उसने_कहा_था_और_अन्य_कहानियाँ_चन्द्रधर_शर्मा_'गुलेरी'

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ी च धर शमा ‘गुलेरी’

1883–1922

ीच धर शमा का ज म 7 जुलाई 1883 म जयपुर म आ था। उनके पूवज हमाचल


दे श के कांगड़ा जले के गुलेर गाँव से थे और इससे े रत होकर उ ह ने अपने नाम म
उपनाम ‘गुलेरी’ जोड़ लया और यही उनक पहचान बन गई। गुलेरी ने मा 39 वष के
छोटे जीवन म अपना इतना व श थान बना लया क ह द सा ह य के त त
लेखक आचाय रामच शु ल ने उनके बारे म यह कहा—“गुलेरी जी एक ब त ही
अनूठ लेखनशैली लेकर सा ह य- े म उतरे थे। ऐसा ग भीर और पां ड यपूण हास,
जैसा उनके लेख म रहता था, और कह दे खने म नह आया। यह बेधड़क कहा जा
सकता है क शैली क जो व श ता और अथस म त गुलेरी जी म मलती है और कसी
लेखक म नह । इनके मत हास क साम ी ान के व वध े से ली गई। अतः इनके
लेख का पूरा आन द उ ह को मल सकता है जो ब त या कम से कम ब ुत ह।”
उसने कहा था
और
अ य कहा नयाँ

च धर शमा गुलेरी
संपादक
सुरेश स लल

श ा भारती
ISBN: 978-81-7483-153-8
थम राजपाल सं करण: 2014 © राजपाल ए ड स ज़
USNE KAHA THA: AUR ANYA KAHANIYAN
by Chanderdhar Sharma Guleri

श ा भारती
मदरसा रोड, क मीरी गेट- द ली-110006
भू मका

‘उसने कहा था’ आधु नक ह द कहानी का पहला यो त- त भ है। यह भी क ‘उसने


कहा था’ व उसके रचनाकार च धर शमा गुलेरी को, एक सरे का पयाय कहा जाता है।
लोक य मा यता यही है। क तु यथाथ यह है क ह द कहानी म यथाथवाद का पहला
वर गुलेरी जी क लेखनी से उभरा, जस पर ेमच द ने सान चढ़ाई।
गुलेरी जी का ज म 7 जुलाई 1883 को जयपुर (राज थान) म आ था। उनक
पूवज-पर परा अ वभ पंजाब और आज के हमाचल दे श के काँगड़ा अँचल के गुलेर
गाँव से स ब थी। इसी लए उ ह ने नाम के अ त म, कोई लेखक य उपमान जोड़ने के
बजाय ‘गुलेरी’ जोड़ा। वली औरंगाबाद क तज पर गुलेर का ‘गुलेरी’ कह यह भी पढ़ा
था क गुलेरी जी के पुरखे काँगड़ा भी सहारनपुर के कसी थान से उखड़ कर गए थे।
य द यह त य हो तो उनक पतृ-पर परा तरीय ठहरती है—सहारनपुर से काँगड़ा और
काँगड़ा से जयपुर।
च धर शमा के पता पं. शवराम शमा वा त वक अथ म पं डत थे। धम, याय,
तक आ द के का ड व ान। उनक इसी या त से े रत होकर जयपुर के महाराजा
राम सह ने उ ह अपने दरबार म ‘राजपं डत’ के पद पर त त कया। घटना यूँ ई क
काशी म धमाचाय क एक वराट सभा ई, जसम दे श-भर के सं कृत व ान उप थत
ए। पं. शवराम शमा ने भी उसम भाग लया और सभी उप थत धमाचाय से शा ाथ
करके वजयी ए। उनक इस या त ने उ ह जयपुर दरबार के राजपं डत पद तक
प ँचाया। फर तो वह जयपुर के होकर ही रह गए। वह च धर शमा का ज म आ।
च धर जी ने 1897 म म डल क परी ा पास क और 1899 म कलक ा
व व ालय से थम ेणी म मै क उ ीण ए। आगे चलकर 1903 म उ ह ने
इलाहाबाद व व ालय से नातक क उपा ध अ जत क । उनक औपचा रक श ा क
जानकारी यह तक है। क तु एक सं कृत पता के पु होने के नाते, और आगे चलकर
सं कृत सा ह य व ा य व ा के जन शीष पद पर वे अधी त ए, उस सबको यान
म रखते ए, मानना पड़ता है क सं कृत सा ह य, ाकरण, याय, दशन तथा ान क
अ य शाखा का उ च अ ययन उ ह ने पता के मागदशन म स भवतः घर पर ही
अनौपचा रक प से कया होगा। तभी वे मेयो कालेज, अजमेर के सं कृत वभाग के
अ य पद तक प ँचे और बाद म ी मदन मोहन मालवीय के आम ण पर बनारस
ह व व ालय के ा य वभाग के ाचाय पद पर आसीन ए। वह 12 सत बर
1922 को मा 39 वष क अ प वय म उनका नधन आ।
च धर जी दे श-भाषा के उ थान और ान- व ान के े म रा ीय पहचान को
लेकर, मै क के बाद ही स य हो गए थे। सन् 1900 म उ ह ने जयपुर म ‘नागरी भवन’
क थापना क और उसके बाद 1902 म जयपुर वेधशाला के जीण ार म उ ह ने
नणायक भू मका नभाई।
सा ह य-सृजन और सा ह यक प का रता के े म भी उनक स यताएँ
औपचा रक श ा समा त करने के साथ ही ल य क जाने लगी थ । इलाहाबाद
व व ालय से नातक परी ा उ ीण करने के त काल बाद उ ह ने जयपुर से
‘समालोचक’ नाम से एक प नकाला था। जो स भवतः सा ह यालोचन के त ह द
का पहला प था। ‘समालोचक’ स भवतः दो वष चलकर ब द हो गया।
‘समालोचक’ का काशन 1903-04 म आ और उसी समय उनके वम
समा हत रचनाकार ने सर उठाया। उनक पहली कहानी ‘घंटाघर’ 1904 म
‘वै योपकारक’ प म का शत ई। यह प नह है क च धर शमा ने अपने नाम के
आगे थानवाची ‘गुलेरी’ श द जोड़ना कब शु कया। अनुमान कया जा सकता है क
लेखक के प म सामने आने के साथ ही स भवतः गुलेर के साथ अपनी पहचान स ब
करने का वचार उनके मन म आया होगा।
‘घंटाघर’ के लेखन- काशन से शु आ गुलेरी जी का लेखक जीवन 1922 म
असाम यक नधन तक अनवरत चलता रहा।
गुलेरी जी क सा ह यक पहचान मूलतः कहानीकार के प म है और उसका भी
रकबा ब त छोटा है। कुल तीन कहा नयाँ—‘सुखमय जीवन’, ‘बु का काँटा’ और
‘उसने कहा था’। इन तीन म भी यश वी सफ़ ‘उसने कहा था’ ई। पहली कहानी
‘घंटाघर’ का कह कोई उ लेख नह । कोई 80-85 साल तक गुमनामी म व मृत रहने के
बाद उसका उ ार ‘गुलेरी रचनावली’ के स पादक म वर वग य डॉ. मनोहरलाल के
हाथ आ। उसके बाद भी वह चचा से लगभग बाहर रही। आज उसका पुनपाठ करते
ए इस बात क गहरी ती त होती है क ‘घंटाघर’ न सफ़ गुलेरी जी क , ब क सम
आधु नक ह द कथा-सा ह य क एक ब त मू यवान कृ त है। और उसका थान
ेमच द क अमर कहानी ‘कफ़न’ के समाना तर है।
खैर, गुलेरी जी के कहानीकार क चचा तो आगे होगी ही, यहाँ यह बात वशेष प
से गौर करने क है, क उ ह ने सफ़ कहा नयाँ ही नह लख , ब क आधु नक ह द
सा ह य के उस ार भक काल म गुलेरी जी ने नब ध, आलोचना-समी ा, वमश और
शोध जैसी लगभग अ वक सत वधा को भी समृ कया। और उनक लेखनशैली भी
एकदम अनूठ और ब त भावपूण थी। वे अपने नब ध म भी छोट -छोट भावपूण
और ं य- ं जत कहा नयाँ परोते रहते थे, जनम से कई यहाँ संक लत क गई ह।
गुलेरी जी क लेखनशैली के बारे म आचाय रामच शु ल का मंत यान दे ने यो य
है। शु ल जी के अनुसार, “गुलेरी जी एक ब त ही अनूठ लेखनशैली लेकर सा ह य- े
म उतरे थे। ऐसा ग भीर और पां ड यपूण हास, जैसा उनके लेख म रहता था, और कह
दे खने म नह आया। अनेक गूढ़ शा ीय वषय तथा कथा- संग क ओर संकेत करती
ई उनक वाणी चलती थी। इसी संग गम व (ए यू सवनेस) के कारण उनक चुट कय
का आन द अनेक वषय क जानकारी रखने वाले पाठक को ही वशेष मलता था।
इनके ाकरण ऐसे खे वषय के लेख मज़ाक से खाली नह होते थे। यह बेधड़क कहा
जा सकता है क शैली क जो व श ता और अथस म त गुलेरी जी म मलती है और
कसी लेखक म नह । इनके मत हास क साम ी ान के व वध े से ली गई अतः
इनके लेख का पूरा आन द उ ह को मल सकता है जो ब त या कम से कम ब ुत
ह।” यहाँ शु ल जी ने गुलेरी जी के दो नब ध को वशेष प से रेखां कत कया है। वे
नब ध ह—‘कछु आ धरम’ और ‘मारे स मो ह मुठाँव’। ‘कछु आ धरम’ का उ लेख डॉ.
नामवर सह ने भी कया है—“गुलेरी जी ह द म एक नया ग या नयी शैली नह मढ़
रहे थे, ब क वे व तुतः एक नयी चेतना का नमाण कर रहे थे और यह नया ग नयी
चेतना का सजना मक साधन है। सं कृत के पं डत उस जमाने म और भी थे, ले कन
‘उसने कहा था’ जैसी कहानी और ‘कछु आ धरम’ जैसा लेख लखने का ेय गुलेरी जी
को ही है। इस लए वे ह द के लए बं कमच भी ह और ई रच व ासागर भी।”
शोध और समी ा के े म गुलेरी जी के दो ब ध का उ लेख आव यक है। वे ह
—‘जय सह का ’ ‘पृ वीराज वजय’ महाका के समी क य अवलोकन। दोन ही
‘सर वती’ प का म मशः 1910 और 1913 म का शत ए थे। इनम उनका
मीमांसक व अपनी भरपूर तेज वता से उभरा है। इसी तरह ‘नागरी चा रणी
प का’ क सरी ज द म का शत ‘पुरानी ह द ’ नब ध म उनका भाषा व ानी प
भा वरता से उभरा है। इस नब ध को ह द भाषा के इ तहास- संग म ब त मह वपूण
माना गया। भाषा व ान के अ त र , ाकरण के े म भी उनका सा धकार ह त ेप
था और जीवन के अ तम वष म उ ह नागरी चा रणी सभा, काशी, क ाकरण
संशोधन स म त का सद य ना मत कया गया था।
इस तरह दे ख, तो कहानी, नब ध, आलोचना, भाषा व ान, ाकरण, शा ीय
वमश तथा और न जाने कहाँ-कहाँ तक फैला च धर शमा गुलेरी का बौ क व
ब आयामी था—अ णी था।
—सुरेश स लल
गुलेरी-एक कहानीकार के पम

रामच शु ल ने ह द म मौ लक कहा नय क शु आत छह कहा नय से मानी है 1.


इ मती, 2. गुलबहार ( कशोरी लाल गो वामी), 3. लेग क चुडै़ल (मा टर भगवानद न,
मरजापु र ) 4. यारह वष का सपना (रामच शु ल) 5. पं डत और पं डतानी
( ग रजाद वाजपेयी) 6. लाई वाली (बंगबाला)। ये सभी 1901 से 1907 के म य
का शत । ‘इ मती’ क मौ लकता को लेकर उ ह संशय था और ‘ लेग क चुडै़ल’ व
‘पं डत और पं डतानी’ अपने दौर म ही लगभग गत शेष हो गई थ । उनके लेखक के
नाम भी आगे कभी सुने या पढ़े नह गए। नतीजतन उनक है सयत इ तहास क एक
व भर मानी जायेगी। वयं शु ल जी ने भी अपनी कहानी ‘ यारह वष का सपना’:
1903 और बंगबाला क ‘ लाई वाली’: 1907 को ही कहानी क कसौट पर खरी उतरी
मौ लक कहानी माना। इन दोन के अ तराल म गुलेरी जी क कहानी ‘घंटाघर’ (1904)
का काशन आ। उसका उ लेख शु ल जी ने नह कया। य ? यह एक कूट है।
एक कारण यह हो सकता है क चूँ क ‘घंटाघर’ का काशन ‘वै योपकारक’ नाम क ,
लगभग असा ह यक से नाम वाली प का म आ था, शु ल जी क रहते उस पर
न गई हो, सरा यह क श प और संरचना क से उसे उ ह ने अपनी मा यता के
अनु प न पाया हो। क तु यह सरा कारण ब त आ तकारी नह है। इस लए नह है
क वयं उ ह ने अमरीक क व ई.ई. क म स क एक ब त ही बीहड़ श प क
योगशील क वता का, जो उनक अपनी क वता क कसौट पर क ई खरी नह
उतरती, अनुवाद कया है—चुनौती भरा सफल अनुवाद कया है। अतः पहला कारण ही
अ धक उ चत तीत होता है।
य द हम आचाय शु ल के समय को पीछे छोड़ आगे बढ़, तो गुलेरी क यह कहानी
जयशंकर ‘ साद’ क ‘ ाम’ (1911) और ेमच द क ‘परी ा’ (1914) से भी आगे
खड़ी नज़र आयेगी—‘कफ़न’ क राह बनाती ई।
‘घंटाघर’ एक पक कथा है, सु वधा के लए भाव कथा भी कह सकते ह। इसम
कोई स य च र नह है, कुछे क त व ह, वृ याँ ह, जो य -त च र होने का म
खड़ा करती ह और समय को अपनी मन-मज से चलाना चाहती ह। भगवान का म
और भय रचती ह। उवर भू म को र दते ए तगामी त व कैसे मठवाद, पुरो हतवाद का
बीज वपन करते ह, इनके आसपास वलास और राचार का तक गढ़ते ह, जन-जीवन म
भय-भ क भावना भरते ह और एक दन इतने श शाली हो जाते ह क कृ त को
अपनी तजनी पर नचाने के गु र से भर उठते ह—यही घंटाघर क कथा-भू म है, वचार
है। कहानी क शु आत इस कार होती है—“एक मनु य को कह जाना था। उसने
अपने पैर से उपजाऊ भू म को बं या करके एक पगडंडी काट और वहाँ पर पहला
प ँचने वाला आ। सरे, तीसरे और चौथे ने वा तव म उस पगडंडी को चौड़ा कया और
कुछ वष तक य ही लगातार (आते) जाते रहने से वह पगडंडी चौड़ा राजमाग बन गई।
…कुछ काल म वह थान पू य हो गया, और पहला आदमी चाहे वहाँ कसी उ े य से
आया हो, अब वहाँ जाना ही लोग का उ े य रह गया।” फर वहाँ एक मठ बन गया,
पुजारी बने, भीतर जाने क भट (चढ़ावा) ई और मठ के आसपास वलास और
आमोद- मोद के साधन जुटा दए गए। यानी धम के नाम पर सारे कदाचार आ जुटे। फर
उस मठ पर सोने का कलश चढ़ा और अ त म एक “पु या मा ने बड़े य से एक
घंटाघर” उस पर लगवा दया। एक ओर लोग को समय जानने क सु वधा ई, तो सरी
और “माग म छ कने तक का कमकांड बन गया।”
यहाँ से कहानी एक मोड़ लेती है: “और भी समय बीता। घंटाघर सूय के पीछे रह
गया। सूय तज पर आकर लोग को उठाता और काम म लगाता। घंटाघर कहा करता
क अभी सोये रहो। इसी से घंटाघर के पास कई छोट -मोट घ ड़याँ बन गई। …अब य द
वह पुराना घंटाघर, वह यारा पाला पोसा घंटा ठ क समय न बतावे, तो चार दशाएँ
उससे त व न के मस से पूछती ह क तू यहाँ य है? वह घृणा से उ र दे ता है क म
जो क ँ, वही समय है।” यह है आज क भाषा म धमाड बरज य फाँसीवाद।
कहानी यह समा त नह होती। समा त होती है इस तकयु तवाद से—“भगवान,
नह , कभी नह । हमारी आँख को तुम ठग सकते हो, हमारी आ मा को नह । वह हमारी
नह है। जस काम के लए आप आए थे, वह हो चुका….तुम बना आ मा क दे ह हो,
बना दे ह का कपड़ा हो, बना स य के झूठे हो। तुम जगद र के नह हो, और न तुम पर
उसक स म त है, यह व था कसी और क द ई है।”
नह मालूम, कहानी के पर पराशील अ येता इसे कहानी मानगे या नह , क तु आज
कहानी का श प जस ऊँचाई पर प ँच चुका है, जो कसौट बन चुक है, उस पर पूरी
तरह खरी उतरनेवाली यह हमारे आज क कहानी है।
‘सुखमय जीवन’ गुलेरी जी क पहली वह कहानी है जस पर आलोचक का क चत्
यान गया। इसका काशन कलक ा से नकलने वाले प भारत म (1912) म आ
था। दा प य जीवन क पूव-भू मका के प म यह एक सीधी-सरल ेमकथा है, क तु
गुलेरी जी क शैली क छाप इसम सहज ही दे खी जा सकती है।
इसी म म ‘बु का काँटा’ का उ लेख करना होगा। सन् 1914 म ‘पाट लपु ’ प
म छपी इस कहानी को भी दा प य जीवन क पूव-भू मका न मत करती ेमकथा ही
कहा जाएगा, क तु इसम फैलाव ब त है और लोक-रंग भी ब त गाढ़े ह। इस कहानी म
एक उपकथा भी समा हत है— कराए के टट् टू वाले बूढ़े मुसलमान क , जसे य द इस
कहानी म इतने व तार से न जोड़ा जाता, तो भी मूल कहानी क आ मा यथावत् बनी
रहती। व तुतः उस टू वाले क उपकथा म भी वत कहानी क ब त स भावनाएँ ह।
और उसे य द गुलेरी जी उसी प म लखते तो उनक एक और अनुभव स प पठनीय
कहानी हमारे हाथ आती। बहरहाल…
‘सुखमय जीवन’ और ‘बु का काँटा’ के म म गुलेरी जी क तीसरी च चत, ब क
कह ब च चत कहानी है ‘उसने कहा था’। इसका काशन 1915 म ‘सर वती’ प का
म आ था और इसके नखार सँवार म क चत भू मका स पादक वर और ह द भाषा
के थम आचाय ी महावीर साद वेद क कलम क भी है। वेद जी ारा
स पा दत पाठ ही ायः चचा म रहा है—वही सवसुलभ भी है। क तु यदा-कदा इस
कहानी के दोन —मूल और स पा दत पाठ को आमने-सामने रख कर भी व ान
आलोचक ने वचार कया है। मुझे ऐसा लगता है, क मूल पाठ म जो गुलेरी टच् है, वह
स पा दत पाठ म क चत झीना आ है। और इस नु े को लेकर आगे भी वचार होना
चा हए।
‘उसने कहा था’ गुलेरी जी क पूव ल खत दोन कहा नय से कई अथ म भ
वभाव क कहानी है। थमतः यह असफल ेम, पूव मृ तय और पूव े मका के सुख
सौभा य के लए आ मब लदान क मा मक और उदा भावना से भरपूर और भारतीय
जीवनादश क कसौट पर खरी उतरने वाली एक खा त कहानी है ( यान दे ने क बात
है क ‘सुखमय जीवन’ और ‘बु का काँटा’ सुखा त कहा नयाँ ह)। सरी बात यह क
इस कहानी का उ रा 1914-18 वाले थम व यु और यु भू म क पृ भू म वाला
है, और इस से ेम और यु के को भी शायद इस कहानी म पढ़ा-सुना जाए।
शु ल जी ने गुलेरी जी क इस कहानी पर वचार करते ए कहा है क ‘उसने कहा था’ म
“प के यथाथवाद के बीच, सु च क चरम मयादा के भीतर, भावुकता का चरम उ कष
अ य त नपुणता के साथ स पु टत है। घटना इसक ऐसी है जैसी बराबर आ करती है,
पर उसके भीतर से ेम का एक वग य व प झाँक रहा है—केवल झाँक रहा है।
नल जता के साथ पुकार या कराह नह रहा है। कहानी भर म कह ेमी क नल जता,
ग भता, वेदना क वीभ स ववृ नह है। सु च के सुकुमार से सुकुमार व प पर
कह आघात नह प ँचता। इसक घटनाएँ ही बोल रही ह, पा के बोलने क अपे ा
नह ।”
‘उसने कहा था’ के अ त म लहना सह अपनी बा य- ेम और बाद के जीवन म
उसके सहयो ा सूबेदार क प नी क मृ तय से लबरेज मर जाता है। क तु इसके
समा तर गुलेरी जी के मानस म लहना सह क एक और कहानी भी पक रही थी। उसम
वह मरता नह है, ब क जंग से लौट कर घर बसाता है, एक बेटे (हीरा) का बाप बनता है
और एक और लड़ाई म लड़ने जाता है। इस थीम को वे स भवतः एक उप यास म
फैलाना चाहते थे, जसके दो-तीन पृ ही वे अपने छोटे -से जीवन म लख पाए। वह
अधूरा मसौदा भी ‘हीरे का हीरा’ शीषक से इस संकलन म शा मल कया गया है। ‘उसने
कहा था’ क तज पर शायद उनका इरादा ‘बु का काँटा’ को भी एक उप यास क तरह
लखने का था।
गुलेरी जी क कहा नय पर सम तः वचार करते ए कुछे क बात पर वशेष प से
यान जाता है। पहला यह क उनके ी-पु ष पा म ववाह पूव जीवन म लड़ कयाँ
ब त मुखर और वाचाल होती ह और लड़के अपे ाकृत चु पे और द बू। लड़ कय क
मुखरता चुलबुलेपन के तर छू ती है—जैसे ‘बु का काँटा’ क भागव ती का यह जुमला
—“वाह जी वाह, ऐसे बु के आगे भी कोई लहंगा पसारेगी!” इसी तरह ‘सुखमय
जीवन’ क कमला भी अपने भावी प त जयदे व क अपे ा अ धक मुखर है। ‘उसने कहा
था’ म बेशक बालक लहना पहला जुमला मारता है—“तेरी कुड़माई हो गई?” दो-तीन
दन तक यही सवाल सुनते रहने के बाद लड़क भी जवाब दे ती है—“हाँ, हो गई।
….दे खते नह यह रेशम से कढ़ा आ सालू?”
इस तरह के चुट ले संवाद और लड़ कय क मुखरता के ज रए गुलेरी जहाँ अपनी
कहा नय म लोकरंग भरते ह, वह परो तः ववाह नाम क सामा जक संरचना पर
ट पणी भी करते ह। ‘बु का काँटा’ के उ रा म तो वे सीधे-सीधे ववाह को “जीवन
क वत ता के बदले म पाई ई हथक ड़य और चाँद क बे ड़य ” के प म ल य
करते ह। कई बार वे अपनी कहा नय के बीच से भाषा और सा ह य क अपने समय क
जड़ता पर भी वमश खड़ा करते ह। ‘सुखमय जीवन’ के अनुभवशू य नकली लेखन
और ‘बु का काँटा’ के पहले पैरा ाफ म ‘ ह द के कणधार ’ क भाषा के त
अनु रदा यता पर उनके कटा वशेष प से यान ख चते ह।
गुलेरी जी ने उपरो ल खत तीन-चार कहा नय के अ त र क तपय पौरा णक
कहा नय के पा तर भी कए और अपने नब ध म ‘ ा त’ शैली म अनेक छोट -
छोट कै सूल सरीखी कहा नयाँ भी गूँथ । वे भी इस संकलन म शा मल क गई ह। ऐसी
लघुकथा म ‘पाठशाला’ खासतौर से उ लेखनीय है। आज हम ायः ट .वी चैनल पर,
ट .आर.पी. बढ़ाने के च कर म ‘बाल कौ ट य’ या ऐसे ही अ य प म ब च को पेश
कया जाता दे खते ह। इस तरह ब च के बचपन पर डाकेजनी के व यह कहानी
चुट ली ट पणी करती है।
कभी जैने कुमार ने गुलेरी को ‘पं डत पर परा का कथाकार’ कहा था। यथाथतः
गुलेरी जी न सफ़ कहा नय म, ब क अपने स पूण कृ त व म तथाक थत पं डताऊपन
के खर तवाद थे और ह द के पहले यथाथवाद कथाकार। उनका उद्घा टत पथ,
साद क बजाय, ेमच द के कथा-सा ह य म वा हत और समृ आ।
ह द म गुलेरी जी के सम सा ह य का उ खनन और उ ार म वर डॉ. मनोहर
लाल ने कया। वे हमारे बीच अब नह ह। उ ह सादर ण त।
इस संकलन को तैयार करने म कथाकार म ी बलराम का भी परो तः मू यवान
सहयोग मला। उनके त भी हा दक आभार।
—सुरेश स लल

