द्विवेदी युग, भाग 1, M.A. SEM. 2

You might also like

Download as pdf or txt
Download as pdf or txt
You are on page 1of 5

द्विवे दी युग

साधना रावत
अद्वसस्टें ट प्रोफेसर, द्व िं दी द्ववभाग
एस.बी.कॉलेज,वीर कुिंवर द्वसिं
द्ववश्वद्ववद्यालय,आरा(भोजपुर)

द्विवेदी युग हहदी साद्वहत्य में भारतेंदु युग के बाद का समय है। इस युग का नाम महावीर प्रसाद
द्विवेदी के नाम से रखा गया है। महावीर प्रसाद द्विवेदी एक ऐसे साद्वहत्यकार थे,
जो बहुभाषी होने के साथ ही साद्वहत्य के इतर द्ववषयों में भी समान रुद्वि रखते थे।
उन्होंने सरस्वती का अठारह वषों तक संपादन कर द्वहन्दी पत्रकाररता में एक
महान कीर्ततमान स्थाद्वपत ककया था। वे द्वहन्दी के पहले व्यवद्वस्थत समालोिक थे, द्वजन्होंने
समालोिना की कई पुस्तकें द्वलखी थीं। वे खडीबोली द्वहन्दी की कद्ववता के प्रारं द्वभक और
महत्वपूर्ण कद्वव थे। आधुद्वनक द्वहन्दी कहानी उन्हीं के प्रयत्नों से एक साद्वहद्वत्यक द्ववधा के रूप में
मान्यता प्राप्त कर सकी थी। वे भाषाशास्त्री थे, अनुवादक थे, इद्वतहासज्ञ थे, अथणशास्त्री थे
तथा द्ववज्ञान में भी गहरी रुद्वि रखने वाले थे। अत: वे युगांतर लाने वाले साद्वहत्यकार थे या
दूसरे शब्दों में कहें, युग द्वनमाणता थे। वे अपने द्विन्तन और लेखन के िारा द्वहन्दी प्रवेश में नव-
जागरर् पैदा करने वाले साद्वहत्यकार थे।
"आिायण" की उपाद्वध
महावीर प्रसाद द्विवेदी द्वहन्दी के पहले साद्वहत्यकार थे, द्वजनको ‘आिायण’ की उपाद्वध द्वमली थी।
इसके पूवण संस्कृ त में आिायों की एक परं परा थी। मई 1933 ई. में नागरी प्रिाररर्ी सभा ने
उनकी सत्तरवीं वषणगााँठ पर बनारस में एक बडा साद्वहद्वत्यक आयोजन कर द्विवेदी का अद्वभनंदन
ककया था। उनके सम्मान में द्विवेदी अद्वभनंदन ग्रंथ का प्रकाशन कर, उन्हें समर्तपत ककया था। इस
अवसर पर द्विवेदी जी ने जो अपना वक्तव्य कदया था, वह ‘आत्म-द्वनवेदन’ नाम से प्रकाद्वशत हुआ
था। इस ‘आत्म-द्वनवेदन’ में वे कहते हैं, ‘‘मुझे 'आिायण' की पदवीं द्वमली है। क्यों द्वमली है, मालूम
नहीं ? कब ? ककसने दी है,यह भी मुझे मालूम नहीं ? मालूम द्वसर्ण इतना ही है, कक मैं बहुधा-
इस पदवी से द्ववभूद्वषत ककया जाता हाँ।....शंकरािायण, मध्वािायण, सांख्यािायण आकद के सदृश
ककसी आिायण के िरर्रज: कर् की बराबरी मैं नहीं कर सकता। बनारस के संस्कृ त कॉलेज या
ककसी द्ववश्वद्ववद्यालय में भी मैंने कदम नहीं रखा। कर्र इस पदवी का मुस्तहक मैं कै से हो
गया ?’’ महावीर प्रसाद द्विवेदी ने मैरिक तक की पढाई की थी। तत्पश्चात् वे रे लवे में नौकरी
करने लगे थे। उसी समय इन्होंने अपने द्वलए द्वसद्धान्त द्वनद्वश्चत ककए-वक़्त की पाबंदी करना,
ररश्वत न लेना, अपना काम ईमानदारी से करना और ज्ञान-वृद्वद्ध के द्वलए सतत प्रयत्न करते
