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उसने_कहा_था_और_अन्य_कहानियाँ_चन्द्रधर_शर्मा_'गुलेरी'
उसने_कहा_था_और_अन्य_कहानियाँ_चन्द्रधर_शर्मा_'गुलेरी'
उसने_कहा_था_और_अन्य_कहानियाँ_चन्द्रधर_शर्मा_'गुलेरी'
1883–1922
च धर शमा गुलेरी
संपादक
सुरेश स लल
श ा भारती
ISBN: 978-81-7483-153-8
थम राजपाल सं करण: 2014 © राजपाल ए ड स ज़
USNE KAHA THA: AUR ANYA KAHANIYAN
by Chanderdhar Sharma Guleri
श ा भारती
मदरसा रोड, क मीरी गेट- द ली-110006
भू मका
घंटाघर
सुखमय जीवन
बु का काँटा
उसने कहा था
हीरे का हीरा
पाठशाला
साँप का वरदान
राजा क नीयत
जब गुण अवगुण बन गया
ज मा तर कथा
भूगोल
बकरे को वग
कुमारी यंकरी
याय-रथ
मह ष
ब दर
पोप का छल
याय घंट
मधु रमा
ी का व ास
जा व सलता
कण का ोध
धमपरायण रीछ
सुक या
घंटाघर
प रीयह ाउदेहने ककोे पीछे और उसके फल नकलने के पहले के दन कस बुरी तरह बीतते ह,
मालूम है ज ह उ ह गनने का अनुभव आ है। सुबह उठते ही परी ा
से आज तक कतने दन गए, यह गनते और फर ‘कहावती आठ ह ते’ म कतने दन
घटते ह, यह गनते ह। कभी-कभी उन आठ ह त पर कतने दन चढ़ गए, यह भी
गनना पड़ता है। खाने बैठे ह और डा कये के पैर क आहट आई। कलेजा मुँह को आया।
मुह ले म तार का चपरासी आया क हाथ-पाँव काँपने लगे। न जागते चैन, न सोते। सपने
म भी यह दखता है क परी क साहब एक आठ ह ते क ल बी छु री लेकर छाती पर
बैठे ए ह।
मेरा भी बुरा हाल था। एल.एल.बी. का फल अबक और भी दे र से नकलने को था।
न मालूम या हो गया था, या तो कोई परी क मर गया था या उसको लेग हो गया था।
उसके पच कसी सरे के पास भेजे जाने को थे। बार-बार यही सोचता था क प
क जाँच कए पीछे सारे परी क और र ज ार को भले ही लेग हो जाए, अभी तो दो
ह ते माफ कर। नह तो परी ा के पहले ही उन सबको लेग य न हो गया? रात-भर
न द नह आई थी, सर घूम रहा था; अखबार पढ़ने बैठा क दे खता या ँ क लनोटाइप
क मशीन ने चार-पाँच पं याँ उलट छाप द ह। बस, अब नह सहा गया—सोचा क
घर से नकल चलो; बाहर ही कुछ जी बहलेगा। लोहे का घोड़ा उठाया क चल दए।
तीन-चार मील जाने पर शा त मली। हरे-हरे खेत क हवा, कह पर च ड़य क
चहचह और कह कु पर खेत को स चते ए कसान का सुरीला गाना, कह दे वदार
के प क स धी बास और कह उनम हवा का स -स करके बजना— सबने मेरे च
को परी ा के भूत क सवारी से हटा लया। बाइ स कल भी गजब क चीज है। न दाना
माँगे, न पानी, चलाए जाइए जहाँ तक पैर म दम हो। सड़क पर कोई था ही नह , कह -
कह कसान के लड़के और गाँव के कु े पीछे लग जाते थे। मने बाइ स कल को और
भी हवा कर दया। सोचा क मेरे घर सतारपुर से प ह मील पर कालानगर है—वहाँ क
मलाई क बरफ अ छ होती है और वह मेरे एक म रहते ह; वे कुछ सनक ह। कहते
ह क जसे पहले दे ख लगे, उससे ववाह करगे। उनसे कोई ववाह क चचा करता है, तो
अपने स ा त के म डन का ा यान दे ने लग जाते ह। चलो, उ ह से सर खाली कर।
खयाल-पर-खयाल ब धने लगा। उनके ववाह का इ तहास याद आया। उनके पता
कहते थे क सेठ गनेशलाल क एकलौती बेट से अबक छु य म तु हारा याह कर
दगे। पड़ोसी कहते थे क सेठजी क लड़क कानी और मोट है और आठ ही वष क है।
पता कहते थे क लोग जलकर ऐसी बात उड़ाते ह; और लड़क वैसी हो भी तो या,
सेठजी के कोई लड़का है नह ; बीस-तीस हजार का गहना दगे। म महाशय मेरे साथ-
साथ पहले डबे टग लब म बाल- ववाह और माता- पता क ज़बरद ती पर इतने
ा यान झाड़ चुके थे क अब मारे ल जा के सा थय म मुँह नह दखाते थे। य क
पता जी के सामने च करने क ह मत नह थी। गत वचार से साधारण वचार
उठने लगे। ह -समाज ही इतना सड़ा आ है क हमारे उ च वचार कुछ चल ही नह
सकते। अकेला चना भाड़ नह फोड़ सकता। हमारे स चार एक तरह के पशु ह जनक
ब ल माता- पता क जद और हठ क वेद पर चढ़ाई जाती है। भारत का उ ार तब तक
नह हो सकता।
फस्स्स्! एकदम अश से फश पर गर पड़े। बाइ स कल क फुँक नकल गई। कभी
गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। प प साथ नह था और नीचे दे खा तो जान पड़ा क
गाँव के लड़क ने सड़क पर ही काँट क बाड़ लगाई है। उ ह भी दो गा लयाँ द , पर
उससे तो पं चर सुधरा नह । कहाँ तो भारत का उ ार हो रहा था और कहाँ अब
कालानगर तक इस चरखे को खच ले जाने क आप से कोई न तार नह दखता।
पास के मील के प थर पर दे खा क कालानगर यहाँ से सात मील है। सरे प थर के
आते-आते म बेदम हो लया था। धूप जेठ क , और कंकरीली सड़क, जसम लद ई
बैलगा ड़य क मार से छः-छः इंच श कर क -सी बारीक पसी ई सफेद म बछ
ई। काले पेटट लैदर के जूत पर एक-एक इंच सफेद पा लश चढ़ गई। लाल मुँह को
प छते-प छते माल भीग गया और मेरा सारा आकार स य व ान का-सा नह , वरन्
सड़क कूटने वाले मज र का-सा हो गया। सवा रय के हम लोग इतने गुलाम हो गए ह
क दो तीन मील चलते ही छठ का ध याद आने लगता है।
र घुनाथयाप्प्कर,साद वधा
त्त् वेद या नात् पशाद तवद यह या?
