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Shriupdeshamrit_043335
Shriupdeshamrit_043335
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आमुख
“जब म गो वािमय ारा द सािह य को समझने के िलए उ सुक होऊँगा, तभी म राधा
तथा कृ ण के द ेम- वहार को समझने म समथ हो सकूँ गा।“
जाते ह । जो कोई कृ ण का पूण भ बनना चाहता है, उसे गो वामी बनना चािहए । गो का
अथ है, इि याँ और वामी का अथ है, भु या मािलक । जब तक कोई अपने मन तथा
इि य को वश म नह कर लेता, तब तक वह गो वामी नह बन सकता । पहले गो वामी
तथा बाद म भगवान का शु भ बनकर जीवन क सव सफलता ा करने के िलए
मनु य को ीउपदेशामृत नामक उपदेश का पालन करना चािहए, िज ह ील प
गो वामी ने हम दान कये ह । उ ह ने अनेकानेक अ य पु तक भी िलखी ह, यथा भि
रसामृत-िस धु, िवद ध- माधव तथा लिलत-माधव ले कन ी उपदेशामृत नये भ के िलए
ारि भक उपदेश है । मनु य को इन उपदेश का पालन अ य त दृढ़ता से करना चािहए ।
तभी अपना जीवन सफल बनाना अिधक सुगम होगा । हरे कृ ण ।
िव प महो सव
कृ ण-बलराम मं दर
Page
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ोक १
अनुवाद
करनी चािहए । क तु धूत, मूख ि सुनकर तथा देखकर अनुभव ा करने पर भी तथा
दि डत होने पर भी चोरी करता रहताहै । ऐसा ि य द ायि भी करता है और
सरकार ारा दि डत भी होता है, तो भी वह कारागार से िनकलते ही फर से चोरी करे गा।
य द कारागार के द ड को ायि माना जाये, तो ऐसे ायि से या लाभ? अत:
परीि त महाराज ने पूछा :
दृ ुता यां य पापं जान या मनोऽिहतम् ।
करोित भूयो िववशः ायि मथो कथम् ॥
िचि वततेऽभ ात् िच रित त पुनः ।
ायि चतमथोऽपाथ म ये कु रशौचवत् ।।
उ ह ने ायि क तुलना हाथी के ान से क है । हाथी भले ही नदी म भलीभाँित
ान कर ले, क तु जैसे ही वह कनारे पर प च
ँ ता है, वह अपने पूरे शरीर पर धूल िछड़क
लेता है तो इस ान से या लाभ आ? इसी कार अनेक आ याि मक अनुशीलन करने
वाले हरे कृ ण महामं का जप (क तन) करते ह और साथ ही यह सोचकर अनेक िनिष
कम भी करते ह क उनके जप से उनके सारे पाप न हो जायगे । भग ाम का क तन करते
समय जो दस कार के अपराध कये जा सकते ह, उनम से एक अपराध है-- ना ो बलाद्
य य िह पाप बुि ः-- अथात हरे कृ ण महाम के जाप के बल पर पापकम करना । इसी
कार कु छ ईसाई अपने पाप को वीकार करने के िलए िगरजाघर जाते ह । वे सोचते ह क
पादरी के सम अपने पाप को वीकार करके और कु छ तप या करके वे अपने स ाह भर के
पाप के फल से मु हो जायगे । य ही शिनवार बीतता है और रिववार आता है, वे पुनः
यह सोचकर पापकम करना आर भ कर देते ह क अगले शिनवार को उ ह मा दे दी
जाएगी । परीि त महाराज, जो अपने समय के सवािधक बुि मान राजा थे, उ ह ने इस
कार के ायि क भ सना क है । शुकदेव गो वामी, जो समान प से बुि मान थे और
जो महाराज परीि त के यो य गु थे, उ ह ने राजा के का उ र दया और इसक पुि
क क ायि के िवषय म उनका कथन सही था । पापकम का िनराकरण पु यकम से
कभी नह कया जा सकता । अतएव असली ायि तो हमारी सु कृ ण भावना को