रहना। द्विवेदी जी ने द्वलखा है, ‘‘पहले तीन द्वसद्धान्तों के अनुकूल आिरर् करना तो सहज था,
पर िौथे के अनुकूल सिेत रहना करठन था। तथाद्वप सतत अभ्यास से उसमें भी सर्लता होती
गई। तारबाबू होकर भी, रिकि बाबू, मालबाबू, स्िेशन मास्िर, यहााँ तक कक रे ल पिररयााँ
द्वबछाने और उसकी सडक की द्वनगरानी करनेवाले प्लेि-लेयर (Permanent way Inspector)
तक का भी काम मैंने सीख द्वलया। र्ल अच्छा ही हुआ। अणसरों की नज़र मुझ पर पडी। मेरी
तरक़्कीऺ होती गई। वह इस तरह की एक दणे मुझे छोडकर तरक़्की के द्वलए दरख़्वास्त नहीं देनी
पडी।’’ द्विवेदी 15 रुपये माद्वसक पर रे लवे में बहाल हुए थे और जब उन्होंने 1904 ई. में नौकरी
छोऺडी, उस वक़्त 150 रुपये मूल वेतन एवं 50 रुपये भत्ता द्वमलता था, यानी कु ल 200 रुपये।
उस ज़माने में यह एक बहुत बडी राद्वश थी। वे 18 वषण की उम्र में रे लवे में बहाल हुए थे। उनका
जन्म 1864 ई. में हुआ था और 1882 ई. से उन्होंने नौकरी प्रारं भ की थी। नौकरी करते हुए वे
अजमेर, बंबई, नागपुर, होशंगाबाद, इिारसी, जबलपुर एवं झााँसी शहरों में रहे। इसी दौरान
उन्होंने संस्कृ त एवं ब्रजभाषा पर अद्वधकार प्राप्त करते हुए हपगल अथाणत् छंदशास्त्र का अभ्यास
ककया। उन्होंने अपनी पहली पुस्तक 1895 ई. में श्रीमद्वहम्नस्तोत्र की रिना की, जो पुष्यदंत के
संस्कृ त काव्य का ब्रजभाषा में काव्य रूपांतर है। द्विवेदी जी ने सभी पद्यरिनाओं का भावाथण
खडी बोली गद्य में ही ककया है। उन्होंने इसकी भूद्वमका में द्वलखा है, ‘‘इस कायण में हुशंगाबादस्थ
बाबू हररश्चन्र कु लश्रेष्ठ का जो सांप्रत मध्यप्रदेश राजधानी नागपुर में द्ववराजमान हैं, मैं परम
कृ तज्ञ हाँ।’’ अपने ‘आत्म-द्वनवेदन’ में उन्होंने द्वलखा है, ‘‘बिपन से मेरा अनुराग तुलसीदास की
रामायर् और ब्रजवासीदास के ब्रजद्ववलास पर हो गया था। र्ु िकर कद्ववता भी मैंने सैकडों कं ठ
कर द्वलए थे। हुशंगाबाद में रहते समय भारतेन्दु हररश्चन्र के कद्ववविन सुधा और गोस्वामी
राधािरर् के एक माद्वसक पत्र ने मेरे उस अनुराग की वृद्वद्ध कर दी। वहीं मैंने बाबू हररश्चंर
कु लश्रेष्ठ नाम के एक सज्जन से, जो वहीं किहरी में मुलाद्वजम थे, हपगल का पाठ पढा। कर्र क्या
था, मैं अपने को कद्वव ही नहीं, महाकद्वव समझने लगा।
मेरा यह रोग बहुत कदनों तक ज्यों का त्यों बना रहा।’’ 1889 से 1892 ई. तक द्विवेदी जी की
इस प्रकार की कई पुस्तकें प्रकाद्वशत हुईं-द्ववनय-द्ववनोद, द्ववहार-वारिका, स्नेहमाला, ऋतु
तरं द्वगनी, देवी स्तुद्वत शतक, श्री गंगालहरी आकद। 1896 ई. में इन्होंने लॉर्ण बेकन के द्वनबंधों का
द्वहन्दी में भावाथण मूलक रुपांतर ककया, जो बेकन-द्वविार-रत्नावली पुस्तक में संकद्वलत हैं। 1898
ई. में इन्होंने द्वहन्दी काद्वलदास की आलोिना द्वलखी, जो द्वहन्दी की पहली आलोिनात्मक पुस्तक
है। 1988 ई. में श्रीहषण के नैषधीयिररतम पर इन्होंने नैषध-िररत-ििाण नामक आलोिनात्मक