म जान है। एक ओर तो ह द का यह गौरवपूण दावा है क
इसम जैसा बोला जाता है, वैसा लखा जाता है और जैसा लखा जाता है, वैसा ही बोला
जाता है। सरी ओर ह द के कणधार का अ वगत श ाचार है क जैसे धम पदे शक
कहते ह क हमारे कहने पर चलो, हमारी करनी पर मत चलो, वैसे ही जैसे ह द के
आचाय लख, वैसे लखो, जैसे वे बोल, वैसे मत लखो, श ाचार भी कैसा? ह द
सा ह य स मेलन के सभाप त अपने ाकरण कषा यत क ठ से कह ‘पस मदास’ और
‘ह कस लाल’ और उनके प छाप ऐसी तरह क पढ़ा जाए- ‘पु षो म अ दास अ’
और ‘ह रकृ णलाल अ’! अजी जाने भी दो, बड़े-बड़े बह गए और गधा कहे कतना
पानी! कहानी कहने चले हो या दल के फफोले फोड़ने?
अ छा, जो कुम। हम लालाजी के नौकर ह, बगन के थोड़े ही ह। रघुनाथ साद
वेद अब के इ टरमी डएट परी ा म बैठा है। उसके पता दारसूरी के पहाड़ के रहने
वाले और आगरे के बुझा तया बक के मैनेजर ह। बक के द तर के पीछे चौक म उनका
तथा उनक ी का बारहमा सया मकान है। बाबू बड़े सीधे, अपने स ा त के प के
और खरे आदमी ह, जैसे पुराने ढं ग के होते ह। बक के वामी इन पर इतना भरोसा करते
ह क कभी छु नह दे ते और बाबू काम के इतने प के ह क छु माँगते नह । न बाबू
वैसे क र सनातनी ह क बना मुँह धोए ही तलक लगाकर टे शन पर दरभंगा महाराज
के वागत को जाएँ, और न ऐसे समाजी ही ह क खंजड़ी लेकर ‘तोड़ पोपगढ़ लंका का’
करने दौड़। उसूल के प के ह।
हाँ, उसूल के प के ह। सुबह एक याला चाय पीते ह तो ऐसा क जेठ म भी नह
छोड़ते और माघ म भी एक के दो नह करते। उद क दाल खाते ह, या मजाल है क
बुखार म भी मूँग क दाल का एक दाना खा जाएँ। आजकल के एम.ए., बी.ए. पासवाल
को हँसते ह क शे सपीयर और बेकन चाट जाने पर भी वे द तर के काम क अं ेज़ी
च नह लख सकते। अपने जमाने के सा थय को सराहते ह जो शे सपीयर के दो
तीन नाटक न पढ़कर सारे नाटक पढ़ते थे, ड शनरी से अं ेज़ी श द के लै टन धातु याद
करते थे। अपने गु बाबू काश बहारी मुकज क शंसा रोज करते थे क उ ह ने
‘लाय ेरी इ तहान’ पास कया था। ऐसा कोई दन ही बीतता होगा ( नगो शएबल
इ सटमे ट ऐ ट के अनुसार होने वाली तातील को मत ग नए) क जब उनके ‘लाइ ेरी
इ तहान’ का उपा यान नये बी.ए. हेड लक को उसके मन और बु क उ त के लए
उपदे श क तरह नह सुनाया जाता हो। लाट साहब ने मुकज बाबू को बंगाल-लाय ेरी म
जाकर खड़ा कर दया। राजा ह र के य म ब ल के खूंटे म ब धे ए शुनःशेप क
तरह बाबू अलमा रय क ओर दे खने लगे। लाट साहब मनचाहे जैसी अलमा रय से
मनचाहे जैसी कताब नकालकर मनचाहे जहाँ से पूछने लगे। सब अलमा रयाँ खुल ग ,
सब कताब चुक ग , लाट साहब क बाँह ख गई, पर बाबू कहते-कहते नह थके; लाट
साहब ने अपने हाथ से बाबू को एक घड़ी द और कहा क म अं ेज़ी- व ा का छलका
भर जानता ँ, तुम उसक गरी खा चुके हो। यह कथा पुराण क तरह रोज कही जाती
थी।
इन उसूल-धन बाबूजी का एक उसूल यह भी था क लड़के का ववाह छोट उमर म
नह करगे। इनक जा त म पाँच-पाँच वष क क या के पता लड़के वाल के लए वैसे
मुँह बाये रहते ह जैसे पु कर क झील म मगरम छ नहानेवाल के लए; और वे कभी-
कभी दरवाज़े पर धरना दे कर आ बैठते थे क हमारी लड़क ली जए, नह तो हम आपके
ार पर ाण दे दगे। उसूल के प के बाबूजी इनके भय से दे श ही नह जाते थे और वे
क या- पता- पी मगरम छ अपनी पहाड़ी गोह को छोड़कर आगरे आकर बाबूजी क
न ा को भंग करते थे। रघुनाथ क माता को सास बनने का बड़ा चाव था। जहाँ वह कुछ
कहना आर भ करती क बाबूजी बक क लेजर-बुक खोलकर बैठ जाते या लकड़ी
उठाकर घूमने चल दे त।े बहस करके य से आज तक कोई नह जीता, पर म मारकर
जीत सकता है।
बाबू के पड़ोस म एक ववाह आ था। उस घर क माल कन लाहना बाँटती ई
रघुनाथ क माँ के पास आई। रघुनाथ क माँ ने नई ब को असीस द और वयं मठाई
रखने तथा ब क गोद म भरने के लए कुछ मेवा लाने भीतर गई। इधर मुह ले क वृ ा
ने कहा, “प ह बरस हो गए लाहना लेते-लेते। आज तक एक बतासा भी इनके यहाँ से
नह मला।” सरी वृ ा, जो तीन बड़ी और दो छोट पतो क सेवा से इतनी सुखी
थी क रोज मृ यु को बुलाया करती थी, बोली, “बड़े भाग से बेट का याह होता है।”
तीसरी ने नाक क झुलनी हलाकर कहा, “अपना खाने-पहनने का लोभ कोई छोड़े
तब तो बेटे क ब लावे। ब के आते ही खाने-पहनने म कमी जो हो जाती है”। चौथी ने
कहा—”ऐसे कमाने खाने को आग लगे। य तो कु े भी अपना पेट भर लेते ह। कमाई
सफल करने का यही तो मौका होता है। इसके प त ने चार बेट के ववाह म मकान और
जमीन गरवी रख दए थे और कम-से-कम अपने जीवन-भर के लए कंगाली का क बल
ओढ़ लया था।”
अव य ही ये सब बात रघुनाथ क माँ को सुनाने के लए कही गई थ । रघुनाथ क माँ
भी जानती थी क ये मुझे सुनाने को कही जा रही ह, पर तु उसके आते ही मुह ले क
एक और ही ी क न दा चल पड़ी और रघुनाथ क माँ यह जानकर भी क उस ी के
पास जाते ही मेरी भी ऐसी न दा क जाएगी, हँसते-हँसते उनक बात म स म त दे ने लग
गई। पतो से सु खनी बु ढ़या ने एक ह के-से अनुदा से कहा, “अब तुम रघुनाथ का
याह इस साल तो करोगी?” उसके चाचा जान, गहने तो बनवा रहे ह।” रघुनाथ क माँ ने
भी वैसे ही ह के उदा से उ र दया। उसके अनुदा को यह समझ गई और इसके
उदा को वे सब। वर का वचार ह तान के मद क भाषा म भले ही न रहा हो,
य क भाषा म उससे अब भी कई अथ काश कए जाते ह।
“म तु ह सलाह दे ती ँ क ज द रघुनाथ का याह कर लो। कलयुग के दन ह,
लड़का बो डग म रहता है, बगड़ जाएगा। आगे तु हारी मज , य बहन, सच है न? तू
य नह बोलती?”
