Download as pdf or txt
Download as pdf or txt
You are on page 1of 75

1

2
3

आमुख

कृ णभावनामृत आंदोलन ील प गो वामी क अ य ता म संचािलत होता है ।


गौड़ीय वै णव या बंगाली वै णव अिधकांशतया ी चैत य महा भु के अनुयायी ह, िजनम
से वृ दावन के षड् गो वामी उनके य िश य ह । अतएव ील नरो म दास ठाकु र ने
गाया है :
प रघुनाथ पदे हइबे आकु ित ।
कबे हाम बुझब से युगल पी रित।।

“जब म गो वािमय ारा द सािह य को समझने के िलए उ सुक होऊँगा, तभी म राधा
तथा कृ ण के द ेम- वहार को समझने म समथ हो सकूँ गा।“

ी चैत य महा भु का पादुभाव मानव समाज को कृ ण- िव ान का वरदान देने के


िलए आ। भगवान कृ ण के सम त कायकलाप म सबसे उ कृ ह गोिपय के साथ उनके
माधुय ेम क लीलाएँ। ी चैत य महा भु गोिपय म े तम ीमती राधारानी के भाव म
कट ए। अतएव भगवान ी चैत य महा भु के जीवन-काय को समझने तथा उनके
पदिच न का अनुगमन करने के िलए हम छ: गो वािमय – ी प, सनातन, भ रघुनाथ,
ी जीव, गोपाल भ तथा दास रघुनाथ – का अ य त ग भीरतापूवक अनुसरण करना
चािहए ।
ी प गो वामी सभी गो वािमय के नायक थे। उ ह ने हमारे कायकलाप का
मागिनदशन करने के िलए तथा अनुसरण हेतु, हम यह ी उपदेशामृत दान कयाहै । िजस
कार ी चैत य महा भु अपने पीछे िश ा क नाम से आठ ोक छोड़ गये थे, उसी तरह
ी प गो वामी ने हम ी उपदेशामृत दान कया है, िजससे हम शु वै णव बन सक ।

सम त आ याि मक काय म मनु य का पहला कत अपने मन तथा इि य को


वश म करनाहै । मन तथा इि य को वश म कये िबना कोई भी ि आ याि मक जीवन
म गित नह कर सकता । इस भौितक जगत् म येक ि रजोगुण तथा तमोगुण म िल
रहताहै । मनु य को ी प गो वामी के उपदेश पर चलते ए अपने आपको स वगुण के
पद तक ऊपर उठाना चािहए । तभी आगे उ ित करने के िलए येक रह य प हो
जाएगा।
कृ णभावनामृत म गित अनुयायी क मनोवृि पर िनभर करती है ।
कृ णभावनामृत आ दोलन के अनुयायी को पूण गो वामी होना चािहए । वै णवजन
साम यतया गो वामी कहे जाते ह । वृंदावन म येक मि दर के संचालक यही पदवी से जाने
4

जाते ह । जो कोई कृ ण का पूण भ बनना चाहता है, उसे गो वामी बनना चािहए । गो का
अथ है, इि याँ और वामी का अथ है, भु या मािलक । जब तक कोई अपने मन तथा
इि य को वश म नह कर लेता, तब तक वह गो वामी नह बन सकता । पहले गो वामी
तथा बाद म भगवान का शु भ बनकर जीवन क सव सफलता ा करने के िलए
मनु य को ीउपदेशामृत नामक उपदेश का पालन करना चािहए, िज ह ील प
गो वामी ने हम दान कये ह । उ ह ने अनेकानेक अ य पु तक भी िलखी ह, यथा भि
रसामृत-िस धु, िवद ध- माधव तथा लिलत-माधव ले कन ी उपदेशामृत नये भ के िलए
ारि भक उपदेश है । मनु य को इन उपदेश का पालन अ य त दृढ़ता से करना चािहए ।
तभी अपना जीवन सफल बनाना अिधक सुगम होगा । हरे कृ ण ।

[ए.सी. भि वेदा त वामी]

िसत बर २०, १९७५

िव प महो सव
कृ ण-बलराम मं दर

रमण रे ती, वृ दावन

Page
5

ोक १

वाचो वेगं मनस: ोधवेगं


िज वावेगमुदरोप थ वेगम् ।
एता वेगान् यो िवषहेत धीर:
सवामपीमां पृिथव स िश यात् ।। १॥

वाचः-वाणी के ; वेगम्-वेग को; मनस:-मन के ; ोध- ोध के ; वेगम् -वेग को; िज वा-जीभ


के ; वेगम्-वेग को; उदर-उप थ - पेट तथा जननेि य के ; वेगम् -वेग को; एतान्-इन; वेगान्-
वेग को; य:-जो; िवषहेत-सहन कर सकता है; धीर:-धीर, गंभीर; सवाम्-सम त; अिप-
िन य ही; इमाम्-इस; पृिथवीम् -संसार; सः-वह ि ; िश यात्-िश य बना सकताहै ।

अनुवाद

वह धीर ि जो वाणी के वेग को, मन क माँग को, ोध क या को तथा


जीभ,उदर एवं जननेि य के वेग को सहन कर सकता है, वह सारे संसार म िश य बनाने
के िलए यो यहै ।
ता पय
ीम ावगत (६.१.९-१०) म परीि त महाराज ने शुकदेव गो वामी से अनेक
बुि म ापूण कये । इनम से एक था, "य द लोग अपनी इि य को वश म नह
कर सकते, तो वे ायि त य करते ह?" उदाहरणाथ, एक चोर भलीभाँित जानता है क
वह चोरी करने पर पकड़ा जा सकता है । यही नह , वह कसी अ य चोर को पुिलस ारा
वा तव म ब दी बनाया आ देख भी सकता है, फर भी वह चोरी करता रहता है । सुनकर
तथा देखकर अनुभव ा कया जाताहै । जो कम बुि मान होता है, वह देखकर अनुभव
ा करता है और जो अिधक बुि मान है, वह सुनकर अनुभव ा करताहै । जब बुि मान
ि कानून क कताब तथा शा से सुनता है क चोरी करना अ छा नह है और चोर
पकड़े जाने पर दि डत होता है, तो वह चोरी से दूर रहताहै । कम बुि मान ि , हो
सकता है पहले पकड़ा जाये और दि डत हो ले, तब जाकर वह यह सीख पाये क चोरी नह
6

करनी चािहए । क तु धूत, मूख ि सुनकर तथा देखकर अनुभव ा करने पर भी तथा
दि डत होने पर भी चोरी करता रहताहै । ऐसा ि य द ायि भी करता है और
सरकार ारा दि डत भी होता है, तो भी वह कारागार से िनकलते ही फर से चोरी करे गा।
य द कारागार के द ड को ायि माना जाये, तो ऐसे ायि से या लाभ? अत:
परीि त महाराज ने पूछा :
दृ ुता यां य पापं जान या मनोऽिहतम् ।
करोित भूयो िववशः ायि मथो कथम् ॥
िचि वततेऽभ ात् िच रित त पुनः ।
ायि चतमथोऽपाथ म ये कु रशौचवत् ।।
उ ह ने ायि क तुलना हाथी के ान से क है । हाथी भले ही नदी म भलीभाँित
ान कर ले, क तु जैसे ही वह कनारे पर प च
ँ ता है, वह अपने पूरे शरीर पर धूल िछड़क
लेता है तो इस ान से या लाभ आ? इसी कार अनेक आ याि मक अनुशीलन करने
वाले हरे कृ ण महामं का जप (क तन) करते ह और साथ ही यह सोचकर अनेक िनिष
कम भी करते ह क उनके जप से उनके सारे पाप न हो जायगे । भग ाम का क तन करते
समय जो दस कार के अपराध कये जा सकते ह, उनम से एक अपराध है-- ना ो बलाद्
य य िह पाप बुि ः-- अथात हरे कृ ण महाम के जाप के बल पर पापकम करना । इसी
कार कु छ ईसाई अपने पाप को वीकार करने के िलए िगरजाघर जाते ह । वे सोचते ह क
पादरी के सम अपने पाप को वीकार करके और कु छ तप या करके वे अपने स ाह भर के
पाप के फल से मु हो जायगे । य ही शिनवार बीतता है और रिववार आता है, वे पुनः
यह सोचकर पापकम करना आर भ कर देते ह क अगले शिनवार को उ ह मा दे दी
जाएगी । परीि त महाराज, जो अपने समय के सवािधक बुि मान राजा थे, उ ह ने इस
कार के ायि क भ सना क है । शुकदेव गो वामी, जो समान प से बुि मान थे और
जो महाराज परीि त के यो य गु थे, उ ह ने राजा के का उ र दया और इसक पुि
क क ायि के िवषय म उनका कथन सही था । पापकम का िनराकरण पु यकम से
कभी नह कया जा सकता । अतएव असली ायि तो हमारी सु कृ ण भावना को
जागृत करनाहै ।
असली प ाताप तो वा तिवक ान क ाि है और इसक एक ामािणक िविध
होती है । जब कोई िनयिमत प से व छ रहने क या का पालन करता है, तो वह
बीमार नह पड़ता । मनु य जीवन कु छ िनि त िस ांत के अनुसार अपने मूल ान को
पुनजागृत करने के िनिम होताहै । ऐसे िनयिमत जीवन को तप या कहा जाताहै । कोई भी
7

मनु य तप तथा चय, मनो-िन ह, इि यिन ह, दान, स य, शुि तथा योगासन का


अ यास करके धीरे-धीरे असली ान के तर पर या कृ णभावनामृत के तर तक ऊपर उठ
सकताहै । क तु य द कोई इतना भा यशाली हो क उसे शु भ क संगित ा हो सके ,
तो वह सरलता से योग या ारा मन को वश म करने के सभी अ यास का अित मण
के वल कृ णभावनामृत के िविध-िनषेध का अनुसरण करके तथा ामािणक आ याि मक गु
के िनदशन म परमे र क सेवा म संल रहकर कर सकताहै । कृ णभावनामृत के िविध-
िनषेध इस कार ह-अवैध मैथुन से दूर रहना, मांसाहार न करना, नशा न करना तथा जुआ
न खेलना। ील प गो वामी इसी सरल िविध क सं तुित कर रहे ह ।
सव थम मनु य को अपनी वाणी पर संयम रखना चािहए । हमम से येक ि म
बोलने क शि है और जैसे ही हम अवसर िमलता है, हम बोलने लगते ह । य द हम
कृ णभावनामृत क बात नह करते ह, तो के वल थ क अनेक बात करते रहते ह । िजस
तरह मढक खेत म टराता है, उसी तरह कोई भी ि , िजसके पास जीभ है, वह बोलना
चाहता है, भले ही उसे जो कहना है वह मूखतापूण य न हो । ले कन मढक क टर-टट सप
को आमंि त करती है,“यहाँ आओ और मुझे खाओ।" य िप यह मृ यु को िनमं ण देना है,
फर भी मढक टराता रहता है । भौितकतावादी पु ष एवं मायावती दाशिनक के बोलने
क तुलना मढक क टराहट से क जा सकतीहै । ये सदैव थ क बात करते रहते ह और
अपने को पकड़ाने के िलए मृ यु को आमि त करते रहते ह । ले कन वाणी के संयम का अथ
अपने पर थोपी गई चु पी (मौन क बा या) नह होता, जैसा क मायावादी दाशिनक
सोचते ह । ऐसा म न कु छ समय तक सहायक तीत हो सकता है, ले कन अंततः वह िवहल
हो जाता है । ील प गो वामी िजस संयिमत वाणी क बात करते ह, उसका अथ कृ ण
कथा क सकारा मक िविध का समथन है अथात् बोलन का या को परम भगवान्
ीकृ ण के गुणगान म लगाना । इस कार जीभ भगवान के नाम, प, गुण तथा लीला
क मिहमा का गान कर सकतीहै । कृ ण कथा का उपदेशक सदैव मृ यु के चंगल
ु से दूर
रहताहै । वाणी के वेग को संयिमत करने क यही मह ाहै ।

मनोवेग या मन क अधीरता तभी वश म हो जाती है, जब कोई अपने मन को कृ ण


के चरणकमल म ि थत कर देता है । चैत य च रतामृत (म य २२.३१ ) म कहा गया है :

कृ ण-- सूयसम; माया हय अ धकार ।

याहाँ कृ ण, ताहाँ नािह मायार अिधकार ॥

कृ ण सूय के समान है और माया अंधकार के तु य है । य द सूय उपि थत हो, तो


अंधकार का ही नह उठता । इसी कार य द कृ ण मन म उपि थत ह , तो माया के
8

भाव से मन के िवचिलत होने क कोई स भावना नह रहती । सम त भौितक िवचार के


िनषेध क योग-िविध से कोई लाभ नह होगा । मन म शू य क सृि करने का यास करना
कृ ि म िविध है । यह शू य टक नह सकता । क तु य द कोई सदैव कृ ण का तथा उनक
े तम सेवा करने का िच तन करता है, तो उसका मन सहज ही वश म हो जाएगा ।

इसी कार ोध को वश म कया जा सकता है । हम ोध करना पूरी तरह तो ब द


नह कर सकते, ले कन य द हम उ ह पर ोध कर जो भगवान या भगवान भ क िन दा
करते ह, तो हम कृ णभावनामृत म अपना ोध वश म करते ह । भगवान् चैत य महा भु
जगाई तथा माधाइ नामक दो दु भाइय पर ु ए थे, िज ह ने िन यानंद भु क िन दा
क थी और उ ह मारा था। अपने िश ा क म भगवान् चैत य ने िलखा है --तृणादिप
सुनीचेन तरोरिप सिह णुना-- "मनु य को तृण से भी अिधक िवन तथा वृ से भी अिधक
सहनशील होना चािहए ।।" तब कोई पूछ सकता है क महा भु ने ोध य कया? बात
यह है क मनु य को वयं का सभी तरह का अपमान सहने के िलए तैयार रहना चािहए ,
ले कन जब कोई कृ ण या उनके शु भ क िन दा करता है, तो असली भ ु होता है
और अपरािधय पर अि क तरह बरस पड़ता है । ोध को रोका नह जा सकता, ले कन
उसे सही ढंग से काम म लाया जा सकताहै । हनुमान ने ोधवश ही लंका म आग लगा दी
थी, फर भी वे भगवान रामचं के सबसे बड़े भ के प म पूजे जाते ह । इसका अथ यह है
क उ ह ने अपने ोध का सही उपयोग कया । अजुन इसके दूसरे उदाहरणहै । ये यु नह
चाहते थे, ले कन कृ ण ने उनके ोध को यह कहकर उकसाया, "तु ह यु करना होगा !"
िबना ोध के यु करना संभव नह है । क तु जब ोध का उपयोग भगवान् क सेवा म
कया जाता है, तब वह वश म हो जाताहै ।

जहाँ तक जीभ के वेग का है, हम सभी अनुभव करते ह क जीभ सदा वा द


ंजन चखना चाहतीहै । सामा यतया हम जीभ को उसका इि छत भोजन नह करने देना
चािहए ,ले कन साद दान करके उसे वश म करना चािहए । भ का भाव तो यह होता है
क वह तभी खाएगा, जब कृ ण उसे साद दग ।जीभ के वेग को वश म करने का यही
उपायहै । मनु य को चािहए क िनयत समय पर साद हण करे और होटल या िमठाई क
दुकान म मा अपनी जीभ या पेट क इ छापू त के िलए भोजन न करे । य द हम के वल
साद हण करने के िनयम पर टके रह, तो उदर तथा जीभ के वेग हमारे वश म हो सकते
ह।
9
10
11
12
13