एवं गवेषर्ात्मक पुस्तक द्वलखी। यह द्वसलद्वसला जो शुरू हुआ, वह 1930-31 ई. तक िला और
द्विवेदी जी की कु ल पच्चासी पुस्तकें प्रकाद्वशत हुईं।
जनवरी, 1903 ई. से कदसंबर, 1920 ई. तक इन्होंने सरस्वती नामक माद्वसक पद्वत्रका का
संपादन कर एक कीर्ततमान स्थाद्वपत ककया था, इसीद्वलए इस काल को द्वहन्दी साद्वहत्येद्वतहास में
‘द्विवेदी-युग’ के नाम से जाना जाता है। अपने प्रकांर् पांद्वर्त्य के कारर् इन्हें ‘आिायण’ कहा जाने
लगा। उनके व्यद्वक्तत्व के बारे में आिायण ककशोरी दास वाजपेयी ने द्वलखा है, ‘‘उनके सुदढृ
द्ववशाल और भव्य कलेवर को देखकर दशणक पर सहसा आतंक छा जाता था और यह प्रतीत होने
लगता था कक मैं एक महान ज्ञानराद्वश के नीिे आ गया हाँ।’’ द्विवेदी जी का मानना था कक ‘ज्ञान-
राद्वश’ के संद्वित कोष का ही नाम साद्वहत्य है।’ द्विवेदी जी स्वयं तो एक ‘महान ज्ञान-राद्वश’ थे ही
उनका संपूर्ण वाङ्मय भी संद्वित ज्ञानराद्वश है, द्वजससे होकर गुज़रना अपनी जातीय परं परा को
आत्मसात करते हुए द्ववश्वद्विन्तन के समक्ष भी होना है। र्ॉ॰ रामद्ववलास शमाण ने द्विवेदी जी के
महत्त्व को प्रद्वतपाकदत करते हुए द्वलखा है, ‘‘द्विवेदी जी ने अपने साद्वहत्य जीवन के आरं भ में
पहला काम यह ककया कक उन्होंने अथणशास्त्र का अध्ययन ककया। उन्होंने जो पुस्तक बडी मेहनत
से द्वलखी और जो आकार में उनकी और पुस्तकों से बडी है, वह संपद्वत्तशास्त्र है।.....अथणशास्त्र का
अध्ययन करने के कारर् द्विवेदी जी बहुत-से द्ववषयों पर ऐसी रिप्पद्वर्यााँ द्वलख सके जो द्ववशुद्ध
साद्वहत्य की सीमाएाँ लााँघ जाती हैं।
इसके साथ उन्होंने राजनीद्वत द्ववषयों का अध्ययन ककया और संसार में जो महत्त्वपूर्ण राजनीद्वत
घिनाएाँ हो रही थीं, उन पर उन्होंने लेख द्वलखे। राजनीद्वत और अथणशास्त्र के साथ उन्होंने
आधुद्वनक द्ववज्ञान से पररिय प्राप्त ककया और इद्वतहास तथा समाजशास्त्र का अध्ययन गहराई से
ककया। इसके साथ भारत के प्रािीन दशणन और द्ववज्ञान की ओर इन्होंने ध्यान कदया और यह
जानने का प्रयत्न ककया कक हम अपने द्विन्तन में कहााँ आगे बढे हुए हैं और कहााँ द्वपछडे हैं। इस
तरह की तैयारी उनसे पहले ककसी संपादक ने न की थी। पररर्ाम यह हुआ कक द्वहन्दी प्रवेश में
नवीन सामाद्वजक िेतना के प्रसार के द्वलए वह सबसे उपयुक्त व्यद्वक्त द्वसद्ध हुए।’’
ऐसे महान ज्ञान-राद्वश के पुंज थे आिायण महावीर प्रसाद द्विवेदी। ककन्तु रामद्ववलास शमाण के पूवण
द्वजतने भी आलोिक हुए, उन्होंने द्विवेदी जी का उद्वित मूलयांकन तो नहीं ही ककया, अद्वपतु
उनका अवमूलयन ही ककया। इन महान आलोिकों में रामिन्र शुक्ल, नंददुलारे वाजपेयी एवं
हजारी प्रसाद द्विवेदी प्रमुख हैं। रामिन्र शुक्ल ने द्वहन्दी साद्वहत्य का इद्वतहास में द्विवेदी जी पर
जो रिप्पर्ी की है, उस पर एक नजर र्ालें, ‘‘द्विवेदी जी ने सन् 1903 ई. में सरस्वती के संपादन