जागृत करनाहै ।
असली प ाताप तो वा तिवक ान क ाि है और इसक एक ामािणक िविध
होती है । जब कोई िनयिमत प से व छ रहने क या का पालन करता है, तो वह
बीमार नह पड़ता । मनु य जीवन कु छ िनि त िस ांत के अनुसार अपने मूल ान को
पुनजागृत करने के िनिम होताहै । ऐसे िनयिमत जीवन को तप या कहा जाताहै । कोई भी
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इसी कार शरीर क आव यकताएँ तीन ेिणय म बाँटी जा सकती ह-- जीभ, उदर
तथा जननेि य क आव यकताएँ । जहाँ तक शरीर का स ब ध है, यह देखा जा सकता है
क ये तीन इि याँ ाकृ ितक प से एक ही सीधी रेखा म ि थत होती ह । और शारी रक
आव यकता का ार भ जीभ से होता है । य द हम जीभ क आव यकता को के वल
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जैसा क पहले कहा जा चुका है, जीभ, उदर तथा जननेि याँ एक ही सीधी रेखा म
ि थत ह और वे एक ही को ट म आते ह । भगवान चैत य ने कहा है-भाल ना खाइबे आर
भाल ना प रबे- न तो िवलासपूण व धारण कर, न ही वा द भोजन कर।
(चैत यच रतामृत अ य ६.२३६)
गोदास का और अिधक वणन अदा त-गो के प म कया है, जो ऐसे ि का सूचक है,
िजसक इि याँ संयिमत नह ह । ऐसा अदा त गो कृ ण का दास नह बन सकता ।
ीम ागवत (७.५.३०) म हलाद महाराज ने कहा है :
मितन कृ णे परत: वतो वा
िमथोऽिभप ेत गृह तानाम् ।
अदा तगोिभ वशतां तिम ं
पुनः पुन च वतचवणानाम् ॥
ोक २
अनुवाद
िन संदह
े , इस भौितक जगत के सारे जीव महामाया के वश म ह, िजसका काय उ ह
ि िवध ताप के अधीन रखना है । ये ताप ह-अिधदैिवक लेश (देवता के ारा उ प
कया गया लेश यथा सूखा, भूचाल तथा तूफान), अिधभौितक लेश (अ य जीव ारा
उ प लेश यथा क ड़ या श ु ारा उ प लेश) तथा आ याि मक लेश (अपने शरीर
तथा मन ारा उ प लेश यथा मानिसक तथा शारी रक ि थरता)। दैवभूता महेतवः–
बिहरंगा शि के िनय ण ारा इन तीन लेश से पीिड़त ब जीव अनेक क ठनाइयाँ
उठाते ह ।
“सारे धम िनि त प से चरम मुि के िलए ह । उनका उपयोग कभी भी भौितक लाभ के
िलए नह करना चािहए । साथ ही, जो परम धम के पालन म लगा आ है, उसे भौितक
लाभ का उपयोग इि यतृि के िलए कभी नह करना चािहए ।”
आ क जब यह मोची अपने पहले वाले मकान म आया, तो उसके पहले वाले पु तथा
पौ ने उसे जूत से पीटा। जब तक कम तथा ानी कृ णभावनामृत म िच नह लेत,े तब
तक वे थ के काय म अपना जीवन िबताते रहगे।
तुरंत लाभ के िलए शा के कु छ िविध-िवधान को वीकार करना िनयम-आ ह
कहा जाता है, जैसा क कु छ उपयोिगतावादी इसका समथन करते ह । क तु शा के उन
िविध-िवधान क उपे ा करना, जो आ याि मक िवकास के िलए ह, िनयम-अ ह कहलाता
है । आ ह श द का अथ है, वीकार करने के िलए उ सुकता और अ ह का अथ है, वीकार
न करना। इन दोन श द के साथ िनयम (िविध िवधान) जोड़ने से (संिध ारा) िनयमा ह
श द बनता है । इस तरह िनयमा ह श द के दो अथ होते ह, जो श द के िविश सहयोग के
अनुसार समझे जाते ह । जो लोग कृ णभावनामृत म िच रखते ह, उ ह आ थक िवकास के