इसी कार जननेि य के वेग या कामवासना के वेग भी उ ह अनाव यक प से


योग म न लाकर वश म कये जा सकते ह । जननेि य का उपयोग कृ णभावनाभािवत
स तान उ प करने के िलए ही कया जाना चािहए, अ यथा उनका योग न कया जाये ।
कृ णभावनामृत आ दोलन म िववाह को इसिलए ो साहन नह दया जाता क कामेि य
क तृि हो,अिपतु कृ णभावनाभािवत स तान उ प करने के िलए दया जाताहै । य ही
ब े थोड़े बड़े हो जाते ह, उ ह ड लास, टे सास के गु कु ल म भेज दया जाता है, जहाँ उ ह
पूणतया कृ णभावनाभािवत भ बनने के िलए िशि त कया जाता है । ऐसे अनेक
कृ णभावनाभािवत ब क आव यकता है और जो इस कार क संतान उ प करने म
स म होता है, उसे जननेि य का उपभोग करने दया जाता है ।

जब कोई कृ णभावनाभािवत संयम क िविधय का पूरी तरह अ यास कर लेता है,


तब वह ामािणक गु बनने के िलए यो य हो सकता है ।
ील भि िस ा त सर वती ठाकु र ने उपदेशामृत क अपनी अनुवृित ा या म
िलखा है क हमारी देहा मबुि से तीन कार के वेग उ प होते ह- बोलने का वेग, मन का
वेग तथा शरीर के वेग । जब जीव इन तीन वेग का िशकार बनता है, तो उसका जीवन
अशुभ बन जाता है । जो ि इन वेग का दमन करने का अ यास करता है, वह तप वी
कहलाता है । ऐसी तप या से वह पूण पु षो म भगवान क बिहरं गा शि या भौितक
शि के उ पीड़न को वश म कर सकता है ।

जब हम वाणी के वेग क बात करते ह, तो हमारा अिभ ाय थ क बात से होता


है - यथा िन वशेष मायावादी दाशिनक क बात या सकाम कम (कमका ड) म लगे ए
ि य क बात, या उन भौितकवादी ि य क बात, जो िबना रोकटोक के जीवन का
भोग करना चाहते ह । ऐसी सम त बात या सािह य वाणी के वेग के ावहा रक दशन ह
। अनेक लोग थ क बात करते रहते ह और थ क पु तक िलखते रहते ह । ये सब वाणी
के वेग का प रणाम है । इस वृि को िनि य करने के िलए हम अपनी बात को कृ ण
कथा क ओर मोडना होगा । ीमदभागवत ( १.५.१०-११) म इसक ा या क गई है :

न य चि पदं हरे यशो


जग पिव ं गणीत कह िचत्।
त ायसं तीथमुशि त मानसा
न य हंसा िनरम युिश याः ।।
14

जो श द उन भगवान का यशोगान नह करते, जो स पूण ांड के वायुमड


ं ल को
अके ले ही पिव करने वाले ह, वे साधु पु ष ारा कौव के तीथ थल जैसे माने जाते ह ।
चूँ क सवपूण ि द धाम के िनवासी होते ह, अतएव उ ह वहाँ कोई आन द ा नह
होता ।"
त ाि वसग जनताघिव लवो
यि मन् ित ोकमब व यिप।
नामा यन त य यशोऽि कतािन यत्
ृ वि त गायि त गुणि त साधवः ॥

“इसके िवपरीत वह सािह य जो अन त परमे र के नाम, यश, प, लीला आद


क द मिहमा के वणन से ओत ोत होता है, वह एक िभ सृि होती है, जो ऐसे द
श द से पूण होती है िजनसे इस जगत् क ा त स यता के अपिव जीवन म ाि त लायी
जा सकती है । ऐसा द सािह य भले ही अपूण प से रचा गया हो, वह उन शु ि य
ारा सुना, गाया तथा वीकार कया जाता है, जो पूणतया िन कपट ह ।"

िन कष यह िनकलता है क जब हम के वल पूण पु षो म परमे र क भि मय सेवा


के िवषय म बात करते ह, तभी हम थ क मूखतापूण बात से अलग रह सकते ह । हम
चािहए क कृ णभावनामृत क अनुभूित ा करने के उ े य से ही अपनी वा शि का
योग कर।

जहाँ तक चंचल मन के िव ोभ का है, वे दो कार के होते ह- पहला अिवरोध-


ीित कहलाता है िजसका अथ है, अिनयंि त आसि और दूसरा िवरोधयु - ोध कहलाता
है, िजसका अथ है, हताशा से उ प आ ोध। मायावा दय के दशन म ा, कमवा दय
के कमफल म िव ास तथा भौितकतावादी इ छा पर आधा रत योजना म िव ास को
अिवरोध- ीित कहते है । सामा यत: ानी, कम तथा भौितकतावादी योजना िनमाता
ब जीव का यान आकृ करते ह, ले कन जब भौितकतावा दय क योजनाएँ पूण नह
होती और उनक युि याँ िवफल हो जाती ह, तो वे ु हो उठते ह । भौितक इ छा क
िवफलता ोध को ज म देती है ।

इसी कार शरीर क आव यकताएँ तीन ेिणय म बाँटी जा सकती ह-- जीभ, उदर
तथा जननेि य क आव यकताएँ । जहाँ तक शरीर का स ब ध है, यह देखा जा सकता है
क ये तीन इि याँ ाकृ ितक प से एक ही सीधी रेखा म ि थत होती ह । और शारी रक
आव यकता का ार भ जीभ से होता है । य द हम जीभ क आव यकता को के वल
15

साद खाने क या तक सीिमत कर द, तो उदर तथा जननेि य क आव यकताएँ (वेग)


वतः िनयि त हो जाएँगी। इस के स ब ध म ील भि िवनोद ठाकु र कहते ह :

शरीर अिव ा जाल, जडेि य ताहे काल,


जीवे फे ले िवषय सागरे
ताsर म ये िज वा अित, लोभमय सुदम
ु ित,
ताsके जेता क ठन संसारे
कृ ण बड़ दयामय, क रबारे िज वा जय
व- साद अ दल भाई
सेई अ ामृत खाओ, राधा-कृ ण-गुण गाओ,
ेम डाक चैत य-िनताई

"हे भगवन! यह भौितक शरीर अ ान का पंड है और सारी इि याँ मृ यु क ओर ले


जाने वाली पगडंिडय क जाल ह । हम न जाने कै से भौितक इि यभोग के सागर म िगर
गये ह और सम त इि य म से जीभ अित भु खड़ तथा दुदम है । इस संसार म जीभ को
जीत पाना अ य त क ठन है, ले कन हे कृ ण! आप हम पर बड़े कृ पालु ह । आपने हम जीभ
को जीतने म सहायता करने के िलए यह उ म साद भेजा है, अतएव हम भर-पेट यह
साद ल और ी राधा तथा कृ ण का गुणगान कर और सहायता के िलए महा भु चैत य
तथा भु िन यानंद का म
े से आवाहन कर ।"
रस ( वाद) छ: कार के होते ह और य द कोई इनम से कसी एक के ारा िवचिलत
होता है, तो वह जीभ के वेग से िनयि त हो जाता है । कु छ लोग मांस, मछली, के कड़ा, अंडे
तथा वीय और र से उ प तथा मृत शरीर के प म खाई जाने वाली अ य व तु के
ित आकृ होते ह । अ य लोग तरकारी, स जी, पालक या दूध के उ पाद को खाने के ित
आकृ होते ह । ले कन यह सब जीभ के वेग क तुि के िलए कया जाता है । इि य क
तृि के िलए ऐसा भोजन करना, िजसम िमच तथा इमली जैसे मसाले क अ यिधक मा ा
िमली रहती है, कृ णभावनाभािवत ि य के िलए या य है । पान, हरीतक , सुपारी
तथा पान-मसाला, त बाकू , एल.एस.डी., गाँजा, अफ म, शराब, कॉफ तथा चाय का योग
अवैध वेग क पू त के िलए कया जाता है । य द हम कृ ण को अ पत कये गये भोजन के
उि छ को ही वीकार करने का अ यास कर, तो माया के उ पीडन से बच सकते ह ।
तरका रयाँ, अ , फल, दु ध-उ पाद तथा जल भगवान को अ पत कये जाने के िलए
समुिचत भो य पदाथ ह, जैसे क भगवान ने वयं सं तुित क है । क तु कोई वा द होने
16

के कारण ही साद हण करता है और इसक अिधक मा ा खाता है, तो वह भी जीभ के


वेग को तु करने का िशकार बनता है । ी चैत य महा भु ने हम िश ा दी है क साद
खाते समय भी अ य त वा द ज
ं न से बचना चािहए । य द हम ऐसा उ म भोजन
खाने के मनोभाव से अचािव ह को वा द ंजन अ पत करते ह, तो हम जीभ क
आव यकता को पूरा करने के यास म फँ स जाते ह । य द हम कसी धनी ि का
आम ण इस िवचार से वीकार करते ह क वहाँ वा द भोजन करने को िमलेगा,तो भी
हम जीभ क आव यकता को पूरा करने का यास करते ह । चैत य च रतामृत ( अ य
६.२२७) म कहा गया है :
िज वार लालसे येइ इित-उित धाय ।
िश ोदर-परायण कृ ण नािह पाय ।।
जो ि अपने वाद क तृि के िलए इधर-उधर दौड़ता रहता है और जो अपने
उदर तथा जननेि य क इ छा म सदैव आस रहता है, वह कृ ण को पाने म अ म
रहता है ।"

जैसा क पहले कहा जा चुका है, जीभ, उदर तथा जननेि याँ एक ही सीधी रेखा म
ि थत ह और वे एक ही को ट म आते ह । भगवान चैत य ने कहा है-भाल ना खाइबे आर
भाल ना प रबे- न तो िवलासपूण व धारण कर, न ही वा द भोजन कर।
(चैत यच रतामृत अ य ६.२३६)

जो लोग उदर रोग से पीिड़त ह, वे उदर के वेग को वश म लाने म ज र असमथ रहे


ह गे - कम से कम इस िव ेषण से तो यही लगता है । जब हम आव यकता से अिधक खाना
चाहते ह, तो हम जीवन म वतः अनेक असुिवधा को ज म देते ह, क तु य द हम
एकादशी तथा ज मा मी जैसे दन म उपवास रख, तो हम उदर क आव यकता पर
अंकुश लगा सकते ह ।

जहाँ तक जननेि य के वेग का स ब ध है, वे दो तरह के ह-उिचत तथा अनुिचत


अथवा वैध और अवैध समागम । जब मनु य ठीक से सयाना हो जाए, तो वह शा के
िविध-िवधान के अनुसार िववाह कर सकता है और अपनी जननेि य का उपयोग उ म
स तान उ प करने के िलए कर सकता है । यह वैध तथा धा मक है । अ यथा वह कसी
कार के िनय ण के िबना अपनी कामवासना क तृि के िलए अनेक कृ ि म साधन का
योग करता रहेगा । जब कोई अवैध िवषयी जीवन म, जैसी क शा म इसक प रभाषा
दी गई है-उसके िवषय म िच तन, योजना बनाना, चचा करना या वा तिवक संभोग करना
या कृ ि म साधन से कामतृि म िल होता है, तो वह माया के जाल म फं स जाता है । ये
17

आदेश न के वल गृह थ पर लागू होते ह, अिपतु यािगय या िज ह ने सं यास हण कर


िलया है, उनके िलए भी ह । ी जगदान द पि डत ने अपनी पु तक ेम- िववत के सातव
अ याय म िलखा है :
वैरागी भाइ ा यकथा ना शुिनबे काने ।
ा यवाता ना किहबे यबे िमिलबे आने ॥
व े ओ ना कर भाई ी-संभाषण।
गृहे ी छािड़या भाइ आिसयाछ वन ॥
य द चाह णय रािखते गौरा गेर सने।
छोट ह रदासेर कथा थाके येन मने ।
भाल न खाइबे आर भाल न प रबे।
दयेते राधा-कृ ण सवदा सेिवबे ॥

ि य भाई ! तुम सं यासी हो, तु ह सामा य संसारी बात नह सुननी चािहए और न


ही जब कसी अ य से िमलो, तो संसारी बात के िवषय म चचा करनी चािहए । ि य के
िवषय म तो वपन म भी िवचार मत करो । तुमने िजस त के साथ सं यास िलया है, वह
ि य क संगित करने से तु ह रोकता है । य द तुम चैत य महा भु का साि य चाहते हो,
तो तु ह छोटे ह रदास क घटना सदैव मरण म रखनी चािहए क कस तरह महा भु ने
उसका प र याग कया था । न तो िवलासी भोजन करो, न सुंदर व पहनो, ले कन सदैव
िवनीत बने रहो और अपने अ तरतम म ी ीराधा-कृ ण क सेवा करते रहो।"

िन कष यह है क जो कोई वाणी, मन, ोध, जीभ तथा जननेि यां-इन छह को


वश म कर सकता है, उसे वामी या गो वामी कहा जा सकता है । वामी का अथ है मािलक
तथा गो वामी का अथ है गो अथात् इि य का वामी । जब कोई सं यास हण करता है,
तो वह वत वामी क उपािध धारण कर लेता है । इसका अथ यह नह होता क वह अपने
प रवार जाित या समाज का वामी है, अिपतु उसे अपनी इि य का वामी होना चािहए ।
जब तक कोई अपनी इि य का वामी न हो ले, तब तक उसे गो वामी नह कहना चािहए,
अिपत उसे गोदास अथात् इि य का दास कहना चािहए । वृ दावन के छ: गो वािमय के
पदिच न पर चलकर सम त वािमय तथा गो वािमय को भगवान क द ेममयी
सेवा म लग जाना चािहए । इसके िवपरीत जो गोदास ह, वे इि य क सेवा म या भौितक
जगत क सेवा म लगे रहते ह-उनके पास कोई अ य काय नह रहता। लाद महाराज ने
18

गोदास का और अिधक वणन अदा त-गो के प म कया है, जो ऐसे ि का सूचक है,
िजसक इि याँ संयिमत नह ह । ऐसा अदा त गो कृ ण का दास नह बन सकता ।
ीम ागवत (७.५.३०) म हलाद महाराज ने कहा है :
मितन कृ णे परत: वतो वा
िमथोऽिभप ेत गृह तानाम् ।
अदा तगोिभ वशतां तिम ं
पुनः पुन च वतचवणानाम् ॥

“िजन लोग ने अपनी इि य क तृि के िलए इस भौितक जगत म अपना अि त व


बनाये रखने का िन य कर िलया है, उनके िलए न तो िनजी यास से, न अ य के उपदेश
से, न ही सभा से कृ णभावनाभािवत होने क कोई स भावना है । वे िबना लगाम वाली
इि य के ारा अ ान के गहन े म ख चे जाते ह और इस कार वे एक बार चबाएं ए
को पुन: पुन: चबाने म उ म होकर लगे रहते ह ।” ■

ोक २

अ याहारः यास ज पो िनयमा हः।


जनस ग च लौ य षड भभि वन यित ॥ २॥

अित-आहार: - अिधक भोजन करना या अ यिधक सं ह करना; यास: - अ यिधक उ म;


च – तथा; ज प:- थ क बात करना; िनयम-िविध-िवधान; आ ह:-अ यिधक आसि
(या अ ह- अ यिधक उपे ा); जन-स गः- संसा रक वृि वाले ि य क संगित; च-
तथा; लौ यम्- अ यिधक अिभलाषा या लालच; च-तथा; षि भ: - इन छह के ारा;
भि : - भि मय सेवा; िवन यित–न हो जाती है ।
19

