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LG_301_ch4
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मल
ू भाव- मीरााँ िे अपिे पिों में श्रीकृटर् के प्रनत अपिे अिन्य प्रेम और भष्क्त का सि
ुं र निरूपर् ककया है ।
वप्रयतम श्रीकृटर् की बााँकी छवि उिके मि-मष्स्तटक में इतिे गहरे पैठ गई है कक िे अपिे अष्स्तत्ि के बोि को
भी खो बैठी हैं। िे प्रेम की अिभ
ु नू त को साँजोए रखिा चाहती हैं और प्रेम के प्रनत समवपणत हैं। उिका उठिा, बैठिा,
सोिा, जागिा, पहििा, ओढ़िा, खािा, पीिा तर्था माि, अपमाि, राग, द्िेष सभी कुछ कृटर् के शिए है, कफर
चाहे िोक-अपिाि शमिे या पररिार और राजसत्ता की ओर से यातिाएाँ – िे अपिे प्रेम की िष्क्त से सबको परास्त
कर िे ती हैं। प्रेम के शमिि की पि
ु क, उत्साह और आिंि तर्था विरह की पीड़ा, व्याकुिता और िेििा, सभी भािों
की उन्होंिे अत्यंत सहज, सि
ुं र और सिीक अशभव्यष्क्त की है । व्यष्क्तगत जीिि-अिभ
ु िों से प्राप्त अिभ
ु नू त की
तीव्रता उिके काव्य का निजी वििेषता है ।
मुख्य ब द
िं ु
मीरााँ कहती हैं कक मैं तो धगरिर के घर जाती हूाँ, िही मेरा सच्चा वप्रयतम है और उसके रूप-सौंियण पर मग्ु ि हूाँ
अर्थाणत कृटर् के परम सौंियण िे मेरे मि में ििणि का िोभ उत्पन्ि कर दिया है । अतः मैं उसके प्रेम के
ििीभत
ू होकर। रात होते ही उसके घर जािे के शिए तत्पर हो जाती हूाँ तर्था प्रातःकाि होते ही िहााँ से उठ
शिक्षार्थी दििानििे ि
आती हूाँ।
मैं रात-दिि उसके सार्थ खेिती हूाँ तर्था हर प्रकार से उसे ररझािे तर्था प्रसन्ि करिे का प्रयत्ि करती हूाँ। अब
िह मझ ु े जो भी पहिाए मैं िही पहिाँग
ू ी तर्था जो कुछ खािे को िे , िही खा िाँ ग
ू ी|
मेरी और उिकी (श्रीकृटर् की) प्रीनत परु ािी है और मैं उिके बबिा एक पि भी िहीं रह सकती। िह जहााँ चाहे
मैं िहीं बैठ जाऊाँगी और यदि िह मझ
ु े बेचिा भी चाहें तो मैं सहषण बबक जाऊाँगी। मीरााँ कहती हैं कक धगरिर
िागर यािी श्रीकृटर् मेरे स्िामी हैं तर्था मैं बार-बार उि पर न्योछािर होती हूाँ।
मीरााँ कहती हैं कक ‘हे सखी! मैंिे तो श्रीकृटर् को मोि िे शिया है अर्थाणत ् मैंिे कृटर् के सार्थ अपिे संबि
ं का
मल्
ू य भी चुकता ककया है । तम ु कहती हो कक मैं उिसे यह संबि ं नछपकर रखती हूाँ और मैं कहती हूाँ कक मैंिे
खुिे में ढोि बजाकर श्रीकृटर् को मोि शिया है । मझ
ु े उिसे प्रेम है और मैं सािणजनिक तौर पर इस प्रेम की
घोषर्ा करती हूाँ। मीरााँ कहती हैं कक ‘हे सखी, तम
ु कहती हो कक यह सौिा महाँगा है पर मेरा माििा है कक यह
बहुत सस्ता है ; क्योंकक मैंिे यह सौिा तराजू पर तोि कर ककया है अर्थाणत मैंिे पर्
ू ण रूप से सोच–विचार कर,
जााँच-परख कर ही ऐसा ककया है और इसका जो मल्
ू य मैंिे चक
ु ाया है , िह तम्
ु हारी दृष्टि में अधिक हो सकता
है , पर मेरी दृष्टि में श्रीकृटर् को पािे के िाभ की ति
ु िा में बहुत कम है । मैंिे तो उि पर अपिा ति-मि
और जीिि सभी कुछ न्योछािर कर दिया है ।
मीरााँ कहती हैं कक हे सखी, वप्रयतम के वियोग में हमारी िींि जाती रही है , वप्रयतम की राह िे खते हुए सारी
रात व्यतीत हो गई है । हािााँकक सारी सखखयों िे शमिकर मझु े सीख िी र्थी, पर मेरे मि िे उिकी एक ि मािी
और मैंिे कृटर् से यह स्िेह संबि
ं जोड़ ही शिया। अब यह हाित है कक उन्हें िे खे बबिा मझ
ु े चैि िहीं पड़ता
और बैचेिी भी जैसे मझ
ु े अच्छी िगिे िगी है । मेरा सारा िरीर अत्यंत िब
ु िा और व्याकुि हो गया है तर्था
मेरे मख
ु पर शसफण वप्रयतम का ही िाम है । िे कहती हैं, हे सखी! मेरे विरह िे मझ
ु े जो आंतररक पीड़ा िी है, उस
पीड़ा को कोई िहीं जाि पाता। जैसे चातक बािि की ओर एक िक दृष्टि िगाए रहता है और मछिी पािी के
बबिा िहीं रह पाती, तड़पती रहती है , ठीक उसी प्रकार मैं, अपिे वप्रयतम के शिए तड़पती हूाँ। वप्रय के वियोग में
अत्यंत व्याकुि हो गई हूाँ और इस व्याकुिता में अपिी सि
ु -बि
ु भी खो बैठी हूाँ।
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सराहना पक्ष
काव्य ककसी ुँधी- ुँधाई काव्य परिं परा में नहीिं आता तर्था मीराुँ के पदों का वैलशष््य उनकी तीव्र
आत्मानभ
ु ू न त में ननहहत है ।
मीराुँ ने प्रेम के लमलन (सिंयोग) तर्था ववरह (ववयोग) दोनों पक्षों की सुिंदर अलभव्यक्क्त की है ।
श्ीकृष्ण के प्रनत अपने प्रेम में मीराुँ ककसी भी प्रकार की ाधा या यातना से ववकल नहीिं होतीिं।
लोक का भय अर्थवा पररवार की प्रताड़ना दोनों का ही वे दृढता से सामना करती हैं।
मीराुँ की रचनाएुँ ववलभन्न राग-रागननयों पर आधाररत हैं तर्था उन्होंने अनेक प्रकार के छिं दों का
प्रयोग ककया है ।
मीराुँ की भाषा राजस्र्थानी और गुजराती लमचश्त ब्रज है तर्था सरल अलभव्यक्क्त शैली उनकी प्रमुख
ववशेषता है ।
शिक्षार्थी दििानििे ि
अचधकतम अिंक कैसे पाएिं : इि पिों के अर्थण
को समझते हुए भाि-सौंियण तर्था शिल्प-
सौंियण को अपिे िब्िों में शिखा कर
अभ्यास करें ।
अपना मल्
ू यािंकन करें
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