“म या क ँ, मेरे रघुनाथ का-सा बेटा होता तो अब तक पोता खलाती।” य और
दो-चार बात करके यह ी-दल चला गया और गृ हणी के दय-समु को कई वचार
क लहर से छलकता छोड़ गया।
सायंकाल भोजन करते समय बाबू बोले, “इन ग मय म रघुनाथ का याह कर दगे।”
ी ने पहले ही लेजर और छड़ी छपाकर ठान ली थी क आज बाबूजी को दबाऊँगी
क पड़ो सय क बो लयाँ नह सही जात । अचानक रंग पहले चढ़ गया। पूछने लगी, “ह,
आज यह कैसे सूझी?”
“दारसूरी से भैया क च आई है। ब त कुछ बात लखी ह। कहा है क तुम तो
परदे शी हो गए। यहाँ चार महीने बाद वृह प त सह थ हो जाएगा; फर डेढ़-दो वष तक
याह नह ह गे। इस लए छोट -छोट ब चय के याह हो रहे ह, वृह प त के सह के पेट
म प ँचने के पहले कोई चार-पाँच वष क लड़क कुँवारी नह बचेगी। फर जब वृह प त
कह शेर क दाढ़ म से जीता-जागता नकल आया तो न बराबर का घर मलेगा, न जोड़
क लड़क । तु ह या है, गाँव म बदनाम तो हम हो रहे ह। मने अभी दो-तीन घर रोक रखे
ह। तुम जानो, अब के मेरा कहना न मानोगे तो म तुमसे ज म-भर बोलने का नह ।”
“भैया ठ क तो कहते ह।”
“म भी मानता ँ क अब लड़के का उ ीसवां वष है। अब इ टरमी डएट पास हो ही
जाएगा। अब हमारी नह चलेगी, दे वर-भौजाई जैसा नचाएंग,े वैसा ही नाचना पड़ेगा। अब
तक मेरी चली, यही ब त आ।”
“भैया क कहो, मेरा कहना तो पाँच वष से जो मान रहे हो”
“अ छा, अब जदो मत। मने दो महीने क छु ली है। छु मलते ही दे श चलते ह।
ब चा को लख दया है क इ तहान दे कर सीधा घर चला आ। दस-प ह दन म आ
जाएगा। तब तक हम घर भी ठ क कर ल और दन भी। अब तुम आगरे ब को लेकर
आओगी।”
ी ने सोचा, बताशेवाली बु ढ़या का उलाहना तो मटे गा।
“बा’ छा’ मेरे हाल म आपका या जी लगेगा? गरीब का या हाल? रब रोट दे ता है,
दन-भर मेहनत करता ँ, रात पड़ा रहता ँ। बा’छा, तुम जैसे सा लोक क बरकत से
म हज कर आया, वाजा का उस दे ख आया, तीन बेले नमाज पढ़ लेता ँ, और मुझे या
चा हए? बा’छा, मेरा काम ट चलाना नह है। अब तो इस मोती क कमाई खाता ,ँ
कभी सवार ले जाता ,ँ कभी लादा, ढाई मण कणक पा लेता ँ, तो दो पौली बच जाती
है। रब क मरजी, मेरा अपना घर था; सह के व क काफ़ ज़मीन थी, नाते-पडो सय
म मेरा नाम था। म धामपुर के नवाब का खाना बनाता था और मेरे घर म से उसके जनाने
म पकाती थी। एक रात को म खाना बना- खला के अपनी मंजड़ी पर सोया था क मेरे
मौला ने मुझे आवाज़ द , ‘लाही, लाही’ हज कर आ।’ म आँख मल के खड़ा हो गया, पर
कुछ दखा नह । फर सोने लगा क फर वही आवाज़ आई क ‘लाही, तू मेरी पुकार नह
सुनता? जा, हज कर आ।’ म समझा, मेरा मौला मुझे बुलाता है। फर आवाज़ आई,
‘लाही, चल पड़; म तेरे नाल ँ, म तेरा बेड़ा पार क ँ गा। मुझसे रहा नह गया। मने
अपना क बल उठाया और आधी रात को चल पड़ा। बा’छा, म रात चला, दन चला,
भीख माँगकर चलते-चलते ब बई प ँचा। वहाँ मेरे प ले टका नह था, पर एक ह भाई
ने मुझे टकट ले दया। का फ़ले के साथ म जहाज पर चढ़ गया। वह मुझे छः महीने
लगे। पूरी हज क । जब लौटे तो रा ते म जहाज भटक गया। एक च ान पानी के नीचे थी,
उससे टकरा गया। उसके पीछे क दोन लालटे न ऊपर आ ग और वे हम शैतान क -सी
आँख दखाई दे ने लग । सबने समझा मर जायगे, पानी म गोर बनेगी। क तान ने छोट
क तयाँ खोल और उनम हा जय को बठाकर छोड़ दया। मद का ब चा आप अपनी
जगह से नह टला, जहाज के नाल डू ब गया। अंधेरे म कुछ सूझता नह था। सवेरा होते
ही हमने दे खा क दो क तयाँ बह रही ह और न जहाज है, न सरी क तयाँ। पता ही
नह , हम कहाँ से कधर जा रहे थे। लहर हमारी क तय को उछालती, नचाती, डु बोती,
झकोड़ती थ । जो ल हा बीतता था, हम खैर मनाते थे। पर मेरे मा लक ने करम कया।
मेरे अ लाह ने, मेरे मौला ने जैसे उस रात को कहा था, मेरा बेड़ा पार कया। तीन दन,
तीन रात हम बेपते बहते रहे, चौथे दन माल के जहाज ने हमको उठा लया और छठे दन
कराची म हमने आ क नमाज पढ़ । पीछे सुना क तीन सौ हाजी मर गए।
“वहाँ से म वाजा क जयारत को चला, अजमेर शरीफ़ म दरगाह का द दार पाया।
इस तरह बा’छा, साढ़े सात महीने पीछे म घर आया। आकर घर दे खता या ँ क सब
पटरा हो गया है। नवाब जब सबेरे उठा तो उसने ना ता माँगा। नौकर ने कहा क इलाही
का पता नह । बस, वह जल गया। उसने मेरा घर फुंकवा दया, मेरी जमीन अपनी
रखवाले के भाई को दे द और मेरी बीवी को ल डी बनाकर कैद कर लया। म उसका
या ले गया था, अपना क बल ले गया था। और पछले तीन महीने क तलब अपनी पेट
म उसके बावच खाने म रख गया था। भला, मेरा मौला बुलावे और म न जाऊँ? पर
उसको जो एक घ टा दे र से खाना मला, इससे बढ़कर और गुनाह या होता?