अनुवाद

जब कोई िन िलिखत छह या म अ यिधक िल हो जाता है, तो उसक भि िवन


हो जाती है (१) आव यकता से अिधक खाना या आव यकता से अिधक धन-सं ह करना।
(२) उन सांसा रक व तु के िलए अ यिधक उ म करना, िजनको ा करना अ य त
क ठन है । (३) सांसा रक िवषय के बारे म अनाव यक बात करना। (४) शा ीय िविध-
िवधान का आ याि मक उ ित के िलए नह अिपतु के वल नाम के िलए अ यास करना या
शा के िविध-िवधान को याग कर वत तापूवक या मनमाना काय करना। (५) ऐसे
सांसा रक वृि वाले ि य क संगित करना जो कृ णभावनामृत म िच नह रखते,
तथा (६) सांसा रक उपलि धय के िलए लालियत रहना।
ता पय
मनु य जीवन सादा जीवन तथा उ िवचार के िलए है । चूँ क सारे ब जीव भगवान
क तीसरी शि के वश म ह, अतएव यह भौितक संसार इस तरह बनाया गया है क जीव
को काय करने के िलए बा य होना पड़े। भगवान क तीन मूल शि याँ ह – पहली शि
अ तरंगा शि कहलाती है, दूसरी तट था शि है और तीसरी बिहरंगा शि है । सारे जीव
तट थता शि के अ तगत ह और वे अ तरं गा तथा बिहरंगा शि य के म य ि थत होते ह ।
पूण पु षो म परमे र के िन य दास के प म अधीन होने के कारण जीवा मा अथात
सू म जीव को या तो अ तरं गा शि के वश म या बिहरंगा शि के वश म रहना होता है ।
जब वे अ तरंगा शि के वश म होते ह, तब वे अपनी ाक तक वैधािनक स यता द शत
करते ह-अथात भगवान क भि मय सेवा म िनर तर तता द शत करते ह । इसे
भगव ीता (९.१३) म बताया गया है :
महा मान तु मां पाथ दैव कृ ितमाि ताः ।
भज यन यमनसो ा वा भूता दम यम् ॥

“ हे पृथापु , जो मोह त नह ह, ऐसे महा मा दैवी कृ ित के संर ण म रहते ह । वे


पूणतया भि मय सेवा म संल रहते ह, य क वे मुझे पूण पु षो म भगवान के पम
आ द तथा अ य मानते ह ।“

महा मा श द उनको सूिचत करता है, जो िवशाल दय वाले ह, न क संकुिचत दय


वाल को । सदैव अपनी इि य क तृि म लगे रहने वाले संकुिचत दय वाले ि कभी-
कभी अपने काय का िव तार इसिलए कर लेते ह क वे रा वाद, मानवतावाद या
20

परोपकारवाद जैसे कसी “वाद” के मा यम से अ य क भलाई कर सक। वे अ य क


इि यतृि के िलए अपनी खुद क इि यतृि का प र याग कर सकते ह, जैसे क अपने
प रवार, जाित या समाज के सद य के िलए और वह भी रा ीय या तो अ तरा ीय तर
पर। वा तव म यह सब िव तीण इि यतृि ही ह, जो ि गत से जाितगत और जाितगत
से समाज गत हो सकती है । यह सब भौितक दृि से भले ही बहत अ छा लगे, ले कन ऐसे
काय का कोई आ याि मक मह व नह होता। ऐसे काय का आधार इि यतृि है, चाहे वह
ि गत हो या िव तीण । जब मनु य परम भगवान क इि य को स तु करता है, के वल
तभी उसे महा मा अथात िवशाल दय वाला ि कहा जा सकता है ।
भगव ीता से उ धृत उपयु ोक म दैव कृ ितम् श द पूण पु षो म भगवान क
अ तरंगा शि या ला दनी शि के िनयं ण को बताते ह । यह ला दनी शि ीमती
राधाराणी के प म या उनके अंश ल मी के प म कट होती है । जब ि गत जीवा मा
अ तरंगा शि के िनयं ण म होते ह, तो उनका एकमा काय कृ ण या िव णु क तुि होता
है । यही महा मा क ि थित है । य द कोई महा मा नह होता, तो वह दुरा मा या संकुिचत
दय वाला ि होता है । ऐसे मानिसक प से पंगु दुरा मा को भगवान् क बिहरं गा
शि महामाया के िनयं ण म रखा जाता है ।

िन संदह
े , इस भौितक जगत के सारे जीव महामाया के वश म ह, िजसका काय उ ह
ि िवध ताप के अधीन रखना है । ये ताप ह-अिधदैिवक लेश (देवता के ारा उ प
कया गया लेश यथा सूखा, भूचाल तथा तूफान), अिधभौितक लेश (अ य जीव ारा
उ प लेश यथा क ड़ या श ु ारा उ प लेश) तथा आ याि मक लेश (अपने शरीर
तथा मन ारा उ प लेश यथा मानिसक तथा शारी रक ि थरता)। दैवभूता महेतवः–
बिहरंगा शि के िनय ण ारा इन तीन लेश से पीिड़त ब जीव अनेक क ठनाइयाँ
उठाते ह ।

ब जीव के सम मु य सम या है बारंबार ज म, बुढ़ापा, रोग तथा मृ यु का


होना। भौितक जगत म मनु य को शरीर तथा आ मा के पालन हेतु काय करना होता है,
ले कन वह ऐसे काय को कस तरह कर, िजससे वह कृ णभावनामृत स प करने के िलए
अनुकूल रहे ? हर ि को अ ,् व , धन तथा शरीर के पालन हेतु अ य ज री व तु
क आव यकता होती है,ले कन उसे अपनी वा तिवक मूल आव यकता से अिधक सं ह नह
करना चािहए । य द इस ाकृ ितक िनयम का पालन कया जाये तो शरीर के पालन म कोई
क ठनाई नह होगी ।
21

कृ ित क व था के अनुसार िवकास क सीढ़ी म िन थान पर ि थत जीव न तो


आव यकता से अिधक खाते ह, न सं ह करते ह । फलत: पशु जगत म सामा यतः न कोई
आ थक सम या उठती है, न आव यक व तु का अभाव रहता है । य द कसी सावजिनक
थान पर एक बोरा चावल रख दया जाये, तो िचिड़याँ आकर कु छ दाने चुगेग और चली
जाएँगी ।ले कन मनु य तो पूरा बोरा उठा ले जाएगा। उसके पेट म िजतना आएगा उतना
वह खाएगा और जो बचेगा उसे भ डार म रख देगा। शा के अनुसार इस कार से अिधक
का सं ह (अ याहार) व जत है । इस समय सारा िव इसी के कारण क उठा रहा है ।
आव यकता से अिधक सं ह करने और खाने से यास अथात अनाव यक उ म का
ज म होता है । ई र क व था के अनुसार िव के कसी भी भाग का कोई भी ि
शाि तपूवक रह सकता है, य द उसके पास कु छ भूिम और एक दुधा गाय हो। उसे जीिवका
कमाने के िलए एक थान से दूसरे थान पर जाने क कोई आव यकता नह रह जाती,
य क वह वह पर अ पैदा कर सकता है और गाय से दूध पा सकता है । इससे सारी
आ थक सम याएँ हल हो सकती ह । सौभा यवश मनु य को कृ णभावनामृत के अनुशीलन
अथवा ई र को समझने तथा उनके साथ अपने स ब ध तथा जीवन के चरम उ े य ईश मे
को समझने के िलए उ तर बुि दान क गई है । दुभा यवश तथाकिथत स य मनु य,
ई र क अनुभूित क परवाह न करते ए, अपनी आव यकता से अिधक ा करने तथा
के वल जीभ को तु करने के िलए भोजन- ाि के िलए बुि का योग करता है । ई र क
व था के अनुसार सारे संसार म मनु य के िलए दूध तथा अ के उ पादन हेतु पया
गुंजाइश है, ले कन तथाकिथत बुि मान मनु य अपनी उ तर बुि को भगव ावना के
अनुशीलन म न यु करके , अपनी बुि का दु पयोग अनेक अनाव यक तथा अिनि छत
व तु के उ पादन म करता है । इस कार फै ट रयाँ, कसाईघर, वे यालय तथा म दरालय
खोले जाते ह । य द लोग को अिधक सामान एक न करने, अिधक न खाने या कृ ि म
सुिवधाएँ ा करने के िलए अनाव यक योग न करने के िलए परामश दया जाता है, तो
वे सोचते क उ ह आ दम जीवन शैली क ओर लौटाया जा रहा है । सामा यतया लोग
“सादा जीवन और उ िवचार” को वीकार नह करते। यही उनका दुभा य है ।
मनु य जीवन ई र-सा ा कार के िलए िमला है और मनु य को उ तर बुि इसी
योजन के िलए दान क गई है । अत: जो लोग यह िव ास करते ह क यह उ तर बुि
उ तर अव था ा करने के िलए है, उ ह वै दक ंथो के आदेश का पालन करना चािहए ।
उ तर अिधका रय से ऐसे आदेश हण करके मनु य पूण ान ा कर सकता है और
जीवन को साथक बना सकता है ।
22

ीम ागवत (१.२.९) म ी सूत गो वामी उिचत मानव धम का वणन इस कार


करते ह :
धम य ापवग य नाथ ऽथायोपक पते ।
नाथ य धमका त य कामो लाभाय िह मृतः ।।

“सारे धम िनि त प से चरम मुि के िलए ह । उनका उपयोग कभी भी भौितक लाभ के
िलए नह करना चािहए । साथ ही, जो परम धम के पालन म लगा आ है, उसे भौितक
लाभ का उपयोग इि यतृि के िलए कभी नह करना चािहए ।”

मानव स यता का थम चरण है, शा के आदेशानुसार धम का आचरण। मनु य


क उ तर बुि को मुलभूत धम समझाने के िलए िशि त करनी चािहए । मानव समाज
म अनेक धा मक धारणाएँ ह जो िह दु, ईसाई, िह ू, मुसलमान, बौ इ या द नाम से
वग कृ त होती ह, य क धम के िबना मानव समाज पशु-समाज से बेहतर नह है ।

जैसा क ऊपर कहा गया है (धम य ापवग य नाथ ऽथायोपक पते ) धम तो


उ थान के िलए है, रोटी पाने के िलए नह है । कभी-कभी मानव-समाज तथाकिथत धम क
प ित का िनमाण कर लेता है, िजसका उ े य भौितक उ थान होता है, ले कन यह
वा तिवक धम के उ े य से ब त दूर है । धम ई र के िनयम का बोध कराता है य क इन
िनयम को सही ढंग से स प करने पर मनु य भवब धन से छू टने क दशा म अ सर होता
है । यही धम का असली योजन है । दुभा यवश लोग अ याहार के वशीभूत होकर धम को
भौितक स प ता के िलए वीकार करते ह । ले कन असली धम लोग को कृ णभावनामृत
का अनुशीलन कराते ए जीवन क कम से कम आव यकता से तु होना िसखाता है ।
भले ही हम आ थक िवकास क आव यकता हो, असली धम तो भौितक अि त व बनाये
रखने के िलए कम से कम आव यकता को दान करने मा क अनुमित देता है । जीव य
त व िज ासा-- जीवन का असली उ े य परम स य के िवषय म िज ासा करना है । य द
हमारा यास परम स य के िवषय म िज ासा करना नह होगा, तो हम अपनी कृ ि म
आव यकता क पू त के यास म वृि ही करगे। आ याि मक साधक को संसारी यास से
बचना चािहए ।

दूसरा अवरोध ज प या थ बोलना है । जब हम अपने कु छ िम से िमलते ह, तो


हम टर-टर करने वाले मढक क तरह तुर त थ क बात करना शु कर देते ह । य द हम
बात करनी ही ह, तो हम कृ णभावनामृत आ दोलन के िवषय म बात करनी चािहए । जो
लोग कृ णभावनामृत आ दोलन से बाहर ह, वे ढेर समाचार प , पि काएँ तथा उप यास
पढ़ने, पहेली सुलझाने तथा अ य अनेक थ के काय करने म िच दखाते ह । इस कार
23

लोग अपना अमू य समय तथा शि थ ही गँवाते ह । पा ा य देश म वृ लोग स य


जीवन से अवकाश ा करने पर ताश खेलते ह, मछली पकड़ते ह, टेलीिवजन देखते ह और
थ क सामािजक-राजनैितक योजना पर बहस करते रहते ह । ज प के अ तगत ये
सभी तथा अ य तु छ कायकलाप सि मिलत ह । िजसक िच कृ णभावनामृत म है, ऐसे
बुि मान ि को ऐसे काय म कभी कोई भाग नह लेना चािहए ।

जनस ग का अथ ह, कृ णभावनामृत म िच न रखने वाले ि य क संगित


करना। मनु य को चािहए क ऐसी संगित से सवथा दूर रहे। अतएव ील नरो मदास
ठाकु र ने हम के वल कृ णभावनाभािवत भ क संगित म (भ सने वास) रहने का परामश
दया है । मनु य को चािहए क वह भगव क संगित म रहकर सदैव कृ ण क सेवा म
संल रहे। समान ापार म संल ि य क संगित ापार म उ ित के िलए लाभ द
होती है ।फल व प भौितकतावादी लोग अपने यास को बढ़ाने के िलए तरह-तरह के
संगठन तथा लब बनाते ह । उदाहरणाथ, ापार जगत म टॉक ए सचज और चे बर
ऑफ कॉमस जैसी सं थाएँ पाई जाती ह । इसी कार हमने अंतररा ीय कृ णभावनामृत संघ
थािपत कया है, जो लोग को अवसर दान करता है क वे उन लोग क संगित कर जो
कृ ण को भूले नह ह । हमारे इ कॉन आंदोलन ारा द यह आ याि मक साि य
दन दन बढ़ता जा रहा है । िव के िविभ भाग से अनेक लोग अपनी सु कृ ण चेतना
को जगाने के िलए इस संघ म सि मिलत हो रहे ह ।
ील भि िस ांत सर वती ठाकु र अपनी अनुवृि टीका म िलखते ह क मानिसक
ता कक या शु क िच तक के ारा ान ा करने के िलए कया गया अ यिधक यास
अ याहार (आव यकता से अिधक सं ह) के अ तगत आता है । ीम ागवत के अनुसार
दाशिनक िच तक ( ािनय ) ारा कृ णभावनामृत से िवहीन शु क दशन पर पोथे के पोथे
िलखने के यास पूणतया थ है । आ थक िवकास पर अनेक कताब िलखने वाले क मय
का कम भी अ याहार क को ट म आता है । इसी तरह िज ह कृ णभावनामृत क कोई इ छा
नह है और जो अिधकािधक व तु को पाने मा के िलए इ छु क रहते ह चाहे वह
वै ािनक ान के प म हो या धन का लाभ हो - वे सब अ याहार के े म आते ह ।

कम जन भावी पी ढ़य के िलए अिधकािधक धन संिचत करने के िलए म करते ह,


य क वे अपने भिव य क ि थित को नह जानते। ऐसे मूख ि अपने पु तथा पौ के
िलए आिधका रक धन ा करने म िच रखने के कारण यह भी नह जान पाते क अगले
जीवन म उनक ि थित या होगी। इस बात पर काश डालने वाली अनेक घटनाएँ ह । एक
बार एक कम ने अपने पु तथा पौ के िलए चुर स पि एक कर ली, ले कन आगे
चलकर अपने कम के अनुसार उसे एक मोची के घर म ज म लेना पड़ा, जो उस इमारत के
पास ि थत था िजसे उसने अपने पूव ज म म अपने लड़क के िलए बनवाया था। ऐसा संयोग
24

आ क जब यह मोची अपने पहले वाले मकान म आया, तो उसके पहले वाले पु तथा
पौ ने उसे जूत से पीटा। जब तक कम तथा ानी कृ णभावनामृत म िच नह लेत,े तब
तक वे थ के काय म अपना जीवन िबताते रहगे।
तुरंत लाभ के िलए शा के कु छ िविध-िवधान को वीकार करना िनयम-आ ह
कहा जाता है, जैसा क कु छ उपयोिगतावादी इसका समथन करते ह । क तु शा के उन
िविध-िवधान क उपे ा करना, जो आ याि मक िवकास के िलए ह, िनयम-अ ह कहलाता
है । आ ह श द का अथ है, वीकार करने के िलए उ सुकता और अ ह का अथ है, वीकार
न करना। इन दोन श द के साथ िनयम (िविध िवधान) जोड़ने से (संिध ारा) िनयमा ह
श द बनता है । इस तरह िनयमा ह श द के दो अथ होते ह, जो श द के िविश सहयोग के
अनुसार समझे जाते ह । जो लोग कृ णभावनामृत म िच रखते ह, उ ह आ थक िवकास के
िविध-िवधान को हण करने म उ सुक नह होना चािहए अिपतु शा के िविध िवधान
कृ णभा वनामृत क गित के िलए अ य त ापूवक हण करना चािहए । उ ह अवैध
मैथुन, मांसाहार, त
ू - ड़ा तथा मादक के सेवन से दूर रहकर अनु ान का दृढ़ता से
पालन करना चािहए ।
मनु य को चािहए क माओवा दय क संगित से भी य क वे के वल वै णव
(भ ) क िन दा ही करते रहते ह । अ याहा रय के अ तगत इन लोग का समावेश हो
जाता है— भुि कामी अथात् भौितक सुख चाहने वाले, मुि कामी अथात जो िनराकार
म िवलीन होकर मुि चाहते ह । िसि कामी अथात् जो योग क िसि चाहते ह । ऐसे
लोग क संगित करना तिनक भी वांछनीय नह है ।

