूप
में निरंतर उन्नति करता रहा। हालांकि, मध्यकालीन शक्तियों के पतन और आधुनिक शहरों के उदय के साथ,
डाभोई धीरे-धीरे अपनी महत्ता खो गया, लेकिन फिर भी इसमें इतिहासिक सौंदर्य और महत्ता बरकरार है।
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Anjar, भारतीय इतिहास के इस छोटे शहर की मध्ययुगीन गवाही देता है। इसका इतिहास संप्रेषित है और इसे
गुजरात का ऐतिहासिक और सांस्कृ तिक कें द्र माना जाता है। यह स्थान उत्तर-पश्चिम भारतीय राज्य के समीप
स्थित है और इसका विकास मुगल साम्राज्य काल में शुरू होता है।
अन्जर की महत्वपूर्णता इसके व्यापारिक महत्व के कारण थी। यह एक प्रमुख व्यापारिक के न्द्र था जो कई
साम्राज्यों और वंशों के बीच व्यापार को बढ़ावा देता था। इसका समृद्ध वाणिज्यिक विवाद के लिए प्रसिद्ध था,
जिसमें अफ्रीका, यूरोप और दक्षिण-पूर्व एशिया के बीच संचार और व्यापार शामिल था।

अन्जर का आज का नज़ारा उस समय के महत्वपूर्ण सांस्कृ तिक और ऐतिहासिक धारणाओं को याद दिलाता है।
इसके पास कई प्राचीन मंदिर, मस्जिदें और विभिन्न धार्मिक स्थल हैं जो इसकी गहरी धार्मिक और सांस्कृ तिक
विरासत को प्रदर्शित करते हैं। आज भी, अन्जर का स्थानिक बाजार और उसका ऐतिहासिक महल इस शहर की
धरोहर को जीवंत रखते हैं।
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रणदेव, या जैसे कि उन्हें आमतौर पर जाना जाता था, रंडेर, मध्यकालीन भारतीय इतिहास का एक महत्वपूर्ण
हिस्सा था। वह गुजरात के राजा सिद्धराज जैतसिंह के समय के अग्रणी योद्धा थे। रंडेर का नाम भारतीय इतिहास
में उनके वीरता, शौर्य, और योद्धा कौशल के लिए अटू ट है।

वह एक प्रसिद्ध योद्धा थे और उनके साहसी कार्यों के बारे में बहुत सुना जाता था। रंडेर का नाम उनकी वीरता और
निष्ठा के लिए अज्ञात में अमर हो गया है।

उनकी धैर्य, साहस, और योद्धा कौशल ने उन्हें भारतीय इतिहास के वीरों में शामिल किया। उनकी वीरता के लिए
उन्हें 'रणदेव' का शीर्षक दिया गया, जो उनके शौर्य की धरोहर को साकार करता है। रंडेर के युद्ध कौशल ने भारतीय
सेना को अजेय बनाया और उन्हें शत्रुओं के भय से अच्छी तरह से जाना जाता था।

उनका योगदान मध्यकालीन भारतीय इतिहास में अविस्मरणीय है। उनके साहसी कार्यों ने उन्हें भारतीय समाज
के मध्य वीर पुरुष के रूप में स्थापित किया। उनकी कथाएँ आज भी लोगों में प्रेरणा का कें द्र बनी हुई हैं और उनके
बड़े और अद्वितीय योद्धा योगदान को याद किया जाता है।
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मध्यकालीन भारत की इतिहास में 'काम्बे' (Cambay) एक महत्वपूर्ण संग्रहण का नाम है। यह स्थान आज के
गुजरात राज्य के खंभाट जिले में स्थित है। काम्बे का एक महत्वपूर्ण प्रमुखता समुद्री व्यापार में था, और यह एक
बहुत ही अभिन्न सांस्कृ तिक और वाणिज्यिक नगर था। इसका महत्वपूर्ण समय 8 वीं से 14 वीं सदी के बीच था,
जब यह आधुनिक भारतीय तटीय व्यापार के कें द्र था।

काम्बे की स्थिति उत्कृ ष्ट थी, क्योंकि यह अरब सागर और हिन्द महासागर के मिलन स्थल पर स्थित था,
जिससे इसे समुद्री व्यापार के लिए अद्वितीय स्थान प्राप्त हुआ। काम्बे के पोर्ट से होती थी, जिसमें आभूषण,
वस्त्र, मसाले, और मूल्यवान पत्थर जैसी वस्तुओं की व्यापारिक गतिविधियां होती थीं।