िविध-िवधान को हण करने म उ सुक नह होना चािहए अिपतु शा के िविध िवधान
कृ णभा वनामृत क गित के िलए अ य त ापूवक हण करना चािहए । उ ह अवैध
मैथुन, मांसाहार, त
ू - ड़ा तथा मादक के सेवन से दूर रहकर अनु ान का दृढ़ता से
पालन करना चािहए ।
मनु य को चािहए क माओवा दय क संगित से भी य क वे के वल वै णव
(भ ) क िन दा ही करते रहते ह । अ याहा रय के अ तगत इन लोग का समावेश हो
जाता है— भुि कामी अथात् भौितक सुख चाहने वाले, मुि कामी अथात जो िनराकार
म िवलीन होकर मुि चाहते ह । िसि कामी अथात् जो योग क िसि चाहते ह । ऐसे
लोग क संगित करना तिनक भी वांछनीय नह है ।
ोक ३
उ साहाि या य
ै ात् त कम वतनात् ।
स ग यागा सतो वृ ःे षि भभि : िस यित ॥ ३ ॥
अनुवाद
शु भि को स प करने म छह िस ांत अनुकूल होते ह : (१) उ साही बने रहना
(२) िन य के साथ यास करना (३) धैयवान होना (४) िनयामक िस ांत के अनुसार कम
करना ( यथा वणं, क तनं, िव णो: मरणम्--कृ ण का वण, क तन तथा मरण करना)
(५) अभ क संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूववत आचाय के चरणिच न पर चलना। ये
छह िस ा त िन स देह शु भि क पूण सफलता के ित आ त करते ह ।
ता पय
भि क नौ िविधयाँ इस कार ह :
ति ि िणपातेन प र ेन सेवया ।
उपदे यि त ते ानं ािनन त वद शन: ।।
“गु के पास जाकर स य को सीखने का य करो। उनसे िवनीत भाव से िज ासा करो और
उनक सेवा करो। व पिस ि तु ह ान दान कर सकता है, य क उसने स य का
दशन कया है ।"
मु डक उपिनषद् म और भी सं तुित क गई है-ति ानाथ स गु मेवािभग छेत् -
उस द िव ान को समझने के िलए ामािणक गु के पास जाना आव यक है । इस कार
िवनीत भाव से द गु ान ा करने क यह िविध के वल मानिसक िच तन पर
आधा रत नह है । इस संग म ी चैत य महा भु ने प गो वामी को बतलाया :
ा ड िमते कोन भा यवान जीव ।
गु -कृ ण सादे पाय भि लताबीज ॥
" ा क सृि का िवचरण करते समय कोई भा यशाली जीव भि लता का बीज ा कर
सकता है । यह सब गु एवं कृ ण क कृ पा से ही संभव होता है । ( चैत य च रतामृत, म य
१९.१५१)। सारे जीव, जो वभाव से ही आनंदमय है, उनके िलए यह भौितक जगत एक
ब दीगृह जैसा है । वे वा तव म, इस ितबि धत सुख के संसार पी ब दीगृह से मु होना
चाहते ह, ले कन मुि क िविध न जानने के कारण वे एक योिन से दूसरी योिन म और एक
ह से दूसरे ह म देहा तर करने के िलये बा य होते ह । इस कार जीव सम भौितक
जगत म मण करते रहते ह । जब सौभा य से कोई जीव कसी शु भ के संसग म आता
है और धैयपूवक उससे सुनता है, तो वह भि पथ का अनुसरण करने लगता है । ऐसा
सुअवसर के वल िन ावान ि को दान कया जाता है । अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ
स पूण मानवता को ऐसा अवसर दान करता है । य द सौभा यवश कोई ि भि मय
सेवा म वृ होने के इस सुअवसर का लाभ उठाता है, तो उसके िलए तुर त ही मुि का
माग खुल जाता है ।
मनु य को चािहए क भगव ाम वापस जाने के इस सुअवसर को अ य त
उ साहपूवक वीकार करे। उ साह के िबना कोई सफल नह हो सकता। भौितक जगत म भी