लालच (लौ यं) क ेणी-के अंतगत योग साधकर मन का िव तार करना, म


लीन होना या मनमानी भौितक स पि ा करने क इ छाएँ सि मिलत ह । ऐसे भौितक
लाभ ा करने या तथाकिथत आ याि मक उ ित करने के सारे यास कृ णभावनामृत के
पथ म बाधक बनते ह ।

पूँजीवा दय एवं सा यवा दय के म य जो आधुिनक यु चल रहा है, वह अ याहार


के स ब ध म ील प गो वामी के उपदेश क अवमानना करने के कारण है । आधुिनक
पूँजीवाद आव यकता से अिधक स पि का सं ह करते ह और सा यवादी उनक स प ता
से ई या करने के कारण सारे धन तथा स पि का रा ीयकरण करना चाहते ह । दुभा यवश
ये सा यवादी स पि तथा उसके िवतरण क सम या को हल करना नह जानते। फल व प
जब पूज
ँ ीवा दय क स पि सा यवा दय के हाथ म जाती है, तो उसका कोई हल नह
िनकलता। इन दोन िवचारधारा से िवपरीत कृ णभावनाभािवत िवचारधारा है, जो यह
बताती है क सारी स पि कृ ण क है । इस कार जब तक सारी स पित कृ ण के शासन
25

के अ तगत नह आ जाती, तब तक मनु य जाित क आ थक सम या का कोई हल नह िमल


सकता। सा यवा दय या पूँजीवा दय के हाथ म स पि स प देने से कोई हल िनकलने
वाला नह है । य द सौ डालर का एक नोट सड़क पर पड़ा हो, तो कोई ि उसे उठाकर
अपनी जेब म रख सकता है । ऐसा ि ईमानदार नह है । दूसरा ि इस धन को
देखने पर यह सोचकर क उसे दूसरे का धन नह छू ना चािहए, उसे वह पड़ा रहने दे सकता
है । य िप यह दूसरा ि अपने काय के िलए उस धन को चुराता नह , ले कन वह उसके
सही उपयोग से भी अनजान होता है । तीसरा ि , जो इस सौ डॉलर के नोट को देखता
है, वह उसे उठाकर उस ि को खोज सकता है िजसने इसे खोया था और उसे वापस दे
सकता है । यह ि उस धन को अपने ऊपर खच करने के िलए न तो चुराता है, न ही
उसक उपे ा करके उसे सड़क पर पड़ा रहने देता है । इस धन को उठाकर और उसे उस
ि को देकर िजसने उसे खोया था, यह ि ईमानदार एवं चतुर िस होता है ।

पूँजीवा दय क स पि को सा यवा दय को ह ता त रत करने मा से आधुिनक


राजनीित क सम या का समाधान नह हो सकता, य क यह द शत कया जा चुका है
क जब कोई सा यवादी धन पाता है, तो वह उसका उपयोग अपनी इि यतृि के िलए
करता है । वा तव म सारे संसार क स पि कृ ण क है और येक जीव को, चाहे वह
मनु य हो या पशु, यह ज मिस अिधकार है क वह ई र क स पि को अपने पालन के
िलए उपयोग म लाए। जब कोई ि , चाहे वह पूँजीवादी हो या सा यवादी, अपने पालन
(भरण) क आव यकता से अिधक हण करता है, तो वह चोर होता है और वह कृ ित के
िनयम ारा दि डत होने यो य है ।
िव क स पि का उपयोग सम त जीव के क याण के िलए होना चािहए य क
माता कृ ित क यही योजना है, येक ि को भगवान क स पि का उपभोग करते ए
जीिवत रहने का अिधकार है । जब लोग भगवान क स पि को वै ािनक ढंग से उपयोग
म लाने क कला सीख लगे, तब वे एक दूसरे के अिधकार पर अित मण नह करगे। तभी
एक आदश समाज का िनमाण हो सकता है । ऐसे आ याि मक समाज के मूलभूत िस ा त
का उ लेख ी ईशोपिनषद् के थम म म आ है :
ईशावा यं इदं सव यि क जग यां जगत्।
तेन य े न भु ीथा मा गृधः क य ि वद् धनम् ॥
“इस ांड के भीतर क येक चर अथवा अचर व तु भगवान ारा िनयि त है और
उ ह के अिधकार म है । अतएव मनु य को चािहए क अपने िलए उ ह व तु को वीकार
26

करे , जो उसके िलए आव यक ह और उसके भाग के प म सुरि त कर दी गई ह और यह


जानते ए क अ य व तुएँ कसक ह, उ ह हण न करे ।”

कृ णभावनाभािवत भ भलीभँित जानते ह क इस भौितक जगत क रचना


भगवान क पूण व था ारा सम त जीव के जीवन क सभी आव यकता क पू त के
उ े य से क गई िजसम एक दूसरे के जीवन या अिधकार म कसी तरह का अित मण
करने क आव यकता न हो। यह पूण व था येक ि क उसक असली
आव यकता के अनुसार हर एक को स पि का सही-सही भाग दान करती है, िजससे
हर जीव “सादा जीवन तथा उ िवचार” िस ा त के अनुसार शाि तपूवक रह सके ।
दुभा यवश भौितकतावादी लोग, िजनक न तो ई र क योजना म ा है, न ही उ तर
आ याि मक िवकास क मह वाकां ा है, अपनी ई र द बुि का दु पयोग के वल अपनी
भौितक स पदा को बढ़ाने म करते ह । वे अपनी भौितक ि थित को सुधारने के िलए अनेक
प ितय का आिव कार करते ह - यथा पूँजीवाद तथा भौितकतावादी सा यवाद। उ ह ई र
के िनयम या उ तर उ े य म कोई िच नह होती। वे सदैव इि यतृि के िलए अपनी
असीम इ छा क पू त के िलए अपने सािथय का शोषण करने क मता के कारण िवलग
दखते ह ।
य द मानव समाज ील प गो वामी ारा िगनाये गये मूलभूत दोष ( अ याहार
इ या द) को छोड़ दे, तो मनु य तथा पशु , पूँजीपितय तथा सा यवा दय आ द के बीच
का सारा वैमन य दूर हो जाएगा। यही नह , आ थक या राजनीितक िवषमता तथा
अि थरता क सारी सम याएँ हल हो जाएँगी। यह शु चेतना समुिचत आ याि मक िश ा
तथा अ यास ारा जागृत क जाती है, जो वै ािनक रीित से कृ णभावनामृत आ दोलन
ारा दान क जाती है ।

यह कृ णभावनामृत आ दोलन एक आ याि मक समुदाय संगठन दान करता है, जो


िव म शाि तपूण ि थित ला सकता है । येक बुि मान ि को अपनी चेतना को शु
करना चािहए और कृ णभावनामृत आंदोलन क दयपूवक शरण हण करके भि माग म
अवरोध से अपने को मु कर लेना चािहए । ■
27

ोक ३

उ साहाि या य
ै ात् त कम वतनात् ।
स ग यागा सतो वृ ःे षि भभि : िस यित ॥ ३ ॥

उ साहात्-उ साह से; िन यात्-िन य से; धैयात्-धैय से; तत्-तत्-कम-भि मय सेवा के


अनुकूल िविभ काय; वतनात् -स प करने से; स ग- यागात्-अभ क संगित छोड़ने
से; सतः-महान् पूववत आचाय का; वृ े:-पदिच ह का अनुसरण करने से; षि भ:-इन छह
से; भि : -भि ; िस यित–अ सर होती है या सफल होती है ।

अनुवाद
शु भि को स प करने म छह िस ांत अनुकूल होते ह : (१) उ साही बने रहना
(२) िन य के साथ यास करना (३) धैयवान होना (४) िनयामक िस ांत के अनुसार कम
करना ( यथा वणं, क तनं, िव णो: मरणम्--कृ ण का वण, क तन तथा मरण करना)
(५) अभ क संगत छोड़ देना तथा ( ६ ) पूववत आचाय के चरणिच न पर चलना। ये
छह िस ा त िन स देह शु भि क पूण सफलता के ित आ त करते ह ।

ता पय

भि , भावना मक िच तन या का पिनक ऊ म नह है । इसक िवषयव तु ावहा रक


स यता है । ील प गो वामी ने अपने भि रसामृत- संधु (१.१.११) म भि क
प रभाषा इस कार दी है :
अ यािभलािषताशू यं ानकमा यनावृतम्।
आनुकू येन कृ णानुशीलनं भि मा ॥
"उ मा भि या पूण पु षो म परमे र ीकृ ण के ित अन य भि इस तरह क जाने
वाली भि है, जो भगवान् के अनुकूल है । इस भि को कसी भी बा योजन से मु
होना चािहए और सकाम कम, िन वशेष ान तथा अ य सम त वाथमयी इ छा से
रिहत होना चािहए ।"
28

भि एक कार का अनुशीलन है । य ही हम 'अनुशीलन' का नाम लेते ह, तो


हमारा अिभ ाय स यता या याशीलता से रहता है । आ याि मकता के अनुशीलन का
अथ यान के िलए िनि य होकर बैठ जाना नह है, जैसा क कु छ छ योगी िसखाते ह ।
ऐसा िनि य यान उन लोग के िलए अ छा हो सकता है, िज ह भि मय सेवा का पता
नह है । इसिलए कभी-कभी इसक सं तुित वधाना मक भौितकवादी कायकलाप को
रोकने के िलए क जाती है । यान का अथ है, कम से कम यान करते समय थ के
कायकलाप को रोक देना। क तु भि मय सेवा न के वल ऐसे सभी थ संसारी कायकलाप
को रोकती है, अिपतु मनु य को साथक भि काय म भी लगाती है । ी हलाद महाराज
सं तुित करते ह:
वणं क तनं िव णो: मरणं पादसेवनम्।
अचनं व दनं दा यं स यमा मिनवेदनम् ॥

भि क नौ िविधयाँ इस कार ह :

१.परमे र के नाम तथा उनक मिहमा को सुनना


२. उनक मिहमा का क तन करना
३. भगवान् का मरण करना
४. भगवान के चरण क सेवा करना
५. अचा िव ह क पूजा करना
६. भगवान् को नम कार करना
७. भगवान के दास प म काय करना
८. भगवान के साथ िम ता करना
९. भगवान के ित पूणतया आ मसमपण करना
द ान ा करने क दशा म वणम् अथात् सुनना थम कदम है । मनु य को
चािहए क अनिधकृ त पु ष क बात कान से न सुने, अिपतु यो य ि के पास जाये, जैसा
क भगवत गीता (४.३४) म सं तुित क गई है :
29

ति ि िणपातेन प र ेन सेवया ।
उपदे यि त ते ानं ािनन त वद शन: ।।

“गु के पास जाकर स य को सीखने का य करो। उनसे िवनीत भाव से िज ासा करो और
उनक सेवा करो। व पिस ि तु ह ान दान कर सकता है, य क उसने स य का
दशन कया है ।"
मु डक उपिनषद् म और भी सं तुित क गई है-ति ानाथ स गु मेवािभग छेत् -
उस द िव ान को समझने के िलए ामािणक गु के पास जाना आव यक है । इस कार
िवनीत भाव से द गु ान ा करने क यह िविध के वल मानिसक िच तन पर
आधा रत नह है । इस संग म ी चैत य महा भु ने प गो वामी को बतलाया :
ा ड िमते कोन भा यवान जीव ।
गु -कृ ण सादे पाय भि लताबीज ॥

" ा क सृि का िवचरण करते समय कोई भा यशाली जीव भि लता का बीज ा कर
सकता है । यह सब गु एवं कृ ण क कृ पा से ही संभव होता है । ( चैत य च रतामृत, म य
१९.१५१)। सारे जीव, जो वभाव से ही आनंदमय है, उनके िलए यह भौितक जगत एक
ब दीगृह जैसा है । वे वा तव म, इस ितबि धत सुख के संसार पी ब दीगृह से मु होना
चाहते ह, ले कन मुि क िविध न जानने के कारण वे एक योिन से दूसरी योिन म और एक
ह से दूसरे ह म देहा तर करने के िलये बा य होते ह । इस कार जीव सम भौितक
जगत म मण करते रहते ह । जब सौभा य से कोई जीव कसी शु भ के संसग म आता
है और धैयपूवक उससे सुनता है, तो वह भि पथ का अनुसरण करने लगता है । ऐसा
सुअवसर के वल िन ावान ि को दान कया जाता है । अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ
स पूण मानवता को ऐसा अवसर दान करता है । य द सौभा यवश कोई ि भि मय
सेवा म वृ होने के इस सुअवसर का लाभ उठाता है, तो उसके िलए तुर त ही मुि का
माग खुल जाता है ।
मनु य को चािहए क भगव ाम वापस जाने के इस सुअवसर को अ य त
उ साहपूवक वीकार करे। उ साह के िबना कोई सफल नह हो सकता। भौितक जगत म भी
सफल होने के िलए मनु य को अपने काय- े म अ यिधक उ साही बनना होता है । जो
अपने े म सफलता चाहता है, ऐसे िव ाथ , ापारी, कलाकार या अ य कसी भी
ि को उ साही बनना पड़ता है । इसी कार भि के े म भी मनु य को अ यंत
उ साही होना पड़ता है । उ साह का अथ है कम, ले कन यह कम कसके िलए? इसका उ र
यह है क मनु य को सदैव कृ ण के िलए कम करना चािहए-कृ णाथािखल चे ा।
(भि रसामृत िस धु) ।
30

जीवन क सभी अव था म भि योग म िसि ा करने िलए भि के सारे


कायकलाप गु के िनदशन म करने होते ह । ऐसा नह है क मनु य को अपने कायकलाप
तक ही सीिमत रहना होता है या उ ह संकुिचत करना पड़ता है । कृ ण सव ापी ह अतएव
कृ ण से वत कु छ भी नह है, जैसा क कृ ण वयं भगवत गीता (९.४) म कहते ह :

मया ततिमदं सव जगद मू तना ।


म थािनसवभूतािन न चाहं ते ववि थतः ॥

“यह स पूण ांड मेरे अ प म मेरे ारा ा है । सारे जीव मुझ म ह, ले कन म


उनम नह ।ँ " ामािणक गु के िनदशन म मनु य को हर व तु कृ ण क सेवा के िलए
अनुकूल बनानी होती है । उदाहरणाथ, इस समय हम िड टाफोन (बोलकर िलखने का य )
का उपयोग कर रहे ह । िजस भौितकतावादी ने इस य का आिव कार कया, उसने इसे
ापा रय या सांसा रक िवषय पर िलखने वाल के िलए बनाया था। िनि त प से उसने
इस िड टाफोन का उपयोग भगवान् क सेवा म कये जाने के िवषय म नह सोचा होगा,
ले कन हम इसका उपयोग कृ णभावनाभािवत सािह य िलखने के िलए कर रहे ह ।
िन स देह, िड टाफोन का िनमाण पूण पेण कृ ण क शि के अंतगत है । इस यं के सारे
भाग, िजसम इसके इले ॉिनक काय भी सि मिलत ह, भौितक ऊजा के पाँच मूलभूत
कार -भूिम, जल, अि , वायु तथा आकाश के िविभ संयोग एवं अ त: या से बने ए ह
। अ वेषक ने इस ज टल य को तैयार करने म अपना मि त क लगाया है । क तु उसका
मि त क तथा सारे अवयव कृ ण ारा दान कए गये ह । कृ ण के कथन-म थािन
सवभूतािन-के अनुसार, येक व तु मेरी शि पर आि त है ।" इस कार भ समझ
सकता है क चूं क कृ ण क शि से कोई भी व तु वत नह है, अतएव येक व तु को
उ ह क सेवा म लगाना चािहए ।
कृ णभावनामृत म बुि पूवक कया गया यास उ साह कहलाता है । भ गण उन
सही-सही साधन का पता लगा लेते ह, िजनसे हर व तु का उपयोग कृ ण क सेवा म कया
जा सके (िनब ध: कृ ण स ब धे यु ं वैरा यमु यते)। भि को स प करना िनि य यान
नह , अिपतु आ याि मक जीवन क पूवभूिमका म ावहा रक कम है ।