घंटाघर
सुखमय जीवन
बु का काँटा
उसने कहा था
हीरे का हीरा
पाठशाला
साँप का वरदान
राजा क नीयत
जब गुण अवगुण बन गया
ज मा तर कथा
भूगोल
बकरे को वग
कुमारी यंकरी
याय-रथ
मह ष
ब दर
पोप का छल
याय घंट
मधु रमा
ी का व ास
जा व सलता
कण का ोध
धमपरायण रीछ
सुक या
घंटाघर

ए कपगडमनुडीय कोकाटकहऔरजानावहाँथा।पर उसने अपने पैर से उपजाऊ भू म को बं या करके वह


पहला प ँचने वाला आ। सरे, तीसरे और चौथे ने
वा तव म उस पगड डी को चौड़ा कया और कुछ वष तक य ही लगातार (आते) जाते
रहने से वह पगड डी चौड़ा राजमाग बन गई। उस पर प थर या संगमरमर तक बछा
दया गया और कभी-कभी उस पर छड़काव भी होने लगा।
वह पहला मनु य जहाँ गया था, वह सब कोई जाने लगे। कुछ काल म वह थान
पू य हो गया और पहला आदमी चाहे वहाँ कसी उ े य से आया हो, अब वहाँ जाना ही
लोग का उ े य रह गया। बड़े आदमी वहाँ घोड़ो, हा थय पर आते, मखमल-कनात
बछाते जाते और अपने को ध य मानते जाते। गरीब आदमी कण-कण माँगते वहाँ आते
और जो अभागे वहाँ न आ सकते, वे मरती बेला अपने पु को थीजी क आन दलाकर
वहाँ जाने का नवेदन कर जाते। योजन यह है क वहाँ मनु य का वाह बढ़ता ही
गया।
एक स जन ने वहाँ आने वाले लोग को क ठनाई न हो, इस लए उस प व थान के
चार ओर, जहाँ वह थम मनु य आया था, हाता खचवा दया। सरे ने, पहले के काम
म कुछ जोड़ने या अपने नाम म कुछ जोड़ने के लोभ से उस पर एक छ पर डलवा दया।
तीसरे ने, जो इन दोन से पीछे रहना न चाहता था, एक सु दर मकान से उस भू म को ढक
दया, उस पर सोने का कलश चढ़ा दया, चार ओर से बेल छवा द । अब वह या ा, जो
उस थान तक होती थी, उसक सीमा क द वार और ट य तक रह गई, य क येक
मनु य भीतर नह जा सकता। इस ‘इनर सकल’ के पुजारी बने, भीतर जाने क भट ई,
या ा का चरम उ े य बाहर क द वार को पश करना ही रह गया, य क वह भी
भा यवान को ही मलने लगा।
कहना नह होगा, आने वाल के व ाम के लए धमशालाएँ, कूप और तड़ाग,
वलास के लए शु डा और सूणा, रम णएँ और आमोद जमने लगे और त वष जैसे
भीतर जाने क यो यता घटने लगी, बाहर रहने क यो यता, और इन वलास म भाग लेने
क यो यता बढ़ । उस भीड़ म ऐसे वेदा ती भी पाए जाने लगे, जो सरे क जेब को
अपनी ही समझकर पया नकाल लेत।े कभी-कभी ा एक ही है, उससे जार और
प त म भेद के अ याय को मटा दे नेवाली अ ै तवा दनी और वक या-परक या के म से
अवधूत- वधूत सदाचार के शु ै त के कारण र पात भी होने लगा। पहले या ाएँ दन
ही दन म होती थ , मन से होती थ , अब चार-चार दन म नाच-गान के साथ और
ऑ फस के काम को करते सवारी आने लगी।
एक स जन ने दे खा क यहाँ आने वाल को समय के ान के बना बड़ा क होता
है। अतएव उस पु या मा ने बड़े य से एक घंटाघर उस नए बने मकान के ऊपर लगवा
दया। रात के अ धकार म उसका काश और सुनसानी म उसका मधुर वर या पास के
और या र के, सबके च को सुखी करता था। वा तव म ठ क समय पर उठा दे ने और
सुला दे ने के लए, एका त म पा पय को डराने और साधु को आ ासन दे ने के लए
वह काम दे ने लगा। एक सेठ ने इस घ टे क सुईयाँ सोने क बनवा द और सरे ने रोज
उसक आरती उतारने का ब ध कर दया।
कुछ काल बीत गया। लोग पुरानी बात को भूलने लग गए। भीतर जाने क बात तो
कसी को याद नह रही। लोग म दर क द वार का छू ना ही ठ क मानने लगे। एक
फरका खड़ा हो गया, जो कहता था क म दर क द ण द वार छू नी चा हए, सरा
कहता क उ र द वार को बना छु ए जाना पाप है। प ह पं डत ने अपने म त क,
सर क रो टयाँ और तीसर के धैय का नाश करके दस पव के एक थ म स कर
दया या स करके अपने को धोखा दे ना चाहा क दोन झूठे ह। प व ता ा त करने के
लए घंटे क मधुर व न का सुनना मा पया त है। म दर के भीतर जाने का तो कसी
को अ धकार ही नह है, बाहर क शु डा और सूणा म बैठने से भी पु य होता है, य क
घंटे का प व वन उ ह पूत कर चुका है। इस स करने या स करने के मस का
बड़ा फल आ। ाहक अ धक जुटने लगे। और उ ह अनुकूल दे खकर नयम कए गए
क रा ते म इतने पड़ रखने से घंटा बजे तो य कान खड़ा करके सुनना, अमुक थान पर
वाम चरण से खड़े होना और अमुक पर द ण से। यहाँ तक क माग म छ कने तक का
कमका ड बन गया।
और भी समय बीता। घंटाघर सूय के पीछे रह गया। सूय तज पर आकर लोग को
उठाता और काम म लगाता। घंटाघर कहा करता क अभी सोये रहो। इसी से घंटाघर के
पास कई छोट -मोट घ ड़याँ बन गई। येक क टक- टक बकरी और झलट को मात
करती। उन छोट -मो टय से घबरा के लोग सूय क ओर दे खते और घंटाघर क ओर
दे खकर आह भर दे ते। अब य द वह पुराना घंटाघर, वह यारा पाला-पोसा घंटा ठ क
समय न बतावे तो चार दशाएँ उससे त व न के मस से पूछती ह क तू यहाँ य है?
वह घृणा से उ र दे ता है क म जो क ँ, वही समय है। वह इतने ही म स तु नह है क
उसका काम वह नह कर सकता और सरे अपने आप उसका काम दे रहे ह, वह इसी म
तृ त नह है क उसका ऊँचा सर वैसे ही खड़ा है, उसके माँजनेवाल को वही वेतन
मलता है और लोग उसके यहाँ आना नह भूले ह। अब य द वह इतने पर भी स तु नह
और चाहे क लोग अपनी घ ड़य के ठ क समय को बगाड़, उनक ग त को रोक ही नह ,
युत उ ह उलट चलाव, सूय उनक आ ानुसार एक मनट म चार ड ी पीछे हटे और
लोग जागकर भी उसे दे खकर सोना ठ क समझ, उसका बगड़ा और पुराना काल सबको
स तोष दे , तो व नघ ष से अपने स पूण तेज से, स य के वेग से म क ँगा, “भगवान,
नह , कभी नह । हमारी आँख को तुम ठग सकते हो, क तु हमारी आ मा को नह । वह
हमारी नह है। जस काम के लए आप आए थे, वह हो चुका, स चे या झूठे, तुमने अपने
नौकर का पेट पाला। य द चुपचाप खड़े रहना चाहो तो खड़े रहो, नह तो य द तुम हमारी
घ ड़य के बदलने का हठ करोगे तो स य के पता और म या के परम श ु के नाम
पर मेरा-सा तु हारा श ु और कोई नह है। आज से तु हारे-मेरे म अ धकार और काश
क सी श ुता है, य क यहाँ म ता नह हो सकती। तुम बना आ मा क दे ह हो, बना
दे ह का कपड़ा हो, बना स य के झूठे हो। तुम जगद र के नह हो, और न तुम पर
उसक स म त है, यह व था कसी और क द ई है। जो उच का मुझे तमंचा दखा
दे , मेरी थैली उसी क , जो मेरी आँख म सुई डाल दे , वह उसे फोड़ सकता है, क तु
मेरी आ मा मेरी और जगद र क है, उसे तू, हे बेतुके घंटाघर, नह छल सकता। अपनी
भलाई चाहे तो हमारा ध यवाद ले, और-और-और चला जा!!!”
(वै योपकारक: 1904)
सुखमय जीवन

प रीयह ाउदेहने ककोे पीछे और उसके फल नकलने के पहले के दन कस बुरी तरह बीतते ह,
मालूम है ज ह उ ह गनने का अनुभव आ है। सुबह उठते ही परी ा
से आज तक कतने दन गए, यह गनते और फर ‘कहावती आठ ह ते’ म कतने दन
घटते ह, यह गनते ह। कभी-कभी उन आठ ह त पर कतने दन चढ़ गए, यह भी
गनना पड़ता है। खाने बैठे ह और डा कये के पैर क आहट आई। कलेजा मुँह को आया।
मुह ले म तार का चपरासी आया क हाथ-पाँव काँपने लगे। न जागते चैन, न सोते। सपने
म भी यह दखता है क परी क साहब एक आठ ह ते क ल बी छु री लेकर छाती पर
बैठे ए ह।
मेरा भी बुरा हाल था। एल.एल.बी. का फल अबक और भी दे र से नकलने को था।
न मालूम या हो गया था, या तो कोई परी क मर गया था या उसको लेग हो गया था।
उसके पच कसी सरे के पास भेजे जाने को थे। बार-बार यही सोचता था क प
क जाँच कए पीछे सारे परी क और र ज ार को भले ही लेग हो जाए, अभी तो दो
ह ते माफ कर। नह तो परी ा के पहले ही उन सबको लेग य न हो गया? रात-भर
न द नह आई थी, सर घूम रहा था; अखबार पढ़ने बैठा क दे खता या ँ क लनोटाइप
क मशीन ने चार-पाँच पं याँ उलट छाप द ह। बस, अब नह सहा गया—सोचा क
घर से नकल चलो; बाहर ही कुछ जी बहलेगा। लोहे का घोड़ा उठाया क चल दए।
तीन-चार मील जाने पर शा त मली। हरे-हरे खेत क हवा, कह पर च ड़य क
चहचह और कह कु पर खेत को स चते ए कसान का सुरीला गाना, कह दे वदार
के प क स धी बास और कह उनम हवा का स -स करके बजना— सबने मेरे च
को परी ा के भूत क सवारी से हटा लया। बाइ स कल भी गजब क चीज है। न दाना
माँगे, न पानी, चलाए जाइए जहाँ तक पैर म दम हो। सड़क पर कोई था ही नह , कह -
कह कसान के लड़के और गाँव के कु े पीछे लग जाते थे। मने बाइ स कल को और
भी हवा कर दया। सोचा क मेरे घर सतारपुर से प ह मील पर कालानगर है—वहाँ क
मलाई क बरफ अ छ होती है और वह मेरे एक म रहते ह; वे कुछ सनक ह। कहते
ह क जसे पहले दे ख लगे, उससे ववाह करगे। उनसे कोई ववाह क चचा करता है, तो
अपने स ा त के म डन का ा यान दे ने लग जाते ह। चलो, उ ह से सर खाली कर।
खयाल-पर-खयाल ब धने लगा। उनके ववाह का इ तहास याद आया। उनके पता
कहते थे क सेठ गनेशलाल क एकलौती बेट से अबक छु य म तु हारा याह कर
दगे। पड़ोसी कहते थे क सेठजी क लड़क कानी और मोट है और आठ ही वष क है।
पता कहते थे क लोग जलकर ऐसी बात उड़ाते ह; और लड़क वैसी हो भी तो या,
सेठजी के कोई लड़का है नह ; बीस-तीस हजार का गहना दगे। म महाशय मेरे साथ-
साथ पहले डबे टग लब म बाल- ववाह और माता- पता क ज़बरद ती पर इतने
ा यान झाड़ चुके थे क अब मारे ल जा के सा थय म मुँह नह दखाते थे। य क
पता जी के सामने च करने क ह मत नह थी। गत वचार से साधारण वचार
उठने लगे। ह -समाज ही इतना सड़ा आ है क हमारे उ च वचार कुछ चल ही नह
सकते। अकेला चना भाड़ नह फोड़ सकता। हमारे स चार एक तरह के पशु ह जनक
ब ल माता- पता क जद और हठ क वेद पर चढ़ाई जाती है। भारत का उ ार तब तक
नह हो सकता।
फस्स्स्! एकदम अश से फश पर गर पड़े। बाइ स कल क फुँक नकल गई। कभी
गाड़ी नाव पर, कभी नाव गाड़ी पर। प प साथ नह था और नीचे दे खा तो जान पड़ा क
गाँव के लड़क ने सड़क पर ही काँट क बाड़ लगाई है। उ ह भी दो गा लयाँ द , पर
उससे तो पं चर सुधरा नह । कहाँ तो भारत का उ ार हो रहा था और कहाँ अब
कालानगर तक इस चरखे को खच ले जाने क आप से कोई न तार नह दखता।
पास के मील के प थर पर दे खा क कालानगर यहाँ से सात मील है। सरे प थर के
आते-आते म बेदम हो लया था। धूप जेठ क , और कंकरीली सड़क, जसम लद ई
बैलगा ड़य क मार से छः-छः इंच श कर क -सी बारीक पसी ई सफेद म बछ
ई। काले पेटट लैदर के जूत पर एक-एक इंच सफेद पा लश चढ़ गई। लाल मुँह को
प छते-प छते माल भीग गया और मेरा सारा आकार स य व ान का-सा नह , वरन्
सड़क कूटने वाले मज र का-सा हो गया। सवा रय के हम लोग इतने गुलाम हो गए ह
क दो तीन मील चलते ही छठ का ध याद आने लगता है।

“बाबूजी, या बाइ स कल म पं चर हो गया है?”


एक तो च मा, उस पर रेत क तह जमी ई, उस पर ललाट से टपकते ए पसीने क
बू द, गम क चढ़ और कालीरात क सी ल बी सड़क। मने दे खा ही नह था क दोन
ओर या है। यह श द सुनते ही सर उठाया, तो दे खा क एक सोलह-स ह वष क क या
सड़क के कनारे खड़ी है।
“हाँ, हवा नकल गई है और पं चर भी हो गया है। प प मेरे पास है नह । कालानगर
ब त र तो है नह , अभी जा प ँचता ँ।”
अ त का वा य मने सफ़ ठ दखाने के लए कहा था। मेरा जी जानता था क पाँच
मील पाँच सौ मील के-से दख रहे थे।
“इस सूरत से तो आप कालानगर या कलक े प ँच जाएँगे। जरा भीतर च लए,
कुछ जल पी जए। आपक जीभ सूखकर तालू से चपट गई होगी। चाचाजी क
बाइ स कल म प प है और हमारा नौकर गो व द पं चर सुधारना भी जानता है।”
“नह , नह —”
“नह , नह या, हाँ, हाँ!”
य कहकर बा लका ने मेरे हाथ से बाइ स कल छ न ली और सड़क के एक तरफ हो ली।
म भी उसके पीछे चला। दे खा क एक कँट ली बाढ़ से घरा बगीचा है जसम एक बंगला
है। यह पर कोई ‘चाचाजी’ रहते ह गे, पर तु यह बा लका कैसी?
मने च मा माल से प छा और उसका मुँह दे खा। पारसी चाल क एक गुलाबी साड़ी
के नीचे चकने काले बाल से घरा आ उसका मुखम डल दमकता था और उसक
आँख मेरी ओर कुछ दया, कुछ हँसी और कुछ व मय से दे ख रही थ । बस पाठक! ऐसी
आँख मने कभी नह दे खी थ । मानो वे मेरे कलेजे को घोलकर पी ग । एक अ त
कोमल, शा त यो त उनम से नकल रही थी। कभी एक तीर म मारा जाना सुना है?
कभी एक नगाह म दय बेचना पड़ा है? कभी तारामै क और च ुमै ी नाम आए ह?
मने एक सेकंड म सोचा और न य कर लया क ऐसी सु दर आँख लोक म न ह गी
और य द कसी ी क आँख को ेमबु से कभी दे खूंगा तो इ ह को।
“आप सतारपुर से आए ह। आपका नाम या है?”
“म जयदे वशरण वमा ँ। आपके चाचाजी…”
“ओ-हो, बाबू जयदे वशरण वमा, बी.ए.; ज ह ने ‘सुखमय जीवन’ लखा है! मेरा
बड़ा सौभा य है क आपके दशन ए! मने आपक पु तक पढ़ है और चाचाजी तो
उसक शंसा बना कए एक दन भी नह जाने दे ते। वे आपसे मलकर ब त स
ह गे; बना भोजन कए आपको न जाने दगे और आपके ंथ के पढ़ने से हमारा प रवार-
सुख कतना बढ़ा है, इस पर कम से कम दो घंटे तक ा यान दगे।”
ी के सामने उसके नैहर क बड़ाई कर दे और लेखक के सामने उसके ंथ क , यह
य बनने का अमोघ मं है। जस साल मने बी.ए. पास कया था, उस साल कुछ दन
लखने क धुन उठ थी। लॉ कालेज के फ ट ईयर म से शन और कोड क परवाह न
करके एक ‘सुखमय जीवन’ नामक पोथी लख चुका था। समालोचक ने आड़े हाथ
लया था और वष भर म स ह तयां बक थ । आज मेरी कदर ई क कोई उसका
सराहने वाला तो मला।
इतने म हम लोग बरामदे म प ँच,े जहाँ पर कनटोप पहने, पंजाबी ढं ग क दाढ़ रखे
अधेड़ महाशय कुस पर बैठे पु तक पढ़ रहे थे। बा लका बोली,
“चाचाजी, आज आपके बाबू जयदे वशरण वमा बी.ए. को साथ लाई ँ। इनक
बाइ स कल बेकाम हो गई है। अपने य ंथकारसे मलाने के लए कमला को ध यवाद
मत द जए, द जए उनके प प भूल आने को!”
वृ ने ज द ही च मा उतारा और दोन हाथ बढ़ाकर मुझसे मलने के लए पैर
बढ़ाए।
“कमला, जरा अपनी माता को तो बुला ला। आइए बाबू साहब, आइए। मुझे आपसे
मलने क बड़ी उ क ठा थी। म गुलाबराय वमा ँ। पहले कमसे रयट म हेड- लक था।
अब पे शन लेकर इस एका त थान म रहता ।ँ दो गौ रखता ँ और कमला तथा उसके
भाई बोध को पढ़ाता ँ। म समाजी ँ; मेरे यहाँ परदा नह है। कमला ने ह द
म डल पास कर लया है। हमारा समय शा के पढ़ने म बीतता है। मेरी धमप नी
भोजन बनाती और कपड़े सी लेती है; म उप नषद् और योगवा स का तजुमा पढ़ा
करता ँ। कूल म लड़के बगड़ जाते ह, बोध को इस लए घर पर पढ़ाता ँ।”
इतना प रचय दे चुकने पर वृ ने ास लया। मुझे भी इतना ान आ क कमला
के पता मेरी जा त के ही ह। जो कुछ उ ह ने कहा था, उसक ओर मेरे कान नह थे, मेरे
कान उधर थे, जधर से माता को लेकर कमला आ रही थी।
“आपका थ बड़ा ही अपूव है। दा प य-सुख चाहने वाल के लए लाख पये से
भी अनमोल है। ध य है आपको! ी को कैसे स रखना, घर म कलह कैसे नह होने
दे ना, बाल-ब च को य कर स च र बनाना, इन सब बात म आपके उपदे श पर चलने
वाला पृ वी पर ही वग-सुख भोग सकता है। पहले कमला क माँ और मेरी कभी-कभी
खटपट हो जाया करती थी। उसके याल अभी पुराने ढं ग के ह। पर जब क म रोज
भोजन के पीछे उसे आध घंटे तक आपक पु तक का पाठ सुनाने लगा ँ, तब से हमारा
जीवन हडोले क तरह झूलते-झूलते बीतता है।”
मुझे कमला क माँ पर दया आई, जसको वह कूड़ा-करकट रोज सुनना पड़ता
होगा। मने सोचा क ह द के प -स पादक म यह बूढ़ा य न आ? य द होता तो
आज मेरी तूती बोलने लगती।
“आपको गृह थ जीवन का कतना अनुभव है! आप सब कुछ जानते ह! भला इतना
ान कभी पु तक से मलता है? कमला क माँ कहा करती थी क आप केवल कताब
के क ड़े ह, सुनी-सुनाई बात लख रहे ह। म बार-बार यह कहता था क इस पु तक के
लखने वाले को प रवार का खूब अनुभव है। ध य है आपक सहध मणी! आपका और
उसका जीवन कतने सुख से बीतता होगा! और जन बालक के आप पता ह, वे कैसे
बड़भागी ह क सदा आपक श ा म रहते ह; आप जैसे पता का उदाहरण दे खते ह।”
कहावत है क वे या अपनी अव था कम दखाना चाहती है और साधु अपनी
अव था अ धक दखाना चाहता है। भला, ंथकार का पद इन दोन म कसके समान है?
मेरे मन म आया क कह ँ क अभी मेरा पचीसवाँ वष चल रहा है, कहाँ का अनुभव और
कहाँ का प रवार? फर सोचा क ऐसा कहने से ही म वृ महाशय क नगाह से उतर
जाऊँगा और कमला क माँ स ची हो जाएगी क बना अनुभव के छोकरे ने गृह थ के
क -धम पर पु तक लख मारी है। यह सोचकर म मुसकरा दया और ऐसी तरह मुँह
बनाने लगा क वृ ने समझा क अव य म संसार-समु म गोते मारकर नहाया आ ँ।