सफल होने के िलए मनु य को अपने काय- े म अ यिधक उ साही बनना होता है । जो
अपने े म सफलता चाहता है, ऐसे िव ाथ , ापारी, कलाकार या अ य कसी भी
ि को उ साही बनना पड़ता है । इसी कार भि के े म भी मनु य को अ यंत
उ साही होना पड़ता है । उ साह का अथ है कम, ले कन यह कम कसके िलए? इसका उ र
यह है क मनु य को सदैव कृ ण के िलए कम करना चािहए-कृ णाथािखल चे ा।
(भि रसामृत िस धु) ।
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रहने का अवसर ही नह आता। अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ ऐसे अनेक के खोल रहा
है, िजसम लोग को भ के साथ रहने तथा आ याि मक जीवन के िनयामक िस ांत का
अ यास करने के िलए आमि त कया जा सके ।
"इस यास का न िवनाश होता है, न इसम कमी आती है । इस पथ पर थोड़ी सी गित भी
मनु य क भयंकर से भयंकर भय से र ा कर सकती है ।'
ोक ४
ददाित -दान देता है; ितगृ ाित -बदले म वीकार करता है; गु म्-गोपनीय िवषय;
आ याित-बताता है; पृ छित -पूछता है; भुड े - खाता है; भोजयते- िखलाता है ; च-भी ;
एव-िन य ही; षड् -िवधम्-छह कार के ; ीित- ेम; ल णम् –ल ण ।
अनुवाद
अ य सारे जीव सहज वैर याग कर संक तन करने और नाचने लगे थे। िन संदेह, हम ी
चैत य महा भु के कायकलाप का अनुसरण नह कर सकते, ले कन हम उनके चरणिचहन
पर तो चल सकते ह । हम म इतनी शि तो नह है क संह, साँप, कु े तथा िब ली जैसे
िन पशु को मोिहत कर ल या उ ह नाचने के िलए े रत कर सक, ले कन भगवान के
पिव नाम का क तन करके िव भर के ब त से लोगो को कृ णभावनाभािवत तो बना ही
सकते ह । भगव ाम का जप करना या उसका चार करना योगदान का अथवा दान का एक
भ उदाहरण है ( ददाित िस ा त)। इसी संकेत से ितगृ ाित िस ा त का भी पालन
करना चािहए और द उपहार को ा करने के िलए तैयार तथा सहमत होना चािहए ।
उसे कृ णभावनामृत आ दोलन के िवषय म पूछताछ करनी चािहए और इस भौितक जगत
क ि थित को समझने के िलए अपना मन खुला रखना चािहए । इस कार गु ं आ याित
पृ छित िस ा त का पालन कया जा सकता है ।
अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ के सद य हर रिववार को जब अपनी-अपनी
शाखा म ीितभोज का आयोजन करते ह, तब वे संघ के सारे सद य तथा समथक को
साथ-साथ भोजन करने के िलए आमंि त करते ह । इसम िच लेने वाले अनेक लोग साद
हण करने आते ह और जब भी संभव होता है, वे संघ के सद य को अपने घर बुलाकर
चुर दान दान करते ह । इस तरह संघ के सद य तथा सामा य जनता दोन ही लाभाि वत
होते ह । लोग को चािहए क वे तथाकिथत योिगय , ािनय , क मय तथा परोपकारी
लोग क संगित याग द य क इस संगित से कसी को कोई लाभ नह िमलता। य द कोई
सचमुच मनु य जीवन का ल य ा करना चाहता है, तो उसे कृ णभावनामृत आ दोलन के
भ क संगित करनी चािहए य क यही एकमा आ दोलन है जो मनु य को ई र के
ित ेम िवकिसत करना िसखाता है । धम मानव समाज का िवशेष काय है और इसी के
ारा मनु य-समाज तथा पशु- समाज म अ तर जाना जाता है । पशु-समाज म न तो
िगरजाघर है, न मि जद या कोई अ य धा मक प ित है । क तु िव के सम त भाग म,