काम्बे का समुद्री व्यापार उस समय के लिए बहुत ही महत्वपूर्ण था। इसके पोर्ट से विभिन्न भाषाओं और
संस्कृ तियों के व्यापारिक धंधों को समेटा गया था। इसके पासी भारतीय और विदेशी व्यापारिक धंधे, निर्माण के
उत्पाद, गैर-आधारित उत्पाद और अन्य वस्तुएं बाजार में बाजार में लाई जाती थीं।
काम्बे की महत्वपूर्ण भूमिका भी व्यापारिक गतिविधियों के साथ-साथ सांस्कृ तिक आदान-प्रदान में थी। यहां पर
अलग-अलग समाजों, धर्मों और संस्कृ तियों के लोग आकर्षित होते थे और एक-दूसरे के साथ संवाद और
विनिमय करते थे।

इस प्रकार, काम्बे मध्यकालीन भारत का एक महत्वपूर्ण समुद्री व्यापार कें द्र था, जो व्यापार, सांस्कृ तिक आदान-
प्रदान और अंतराष्ट्रीय संबंधों के लिए एक समृद्ध नगर था। इसकी व्यापारिक महत्वता और सांस्कृ तिक
विविधता ने इसे मध्यकालीन भारत की धारावाहिक नगरी बनाया।
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मध्यकालीन भारत में के रल के उत्तरी भाग में स्थित कोझिकोड, जिसे आधुनिक काल में कलिकट
(Calicut) के नाम से जाना जाता है, एक महत्वपूर्ण व्यापारिक और सांस्कृ तिक कें द्र था। इसका
महत्व उस समय के व्यापार और संचार के माध्यम से था। यह स्थान एक समृद्ध समुद्री तट पर
स्थित था, जिससे व्यापारिक गतिविधियों को बढ़ावा मिलता था।

कलिकट एक प्रमुख व्यापारिक कें द्र था जो मध्यकाल में स्पाइसेस, पोर्टुगीज, अरब, चीनी और मलय
व्यापारियों के बीच व्यापार का कें द्र बन गया था। यहां के व्यापारिक गतिविधियों ने इसे एक समृद्ध
नगर बना दिया था। कलिकट एक ऐतिहासिक नगर था जो मध्यकाल के भारतीय व्यापार और
सांस्कृ तिक इतिहास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसका महत्व भारतीय इतिहास में पुनर्निर्माण के
समय से आगे भी बना रहा है।
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मध्यकालीन भारत में चाउल का महत्वपूर्ण स्थान था। यह एक प्रमुख शहर था जो पश्चिमी खाड़ी से
आने वाले व्यापारिक यातायात के लिए महत्वपूर्ण कें द्र था। इसके विशाल बंदरगाह और धाराप्रवाह
नदी इसे व्यापार में सुदृढ़ करते थे। चाउल के इतिहास में उसके अवसरों की विविधता, वाणिज्यिक
गतिविधियों की बड़ी संख्या, और समृद्धि का अध्ययन करने के लिए कई इतिहासकारों ने इसे विशेष
रूप से महत्वपूर्ण माना है।

चाउल का नाम उस समय की उन धरोहरों में एक है, जिनका महत्व भारतीय इतिहास में व्यापार,
धर्म, साहित्य, और कला में होता था। यहां के बाजार और व्यापारिक संघर्ष भी इसे एक महत्वपूर्ण
नगर बनाते थे। चाउल के इतिहास में उसकी समृद्धि, संगठन की क्षमता, और सामाजिक वातावरण
की गहरी धाराओं ने इसे एक प्रमुख नगर बनाया।

चाउल की विशेषता और इसके इतिहास में उसका महत्व समझने के लिए हमें उस समय की
सामाजिक, आर्थिक, और सांस्कृ तिक परिरूपणों का अध्ययन करना अत्यंत महत्वपूर्ण है। चाउल के
इतिहास में व्यापार, धर्म, साहित्य, और कला के क्षेत्र में उसके महत्वपूर्ण योगदान का अध्ययन करने
से हमें उस समय की सामाजिक और आर्थिक जीवनशैली के बारे में अधिक जानकारी मिलती है।
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मध्यकालीन भारत में दमन और दीव क्षेत्र का इतिहास व्यापक और रोचक है। यह क्षेत्र पुराने समय
से ही विभिन्न संस्कृ तियों और सम्राटों के अधीन रहा है। दमन और दीव के प्राचीन इतिहास को
जानने के लिए हमें मुगल साम्राज्य, पोर्चुगीज और गुजरात के सल्तनतों के समय की घटनाओं की
ओर देखना होगा।