वृ ने उस दन मुझे जाने नह दया। कमला क माता ने ी त के साथ भोजन कराया


और कमला ने पान लाकर दया। न मुझे अब कालानगर क मलाई क बरफ याद रही
और न सनक म क । चाचाजी क बात म फ सकड़े स र तो मेरी पु तक और उसके
रामबाण लाभ क शंसा थी; जसको सुनते-सुनते मेरे कान ख गए। फ सकड़ा पचीस
वह मेरी शंसा और मेरे प त-जीवन और पतृ-जीवन क म हमा गा रहे थे। काम क बात
बीसवाँ ह सा थी, जससे मालूम पड़ा क अभी कमला का ववाह नह आ है, उसे
अपनी फूल क यारी को स हालने का बड़ा ेम है, वह सखी के नाम से ‘म हला
मनोहर’ मा सक प म लेख भी दया करती है।
सायंकाल को म बगीचे म टहलने नकला। दे खता या ँ क एक कोने म केले के
झाड़ के नीचे मो तये और रजनीग धा क या रयाँ ह और कमला उनम पानी दे रही है।
मने सोचा क यही समय है। आज मरना है या जीना है। उसको दे खते ही मेरे दय म ेम
क अ न जल उठ थी और दन भर वहाँ रहने से वह धधकने लग गई थी। दो ही पहर म
म बालक से युवा हो गया था। अं ेज़ी महाका म, ेममय उप यास म और कोस के
सं कृत-नाटक म जहाँ-जहाँ े मका- े मक का वातालाप पढ़ा था, वहाँ-वहाँ य का
मरण करके वहाँ-वहाँ के वा य को घोख रहा था। पर यह न य नह कर सका क
इतने थोड़े प रचय पर भी बात कैसे करनी चा हए। अ त को अं ेज़ी पढ़नेवाले क धृ ता
ने आयकुमार क शालीनता पर वजय पाई और चपलता क हए, बेसमझी क हए,
ढ ठपन क हए, पागलपन क हए, मने दौड़कर कमला का हाथ पकड़ लया। उसके चेहरे
पर सुख दौड़ गई और डोलची उसके हाथ से गर पड़ी। म उसके कान म कहने लगा,
“आपसे एक बात करनी है।”
“ या? यहाँ कहने क कौन सी बात है?”
“जब से आपको दे खा है तब से…”
“बस, चुप करो। ऐसी धृ ता!”
अब मेरा वचन- वाह उमड़ चुका था। म वयं नह जानता था क म या कर रहा ँ,
पर लगा बकने, “ यारी कमला, तुम मुझे ाण से बढ़कर हो; यारी कमला, मुझे अपना
मर बनने दो। मेरा जीवन तु हारे बना म थल है, उसम मंदा कनी बनकर बहो। मेरे
जलते ए दय म अमृत क प बन जाओ। जब से तु ह दे खा है, मेरा मन मेरे अधीन
नह है। म तब तक शा त न पाऊँगा जब तक तुम…”
कमला जोर से चीख उठ और बोली—”आपको ऐसी बात कहते ल जा नह आती?
ध कार है आपक श ा को और ध कार है आपक व ा को! इसी को आपने
स यता मान रखा है क अप र चत कुमारी से एका त ढूं ढकर ऐसा घृ णत ताव कर!
तु हारा यह साहस कैसे हो गया? तुमने मुझे या समझ रखा है? ‘सुखमय जीवन’ का
लेखक और ऐसा घृ णत च र । चु लू-भर पानी म डू ब मरो। अपना काला मुँह मुझे मत
दखाओ। अभी चाचाजी को बुलाती ।ँ ”
म सुनता जा रहा था। या म व दे ख रहा ँ? यह अ न वषा मेरे कस अपराध
पर? तो भी मने हाथ नह छोड़ा। कहने लगा, “सुनो कमला, य द तु हारी कृपा हो जाए,
तो सुखमय जीवन…”
“दे खा तेरा सुखमय जीवन! आ तीन के साँप! पापा मा!! मने सा ह य-सेवी जानकर
और ऐसे उ च वचार का लेखक समझकर तुझे अपने घर म घुसने दया और तेरा
व ास और स कार कया था। छ पा पन्! वकदा भक! बडाल तक! मने तेरी
सारी बात सुन ली ह।” चाचाजी आकर लाल-लाल आँख दखाते ए, ोध से काँपते ए
कहने लगे, “शैतान, तुझे यहाँ आकर माया-जाल फैलाने का थान मला। ओफ्! म तेरी
पु तक से छला गया। प व जीवन क श सा म फाम के फाम काले करने वाले, तेरा
ऐसा दय! कपट ! वष के घड़े…”
उनका धारा वाह ब द ही नह होता था, पर कमला क गा लयाँ और थ और
चाचाजी क और। मने भी गु से म आकर कहा, “बाबू साहब, जबान सँभालकर बो लए।
आपने अपनी क या को श ा द है और स यता सखाई है, मने भी श ा पाई है और
कुछ स यता सीखी है। आप धम सुधारक ह। य द म उसके गुण और प पर आस हो
गया, तो अपना प व णय उसे य न बताऊँ। पुराने ढर के पता रा ही होते सुने गए
ह। आपने य सुधार का नाम लजाया है?”
“तुम सुधार का नाम मत लो। तुम तो पापी हो। ‘सुखमय जीवन’ के क ा होकर…”
“भाड़ म जाए ‘सुखमय जीवन’! उसी के मारे नाक दम है!!! ‘सुखमय जीवन’ के
क ा ने या यह शपथ खा ली है क जनम-भर वाँरा ही रहे? या उसम ेमभाव नह
हो सकता? या उसम दय नह होता?”
“ह, जनम भर वाँरा?”
“ह काहे क ? म तो आपक पु ी से नवेदन कर रहा था क जैसे उसने मेरा दय हर
लया है, वैसे य द अपना हाथ मुझे दे , तो उसके साथ ‘सुखमय जीवन’ के उन आदश
को य अनुभव क ँ , जो अभी तक मेरी क पना म ह। पीछे हम दोन आपक आ ा
माँगने आते। आप तो पहले ही वासा बन गए।”
“तो आपका ववाह नह आ? आपक पु तक से तो जान पड़ता है क आप कई
वष के गृह थ-जीवन का अनुभव रखते ह। तो कमला क माता ही स ची थ ।”
इतनी बात ई थ , पर न मालूम य मने कमला का हाथ नह छोड़ा था। इतनी गम
के साथ शा थ हो चुका था, पर तु वह हाथ जो ोध के कारण लाल हो गया था, मेरे
हाथ म ही पकड़ा आ था। अब उसम सा वक भाव का पसीना आ गया था और कमला
ने ल जा से आँख नीची कर ली थ । ववाह के पीछे कमला कहा करती है क न मालूम
वधाता क कस कला से उस समय मने तु ह झटककर अपना हाथ नह खच लया। मने
कमला के दोन हाथ खचकर अपने हाथ के स पुट म ले लये (और उसने उ ह हटाया
नह !) और इस तरह चार हाथ जोड़कर वृ से कहा:
“चाचाजी, उस नक मी पोथी का नाम मत ली जए। बेशक, कमला क माँ स ची है।
पु ष क अपे ा याँ अ धक पहचान सकती ह क कौन अनुभव क बात कह रहा है
और कौन ग प हाँक रहा है। आपक आ ा हो, तो कमला और म दोन स चे सुखमय
जीवन का आर भ कर। दस वष पीछे म जो पोथी लखूँगा, उसम कताबी बात न ह गी,
केवल अनुभव क बात ह गी।”
वृ ने जेब से माल नकालकर च मा प छा और अपनी आँख प छ । आँख पर
कमला क माता क वजय होने के ोभ के आँसू थे, या घर बैठे पु ी को यो य पा
मलने के हष के आँस,ू राम जाने।
उ ह ने मुसकराकर कमला से कहा, “दोन मेरे पीछे -पीछे चले आओ। कमला! तेरी
माँ ही सच कहती थी।” वृ बंगले क ओर चलने लगे। उनक पीठ फरते ही कमला ने
आँख मूँदकर मेरे क धे पर सर रख दया।
थम काशन: भारत म , सन् 1911
बु का काँटा

र घुनाथयाप्प्कर,साद वधा
त्त् वेद या नात् पशाद तवद यह या?
म जान है। एक ओर तो ह द का यह गौरवपूण दावा है क
इसम जैसा बोला जाता है, वैसा लखा जाता है और जैसा लखा जाता है, वैसा ही बोला
जाता है। सरी ओर ह द के कणधार का अ वगत श ाचार है क जैसे धम पदे शक
कहते ह क हमारे कहने पर चलो, हमारी करनी पर मत चलो, वैसे ही जैसे ह द के
आचाय लख, वैसे लखो, जैसे वे बोल, वैसे मत लखो, श ाचार भी कैसा? ह द
सा ह य स मेलन के सभाप त अपने ाकरण कषा यत क ठ से कह ‘पस मदास’ और
‘ह कस लाल’ और उनके प छाप ऐसी तरह क पढ़ा जाए- ‘पु षो म अ दास अ’
और ‘ह रकृ णलाल अ’! अजी जाने भी दो, बड़े-बड़े बह गए और गधा कहे कतना
पानी! कहानी कहने चले हो या दल के फफोले फोड़ने?
अ छा, जो कुम। हम लालाजी के नौकर ह, बगन के थोड़े ही ह। रघुनाथ साद
वेद अब के इ टरमी डएट परी ा म बैठा है। उसके पता दारसूरी के पहाड़ के रहने
वाले और आगरे के बुझा तया बक के मैनेजर ह। बक के द तर के पीछे चौक म उनका
तथा उनक ी का बारहमा सया मकान है। बाबू बड़े सीधे, अपने स ा त के प के
और खरे आदमी ह, जैसे पुराने ढं ग के होते ह। बक के वामी इन पर इतना भरोसा करते
ह क कभी छु नह दे ते और बाबू काम के इतने प के ह क छु माँगते नह । न बाबू
वैसे क र सनातनी ह क बना मुँह धोए ही तलक लगाकर टे शन पर दरभंगा महाराज
के वागत को जाएँ, और न ऐसे समाजी ही ह क खंजड़ी लेकर ‘तोड़ पोपगढ़ लंका का’
करने दौड़। उसूल के प के ह।
हाँ, उसूल के प के ह। सुबह एक याला चाय पीते ह तो ऐसा क जेठ म भी नह
छोड़ते और माघ म भी एक के दो नह करते। उद क दाल खाते ह, या मजाल है क
बुखार म भी मूँग क दाल का एक दाना खा जाएँ। आजकल के एम.ए., बी.ए. पासवाल
को हँसते ह क शे सपीयर और बेकन चाट जाने पर भी वे द तर के काम क अं ेज़ी
च नह लख सकते। अपने जमाने के सा थय को सराहते ह जो शे सपीयर के दो
तीन नाटक न पढ़कर सारे नाटक पढ़ते थे, ड शनरी से अं ेज़ी श द के लै टन धातु याद
करते थे। अपने गु बाबू काश बहारी मुकज क शंसा रोज करते थे क उ ह ने
‘लाय ेरी इ तहान’ पास कया था। ऐसा कोई दन ही बीतता होगा ( नगो शएबल
इ सटमे ट ऐ ट के अनुसार होने वाली तातील को मत ग नए) क जब उनके ‘लाइ ेरी
इ तहान’ का उपा यान नये बी.ए. हेड लक को उसके मन और बु क उ त के लए
उपदे श क तरह नह सुनाया जाता हो। लाट साहब ने मुकज बाबू को बंगाल-लाय ेरी म
जाकर खड़ा कर दया। राजा ह र के य म ब ल के खूंटे म ब धे ए शुनःशेप क
तरह बाबू अलमा रय क ओर दे खने लगे। लाट साहब मनचाहे जैसी अलमा रय से
मनचाहे जैसी कताब नकालकर मनचाहे जहाँ से पूछने लगे। सब अलमा रयाँ खुल ग ,
सब कताब चुक ग , लाट साहब क बाँह ख गई, पर बाबू कहते-कहते नह थके; लाट
साहब ने अपने हाथ से बाबू को एक घड़ी द और कहा क म अं ेज़ी- व ा का छलका
भर जानता ँ, तुम उसक गरी खा चुके हो। यह कथा पुराण क तरह रोज कही जाती
थी।
इन उसूल-धन बाबूजी का एक उसूल यह भी था क लड़के का ववाह छोट उमर म
नह करगे। इनक जा त म पाँच-पाँच वष क क या के पता लड़के वाल के लए वैसे
मुँह बाये रहते ह जैसे पु कर क झील म मगरम छ नहानेवाल के लए; और वे कभी-
कभी दरवाज़े पर धरना दे कर आ बैठते थे क हमारी लड़क ली जए, नह तो हम आपके
ार पर ाण दे दगे। उसूल के प के बाबूजी इनके भय से दे श ही नह जाते थे और वे
क या- पता- पी मगरम छ अपनी पहाड़ी गोह को छोड़कर आगरे आकर बाबूजी क
न ा को भंग करते थे। रघुनाथ क माता को सास बनने का बड़ा चाव था। जहाँ वह कुछ
कहना आर भ करती क बाबूजी बक क लेजर-बुक खोलकर बैठ जाते या लकड़ी
उठाकर घूमने चल दे त।े बहस करके य से आज तक कोई नह जीता, पर म मारकर
जीत सकता है।
बाबू के पड़ोस म एक ववाह आ था। उस घर क माल कन लाहना बाँटती ई
रघुनाथ क माँ के पास आई। रघुनाथ क माँ ने नई ब को असीस द और वयं मठाई
रखने तथा ब क गोद म भरने के लए कुछ मेवा लाने भीतर गई। इधर मुह ले क वृ ा
ने कहा, “प ह बरस हो गए लाहना लेते-लेते। आज तक एक बतासा भी इनके यहाँ से
नह मला।” सरी वृ ा, जो तीन बड़ी और दो छोट पतो क सेवा से इतनी सुखी
थी क रोज मृ यु को बुलाया करती थी, बोली, “बड़े भाग से बेट का याह होता है।”
तीसरी ने नाक क झुलनी हलाकर कहा, “अपना खाने-पहनने का लोभ कोई छोड़े
तब तो बेटे क ब लावे। ब के आते ही खाने-पहनने म कमी जो हो जाती है”। चौथी ने
कहा—”ऐसे कमाने खाने को आग लगे। य तो कु े भी अपना पेट भर लेते ह। कमाई
सफल करने का यही तो मौका होता है। इसके प त ने चार बेट के ववाह म मकान और
जमीन गरवी रख दए थे और कम-से-कम अपने जीवन-भर के लए कंगाली का क बल
ओढ़ लया था।”
अव य ही ये सब बात रघुनाथ क माँ को सुनाने के लए कही गई थ । रघुनाथ क माँ
भी जानती थी क ये मुझे सुनाने को कही जा रही ह, पर तु उसके आते ही मुह ले क
एक और ही ी क न दा चल पड़ी और रघुनाथ क माँ यह जानकर भी क उस ी के
पास जाते ही मेरी भी ऐसी न दा क जाएगी, हँसते-हँसते उनक बात म स म त दे ने लग
गई। पतो से सु खनी बु ढ़या ने एक ह के-से अनुदा से कहा, “अब तुम रघुनाथ का
याह इस साल तो करोगी?” उसके चाचा जान, गहने तो बनवा रहे ह।” रघुनाथ क माँ ने
भी वैसे ही ह के उदा से उ र दया। उसके अनुदा को यह समझ गई और इसके
उदा को वे सब। वर का वचार ह तान के मद क भाषा म भले ही न रहा हो,
य क भाषा म उससे अब भी कई अथ काश कए जाते ह।
“म तु ह सलाह दे ती ँ क ज द रघुनाथ का याह कर लो। कलयुग के दन ह,
लड़का बो डग म रहता है, बगड़ जाएगा। आगे तु हारी मज , य बहन, सच है न? तू
य नह बोलती?”
“म या क ँ, मेरे रघुनाथ का-सा बेटा होता तो अब तक पोता खलाती।” य और
दो-चार बात करके यह ी-दल चला गया और गृ हणी के दय-समु को कई वचार
क लहर से छलकता छोड़ गया।
सायंकाल भोजन करते समय बाबू बोले, “इन ग मय म रघुनाथ का याह कर दगे।”
ी ने पहले ही लेजर और छड़ी छपाकर ठान ली थी क आज बाबूजी को दबाऊँगी
क पड़ो सय क बो लयाँ नह सही जात । अचानक रंग पहले चढ़ गया। पूछने लगी, “ह,
आज यह कैसे सूझी?”
“दारसूरी से भैया क च आई है। ब त कुछ बात लखी ह। कहा है क तुम तो
परदे शी हो गए। यहाँ चार महीने बाद वृह प त सह थ हो जाएगा; फर डेढ़-दो वष तक
याह नह ह गे। इस लए छोट -छोट ब चय के याह हो रहे ह, वृह प त के सह के पेट
म प ँचने के पहले कोई चार-पाँच वष क लड़क कुँवारी नह बचेगी। फर जब वृह प त
कह शेर क दाढ़ म से जीता-जागता नकल आया तो न बराबर का घर मलेगा, न जोड़
क लड़क । तु ह या है, गाँव म बदनाम तो हम हो रहे ह। मने अभी दो-तीन घर रोक रखे
ह। तुम जानो, अब के मेरा कहना न मानोगे तो म तुमसे ज म-भर बोलने का नह ।”
“भैया ठ क तो कहते ह।”
“म भी मानता ँ क अब लड़के का उ ीसवां वष है। अब इ टरमी डएट पास हो ही
जाएगा। अब हमारी नह चलेगी, दे वर-भौजाई जैसा नचाएंग,े वैसा ही नाचना पड़ेगा। अब
तक मेरी चली, यही ब त आ।”
“भैया क कहो, मेरा कहना तो पाँच वष से जो मान रहे हो”
“अ छा, अब जदो मत। मने दो महीने क छु ली है। छु मलते ही दे श चलते ह।
ब चा को लख दया है क इ तहान दे कर सीधा घर चला आ। दस-प ह दन म आ
जाएगा। तब तक हम घर भी ठ क कर ल और दन भी। अब तुम आगरे ब को लेकर
आओगी।”
ी ने सोचा, बताशेवाली बु ढ़या का उलाहना तो मटे गा।

“बा’ छा’ मेरे हाल म आपका या जी लगेगा? गरीब का या हाल? रब रोट दे ता है,
दन-भर मेहनत करता ँ, रात पड़ा रहता ँ। बा’छा, तुम जैसे सा लोक क बरकत से
म हज कर आया, वाजा का उस दे ख आया, तीन बेले नमाज पढ़ लेता ँ, और मुझे या
चा हए? बा’छा, मेरा काम ट चलाना नह है। अब तो इस मोती क कमाई खाता ,ँ
कभी सवार ले जाता ,ँ कभी लादा, ढाई मण कणक पा लेता ँ, तो दो पौली बच जाती
है। रब क मरजी, मेरा अपना घर था; सह के व क काफ़ ज़मीन थी, नाते-पडो सय
म मेरा नाम था। म धामपुर के नवाब का खाना बनाता था और मेरे घर म से उसके जनाने
म पकाती थी। एक रात को म खाना बना- खला के अपनी मंजड़ी पर सोया था क मेरे
मौला ने मुझे आवाज़ द , ‘लाही, लाही’ हज कर आ।’ म आँख मल के खड़ा हो गया, पर
कुछ दखा नह । फर सोने लगा क फर वही आवाज़ आई क ‘लाही, तू मेरी पुकार नह
सुनता? जा, हज कर आ।’ म समझा, मेरा मौला मुझे बुलाता है। फर आवाज़ आई,
‘लाही, चल पड़; म तेरे नाल ँ, म तेरा बेड़ा पार क ँ गा। मुझसे रहा नह गया। मने
अपना क बल उठाया और आधी रात को चल पड़ा। बा’छा, म रात चला, दन चला,
भीख माँगकर चलते-चलते ब बई प ँचा। वहाँ मेरे प ले टका नह था, पर एक ह भाई
ने मुझे टकट ले दया। का फ़ले के साथ म जहाज पर चढ़ गया। वह मुझे छः महीने
लगे। पूरी हज क । जब लौटे तो रा ते म जहाज भटक गया। एक च ान पानी के नीचे थी,
उससे टकरा गया। उसके पीछे क दोन लालटे न ऊपर आ ग और वे हम शैतान क -सी
आँख दखाई दे ने लग । सबने समझा मर जायगे, पानी म गोर बनेगी। क तान ने छोट
क तयाँ खोल और उनम हा जय को बठाकर छोड़ दया। मद का ब चा आप अपनी
जगह से नह टला, जहाज के नाल डू ब गया। अंधेरे म कुछ सूझता नह था। सवेरा होते
ही हमने दे खा क दो क तयाँ बह रही ह और न जहाज है, न सरी क तयाँ। पता ही
नह , हम कहाँ से कधर जा रहे थे। लहर हमारी क तय को उछालती, नचाती, डु बोती,
झकोड़ती थ । जो ल हा बीतता था, हम खैर मनाते थे। पर मेरे मा लक ने करम कया।
मेरे अ लाह ने, मेरे मौला ने जैसे उस रात को कहा था, मेरा बेड़ा पार कया। तीन दन,
तीन रात हम बेपते बहते रहे, चौथे दन माल के जहाज ने हमको उठा लया और छठे दन
कराची म हमने आ क नमाज पढ़ । पीछे सुना क तीन सौ हाजी मर गए।
“वहाँ से म वाजा क जयारत को चला, अजमेर शरीफ़ म दरगाह का द दार पाया।
इस तरह बा’छा, साढ़े सात महीने पीछे म घर आया। आकर घर दे खता या ँ क सब
पटरा हो गया है। नवाब जब सबेरे उठा तो उसने ना ता माँगा। नौकर ने कहा क इलाही
का पता नह । बस, वह जल गया। उसने मेरा घर फुंकवा दया, मेरी जमीन अपनी
रखवाले के भाई को दे द और मेरी बीवी को ल डी बनाकर कैद कर लया। म उसका
या ले गया था, अपना क बल ले गया था। और पछले तीन महीने क तलब अपनी पेट
म उसके बावच खाने म रख गया था। भला, मेरा मौला बुलावे और म न जाऊँ? पर
उसको जो एक घ टा दे र से खाना मला, इससे बढ़कर और गुनाह या होता?
“इसके प हव दन जनाने म एक सोने क अंगूठ खो गई। नबाव ने मेरी घरवाली
पर शक कया। उसने पूछा तो वह बोली क मेरा कौन-सा घर और घरवाला बैठा है क
उसके पास अंगूठ ले जाऊँगी। म तो यह रहती ँ। सीधी बात थी, पर उससे सुनी नह
गई। जला-भूना तो था ही, बत लेकर लगा मारने। बा’छा, म या क ,ँ मौला मेरा गुनाह
ब शे, आज पाँच बरस हो गए ह, पर जब म घरवाली क पीठ पर पचास दाग क
गु छयाँ दे खता ँ, तो यही पछतावा रहता है क रब ने उस सूर का (तोबा! तोबा!) गला
घ टने को यहाँ य न रखा। मारते-मारते जब मेरी घरवाली बेहोश हो गई तब डरकर उसे
गाँव के बाहर फकवा दया। तीसरे दन वह वहाँ से घसटती- घसटती चलकर अपने भाई
के यहाँ प ँची।”
रघुनाथ ने धे गले से कहा, “तुमने फ रयाद नह क ?”
“कचह रयाँ गरीब के लए नह ह बा’छा, वे तो सेठ के लए ह। गरीब क फ रयाद
सुननेवाला सुनता है। उसने प ह दन म सुनकर कुम भी दे दया। मेरी औरत को
मारते-मारते उस पाजी के हाथ क अंगुली म बत क एक सली चुभ गई थी। वही पक
गई। ल म ज़हर हो गया। प हव दन मर गया। हज से आकर मने सारा हाल सुना।
अपने जले ए घर को दे खा और अपने परदादे क सह क काफ ज़मीन को भी दे खा।
चला आया। म जद म जाकर रोया। मेरे मौला ने मुझे कुम दया, ‘लाही, म तेरे नाल ,ँ
अपनी जो को धीरज दे !’ म साले के यहाँ प ँचा। उसने पचीस पये दए, म ट मोल
लेकर पहाड़ चला आया और यहाँ रब का नाम लेता ँ और आप जैसे सा लोग क
ब दगी करता ँ। रब का नाम बड़ा है।”
रघुनाथ इ तहान दे कर रेल से घराठनी तक आया। वहाँ तीस मील पहाड़ी रा ता था।
री पर चूने के-से ढे र चमकते दखने लगे, जो कभी न पघलने वाली बफ के पहाड़ थे।
रा ता सांप क तरह च कर खाता था। मालूम होता क एक घाट पूरी हो गई है, पर
य ही मोड़ पर आते, य ही उसक जड़ म एक और आधी मील का च कर नकल
पड़ता। एक ओर ऊँचा पहाड़, सरी ओर ढाई सौ फुट गहरी ख । और कराये के
ट टु क लत क सड़क के छोर पर चल जससे सवार क एक टाँग तो ख पर ही
लटकती रहे। आगे वैसा ही रा ता, वैसी ही ख , सामने वैसे ही कोने पर चलने वाले ट ।
जब धूप बढ़ और जी न लगा तो मोती के वामी इलाही से रघुनाथ ने उसका इ तहास
पूछा। उसने जो सीधी और व ास से भरी, ःख क धारा से भीगी ई कथा कही,
उससे कुछ माग कट गया। कतने गरीब का इ तहास ऐसी च घटना क धूप-छाया
से भरा आ है, पर हम लोग कृ त के इन स चे च को न दे खकर उप यास क
मृगतृ णा म चम कार ढूँ ढते ह।
धूप चढ़ गई थी क वे एक गाँव म प ँचे। गाँव के बाहर सड़क के सहारे एक कुआँ था
और उसी के पास एक पेड़ के नीचे इलाही ने वयं और अपने मोती के लए व ाम करने
का ताव कया, “घोड़े को हारी दे कर और पानी-वानी पीकर धूप ढलते ही चल दगे
और बात क बात म आपको घर प ँचा दगे।” रघुनाथ को भी टाँग सीधी करने म कोई
उ न था। खाने क इ छा ब कुल न थी। हाँ, यास लग रही थी। रघुनाथ अपने ब से म
से लोटा डोर नकालकर कुएँ क तरफ चला।