ये सारे कायकलाप धैयपूवक स प करने चािहए । कृ णभावनामृत म मनु य को


अधीर नह होना चािहए । िन स देह, यह कृ णभावनामृत आ दोलन अके ले ही ार भ
कया गया था और ार भ म कसी ने िच नह दखाई थी। ले कन चूँ क हम अपने भि -
काय धैयपूवक करते रहे, अतएव धीरे -धीरे लोग इस आ दोलन क मह ा समझने लगे और
अब वे इसम उ सुकतापूवक सि मिलत हो रहे ह । मनु य को भि करते समय अधीर नह
31

होना चािहए, अिपतु गु से उपदेश लेना चािहए और गु तथा कृ ण क कृ पा पर


अवलि बत रहते ए उसे धैयपूवक पूरा करना चािहए । कृ णभावनाभािवत काय कलाप
क सफल स प ता के िलए धैय तथा िव ास दोन क आव यकता है । यह वाभािवक है
क एक नविववािहता क या अपने पित से स तान क कामना करती है, क तु वह िववाह के
तुर त बाद स तान ा करने क आशा नह कर सकती। िन स देह, िववाह होते ही वह
संतान ाि के िलए यास कर सकती है, ले कन उसे अपने पित के ित सम पत होकर
िव त होना पड़ेगा क िनि त समय म स तान का ज म होगा। इसी कार भि म
समपण का अथ है, िव त होना। भ सोचता है-अव य रि बे कृ ण- "कृ ण िनि त प
से मेरी र ा करगे और भि क सफल स प ता के िलए मुझे सहायता दगे।" यही िव ास
कहलाता है ।

जैसा क पहले बताया जा चुका है, मनु य को िविध-िवधान को स प करने म


आल य नह करना चािहए, अिपतु अ यिधक उ साह दखाना चािहए-तत्-त कम वतन।
िविध-िवधान क उपे ा से भि िवन हो जाएगी। इस कृ णभावनामृत आ दोलन म चार
मूल िनयामक िस ा त ह- अवैध मैथुन, मांसाहार, ूत ड़ा तथा मादक का सेवन-
इन चार का बिह कार । भ को इन िस ांत का पालन करने म अ य त उ साह दखलाना
चािहए । य द वह इनम से कसी भी एक का पालन करने म िशिथलता बरतता है, तो
उसक गित अव य ही क जाएगी। अतएव ील प गो वामी सं तुित है-तत्-तत्-कम-
वतनात्-"मनु य को वैधी भि के िविध-िवधान का कठोरता से पालन करना चािहए ।"
चार िनषेध (यम) के अित र चार सकारा मक िविध (िनयम) भी ह - यथा ित दन जप
माला पर सोलह माला का जप करना। इन अनु ान को उ साहपूवक एवं ासिहत स प
करना चािहए । यही तत्-तत्-कम- वतन अथात् भि के िविवध संल ता कहलाती है ।
साथ ही भि म सफलता के िलए मनु य को अवांिछत लोग क संगित याग देनी
चािहए । इनम कम , ानी, योगी तथा अ य अभ गण का समावेश हो जाता है । एक बार
ी चैत य महा भु से उनके एक गृह थ भ ने वै णव मत के सामा य िस ा त एवं वै णव
के सामा य िन य कायकलाप के िवषय म पूछा, तो उ ह ने तुर त उ र दया था—असत्-
संग- याग-एई वै णव आचार। “वै णव वह है जो संसारी लोग या भ क संगित छोड़ दे।“
अतएव ील नरो म दास ठाकु र ने सं तुित क है- तांदरे चरण सेिव भ सने वास—मनु य
को शु भ के संग म रहना चािहए और पूववत आचाय -षड् गो वािमय (यथा ी प
गो वामी, ी सनातन गो वामी, ी जीव गो वामी, ी रघुनाथ दास गो वामी, ील
गोपाल भ गो वामी तथा ी रघुनाथ भ गो वामी ) ारा िनधा रत कये गये िविध
िवधान का पालन करना चािहए । य द वह भ क संगित करता है तो अभ के साथ
32

रहने का अवसर ही नह आता। अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ ऐसे अनेक के खोल रहा
है, िजसम लोग को भ के साथ रहने तथा आ याि मक जीवन के िनयामक िस ांत का
अ यास करने के िलए आमि त कया जा सके ।

भि मय सेवा का अथ है, द कायकलाप। द तर पर भौितक कृ ित के तीन


गुण ारा कसी कार का क मष नह होता। यह िवशु स व कहलता है अथात् यह शु
स व गुण का या रजो तथा तमो गुण के क मष से मु स वगुण का तर है । इस
कृ णभावनामृत आ दोलन म हम चाहते ह क सभी लोग ात:काल ४ बजे तक जग जाँय
और मंगल आरती अथात् ात:कालीन पूजा म भाग ल, तब ीम ागवत पढे, क तन कर,
आ द-आ द। इस कार हम िन य चौबीस घ टे भि के कायकलाप म संल रहते ह । यह
सतोवृि है अथात् उन पूववत आचाय के पदिच न का अनुगमन है, िज ह ने अपना
येक ण कृ णभावनाभािवत कायकलाप म बड़ी द ता से लगाया।
य द कोई इस ोक म ील प गो वामी ारा दये गये उपदेश का कड़ाई से पालन
करता है-उ साही होना, दृढ़ िन यी होना, धैयवान होना, अवांिछत ि य क संगित का
प र याग करना, िनयम का पालन करना तथा भ क संगित करना-- तो वह भि म
अव य गित करता है । इस स ब ध म ील भि िस ा त सर वती ठाकु र क ट पणी है
क दाशिनक िच तन ारा ान का अनुशीलन, सकाम कम क गित ारा संसारी ऐ य
का सं ह तथा योग िसि य अथात् भौितक पूणता क इ छा-- ये सब भि के िस ांत से
सवथा िवपरीत ह । मनु य को इन अ थायी कायकलाप के ित पूणतया उदासीन रहकर
अपना यान भि के अनु ान क ओर मोड़ना है । भगव ीता (२.६९) के अनुसार :

या िनशा सवभूतानां त यां जाग त संयमी।


य यां जा ित भूतािन सा िनशा प यतो मुनेः ॥

"जो सम त ािणय के िलए राि है, वह आ मसंयमी के िलए जगने का समय है और जो


सम त ािणय के जगने का समय है, वह अ त ा मुिन के िलए राि है ।"

भगवान क भि म तता ही जीवन का ाण तथा आ मा है । यही वांिछत ल य


है और मनु य के जीवन क परम िसि है । मनु य को इस िवषय म िव त भी होना
चािहए और उसे यह िव ास भी रखना चािहए क भि के अित र सारे कायकलाप--
यथा मानिसक तक, सकाम कम या यौिगक यास-- कभी कोई थायी लाभ देने वाले नह ।
भि के माग पर पूण िव ास से वांिछत ल य ा कया जा सकता है, क तु अ य माग
का अनुसरण करने के यास से मनु य के वल अशा त ही होगा। ीम ागवत के सातव
33

क ध म कहा गया है, “मनु य को भलीभाँित आ त हो जाना चािहए क िजन लोग ने


अ य योजन के िलए क ठन तप या करने के उ े य से भि का प र याग कया है, वे भले
ही लाख उ तर तप याएँ कर,ले कन उनके मन शु नह है, य क उ ह भगवान क द
ेममयी सेवा के िवषय म कोई जानकारी नह है ।“

सातव क ध म ही आगे कहा गया है, "भले ही मानिसक िच तक ( ानी) तथा


सकाम कम बड़ी-बड़ी तप याएँ कर ल, फर भी वे पितत होते ह, य क उ ह भगवान के
चरणकमल के िवषय म कोई जानकारी नह रहती।“ क तु भगव का कभी पतन नह
होता। भगव ीता (९.३१) म पूण पु षो म भगवान अजुन को आ त करते ह-- कौ तेय
ितजानीिह न मे भ : ण यित-- "हे कु तीपु ! िनडर होकर घोिषत कर दो क मेरा भ
कभी िवन नह होता।"
पुन: भगव ीता (२.४०) म कृ ण कहते ह :
नेहािभ मनाशोऽि त यवायो न िव ते।
व पम य य धम य ायते महतो भयात् ॥

"इस यास का न िवनाश होता है, न इसम कमी आती है । इस पथ पर थोड़ी सी गित भी
मनु य क भयंकर से भयंकर भय से र ा कर सकती है ।'

भि मय सेवा इतनी िवशु तथा पूण होती है क एक बार ार भ हो जाने पर


मनु य चरम सफलता क ओर बलपूवक िखचता चला जाता है । कभी-कभी मनु य अपने
सामा य भौितक काय को याग कर भावावेश म आकर परमे र के चरणकमल क शरण
ले लेता है और इस तरह वह भि क ारि भक शु आत कर देता है । य द ऐसा अप रप
भ पितत हो भी जाता है, तो उसक कोई हािन नह होती। दूसरी ओर ऐसे को या लाभ
होता है, जो वण तथा आ म के अनुसार िनयिमत कम तो करता है, ले कन भि नह करता
? पितत भ अगला ज म कसी िन कु ल म य न हो, क तु फर भी उसक भि वह से
फर ार भ हो जाएगी, जहाँ उसने छोड़ी थी। भि अहैतु य ितहता है, यह न तो कसी
संसारी कारण का फल है, न ही इसे कसी भौितक अवरोध से थायी प कम क जा सकती
है । अतएव भ को अपने काय के ित आ त होना चािहए और उसे क मय , ािनय
तथा योिगय के कायकलाप म अ यिधक िच नह लेनी चािहए ।

िन स देह, सकाम क मय , ािनय तथा योिगय म अनेक स गुण होते ह, ले कन


भ के च र म सारे स गुण वतः िवकिसत हो जाते ह । इसके िलए बा यास नह
34

करना होता। जैसा क ीम ागवत (५.१८.१२) म पुि क गई है, िजस ि ने शु


भि िवकिसत कर ली है, उसम देवता के सारे स गुण मश: कट होने लगते ह । चूँ क
भ कसी भौितक पंच म िच नह रखता, अतएव वह भौितक दृि से क मष त नह
होता। वह तुर त द जीवन के तर पर ि थर हो जाता है । क तु जो ि संसारी पंच
म लगा रहता है-- चाहे वह तथाकिथत ानी हो, योगी हो, कम हो, परोपकारी हो,
रा वादी हो या अ य कु छ हो-- वह महा मा के उ पद तक ऊपर नह उठ सकता। वह
दुरा मा या संकुिचत दय वाला बना रहता है । भगव ीता (९.१३) के अनुसार :
महा मान तु मां पाथ दैव कृ ितमाि ताः ।
भज यन यमनसो ा वा भूता दम यम् ॥

"हे पृथापु , जो मोह त नह ह, ऐसे महा मा दैवी कृ ित के संर ण म रहते ह । वे


पूणतया भि मय सेवा म िनम रहते ह, य क वे मुझे आ द एवं अिवनाशी पूण पु षो म
परमे र के प म जानते ह ।"
चूँ क सारे भगव उनक परम शि के संर ण म रहते है, अतएव उ ह भि मय
सेवा के माग से िवचिलत होकर कम , ानी या योगी के पथ को हण नह करना चािहए ।
यह उ साहान् िन याद् धैयात तत्-तत्-कम- वतनात्-- अथात् धैय तथा िव ास के साथ
भि के िनयिमत काय को उ साहपूवक स प करना कहलाता है । इस कार मनु य िबना
वधान के भि म गित कर सकता है । ■
35

ोक ४

ददाित ितगृ ाित गु मा याित पृ छित ।


भुड. भोजयते चैव षडिवधं ीित-ल णम् ॥४॥

ददाित -दान देता है; ितगृ ाित -बदले म वीकार करता है; गु म्-गोपनीय िवषय;
आ याित-बताता है; पृ छित -पूछता है; भुड े - खाता है; भोजयते- िखलाता है ; च-भी ;
एव-िन य ही; षड् -िवधम्-छह कार के ; ीित- ेम; ल णम् –ल ण ।

अनुवाद

दान म उपहार देना, दान- व प उपहार वीकार करना, िव ास म आकर अपने मन क


बात कट करना, गोपनीय ढंग से पूछना, साद हण करना तथा साद अ पत करना -
भ के आपस म ेमपूण वहार के ये छह ल ण ह ।
ता पय
इस ोक म ील प गो वामी यह बतलाते ह क कस कार अ य भ क संगित म
भि के काय को करना चािहए । ये काय छह कार के होते ह-(१) भ को दान देना (२)
बदले म भ गण जो अ पत कर उसे वीकार करना (३) भ से अपने मन क बात कहना
(४) उनसे भगवान् क गु सेवा के िवषय म पूछना (५) भ ारा दये गये साद का
स मान करना तथा (६) भ को साद िखलाना । इस तरह एक अनुभवी भ िसखाता है
और अनुभवहीन भ उससे सीखता है । यह गु म आ याित पृ छित कहलाता है । जब
भ साद बाँटता है, तो हम अपनी भि भावना को बनाये रखने के िलए इस साद को,
शु भ के मा यम से ा भगवान क कृ पा के प म, हण करना चािहए । हम शु
भ को अपने घर म आमंि त भी करना चािहए, उ ह साद अपण करना चािहए और
उ ह सभी कार से स करने के िलए तैयार रहना चािहए । यह भुड े भोजयते चैव
कहलाता है ।
यहाँ तक क सामा य सामािजक कायकलाप म भी दो ेमी िम के बीच ये छह
कार के आचार परम आव यक ह । उदाहरणाथ, जब कोई ापारी दूसरे ापारी से
स पक थािपत करना चाहता है, तो वह कसी होटल म भोज का आयोजन करता है और
उस भोज म वह खुलकर यह अिभ करता है क वह या करना चाहता है । तब वह
36