“इसके प हव दन जनाने म एक सोने क अंगूठ खो गई। नबाव ने मेरी घरवाली
पर शक कया। उसने पूछा तो वह बोली क मेरा कौन-सा घर और घरवाला बैठा है क
उसके पास अंगूठ ले जाऊँगी। म तो यह रहती ँ। सीधी बात थी, पर उससे सुनी नह
गई। जला-भूना तो था ही, बत लेकर लगा मारने। बा’छा, म या क ,ँ मौला मेरा गुनाह
ब शे, आज पाँच बरस हो गए ह, पर जब म घरवाली क पीठ पर पचास दाग क
गु छयाँ दे खता ँ, तो यही पछतावा रहता है क रब ने उस सूर का (तोबा! तोबा!) गला
घ टने को यहाँ य न रखा। मारते-मारते जब मेरी घरवाली बेहोश हो गई तब डरकर उसे
गाँव के बाहर फकवा दया। तीसरे दन वह वहाँ से घसटती- घसटती चलकर अपने भाई
के यहाँ प ँची।”
रघुनाथ ने धे गले से कहा, “तुमने फ रयाद नह क ?”
“कचह रयाँ गरीब के लए नह ह बा’छा, वे तो सेठ के लए ह। गरीब क फ रयाद
सुननेवाला सुनता है। उसने प ह दन म सुनकर कुम भी दे दया। मेरी औरत को
मारते-मारते उस पाजी के हाथ क अंगुली म बत क एक सली चुभ गई थी। वही पक
गई। ल म ज़हर हो गया। प हव दन मर गया। हज से आकर मने सारा हाल सुना।
अपने जले ए घर को दे खा और अपने परदादे क सह क काफ ज़मीन को भी दे खा।
चला आया। म जद म जाकर रोया। मेरे मौला ने मुझे कुम दया, ‘लाही, म तेरे नाल ,ँ
अपनी जो को धीरज दे !’ म साले के यहाँ प ँचा। उसने पचीस पये दए, म ट मोल
लेकर पहाड़ चला आया और यहाँ रब का नाम लेता ँ और आप जैसे सा लोग क
ब दगी करता ँ। रब का नाम बड़ा है।”
रघुनाथ इ तहान दे कर रेल से घराठनी तक आया। वहाँ तीस मील पहाड़ी रा ता था।
री पर चूने के-से ढे र चमकते दखने लगे, जो कभी न पघलने वाली बफ के पहाड़ थे।
रा ता सांप क तरह च कर खाता था। मालूम होता क एक घाट पूरी हो गई है, पर
य ही मोड़ पर आते, य ही उसक जड़ म एक और आधी मील का च कर नकल
पड़ता। एक ओर ऊँचा पहाड़, सरी ओर ढाई सौ फुट गहरी ख । और कराये के
ट टु क लत क सड़क के छोर पर चल जससे सवार क एक टाँग तो ख पर ही
लटकती रहे। आगे वैसा ही रा ता, वैसी ही ख , सामने वैसे ही कोने पर चलने वाले ट ।
जब धूप बढ़ और जी न लगा तो मोती के वामी इलाही से रघुनाथ ने उसका इ तहास
पूछा। उसने जो सीधी और व ास से भरी, ःख क धारा से भीगी ई कथा कही,
उससे कुछ माग कट गया। कतने गरीब का इ तहास ऐसी च घटना क धूप-छाया
से भरा आ है, पर हम लोग कृ त के इन स चे च को न दे खकर उप यास क
मृगतृ णा म चम कार ढूँ ढते ह।
धूप चढ़ गई थी क वे एक गाँव म प ँचे। गाँव के बाहर सड़क के सहारे एक कुआँ था
और उसी के पास एक पेड़ के नीचे इलाही ने वयं और अपने मोती के लए व ाम करने
का ताव कया, “घोड़े को हारी दे कर और पानी-वानी पीकर धूप ढलते ही चल दगे
और बात क बात म आपको घर प ँचा दगे।” रघुनाथ को भी टाँग सीधी करने म कोई
उ न था। खाने क इ छा ब कुल न थी। हाँ, यास लग रही थी। रघुनाथ अपने ब से म
से लोटा डोर नकालकर कुएँ क तरफ चला।
ब ड़ेऔर-बड़ेकानशहरपककगएे इ हकउनसे
े -गाड़ी वाल क जबान के कोड़ से जनक पीठ छल गई है
हमारी ाथना है क अमृतसर म ब बूकाट वाल क बोली
का मरहम लगाव, जब क बड़े शहर क चौड़ी सड़क पर घोड़े क पीठ को चाबुक से
धुनते ए इ के वाले कभी घोड़े क नानी से अपना नकट यौन संबंध थर करते ह,
कभी उसके गु त गु अंग से डॉ टर को लजाने वाला प रचय दखाते ह, कभी राह
चलते पैदल क आँख के न होने पर तरस खाते ह, कभी उनके पैर क अंगु लय के
पोर को च थकर अपने ही को सताया आ बताते ह और संसार भर क ला न, नराशा
और ोभ के अवतार बने नाक क सीध चले जाते ह। तब अमृतसर म उनक बरादरी
वाले, तंग, च करदार ग लय म, हर एक ल ी वाले के लए ठहरकर, स का समु
उमड़ा कर, ‘बचो, खालसा जी’, ‘हटो भाई जी’, ‘ठहरना माई’, ‘आने दो लाला जी’,
‘हटो बा’छा’ कहते ए सफेद फट , ख चर और ब क , ग े और खोमचे और भारे
वाल के जंगल म से राह लेते ह। या मजाल है क जी और साहब बना सुने कसी को
हटना पड़े। यह बात नह क उनक जीभ चलती ही नह , चलती है, पर मीठ छु री क
तरह महीन मार करती ई। य द कोई बु ढ़या बार-बार चतौनी दे ने पर भी लीक से नह
हटती तो उनक बचनावली के ये नमूने ह हट जा, जीणे जो गए; हट जा करमां बा लए;
हट जा, पु ां या रए; बच जा, लंबी वा लए। सम म इसका अथ है क तू जीने यो य है,
तू भा य वाली है, पु को यारी है? ल बी उमर तेरे सामने है, तू य मेरे प हय के नीचे
आना चाहती है? बच जा।
ऐसे ब बूकाट वाल के बीच म होकर एक लड़का और एक लड़क चौक क एक
कान पर आ मले। उसके बाल और इसके ढ ले सुथने से जान पड़ता था क दोन
सख ह। वह अपने मामा के केश धोने के लए दही लेने आया था और यह रसोई के लए
ब ड़यां। कानदार एक परदे शी से गुंथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ क ग ी को गने
बना हटता न था।
“तेरे घर कहाँ ह?”
“मगरे म, और तेरे?”
‘मांझे म, …यहाँ कहाँ रहती है?’
“अतर सह क बैठक म, वह मेरे मामा होते ह।”
“म भी मामा के आया ,ँ उनका घर गु बाज़ार म है।”
इतने म कानदार नबटा और इनका सौदा दे ने लगा। सौदा लेकर दोन साथ-साथ
चले। कुछ र जाकर लड़के ने मु कराकर कर पूछा, “तेरी कुड़माई हो गई?” इस पर
लड़क कुछ आँख चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह दे खता रह गया।
सरे-तीसरे दन स जी वाले के यहाँ, या ध वाले के यहाँ, अक मात् दोन मल
जाते। महीना भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फर पूछा, “तेरी कुड़माई हो
गई?” और उ र म वही ‘धत्’ मला। एक दन जब फर लड़के ने वैसे ही हँसी म चढ़ाने
के लए पूछा तो लड़क , लड़के क स भावना के व बोली, “हाँ, हो गई।”
“कब?”