कुएँ पर दे खा क छह-सात याँ पानी भरने और भरकर ले जाने क कई दशा म ह।


गाँव म परदा नह होता। वहाँ सब पु ष सब य से और सब याँ सब पु ष से
नडर होकर बात कर लेती ह, और शहर के ल बे घूंघट के नीचे जतना पाप होता है,
उसका दसवाँ ह सा भी गाँव म नह होता। इसी से तो कहावत म बाप ने बेटे को उपदे श
दया है क ल बे घूँघटवाली से बचना। अनजान पु ष कसी भी ी से ‘बहन’ कहकर
बात कर लेता है और ी बाज़ार म जाकर कसी भी पु ष से ‘भाई’ कहकर बोल लेती
है। यही वा चक स ध दनभर के वहार म ‘पासपोट’ का काम दे दे ती है। हँसी-ठठ् टा
भी होता है, पर कोई भाव नह खड़ा होता। राजपूताने के गाँव म ी ऊँट पर बैठ
नकल जाती है और खेत के लोग “मामीजी, मामीजी” च लाया करते ह। न उसका
अथ उस श द से बढ़कर कुछ होता है और न वह चढ़ती है। एक गाँव म बारात जीमने
बैठ । उस समय याँ सम धय को गाली गाती ह। पर गा लयाँ न गाई जाती दे ख
नाग रक-सुधारक बराती को बड़ा हष आ। वह गाँव के एक वृ से कह बैठा, “बड़ी
खुशी क बात है क आपके यहाँ इतनी तर क हो गई है।” बुड्ढ़ा बोला, “हाँ साहब,
तर क हो रही है। पहले गा लय म कहा जाता था फलाने क फलानी के साथ और
अमुक क अमुक के साथ। लोग-लुगाई सुनते थे, हँस दे ते थे। अब घर-घर म वे ही बात
स ची हो रही ह। अब गा लयाँ गाई जाती ह तो चोर क दाढ़ म तनके नकलते ह। तभी
तो आ दोलन होते ह क गा लयाँ ब द करो, य क वे चुभती ह।”
रघुनाथ य द चाहता तो कसी भी पानी भरनेवाली से पीने को पानी मांग लेता, पर तु
उसने अब तक अपनी माता को छोड़कर कसी ी से कभी बात नह क थी। य के
सामने बात करने को उसका मुँह खुल न सका। पता क कठोर श ा से बालकपन से ही
उसे वह वभाव पड़ गया था क दो वष याग म वत रहकर भी वह अपने च र को,
केवल पु ष के समाज म बैठकर, प व रख सका था। जो कोने म बैठकर उप यास पढ़ा
करते ह, उनक अपे ा खुले मैदान म खेलनेवाल के वचार अ धक प व रहते ह।
इसी लए फुटबॉल और हॉक के खलाड़ी रघुनाथ को कभी ी- वषयक क पना ही नह
होती थी; वह मानवी सृ म अपनी माता को छोड़कर और य के होने या न होने से
अन भ था, ववाह उसक म एक आव यक क तु य ब धन था। जसम सब
मनु य फँसते ह और पता क आ ानुसार वह ववाह के लए घर उसी च से आ रहा
था, जससे के कोई पहले-पहल थयेटर दे खने जाता है। कुएँ पर इतनी य को इक ा
दे खकर वह सहम गया, उसके ललाट पर पसीना आ गया और उसका बस चलता तो वह
बना पानी पए ही लौट जाता। अ तु, चुपचाप डोर-लोटा लेकर एक कोने पर जा खड़ा
आ और डोर खोलकर फाँसा दे ने लगा।
याग के बो डग क टो टय क कृपा से, ज म-भर कभी कुएँ से पानी नह ख चा
था, न लोटे म फाँसा लगाया था। ऐसी अव था म उसने सारी डोर कुएँ पर बखेर द और
उसक जो छोर लोटे से बा धी, वह कभी तो लोटे को एक सौ बीस अंश के कोण पर
लटकाती और कभी स र पर। डोर के जब वट खुलते ह तब वह ब त पच खाती है। इन
पेच म रघुनाथ क बांह भी उलझ ग । सर नीचा कए य ही वह डोर को सुलझाता था,
य ही वह उलझती जाती थी। उसे पता नह था क गाँव क य के लए वह अ त
कौतुक नयनो सव हो रहा था।
धीरे-धीरे ट का- ट पणी आर भ हो गई। एक ने हँसकर कहा, “पटवारी है, पैमाइश
क जरीब फैलाता है।।”
सरी बोली, “ना, बाज़ीगर है, हाथ-पाँव बा धकर पानी म कूद पड़ेगा और फर
सूखा नकल आएगा।”
तीसरी बोली, “ य ल ला, घरवाल से लड़कर आए हो?”
चौथी ने कहा, “ या कुएँ म दवाई डालोगे, इस गाँव म तो बीमारी नह है।”
इतने म एक लड़क बोली, “काहे क दवाई और कहाँ का पटवारी? अनाड़ी है, लोटे
म फाँसा दे ना नह आता। भाई, मेरे घड़े को मत कुएँ म डाल दे ना, तुमने तो सारी मड़ ही
रोक ली!” य कहकर वह सामने आकर अपना घड़ा उठाकर ले गई।
पहली ने पूछा, “भाई, तुम या करोगे?”
लड़क बात काटकर बोली, “कुएँ को बा धगे।”
पहली, “अरे! बोल तो।”
लड़क , “माँ ने सखाया नह ।”
संकोच, यास, ल जा और घबराहट से रघुनाथ का गला क रहा था; उसने खाँसकर
क ठ साफ करना चाहा। लड़क ने भी वैसी ही आवाज़ क । इस पर पहली ी बढ़कर
आगे आई और डोर उठाकर कहने लगी, “ या चाहते हो? बोलते य नह ?”
लड़क , “फारसी बोलगे।”
रघुनाथ ने शम से कुछ आँख ऊँची क , कुछ मुँह फेरकर कुएँ से कहा, “मुझे पानी
पीना है, लोटे से नकाल रहा… नकाल लूँगा।”
लड़क , “परस तक।”
ी बोली, “तो हम पानी पला द। ला भागव ती, गगरी उठा ला। इनको पानी पला
द।”
लड़क गगरी उठा लाई और बोली, “ले मामी के पालतू, पानी पीले, शरमा मत, तेरी
ब से नह क ँगी।”
इस पर सब याँ खल खलाकर हँस पड़ । रघुनाथ के चेहरे पर लाली दौड़ गई और
उसने यह दखाना चाहा क मुझे कोई दे ख नह रहा है, य प दस-बारह याँ उसके
भौच केपन को दे ख रही थ । सृ के आ द से कोई अपनी झप छपाने को समथ न
आ, न होगा। रघुनाथ उलटा झप गया।
“नह , नह , म आप ही…”
लड़क , “कुएँ म कूद के।”
इस पर एक और हँसी का फौवारा फूट पड़ा।
रघुनाथ ने कुछ आँख उठाकर लड़क क ओर दे खा। कोई चौदह-प ह बरस क
लड़क , शहर क छोक रय क तरह पीली और बली नह , -पु और स मुख।
आँख के डेले काले, कोए सफेद नह , कुछ म टया नीले और पघलते ए। यह जान
पड़ता था क डेले अभी पघलकर बह जाएंग।े आँख के चौतरंग हँसी, ओठ पर हँसी
और सारे शरीर पर नीरोग वा य क हँसी। रघुनाथ क आँख और नीची हो ग ।
ी ने फर कहा, “पानी पी लो जी, लड़क खड़ी है।”
रघुनाथ ने हाथ धोए। एक हाथ मुँह के आगे लगाया; लड़क गगरी से पानी पलाने
लगी। जब रघुनाथ आधा पी चुका था तब उसने ास लेते-लेते आँख ऊँची क । उस
समय लड़क ने ऐसा मुँह बनाया क ठः ठः करके रघुनाथ हँस पड़ा, उसक नाक म पानी
चढ़ गया और सारी आ तीन भीग गई। लड़क चुप।
रघुनाथ को खाँसते, डगमगाते दे खकर वह ी आगे चली आई और गगरी छ नती
ई लड़क को झड़ककर बोली, “तुझे रात- दन ऊतपन ही सूझता है। इ ह गलसूंड चला
गया। ऐसी हँसी भी कस काम क । लो, म पानी पलाती ँ।”
लड़क , “ ध पला दो, ब त दे र ई; आँसू भी प छ दो।”
स चे ही रघुनाथ के आँसू आ गये थे। उसने ी से जल लेकर मुँह धोया और पानी
पया। धीरे से कहा—“बस जी, बस।”
लड़क , “अब के आप नकाल लगे।”
रघुनाथ को मुँह प छते दे खकर ी ने पूछा, “कहाँ रहते हो?”
“आगरे।”
“इधर कहाँ जाओगे?”
लड़क बीच म ही “ शकारपुर! वहाँ ऐस का गु ारा है।” याँ खल खला उठ ।
रघुनाथ ने अपने गाँव का नाम बताया। “म पहले कभी इधर आया नह , कतनी र
है, कब तक प ँच जाऊँगा?” अब भी वह सर उठाकर बात नह कर रहा था।
लड़क , “यही प ह-बीस दन म, तीन-चार सौ कोस तो होगा।”
ी, “ छः, दो-ढाई भर ह, अभी घ टे भर म प ँच जाते हो।”
“रा ता सीधा ही है न?”
लड़क , “नह तो, बाय हाथ को मुड़कर चीड़ के पेड़ के नीचे दा हने हाथ को मुड़ने
के पीछे सातव प थर पर फर बाय मुड़ जाना, आगे सीधे जाकर कह न मुड़ना; सबसे
आगे एक गीदड़ क गुफा है, उससे उ र को बाड़ उलांघकर चले जाना।”
ी, “छोकरी, तू ब त सर चढ़ गई है, चकर- चकर करती ही जाती है। नह जी,
एक ही रा ता है; सामने नद आवेगी, परले पार बाय हाथ को गाँव है।”
लड़क , “नद म भी य ही फाँसा लगाकर पानी नकालना।”
ी उसक बात अनसुनी करके बोली, “ या उस गाँव म डाकबाबू होकर आए हो?”
रघुनाथ, “नह , म तो याग म पढ़ता ँ।”
लड़क , “ओ हो, परागजी म पढ़ते ह। कुएँ से पानी नकालना पढ़ते ह गे?”
ी, “चुप कर, यादा बक-बक काम क नह ; या इसी लए तू मेरे यहाँ आई है?”
इस पर म हला-म डल फर हँस पड़ा। रघुनाथ ने घबराकर इलाही क ओर दे खा तो
वह मजे म पेड़ के नीचे चलम पी रहा था। इस समय रघुनाथ को हाजी इलाही से ई या
होने लगी। उसने सोचा क हज से लौटते समय समु म खतरे कम ह, और कुएँ पर
अ धक।
लड़क , “ य जी, परागजी म अ कल भी बकती है?’
रघुनाथ ने मुँह फेर लया।
ी, “तो गाँव म या करने जाते हो?”
लड़क , “कमाने-खाने।”
ी, “तेरी कची नह ब द होती। यह लड़क तो पागल हो ही जाएगी।”
रघुनाथ, “म वहाँ के बाबू शोभाराम जी का लड़का ँ।”
ी, “अ छा, अ छा, तो या तु हारा ही याह है?”
रघुनाथ ने सर नीचा कर लया।
लड़क , “मामी, मामी, मुझे भी अपने नये पालतू के याह म ले चलना। बड़ा याहने
चला है। यह घोड़ी है और वह जो चलम पी रहा है, नाना बनेगा। वाह जी वाह, ऐसे बु
के आगे भी कोई लहँगा पसारेगी!”
ी लड़क क ओर झपट । लड़क गगरी उठाकर चलती बनी। ी उसके पीछे दस
ही कदम गई थी क ी-महामंडल एक अ ाहास से गूंज उठा।
रघुनाथ इलाही के पास लौट आया। पीछे मुड़कर दे खने क उसक ह मत न ई।
उसके गले म भ म का-सा वाद आ रहा था। जीवन-भर म यही उसका य से पहला
प रचय आ। उसक आ मल जा इतनी तेज थी क वह समझ गया क म इनके सामने
बन गया ँ। जीवन म ऐसी य से आधा संसार भरा रहेगा और ऐसी ही कसी से
ववाह होगा। तुलसीदास ने ठ क कहा है क “तुलसी गाय बजाय के दयो काठ म पाँव।”
य क टोली के वा य उसे गड़ रहे थे और सब वा य के ः व के ऊपर उस
पघलती ई आँख वाली क या का च म डरा रहा था।
बड़े ही उदास च से रघुनाथ घर प ँचा।
गाँव प ँचने के तीसरे दन रघुनाथ सवेरा होते ही घूमने को नकला। पहाड़ी जमीन,
जहाँ रा ता दे खने म कोसभर जंचे और चाहे उसम दस मील का च कर काट लो; बना
पानी स चे ए हरे मखमल के गलीचे से ढक ई जमीन, उस पर जंगली गुलदाऊद क
पीली टम कयाँ और वस त के फूल, आलूबोखारे और पहाड़ी करौ दे क रज से भरे ए
छोटे -छोटे रंगीले फूल जो पेड़ का प ा भी न दखने द, तज पर लटके ए बादल के-
से बफ ले पहाड़ क चो टयाँ, ज ह दे खते ही आँख अपने आप बड़ी हो जात और
जनक हवा क साँस लेने से छाती बढ़ती ई जान पड़ती; नद से नकाली ई छोट -
छोट असं य नहर जो साँप के-से च कर खा-खाकर फर धान नद क पथरीली तलेट
म जा मलत ये सब य याग के ट के घर और क चड़ क सड़क से ब कुल नराले
थे। चलते-चलते रघुनाथ का मन नह भरा और घाट के उतार-चढ़ाव क गनती न करके
वह नद क च कर क सीध म हो लया। एक ओर आम के पेड़ थे, जो बौर और
कै रय से लदे ए थे, उनके सामने धान के खेत थे, जनम से पानी कल चल- कल चल
करता आ टघल रहा था। कह उसे कंट ली बाड़ के बीच म होकर जाना पड़ता था
और कह छोटे -छोटे झरने, जो नद म जा मले थे, लाँघने पड़ते थे। इन ाकृ तक य
का आन द लेता आ हमारा च रत नायक नद क ओर बढ़ा।
इस समय वहाँ कोई न था। रघुनाथ ने एक अकृ म घाट (चौड़ी शला) पर खड़े
होकर नद क शोभा दे खी और सोचा क हजामत बनाकर नहा-धोकर घर चले। नयी
स यता के भाव से से ट रेजर और साबुन क ट कया सफारी कोट क जेब म थी ही,
ऊपर क पाकेट बुक से एक आईना भी नकल पड़ा। रघुनाथ उसी शला-फलक पर बैठ
गया और अपने मुख पी आकाश पर छाए ए कोमल बादल को मटाने के लए
अमे रका के इस जेबी व को चलाने लगा।
क वय को सोचने का समय पाखाने म मलता है और युवा को वयं हजामत
करने म। य द नाई होता तो संसार के समाचार से वही मगज चाट जाता। इसक
वै ा नक यु मुझे एक थयासो फ ट ने बताई थी। वह ब त-से तक और कुतक से
स कर रहा था क पुरानी चाल म सू म वै ा नक रह य भरे पड़े ह। यहाँ तक क
माता ब चे के सर म नजर से बचाने के लए जो काजल का ट का लगा दे ती है अथवा
ध पलाए पीछे ब चे को धूल क चुटक चटा दे ती है, इसका भी वह बजली के व ान
से समाधान कर रहा था। उसने कहा क हजामत बनाते या बनवाते समय रोम खुल जाने
से म त क तक के नायु-तार क बजली हल जाती है और वहाँ वचारश क
खुजलाहट प ँच जाती है। अ तु।
रघुनाथ क खुजलाहट का आर भ य आ क यह नद सह वष से य ही बह
रही है और य ही बहती जायेगी। कनारे के पहाड़ ने, ऊपर के आकाश ने और नीचे क
म ने उसको य ही दे खा है और य ही वे उसे दे खते जायगे। यही या, नद का येक
परमाणु अपने आने वाले परमाणु क पीठ को और पीछे वाले परमाणु के सामने दे खता
जाता है। अथवा, या पहाड़ को या तलेट को नद क ख़बर है? या नद के एक
परमाणु को सरे क ख़बर है? म यहाँ बैठा ँ, इन परमाणु को, इन प थर को इन
बादल को मेरी या ख़बर है? इस समय आगे-पीछे , नीचे-ऊपर कौन मेरी परवाह करता
है? मनु य अपने घमंड म लोक का राजा बना फरे, उसे अपने आ मा भमान के सवा
पूछता ही कौन है? इस समय मेरा यह ौर1 बनाना कसके लए यान दे ने यो य है?
कसे पड़ी है क मेरी लीला पर यान रखे?
इसी वचार क तार म य ही उसने सर उठाया, य ही दे खा क कम से कम एक
को तो उसक लीलाएं यान दे ने यो य हो रही थ , जो उनका अनुकरण करती थी।
रघुनाथ या दे खता है क वही पानी पलाने वाली लड़क सामने एक सरी शला पर
बैठ ई है और उसक नकल कर रही है।
उस दन क हँसी क ल जा रघुनाथ के जी से नह हट थी। वह ल जा और संकोच
के मारे यही आशा करता था क फर कभी वह लड़क मुझे न दखाई पड़े और अपनी
ठठो लय से मुझे तंग न करे। अब, जस समय वह यह सोच रहा था क मुझे कोई न दे ख
रहा है, वही लड़क उसक हजामत बनाने क नकल कर रही है। उसने हाथ म एक
तनका ले रखा है। जब रघुनाथ उ तरा चलाता है, तो वह तनका चलाती है। जब रघुनाथ
हाथ ख चता है, तो वह तनका रोक लेती है।
रघुनाथ ने मुँह सरी ओर कया। उसने भी वैसा ही कया। रघुनाथ ने दा हना घुटना
उठाकर अपना आसन बदला। वहाँ भी ऐसा ही आ। रघुनाथ ने बा हथेली धरती पर
टे ककर अंगड़ाई ली। लड़क ने भी वही मु ा क । ये सब योग रघुनाथ ने यह न य
करने के लए ही कए थे क यह लड़क या वा तव म मेरा मखौल कर रही है। उसने
ह का-सा खंखारा। रघुनाथ ने उतना ही खंखारना उधर से सुना। अब स दे ह नह रह गया
था।
ऐसे अवसर पर बु मान लोग जो करना चाहते ह, वही रघुनाथ ने कया। वह मुँह
बदलकर अपना काम करता गया और उसने वचार कया क म उधर न दे खूंगा। इस
वचार का वही प रणाम आ, जो ऐसे वचार का होता है अथात् दो ही मनट म ही
रघुनाथ ने अपने को उसी ओर दे खते ए पाया। अब लड़क ने भी अपना आसन बदल
लया था। रघुनाथ ने कई बार वचार कया क म उधर न दे खूंगा, पर वह फर उधर ही
दे खने लगा। आँख, जो मानो अभी पानी होकर बह जाएँगी, सफेद, ह का नीला कौआ,
जसम एक कार क चंचलता, हँसी और घृणा तैर रही थी।
यह लड़क य प ड नह छोड़ेगी। मने इसका या बगाड़ा है? इससे पूछूँ तो फर
वैसे बनाएगी? पर खैर, आज तो अकेली यही है। इसक चोट पर साधुवाद करने के लए
म हला-म डल तो नह है। यह सोचकर रघुनाथ ने जोर से खंखारा। वही जबाब मला।
उसने हाथ बढ़ाकर अंगड़ाई ली। वहाँ भी अंग तोड़े गए। रघुनाथ ने एक प थर उठाकर
नद म फका। उधर से ढे ला फका गया और खलब करके पानी म बोला।
वह बना वचन क छे ड़ रघुनाथ से सही न गई। उसने एक छोट से कंकरी उठाकर
लड़क क शला पर मारी। जबाब म वैसी ही एक कंकरी रघुनाथ क शला म आ बजी।
रघुनाथ ने सरी कंकरी उठाकर फक जो लड़क के समीप जा पड़ी। इस पर एक कंकरी
आकर रघुनाथ क पॉकेट-बुक के आईने पर पट से बोली और उसे फोड़ गई। रघुनाथ
कुछ चप गया, उसक ह मत कुछ बढ़ गई, अबके उसने जो कंकरी मारी क वह लड़क
के हाथ पर जा लगी।
इस पर लड़क ने हाथ को झट से उठाया और वयं उठ । जहाँ रघुनाथ बैठा था, वहाँ
आई और उसके दे खते-दे खते उसके सामने से टोपी, उ तरा पॉकेट-बुक और साबुन क
ब को उठाकर नद क ओर बढ़ । जतना समय इस बात को लखने और बांचने म
लगा है, उतना समय भी नह लगा क उसने सबको पानी म फक दया। रघुनाथ उसके
हाथ को नद क ओर बढ़ते ए दे ख, उसका ता पय समझकर ककत वमूढ़-सा हो
य ही दो कदम आगे धरता है क पंकाली शला पर उसका पैर फसला और वह धड़ाम
से सर के बल पानी म गर पड़ा।
रघुनाथ तैरना नह जानता था, य प वह म के पास जाकर दारागंज क गंगा म
नहा आया करता था; पर तु चाहे कतना ही तैराक हो, धे सर पानी म गरने पर तो
गोता खा ही जाता है। रघुनाथ का सर पदे के पास प ँचते ही उसने दो गोते खाए और
सीधा होते-होते उसक साँस टू ट गई। य तो नद म पानी रघुनाथ के सर से कुछ ही ऊँचा
था और धीरज से उसके पैर टक जाते तो वह हाथ फटफटाकर कनारे आ लगता,
य क वह ब त र नह गया था, पर फसलने क घबराहट, साँस का टू टना, गले म
पानी भर जाना, नीचे दलदल, इस सबसे वह भ चक होकर बीस-तीस हाथ बढ़ता ही चला
गया। नद क तलेट म च ान थी, जो पानी के बहाब से मशः खरती जाती थी। वहाँ
पानी का नाला कुछ जोर से बढ़कर च कर खाता था। वहाँ प ँचकर, पानी कम होने पर
भी, हाथ-पैर मारने पर भी रघुनाथ के पैर नह टके। और उछलता आ पानी उसके मुँह
म गया। वह नद के बहाब क ओर जाने लगा। बा लका ने जान लया क बना नकाले
वह पानी से नकल न सकेगा। वह झट सारी से कछौटा कसकर पानी म कूद पड़ी। ज द
से तैरती ई आकर उसने रघुनाथ का हाथ पकड़ना चाहा क इतने म रघुनाथ एक और
च कर काटकर सर पानी के नीचे करके खाँसने लगा। लड़क के हाथ उसक चमड़े क
पेट आई थी, जो उसने पतलून के ऊपर बा ध रखी थी। वह एक हाथ से उसे ख चती ई
रघुनाथ को छर के बहाब से नकाल लाई और सरे हाथ से पानी हटाती ई कनारे क
ओर बढ़ने लगी। अब रघुनाथ भी सीधा हो गया था। पानी चीरने म खड़ा या मुड़ा आदमी
लेटे ए क अपे ा ब त ःखदायी होता है। हाँफती ई कुमारी ने बड़राए ए रघुनाथ
को कनारे लगाया। रघुनाथ मुँह और बाल का पानी नचोड़ता आ तरबतर कुरते और
पतलून से धाराएँ बहाता आ च ान पर जा बैठा। पाँच-सात बार खाँसने पर, आँख
प छने पर उसने दे खा क भीगी ई कुमारी उसके सामने खड़ी है और उ ह पघलती ई
आँख से घृणा, दया और हँसी झलकाती ई कह रही है क इस अनाड़ी के सामने भी
कोई अपना लहंगा पसारेगी?
ये सब घटनाएं इतनी ज द -ज द ई थ क रघुनाथ का सर चकरा रहा था। अभी
पानी क गूंज कान को ढोल कए ए थी मान सक ोभ और ल जा म वह पागल-सा
हो रहा था। उसके मन क पछली भ पर चाहे यह अं कत रहा हो क इस लड़क ने
मुझे नद म से नकाला है, पर सामने क भ पर यही था क श द के कोड़ से वह मेरी
चमड़ी उधेड़े डालती है। रघुनाथ उसे पकड़ने के लए लपका और लड़क दो खेत क
बाड़ के बीच क तंग सड़क पर दौड़ भागी। रघुनाथ पीछा करने लगा।
गाँव क लड़ कयाँ ह ड़य और गहन का ब डल नह होत । वहाँ वे दौड़ती ह,
कूदती ह, हँसती ह, खाती ह और पचाती ह। नगर म आकर वे खूंटे से बंधकर कु हलाती
ह, पीली पड़ जाती ह, भूखी रहती ह, सोती ह, रोती ह और मर जाती ह। रघुनाथ ने मील
क दौड़ म इनाम पाया था। उस समय का दौड़ना उसके ब त गुण बैठा। पानी म गोते
खाने से पीछे क शरीर क सारी शू यता मटने लगी। पाव मील दौड़ने पर लड़क जतने
हाथ आगे बढ़ती थी, वे घटने लगे। सौ गज और जाते-जाते अचानक चीख मारकर,
लड़खड़ाकर वह गरने लगी। रघुनाथ उसके पास जा प ँचा। अव य ही रघुनाथ के इतने
हफांने वाले म के और मान सक ोभ के पीछे यही भाव था क इस लड़क को
गु ताखी के लए दं ड ँ । रघुनाथ ने उसे दोन बांह डालकर पकड़ लया।
रघुनाथ के लए ी का और उस लड़क के लए पु ष का यह पहला पश था।
रघुनाथ कुछ सोच भी न पाया था क म या क ँ , इतने म लड़क ने मुँह उसके सामने
करके अपने नख से उसक पीठ म और बगल म ब त तेज चुट कयाँ काट । रघुनाथ क
बाँह ढ ली ई, पर ोध नह । उसने एक मु का लड़क क नाक पर जमाया। लड़क
साँस लेते क । इतने म दौड़ने के वेग से, जो अभी न का था और मु के से दोन नीचे
गर पड़े। दोन धूल म लोटमलोट हो गए।
रघुनाथ धूल झाड़ता आ उठा। या दे खता है क लड़क के नाक से ल बह रहा है।
अपनी वजय का पहला आवेश एकदम से भूलकर वह प ा ाप और ःख के पाश म
फँस गया। उसका मुँह पसीना-पसीना हो गया। वह चाहता था क इन ल क बू द के
साथ म भी धरती म समा जाऊँ और उनके साथ ही अपनी आँख भू म म गड़ा भी रहा
था। फर ण म आँख उठ आ । लड़क अपने भीगे और धूल लगे ए आँचल से नाक
प छती ई उ ह आँख से वही घृणा क और पछतावे क डालती ई कह रही थी,
“वाह, अ छे मद हो। बड़े बहा र हो। य पर हाथ उठाया करते ह?”
रघुनाथ चुप।
“वाह, परागजी म खूब इलम पढ़ा। य पर हाथ उठाते ह गे?”
रघुनाथ ने नीचे सर से, आँख न उठाकर कहा,
“मुझसे बड़ी भूल हो गई। मुझे पता ही नह था क म या कर रहा ँ। मेरा सर
ठकाने नह है। मुझे च कर …..”
“अभी च कर आवगे। य पर हाथ नह चलाया करते ह।”
सड़क यहाँ चौड़ी हो गई थी। कचनार क एक बेल आम पर चढ़ ई थी और आम
के तले प थर का थांवला था। सुनसान था। र से नद क कलकल और रह-रहकर
खाती चड़े क ठकठक-ठकठक आ रही थी। इस समय रघुनाथ का घ घापन हटने लगा
और य क ओर से झप इस पघलती ई आँख वाली के वचन-बाण के नीचे भागने
लगी। ढाढ़स कर उसने पूछा,
“तु हारा नाम या है?”
“भागव ती।”
“रहती कहाँ हो?”
“मामी के पास, वही जसने कुएँ पर पानी नह पलाया था।”
उस दन का मरण आते ही रघुनाथ फर चुप हो गया। फर कुछ ठहरकर बोला,
“तुम मेरे पीछे य पड़ी हो?”
“तु ह आदमी बनाने को। जो तु ह बुरा लगा हो, तो मने भी अपने कए का ल
बहाकर फल पा लया। एक सलाह दे जाती ँ।”
“ या!”
“कल से नद म नहाने मत जाना।”
“ य ?”
“गोते खाओगे तो कोई बचाने वाला नह मलेगा।”
रघुनाथ झपा, पर संभलकर बोला, “अब कोई मेरी जान बचाएगा तो म पीछा नह
क ं गा, दो गाली भी सुन लूंगा।”
“इस लए नह , म आज अपने बाप के यहाँ जाऊँगी।”
“तु हारा घर कहाँ है?”
“जहाँ अना ड़य के डू बने के लए कोई नद नह है।”
“ ँ! फर वही बात लाई। तो वहाँ पर चढ़ाने वाल के भागने के लए रा ता भी न
होगा।”
“जी, यहाँ जो म आपके हाथ आ गई।”
“नह तो?”
“काँटा न लगता तो परागजी तक दौड़ते तो हाथ न आती।”
“काँटा! काँटा कैसा?”
“यह दे खो।”
रघुनाथ ने दे खा क उसके दा हने पैर के तलबे म एक काँटा चुभा आ है। उसको यह
सूझी क यह मेरे दोष से आ है। बा लका के सहारे वह घुटने के बल बैठ गया और
उसका पैर ख चकर माल से धूल झाड़कर काँटे को दे खने लगा।
काँटा मोटा था, पर पैर म ब त पैठ गया था। वह उठकर बाड़ से एक और बड़ा काँटा
तोड़ लाया। उससे और पतलून क जेब के चाकू से उसने काँटा नकाला। नकालते ही
लो का डोरा बह नकला। काँटा ायः दो इंच ल बा और ज़हरीली कँट ली का था।
“ओफ!” कहकर रघुनाथ ने कमीज़ क आ तीन फाड़कर उसके पाँव म प बाँध
द।
बा लका चुप बैठ थी। रघुनाथ कांटे को नरख रहा था।
“अब तो दद नह ?”
“कोई एहसान थोड़ा है, तु हारे भी काँटा गड़ जाए तो नकलवाने आ जाना।”
“अ छा।” रघुनाथ का जी जल गया था। यह बताव!
“‘अ छा या? जाओ, अपना रा ता लो।”
“यह काँटा म ले जाऊँगा। आज क घटना क यादगारी रहेगी।”
“म इसे जरा दे ख लू।ँ ”
रघुनाथ ने अंगूठे और तजनी से काँटा पकड़कर उसक ओर बढ़ाया।
अपनी दो अंगु लय से उसे उठाकर और सरे हाथ से रघुनाथ को ध का दे कर
लड़क हँसती-हँसती दौड़ गई। रघुनाथ धूल म एक कलामुंडी खाकर य ही उठा क
बा लका खेत को फाँदती ई जा रही थी।
अब क दफ़ा उसका पीछा करने का साहस हमारे च रत नायक ने नह कया। नद -
तट पर जाकर कोट उठाया और च धआये म त क से घर क राह ली।
रघुनाथ के दय म ी-जा त क अ ानता का भाव और उससे पृथक् रहने का
कुहरा तो था ही, अब उसके थान म उ े गपूण ला न का धूम इक ा हो गया था। पर उस
धूम के नीचे-नीचे उस चपल लड़क क चनगारी भी चमक रही थी। अव य ही अपने
पछले अनुभव से वह इतना चमक गया था क कसी ी से बात करने क उसक इ छा
न थी, पर तु रह-रहकर उसके च म उस पघलती ई आँख वाली का और अ धक
हाल जानने और उसके वचन-कोड़े सहने क इ छा होती थी। रघुनाथ का दय एक
पहेली हो रहा था और उस पहेली म पहेली उस वत लड़क का वभाव था। रघुनाथ
का दय धुएँ से घुट रहा था और ववाह के पास आते ए अवसर को वह उसी भाव से
दे ख रहा था, जैसे चै कृ ण म बकरा आनेवाले नवरा को दे खता है।
इधर पताजी और चाचा घर खोज रहे थे। आसपास गाँव म तीन-चार पा यां थी,
जनके पता अ धक धन के वामी न होने से अब तक अपना भार न उतार सके थे और
अब बृह प त के सह का कवल हो जाने को अपने नरक-गमन का परवाना-सा दे खकर
भी आ मघात नह कर रहे थे। ह -समाज म ध स से कुछ नह होता, ज़ रत से सब हो
जाता है। बड़े से बड़ा महाराज थै लय के मुँह खुलवाकर भी शा जड़ लोग से यह नह
कहला सकता क ‘अ वषा भवेद ् गौरी’ पर हरताल लगा दो। उलटा अ का अथ
गभा य करके सात वष तीन महीने क आयु नकाल बैठगे। पर तु कभी शु का छपना,
और कभी बृह प त का भागना, कभी घर का न मलना और कभी प ले पैसा न होना,
कभी नाड़ी- वरोध और कभी कुछ, समझदार आदमी चाहे तो क या को चौदह-प ह वष
क करके काशीनाथ से लेकर आजकल के महामहोपा याय तक को अंगूठा दखला
सकता है।
दो घर तो यो तषी ने खो दए। तीसरे के बारे म भी उ ह ने ल ापात करना चाहा था,
पर कुछ तो यो तषी के डाकखाने के ारा मनीआडर का ह पर भाव पड़ा और कुछ
रघुनाथ के पता के इस बहारी के दोहे के पाठ का यो तषीजी पर—
सुत पतु मारक जोग ल ख, उप यो हय अ त सोग।
पु न वहं यो गुन जोयसी, सुत ल ख जारज जोग॥
व ध मल गई। झ डीपुर म सगाई न त ई। बीस दन पीछे बरात चढ़े गी और
रघुनाथ का ववाह होगा।