अपने ापारी िम से पूछता है क म या क ँ और कभी-कभी भट का आदान दान भी


होता है । इस कार जब भी ीित का वहार होता है तो ये छह काय कये जाते ह । पहले
ोक म ील प गो वामी ने उपदेश दया है क मनु य को संसारी संगित छोड़कर भ
क संगित करनी चािहए (संग यागात् सतो वृ ेः) । अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ क
थापना भ के बीच इन छह कार के ेम के आदान- दान क सुिवधा के िलए क गई है
। यह सब अके ले एक ि ारा शु कया गया था, क तु चूँ क लोग इसम भाग ले रहे ह
तथा आदान- दान नीित का आचरण कर रहे ह, अतएव महासंघ सारे िव म फै ल रहा है ।
हम स ता है क लोग संघ के कायकलाप के िवकास हेतु उदार होकर दान दे रहे ह और
बदले म हम कृ णभावनामृत िवषय से स बि धत जो भी पु तक तथा पि काएँ दे पाते ह,
उ ह वे उ सुकतापूवक हण कर रहे ह । कभी-कभी हम हरे कृ ण उ सव का आयोजन करते
ह और आजीवन सद य तथा िम को इन उ सव म सि मिलत होकर साद हण करने
िलए आमंि त करते ह । य िप हमारे अिधकांश सद य समाज के उ तर तर के होते ह, तो
भी वे हमारे पास आते ह और उ ह हम जो भी थोड़ा ब त साद दे पाते ह, उसे वे हण
करते ह । कभी-कभी हमारे सद य तथा समथक अ यंत गोपनीय ढंग से भि सप करने
क िविधय के िवषय म पूछताछ करते ह, तो हम उ ह समझाने का य करते ह । इस
यार हमारा संघ सारे िव म सफलतापूवक फै ल रहा है और सारे देश का बुि जीवी वग
मश: हमारे कृ णभावनाभािवत कायकलाप क शंसा करने लगा है । कृ णभावनामृत
संघ का जीवन, सद य के म य इन छह कार के ेममय िविनमय ारा प लिवत हो रहा है
। अतएव लोग को इ कॉन के भ से संगित करने का अवसर दान कया जाना चािहए,
य क ऊपर िजन छह िविधय का वणन कया गया है, उ ह के आदान- दान मा से
सामा य ि अपनी सु कृ ण भगवान को पूणतया जाग रत कर सकता है । भगव ीता
(२.६२) म कहा गया है -- स गात् संजायते काम: -- मनु य जैसी संगित करता है, उसी के
अनुसार उसक इ छाएँ तथा मह वाकां ाएँ िवकिसत ह गी। ाय: कहा जाता है क मनु य
क पहचान उसक संगित से क जाती है और य द सामा य ि भ क संगित करता है,
तो वह िन य ही अपनी सु कृ ण भावना को िवकिसत करे गा । कृ णभावनामृत क समझ
हर जीव म ज मजात है और जब जीव को मनु य का शरीर ा होता है, तो यह चेतना कु छ
अंश तक उसम पहले से िवकिसत ई रहती है । चैत य च रतामृत (म य २२.१०७) म कहा
गया है :

िन य-िस कृ ण- ेम ‘सा य कभु नय।

वणा द-शु -िच करये उदय ॥


37

"जीव के दय म कृ ण के ित शु ेम िन य ि थत होता है । यह कसी अ य ोत से


ा क जाने वाली व तु नह है । जब वण तथा क तन से दय शु हो जाता है, तो जीव
वाभािवक प से जाग जाता है ।" चूं क कृ णभावनामृत हर जीव म अ त निहत है, अतएव
हर एक ि को कृ ण के िवषय म वण करने का अवसर दया जाना चािहए । मा
वण कथा क तन से मनु य का दय य तः शु हो जाता है और उसक मूल
कृ णभावना तुरंत जागृत हो उठती है । कृ णभावनामृत कृ ि म प से कसी पर लादा नह
जाता है; यह पहले से ही िव मान है । जब मनु य परमे र के पिव नाम का क तन करता
है, तो उसका दय सम त संसारी क मष से व छ हो जाता है । वरिचत िश ा क के
थम ग म ही भगवान चैत य महा भु कहते ह :
चेतोदपणमाजनं भवमहादावाि िनवापणं
ेयः कै रवचि कािवतरणं िव ावधूजीवनम् ।
आन दा बुिधवधनं ितपदं पूणामृता वादनं
सवा म पनं परं िवजयते ीकृ ण संक तनम् ॥

" ी कृ ण संक तन क परम िवजय हो, जो दय म वष से संिचत धूल का माजन करने


वाला तथा बार बार होने वाले ज म-मृ यु प महादावाि को बुझाने वाला है । यह
संक तन आ दोलन सारी मानवता के िलए परम वरदान है, य क यह मंगल पी चि का
का िवतरण करता है । यह सम त द ान पी िव ा का जीवन है । यह द आन द के
सागर क वृि करने वाला है और िजसके िलए हम सदैव आतुर रहते ह, उस अमृत का पूण
प से आ वादन करने म हम समथ बनाता है ।"

महाम का जप करने वाला न के वल शु हो जाता है, अिपतु जो भी हरे कृ ण, हरे


कृ ण, कृ ण कृ ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे हरे ॥ के द उ ारण को
सुनता है, वह भी पिव हो जाता है । यहाँ तक क िन पशु क ड़े, पौधे तथा अ य योिनय
के शरीर म ब ए जीव भी द विन को सुनकर शु होकर कृ णभावनाभािवत बनने के
िलए तैयार हो जाते ह । इसक ा या उस समय ठाकु र ह रदास ने क , जब ी चैत य
महा भु ने उनसे पूछा था क मनु य से नीचे के जीव कस तरह भवब धन से मु हो सकते
ह । ह रदास ठाकु र ने बताया क भगव ाम का क तन इतना शि शाली है क य द कोई
जंगल के सुदरू भाग म भी क तन करता है, तो वृ तथा पशू भी विन के वण मा से
कृ णभावनामृत म गित करगे । इसे ी चैत य महा भु ने वयं ही वा तव म िस कर
दखाया, जब वे झारख ड के जंगल से होकर गुजर रहे थे । उस समय संह, साँप िहरण तथा
38

अ य सारे जीव सहज वैर याग कर संक तन करने और नाचने लगे थे। िन संदेह, हम ी
चैत य महा भु के कायकलाप का अनुसरण नह कर सकते, ले कन हम उनके चरणिचहन
पर तो चल सकते ह । हम म इतनी शि तो नह है क संह, साँप, कु े तथा िब ली जैसे
िन पशु को मोिहत कर ल या उ ह नाचने के िलए े रत कर सक, ले कन भगवान के
पिव नाम का क तन करके िव भर के ब त से लोगो को कृ णभावनाभािवत तो बना ही
सकते ह । भगव ाम का जप करना या उसका चार करना योगदान का अथवा दान का एक
भ उदाहरण है ( ददाित िस ा त)। इसी संकेत से ितगृ ाित िस ा त का भी पालन
करना चािहए और द उपहार को ा करने के िलए तैयार तथा सहमत होना चािहए ।
उसे कृ णभावनामृत आ दोलन के िवषय म पूछताछ करनी चािहए और इस भौितक जगत
क ि थित को समझने के िलए अपना मन खुला रखना चािहए । इस कार गु ं आ याित
पृ छित िस ा त का पालन कया जा सकता है ।
अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ के सद य हर रिववार को जब अपनी-अपनी
शाखा म ीितभोज का आयोजन करते ह, तब वे संघ के सारे सद य तथा समथक को
साथ-साथ भोजन करने के िलए आमंि त करते ह । इसम िच लेने वाले अनेक लोग साद
हण करने आते ह और जब भी संभव होता है, वे संघ के सद य को अपने घर बुलाकर
चुर दान दान करते ह । इस तरह संघ के सद य तथा सामा य जनता दोन ही लाभाि वत
होते ह । लोग को चािहए क वे तथाकिथत योिगय , ािनय , क मय तथा परोपकारी
लोग क संगित याग द य क इस संगित से कसी को कोई लाभ नह िमलता। य द कोई
सचमुच मनु य जीवन का ल य ा करना चाहता है, तो उसे कृ णभावनामृत आ दोलन के
भ क संगित करनी चािहए य क यही एकमा आ दोलन है जो मनु य को ई र के
ित ेम िवकिसत करना िसखाता है । धम मानव समाज का िवशेष काय है और इसी के
ारा मनु य-समाज तथा पशु- समाज म अ तर जाना जाता है । पशु-समाज म न तो
िगरजाघर है, न मि जद या कोई अ य धा मक प ित है । क तु िव के सम त भाग म,
मनु य-समाज कतना ही दिलत य न हो, उसक कोई न कोई धम प ित होती है । यहाँ
तक क जंगल क आ दम जाितय क भी अपनी धम प ित होती है । जब कोई धा मक
प ित िवकिसत होती है और ई र म
े का प धारण कर लेती है, तभी वह साथक है ।
जैसा क ीम ागवत (१.२.६) के थम क ध म कहा गया है :

स वै पुंसां परो धम यतो भि रधो जे ।


अहैतु य ितहता यया मा सु सीदित ॥
39

"सम त मानवता के िलए परम धम वही है, िजससे लोग द भगवान के ित ेमभि
ा कर सकते ह । ऐसी भि को िन काम तथा अिवि छ होना चािहए, िजससे आ मा
क पूरी तरह तुि हो सके ।"

य द मानव समाज के सद य सचमुच मन क शाि त, अमन-चैन तथा मनु य एवं


रा ो के बीच मै ी-संबंध चाहते ह, तो उ ह धम क कृ णाभावनाभािवत प ित का
अनुसरण करना चािहए, िजससे वे पूण पु षो म भगवान कृ ण के िलए अपने सु ेम को
िवकिसत कर सक । य ही लोग ऐसा करगे, य ही उनके मन शाि त तथा चैन से पू रत हो
जाएंगे ।
इस ओर ील भि िस ांत सर वती ठाकु र ने कृ णाभावनाभािवत आंदोलन का
सार करने म लगे ए सारे भ को सचेत कया है क वे उन िन वशेष मायावा दय से
नह बोल, जो ऐसे आि तक आंदोलन का िवरोध करने के िलए सदैव कृ तसंक प होते ह । यह
संसार मायावा दय तथा नाि तक से भरा पड़ा है और संसार के राजनीितक दल
भौितकतावाद को बढावा देने के िलए मायावाद तथा अ य नाि तकवादी दशनो का लाभ
उठाते ह । कभी-कभी वे कृ णभावनामृत आ दोलन का िवरोध करने के िलए कसी बल
दल का समथन भी करते ह । मायावादी तथा अ य नाि तक नह चाहते क कृ णभावनामृत
आंदोलन िवकास करे, य क यह लोग को ई र चेतना क िश ा देता है । नाि तक क
यही नीित है । साँप को दूध िपलाने तथा के ला िखलाने से कोई लाभ नह होता, य क साँप
कभी भी तु नह होगा । अिपतु दूध तथा के ला खाकर वह और भी िवषैला बन जाता है
(के वलं िवषवधनम्) । य द साँप को दूध पीने के िलए दया जाए, तो उसका िवष बढ़ता ही
है । इसी कारण से हम मायावादी तथा कम पी सप के सम अपने मन क बात कट
नह करनी चािहए । इस तरह दल के कटीकरण से कोई लाभ नह होगा । अतएव उनक
संगित से पूरी तरह बचना ही बेहतर होगा और उनसे कोई रह या मक बात नह पूछनी
चािहए, य क वे कभी भी अ छी सलाह नह दे सकते । हम न तो मायावा दय तथा
नाि तक को आमंि त करना चािहए, न उनका आमं ण वीकार करना चािहए, य क
इस कार के घिन पर पर संपक से हम उनक नाि तकतावादी मनोवृि से दूिषत हो
सकते ह (स गात स ायते कामः)। यह इस ोक क िनषेधा ा है क हम मायावा दय तथा
नाि तको से कु छ भी लेने देने से दूर रहना चािहए । ी चैत य महा भु ने यह भी सचेत
कया है -िवषयीर अ खाईले दु हय मन-- "संसारी लोग का बनाया आ भोजन करने से
मनु य का मन दु हो जाता है । " य द मनु य अ य त उ त नह है, तो वह कृ णभावनामृत
आ दोलन को आगे बढ़ाने म सब के योगदान का उपयोग करने म समथ नह होता । अतएव
िस ा त के तौर पर कसी को मायावती या नाि तक से दान नह लेना चािहए । व तुत: ी
40

चैत य महा भु ने भ को उन सामा य मनु य तक क संगित करने से व जत कया है, जो


भौितक इि यतृि के ित अ यिधक आस रहते ह ।

िन कष यह िनकलता है क हम सदैव भ क संगित करनी चािहए, भि के


िनयामक िस ांतो का पालन करना चािहए, आचाय के पदिच ह का अनुसरण करना
चािहए तथा गु के आदेश का पूरी तरह पालन करना चािहए । इस कार हम अपनी भि
तथा सु कृ णभावनामृत को िवकिसत करने म समथ हो सकगे। ऐसा भ , जो न तो
नौिसखीया है, न महाभागवत, (अ यंत उ त भ ), अिपतु भि क म य अव था म है,
उससे यह आशा क जाती है क वह भगवान् से ेम करे गा, भ को िम बनायेगा,
अ ािनय पर दया करेगा और ई यालु तथा आसुरी वभाव वाल का प र याग करे गा। इस
ोक म भगवान् से ेममय आदान- दान करने तथा भ से मै ी थािपत करने क िविध
का संि उ लेख है । ददाित िस ांत के अनुसार उ त भ से आशा क जाती है क वह
अपनी आय का कम से कम पचास ितशत िह सा भगवान तथा उनके भ क सेवा म
य करेगा । ील प गो वामी ने अपने जीवन म ऐसा ही आदश तुत कया। जब
उ ह ने अवकाश हण करने का िन य कया, तो उ ह ने अपने जीवन भर क कमाई का
पचास ितशत िह सा कृ ण क सेवा म लगा दया, प ीस ितशत अपने स बि धय म
बाँट दया और शेष प ीस ितशत िनजी आपाति थितय के िलए रख छोड़ा । सभी भ
को इस उदाहरण का पालन करना चािहए । चाहे जो भी आय हो, उसका पचास ितशत
कृ ण तथा उनके भ के िलए खच कया जाना चािहए । इससे ददाित क माँग पूरी होगी ।
अगले ोक म ील प गो वामी वणन करते ह क कस कार के वै णव से िम ता
करनी चािहए तथा कस कार वै णव क सेवा करनी चािहए । ■
41

ोक ५

कृ णोित य य िग र तं मनसा येत


दी ाि त चे णितिभ भज तमीशम् ।
शु ष
ू या भजनिव मन यम य
िन दा दशू य दमीि सतस कल या ।। ५ ।।

कृ ण- भगवान कृ ण का पिव नाम; इित- इस कार; य य- िजसके ; िग र-श द या वाणी


म; तम्-उसको; मनसा-मन से; आ येत-आदर करना चािहए; दी ा –दी ा; अि त-है; चेत्-
य द; णितभी:- णाम के ारा; च- भी; भज तम्-भि म लगा आ; ईशम् भगवान क ;
शु ूषया– ावहा रक सेवा ारा; भजन-िव म्-भि म आगे बढ़े ए को; अ यम्-अिवचल;
अ य- नंदा-आ द-- अ य क िन दा इ या द से; शू य-पूणतया िवहीन; दम्- िजसका दय;
ईि सत-इि छत; सँग–संगित; ल या– ा करके ।

अनुवाद

मनु य को चािहए क जो भ भगवान कृ ण के नाम का जप करता है, उसका मन से आदर


करे ; उसे चािहए क वह उस भ को सादर नम कार करे , िजसने आ याि मक दी ा हण
कर ली है और जो अचािव ह के पूजन म लगा आ है एवं उसे चािहए क वह उस शु भ
क संगित करे और ा पूवक उसक सेवा करे , जो अन य भि म आगे बढ़ा आ है और
िजसका दय दूसर क आलोचना ( नंदा) करने क वृि से सवथा िवमुख है ।

ता पय

िपछले ोक म िजन छह कार के ीित के आदान- दान का उ लेख आ है, उ ह बुि म ा


पूवक वहार म लाने के िलए िववेकपूवक उिचत ि य का चुनाव करना होगा। अतएव
ील प गो वामी परामश देते ह क हम वै णव से उनके िवशेष पद के अनुसार उिचत
रीित से िमलना चािहए । इस ोक म वे हम यह बताते ह क तीन कार के भ - किन
अिधकारी, म यम अिधकारी तथा उ म अिधकारी--के साथ कस तरह से वहार कया
42

जाये । किन अिधकारी ऐसा नौिसखीया है, िजसे ह रनाम क दी ा गु से िमली है और


जो भगव ाम का जप करने का यास कर रहा है । ऐसे ि को मन ही मन किन वै णव
के प म स मान देना चािहए । म यम अिधकारी गु से आ याि मक दी ा ा कए
रहता है और गु उसे भगवान क द ेमाभि म पूरी तरह त रखते ह । म यम
अिधकारी को भि माग के म य म ि थत समझना चािहए । उ म अिधकारी वह है जो
भि म ब त आगे बढा होता है । उ म अिधकारी अ य क िन दा करने म िच नह
लेता,उसका दय पूरी तरह व छ रहता है और उसे अन य कृ णाभावनामृत क अनुभूित
हो चुक होती है । ील प गो वामी के मतानुसार ऐसे महाभागवत क संगित तथा सेवा
अ य त वांछनीय है ।