“कल,- दे खते नह यह रेशम से कढ़ा आ सालू!” लड़क भाग गई। लड़के ने घर
क सीध ली। रा ते म एक लड़के को मोरी म ढकेल दया, एक छाबड़ी वाले क दन भर
क कमाई खोई, एक कु े को प थर मारा और एक गोभी वाले के ठे ले म ध उड़ेल
दया। सामने नहाकर आती ई कसी वै णवी से टकराकर अ धे क उपा ध पाई। तब
कह घर प ँचा।
दो पहर रात गई है। अ धेरा है। सुनसान मची ई है। बोधा सह तीन खाली ब कुट के
टन पर अपने दोन क बल बछाकर और लहना सह के दो क बल और एक बरानकोट
ओढ़कर सो रहा है। लहना सह पहरे पर खड़ा आ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और
एक बोधा सह के बले शरीर पर। बोधा सह कराहा।
“ य बोधा भाई, या है?’
“पानी पला दो।”
लहना सह ने कटोरा उसके मुँह से लगाकर पूछा, “कहो कैसे हो?” पानी पीकर बोधा
बोला, “कँपनी छू ट रही है। रोम-रोम म तार दौड़ रहे ह। दाँत बज रहे ह।”
“अ छा, मेरी जरसी पहन लो।”
“और तुम?”
“मेरे पास सगड़ी है और मुझे गम लगती है; पसीना आ रहा है।”
“ना, म नह पहनता, चार दन से तुम मेरे लए…”
“हाँ, याद आई। मेरे पास सरी गरम जरसी है। आज सवेरे ही आई है। वलायत से
मेम बुन-बुनकर भेज रही ह। गु उनका भला करे।” य कहकर लहना अपना कोट
उतारकर जरसी उतारने लगा।
“सच कहते हो?”
“और नह झूठ?” य नाँह कहकर करते बोधा को उसने जबरद ती जरसी पहना द
और आप खाक कोट और जीन का कुरता भर पहनकर पहरे पर आ खड़ा आ। मेम क
जरसी क कथा केवल कथा थी।
आधा घ टा बीता। इतने म खाई के मुँह से आवाज़ आई- “सूबेदार हजारा सह!”
“कौन? लपटन साहब? कुम ज़ूर!” कहकर सूबेदार तनकर फौजी सलाम करके
सामने आ।
“दे खो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर क री पर पूव के कोने म एक जमन
खाई है। उसम पचास से यादा जमन नह ह। इन पेड़ के नीचे-नीचे दो खेत काटकर
रा ता है। तीन-चार घुमाव ह। जहाँ मोड़ है, “वहाँ प ह जवान खड़े कर आया ँ। तुम
यहाँ दस आदमी छोड़कर सबको साथ ले उनसे जा मलो। ख दक छ न कर वह , जब
तक सरा म न मले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।”
“जो म।”
चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी क बल उतारकर चलने लगा। तब लहना सह ने
उसे रोका। लहना सह आगे आ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा क ओर
इशारा कया। लहना सह समझकर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रह, इस पर बड़ी
जत ई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने माच कया। लपटन
साहब लहना क सगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सगरेट नकाल
कर सुलगाने लगे। दस मनट बाद उसने लहना क ओर हाथ बढ़ाकर कहा,
“लो तुम भी पयो।”
आँख पलकत पलकते लहना सह सब समझ गया। मुँह का भाव छपाकर बोला,
“लाओ, साहब।” हाथ आगे करते! उसने सगड़ी के उजास म साहब का मुँह दे खा। बाल
दे ख।े माथा ठनका। लपटन साहब के प य वाले बाल एक दन म कहाँ उड़ गए और
उनक जगह कै दय के से कटे ए बाल कहाँ से आ गए?
शायद साहब शराब पए ए है और उ ह बाल कटवाने का मौका मल गया है?
लहना सह ने जांचना चाहा। लपटन साहब पांच वष से उसक रे जमट म रहे थे।
“ य साहब, हम लोग ह तान कब जाएँग? े ”
“लड़ाई ख म होने पर। य , यह दे श पस द नह ?”
“नह साहब, वह शकार के वे मजे यहाँ कहाँ?” याद है, पारसाल नकली लड़ाई के
पीछे हम-आप जगाधरी के जले म शकार करने गए थे। “हाँ, हाँ”
“वही जब आप खोते पर सवार थे और आपका खानसामा अब ला रा ते के एक
म दर म जल चढ़ाने को रह गया था?”
“बेशक, पाजी कह का…”
“सामने से वह नील गाय नकली क ऐसी बड़ी मने कभी न दे खी। और आपक एक
गोली क धे म लगी और पु े म नकली। ऐसे अफसर के साथ शकार खेलने म मज़ा है।
य साहब, शमले से तैयार होकर उस नील गाय का सर आ गया था न? आपने कहा
था क रे जमट क मैस म लगाएंगे।” “हाँ, पर मने वह वलायत भेज दया…”
“ऐसे बड़े स ग! दो-दो फुट के तो ह गे?”
“हाँ, लहना सह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सगरेट नह पया?”
“पीता ँ साहब, दयासलाई ले आता ”ँ , कहकर लहना सह ख दक म घुसा। अब
उसे स दे ह नह रहा था। उसने झटपट वचार लया क या करना चा हए।
अ धेरे म कसी सोनेवाले से वह टकराया।
“कौन? वजीरा सह?”
“हाँ? य लहना? या, कयामत आ गई? ज़रा तो आँख लगने द होती!”
लहना सह बारह वष का है। अमृतसर म मामा के यहाँ आया आ है। दही वाले के यहाँ,
स जीवाले के यहाँ, हर कह , उसे एक आठ वष क लड़क मल जाती है। जब वह
पूछता है क “तेरी कुड़माई हो गई?” वो ‘धत्’ कहकर वह भाग जाती है। एक दन उसने
वैसे ही पूछा तो उसने कहा, “हाँ, कल हो गई, दे खते नह यह रेशम के फूल वाला
सालू?” सुनते ही लहना सह को ःख आ। ोध आ। य आ?
“वजीर सह, पानी पला दे ”।
व चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है, “मने तेरे को आते ही पहचान लया। एक काम
कहती ।ँ मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहा री का खताब दया है, लायलपुर म
ज़मीन द है, आज नमकहलाली को मौका आया है। पर सरकार ने हम ती मय क एक
घँघ रया पलटन य न बना द , जो म भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है।
फ़ौज मे भरती ए उसे एक ही बरस आ। उसके पीछे चार ए, पर एक भी नह
जया।” सूबेदारनी रोने लगी। “अब दोन जाते ह। मेरे भाग! तु ह याद है, एक दन तांगे
वाले का घोड़ा दही वाले क कान के पास बगड़ गया था। तुमने उस दन मेरे ाण
बचाए थे। आप घोड़ क लात म चले गए थे और मुझे उठाकर कान के त ते पर खड़ा
कर दया था। ऐसे ही इन दोन को बचाना। यह मेरी भ ा है। तु हारे आगे म आँचल
पसारती ँ।”
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी म चली गई। लहना भी आँसू प छता आ बाहर आया।
“वजीरा सह, पानी पला”
“उसने कहा था”
लहना का सर अपनी गोद तर लटाए वजीरा सह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी
पला दे ता है। आधे घंटे तक लहना गुम रहा, फर बोला,
“कौन? क रत सह?”