क यादान के पहले और पीछे वर-क या को ऊपर एक शाला डालकर एक सरे का मुँह


दखाया जाता है। उस समय लहा- ल हन जैसा वहार करते ह उससे ही उनके
भ व य दा प य-सुख का थमामीटर मानने वाली याँ ब त यान से उस समय के दोन
के आचार- वचार को याद रखती ह। जो हो, झडीपुर क य म यह स है क मुँह-
दखौनी के पीछे लड़के का मुँह सफेद फक् हो गया और ववाह म जो कुछ होम वगैरह
उसने कए, वे पागल क तरह मानो उसने कोई भूत दे खा था। और लड़क ऐसी गुम ई
क उसे काटो तो खून नह । दन भर वह चुप रही और बड़रायी आँख से ज़मीन दे खती
रही; मानो उसे भी भूत दख रहे ह । य ने इन ल ण को ब त अशुभ माना था।
ल हन डोले म वदा होकर ससुराल आ रही थी। रघुनाथ घोड़े पर था। दोपहर चढ़ने
से कहार और बरा तय ने एक बड़ क छाया के नीचे बाबड़ी के कनारे डेरा लगाया क
रोट -पानी करके और धूप काटके चलगे। कोई नहाने लगा, कोई चू हा सुलगाने लगा।
ल हन पालक का पदा हटाकर हवा ले रही थी और अपने जीवन क वत ता के
बदले म पाई ई हथक ड़य और चाँद क बे ड़य को नरख रही थी। मनु य पहले पशु
है, फर मनु य। स यता या शा त का भाव पीछे आता है, पहले पाश वक बल और
वजय का। रघुनाथ ने पास आकर कहा,
“ या कहा था, ऐसे मद के आगे कौन लहंगा पसारेगी?”
सर पालक के भीतर करके बा लका ने परदा डाल लया।
रघुनाथ ने यह नह सोचा क उसके जी पर या बीतती होगी। उसने अपनी वजय
मानी और उसी क अकड़ म बदला लेना ठ क समझा।
“हाँ, फर तो कहना, इस बु के आगे कौन लहंगा पसारेगी?”
चुप।
“ य , अब वह कची-सी जीभ कहाँ गई?”
चुप।
कहाँ तो रघुनाथ छे ड़ से चढ़ता था, अब कहाँ वह वयं छे ड़ने लगा। उसक इ छा
पहले तो यह थी क यह बोली कभी न सुनू,ं पर तु अब वह चाहता था क मुझे फर वैसे
ही उ र मल। ववाह के पहले अच भे के पीछे उसने ःख क आह के साथ ही साथ
एक स तोष क आह भरी थी; य क पछले दन क घटना ने उसके दय पर एक
बड़ा अ त प रवतन कर दया था।
“कहो जी, अब यागवाल को अकल सखाने आई हो? अब इतनी बात कैसे सुनी
जाती ह?”
“म हाथ जोड़ती ,ँ मुझसे मत बोलो। म मर जाऊँगी।”
“तो नद म डू बते ए बु को कौन नकालेगा,?”
“अब रहने दो। यहाँ से हट जाओ। चले जाओ।”
“ य ?”
“ य या, अब इस च क म ऐसा ही पसना है। जनम भर का रोग है; जनम-भर
का रोना है।”
“नह ; मुझे अकल सीखने का…” रघुनाथ ने ं य से आर भ कया था, पर इतने म
एक कहार चलम म तमाखू डालने आ गया। भू मका क सफाई बना कहे और बना ए
ही रह गई।

ह घर म, कुछ दन तक, द पती चोर क तरह मलते ह। यह संयु कुटु ब णाली


का वर या शाप है। रघुनाथ ने ऐसे चोरी के अवसर आगरे आकर ढूं ढ़ने आर भ कए, पर
भागव ती टल जाती थी! उसने रघुनाथ को एक भी बात कहने का, या सुनने का मौका न
दया।
जुलाई म रघुनाथ इलाहाबाद जाकर थड ईयर म भरती हो गया। दशहरे और बड़े दन
क छु य म आकर उसने ब तेरा चाहा क दो बात कर सके, पर भागव ती उसके
सामने ही नह होती थी। हाँ, कई बार उसे यह स दे ह आ क वह मेरी आहट पर यान
रखती है और छप- छपकर मुझे दे खती है; पर य ही वह इस सूत पर आगे बढ़ता क
भागव ती लोप हो जाती।
पढ़ने क च ता म व न डालनेवाली अब उसको यह नयी च ता लगी। यह बात
उसके जी म जम गई क मने अमानुष नदयता से और बोली-ठोली से उसके सीधे दय
को खा दया है। पर तु कभी-कभी यह सोचता क या दोष मेरा ही है? उसने या कम
यादती क थी? जो ताने- त े उस समय उसके दय को ब त ही चीरते ए जान पड़े
थे, वे अब उसको मृ त म ब त यारे लगने लगे। सोचता था क म ही जाकर मा
माँगूँगा। जन जाँघ ने उसका पीछा कया था, उ ह बाँधकर उसके सामने पड़कर क ँगा
क उस दन वाली चाल से मुझे कुचलती ई चली जा अथवा यह क ँगा क उसी नद म
मुझे ढकेल दे । य तरह-तरह के तक- वतक म उसका समय कटने लगा। न ‘हॉक ’ म
अब उसक कदर रही और न ोफेसर क आँख वैसी रह । उसी क चड़ लगे ए पतलून
को मेज़ पर रखकर सोचता, सोचता, सोचता रहता।
होली क छु याँ आ । पहले सलाह ई क घर न जाऊँ, काशी म एक म के पास
ही छु याँ बताऊँ। उस म ने संग चलने पर कहा, “हाँ भाई, याह के पीछे पहली
होली है, तुम काहे को चलते हो!” वह रघुनाथ के दय के भार को या समझ सकता
था? रघुनाथ ने हँसकर बात टाल द । रात को सोचा क चलो छु य म बो डग म ही र ँ,
पास ही प लक-लाइ ेरी है, दन कट जाएंग।े रात को जब सोया तो पघलती ई आँख,
वही नाक से बहता आ खून और आँसु से न ढकने वाली हँसी। न द न आ सक । जैसे
कोई सपने म चलता है, वैसे बेहोशी म ही सवेरे टकट लेकर गाड़ी म बैठ गया। पता नह
क म कधर जा रहा ँ। चेत तब आ जब कुली ‘टु डला’, ‘टु डला’ च लाए। रघुनाथ
च का। अ छा, जो हो, अब क दफ़ा फर उ ोग क ँ गा। य कहकर दय को ढ़ करके
प ँचा।
होली का दन था। जैसे कोजागर पू णमा को चोर के लए घर के दरवाज़े खुले
छोड़कर ह सोते ह, वैसे माता- पता टल गए थे। माँ पकवान पका रही थी और बाप
खैर, बाप भी कह थे। रघुनाथ भीतर प ँचा। भागव ती सर पर हाथ धरे ए कोने म बैठ
थी। उसे दे खते ही खड़ी हो गई। वह दरवाज़े क तरफ बढ़ने न पाई थी क रघुनाथ बोला,
“ठहरो, बाहर मत जाना।”
वह ठहर गई। घूंघट ख चकर कोने क पीढ़ के बान को दे खने लगी,
“कहो, कैसी हो? आज तुमसे बात करनी ह।”
चुप।
“ स रहती हो? कभी मेरी भी याद करती हो?”
चुप।
“मेरी छु याँ तीन दन क ही ह।”
चुप।
“तु ह मेरी कसम है, चुप मत रहो, कुछ बोलो तो, जवाब दो…पहले क तरह ताने ही
से बोलो, मेरी शपथ है…सुनती हो?”
“मेरे कान म पानी थोड़ा ही भर गया है।”
“हाँ, बस, य ठ क है; कुछ ही कहो, पर कहती जाओ। अ छा होता, य द तुम मुझे
उस दन न नकालत और डू ब जाने दे त ।”
“अ छा होता य द मेरा काँटा न नकालते और पैर गलकर म मर जाती।”
“तुमने कहा था क कोई एहसान थोड़ा है, काँटा गड़ जाए, तो म भी नकाल ँ गी।”
“हाँ, नकाल ँ गी।”
“कैसे!”
“उसी काँटे से।”
“उसी काँटे से! वह है कहाँ?”
“मेरे पास।”
“ य ?…कब से?”
“जब से पतलून ं क म ब द होकर आगरे गई तब से।”
न मालूम पीढ़ का बान कैसा अ छा था, नगाह उस पर से नह हट । शायद तांत
गनी जा रही थी।
“अनाड़ी क बात क नकल करती हो?”
गनती पूरी हो गई। अब अपने नख क बारी आई।
“ य , फर चुप?”
“हाँ!” नख पर से यान नह हटा।
रघुनाथ ने छत क ओर दे खकर कहा, “अना ड़य क पीठ नख आजमाने के लए
अ छ होती है।”
नख छपा लये गए।
“काँटा नकालोगी?”
“हाँ।”
“काँटा छत म थोड़ा ही है।”
“तो कहाँ है?”
“म तो अनाड़ी ँ, मुझे ल लो-च पो करना नह आता, साफ कहना जानता ँ,
सुनो!” यह कहकर रघुनाथ बढ़ा और उसने उसके दोन हाथ पकड़ लये।
उसने हाथ न हटाए।
“उस समय म जंगली था, वहशी था, अधूरा था। मनु य जब तक ी क परछा
नह पा लेता है, तब तक पूरा नह होता। मेरे बु पन को मा करो। मेरे दय म तु हारे
ेम का एक भयंकर काँटा पड़ गया है। जस दन तु ह पहले-पहल दे खा, उस दन से वह
गड़ रहा है और अब तक गड़ा जा रहा है। तु हारी ेम क से मेरा यह शूल हटे गा।”
घूंघट के भीतर, जहाँ आँख होनी चा हए, वहाँ कुछ गीलापन दखा।
“दे खो, म तु हारे ेम के बना जी नह सकता। मेरा उस दन का खापन और
जंगलीपन भूल जाओ। तुम मेरी ाण हो, मेरा काँटा नकाल दो।”
रघुनाथ ने एक हाथ उसक कमर पर डालकर उसे अपनी ओर ख चना चाहा। मालूम
पड़ा क नद के कनारे का कला, न व के गल जाने से, धीरे-धीरे धंस रहा है। भागव ती
का बलवान शरीर, न सार होकर, रघुनाथ के क धे पर झूल गया। क धा आँसु से
गीला हो गया।
“मेरा कसूर…मेरा गंवारपन…म उज …मेरा अपराध…मेरा पाप…मने या कह डा…
डा… डा… आ….” घ घी बंध चली।
उसका मुँह ब द करने का एक ही उपाय था। रघुनाथ ने वही कया।
थम काशन: पाटलीपु ; सन 1914
उसने कहा था

ब ड़ेऔर-बड़ेकानशहरपककगएे इ हकउनसे
े -गाड़ी वाल क जबान के कोड़ से जनक पीठ छल गई है
हमारी ाथना है क अमृतसर म ब बूकाट वाल क बोली
का मरहम लगाव, जब क बड़े शहर क चौड़ी सड़क पर घोड़े क पीठ को चाबुक से
धुनते ए इ के वाले कभी घोड़े क नानी से अपना नकट यौन संबंध थर करते ह,
कभी उसके गु त गु अंग से डॉ टर को लजाने वाला प रचय दखाते ह, कभी राह
चलते पैदल क आँख के न होने पर तरस खाते ह, कभी उनके पैर क अंगु लय के
पोर को च थकर अपने ही को सताया आ बताते ह और संसार भर क ला न, नराशा
और ोभ के अवतार बने नाक क सीध चले जाते ह। तब अमृतसर म उनक बरादरी
वाले, तंग, च करदार ग लय म, हर एक ल ी वाले के लए ठहरकर, स का समु
उमड़ा कर, ‘बचो, खालसा जी’, ‘हटो भाई जी’, ‘ठहरना माई’, ‘आने दो लाला जी’,
‘हटो बा’छा’ कहते ए सफेद फट , ख चर और ब क , ग े और खोमचे और भारे
वाल के जंगल म से राह लेते ह। या मजाल है क जी और साहब बना सुने कसी को
हटना पड़े। यह बात नह क उनक जीभ चलती ही नह , चलती है, पर मीठ छु री क
तरह महीन मार करती ई। य द कोई बु ढ़या बार-बार चतौनी दे ने पर भी लीक से नह
हटती तो उनक बचनावली के ये नमूने ह हट जा, जीणे जो गए; हट जा करमां बा लए;
हट जा, पु ां या रए; बच जा, लंबी वा लए। सम म इसका अथ है क तू जीने यो य है,
तू भा य वाली है, पु को यारी है? ल बी उमर तेरे सामने है, तू य मेरे प हय के नीचे
आना चाहती है? बच जा।
ऐसे ब बूकाट वाल के बीच म होकर एक लड़का और एक लड़क चौक क एक
कान पर आ मले। उसके बाल और इसके ढ ले सुथने से जान पड़ता था क दोन
सख ह। वह अपने मामा के केश धोने के लए दही लेने आया था और यह रसोई के लए
ब ड़यां। कानदार एक परदे शी से गुंथ रहा था, जो सेर भर गीले पापड़ क ग ी को गने
बना हटता न था।
“तेरे घर कहाँ ह?”
“मगरे म, और तेरे?”
‘मांझे म, …यहाँ कहाँ रहती है?’
“अतर सह क बैठक म, वह मेरे मामा होते ह।”
“म भी मामा के आया ,ँ उनका घर गु बाज़ार म है।”
इतने म कानदार नबटा और इनका सौदा दे ने लगा। सौदा लेकर दोन साथ-साथ
चले। कुछ र जाकर लड़के ने मु कराकर कर पूछा, “तेरी कुड़माई हो गई?” इस पर
लड़क कुछ आँख चढ़ाकर ‘धत्’ कहकर दौड़ गई और लड़का मुँह दे खता रह गया।
सरे-तीसरे दन स जी वाले के यहाँ, या ध वाले के यहाँ, अक मात् दोन मल
जाते। महीना भर यही हाल रहा। दो-तीन बार लड़के ने फर पूछा, “तेरी कुड़माई हो
गई?” और उ र म वही ‘धत्’ मला। एक दन जब फर लड़के ने वैसे ही हँसी म चढ़ाने
के लए पूछा तो लड़क , लड़के क स भावना के व बोली, “हाँ, हो गई।”
“कब?”
“कल,- दे खते नह यह रेशम से कढ़ा आ सालू!” लड़क भाग गई। लड़के ने घर
क सीध ली। रा ते म एक लड़के को मोरी म ढकेल दया, एक छाबड़ी वाले क दन भर
क कमाई खोई, एक कु े को प थर मारा और एक गोभी वाले के ठे ले म ध उड़ेल
दया। सामने नहाकर आती ई कसी वै णवी से टकराकर अ धे क उपा ध पाई। तब
कह घर प ँचा।

“राम-राम, यह भी कोई लड़ाई है! दन-रात ख दक म बैठे ह यां अकड़ ग । लु धयाने


से दस गुना जाड़ा और मेह और बरफ ऊपर से। पड लय तक क चड़ म धंसे ए ह।
गनीम कह दखता नह , घंटे-दो घंटे म कान के परदे फाड़ने वाले धमाके के साथ सारी
ख दक़ हल जाती है और सौ-सौ गज धरती उछल पड़ती है। इस गैबी गोले से बचे तो
कोई लड़े। नगरकोट का जलजला सुना था, यहाँ दन म प चीस जलजले होते ह। जो
कह ख दक से बाहर साफा या कुहनी नकल गई तो चटाक् से गोली लगती है। न मालूम
बेईमान म म लेटे ए ह या घास क प य म छपे रहते ह।”
“लहना सह, और तीन दन ह। चार तो ख दक म बता ही दए। परस ‘ रलीफ’ आ
जाएगी और फर सात दन क छु । अपने हाथ झटका करगे और पेट भर खाकर सो
रहगे। उसी फरंगी मेम के बाग म—मखमल का-सा हरा घास है। फल और ध क वषा
कर दे ती है। लाख कहते ह, दाम लेती नह । कहती है, ‘तुम राजा हो, मेरे मु क को बचाने
आए हो।”
“चार दन तक एक पलक न द नह मली। बना फेरे घोड़ा बगड़ता है और बना
लड़े सपाही। मुझे तो संगीन चढ़ा कर माच का कम मल जाए। फर सात जमन को
अकेला मार कर न लौटूं तो मुझे दरबार साहब क दे हली पर म था टे कना नसीब न हो।
पाजी कह के, कल के घोड़े संगीन दे खते ही मुँह फाड़ दे ते ह और पैर पकड़ने लगते ह।
य अंधेरे म तीस-तीस मन का गोला फकते ह। उस दन धावा कया था, चार मील तक
एक जमन नह छोड़ा था। पीछे जनरल साहब ने हट आने का कमान दया, नह तो…”
“नह तो सीधे ब लन प ँच जाते य ?” सूबेदार हजारा सह ने मु कराकर कहा,
“लड़ाई के मामले म जमादार या नायक के चलाये नह चलते। बड़े अफसर र क
सोचते ह। तीन सौ मील का सामना है। एक तरफ बढ़ गए तो या होगा?”
“सूबेदारजी, सच है” लहना सह बोला, “पर कर या? ह य -ह य म तो जाड़ा
धंस गया है। सूय नकलता नह और खाई म दोन तरफ से च बे क वाव लयो के-से सोते
झर रहे ह। एक धावा हो जाए तो गरमी आ जाए।”
“उ ी, उठ, सगड़ी म कोयले डाल। वजीरा, तुम चार जने बा टयाँ लेकर खाई का
पानी बाहर फको। महा सह, शाम हो गई है, खाई के दरवाजे का पहरा बदला दो।” कहते
ए सूबेदार ख दक म च कर लगाने लगे।
वजीरा सह पलटन का व षक था। बा ट म गंदला पानी भर कर खाई के बाहर
फकता आ बोला, “म पाधा बन गया ।ँ करो जमनी के बादशाह का तपण” इस पर
सब खल खला पड़े और उदासी के बादल फट गए।
लहना सह ने सरी बा ट भरकर उसके हाथ म दे कर कहा, “अपनी बाड़ी के
खरबूज म पानी दो। ऐसा खाद का पानी पंजाब भर म नह मलेगा।”
“हाँ, दे श या है, वग है। म तो लड़ाई के बाद सरकार से दस घुमा जमीन यहाँ माँग
लूँगा और फल के बूटे लगाऊँगा।”
“लाड़ी होरां को भी यहाँ बुला लोगे या वही ध पलानेवाली फरंगी मेम?”
“चुप कर। यहाँ वाल को शरम नह ।”
“दे स-दे स क चाल है। आज तक म उसे समझा न सका क सख तमाखू नह पीते।
वह सगरेट दे ने म हठ करती है, ओठ म लगाना चाहती है, और म पीछे हटता ँ तो
समझती है राजा बुरा मान गया, अब मेरे मु क के लए लड़ेगा नह ।”
“अ छा, अब बोध सह कैसा है?”
“अ छा है।”
“जैसे म जानता ही न होऊँ। रात भर तुम अपने दोन क बल उसे ओढ़ाते हो और
आप सगड़ी के सहारे गुजर करते हो। उसके पहरे पर आप पहरा दे आते हो अपने सूखे
लकड़ी के त त पर उसे सुलाते हो, आप क चड़ म पड़े रहते हो। कह तुम न मांदे पड़
जाना। जाड़ा या है मौत है और ‘ नमो नया’ से मरने वाल को मुर बे नह मला करते।”
“मेरा डर मत करो। म तो बुलेल क ख के कनारे म ँ गा। भाई क रत सह क गोद
पर मेरा सर होगा और मेरे हाथ के लगाए ए आँगन के आम के पेड़ क छाया होगी।”
वजीरा सह ने यौरी चढ़ाकर कहा, “ या मरने-मराने क बात लगाई है? मर जमनी
और तुरक! हाँ भाइयो कैसे—
द ली शहर त पशौर नुं जां दए,
कर लेणा लौगां दा बपार म डए
कर लेणा नाड़े दा सौदा अ ड़ए,
(ओय्) लाणा चटाका क ए नुं।
कद् बणया वे मजेदार गो रए
णे लाणा चटाका क ए नुं।”
कौन जानता था क दा ढ़य वाले, घरबारी सख ऐसा लु च का गीत गाएंगे, पर सारी
ख दक इस गीत से गूंज उठ और सपाही फर ताजा हो गए, मानो चार दन से सोते और
मौज ही करते रहे ह ।