मनु य को चािहए क वह किन अिधकारी ही न बना रहे, जो सदैव भि के िन तम तर


पर रहता है और के वल मि दर के अचािव ह क पूजा करने म िच दखाता है । ऐसे भ
का वणन ीमद् भागवत के याहरव क ध (११.२.४७) म इस कार आ है :
अचायामेव हरये पूजां य: येहते ।
नत े षु चा येषु स भ : ाकृ त: मृतः: ।।

"जो ि मि दर म अचा िव ह क पूजा म अ यंत ापूवक त लीन रहता है, ले कन


यह नह जानता क भ या सामा य लोग से कस तरह वहार कया जाये, वह ाकृ त
भ या किन अिधकारी कहलाता है ।"
अतएव मनु य को किन अिधकारी के पद से ऊपर उठकर म यम अिधकारी के पद
तक प च
ँ ना चािहए । ीम ागवत (११.२.४६) म म यम अिधकारी का वणन इस कार
आ है ।
ई रे तदधीनेषु बािलशेषु ि ष सु च ।
ेममै ी कृ पोपे ा यः करोित स म यमः ॥

“म यम अिधकारी भ वह है, जो पूण पु षो म भगवान को ेम के सव पा मानकर


पूजता है, भगव को िम बनाता है, अ ानी के ित दया दखाता है और जो कृ ित से
ई यालु ह,उनसे दूर रहता है ।’’

भि के सही-सही अनुशीलन क यही िविध है; अतएव इस ोक म ील प


गो वामी ने हम उपदेश दया है क िविभ भ के ित कस तरह वहार कया जाए ।
हम अपने वहा रक अनुभव से देख सकते ह क वै णव कई कार के होते ह । ाकृ त
सहिजया सामा यतया हरे कृ ण महामं का जाप करते ह, फर भी वे ी, धन तथा नशे के
43

ित आस रहते ह । भले ही ऐसे लोग भगवान् के पिव नाम का जप करते ह , ले कन


फर भी वे ठीक से शु नह हो पाते । ऐसे लोग का मन से आदर करना चािहए, क तु
उनक संगित से बचना चािहए । जो अबोध ह, क तु सहज ही बुरी संगित म पड़ गये ह, उन
पर तभी दया दखानी चािहए जब वे शु भ से उिचत उपदेश हण करना चाहते ह ।
क तु जो नवदीि त भ ामािणक गु से वा तव म दीि त हो चुके ह और अपने गु के
आदेश को गंभीरता से पालन करने म लगे ह, उनको आदरपूवक नम कार करना चािहए ।

इस कृ णभावनामृत आ दोलन म जाित, न ल या रंग का भेदभाव कए िबना येक


मनु य को अवसर दया जाता है । इस आ दोलन म हर ि को सि मिलत होने या हमारे
साथ बैठने, साद लेने तथा कृ ण के िवषय म सुनने के िलए आमि त कया जाता है । जब
हम देखते ह क कोई ि सचमुच ही कृ णभावनामृत म िच रखता है और दीि त होना
चाहता है, तो उसे हम भगवान के पिव नाम का क तन करने के िलए िश य प म हण
करते ह । य द कोई नया भ वा तव म दीि त होता है और अपने गु के आदेश से
भि मय सेवा म लगा होता है, तो उसे तुर त ही ामािणक वै णव के प म वीकार करके
नम कार करना चािहए । ऐसे अनेक वै णव म से कोई एक ऐसा होगा, जो भगवान क
सेवा म ग भीरता से संल रहकर सम त िविध-िवधान का पालन करता है । जपमाला का
िनयत सं या म जप करता है तथा सदैव कृ णभावनामृत आंदोलन का िव तार करने के
िवषय म िवचार करता रहता है । ऐसे वै णव को उ म अिधकारी के प म वीकार करना
चािहए और उसक संगित करनी चािहए ।

िजस या से भ कृ ण के ित अनुर होता है, उसका वणन चैत य च रतामृत


(अ य ४.१९२) म आ है :
दी ाकाले भ करे आ मसमपण ।
सेई काले कृ ण तारे करे आतमसम ।।

“दी ा के समय जब भ भगवान के ित पूणभाव से आ मसमपण करता है, तो कृ ण उसे


अपने ही समान समझकर वीकार कर लेते ह ।"

दी ा क ा या ील जीव गो वामी ारा भि स दभ (८६८) म क गई है:

द ं ानं यतो द यात् कु यात् पाप य सं यम् ।


त माद् दी ेित सा ो ा देिशकै त वकोिवदै: ।

“दी ा के ारा मनु य म मश: भौितक भोग के ित अ िच और आ याि मक जीवन के


ित िच उ प होती है ।"
44

हमने इसके अनेक ावहा रक उदाहरण, िवशेषता यूरोप तथा अमे रका म देखे ह ।
ऐसे अनेक छा ह, जो धनी तथा स मािनत प रवार से हमारे पास आते ह, उनम ब त
ज दी ही भौितक भोग के ित िच का अभाव हो जाता है और आ याि मक जीवन म वेश
करने के िलए वे अ य त उ सुक जाते ह । य िप वे अ य त धनी प रवार से आते ह, तो भी
उनम से अनेक ऐसी जीवन दशा को वीकार करते ह, जो बहत सुखदायी नह होती ।
िन स देह, वे कृ ण के िलए कोई भी जीवन दशा वीकार करने के िलए तैयार रहते ह, य द
वे मि दर म रह सक तथा वै णव क संगित कर सक। जब कोई भौितक भोग के ित इस
कार उदासीन हो जाता है, तब वह गु ारा दी ा पाने के िलए यो य बन जाता है ।
आ याि मक जीवन म गित करने के िलए ीम ागवत (६.१.१३) क सं तुित है -- तपसा
चयण शमेन च दमेन च -- जब कोई ि दी ा हण करने के िलए ग भीर होता है,
तो उसे तप या, चय एवं मन तथा शरीर पर संयम रखने के िलए तैयार रहना चािहए ।
य द वह इस तरह तैयार है और आ याि मक ान ( द ं ानम्) ा करने के िलए इ छु क
है, तो वह दी ा के िलए उपयु होता है । द ं ानम् का शा ीय दृि से िव ान या
परमे र का ान कहा जाता है । तद् िव ानाथ स गु म्एवािभग छेत्- जब कोई परम स य
के द िवषय म िच दखाता है, तो उसे दी ा दी जानी चािहए । ऐसे ि को दी ा
हण करने के िलए गु के पास प च
ं ना चािहए । ीम ागवत (१९.१३.२१) म यह भी
सं तुित क गई है-त माद् गु ं प ेत िज ासु: ेय उ मम् --"जब कोई सचमुच ही परम
स य के द ान म िच रखे, तो उसे आ याि मक गु के पास जाना चािहए ।"

मनु य को चािहए क य द वह गु के आदेश का पालन न कर सके , तो वह गु


वीकार न करे । न ही उसे आ याि मक जीवन का दखावा करने के िलए गु बनाना चािहए
। उसे ामािणक गु से सीखने के िलए िज ासु अथात अ यंत उ सुक रहना चािहए । वह जो
पूछे उसे द ान से स बि धत होना चािहए (िज ासु: ेय उ मम्) । उ मम् श द
भौितक ान से जो ऊपर हो, उसका ोतक है । तम का अथ है, "इस भौितक जगत का
अंधकार" तथा उत् का अथ है,” द ”। सामा यतया लोग संसारी िवषय के ित िज ासा
कट करने म अिधक िच लेते ह, क तु जब कसी क यह िच जाती रहती है और वह
के वल द िवषय म िच लेने लगता है, तो वह दी ा दये जाने के िलए पूणतया यो य है
। जब कोई ामािणक गु ारा सचमुच दीि त होता है और भगवान क सेवा म गंभीरता
से लग जाता है, तो उसे म यम अिधकारी वीकार कर लेना चािहए ।

कृ ण के पिव नाम का क तन इतना उ कृ है क य द कोई दस अपराध से


सावधानी से बचते ए हरे कृ ण महाम का जप करता है, तो वह मश: ान के उस
45

िब दु तक उ त हो जाता ह, जहां वह समझ सकता है क भगवान के पिव नाम तथा वयं


भगवान से कोई अंतर नह है । जो ि इस ान को ा कर ले, उसका नवदीि त भ
के ारा अ यिधक स मान होना चािहए । उसे यह भली भाँित जान लेना चािहए क
िनरपराध भाव से भगव ाम का क तन कये िबना वह कृ णाभावनामृत म गित के िलए
सुयो य पा नह बन सकता। ' ी चैत य च रतामृत (म य २२.६९) म कहा गया है :

याहार कोमल ा से ‘किन ’ जन।


म म तेतहो भ होइबे ‘उ म’ ।।

‘’िजसक ा कोमल तथा अदृढ़ हो, वह नौिसखीया कहलाता है ले कन इस िविध


को मशः पालन करते ए वह थम ण
े ी के भ के पद तक ऊपर उठ जाएगा।’’ येक
ि अपने भि जीवन का शुभारंभ नवदीि त अव था से करता है, क तु य द वह
ह रनाम जप क िनधा रत सं या को ढंग से पूरा करता है, तो वह मश: उ म अिधकारी
के उ तम पद को ा करता है । कृ णभावनामृत आ दोलन िन य सोलह माला जप करने
क सं तुित करता है, य क पा ा य देश के लोग माला पर अिधक काल तक जप करते
ए एका नह रह सकते। अतएव यूनतम सं या म जप करने का िनधारण कया गया है ।
क तु ील भि िस ा त सर वती ठाकु र कहा करते थे क जब तक कोई कम से कम चौसठ
माला (एक लाख नाम) जप न कर ले तब तक उसे पितत माना जाना चािहए । उनक गणना
के अनुसार हम सब पितत जैसे ह, क तु चूँ क हम परमे र क सेवा पूरी गंभीरता तथा
छल-कपट के िबना करने के िलए य शील रहते ह, अतएव हम परम पिततपावन ी
चैत य महा भु क कृ पा क आशा है ।
जब ी चैत य महा भु से महान भ स यराज खान ने पूछा क वै णव को कस
तरह पहचानना चािहए, तो महा भु ने उ र दया :

भु कहे-“यार मुखे शुिन एक-बार ।

कृ ण-नाम, सेइ पू य,-- े सबाकार ॥"

“य द कसी ि के मुख से एक बार भी ‘कृ ण’ श द सुनाई पड जाये, तो उसे सम त


ि य म से े ि मान लेना चािहए ।' (चैत य च रतामृत, म य १५.१०६) भगवान्
चैत य महा भु ने आगे कहा :
“ अतएव याँर मुखे एक कृ ण-नाम ।

सेई तsवै णव, क रह ताँहार स मान ।।”


46

“जो कृ ण के पिव नाम के क तन म अिभ िच रखता है, या जो अ यासवश कृ ण के नाम


का क तन करना पस द करता है, उसे वै णव के प म वीकार करना चािहए और कम से
कम मन से तो उसको स मान देना चािहए ।" ( चैत यच रतामृत म य १५.१११)। हमारे
एक िम जो िस अं ज
े ी संगीतकार ह, कृ ण के पिव नाम के क तन के ित आकृ हो
गए ह, यहाँ तक क उ ह ने अपने रकाड म भी कृ ण के पिव नाम का अनेक बार उ लेख
कया है । वे अपने घर म कृ ण के िच को नम कार करते ह और कृ णभावनामृत के
चारक का भी आदर करते ह । सभी तरह से उनके मन म कृ ण के नाम तथा कृ ण क
लीला के ित उ आदरभाव है, अतएव हम िबना कसी संकोच के उ ह स मान देते ह,
य क हम देख रहे ह क ये महाशय मशः कृ णभावनामृत क ओर अ सर हो रहे ह । ऐसे
ि को सदा ही स मान दया जाना चािहए । िन कष यह िनकलता है क जो ि
पिव नाम का िनयिमत क तन करते ए कृ णभावनामृत गित करने का यास कर रहा
हो, उसका स मान करना वै णव का धम है । दूसरी ओर, हमने देखा है क हमारे कु छ
समकािलक िजनसे महान उपदेशक होने क आशा क जाती है, वे मश: देहा म-बुि क
ओर िगर चुके है, य क वे भगवान के पिव नाम का क तन करने म असफल रहे ह ।

सनातन गो वामी को उपदेश देते समय भगवान ी चैत य महा भु ने भि क तीन


को टयाँ बताई :

शा युि नाही जाने दृढ, ावान् ।

‘म यम अिधकारी’ सेइ महा-भा यवान् ॥

"िजस ि का शा स ब धी ान पु नह है, क तु िजसने हरे कृ ण महामं के क तन


म दृढ ा उ प कर ली है तथा जो अपनी िनयत भि मय सेवा के स पादन म दृढ़ है, उसे
म यम अिधकारी समझना चािहए । ऐसा ि अ य त भा यशाली होता है ।" (चैत य
च रतामृत, म य २२.६७) म यम अिधकारी दृढतापूवक ा रखने वाला ि होता है
और वा तव म वही भि क भावी गित का पा होता है । अतएव चैत य च रतामृत
(म य २२.६४) म कहा गया है :
ावान् जन हय भि -अिधकारी ।

‘उ म,’ 'म यम,’ ‘किन ’ -- ा-अनुसारी ।।

"मनु य ा के िवकास के अनुसार ही भि के ारि भक पद, म यम पद तथ उ तम पद


पर भ बनने के िलए यो य बनता है ।" पुन: चैत य च रतामृत (म य २२.६२) म कहा
गया है :
47

' ा' श दे -- िव ास कहे सुदढ़ृ िन य ।

कृ णे भि कइले सव कम कृ त हय ।।

‘कृ ण क द सेवा करके मनु य वतः सारे आनुषंिगक काय स प करता है ।' यह दृढ़
िव ास जो भि मय सेवा करते रहने के अनुकूल होता है, ा कहलाता है । ा अथात्
कृ ण म िव ास कृ णभावनामृत का शुभार भ है । ा का अथ है, बल िव ास।
भगव ीता का कथन ावान् मनु य के िलए ामािणक आदेश है और कृ ण भगव ीता म
जो कु छ भी कहते ह, उसे यथा प म िबना कसी िववेचन को वीकार करना चािहए ।
अजुन ने भगव ीता को इसी कार वीकार कया था। भगव ीता सुनने के बाद अजुन ने
कृ ण से कहा -- सवम्एतद् ऋतं म ये य मां वदिस के शव--" हे कृ ण, आपने मुझसे जो कु छ
कहा है, उसे म पूणतया स य के प म वीकार करता ँ ।" (भगव ीता १०.१४)
भगव ीता को समझने क यही सही िविध है और यही ा कहलाती है । ऐसा नह होना
चािहए क कोई ि भगव ीता के कु छ अंश को अपने खुद के मनमाने ढंग से कये गये
अथघटन के अनुसार वीकार करे और दूसरे अंश को र कर दे । यह ा नह है । ा का
अथ है, भगव ीता के आदेश को पूण प से वीकार करना और िवशेष प से--
सवधमा प र य य मामेकं शरणं ज -- अथात् "सारे धम को याग कर मेरी शरण म आ
जाओ"-- इस अंि तम उपदेश को वीकार करना। ( भगवद गीता १८.६६) जब मनु य इस
आदेश के ित पूणतया ावान् हो जाता है, तो उसक यह दृढ ा आ याि मक जीवन म
गित करने के िलए आधारभूत बन जाती है ।