वजीरा ने कुछ समझकर कहा, “हाँ”।
“भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने प पर मेरा सर रख ले।”
वजीरा ने वैसा ही कया।
“हाँ, अब ठ क है। पानी पला दे । बस! अब के हाड़ म यह आम खूब फलेगा। चाचा-
भतीजा दोन यह बैठकर आम खाना। जतना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही यह आम है।
जस महीने उसका ज म आ था उसी महीने म मने इसे लगाया था।”
वजीरा सह के आंसू टप-टप पड़ रहे थे।
कुछ दन पीछे लोग ने अख़बार म पढ़ा: ांस और बे जयम, 68व सूची, मैदान म
घाव से मरा, नं. 77 सख राइफ स जमादार—लहना सह।
[ थम काशन: सर वती: जून, 1915]
हीरे का हीरा
ए कअ यापक
पाठशाला का वा षको सव था। म भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के धान
का एकमा पु , जसक अव था आठ वष क थी, बड़े लाड़ से नुमाइश
म म टर हाद के को क तरह दखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँख सफेद
थ, भू म से उठती नह थी। पूछे जा रहे थे। उनका वह उ र दे रहा था। धम के
दस ल ण सुना गया, नौ रस के उदाहरण दे गया। पानी के चार ड ी के नीचे शीतलता
म फैल जाने के कारण और उससे मछ लय क ाण-र ा को समझा गया, च हण का
वै ा नक समाधान दे गया, अभाव को पदाथ मानने, न मानने का शा ाथ कर गया और
इं लै ड के राजा आठव हेनरी क य के नाम और पेशवा का कुस नामा सुना गया।
यह पूछा गया क तू या करेगा? बालक ने सखा- सखाया उ र दया क म
याव ज म लोकसेवा क ँ गा। सभा ‘वाह-वाह’ करती सुन रही थी, पता का दय
उ लास से भर रहा था।
एक वृ महाशय ने उसके सर पर हाथ फेरकर आशीवाद दया और कहा क तू जो
इनाम माँगे, वह दगे। बालक कुछ सोचने लगा। पता और अ यापक इस च ता म लगे
क दे ख, यह पढ़ाई का पुतला कौन-सी पु तक माँगता है।
बालक के मुख पर वल ण रंग का प रवतन हो रहा था, दय म कृ म और
वाभा वक भाव क लड़ाई क झलक आँख म द ख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ
कर नकली परदे के हट जाने से वयं व मत होकर बालकर ने धीरे से कहा, ‘ल ’।
पता और अ यापक नराश हो गए। इतने समय तक मेरा ास घुट रहा था। अब मने
सुख क साँस भरी। उन सबने बालक क वृ य का गला घ टने म कुछ उठा नह रखा
था, पर बालक बच गया। उसके बचने क आशा है, य क ‘ल ’ क वह पुकार जी वत
वृ के हरे प का मधुर ममर था, मरे काठ क अलमारी क सर खानेवाली
खड़खड़ाहट नह ।
(1914)
साँप का वरदान
ए कयहबकहता
पशु-प य का भाषा जानती थी। (एक दन) आधी रात को (एक) ृगाल को
सुनकर क ‘नद का मुदा मुझे दे दे और उसके गहने ले ले’। (वह) नद पर
वैसा (ही) करने गयी।
लौटती बार (उसके) सुर ने (उसे) दे ख लया। जाना (या समझा) क यह अ-सती
(च र हीन) है। (अतः) वह उसे उसके पीहर प ँचाने ले चला।
माग म (एक) कहीर के पेड़ के पास से (एक) कौआ कहने लगा क इस पेड़ के नीचे
दस लाख क न ध (खजाना) है। (उसे) नकाल ले और मुझे दही-स ू खला।
अपनी व ा से ख पायी वह कहती है—”मने जो एक (गलत काय) कया, उससे
घर से नकाली जा रही ।ँ अब य द सरा क ँ गी, तो कभी भी अपने य से नह मल
सकूँगी, अथात् मार द जाऊँगी।”
(1921)
ज मा तर कथा
ए कउसकक हलसहला
नामक कबाड़ी था, जो काठ क कावड़ कँधे पर लए- लए फरता था।
नामक ी थी। उसने प त से कहा क दे वा धदे व युगा ददे व क पूजा
करो, जनसे (हम) ज मा तर म दा र य- ख न पाव।
प त ने कहा—“तू धम-गहली ई है: (अथात् धम के फेर म बक रही है), पर—सेवक
म (भला) या कर सकता ँ?”
तब ी ने नद -जल और फूल से पूजा क ।
उसी दन वह वषू चका (हैजा) से मर गयी और ज मा तर म राजक या और
राजप नी ई।
अपने नये प त के साथ उसी (एक) दन म दर म आयी तो उसी पूव-प त द र
कबा ड़ए को वहाँ दे खकर मू छत हो गयी। उसी समय जा त मर होकर (पूव ज म को
यादकर) उसने एक दोहे म कहा—”जंगल क प ी और नद का जल सुलभ था, तो भी
तू नह लाया। हाय, तेरे तन पर (साबुत) कपड़ा भी नह है और म रानी हो गई।”
कबाड़ी ने वीकार करके ज मा तर कथा क पु क ।
(1921)
भूगोल
ए कलगा।श कहने
क को अपने इ पे टर के दौरे का भय आ और वह लास को भूगोल रटाने
लगा क पृ वी गोल है। य द इ पे टर पूछे क पृ वी का आकार कैसा है
और तु ह याद न हो, तो म सुँघनी क ड बया दखाऊँगा। उसे दे खकर उ र दे ना।
गु जी क ड बया गोल थी।
इ पे टर ने आकर वही एक व ाथ से कया। उसने बड़ी उ कंठा से गु क
ओर दे खा। गु ने जेब से चौकोर ड बया नकाली। भूल से सरी (गोल क बजाय
चौकोर) ड बया नकल आयी थी।
लड़का बोला, “बुधवार को पृ वी चौकोर होती है और बाक सब दन गोल।” (उस
दन बुधवार था)।
(1914)
ए कगे आ
बार दो बंगाली स जन सैक ड लास म क मीर जा रहे थे। एक के चरण म
बूट, दे ह म (पर) रेशमी क बल और मुँह (चेहरे) पर चकनी दाढ़ दे ख एक
या ी ने पूछा, “आपका नाम या है?” पास के धा मक मुसाहब ने तपाक से उ र दया
—“मह ष अमुकान द सर वती”, और पूछने वाले का नाम पूछा। उसने ग भीरता से
कहा, ‘अश तमुक’। ‘अश का या अथ है?’ यह पूछने पर उ र मला क मुझे अश
रोग है, अतएव म अश आ। तीन-चार मास म रोग बढ़ जाने पर ‘महश ’ कहलाऊँगा।