मनु य-समाज कतना ही दिलत य न हो, उसक कोई न कोई धम प ित होती है । यहाँ
तक क जंगल क आ दम जाितय क भी अपनी धम प ित होती है । जब कोई धा मक
प ित िवकिसत होती है और ई र म
े का प धारण कर लेती है, तभी वह साथक है ।
जैसा क ीम ागवत (१.२.६) के थम क ध म कहा गया है :
"सम त मानवता के िलए परम धम वही है, िजससे लोग द भगवान के ित ेमभि
ा कर सकते ह । ऐसी भि को िन काम तथा अिवि छ होना चािहए, िजससे आ मा
क पूरी तरह तुि हो सके ।"
ोक ५
अनुवाद
ता पय
हमने इसके अनेक ावहा रक उदाहरण, िवशेषता यूरोप तथा अमे रका म देखे ह ।
ऐसे अनेक छा ह, जो धनी तथा स मािनत प रवार से हमारे पास आते ह, उनम ब त
ज दी ही भौितक भोग के ित िच का अभाव हो जाता है और आ याि मक जीवन म वेश
करने के िलए वे अ य त उ सुक जाते ह । य िप वे अ य त धनी प रवार से आते ह, तो भी
उनम से अनेक ऐसी जीवन दशा को वीकार करते ह, जो बहत सुखदायी नह होती ।
िन स देह, वे कृ ण के िलए कोई भी जीवन दशा वीकार करने के िलए तैयार रहते ह, य द
वे मि दर म रह सक तथा वै णव क संगित कर सक। जब कोई भौितक भोग के ित इस
कार उदासीन हो जाता है, तब वह गु ारा दी ा पाने के िलए यो य बन जाता है ।
आ याि मक जीवन म गित करने के िलए ीम ागवत (६.१.१३) क सं तुित है -- तपसा
चयण शमेन च दमेन च -- जब कोई ि दी ा हण करने के िलए ग भीर होता है,
तो उसे तप या, चय एवं मन तथा शरीर पर संयम रखने के िलए तैयार रहना चािहए ।
य द वह इस तरह तैयार है और आ याि मक ान ( द ं ानम्) ा करने के िलए इ छु क
है, तो वह दी ा के िलए उपयु होता है । द ं ानम् का शा ीय दृि से िव ान या
परमे र का ान कहा जाता है । तद् िव ानाथ स गु म्एवािभग छेत्- जब कोई परम स य
के द िवषय म िच दखाता है, तो उसे दी ा दी जानी चािहए । ऐसे ि को दी ा
हण करने के िलए गु के पास प च
ं ना चािहए । ीम ागवत (१९.१३.२१) म यह भी
सं तुित क गई है-त माद् गु ं प ेत िज ासु: ेय उ मम् --"जब कोई सचमुच ही परम
स य के द ान म िच रखे, तो उसे आ याि मक गु के पास जाना चािहए ।"
कृ णे भि कइले सव कम कृ त हय ।।
‘कृ ण क द सेवा करके मनु य वतः सारे आनुषंिगक काय स प करता है ।' यह दृढ़
िव ास जो भि मय सेवा करते रहने के अनुकूल होता है, ा कहलाता है । ा अथात्
कृ ण म िव ास कृ णभावनामृत का शुभार भ है । ा का अथ है, बल िव ास।
भगव ीता का कथन ावान् मनु य के िलए ामािणक आदेश है और कृ ण भगव ीता म
जो कु छ भी कहते ह, उसे यथा प म िबना कसी िववेचन को वीकार करना चािहए ।
अजुन ने भगव ीता को इसी कार वीकार कया था। भगव ीता सुनने के बाद अजुन ने
कृ ण से कहा -- सवम्एतद् ऋतं म ये य मां वदिस के शव--" हे कृ ण, आपने मुझसे जो कु छ
कहा है, उसे म पूणतया स य के प म वीकार करता ँ ।" (भगव ीता १०.१४)
भगव ीता को समझने क यही सही िविध है और यही ा कहलाती है । ऐसा नह होना
चािहए क कोई ि भगव ीता के कु छ अंश को अपने खुद के मनमाने ढंग से कये गये
अथघटन के अनुसार वीकार करे और दूसरे अंश को र कर दे । यह ा नह है । ा का