दमन और दीव क्षेत्र को लगभग 450 साल तक पोर्चुगीज शासन का अनुभव हुआ। यहां की संस्कृ ति,
भाषा और शैली पोर्चुगीज आदर्शों को प्रभावित करती रही है। मुगल साम्राज्य के साथ युद्ध के बाद,
दमन और दीव क्षेत्र को पोर्चुगीजों ने अपने नियंत्रण में किया। इसका परिणाम स्थानीय लोगों के
जीवन पर गहरा प्रभाव पड़ा।

दमन और दीव क्षेत्र का मध्यकालीन भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है, जो कि पोर्चुगीज और
मुगल साम्राज्य के अधीन था। यहां की भूमि और लोगों के जीवन का अध्ययन हमें ऐतिहासिक और
सांस्कृ तिक धारा के संदर्भ में अनेक महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करता है।
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मध्यकालीन भारत में कटलौर, भारत के दक्षिण-पूर्वी तट पर स्थित, विभिन्न शासकों के अधीन एक
महत्वपूर्ण बंदरगाह शहर के रूप में फलित हुआ। इसकी रणनीतिक स्थिति ने इसे महासागरीय
व्यापार के लिए एक कें द्र बना दिया, जो भारतीय महासागर के अलावा अन्य स्थानों से व्यापारियों को
आकर्षित करता था।

चोल राजवंश के दौरान, कटलौर एक प्रमुख व्यापार कें द्र था, जो दक्षिण भारत को दक्षिण-पूर्व एशिया
और इसके परे के संदेशों से जोड़ता था। नागरा इम्पायर के शासन के दौरान, नगर की समृद्धि को
और बढ़ाया गया, जो इसकी व्यापारिक नेटवर्क को और मजबूत किया।

मध्यकालीन काल में कटलौर धार्मिक विविधता के साथ-साथ सांस्कृ तिक आदान-प्रदान और धर्मिक
संगठन को देखा। मंदिर, मस्जिद और गिरजाघर नगर की भूमि को अलग-अलग धर्मीय समृद्धता का
परिचायक बनाते रहे।

हालांकि, जैसा कि कई मध्यकालीन शहरों का होता है, कटलौर को भी आक्रमण, राजनीतिक उपद्रव,
और आर्थिक परिवर्तन जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ा। फिर भी, यह भारतीय मध्यकाल के
ऐतिहासिक रंगमंच में एक महत्वपूर्ण समुदायिक कें द्र रहा, जो देश के इतिहास को और गहरा करता
गया।
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मध्यकालीन भारत में पांडिचेरी का इतिहास गहरा और रोमांचक है। यह स्थान महाराष्ट्र, पंजाब,
तमिलनाडु और आंध्र प्रदेश जैसी विभिन्न क्षेत्रों से आए व्यापारिक और सांस्कृ तिक रूपों के लिए
महत्वपूर्ण था। इसका महत्व नौकाओं और समुद्री यातायात के लिए भी था।

पांडिचेरी में मध्यकालीन समय में व्यापार, शिक्षा, और साहित्य का संगम था। यहाँ के लोग धार्मिक
संवाद में विविधता का उत्साह दिखाते थे और सांस्कृ तिक विनिमय का महत्व था। पांडिचेरी का
इतिहास एक रोमांचक कहानी है जो हमें मध्यकालीन भारतीय समाज के रहस्यमय विश्व को समझने
में मदद करती है।
पांडिचेरी की मध्यकालीन विशेषताएँ मेलजोल से भरी हुई थीं। यहाँ पर विभिन्न धर्मों के मंदिर,
मस्जिद, और गिरजाघर थे, जो इसके सांस्कृ तिक समृद्धता को दर्शाते थे। व्यापार में उत्कृ ष्टता और
बाजारों की गतिविधियों का सजीवता यहाँ का आत्मविश्वास दर्शाता है।

पांडिचेरी का मध्यकालीन इतिहास भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण अध्याय है, जो समृद्ध और
संवैधानिक संस्कृ ति का प्रतीक है। यहाँ का इतिहास और सांस्कृ तिक विरासत भारतीय समाज के
विविधता और सम्मिलितता को प्रकट करता है।
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मध्यकालीन भारत में शिल्पकार और उनकी कु शलता को 'कारीगरी' कहा जाता था। इस युग में
शिल्पकारों ने विभिन्न क्षेत्रों में अपने कौशल का प्रदर्शन किया, जैसे कि स्थापत्यकला, रंगकर्म,
कढ़ाई, आदि। उनके काम की विशेषता उनके धैर्य और सौम्यता में थी, जो उन्हें आधुनिक शिल्पकला
के नायक बनाती थी।