(1904)
अश का जो अथ यहाँ दया गया है वह सं कृत से नकले ‘अश’ श द का है। उ म
‘अश’ श द का अथ ‘ सहासन’ अथवा ‘आसमान’ होता है। इस तरह अश का मतलब
आ ‘उ चासीन’। श ाचार के अनुसार चूँ क कसी को अपना नाम बताते ए
शु का बड़ पन। यह वशेषण नह बताना चा हए, अतः यहाँ ‘मह ष’ श द पर ं य
कया गया है।—स पादक
ब दर
◌े त(अथात्
समु के पास कसी नगर के वासी बड़े वलासी और आलसी थे। परमे र
खुदा) ने उ ह धम पदे श करने को हज़रत मूसा को भेजा। मूसा ने बड़ी
ग भीरता से उ ह अपने स ा त समझाए और धम पदे श दया। उन महाशय ने मूसा क
ओर मुँह चढ़ाया और उनके भाषण को सुन कर ज हाइयाँ ल और दाँत नकाल मूसा को
प सुना दया क हम तु हारी ज रत नह है। मूसा ने अपना रा ता लया। (उसके बाद)
वे सब ( ेत जा त के) मनु य ब दर हो गए।
अब वे जगत क ओर मज़े म मुँह चढ़ाते ह और चढ़ाते ही रहगे।
(1904)
इस वृ ा त म मूढ़ और सा दा यक भावना से त लोग पर कटा कया गया है।
—स पादक
पोप का छल
त◌ै लंम ग ीदेश ाकदे राजा तैलप क छे ड़छाड़ पर मुँज ने उस पर चढ़ाई क । (मुंज के)
य ने मुंज को रोका और समझाया क गोदावरी के उस पार न जाना।
क तु मुंज तैलप को छह बार हरा चुका था, इस लए उसने म ी क सलाह क उपे ा।
ा द य ने राजा का भावी अ न समझ और अपने को असमथ जान चता म
जलकर ाण दे दए।
गोदावरी के पार मुंज क सेना छल-बल से काट गई और तैलप मुंज को मूंज क
र सी से बाँधकर, ब द बनाकर ले गया। वहाँ उसे लकड़ी के पजड़े म कैद (करके) रखा
(गया)।
(इसी बीच) तैलप क बहन मृणालवती से मुंज का ेम हो गया।
एक दन मुंज काँच (दपण) म मुँह दे ख रहा था क मृणालवती पीछे से आ खड़ी ई।
मुंज के यौवन और अपनी अधेड़ उमर के वचार से उसके चेहरे पर लानता आ गई।
यह दे खकर मुंज कहता हैः “हे मृणालवती, गए ए यौवन का सोच मत कर! य द
श कर (या म ी) के सौ टु कड़े हो जाए, तो वह चूण क ई (श कर या म ी) भी मीठ
होती है।”
(1921)
व लाल-र चत ‘भोज ब ध’ के अनुसार, मुंज धारानगरी के राजा का भाई था।
धारानगरी का राजा जब मरा तो उसका पु भोजदे व ब त छोटा था। मुंज राजग
ह थयाना चाहता था। इस लए उसने अपने राजकुमार भतीजे को एक व धक या ज लाद
के हवाले कया, क वह उसे वन म ले जाकर मार द। व धक को राजकुमार पर दया आ
गई। उसने उसे नह मारा और मुंज से झूठमूठ कह दया क राजकुमार भोज मारा गया।
आगे चलकर भोज धारानगरी का लापी राजा बना।—स पादक
ी का व ास
स◌ा यंदेखकालअपनेआ-अपने
ही चाहता है। जस कार प ी अपना आराम का समय आया
खोत का सहारा ले रहे ह उसी कार ह ापद भी अपनी
अ ाहत ग त समझकर क दरा से नकलने लगे ह। भगवान सूय कृ त को अपना
मुख फर एक बार दखाकर न ा के लए करवट लेने वाले ही थे क सारी अर यानी
‘मारा है, बचाओ, मारा है’ क कातर व न से पूण हो गई। मालूम आ क एक ाध
हाँफता आ सरपट दौड़ रहा है और ायः दो सौ गज क री पर एक भीषण सह लाल
आँख, सीधी पूँछ और खड़ी जटा दखाता आ तीर क तरह पीछे आ रहा है। ाध क
ढ ली धोती ायः गर गई है, धनुष-बाण बड़ी सफाई के साथ हाथ से युत हो गए ह, नंगे
सर बेचारा शी ता ही को परमे र समझता आ दौड़ रहा है। उसी का यह कातर वर
था।
यह अर य भगवती ज तनया और पूजनीया क ल दन दनी के प व संगम के
समीप व मान है। अभी तक यहाँ उन वाथ मनु य पी नशाचर का वेश नह आ
था, जो अपनी वासना क पू त के लए आव यक से चौगुना-पंचगुना पाकर भी झगड़ा
करते ह, पर तु वे पशु यहाँ नवास करते थे, जो शा तपूवक सम त अर य को बाँटकर
अपना-अपना भा य आजमाते ए न केवल धम वजी पु ष क तरह श ोदर-परायण
ही थे, युत अपने परमा मा का मरण करके अपनी नकृ यो न को उ त भी कर रहे
थे। ाध, अपने वभाव के अनुसार, यहाँ भी उप व मचाने आया था। उसने बंग दे श म
रो और झलसा मछ लय और ‘हासेर डम’ को नवश कर दया था, ब बई के ककड़े
और कछु को वह आ मसात कर चुका था और या कह, मथुरा, वृ दावन के प व
तीथ तक म वह वकवृ और वडाल त दखा चुका था। यहाँ पर सह के कोपन
बदना न म उसके ाय त का होम होना ही चाहता है। भागने म नपुण होने पर भी
मोट त द उसे ब त कुछ बाधा दे रही है। सह म और उसम अब ायः बीस-तीस गज का
ही अ तर रह गया और उसे पीठ पर सह का उ ण नः ास मालूम-सा दे ने लगा। इस
क ठन सम या म उसे सामने एक बड़ा भारी पेड़ द ख पड़ा। अपचीयमान श पर
अ तम कोड़ा मारकर वह उस वृ पर चढ़ने लगा और पचास प ी उसक प र चत
डरावनी मू त को पहचानकर अमंगल समझकर ा ह- ा ह वर के साथ भागने लगे।
ऊपर एक बड़ी बल शाखा पर वराजमान एक भ लूक को दे खकर ाध के रहे-सहे
होश पतरा हो गए। नीचे म -बल से क लत सप क भाँ त जला-भुना सह और ऊपर
अ ात कुलशील रीछ। य कड़ाही से चू हे म अपना पड़ना समझकर वह कक वमूढ़
ाध सहम गया, बेहोश-सा होकर टक गया, ‘न ययौ न त थौ’ हो गया। इतने म ही
कसी ने न ध ग भीर नघ ष मधुर वर म कहा, ‘अभयं शरणागत य! अ त थ दे व!
ऊपर चले आइए।’ पापी ाध, सदा छल- छ के क चड़ म पला आ, इस अमृत अभय
वाणी को न समझकर वह का रहा। फर उसी वर ने कहा, “चले आइए, महाराज!