अथ है, भगव ीता के आदेश को पूण प से वीकार करना और िवशेष प से--
सवधमा प र य य मामेकं शरणं ज -- अथात् "सारे धम को याग कर मेरी शरण म आ
जाओ"-- इस अंि तम उपदेश को वीकार करना। ( भगवद गीता १८.६६) जब मनु य इस
आदेश के ित पूणतया ावान् हो जाता है, तो उसक यह दृढ ा आ याि मक जीवन म
गित करने के िलए आधारभूत बन जाती है ।
जब मनु य हरे कृ ण महामं के क तन म पूरी तरह संल होने लगता है, तो उसे
मशः अपने आ याि मक व प का बोध होता है । जब तक मनु य ापूवक हरे कृ ण
मं का क तन नह करता, तब तक कृ ण अपने आप को कट नह करते-- सेवा मुखे िह
िज वादौ वयमेव फु र यद: (भि रसामृत िस धु १.२.२३४) हम कसी कृ ि म साधन से
पूण पु षो म भगवान क अनुभूित ा नह कर सकते । हम ापूवक भगवान क सेवा
म लग जाना होगा । ऐसी सेवा जीभ से ार भ होती है (सेवा मुखे िह िज वादौ) िजसका
अथ यह है क हम सदैव भगवान के पिव नाम का क तन करना चािहए और कृ ण- साद
हण करना चािहए । हम न तो कोई अ य क तन करना चािहए न साद के िसवा कसी
अ य व तु का वीकार करना चािहए । जब इस िविध का ापूवक पालन कया जाता है,
तो भगवान वयं ही भ के सम कट होते ह ।
ोका -६
दृ ःै वभावजिनतैवपुष च दोषै-
न ाकृ त विमह भ जन य प येत्।
ग गा भसां न खलु बुदबुदफे नप कै -
व वमपग छित नीरधम: ॥ ६॥
दृ :ै -सामा य दृि से देखा गया, वभाव जिनतै:- कसी के िनजी वभाव से उ प ; वपुष:-
शरीर का; च-तथा; दोषै:- दोषो से; न- नह ; ाकृ त वम्- भौितक होने क अव था,
भौितकता; इह-इस संसार म; भ -जन य- शु भ क ; प येत्-उसे देखना चािहए; ग गा-
अ भसाम्-गंगाजल का; न-नह ; खलु-िन य ही; बुदबुद फे न-प कै : -बुलबुल झाग तथा
क चड़ से; -देव वम्- द कृ ित; अपग छित-न होती है; नीर-धम: - जल के गुणधम
से ।
अनुवाद
अपनी मूल कृ णभावनाभािवत ि थित म रहते ए शु भ अपने आप को शरीर नह
मानता है । ऐसे भ को भौितकतावादी दृि कोण से नह देखा जाना चािहए । िन स देह,
भ के िन कु ल म उ प होने, उसके कु प चेहरे , िवकृ त शरीर या रोगी अथवा अश
शरीर क परवाह नह करनी चािहए । साधारण दृि से ऐसे दोष शु भ के शरीर म
कट दख सकते ह, ले कन इन सब दखने वाले दोष के बावजूद शु भ का शरीर कभी
दूिषत नह हो सकता। यह ठीक गंगाजल के समान है, जो कभी-कभी वषा ऋतु म बुदबुद,े
फे न तथा क चड़ से पू रत हो जाता है, क तु कभी दूिषत नह होता । अतएव जो लोग
आ याि मक ान म उ त ह, वे जल क अव था का िवचार कये िबना गंगा म ान करगे ।
ता पय
“जो पूण भि म संल रहता है, िजसका कसी भी प रि थित म पतन नह होता, वह
तुर त भौितक कृ ित के गुण को पार करके पद को ा करता है ।"
ोक ७
अनुवाद
ता पय
"जो धूत मनु य म अधम, िनपट मूख ह, िजनका ान मोह के ारा अप त हो चुका है और
जो असुर का नाि तकतावादी वभाव धारण कये ह, वे मेरी शरण म नह आते।"
( भगवद गीता ७.१५)
पीने क परवाह करता है । वह न के वल अवैध मैथुन से दूर रहता है, अिपतु मैथुन-जीवन से
पूणत: बचता है और न ही वह अपना समय तक-िवतक करने या ूत ड़ा म बबाद करता