का भार द्वलया। तब से अपना सारा समय द्वलखने में ही लगाया। द्वलखने की सर्लता वे इस बात
में मानते थे कक पाठक भी उससे बहुत-कु छ समझ जाएाँ। कई उपयोगी पुस्तकों के अद्वतररक्त
उन्होंने र्ु िकर लेख भी बहुत द्वलखे। पर इन लेखों में अद्वधकतर लेख ‘बातों के संग्रह’ के रूप में
ही है। भाषा के नूतन शद्वक्त िमत्कार के साथ नए-नए द्वविारों की उद्भावना वाले द्वनबंध बहुत
ही कम द्वमलते हैं।
स्थायी द्वनबंधों की श्रेर्ी में िार ही लेख, जैसे ‘कद्वव और कद्ववता’, ‘प्रद्वतभा’ आकद आ सकते हैं।
पर ये लेखनकाल या सूक्ष्म द्वविार की दृद्वि से द्वलखे नहीं जान पडते। ‘कद्वव और कद्ववता’ कै सा
गंभीर द्ववषय है, कहने की आवश्यकता नहीं। पर इस द्ववषय की बहुत मोिी-मोिी बातें बहुत
मोिे तौर पर कही गई हैं।’’ इसी प्रसंग में रामिन्र शुक्ल आगे द्वलखते हैं, ‘‘कहने की आवश्यकता
नहीं कक द्विवेजी जी के लेख या द्वनबंध द्वविारात्मक श्रेर्ी में आएाँगे। पर द्वविार की वह गूढ
गुंकर्त परं परा उनमें नहीं द्वमलती द्वजससे पाठक की बुद्वद्ध उत्तेद्वजत होकर ककसी नई द्वविार-
पद्धद्वत पर दौड पडे। शुद्ध द्वविारात्मक द्वनबंधों का िरम उत्कषण वही कहा जा सकता है जहााँ एक
पैराग्रार् में द्वविार दबा-दबाकर कसे गए हों और एक-एक वाक्य ककसी संबद्ध द्वविारखंर् के
द्वलए हों। द्विवेदी जी के लेखों को पढने में ऐसा जान पडता है कक लेखक बहुत मोिी अक्ल के
पाठकों के द्वलए द्वलख रहा है।’’
अब आप देखें कक महावीर प्रसाद द्विवेदी के लेखन के प्रद्वत रामिंर शुक्ल की ये रिप्पर्ी पढकर
द्वहन्दी का कोई भी पाठक उससे द्ववरक्त होगा या आसक्त। रामिन्र शुक्ल के इद्वतहास को द्वहन्दी
के द्ववद्याथी साठ-पैंसठ वषों से आप्त विनों की तरह याद करते आ रहे हैं। ऐसे में मूल पाठ से
उनके आप्त वाक्यों का यकद द्वमलान कर परीक्षर् न ककया जाए, तो अनथण होगा ही। रामिन्र
शुक्ल द्वहन्दी के सबसे बडे समालोिक, सबसे बडे साद्वहत्येद्वतहास-लेखक हैं। इसी इद्वतहास में वे
महावीर प्रसाद द्विवेदी के ऐद्वतहाद्वसक योगदानों को द्वसणण भाषा-पररष्कारकत्ताण के रूप में
स्वीकार करते हैं। उनके शब्द हैं, ‘‘यद्यद्वप द्विवेदी जी ने द्वहन्दी के बडे-बडे कद्ववयों को लेकर
गंभीर साद्वहत्य समीक्षा का स्थायी साद्वहत्य नहीं प्रस्तुत ककया, पर नई द्वनकली पुस्तकों की भाषा
की खरी आलोिना करके द्वहन्दी साद्वहत्य का बडा भारी उपकार ककया है।
यकद द्विवेदी जी न उठ खडे होते तो जैसा अव्यवद्वस्थत, व्याकरर्द्ववरुद्ध और ऊिपिााँग भाषा
िारों ओर कदखाई पडती थी, उसकी परं परा जलदी न रुकती। उसके प्रभाव से लेखक सावधान
हो गए और द्वजनमें भाषा की समझ और योग्यता थी उन्होंने अपना सुधार ककया।’’ दरअसल
शुक्ल जी द्वजस आलोिना-पद्धद्वत का सहारा लेकर उक्त बातें द्वलख रहे थे, उसे अंग्रेजीऺ में