चले आइए। यह आपका घर है। आप अ त थ ह। आज मेरे वृह प त उ च के ह, जो यह
अपावन थान आपक चरणधू ल से प व होता है। इस पापा मा का आ त य वीकार
करके इसका उ ार क जए। वै दे वा तमाप सोऽ त थः वग सं कः। पधा रए, यह
ब तर ली जए, यह पा , यह अ य, यह मधुपक।”
पाठक! जानते हो यह मधुर वर कसका था? यह उस रीछ का था। वह धमा मा
व याचल के पास से इस प व तीथ पर अपना काल बताने आया था। उस धम ाण
धमकजीवन ने वंशश ु ाध को हाथ पकड़कर अपने पास बैठाया; उसके चरण क
धू ल म तक से लगाई और उसके लए कोमल प का बछौना कर दया। व मत ाध
भी कुछ आ त आ।
नीचे से सह बोला, “रीछ! यह काम तुमने ठ क नह कया। आज इस आततायी का
काम तमाम कर लेने दो। अपना अर य न कंटक हो जाए। हम लोग म पर पर का
शकार न छू ने का कानून है। तुम य समाज- नयम तोड़ते हो? याद रखो, तुम इसे आज
रखकर कल ःख पाओगे। पछताओगे। यह जस प ल म खाता है, उसी म छ
करता है। इसे नीचे फक दो।”
रीछ बोला, “बस, मेरे अ त थ परमा मा क न दा मत करो। चल दो। यह मेरा वग
है, इसके पीछे चाहे मेरे ाण जाए, यह मेरी शरण म आया है, इसे म नह छोड़ सकता।
कोई कसी को धोखा या ःख नह दे ता है। जो दे ता है, वह कम ही दे ता है। अपनी करनी
सबको भोगनी पड़ती है।”
“म फर कहे दे ता ँ, तुम पछताओगे।” यह कहकर सह अपना नख काटते ए म
दबाए चल दया।
ायः पहर-भर रात जा चुक है। रीछ अपने दन-भर के भूख-े यासे अ त थ के लए,
सूय ढ़ अ त थ के लए, क दमूल फल लेने गया है, पर तु ाध को चैन कहाँ? दन-भर
क हसा वण वृ क ई हाथ म खुजली पैदा कर रही है। या करे? बजली के
काश म उसी वृ म एक ाचीन कोटर दखाई दया और उसम तीन-चार रीछ के छोटे -
छोटे ब चे मालूम दए। फर या था? ाध के मुँह म पानी भर आया, पर तु धनुष-बाण,
तलवार रा त म गर पड़े ह, यह जानकर पछतावा आ। अक मात जेब म हाथ डाला तो
एक छोट -सी पेशक ज! बस, काम स आ। अपने उपकारी र क रीछ के ब च को
काटकर क चा ही खाते उस पापा मा ाध को दया तो आई ही नह , दे र भी न लगी। वह
जीभ साफ करके ओठ को चाट रहा था क माग म फरकती बाई आँख के अशकुन को
‘शा तं पापं नारायण! शा तं पापं नारायण’ कहकर टालता आ रीछ आ गया और चुने
ए रसपूण फल ाध के आगे रखकर सेवक के थान पर बैठकर बोला, “मेरे यहाँ थाल
तो है नह , न ही प े ह, पु पं प ां फलं तोयं अ त थ नारायण क सेवा म सम पत ह।”
जब ाध अपने द धोर क पू त कर चुका तो इसने भी शेषा खाया और कुछ साद
अपने ब च को दे ने के लए कोटर क तरफ चला।
कोटर के ार पर ही ेमपूवक वागतमय ‘दादा हो’ न सुनकर उसका माथा ठनका।
भीतर जाकर उसने पैशा चक लीला का अव श चम और अ थ दे खा, पर तु उस
वीतराग के मन म “त को मोहः कः शोक एक वमनुप तः?” वह उसी ग भीर पद से
आकर लेटे ए ाध के पैर दबाने लग गया। इतने म ाध के कम ने एक पुराने गीध
का प धारण कर रीछ को कह दया क तेरी अनुप थ त म इस कृत न ाध ने तेरे
ब चे खा डाले ह। ाध को कमसा ी म व ास न था, वह च क पड़ा। उसका मुँह
पसीने से तर हो गया, उसक जीभ तालू से चपक गई और वह इन वा य को आने वाले
यम का त समझकर थर-थर काँपने लगा। बूढ़े रीछ के ने म अ ु आ गए; पर तु वह
खेद के नह थे, हष के थे। उसने उस गृ को स बोधन करके कहा, “ धक् मूढ़! मेरे परम
उपकारी को उ वण श द म मरण करता है। ( ाध से) महाराज! ध य भा य उन ब च
के, जो पाप म ज मे और पाप म बढ़े ; पर तु आज आपक अशनाया नवृ के पु य के
भागी ए। न मालूम कन नीचा तनीच कम से उ ह ने यह पशुयो न पाई थी, न मालूम
उ ह इस ग हत यो न म रहकर कतने पाप-कम और करने थे। ध य मेरे भा य! आज वे
‘ वग ारमपानृत’ म प ँच गए। हे मेरे कुलतारण! आप कुछ भी इस बात क च ता न
क जए। आपने मेरे “स तावरे स त पूव” तरा दए!” जसे मद नह और मोह नह , वह
रीछ ाध का स वाहन करके संसार-या ा के अनुसार सो गया, पर तु उसने अपना
नभ क थान ाध को दे दया था और वयं वह दो शाखा पर आल बत था। चकने
घड़े पर जल क तरह पापा मा ाध पर यह धमाचरण और त ज य शा त भाव नह
डाल सके; वह तारे गनता जागता रहा और उसके कातर ने से न ा भी डरकर भाग
गई। इतने म मटरग ती करते वही सह आ प ँचे और मौका दे खकर ाध से य बोले,
“ ाध! म वन का राजा ँ। मेरा फरमान यहाँ सब पर चलता है। कल से तू यहाँ
न क टक प से शकार करना, पर तु मेरी आ ा न मानने वाले इस रीछ को नीचे फक
द।” पाठक! आप जानते ह क ाध ने इस य न पर या कया? रीछ के सब उपकार
को भूलकर उस आशामु ध ने उसको ध का दे ही तो दया। आयु: शेष से, पु यबल से,
धम क म हमा से, उस रीछ का वदे शी कोट एक टहनी म अटक गया और वह जागकर,
सहारा लेकर ऊपर चढ़ आया। सह ने अ हास करके कहा, “दे खो रीछ! अपने अ त थ
च वत का साद दे खो। इस अपने वग, अपने अमृत को दे खो। मने तु ह सायंकाल
या कहा था? अब भी इस नीच को नीचे फक दो।” रीछ बोला, “इसम इ ह ने या
कया? न ा क असावधानता म म ही पैर चूक गया, नीचे गरने लगा। तू अपना
मायाजाल यहाँ न फैला। चला जा।” रीछ उसी ग भीर नभ क भाव से सो गया। उसको
परमे र क ी त के व आने लगे और ाध को कैसे म व आए, यह हमारे रस
पाठक जान ही लगे।—”नह क याणकृत क द् ग त तात ग छ त।”