है । इस तरह से यह समझना चािहए क वह अवांिछत व तु से शु हो रहा है (अनथ
िनवृित:) । अनथ श द अवांिछत व तु का ोतक है । कृ णभावनामृत आ दोलन म
सि मिलत होते ही सारे अनथ न हो जाते ह ।
ोक ८
अनुवाद
ता पय
को िशि त करने के िलए है, िजससे वह सदैव कृ ण के काय म लगा रहे। मन म सैकड़
हजार सं कार ह, जो न के वल इस ज म के ह , अिपतु िवगत अनेकानेक ज म के भी ह ।
कभी- कभी ये सं कार एक दूसरे के स पक म आकर िवरोधी िच उप करते ह । इस
कार मन का काय ब जीव के िलए खतरनाक बन सकता है । मनोिव ान के िव ाथ मन
के िविवध मनोवै ािनक प रवतन से भलीभाँित प रिचत ह । भगव ीता (८.६) म यह
कहा गया है :
“अपना शरीर यागते समय मनु य िजस िजस दशा का मरण करता है, वह दशा उसे
अव य ा होगी।"
वह अनु मृित कहलाता है । अबाध तथा अनवरत अनु मृित से मनु य समािध दशा को ा
होता है । मरण दशा या समािध के पूण िवकिसत हो लेने पर आ मा अपनी मूल वैधािनक
ि थित को समझ सकता है । उस समय वह कृ ण के साथ अपने सनातन स ब ध को भली
भाँित तथा पूणतया समझ सकता है । यह स पि -दशा अथात जीवन क पूणता कहलाती
है।
चैत यच रतामृत म नवदीि त को यह सलाह दी गई है क वे सारी भौितक इ छाएँ
याग द और शा के आदेशानुसार भगवान क िनयिमत भि म लग जाँए। इस कार
नवदीि त भ कृ ण के नाम, यश, प, गुण आ द के िलए अनुराग उ प कर सकता है ।
एक बार ऐसा अनुराग िवकिसत हो जाने पर वह िविध-िवधान का पालन कये िबना भी
कृ ण के चरणकमल क सेवा त काल कर सकता है । यह दशा रागभि कहलाती है,
िजसका अथ है, वयं फू त ेम म क जाने वाली भि सेवा। इस अव था म भ वृ दावन म
कृ ण के कसी िन य पाषद के चरणिच न का अनुगमन कर सकता है । यह रागानुभि
कहलाती है । रागानुभि अथात् वयं फू त भि सेवा शा त-रस म स प क जा सकती
है, जब मनु य अपने को कृ ण क गौव के समान या लकु टी के समान या कृ ण के हाथ क
वंशी के समान या कृ ण के गले म पड़ी पु पमाला के सामान बनने क आकां ा करता है ।
दा य-रस म मनु य, िच क ,प क या र क जैसे सेवक के पदिच न का अनुसरण करता
है । स य-रस म मनु य बलदेव, ीदामा या सुदामा जैसा िम बन सकता है । वा स य-रस
म मनु य न द-महाराज तथा यशोदा के समान बन सकता है और माधुय-रस म, िजसक
िवशेषता दा प य ेम है, मनु य ीमती राधारानी या उनक लिलता जैसी सिखयाँ तथा
उनक दािसयाँ-मंज रय यथा प तथा रित- जैसा बन सकता है । भि के िवषय म सम त
उपदेश का सार यही है ।" ■
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ोक ९
मथुरा नामक पिव थान आ याि मक दृि से वैकु ठ से े है, य क भगवान वहाँ कट
ए थे। मथुरा पुरी से े वृ दावन का द वन है, य क वहाँ कृ ण ने रासलीला रचाई
थी। वृ दावन के वन से भी े गोवधन पवत है, य क इसे ीकृ ण ने अपने द हाथ से
उठाया था और यह उनक िविवध ेममयी लीला का थल रहा और इन सब म परम
े ी राधाकु ड है, य क यह गोकु ल के वामी ी कृ ण के अमृतमय ेम से आ लािवत
रहता है । तब भला ऐसा कौन बुि मान ि होगा, जो गोवधन पवत क तलहटी पर
ि थत इस द राधाकु ड क सेवा करना नह चाहेगा?