Judicial Criticism और द्वहन्दी में द्वनर्णयात्मक आलोिना कहते हैं और इसका सबसे बडा दोष
यह है कक इसके आलोिना के क्षेत्र में आलोिकों का ध्यान ऐद्वतहाद्वसक युग, वातावरर् एवं
जीवन से हिाकर अद्वधकांशत: कलापक्ष तक ही सीद्वमत कर कदया है। कलापक्ष की ओर ध्यान देने
वाले आलोिकों का कहना हैं कक युगीन पररद्वस्थद्वतयााँ, युगीन िेतना और युग सत्य द्वनरं तर
पररवतणनशील हैं अतएव इन्हें आधार नहीं बनाया जा सकता। उनकी पररवतणनशीलता के कारर्
इन्हें साद्वहत्य का स्थायी मानदंर् स्वीकार ककया जा सकता। लेककन इसी के साथ यह भी सत्य है
कक ऐसी दशा में द्वनर्णयात्मक आलोिना का कोई मूलय नहीं रहेगा।
इसका मुख्य कारर् है ऐसे आलोिक का रिनाकार और रिना पर र्तवे जारी करना। यही
कारर् है कक रामिंर शुक्ल ने द्विवेदी जी के द्वविारों को, उनके संद्वित ज्ञान-राद्वश पर ध्यान
नहीं कदया और उनकी भाषा पर द्वविार ककया। ‘मोिी-मोिी बातें बहुत मोिे तौर पर’-यह
अद्वभव्यद्वक्त की प्रर्ाली पर बात की जा रही है, जो द्वनस्संदह
े भाषा है। जब द्विवेदी जी मूखण या
मोिे कदमाग़ वालों के द्वलए द्वलखते थे और मोिी तरह से द्वलखते थे तो उन्होंने भाषा पररष्कार
कै से ककया ? द्वजस लेखक को भाषा की सतही समझ होगी, वह दूसरे लेखकों की भाषा को
दुरुस्त कै से करे गा ? पुन: रामिन्र शुक्ल की बातों पर द्वविार करें -महावीर प्रसाद द्विवेदी ने
शाश्वत साद्वहत्य या स्थायी साद्वहत्य नहीं द्वलखा। उनका महत्त्व भाषा-सुधार में है और उनकी
भाषा कै सी है-मोिी अक़्लवालों के द्वलए है। इस तरह की बातों से आिायण शुक्ल का इद्वतहास
भरा हुआ है। महावीर प्रसाद द्विवेदी ने द्वहन्दी-नवरत्न की समीक्षा द्वलखते हुए द्वलखा है, ‘‘इस
तरह की बातें ककसी इद्वतहास कार के ग्रंथ में यकद पाई जाएाँ तो उसके इद्वतहास का महत्व कम
हुए द्वबना नहीं रह सकता। इद्वतहास-लेखक की भाषा तुली हुई होनी िाद्वहए। उसे बेतुकी बातें न
हााँकनी िाद्वहए। अद्वतशयोद्वक्तयााँ द्वलखना इद्वतहासकार का काम नहीं। उसे िाद्वहए कक वह प्रत्येक
शब्द और वाक्यांश के अथण को अच्छी तरह समझकर उसका प्रयोग करे ।’’
सन् 1933 ई. में आिायण द्विवेदी को नागरी प्रिाररर्ी सभा िारा अद्वभनंदन ग्रंथ भेंि ककया
गया। इसकी प्रस्तावना श्यामसुंदर दास एवं रायकृ ष्र्दास के नाम से प्रकाद्वशत हुई, ककन्तु यह
द्वलखी गई नंददुलारे वाजपेयी िारा। इसद्वलए यह 1940 ई. में प्रकाद्वशत वाजपेयी जी की पुस्तक
द्वहन्दी साद्वहत्य: बीसवीं शताब्दी में संकद्वलत है। इसमें यह द्वविार ककया गया है कक स्थायी या
शाश्वत साद्वहत्य में द्विवेदी जी का साद्वहत्य पररगद्वर्त हो सकता है या नहीं। इस दृद्विकोर् से
महावीर प्रसाद द्विवेदी िारा द्वलद्वखत संपूर्ण साद्वहत्य को अयोग्य ठहरा कदया गया। द्वसणण उनके
िारा संपाकदत सरस्वती के अंकों को ही महत्त्व कदया गया।;

You might also like