दो पहर रात गई है। अ धेरा है। सुनसान मची ई है। बोधा सह तीन खाली ब कुट के
टन पर अपने दोन क बल बछाकर और लहना सह के दो क बल और एक बरानकोट
ओढ़कर सो रहा है। लहना सह पहरे पर खड़ा आ है। एक आँख खाई के मुँह पर है और
एक बोधा सह के बले शरीर पर। बोधा सह कराहा।
“ य बोधा भाई, या है?’
“पानी पला दो।”
लहना सह ने कटोरा उसके मुँह से लगाकर पूछा, “कहो कैसे हो?” पानी पीकर बोधा
बोला, “कँपनी छू ट रही है। रोम-रोम म तार दौड़ रहे ह। दाँत बज रहे ह।”
“अ छा, मेरी जरसी पहन लो।”
“और तुम?”
“मेरे पास सगड़ी है और मुझे गम लगती है; पसीना आ रहा है।”
“ना, म नह पहनता, चार दन से तुम मेरे लए…”
“हाँ, याद आई। मेरे पास सरी गरम जरसी है। आज सवेरे ही आई है। वलायत से
मेम बुन-बुनकर भेज रही ह। गु उनका भला करे।” य कहकर लहना अपना कोट
उतारकर जरसी उतारने लगा।
“सच कहते हो?”
“और नह झूठ?” य नाँह कहकर करते बोधा को उसने जबरद ती जरसी पहना द
और आप खाक कोट और जीन का कुरता भर पहनकर पहरे पर आ खड़ा आ। मेम क
जरसी क कथा केवल कथा थी।
आधा घ टा बीता। इतने म खाई के मुँह से आवाज़ आई- “सूबेदार हजारा सह!”
“कौन? लपटन साहब? कुम ज़ूर!” कहकर सूबेदार तनकर फौजी सलाम करके
सामने आ।
“दे खो, इसी दम धावा करना होगा। मील भर क री पर पूव के कोने म एक जमन
खाई है। उसम पचास से यादा जमन नह ह। इन पेड़ के नीचे-नीचे दो खेत काटकर
रा ता है। तीन-चार घुमाव ह। जहाँ मोड़ है, “वहाँ प ह जवान खड़े कर आया ँ। तुम
यहाँ दस आदमी छोड़कर सबको साथ ले उनसे जा मलो। ख दक छ न कर वह , जब
तक सरा म न मले, डटे रहो। हम यहाँ रहेगा।”
“जो म।”
चुपचाप सब तैयार हो गए। बोधा भी क बल उतारकर चलने लगा। तब लहना सह ने
उसे रोका। लहना सह आगे आ तो बोधा के बाप सूबेदार ने उंगली से बोधा क ओर
इशारा कया। लहना सह समझकर चुप हो गया। पीछे दस आदमी कौन रह, इस पर बड़ी
जत ई। कोई रहना न चाहता था। समझा-बुझाकर सूबेदार ने माच कया। लपटन
साहब लहना क सगड़ी के पास मुँह फेर कर खड़े हो गए और जेब से सगरेट नकाल
कर सुलगाने लगे। दस मनट बाद उसने लहना क ओर हाथ बढ़ाकर कहा,
“लो तुम भी पयो।”
आँख पलकत पलकते लहना सह सब समझ गया। मुँह का भाव छपाकर बोला,
“लाओ, साहब।” हाथ आगे करते! उसने सगड़ी के उजास म साहब का मुँह दे खा। बाल
दे ख।े माथा ठनका। लपटन साहब के प य वाले बाल एक दन म कहाँ उड़ गए और
उनक जगह कै दय के से कटे ए बाल कहाँ से आ गए?
शायद साहब शराब पए ए है और उ ह बाल कटवाने का मौका मल गया है?
लहना सह ने जांचना चाहा। लपटन साहब पांच वष से उसक रे जमट म रहे थे।
“ य साहब, हम लोग ह तान कब जाएँग? े ”
“लड़ाई ख म होने पर। य , यह दे श पस द नह ?”
“नह साहब, वह शकार के वे मजे यहाँ कहाँ?” याद है, पारसाल नकली लड़ाई के
पीछे हम-आप जगाधरी के जले म शकार करने गए थे। “हाँ, हाँ”
“वही जब आप खोते पर सवार थे और आपका खानसामा अब ला रा ते के एक
म दर म जल चढ़ाने को रह गया था?”
“बेशक, पाजी कह का…”
“सामने से वह नील गाय नकली क ऐसी बड़ी मने कभी न दे खी। और आपक एक
गोली क धे म लगी और पु े म नकली। ऐसे अफसर के साथ शकार खेलने म मज़ा है।
य साहब, शमले से तैयार होकर उस नील गाय का सर आ गया था न? आपने कहा
था क रे जमट क मैस म लगाएंगे।” “हाँ, पर मने वह वलायत भेज दया…”
“ऐसे बड़े स ग! दो-दो फुट के तो ह गे?”
“हाँ, लहना सह, दो फुट चार इंच के थे। तुमने सगरेट नह पया?”
“पीता ँ साहब, दयासलाई ले आता ”ँ , कहकर लहना सह ख दक म घुसा। अब
उसे स दे ह नह रहा था। उसने झटपट वचार लया क या करना चा हए।
अ धेरे म कसी सोनेवाले से वह टकराया।
“कौन? वजीरा सह?”
“हाँ? य लहना? या, कयामत आ गई? ज़रा तो आँख लगने द होती!”

“होश म आओ। कयामत आई है और लपटन साहब क वद पहनकर आई है।”


“ या?”
“लपटन साहब या तो मारे गए ह या कैद हो गए ह। उनक वद पहनकर कोई जमन
आया है। सूबेदार ने इसका मुँह नह दे खा। मने दे खा है और बात क ह। सौहरा साफ उ
बोलता है, पर कताबी उ । और मुझे पीने को सगरेट दया है?”
“तो अब?”
“अब मारे गए। धोखा है। सूबेदार होरां क चड़ म च कर काटते फरगे और यहाँ
खाई पर धावा होगा। उधर उन पर खुले म धावा होगा। उठो, एक काम करो। प टन के
पैर के खोज दे खते- दे खते दौड़ जाओ। अभी ब त र न गए ह गे। सूबेदार से कहो क
एकदम लौट आव। ख दक क बात झूठ है। चले जाओ, ख दक के पीछे से नकल
जाओ। प ा तक न खड़के। दे र मत करो।”
“ कुम तो यह है क यह ”…
“ऐसी-तैसी कुम क ! मेरा कुम…जमादार लहना सह, जो इस व यहाँ सबसे
बड़ा अफसर है, उसका कुम है। म लपटन साहब क खबर लेता ँ।”
“पर यहाँ तो तुम आठ ही हो।”
“आठ नह , दस लाख। एक-एक अका लया सख सवा लाख के बराबर होता है।
चले जाओ।”
लौटकर खाई के मुहाने पर लहना सह द वार से चपक गया। उसने दे खा क लपटन
साहब ने जेब से तीन बेल के बराबर तीन गोले नकाले। तीन को जगह-जगह ख दक क
द वार म घुसेड़ दया और तीन म एक तार-सा बांध दया। तार के आगे सूत क एक
गु थी थी, जसे सगड़ी के पास रखा-बाहर क तरफ जाकर एक दयासलाई जला कर
गु थी पर रखने ही वाला था।
इतने म बजली क तरह दोन हाथ से उ ट ब क को उठाकर लहना सह ने साहब
क कुहनी पर तानकर दे मारा। धमाके के साथ साहब के हाथ से दयासलाई गर पड़ी।
लहना सह ने एक कु दा साहब क गदन पर मारा और साहब ‘आँख! मीन गौ ’ कहते
ए च हो गए। लहना सह ने तीन गोले बीनकर ख दक के बाहर फके और साहब को
घसीट कर सगड़ी के पास लटाया। जेब क तलाशी ली। तीन-चार लफाफे और एक
डायरी नकालकर उ ह अपनी जेब के हवाले कया।
साहब क मूछा हट । लहना सह हँस कर बोला, “ य लपटन साहब? मज़ाज कैसा
है? आज मने ब त बात सीख । यह सीखा क सख सगरट पीते ह। यह सीखा क
जगाधरी के जले म नील गाय म दर म होती ह और उनके दो फुट चार इंच के स ग होते
ह। यह सीखा क मुसलमान खानसामा पानी चढ़ाते ह और लपटन साहब खोते पर चढ़ते
ह। यह तो कहो, ऐसी साफ उ कहाँ से सीख आए? हमारे लपटन साहब तो बना ‘डैम’
के पाँच लफज भी नह बोला करते थे।”
लहना ने पतलून क जेब क तलाशी नह ली थी। साहब ने, मान जाड़े से बचाने के
लए, दोन हाथ जेब म डाले।
लहना सह कहता गया, “चालाक तो बड़े हो, पर मांझे का लहना इतने बरस लपटन
साहब के साथ रहा है। उसे चकमा दे ने के लए चार आँख चा हए। तीन महीने ए, एक
तुरक मौलवी मेरे गाँव म आया था। औरत को ब चे होने के ताबीज बांटता था और
ब च को दवाई दे ता था। चौधरी के बड़ के नीचे मंजा बछा कर का पीता रहता था
और कहता था क जमनी वाले बड़े पं डत ह। वेद पढ़-पढ़कर उनम से वमान चलाने क
व ा जान गए ह। गौ को नह मारते। ह तान म आ जाएँगे तो गौ ह या ब द कर दगे।
म डी के ब नय को बहकाया था क डाकखाने से पए नकाल लो; सरकार का राज
जाने वाला है। डाक बाबू पो राम भी डर गया था। मने मु लाजी क दाढ़ मूंड द थी
और गाँव से बाहर नकाल कर कहा था क जो मेरे गाँव म अब पैर रखा तो…”
साहब क जेब म से प तौल चली और लहना क जांघ म गोली लगी। इधर लहना
क हैनरी मा टनी के दो फायर ने साहब क कपाल या कर द । धमाका सुनकर सब
दौड़ आए।
बोधा च लाया, “ या है?”
लहना सह ने उसे तो यह कहकर सुला दया क “एक हड़का आ कु ा आया था,
मार दया” और और को सब हाल कह दया। सब ब के लेकर तैयार हो गए। लहना ने
साफा फाड़कर घाव के दोन तरफ़ प यां कस कर बाँधी। घाव मांस म ही था। प य के
कसने से ल नकलना ब द हो गया।
इतने म स र जमन च लाकर खाई म घुस पड़े। स ख क ब क़ क बाढ़ ने
पहले धावे को रोका। सरे को रोका। पर वहाँ थे आठ। लहना सह तक-तक कर मार रहा
था। वह खड़ा था और अ य लेटे ए थे और वे स र थे। अपने मुदा भाइय के शरीर पर
चढ़कर जमन आगे घुसे आते थे। थोड़े से म नट म अचानक आवाज़ आई- “वाहे गु जी
द फ़तह! वाहे गु जी दा खालसा!!” और धड़ाधड़ ब क के फायर जमन क पीठ पर
पड़ने लगे! ऐन मौके पर जमन दो च क के पाट के बीच म आ गए। पीछे से सूबेदार
हजारा सह के जबान आग बरसाते थे और सामने लहना सह के सा थय के संगीन चल
रहे थे। पास आने पर पीछे वाल ने संगीन परोना शु कर दया।
एक कलकारी और: “अकाल स खां द फौज आई! वाहे गु जी द फतह! वाहे
गु जी दा ख़ालसा! सत ी अकाल पु ख!!!” और लड़ाई ख म हो गई। तरेसठ जमन
या तो खेत रहे थे या कराह रहे थे। सख म प ह के ाण गए। सूबेदार के दा हने क धे
म से गोली आरपार नकल गई। लहना सह क पसली म एक गोली लगी। उसने घाव को
ख दक क गीली म से पूर लया और बाक का साफा कसकर कमरब द क तरह
लपेट लया। कसी को खबर न पड़ी क लहना के सरा भारी घाव लगा है।
लड़ाई के समय चांद नकल आया था, ऐसा चाँद क जसके काश से सं कृत-
क वय का दया आ ‘ यी’ नाम साथक होता है। और हवा ऐसी चल रही थी जैसी क
वाणभ क भाषा म ‘द तवीणोपदे शचाय’ कहलाती। वजीरा सह कह रहा था क कैसे
मन-मन भर ांस क भू म मेरे बूट से चपक रही थी, जब म दौड़ा-दौड़ा सूबेदार के पीछे
गया था। सूबेदार लहना सह से सारा हाल सुन और कागज़ात पाकर उसक तुरतबु को
सराह रहे थे और कह रहे थे क तू न होता तो आज सब मारे जाते।
इस लड़ाई क आवाज़ तीन मील दाहनी ओर क खाई वाल ने सुन ली थी। उनके
पीछे टे लीफोन कर दया था। वहाँ से झटपट दो डा टर और दो बीमार को ढोने क
गा ड़यां चल , जो एक-डेढ़ घंटे के अ दर-अ दर आ प ँची। फ ड अ पताल नजद क
था। सुबह होते-होते वहाँ प ँच जाएँग,े इस लए मामूली प बाँधकर एक गाड़ी म घायल
लटाए गए और सरी म लाश रखी गई। सूबेदार ने लहना सह क जांघ म प ब धवानी
चाही। उसने यह कहकर टाल दया क थोड़ा घाव है, सवेरे दे खा जाएगा। बोधा सह वर
म बरा रहा था। उसे गाड़ी म लटाया गया। सुबेदार लहना को छोड़कर जाते नह थे।
उसने कहा—
“तु ह बोधा क कसम है और सूबेदारनी जी क सौग ध है, जो इस गाड़ी म न चले
जाओ।”
“और तुम।”
“मेरे लए वहाँ प ँच कर गाड़ी भेज दे ना। और जमन मुद के लए भी तो गा ड़यां
आती ह गी। मेरा हाल बुरा नह है। दे खते नह , म खड़ा ँ।? वजीरा सह मेरे पास है ही।”
“अ छा, पर…”
“बोधा गाड़ी पर लेट गया? भला! आप भी चढ़ जाओ। सु नए तो, सूबेदारनी होरां
को च लखो तो मेरा म था टे कना लख दे ना। और जब घर जाओ तो कह दे ना क
मुझसे जो उ ह ने कहा था, वह मने कर दया।”
गा ड़यां चल पड़ी थ । सूबेदार ने चढ़ते-चढ़ते लहना का हाथ पकड़कर कहा, “तूने
मेरे और बोधा के ाण बचाये ह। लखना कैसा? साथ ही घर चलगे। अपनी सूबेदारनी को
तू ही कह दे ना। उसने या कहा था?”
“अब आप गाड़ी पर चढ़ जाओ। मने जो कहा, वह लख दे ना और कह भी दे ना।”
गाड़ी के जाते ही लहना लेट गया। “वजीरा, पानी पला दे और मेरा कमरब द खोल
दे । तर हो रहा है।”

मृ यु के कुछ समय पहले मृ त ब त साफ हो जाती है। ज म-भर क घटनाएँ एक-एक


करके सामने आती ह। सारे य के रंग साफ होते ह, समय क धु ध ब कुल उन पर से
हट जाती है।

लहना सह बारह वष का है। अमृतसर म मामा के यहाँ आया आ है। दही वाले के यहाँ,
स जीवाले के यहाँ, हर कह , उसे एक आठ वष क लड़क मल जाती है। जब वह
पूछता है क “तेरी कुड़माई हो गई?” वो ‘धत्’ कहकर वह भाग जाती है। एक दन उसने
वैसे ही पूछा तो उसने कहा, “हाँ, कल हो गई, दे खते नह यह रेशम के फूल वाला
सालू?” सुनते ही लहना सह को ःख आ। ोध आ। य आ?
“वजीर सह, पानी पला दे ”।

प चीस वष बीत गये। लहना सह नं. 77 राइफ स म जमादार हो गया है। उस आठ वष


क क या का यान ही न रहा। न मालूम वह कभी मली थी, या नह । सात दन क छु
लेकर ज़मीन के मुकदमे क पैरवी करने वह अपने घर गया। वहाँ रे जमट के अफ़सर क
च मली क फ़ौज लाम पर जाती है। फौरन चले आओ। साथ ही सूबेदार हजारा सह
क च मली क म और बोधा सह भी लाम पर जाते ह। लौटते ए हमारे घर होते
आना। साथ चलगे। सूबेदार का गाँव रा ते म पड़ता था और सूबेदार उसे ब त चाहता
था। लहना सह सूबेदार के यहाँ प ँचा।
जब चलने लगे, तब सूबेदार वेढ़े म से नकलकर आया। बोला, “लहना, सूबेदारनी
तुमको जानती ह। बुलाती ह। जा मल आ।” लहना सह भीतर प ँचा। सूबेदारनी मुझे
जानती ह? कब से? रे जमट के वाटर म तो कभी सूबेदार के घर के लोग रहे नह ।
दरवाज़े पर जाकर ‘म था टे कना’ कहा। असीस सुनी। लहना सह चुप।
“मुझे पहचाना?”
“नह ।”
“तेरी कुड़माई हो गई?” - ‘धत्’ - “कल हो गई…. दे खते नह रेशमी बूट वाला
सालू… अमृतसर म…”
भाव क टकराहट से मूछा खुली। करवट बदली। पसली का घाव बह नकला।
“वजीरा, पानी पला”
“उसने कहा था।”

व चल रहा है। सूबेदारनी कह रही है, “मने तेरे को आते ही पहचान लया। एक काम
कहती ।ँ मेरे तो भाग फूट गए। सरकार ने बहा री का खताब दया है, लायलपुर म
ज़मीन द है, आज नमकहलाली को मौका आया है। पर सरकार ने हम ती मय क एक
घँघ रया पलटन य न बना द , जो म भी सूबेदारजी के साथ चली जाती? एक बेटा है।
फ़ौज मे भरती ए उसे एक ही बरस आ। उसके पीछे चार ए, पर एक भी नह
जया।” सूबेदारनी रोने लगी। “अब दोन जाते ह। मेरे भाग! तु ह याद है, एक दन तांगे
वाले का घोड़ा दही वाले क कान के पास बगड़ गया था। तुमने उस दन मेरे ाण
बचाए थे। आप घोड़ क लात म चले गए थे और मुझे उठाकर कान के त ते पर खड़ा
कर दया था। ऐसे ही इन दोन को बचाना। यह मेरी भ ा है। तु हारे आगे म आँचल
पसारती ँ।”
रोती-रोती सूबेदारनी ओबरी म चली गई। लहना भी आँसू प छता आ बाहर आया।
“वजीरा सह, पानी पला”
“उसने कहा था”

लहना का सर अपनी गोद तर लटाए वजीरा सह बैठा है। जब माँगता है, तब पानी
पला दे ता है। आधे घंटे तक लहना गुम रहा, फर बोला,
“कौन? क रत सह?”
वजीरा ने कुछ समझकर कहा, “हाँ”।
“भइया, मुझे और ऊँचा कर ले। अपने प पर मेरा सर रख ले।”
वजीरा ने वैसा ही कया।
“हाँ, अब ठ क है। पानी पला दे । बस! अब के हाड़ म यह आम खूब फलेगा। चाचा-
भतीजा दोन यह बैठकर आम खाना। जतना बड़ा तेरा भतीजा है उतना ही यह आम है।
जस महीने उसका ज म आ था उसी महीने म मने इसे लगाया था।”
वजीरा सह के आंसू टप-टप पड़ रहे थे।
कुछ दन पीछे लोग ने अख़बार म पढ़ा: ांस और बे जयम, 68व सूची, मैदान म
घाव से मरा, नं. 77 सख राइफ स जमादार—लहना सह।
[ थम काशन: सर वती: जून, 1915]
हीरे का हीरा

आ जकोसवे रे से ही गुलाबदे ई काम म लगी ई है। उसने अपने म के घर के आँगन


गोबर से लीपा है, उस पर पीसे ए चावल से म डन माँड़े ह। घर क दे हली पर
उसी चावल के आटे से लक रे खची ह और उन पर अ त और ब वप रखे ह। ब क
नौ डा लयाँ चुनकर उ ह ने लाल डोरा बाँधकर उसक कुलदे वी बनाई है और एक हरे प े
के दोने म चावल भर कर उसे अ दर के घर म, भ त के सहारे एक लकड़ी के दे हरे म रखा
है। कल पड़ोसी से माँगकर गुलाबी रंग लाई थी, उससे रंगी ई चारद बचारी को आज
नसीब ई है। ल ठया टे कती ई बु ढ़या माता क आँख (य द तीन वष क कंगाली और
पु वयोग से और डेढ़ वष क बीमारी क खया के कुछ आँख और उनम यो त बांक
रही हो तो) दरवाजे पर लगी ई ह। तीन वष के प त वयोग और दा र य क बल छाया
से रात- दन के रोने से पथराई और सफेद ई गुलाबदे ई क आँख पर आज फर कुछ
यौवन क यो त और हष के लाल डोरे आ गए ह। और सात वष का बालक हीरा,
जसका एकमा व कुरता खार से धोकर कल ही उजला कर दया गया है, कल ही से
पड़ो सय से कहता फर रहा है क मेरा चाचा आवेगा।
बाहर खेत के पास लकड़ी क धमाधम सुनाई पड़ने लगी। जान पड़ता है क कोई
लँगड़ा आदमी चला आ रहा है, जसके एक लकड़ी क टाँग है। दस महीने पहले एक
च आई थी, जसे पास के गाँव के पटवारी ने पढ़कर गुलाबदे ई और उसक सास को
सुनाया था। उसम लखा था क लहना सह क टाँग चीन क लड़ाई म घायल हो गई है
और हाँगकाँग के अ पताल म उसक टाँग काट द गई है। माता के वा स यमय और
प नी के ेममय दय पर इसका भाव ऐसा पड़ा था क बेचा रय ने चार दन रोट नह
खाई थी। तो भी, अपने ऊपर स य आप आती ई और आई ई जानकर भी हम लोग
कैसे आँख म च लेते ह और आशा क क ची जाली म अपने को छपाकर कवच से ढका
आ समझते ह! वे कभी-कभी आशा कया करती थ क दोन पैर सही-सलामत लेकर
ही लहना सह घर आ जाए तो कैसा! और माता अपनी बीमारी से उठते ही पीपल के नीचे
के नाग के यहाँ पंचपकवान चढ़ाने गई थी क “नाग बाबा! मेरा बेटा दोन पैर चलता
आ राजी-खुशी मेरे पास आए।” उसी दन लौटते ए उसे एक सफेद नाग भी द खा था,
जससे उसे आशा ई थी क मेरी ाथना सुन ली गई। पहले-पहले तो सुखदे ई को वर
क बेचैनी म प त क एक टाँग, कभी दा हनी और कभी बा , कसी दन कमर के पास
से और कसी दन पडली के पास से और फर कभी टखने के पास से कट ई दखाई
दे ती, पर तु फर जब उसे साधारण व आने लगे तो वह अपने प त को दोन जाँघ पर
खड़ा दे खने लगी। उसे यह न जान पड़ा क मेरे व थ म त क क व थ मृ त को
अपने प त का वही प याद है, जो सदा दे खा है, पर तु वह समझी क कसी करामात से
दोन पैर चंगे हो गए ह। क तु अब उनक अ वचा रत रमणीय क पना के बादल को
मटा दे नेवाला वह भयंकर स य लकड़ी का श द आने लगा, जसने उनके दय को
दहला दया।
लकड़ी क टाँग क येक खट-खट मानो उनक छाती पर हो रही थी और य - य
वह आहट पास आती जा रही थी, य - य उसी ेमपा से मलने के लए उ ह अ न छा
और डर मालूम होते जाते थे क जसक ती ा म उसने तीन वष कौए उड़ाते और पल-
पल गनते काटे थे, युत वह अपने दय के कसी अ दरी कोने म यह भी इ छा करने
लगी क जतने पल वल ब से उससे मल, उतना ही अ छा, और मन क भ पर वे दो
जाँघ वाले लहना सह क आदश मू त को च त करने लग और अब फर कभी न दख
सकने वाले लभ च म इतनी लीन हो गई क एक टाँग वाला स चा जीता-जागता
लहना सह आँगन म आकर खड़ा हो गया और उसके इन हँसते ए वा य म उनक वह
ामोह न ा खुली, “अ मा! अ बाले क छावनी से मने जो च लखवाई थी, वह नह
प ँची?”
माता ने झटपट दया जगाया और सुखदे ई मुँह पर घूँघट लेकर कलश लेकर अ दर के
घर क दा हनी ारसाख पर खड़ी हो गई। लहना सह ने भीतर जाकर दे हरे के सामने सर
नवाया और अपनी पीठ पर क गठरी एक कोने म रख द । उसने माता के पैर हाथ से
छू कर हाथ सर से लगाया और माता ने उसके सर को अपनी छाती के पास लेकर उस
मुख को आँसू क वषा से धो दया, जो बा र क गो लय क वषा के च ह कम से
कम तीन जगह प दखा रहा था।
अब माता उसको दे ख सक । चेहरे पर दाढ़ बढ़ ई थी और उसके बीच-बीच म
तीन घाव के ख े थे। बालकपन म जहाँ सूय, च , मंगल आ द ह क कु को
बचाने वाला ताँबे चाँद क पत ड़य और मूँगे आ द का कठला था, वहाँ अब लाल फ ते
से चार चाँद के गोल-गोल तमगे लटक रहे थे। और जन टाँग ने बालकपन म माता क
रजाई को पचास-पचास दफा उघाड़ दया, उनम से एक क जगह चमड़े के तसम से
बँधा आ डंडा था। धूप से याह पड़े ए और मेहनत से कु हलाए ए मुख पर और
महीन तक ख टया सेने क थकावट से पीली ई आँख पर भी एक कार क वीरता
क , एक तरह के वावल बन क यो त थी, जो अपने पता- पतामह के घर और उनके
पतामह के गाँव को फर दे खकर खलने लगी थी।
माता ँ धे ए गले से कुछ न कह सक और न कुछ पूछ सक । चुपचाप उठकर कुछ
सोच-समझकर बाहर चली गई। गुलाबदे ई जसके सारे अंग म बजली क धाराएँ दौड़
रही थ और जसके ने पलक को धकेल दे ते थे, इस बात क ती ा न कर सक क
प त क खुली ई बाँह उसे समेटकर ाणनाथ के दय से लगा ल, क तु उसके पहले ही
उसका सर जो वषाद के अ त और नवसुख के आर भ से चकरा गया था, प त क छाती
पर गर गया और ह तान क य के एकमा हाव-भाव (अ )ु के ारा उसक तीन
वष क कैद ई मनोवेदना बहने लगी।
वह रोती गई और रोती गई और फर रोती गई। या यह आ य क बात है? जहाँ क
याँ प लखना-पढ़ना नह जानती और शु भाषा म अपने भाव नह काश कर
सकती और जहाँ उ ह प त से बात करने का समय भी चोरी से ही मलता है, वहाँ न य
अ वनाशी ेम का वाह य नह अ ु क धारा क भाषा म (अ भ होगा)।
पाठशाला