ता पय
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कार राधाकु ड मु यतया गौड़ीय वै णव ारा पूिजत है, जो भगवान् ीकृ ण चैत य
महा भु के अनुयायी ह । ■
ोक १०
ते यो ानिवमु भि परमाः म
े क
ै िन ा ततः।
ते य ताः पशुपालप कजदृश ता योऽिप सा रािधका
े ा त दयं तदीयसरसी तां ना येत् कः कृ ती॥१०॥
अनुवाद
शा का कथन है क सभी कार के सकाम क मय म परमे र ह र उस पर िवशेष
कृ पा करते ह, जो जीवन के उ तर मू य स ब धी ान म उ त होता है । ऐसे ान म
उ त अनेक लोग ( ािनय ) म से जो अपने ान के बल पर ावहा रक प से मु हो
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ता पय
नूनं म : कु ते िवकम
य दि य ीतय आपृणोित ।
न साधु म ये यत आ मनोsय-
मस िप लेशद आस देहः ॥
वासुदव
े : सविमित स महा मा सुदल
ु भः ॥
“िजस कार ीमती राधारानी भगवान कृ ण (िव णु) को ि य ह, उसी कार उनके ान
का थान (राधाकु ड) भी उ ह उतना ही ि य है । सम त गोिपय म वे ही अके ले भगवान
क परम ि या के प म ह ।"
ोक ११
कृ ण यो ःै णयवसितः य
े सी योऽिप राधा
कु डं चा या मुिनिभरिभत तादृगव
े धािय ।
य े रै यलमसुलभं कं पुनभि भाजां
त म
े द
े ं सकृ दिप सरः ातुरािव करोित ॥ ११ ॥
अनुवाद
अनेक आमोद क व तु तथा जभूिम क सम त ेयसी बाला म से ीमती राधारानी
िन य ही कृ ण ेम क सवािधक अमू य िनिध ह । हर कार से उनका द कु ड मुिनय
ारा कृ ण को उतना ही ि य व णत कया गया है । िन स देह, राधाकु ड महान् भ के
िलए भी अ य त दुलभ है, अतएव सामा य भ के िलए इसे ा करना तो और भी क ठन
है । य द कोई इसके पिव जल म के वल एक बार ान कर ले, तो उसम कृ ण के िलए शु
ेम पूणतः कट हो जाता है ।
ता पय
इसी कार उनका सरोवर ीराधाकु ड भी बड़े-बड़े मुिनय ारा ऐसे सरोवर के प म
व णत कया गया है, जो कृ ण को सा ात् राधा के ही समान ि य है । िन स देह, राधाकु ड
तथा ीमती राधा के िलए कृ ण का ेम सभी तरह से एक-जैसा है । यह राधाकु ड भि म
पूरी तरह संल बडे-बडे पु ष तक के िलए अ य त दुलभ है, तो फर उन सामा य भ के
िलए या कहा जाये, जो के वल वैधीभि के अ यास म लगे रहते ह ?
लेखक प रचय
कृ ण कृ पा मू त ी ीमद् ए.सी. भि वेदा त
वामी भुपाद का आिवभाव १८९६ ई. म भारत के
कलक ा नगर म आ था। अपने गु महाराज ील
भि िस ांत सर वती गो वामी से १९२२ म कलक ा म
उनक थम बार भट ई। एक सु िस धम त ववेता,
अनुपम चारक, िव ान-भ , आचाय एवं चौसठ गौड़ीय
मठ के सं थापक ील भि िस ा त सर वती को ये
सुिशि त नवयुवक ि य लगे और उ ह ने वै दक ान के
चार के िलए अपना जीवन सम पत करने क इनको ेरणा दी। ील भुपाद उनके छा
बने और यारह वष बाद (१९३३ ई.) याग (इलाहाबाद) म िविधवत् उनके दी ा-
ा िश य हो गए।
भुपाद क उवरा लेखनी अिवरत चलती रहती थी। उनक रचना से वै दक दशन, धम,
सािह य और सं कृ ित का एक यथाथ थागार थािपत आ है। ■
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