मध्यकालीन भारत में कारीगरों का काम उनकी विशेष धार्मिक और सांस्कृ तिक परंपराओं से भी गहरा
जुड़ा हुआ था। उन्होंने विभिन्न धार्मिक स्थलों, मंदिरों, महलों, और मस्जिदों के लिए आभूषण,
मूर्तियाँ, और स्थल निर्माण किया। इनके कामों में आधुनिक और परम्परागत शैली का मिश्रण था, जो
उन्हें अद्वितीय बनाता था। उनकी कु शलता और शैली को आज भी अनेक कलाकारों की प्रेरणा के रूप
में देखा जा सकता है।

मध्यकालीन भारत में कारीगरों की शिल्पीय क्षमता ने उन्हें आधुनिक साम्राज्यों के साथ-साथ समाज
की सांस्कृ तिक और आर्थिक विकास में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उनका काम न के वल खूबसूरती
का प्रतीक था, बल्कि वह समाज के संरचना में भी निरंतर योगदान करता रहा। इस प्रकार,
मध्यकालीन भारतीय कारीगरों का योगदान उनकी कु शलता, समर्थन, और संवैधानिकता के साथ
समृद्ध भारतीय सांस्कृ तिक विरासत का अभिन्न हिस्सा बना।
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मध्यकालीन भारत में राजनीतिक अभिजात, जैसे कि राजा, महाराजा, सम्राट, और महाराणा,
अधिकांश अधिकारियों वाले राजा होते थे। उन्हें राज्य की प्रशासनिक और सैन्य प्रबंधन की जिम्मेदारी
थी और वे सामाजिक और आर्थिक स्थिति में उच्च थे। कई बार ये राजनीतिक अभिजात अपने प्रदेशों
में शक्ति का प्रयोग करते थे और स्थानीय राजाओं या सम्राटों के साथ संबंध स्थापित करते थे।

उनकी सत्ता और प्रभाव को बनाए रखने के लिए, वे विविध रूपों में गठजोड़ और विवादों का सामना
करते थे। ये राजनीतिक अभिजात अक्सर धर्म, संप्रदाय, और समाज की संरचना में महत्वपूर्ण
भूमिका निभाते थे और अपनी सत्ता को सुनिश्चित करने के लिए अनेक राजनीतिक तंत्रों का
इस्तेमाल करते थे।
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मध्यकालीन भारत में व्यापारी और बिचौलिया के रूप में काम करने वाले व्यक्ति को "व्यापारी" और
"बिचौलिया" कहा जाता था। व्यापारी उस समय की सामाजिक और आर्थिक ढांचे में वस्तुओं की
व्यवस्था और वित्तीय संचार का कार्य करते थे, जबकि बिचौलिया वस्तुओं की ग्राहकों के बीच
वितरण और धारा का कार्य करते थे।
मध्यकालीन भारत में व्यापारियों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण थी। वे अपने धन, संसाधन, और
व्यापारिक संबंधों के माध्यम से समाज में उत्थान करते थे। बिचौलिये या इंटरमीडिएरीज भी
महत्वपूर्ण थे, क्योंकि उन्होंने विभिन्न भागों में उत्पादों की वितरण और व्यापारिक लेन-देन की
प्रक्रिया को सुनिश्चित किया। वे भारतीय अर्थव्यवस्था के अभिवृद्धि में महत्वपूर्ण योगदान करते थे।
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मध्यकालीन भारत में भारतीय महासागर के साथ वाणिज्यिक गतिविधि का विवरण देने में, विशेष
रूप से 9 वीं से 16 वीं सदी के बीच, यहां प्रमुख धारावाहिक और तटीय शहरों के बीच व्यापार का
उल्लेख किया जा सकता है। उन्हें मुख्य व्यापारिक के न्द्रों के रूप में देखा जा सकता था, जैसे कि
सूरत, कालिकाटा, गोवा, वेनिस, डाका आदि। इन नगरों में धान, मिर्च, मिट्टी के उत्पाद, कपास, और
अन्य महत्वपूर्ण सामग्री का व्यापार किया जाता था।

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