ए कअ यापक
पाठशाला का वा षको सव था। म भी वहाँ बुलाया गया था। वहाँ के धान
का एकमा पु , जसक अव था आठ वष क थी, बड़े लाड़ से नुमाइश
म म टर हाद के को क तरह दखाया जा रहा था। उसका मुँह पीला था, आँख सफेद
थ, भू म से उठती नह थी। पूछे जा रहे थे। उनका वह उ र दे रहा था। धम के
दस ल ण सुना गया, नौ रस के उदाहरण दे गया। पानी के चार ड ी के नीचे शीतलता
म फैल जाने के कारण और उससे मछ लय क ाण-र ा को समझा गया, च हण का
वै ा नक समाधान दे गया, अभाव को पदाथ मानने, न मानने का शा ाथ कर गया और
इं लै ड के राजा आठव हेनरी क य के नाम और पेशवा का कुस नामा सुना गया।
यह पूछा गया क तू या करेगा? बालक ने सखा- सखाया उ र दया क म
याव ज म लोकसेवा क ँ गा। सभा ‘वाह-वाह’ करती सुन रही थी, पता का दय
उ लास से भर रहा था।
एक वृ महाशय ने उसके सर पर हाथ फेरकर आशीवाद दया और कहा क तू जो
इनाम माँगे, वह दगे। बालक कुछ सोचने लगा। पता और अ यापक इस च ता म लगे
क दे ख, यह पढ़ाई का पुतला कौन-सी पु तक माँगता है।
बालक के मुख पर वल ण रंग का प रवतन हो रहा था, दय म कृ म और
वाभा वक भाव क लड़ाई क झलक आँख म द ख रही थी। कुछ खाँसकर, गला साफ
कर नकली परदे के हट जाने से वयं व मत होकर बालकर ने धीरे से कहा, ‘ल ’।
पता और अ यापक नराश हो गए। इतने समय तक मेरा ास घुट रहा था। अब मने
सुख क साँस भरी। उन सबने बालक क वृ य का गला घ टने म कुछ उठा नह रखा
था, पर बालक बच गया। उसके बचने क आशा है, य क ‘ल ’ क वह पुकार जी वत
वृ के हरे प का मधुर ममर था, मरे काठ क अलमारी क सर खानेवाली
खड़खड़ाहट नह ।
(1914)
साँप का वरदान

ए कनीचदनकुलराजा धीरज सह जंगल म जा रहे थे। दे खा क उ च कुल क एक स पणी


के एक सप के साथ सहवास कर रही है। राजा को यह अनाचार बुरा लगा।
उसने बत क चोट मारकर उन दोन को अलग कया और अपना रा ता लया।
कहते ह क साँप अपना मैथुन दे खनेवाले को माफ नह करता। अव य ही जा रणी
स पणी ने अपने ेमी को उकसाया होगा क बदला ले, क तु उस कापु ष ने म दबाकर
अपनी बहकाई ई ेयसी को बत क चोट का मरण करने के लए छोड़ दया।
ी ने अपने प त नाग से जाकर कहा क राजा धीरज सह ने नरपराध ी पर
माद से आघात कया है, आप मेरा बदला ली जए।
सप फुफकारता आ राजमहल म प ँचा और एक मोरी म अवसर ताकता आ
छपा रहा।
इसी समय राजा भीतर अपनी रानी से कह रहे थे क दे ख , क लयुग का वेश हम
मनु य म ही नह , सप म भी हो गया है। आज मने एक नीच जा त के सप के साथ एक
उ च कुल क ना गनी को दे खा। हा! हंत! समय न मालूम या- या दखाएगा।
पनाले म से यह सुनकर नाग राजा के सामने आया और धीरज सह से स चा हाल
सुनकर बोला, “म उस छ लनी के वचन से मो हत होकर आपको मारने आया था, पर तु
अब मेरी आँख पर से परदा हट गया है। आप जो चाहे, वर माँ गए।” बार-बार पूछने पर
राजा ने यह वर माँगा क मुझम और मेरे वंशधर म यह श हो क वे साँप के काटे ए
को अ छा कर सक और सब साँप उन मनु य को छोड़ द, जो मेरा नाम ल। साँप तथा तु
कहकर चला गया।
(1913)
राजा क नीयत

ए कखड़ाबादशाह गम हवा म एक बाग के दरवाज़े पर प ँचा। बूढ़ा बागबान दरवाज़े पर


था। पूछा क इस बाग म अनार ह? कहा—ह। बादशाह ने फरमाया क एक
याला अनार के रस का ला। बागबान क लड़क अ छ सूरत और वभाव क थी;
उसको इशारा कया क अनार का रस ले आ। लड़क गयी और फौरन एक याला अनार
के रस का बाहर ले आई। उस पर कुछ प े भी रखे थे।
बादशाह ने उसके हाथ से लेकर पी लया और लड़क से पूछा क इस पर इन प
के रखने का या मतलब था। उसने बड़ी मीठ बोली से अज कया क ऐसी गम हवा म
पसीने से डू बे ए और सवारी से प ँचने म एकदम पानी पीना हकमत के खलाफ है,
इस वचार से मने प े रस और याले के ऊपर रख दये थे क धीरे-धीरे पीय।
उसक यह सुहानी अदा सुलतान के मन को भा गयी और उसने चाहा क म इस
लड़क को महल क खदमतगार नय म दा खल क ँ ।
फर उस बागवान से पूछा क तुझको इस बाग से या हा सल होता है। कहा—300
द नार। कहा—द वान (कचहरी) म या दे ता है। कहा—कुछ नह । सुलतान कसी पेड़
का कुछ नह लेता है, ब क खेती का भी दसवाँ ह सा ही लेता है।
बादशाह के मन म आया क मेरी स तनत म बाग ब त और दर त बेशुमार ह, अगर
बाग के हा सल भी दसवाँ भाग द तो काफ पया होता है और रैयत को कुछ नुकसान
भी नह प ँचता। अब फरमा ँ गा क बाग का भी महसूल लया कर।
फर कहा क अनार का कुछ रस और ला। लड़क गई और दे र म अनार के रस का
एक याला लायी। सुलतान ने कहा क जब तू पहले गई थी तो ज द आ गई थी और
ब त यादा ले आई थी। अब तूने ब त रा ता दखाया और थोड़ा भी लाई। लड़क ने
कहा, “तब तो मने याला एक ही अनार के रस से भर लया था। अब 5-6 अनार को
नचोड़ा और उतना रस नह नकला।” सुलतान क हैरत और भी बढ़ गयी।
बागबान ने अज क क महसूल म बर कत बादशाह क नेकनीयती से होती है। मेरे
मन म ऐसा आता है क तुम बादशाह होगे। जब तुमने बाग का हा सल मुझसे पूछा तो
तु हारी नीयत डाँवाडोल हो गयी, जससे फल क बर कत जाती रही। सुलतान पर इस
बात का बड़ा असर पड़ा और उसने उस खयाल को दल से र करके कहा क एक बार
फर अनार के रस का याला ला। लड़क फर गयी और ज द से भरा आ याला बाहर
ले आयी और उसने उसे हँसते-खेलते सुलतान के हाथ म दया।
सुलतान ने बागबान क बु मानी पर शाबासी दे कर सारा हाल जा हर कर दया और
लड़क बागबान से माँग ली। उस खबरदार बादशाह क यह हमायत नया के द तर म
यादगार रह गयी।
(1922)
जब गुण अवगुण बन गया

ए कयहबकहता
पशु-प य का भाषा जानती थी। (एक दन) आधी रात को (एक) ृगाल को
सुनकर क ‘नद का मुदा मुझे दे दे और उसके गहने ले ले’। (वह) नद पर
वैसा (ही) करने गयी।
लौटती बार (उसके) सुर ने (उसे) दे ख लया। जाना (या समझा) क यह अ-सती
(च र हीन) है। (अतः) वह उसे उसके पीहर प ँचाने ले चला।
माग म (एक) कहीर के पेड़ के पास से (एक) कौआ कहने लगा क इस पेड़ के नीचे
दस लाख क न ध (खजाना) है। (उसे) नकाल ले और मुझे दही-स ू खला।
अपनी व ा से ख पायी वह कहती है—”मने जो एक (गलत काय) कया, उससे
घर से नकाली जा रही ।ँ अब य द सरा क ँ गी, तो कभी भी अपने य से नह मल
सकूँगी, अथात् मार द जाऊँगी।”
(1921)
ज मा तर कथा

ए कउसकक हलसहला
नामक कबाड़ी था, जो काठ क कावड़ कँधे पर लए- लए फरता था।
नामक ी थी। उसने प त से कहा क दे वा धदे व युगा ददे व क पूजा
करो, जनसे (हम) ज मा तर म दा र य- ख न पाव।
प त ने कहा—“तू धम-गहली ई है: (अथात् धम के फेर म बक रही है), पर—सेवक
म (भला) या कर सकता ँ?”
तब ी ने नद -जल और फूल से पूजा क ।
उसी दन वह वषू चका (हैजा) से मर गयी और ज मा तर म राजक या और
राजप नी ई।
अपने नये प त के साथ उसी (एक) दन म दर म आयी तो उसी पूव-प त द र
कबा ड़ए को वहाँ दे खकर मू छत हो गयी। उसी समय जा त मर होकर (पूव ज म को
यादकर) उसने एक दोहे म कहा—”जंगल क प ी और नद का जल सुलभ था, तो भी
तू नह लाया। हाय, तेरे तन पर (साबुत) कपड़ा भी नह है और म रानी हो गई।”
कबाड़ी ने वीकार करके ज मा तर कथा क पु क ।
(1921)
भूगोल

ए कलगा।श कहने
क को अपने इ पे टर के दौरे का भय आ और वह लास को भूगोल रटाने
लगा क पृ वी गोल है। य द इ पे टर पूछे क पृ वी का आकार कैसा है
और तु ह याद न हो, तो म सुँघनी क ड बया दखाऊँगा। उसे दे खकर उ र दे ना।
गु जी क ड बया गोल थी।
इ पे टर ने आकर वही एक व ाथ से कया। उसने बड़ी उ कंठा से गु क
ओर दे खा। गु ने जेब से चौकोर ड बया नकाली। भूल से सरी (गोल क बजाय
चौकोर) ड बया नकल आयी थी।
लड़का बोला, “बुधवार को पृ वी चौकोर होती है और बाक सब दन गोल।” (उस
दन बुधवार था)।
(1914)

इस कथा म उन आलसी और लापरवाह अ यापक पर कटा कया गया है, जो


अपने अ यापक-धम का नवाह ग भीरता पूवक और ईमानदारी से नह करते। स पादक
बकरे को वग

ए कथा।मनु य य (ब ल) के लए (एक) बकरे को ले जा रहा था और बकरा म मयाता

एक साधु ने उससे कहा—”मान(स मान) न ( ब कुल न ) हो (जाये) तो शरीर


छोड़ना चा हए। य द शरीर न छोड़ा जाये, तो दे श को तो अव यक तज द जए।”
यह सुनकर बकरा चुप आ।
साधु ने समझाया क वह (अथात् बकरा) इसी पु ष का बाप शमा है इसने यह
तालाब खुदवाया, पाल पर पेड़ लगाए, तवष यहाँ बकरे मारने का य चलाया। वही
शमा पाँच बार बकरे क यो न म ज म लेकर अपने पु से मारा जा चुका है। यह छठा
ज म है।
बकरा अपनी भाषा म कह रहा है क बेटा, मत मार म तेरा बाप ँ। य द व ास न हो
तो यह स हदानी ( च ह) बताता ँ, क घर के अ दर तुझ से छपाकर नधान (धन) गाड़
रखा है। दखा ँ !
मु न के कहने पर बकरे ने घर म नधान (गड़ा आ धन) दखा दया।
फर बकरे और उसके मनु य पु को वग मल गया।
(1921)
इस कथा म दो वृ य पर कटा है। पहली वृ है य म पशु-ब ल क ग हत
था, और सरी वृ है धन के लोभन म पुरो हत वग ारा आचार सं हता से
छे ड़छाड़ (स पादक)
कुमारी यंकरी

ग जपु र के राजा खेमंकर के यहाँ सुतारा दे वी (के गभ) से एक क या उ प ई। राजा-


रानी के मरने पर म य ने उसे ‘ यंकर’ नाम दे कर (और) पु ष कहकर गद्द पर
बठाया। फर कुलदे वी अ युता क पूजा करके पूछा क इसका प त कसे कर?
दे वी ने उ र दया, “ सह को दमन (परा जत) करके जो उस पर सवारी करेगा,
श ु को, अकेला होने पर भी, जीतेगा, कुमारी यंकरी और सम त रा य उसी को
अपण कर दो।”
ऐसा ही एक मल गया और कहानी, कहा नय क तरह चली।
(1922)
याय-रथ

च◌ौ डत(चोल) दे श म गोवधन नामक राजा के यहाँ, सभा म डप के सामने, लोहे के


भ पर (एक) याय-घंटा था। जसे याय चाहने वाला बजा दया करता।
एक समय उसके (अथात् राजा के) एकमा पु ने रथ पर चढ़कर जाते समय जान-
बूझकर एक बछड़े को कुचल दया।
बछड़े क माता (अथात गौ) ने स ग अड़ा कर घंटा बजा दया।
राजा ने सब हाल पूछकर अपने याय को परम को ट पर प ँचाना चाहा। सरे दन
सवेरे (उसने) वयं रथ पर बैठकर और राह म अपने यारे इकलौते पु को बठाकर उस
पर रथ चलाया और गौ को दखा दया ( क वह कतना याय य है।)
राजा के स व और कुमार के भा य से कुमार मरा नह ।
(1922)
इस कथा से यह प नह होता क गाय को याय कस कार मला।
—स पादक
मह ष

ए कगे आ
बार दो बंगाली स जन सैक ड लास म क मीर जा रहे थे। एक के चरण म
बूट, दे ह म (पर) रेशमी क बल और मुँह (चेहरे) पर चकनी दाढ़ दे ख एक
या ी ने पूछा, “आपका नाम या है?” पास के धा मक मुसाहब ने तपाक से उ र दया
—“मह ष अमुकान द सर वती”, और पूछने वाले का नाम पूछा। उसने ग भीरता से
कहा, ‘अश तमुक’। ‘अश का या अथ है?’ यह पूछने पर उ र मला क मुझे अश
रोग है, अतएव म अश आ। तीन-चार मास म रोग बढ़ जाने पर ‘महश ’ कहलाऊँगा।
(1904)
अश का जो अथ यहाँ दया गया है वह सं कृत से नकले ‘अश’ श द का है। उ म
‘अश’ श द का अथ ‘ सहासन’ अथवा ‘आसमान’ होता है। इस तरह अश का मतलब
आ ‘उ चासीन’। श ाचार के अनुसार चूँ क कसी को अपना नाम बताते ए
शु का बड़ पन। यह वशेषण नह बताना चा हए, अतः यहाँ ‘मह ष’ श द पर ं य
कया गया है।—स पादक
ब दर

◌े त(अथात्
समु के पास कसी नगर के वासी बड़े वलासी और आलसी थे। परमे र
खुदा) ने उ ह धम पदे श करने को हज़रत मूसा को भेजा। मूसा ने बड़ी
ग भीरता से उ ह अपने स ा त समझाए और धम पदे श दया। उन महाशय ने मूसा क
ओर मुँह चढ़ाया और उनके भाषण को सुन कर ज हाइयाँ ल और दाँत नकाल मूसा को
प सुना दया क हम तु हारी ज रत नह है। मूसा ने अपना रा ता लया। (उसके बाद)
वे सब ( ेत जा त के) मनु य ब दर हो गए।
अब वे जगत क ओर मज़े म मुँह चढ़ाते ह और चढ़ाते ही रहगे।
(1904)
इस वृ ा त म मूढ़ और सा दा यक भावना से त लोग पर कटा कया गया है।
—स पादक
पोप का छल

कि◌ सीघुटनोप वके बलदवसखड़ेकोहो, यन धमाचाय-पोप-का क था क (वे) गाड़ी म


ाथना करते ए, नगर क द णा कर।
एक वलासी पोप के मोटे शरीर म पीड़ा होती थी। उस वात (रोग) त पोप ने
लकड़ी, कपड़े, प थर से अपनी एक मू त बनवाई। वह मू त अव नतल- व य त
जानुमंडल, कमल-मुकुल क -सी अंज ल को सर पर रखे (और) पीछे एक कुस पर छपे
पोपदे व को बैठाये नगर क द णा कर आई। मान पोप का काम ऐसा रह गया था,
जसे नज व लकड़ी को (एक) मू त भी कर सकती थी।
(इसी कार) “मेरे पास ठाकुर जी नृ य करते ह….” ऐसा कहकर एक धूत ने चूह के
पैर म घुँघ बाँधकर, उ ह से दे व-दे व का काम नकाल लया था।
(1904)
इस कथा म पुरो हत-वग ारा धम भी जनता क भावना के साथ छल कए
जाने क ओर संकेत कया गया है। आज भी इस कार क , गणेश को ध पलाने जैसी,
घटनाएँ ायः चचा म आती रहती ह।—स पादक
याय घंट

दि◌ ली म अनंगपाल नामी एक बड़ा राय था। उसके महल के ार पर प थर के दो


सह थे। इन सह के पास उसने एक घंट लगवाई। क जो (लोग) याय चाह,
उसे बजा द। जस पर राय उसे बुलाता, पुकार सुनता और याय करता।
एक दन एक कौआ आकर घंट पर बैठा और घंट बजाने लगा।
राय ने पूछा, “इसक या पुकार है?”
यह बात अनजानी नह है क कौए सह के दाँत म से माँस नकाल लया करते थे।
प थर के सह शकार नह करते, तो कौए को अपनी न य जी वका कहाँ से मले?
राय को न य आ क कौए क भूख क पुकार स ची है, य क वह प थर के
सह के पास आन बैठा था।
राय ने आ ा द क कई भेढ़े-बकरे मारे जाए, जससे कौऐ को दन का भोजन मल
जाये।
(1922)
तोमर वंश का शासक, जो 11व सद ईसवी के म य आ। जहाँ पर कुतुबमीनार है,
वहाँ उससे पहले उसने अपना कला बनवाया था। राजधानी के प म द ली को थाई
महल उसी के समय मला।—स पादक
इस कथा म उन ापा रय पर कटा है, जो च टय को चीनी और कबूतर को तो
दाना चुगाते ह, क तु ापार म समाज- हत से वमुख हो तरह-तरह से ड डी मारते ह।
—स पादक
मधु रमा

त◌ै लंम ग ीदेश ाकदे राजा तैलप क छे ड़छाड़ पर मुँज ने उस पर चढ़ाई क । (मुंज के)
य ने मुंज को रोका और समझाया क गोदावरी के उस पार न जाना।
क तु मुंज तैलप को छह बार हरा चुका था, इस लए उसने म ी क सलाह क उपे ा।
ा द य ने राजा का भावी अ न समझ और अपने को असमथ जान चता म
जलकर ाण दे दए।
गोदावरी के पार मुंज क सेना छल-बल से काट गई और तैलप मुंज को मूंज क
र सी से बाँधकर, ब द बनाकर ले गया। वहाँ उसे लकड़ी के पजड़े म कैद (करके) रखा
(गया)।
(इसी बीच) तैलप क बहन मृणालवती से मुंज का ेम हो गया।
एक दन मुंज काँच (दपण) म मुँह दे ख रहा था क मृणालवती पीछे से आ खड़ी ई।
मुंज के यौवन और अपनी अधेड़ उमर के वचार से उसके चेहरे पर लानता आ गई।
यह दे खकर मुंज कहता हैः “हे मृणालवती, गए ए यौवन का सोच मत कर! य द
श कर (या म ी) के सौ टु कड़े हो जाए, तो वह चूण क ई (श कर या म ी) भी मीठ
होती है।”
(1921)
व लाल-र चत ‘भोज ब ध’ के अनुसार, मुंज धारानगरी के राजा का भाई था।
धारानगरी का राजा जब मरा तो उसका पु भोजदे व ब त छोटा था। मुंज राजग
ह थयाना चाहता था। इस लए उसने अपने राजकुमार भतीजे को एक व धक या ज लाद
के हवाले कया, क वह उसे वन म ले जाकर मार द। व धक को राजकुमार पर दया आ
गई। उसने उसे नह मारा और मुंज से झूठमूठ कह दया क राजकुमार भोज मारा गया।
आगे चलकर भोज धारानगरी का लापी राजा बना।—स पादक
ी का व ास

र◌ु ा द य तो मर गया था। वह उदयन व सराज के म ी यौग-धरायण क तरह अपने


वामी को बचाने के लए, पागल का वेश धर कर नह प ँचा। क तु मुंज के कुछ
सहायक तैलप क राजधानी म प ँच गए। उ ह ने ब द गृह तक सुरंग लगा ली।
भागते समय मुंज ने मृणालवती से कहा क मेरे साथ चलो और धारा म रानी बनकर
रहो!
उसने कहा क गहन का ड बा ले आती ँ। क तु यह सोचकर, क यह मुझ अधेड़
को वहाँ जाकर छोड़ दे , तो न घर क रही न घाट क , उसने सब कथा अपने भाई (राजा
तैलप) से कह द ।
व सराज क तरह घोषवती वीणा और वासवद ा को लेकर नकल जाना तो र रहा,
मुंज बड़ी नदयता से बाँधा गया। उससे गली-गली भीख मँगाई गई।
उसने वलाप क क वता करते ए कहा, “सबके च को ह षत करने या हरने के
अथ से ेम क बात बनाने म चतुर य पर जो व ास करते ह, वे दय म ख पाते
ह।”
(1921)

इस कथा म मृणालवती के मा यम से ी- वभाव पर क गई ट पणी ी स ब धी


पुरानी धारणा के अनु प है और क चत् पु षवाद पूवा ह से भा वत। इसम
कारा तर से व सराज उदयन व वासवद ा के संग महाक व मास और सुब धु के
कारक के स दभ से आए है। मास, का लदास के पूववती थे और सुब धुः “काद बरी” के
रचनाकार बाण के समकालीन थे।
—स पादक
जा-व सलता

ए कयाससमयसे राजााकुलभोजहोकरकेवलकसीएकवे याम ककोे घरसाथजा उसने


लए रात को नगर म घूम रहा था।
म ारा जल मँगवाया। वह
सँभली अ त ेम से, क तु कुछ दे र से तथा खेद जतला कर साँठे के रस से भरा करवा
लाई। म ने उसके खेद का कारण पूछा। वह बोली, “पहले एक ग े म एक घड़ा और
एक वाह टका (अथात् कटोरा) भर जाता था। क तु अब राजा का मन जा क ओर
व है। इस लए इतनी दे र म (एक साँठे से) एक वाह टका भरी। यही मेरे खेद का
कारण है।”
राजा ने यह सुनकर सोचा क शव म दर म कोई ब नया बड़ा भारी नाटक करा रहा
था। मेरे च म उसे लूटने क (भावना) आई। इस लए यह जो कहती है, स य है।
राजा लौटकर घर आया और सो गया।
सरे दन जा पर कृपा दखाकर वह फर उस पणरमणी (पेशेवर ी) के घर को
गया। इस बार साँठे म अ धक रस हो जाने से, यह जानकर क आज जा क ओर (राजा
ने) व सलता दखाई है—उस वे या ने यही कहकर राजा को स तु कया।
(1922)
उ ज यनी के महाराज व मा द य और धारानगरी के राजा भोज के जा-
तपालक होने क अनेक कहा नयाँ पुराने लोका यान म भरी पड़ी है। कहते ह क ये
दोन राजा अपने रा य और जा का हालचाल जानने के लए रात म वेश बदलकर नगर
क प र मा करते थे। और जो क मयाँ नज़र आती थी, उनका सुधार करते थे। राजा
भोज स ब धी इस कथा म उसी धारणा के अनु प संग दया गया है।
—स पादक
कण का ोध

म हाभारत का यु हो रहा है। भी म और ोण मर चुके ह। कण बड़े अ भमान के साथ


सेनाप त बनकर अजुन से लड़ने चले ह। म राज श य इस शत पर उनका सार थ
बना है क जो चा ,ँ सो कण को सुना ँ ।
कण ने यु - े म आते ही ड ग मारना आर भ कया। कहता है क अब अजुन और
कृ ण मरे, मुझे कोई अजुन को दखा तो दे । म दखाने वाले को छह ह थ नय वाला सोने
का रथ ँ , गले म सोना पहने ए दा सयाँ ँ , चौदह वै य ाम (मारवाड़ी सेठ के गाँव) दे
ँ।
य ही वह शेखी बघारता गया। श य ने उसे झड़कना शु कया। श य कहता है क
जो तेरे पास इतना पया है तो य य नह करता? या तुझे इस तरह मृ युमुख म जाने
से रोकने वाले म नह ? माता क गोद म पड़ा-पड़ा तू च द खलौना माँगता है। या
कभी गीदड़ ने शेर को मारा है? हंस क चाल चलने वाले कौवे क तरह ही तेरी ग त
होगी।
कण को ोध आ गया। एक तो ऐसी झड़क, सरे शाप क झड़क सुनते ही तू
न तेज हो जाएगा। श य पहले यह ती ा कराकर सार थ बना था क जो चा ँ सो कह
लूँ। अब कण ने जले दल से श य को बुरा-भला कहना आर भ कया। श य म दे श का
राजा था। म प मी पंजाब है, जहाँ उस समय वाहीक नामक अनाय जा त आ बसी
थी।
कण ने वाहीक को जी भरकर गा लयाँ द और कहा, “श य, ऐसे पा पय का तू
प ांशभोगी राजा है।”
श य चुपचाप कण के कुवा य को पीता गया। उसने कण के लए कुछ भी न कहा,
पर कण क वीरता पर गीला क बल डालता गया और उसे बकने दया। उसका उ े य
स हो रहा था। भ सना से कण क वीरता पानी-पानी हो रही थी और शाप का भाव
बढ़ रहा था।
अ त म श य ने कहा, “कण, तु हारे अंग दे श म भी असुर को मरने के लए छोड़
दे ते ह और य तथा पु को बेच दया करते ह। येक दे श म सदाचार और राचार
होते ह। इससे या?”
(1913)
धमपरायण रीछ

स◌ा यंदेखकालअपनेआ-अपने
ही चाहता है। जस कार प ी अपना आराम का समय आया
खोत का सहारा ले रहे ह उसी कार ह ापद भी अपनी
अ ाहत ग त समझकर क दरा से नकलने लगे ह। भगवान सूय कृ त को अपना
मुख फर एक बार दखाकर न ा के लए करवट लेने वाले ही थे क सारी अर यानी
‘मारा है, बचाओ, मारा है’ क कातर व न से पूण हो गई। मालूम आ क एक ाध
हाँफता आ सरपट दौड़ रहा है और ायः दो सौ गज क री पर एक भीषण सह लाल
आँख, सीधी पूँछ और खड़ी जटा दखाता आ तीर क तरह पीछे आ रहा है। ाध क
ढ ली धोती ायः गर गई है, धनुष-बाण बड़ी सफाई के साथ हाथ से युत हो गए ह, नंगे
सर बेचारा शी ता ही को परमे र समझता आ दौड़ रहा है। उसी का यह कातर वर
था।
यह अर य भगवती ज तनया और पूजनीया क ल दन दनी के प व संगम के
समीप व मान है। अभी तक यहाँ उन वाथ मनु य पी नशाचर का वेश नह आ
था, जो अपनी वासना क पू त के लए आव यक से चौगुना-पंचगुना पाकर भी झगड़ा
करते ह, पर तु वे पशु यहाँ नवास करते थे, जो शा तपूवक सम त अर य को बाँटकर
अपना-अपना भा य आजमाते ए न केवल धम वजी पु ष क तरह श ोदर-परायण
ही थे, युत अपने परमा मा का मरण करके अपनी नकृ यो न को उ त भी कर रहे
थे। ाध, अपने वभाव के अनुसार, यहाँ भी उप व मचाने आया था। उसने बंग दे श म
रो और झलसा मछ लय और ‘हासेर डम’ को नवश कर दया था, ब बई के ककड़े
और कछु को वह आ मसात कर चुका था और या कह, मथुरा, वृ दावन के प व
तीथ तक म वह वकवृ और वडाल त दखा चुका था। यहाँ पर सह के कोपन
बदना न म उसके ाय त का होम होना ही चाहता है। भागने म नपुण होने पर भी
मोट त द उसे ब त कुछ बाधा दे रही है। सह म और उसम अब ायः बीस-तीस गज का
ही अ तर रह गया और उसे पीठ पर सह का उ ण नः ास मालूम-सा दे ने लगा। इस
क ठन सम या म उसे सामने एक बड़ा भारी पेड़ द ख पड़ा। अपचीयमान श पर
अ तम कोड़ा मारकर वह उस वृ पर चढ़ने लगा और पचास प ी उसक प र चत
डरावनी मू त को पहचानकर अमंगल समझकर ा ह- ा ह वर के साथ भागने लगे।
ऊपर एक बड़ी बल शाखा पर वराजमान एक भ लूक को दे खकर ाध के रहे-सहे
होश पतरा हो गए। नीचे म -बल से क लत सप क भाँ त जला-भुना सह और ऊपर
अ ात कुलशील रीछ। य कड़ाही से चू हे म अपना पड़ना समझकर वह कक वमूढ़
ाध सहम गया, बेहोश-सा होकर टक गया, ‘न ययौ न त थौ’ हो गया। इतने म ही
कसी ने न ध ग भीर नघ ष मधुर वर म कहा, ‘अभयं शरणागत य! अ त थ दे व!
ऊपर चले आइए।’ पापी ाध, सदा छल- छ के क चड़ म पला आ, इस अमृत अभय
वाणी को न समझकर वह का रहा। फर उसी वर ने कहा, “चले आइए, महाराज!
चले आइए। यह आपका घर है। आप अ त थ ह। आज मेरे वृह प त उ च के ह, जो यह
अपावन थान आपक चरणधू ल से प व होता है। इस पापा मा का आ त य वीकार
करके इसका उ ार क जए। वै दे वा तमाप सोऽ त थः वग सं कः। पधा रए, यह
ब तर ली जए, यह पा , यह अ य, यह मधुपक।”
पाठक! जानते हो यह मधुर वर कसका था? यह उस रीछ का था। वह धमा मा
व याचल के पास से इस प व तीथ पर अपना काल बताने आया था। उस धम ाण
धमकजीवन ने वंशश ु ाध को हाथ पकड़कर अपने पास बैठाया; उसके चरण क
धू ल म तक से लगाई और उसके लए कोमल प का बछौना कर दया। व मत ाध
भी कुछ आ त आ।
नीचे से सह बोला, “रीछ! यह काम तुमने ठ क नह कया। आज इस आततायी का
काम तमाम कर लेने दो। अपना अर य न कंटक हो जाए। हम लोग म पर पर का
शकार न छू ने का कानून है। तुम य समाज- नयम तोड़ते हो? याद रखो, तुम इसे आज
रखकर कल ःख पाओगे। पछताओगे। यह जस प ल म खाता है, उसी म छ
करता है। इसे नीचे फक दो।”
रीछ बोला, “बस, मेरे अ त थ परमा मा क न दा मत करो। चल दो। यह मेरा वग
है, इसके पीछे चाहे मेरे ाण जाए, यह मेरी शरण म आया है, इसे म नह छोड़ सकता।
कोई कसी को धोखा या ःख नह दे ता है। जो दे ता है, वह कम ही दे ता है। अपनी करनी
सबको भोगनी पड़ती है।”
“म फर कहे दे ता ँ, तुम पछताओगे।” यह कहकर सह अपना नख काटते ए म
दबाए चल दया।

ायः पहर-भर रात जा चुक है। रीछ अपने दन-भर के भूख-े यासे अ त थ के लए,
सूय ढ़ अ त थ के लए, क दमूल फल लेने गया है, पर तु ाध को चैन कहाँ? दन-भर
क हसा वण वृ क ई हाथ म खुजली पैदा कर रही है। या करे? बजली के
काश म उसी वृ म एक ाचीन कोटर दखाई दया और उसम तीन-चार रीछ के छोटे -
छोटे ब चे मालूम दए। फर या था? ाध के मुँह म पानी भर आया, पर तु धनुष-बाण,
तलवार रा त म गर पड़े ह, यह जानकर पछतावा आ। अक मात जेब म हाथ डाला तो
एक छोट -सी पेशक ज! बस, काम स आ। अपने उपकारी र क रीछ के ब च को
काटकर क चा ही खाते उस पापा मा ाध को दया तो आई ही नह , दे र भी न लगी। वह
जीभ साफ करके ओठ को चाट रहा था क माग म फरकती बाई आँख के अशकुन को
‘शा तं पापं नारायण! शा तं पापं नारायण’ कहकर टालता आ रीछ आ गया और चुने
ए रसपूण फल ाध के आगे रखकर सेवक के थान पर बैठकर बोला, “मेरे यहाँ थाल
तो है नह , न ही प े ह, पु पं प ां फलं तोयं अ त थ नारायण क सेवा म सम पत ह।”
जब ाध अपने द धोर क पू त कर चुका तो इसने भी शेषा खाया और कुछ साद
अपने ब च को दे ने के लए कोटर क तरफ चला।
कोटर के ार पर ही ेमपूवक वागतमय ‘दादा हो’ न सुनकर उसका माथा ठनका।
भीतर जाकर उसने पैशा चक लीला का अव श चम और अ थ दे खा, पर तु उस
वीतराग के मन म “त को मोहः कः शोक एक वमनुप तः?” वह उसी ग भीर पद से
आकर लेटे ए ाध के पैर दबाने लग गया। इतने म ाध के कम ने एक पुराने गीध
का प धारण कर रीछ को कह दया क तेरी अनुप थ त म इस कृत न ाध ने तेरे
ब चे खा डाले ह। ाध को कमसा ी म व ास न था, वह च क पड़ा। उसका मुँह
पसीने से तर हो गया, उसक जीभ तालू से चपक गई और वह इन वा य को आने वाले
यम का त समझकर थर-थर काँपने लगा। बूढ़े रीछ के ने म अ ु आ गए; पर तु वह
खेद के नह थे, हष के थे। उसने उस गृ को स बोधन करके कहा, “ धक् मूढ़! मेरे परम
उपकारी को उ वण श द म मरण करता है। ( ाध से) महाराज! ध य भा य उन ब च
के, जो पाप म ज मे और पाप म बढ़े ; पर तु आज आपक अशनाया नवृ के पु य के
भागी ए। न मालूम कन नीचा तनीच कम से उ ह ने यह पशुयो न पाई थी, न मालूम
उ ह इस ग हत यो न म रहकर कतने पाप-कम और करने थे। ध य मेरे भा य! आज वे
‘ वग ारमपानृत’ म प ँच गए। हे मेरे कुलतारण! आप कुछ भी इस बात क च ता न
क जए। आपने मेरे “स तावरे स त पूव” तरा दए!” जसे मद नह और मोह नह , वह
रीछ ाध का स वाहन करके संसार-या ा के अनुसार सो गया, पर तु उसने अपना
नभ क थान ाध को दे दया था और वयं वह दो शाखा पर आल बत था। चकने
घड़े पर जल क तरह पापा मा ाध पर यह धमाचरण और त ज य शा त भाव नह
डाल सके; वह तारे गनता जागता रहा और उसके कातर ने से न ा भी डरकर भाग
गई। इतने म मटरग ती करते वही सह आ प ँचे और मौका दे खकर ाध से य बोले,
“ ाध! म वन का राजा ँ। मेरा फरमान यहाँ सब पर चलता है। कल से तू यहाँ
न क टक प से शकार करना, पर तु मेरी आ ा न मानने वाले इस रीछ को नीचे फक
द।” पाठक! आप जानते ह क ाध ने इस य न पर या कया? रीछ के सब उपकार
को भूलकर उस आशामु ध ने उसको ध का दे ही तो दया। आयु: शेष से, पु यबल से,
धम क म हमा से, उस रीछ का वदे शी कोट एक टहनी म अटक गया और वह जागकर,
सहारा लेकर ऊपर चढ़ आया। सह ने अ हास करके कहा, “दे खो रीछ! अपने अ त थ
च वत का साद दे खो। इस अपने वग, अपने अमृत को दे खो। मने तु ह सायंकाल
या कहा था? अब भी इस नीच को नीचे फक दो।” रीछ बोला, “इसम इ ह ने या
कया? न ा क असावधानता म म ही पैर चूक गया, नीचे गरने लगा। तू अपना
मायाजाल यहाँ न फैला। चला जा।” रीछ उसी ग भीर नभ क भाव से सो गया। उसको
परमे र क ी त के व आने लगे और ाध को कैसे म व आए, यह हमारे रस
पाठक जान ही लगे।—”नह क याणकृत क द् ग त तात ग छ त।”

ा मु त म उठकर रीछ ने अलस ाध को जगाया और कहा, “महाराज! मुझे


नान के लए वेणी जाना है और फर लोक या ा के लए फरना है, मेरे साथ च लए,
म आपको इस कांतार से बाहर नकालने का माग बतला ँ , पर तु आप उदास य ह?
या आपके आ त य म कोई कमी रह गई? या मुझसे कोई कसूर आ?” ाध बात
काटकर बोला, “नह , मेरा यान घर क तरफ गया था। मेरे पर अ -व के लए
धमप नी और ब त से बालक नभर ह। मने सुख से खाया और सोया, पर तु वे बेचारे
ु ाम-क ठ कल से भूखे ह, उनके लए कुछ पाथेय नह मला।” रीछ ने हाथ जोड़कर
कहा, “नाथ! आज आपक छु रका वेणी म यह दे ह- नान करके वग को जाना चाहता
है। य द इस मास से माता और भाई तृ प ह , और इस जर चम से उनक जू तयाँ बन तो
आप ‘तत सद ’ कर। ध यभा य, आज यह अनेक ज मसं स आपके वदना त म
पराग त को पावै।” ाध ने बरछ उठाकर रीछ के दय म भ क द । स वदन रीछ
ऋतुपण क तरह बोला, “ शरामुखैः य दत एव र म ा प दे हे मम माँसम त।”
उस उदार महामा य के आगे कण का यह वा य या चीज था— कय ददम धकं म
य वजावाथ य ,े कवचमरमणीयं कु डले चापया म। अक णमवकृ य ा कृपाणेन
तयग्, वहल धरधारं मौ लमावेदया म॥
सारा अर य वग य काश और सुग ध से खल रहा है। अनाहतनाद का मधुर वर
कान को आ या यत कर रहा है। द दग तर से ‘ह र-ह र’ व न आकाश को प व कर
रही है। उसी वृ के सहारे एक द वमान खड़ा है और परा पर भगवान् नारायण वयं
रीछ को अपने चरण कमल म ले जाने को आए ह। भगवान मृ यु य भी अपनी
च कला से उस शरीर को आ या यत कर रहे ह। दे वांगनाए उसक सेवा करने को
और इ ा दक उसक चरणधू ल लेने को दौड़े आ रहे ह। जस समय उस बछ का वेश
उस धम ाण कलेवर म आ, भगवान नारायण आन द से नाचते और लेश से तड़पते,
ल मी को ढकेल, ग ड़ को छोड़ और शेषनाग को पेल, ‘नमे भ ः ण य त’ को स
करते ए दौड़ आए और रीछ को गले लगाकर आन दा ु ग द कंठ से बोले, “ याग म
ब त बड़े-बड़े इ , व ण, जाप त और भार ाज के य ए ह, पर तु सबसे अ धक
म हमापूण य यह आ है, जसक पूणा त अभी ई है। य ऋ ! मेरे साथ चलो,
और हे नराधम! तू अपने नीच कम …।” ऋ ने भगवान् के चरण पकड़कर कहा,
“नाथ! य द मेरा चावल भर भी पु य है तो इस पु ष-र न को बैकु ठ ले जाइए। इसके
कम का फल भोगने को म घोरा तघोर नरक म जाने को तैयार ँ।” भगवान व मत
होकर बोले, “यह या? लोक-सं ह को उ प करते हो?” ऋ हाथ जोड़कर बोला,
“पापानां वा शुभानां वा वधाहाणामथा प वा। काय क णमायण न क दपरा य त॥”
भ का आ ह माना गया। भगवान, ाध और ऋ एक ही वमान म बैकु ठ गए।
(समालोचक: 1996)
सुक या

हि◌ राजालोगयाभोजन कए पीछे एक ोक पढ़ा करते ह, जसका ता पय यह है क


त, उसक क या सुक या, मु न यवन, सोम और अ नी कुमार
भोजन कए पीछे इनका न य मरण करने वाले क आँख कभी नह बगड़ती। इस
सुक या क प त भ क कहानी स है। कैसे उसने बूढ़े यवन क धमपूवक सेवा
क , कैसे वह बहकाई जाकर भी प त त से नह डगी और कैसे उसके सती व के बल से
उसका प त भला-चंगा हो गया, यह रोचक कहानी ह -माता , दे वय और पु य को
सदा मरण रहती होगी। तभी तो ह ने उसके उपा यान को इतना गौरव दया क
न य के मरणीय नाम से उसको रखा।
जहाँ से भृगु के वंशीय वा अं गरस् के वंशीय (अपने कम से) वगलोक को गए, वहाँ
यवन, जो या तो भृगु गो का था या अं गरस् गो का ब त बूढ़ा और पलीत का होकर
पीछे रह गया। मनुवंशी शयात राजा अपने ाम के साथ वचार रहा था। उसने उसी के,
यवन के, पड़ोस म आकर डेरा कया। लड़क ने खेलते-खेलते यवन को बूढ़ा पलीत
का-सा और नक मा समझकर प थर से खूब दला। वह ( यवन) शयातवाल पर ु
आ, जससे उनको ामोह हो गया और बाप बेटे से लड़ने लगा और भाई-भाई से।
शयात् ने सोचा क मने कुछ न कुछ कया है, जससे क यह आन पड़ा। इस लए उसने
वाल और गड़ रय को बुलाकर कहा, “तुमम से कसी ने आज यहाँ कुछ दे खा था?”
उ ह ने उ र दया, “यहाँ पर एक बूढ़ा मनु य ही ेत-सा सोया रहता है। उसे नक मा
समझकर कुमार ने प थर से दला है।” राजा समझ गया क यही यवन अ तम है। वह
हाथ जोड़कर और उसम अपनी पु ी सुक या को रखकर चला और वहाँ प ँचा, जहाँ
ऋ ष था और बोला, “ऋषे, नम ते। म नह जानता था क इससे मने अपराध कया। यह
सुक या है, इससे म तुमसे ाय त करता ँ, मेरा ाम फर जुड़ जाय, समझ जाय।”
तभी उसक जा ठ क हो गई और शयात मानव वहाँ से डेरा उठाकर फर चल पड़ा क
सरी बार अपराध न हो जाय।
अ न दोन जगत म च क सा करते ए फरते थे। वे सुक या के पास आए और
उससे जोड़ा करना चाहा। उसने यह नह माना। उन दोन ने कहा, “सुक ये, कस लए
इस बूढ़े खूसट ेत के साथ सोती है? हमारे पास चली आ।” वह बोली, “ जसे मुझे बाप
ने दया है उसके जीते जी म उसे नह छोडँगी।” ऋ ष यह जान गया। वह बोला,
“सुक ये, तुझे इ ह ने या कहा?” उसने उससे सब बखान कर दया। सुनकर उसने कहा,
“य द तुझे ऐसा ही फर कह तो कहना क तुम अपने-आप भी तो ऐसे समृ वाले और
भरे पूरे नह हो क मेरे प त क न दा करते हो। य द वे तुझे पूछ क हम य कर नह
समृ और नह भरे-पूरे ह तो कहना क मेरे प त को फर जवान कर दो, तब तु ह
क ँगी।” वे फर उसके पास आए और उसे वैसे ही कहा। वह बोली, “तुम दोन भी तो
ब त समृ और ब त भरे-पूर नह हो क मेरे प त को हँसते हो।” उ ह ने कहा, “हम
काहे से नह भरे-पूरे ह, काहे से असमृ ह?” उसने उ र दया, “मेरे प त को फर युवा
कर दो, तब क ँगी।” वे बोले, “इस दह म उसे हला दे , वह जस अव था को चाहेगा,
उसी का होकर नकलेगा।” उसने उस दह म हलाया और यवन ने जस वय क इ छा
क , उसी से साथ वह नकला। वे बोले, “सुक ये, हम काहे से नह भले-पूरे ह, काहे से
नह समृ ह?” उनको ऋ ष ने ही उ र दया, “दे वता कु े म य कर रहे ह। उसम
से तुम दोन को अलग कर रखा है, इस लए नह भरे-पूरे हो, नह समृ हो।” वहाँ से
दोन अ न चल दए और ब ह पवमान नामक सू से तु त हो चुकने के समय य म
दे व के पास आ प ँच।े उ ह ने कहा, “हमको बुलाओ।” दे वता ने कहा, “तुमको नह
बुलाएँग, तुम च क सा करते ए ब त दन मनु य म मल-जुलकर वचरे हो।” वे बोले,
“ बना सर के य से य कर रहे हो।” दे वता ने पूछा, “ य कर बना सर के से?” वे
बोले, “हम य म बुलाओ तब कहगे।” “ठ क है।” य कहकर दे वता ने उ ह बुलाया।
उनके लए इस अ न ने सोमरस के कटोरे को लया। वे दोन य के अ वयु बने और
य का सर फर उ ह ने लगा दया। यह बात “ दवाक यो के ा ण” म लखी है क
उ ह ने कैसे य का सर फर लगाया। इसी से यह कटोरा ब ह पवमान तो हो चुकने
पर लया जाता है, य क वे (अ न्) ब ह पवमान के तुत हो जाने पर आए थे।
जै मनीय तलवकार ा ण म इसी कथा का एक कुछ नवीन प है। उसम कथा का
पछला भाग य ह—
अ न् दोन ने ऋ ष से कहा, “महाराज, हम सोम का भागी बनाइए।” “अ छ बात
है, तुम मुझे फर युवा कर दो।” वे उसे सर वती के शैशव ( नकलने के थान) के पास ले
गए। ऋ ष (सुक या से) बोला, “बाले, हम सब एकसार दखाई दे ते ए नकलगे, तू तब
मुझे इस च ह से पहचान लेना।” वे सब ठ क एकाकार द खते ए व प म अ त सु दर
होकर नकले। उस (सुक या) ने उसे ( यवन को) पहचानकर कहा, “यही मेरा प त है।”
उ ह ने ऋ ष से कहा, “ऋषे, हमने तु हारा वह काम पूरा कर दया है, जो तु हारा काम
था; तुम फर युवा हो गए हो, अब हमको इस तरह सखाओ क हम सोम के भागी हो
जाए।” तब यवन भागव युवा होकर शयात मानव के पास गया और उसने पूववे द पर
उसका य कराया। राजा ने उसे सह गौए द , उसने य कया। य यवन भागव, इस
यवन साम म शं सत होकर फर युवा हो गया। उसने बाला ी पाई और सह द ण
य कया।
(मयादा: 1911)

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