जब मनु य हरे कृ ण महामं के क तन म पूरी तरह संल होने लगता है, तो उसे
मशः अपने आ याि मक व प का बोध होता है । जब तक मनु य ापूवक हरे कृ ण
मं का क तन नह करता, तब तक कृ ण अपने आप को कट नह करते-- सेवा मुखे िह
िज वादौ वयमेव फु र यद: (भि रसामृत िस धु १.२.२३४) हम कसी कृ ि म साधन से
पूण पु षो म भगवान क अनुभूित ा नह कर सकते । हम ापूवक भगवान क सेवा
म लग जाना होगा । ऐसी सेवा जीभ से ार भ होती है (सेवा मुखे िह िज वादौ) िजसका
अथ यह है क हम सदैव भगवान के पिव नाम का क तन करना चािहए और कृ ण- साद
हण करना चािहए । हम न तो कोई अ य क तन करना चािहए न साद के िसवा कसी
अ य व तु का वीकार करना चािहए । जब इस िविध का ापूवक पालन कया जाता है,
तो भगवान वयं ही भ के सम कट होते ह ।

जब कोई ि अपने आपको कृ ण के सनातन सेवक के प म जान लेता है, तब वह


कृ ण क सेवा के अित र और कसी चीज म िच नह लेता। वह सदैव कृ ण का िच तन
48

करता आ, कृ ण के पिव नाम के सार हेतु साधन क खोज करता आ सोचता है क


उसका एकमा काय िव भर म कृ णभावनामृत आ दोलन का सार करना है । ऐसे ि
उ म अिधकारी मानना चािहए और छह िविधय के अनुसार (ददाित ितगृ ाित इ या द)
तुर त उसक संगित वीकार करनी चािहए । िन स देह, गत उ म अिधकारी वै णव भ
को गु प म वीकार करना चािहए । जो कु छ पास म हो उ ह सम पत करना चािहए,
य क यह आदेश है क मनु य के पास जो कु छ भी हो, वह गु को दे दया जाये ।
िवशेषतया चारी से आशा क जाती है क वह अ यो से िभ ा माँगकर गु को दान करे
। क तु व पिस ए िबना कसी को महाभागवत अथात् उ त भ के आचरण का
अनुकरण नह करना चािहए य क ऐसे अनुकरण से अ तत: पतन होता है ।
इस ोक म ील प गो वामी भ को कम से कम इतना बुि मान बनने के िलए
उपदेश देते ह िजससे वह किन , म यम तथा उ म अिधकारी म अ तर कर सके । भ को
अपनी ि थित भी जाननी चािहए और कसी उ पद पर ि थत भ का अनुकरण करने का
यास नह करना चािहए । इस संबंध म ील भि िवनोद ठाकु र ने कु छ ावहा रक संकेत
दये ह-- उ म अिधकारी वै णव को उसके इस साम य के आधार पर पहचाना जा सकता है
क वह अनेक पितता मा को वै णव मत म बदल देता है । जब तक कोई उ म,अिधकारी
का पद ा न कर ले, तब तक उसे गु नह बनना चािहए । एक नवदीि त वै णव या
म याव था पद को ा वै णव भी िश य बना सकता है, ले कन ऐसे िश य को उसी तर
का होना चािहए और यह जान लेना चािहए क उसके अपया मागदशन म ऐसे िश य
जीवन के चरम ल य क ओर ठीक से गित नह कर सकते। अतएव िश य को सतक रहना
चािहए क गु के प म उ म अिधकारी को ही वीकार करे । ■
49

ोका -६

दृ ःै वभावजिनतैवपुष च दोषै-
न ाकृ त विमह भ जन य प येत्।
ग गा भसां न खलु बुदबुदफे नप कै -
व वमपग छित नीरधम: ॥ ६॥

दृ :ै -सामा य दृि से देखा गया, वभाव जिनतै:- कसी के िनजी वभाव से उ प ; वपुष:-
शरीर का; च-तथा; दोषै:- दोषो से; न- नह ; ाकृ त वम्- भौितक होने क अव था,
भौितकता; इह-इस संसार म; भ -जन य- शु भ क ; प येत्-उसे देखना चािहए; ग गा-
अ भसाम्-गंगाजल का; न-नह ; खलु-िन य ही; बुदबुद फे न-प कै : -बुलबुल झाग तथा
क चड़ से; -देव वम्- द कृ ित; अपग छित-न होती है; नीर-धम: - जल के गुणधम
से ।
अनुवाद
अपनी मूल कृ णभावनाभािवत ि थित म रहते ए शु भ अपने आप को शरीर नह
मानता है । ऐसे भ को भौितकतावादी दृि कोण से नह देखा जाना चािहए । िन स देह,
भ के िन कु ल म उ प होने, उसके कु प चेहरे , िवकृ त शरीर या रोगी अथवा अश
शरीर क परवाह नह करनी चािहए । साधारण दृि से ऐसे दोष शु भ के शरीर म
कट दख सकते ह, ले कन इन सब दखने वाले दोष के बावजूद शु भ का शरीर कभी
दूिषत नह हो सकता। यह ठीक गंगाजल के समान है, जो कभी-कभी वषा ऋतु म बुदबुद,े
फे न तथा क चड़ से पू रत हो जाता है, क तु कभी दूिषत नह होता । अतएव जो लोग
आ याि मक ान म उ त ह, वे जल क अव था का िवचार कये िबना गंगा म ान करगे ।

ता पय

शु भि जो क आ मा क या है-- दूसरे श द म, भगवान क द ेममयी सेवा मु


अव था म स प क जाती है । भगव ीता (१४.२६) म कहा गया है :
50

मां च योऽ िभचारेण भि योगेन सेवते ।


स गुणान् समित यैतान् भूयाय क पते ॥

“जो पूण भि म संल रहता है, िजसका कसी भी प रि थित म पतन नह होता, वह
तुर त भौितक कृ ित के गुण को पार करके पद को ा करता है ।"

अ िभचा रणी भि का अथ है, अन य भि । भि मय सेवा म रत मनु य को


भौितक इ छा से मु होना चािहए । इस कृ णभावनामृत आ दोलन म मनु य क चेतना
म बदलाव आव यक है । य द चेतना को भौितक भोग क ओर लि त कया जाता है, तो
वह भौितक चेतना है और य द उसे कृ ण क सेवा क ओर लि त कया जाता है, तो वह
कृ णभावनामृत है । शरणागत ि िबना भौितक िवचार के ही कृ ण क सेवा करता है -
(अ यािभलािषताशू यम्) । ानकमा नावृतम्-- अन य भि जो शरीर तथा मन के काय
से यथा ान एवं कम से परे है, शु भि योग कहलाती है । भि योग आ मा क सही
स यता है और जब मनु य वा तव म अन य, शु भि मय सेवा म संल हो जाता है, तो
वह पहले से ही मु रहता है (स गुणान् समती यैतान्) । कृ ण का भ कभी भौितक दशा से
बँधता नह , भले ही शरीर से वह भौितक पमब लगे । अतएव मनु य को चािहए क
वह शु भ को भौितकतावादी दृि कोण से न देखे । जब तक कोई वा तव म भ नह
होता, तब तक वह दूसरे भ को ठीक से पहचान नह पाता । जैसा क िपछले ोक म
बताया गया है, भ तीन कार के होते ह-किन अिधकारी, म यम अिधकारी तथा उ म
अिधकारी । किन अिधकारी भ तथा अभ म अ तर नह कर पाता । उसे तो के वल
मं दर म के वल अचािव ह के पूजन से योजन रहता है । क तु म यम अिधकारी भ तथा
अभ म और भ तथा भगवान म अंतर कर सकता है । इस तरह वह पूण पु षो म
भगवान, भ तथा अभ के साथ िभ -िभ आचरण करता है ।

कसी को शु भ के शारी रक दोष क आलोचना नह करनी चािहए । य द ऐसे


दोष ह भी, तो उनक उपे ा कर देनी चािहए । िजस बात पर यान देना चािहए वह है
शु भि या परमे र के ित शु सेवा और यह गु का मु य काय है । जैसा क
भगव ीता (९.३०) म कहा गया है :
अिप चे सुदरु ाचारो भजते मामन यभाक् ।
साधुरेव स म त ः स यग् विसतो िह सः॥
51

य द कोई भ कभी घृिणत कम करता तीत हो भी, तब भी उसे साधु समझना


चािहए, य क उसक वा तिवक पहचान तो यह है क वह भगवान क ेममयी सेवा म
लगा आ है । दूसरे श द मे उसे सामा य ि नह समझना चािहए ।
शु भ भले ही ा ण या गो वामी प रवार म न ज मा हो, कं तु य द वह
भगवान क सेवा म लगा रहता है, तो उसक उपे ा नह करनी चािहए । वा तव म जाित
या वंश पर परा जैसी भौितक बात पर आधा रत गो वामी प रवार नह हो सकता ।
गो वामी उपािध तो शु भ का एकािधकार है । इस कार हम छ: गो वािमय क बात
करते ह, िजनम प गो वामी तथा सनातन गो वामी मुख है । वे एक कार से मुसलमान
बन चुके थे । अतएव उ ह ने अपना नाम दिबरखास तथा साकरमि लक रख िलया था,
ले कन ी चैत य महा भु ने वयं उ ह गो वामी बनाया। । अतएव गो वामी उपािध
वंशागत नह है । गो वामी श द उस ि का सूचक है, जो अपनी इि य को वश म रख
सके , जो इि य का वामी हो। भ इि य के वश म नह होता वह तो इि य का
िनयामक होता है । फल व प उसे वामी या गो वामी कहा जाना चािहए, भले ही वह
गो वामी प रवार म उ प न आ हो ।

इस सू के अनुसार जो गो वामी ी िन यानंद भु तथा ीअ त


ै भु के वंशज ह,
वे िनि त प से भ ह, ले कन जो भ अ य प रवार से स बि धत ह, उनमे भेदभाव
नह बरतना चािहए । िन स देह, भ चाहे पूव आचाय के प रवार के ह या कसी
सामा य प रवार के ह , उ ह एकसमान माना जाना चािहए । कसी को यह सोचकर क
“ओह! यह अमरीक गो वामी है ।" उसके साथ भेदभाव नह बरतना चािहए । न ही यह
सोचना चािहए क यह िन यान द वंशज गो वामी है । कृ णभावनामृत आ दोलन के
अमरीक वै णव को गो वामी उपािध दऐ जाने पर भीतर ही भीतर िवरोध क धारा चल
रही है । कभी-कभी लोग अमे रक भ से सीधा कह बैठते ह क उनका सं यास या उनक
गो वामी उपािध ामािणक नह है । क तु ील प गो वामी के इस ोक के अनुसार
अमरीक गो वामी तथा आचाय कु ल के गो वामी अिभ ह ।
दूसरी ओर िजस भ को गो वामी क उपािध ा ई हो, क तु उसका िपता
ा ण नह है या वह िन यानंद या अ त
ै भु के गो वामी प रवार म उ प नह आ हो,
तो उसे यह सोचकर झूठे ग वत नह होना चािहए क वह गो वामी बन गया है । उसे यह
सदैव मरण म रखना चािहए क य ही वह भौितक दृि से ग वत हो उठता है, उसका
पतन हो जाता है । यह कृ णभावनामृत आ दोलन एक द िव ान है और इसम ई या या

े के िलए कोई थान नह है । यह आ दोलन उन परमहंस के िलए है, जो सम त ष
े से
रिहत ह (परमं िन म सराणां)। मनु य को यह ई या नह करनी चािहए क वह गो वामी
52

प रवार म उ प आ है या उसे गो वामी क उपािध दान क गई है । य ही कोई ई या


करता है, वह परमहंस के पद से िगर जाता है ।

य द हम वै णव के शारी रक दोष पर यान देते ह, तो यह समझ लीिजये क हम


वै णव के चरणकमल पर अपराध कर रहे ह । वै णव के चरणकमल पर कया गया
अपराध अ य त गंभीर होता है । िन स देह, ी चैत य महा भु ने इस अपराध को हाथी-
माता अथात् उ म हाथी का अपराध कहा है । एक उ म हाथी िवनाश कर सकता है,
िवशेष प से जब वह सु दर कटे- छटे उ ान म वेश कर जाता है । अतएव मनु य को
अ य त सावधान रहना चािहए क उससे कसी वै णव के ित अपराध न हो । येक भ
को े वै णव से उपदेश हण करने के िलए तैयार रहना चािहए और े वै णव को
किन वै णव क सभी तरह से सहायता करने के िलए तैयार रहना चािहए ।
कृ णभावनामृत म अपने आ याि मक िवकास के अनुसार ही कोई कसी से े या िनकृ
होता है । मनु य को भौितक दृि से शु वै णव के काय देखना व जत है । िवशेष प से
नवदीि त ारा शु भ को भौितक दृि से देखा जाना अ य त हािन द है । अतएव शु
भ का बाहरी व प नह देखना चािहए अिपतु उसके आ त रक गुण देखने चािहए और
यह समझने का य करना चािहए क वह भगवान क ेमा भि म कस तरह लगा आ
है । इस कार शु भ को भौितक दृि से देखने से बचा जा सकता है और इस तरह कोई
मनु य वयं भी धीरे -धीरे शु भ बन सकता है ।
जो लोग कृ णभावनामृत को कसी िवशेष वग के लोग , कसी िवशेष वग के भ
या कसी िवशेष भूख ड तक ही सीिमत मानते ह, वे सामा यतया भ के बा ल ण को
देखने के आदी होते ह । ऐसे नौिसिखये उ त भ क उ कृ सेवा को न समझ सकने के
कारण, महाभागवत को अपने जैसे तर पर ले आने का य करते ह । इस कृ णभावनामृत
का संसार भर म सार करने म हम ऐसी क ठनाई का अनुभव होता है । दुभा यवश हम ऐसे
नवदीि त गु -भाइय से िघरे ए ह, जो िव भर म कृ णभावनामृत को सा रत करने के
असाधारण काय को नह समझ पाते । वे के वल हम अपने तर पर लाने का य करते ह
और सभी कार से हमारी आलोचना करने का यास करते ह । हम उनके इन ाकृ त काय
एवं उनके अ प ान पर तरस आता है । एक शि स प ि जो भगवान को गोपनीय
सेवा म वा तव म संल है, उसे सामा य ि नह समझना चािहए, य क यह कहा
जाता है क जब तक कोई कृ ण ारा शि द न हो, तब तक वह सारे संसार म
कृ णभावनामृत आंदोलन का सार नह कर सकता ।

जब कोई इस कार से शु भ क आलोचना करता है, तो वह अपराध करता है


(वै णव अपराध) जो उन लोग के िलए अ यंत बाधक एवं घातक है, जो कृ णभावनामृत म
गित करने के इ छु क ह । जब ि वै णव के चरणकमल पर अपराध करता है, वह कोई
53

आ याि मक लाभ नह उठा सकता। अतएव येक ि को सतक रहना चािहए क वह


शि स प वै णव या शु वै णव के ित ई यालु न हो । इसी तरह शि स प वै णव
पर कसी कार क अनुशासना मक कायवाही का सोचना भी अपराध है । उसे उपदेश देना
या उसक ु टय म सुधार करने का यास करना अपराधपूण है । नवदीि त वै णव तथा
गत वै णव म उनके काय के आधार पर अ तर कया जा सकता है । गत वै णव सदैव गु
पद पर ि थत होता है और नवदीि त सदैव उसका िश य माना जाता है । न तो िश य गु
को उपदेश दे, न ही गु ऐसे ि य का उपदेश हण करे जो उसके िश य नह ह । इस
छठे ोक म ील प गो वामी के उपदेश का यह सार है । ■

ोक ७

या कृ णनामच रता दिसता यिव ा-

िप ोपत रसन य न रोिचका नु ।


क वादरादनु दनं खलु सैव जु ा
वा ी मा वित त गदमूलह ी॥७॥

यात्-ह; कृ ण-भगवान् कृ ण का; नाम-पिव नाम; च रत-आ द-च र , लीलाएँ इ या द;


िसता-िम ी; अिप- य िप; अिव ा-अ ान का; िप -िप से; उपत - पीिड़त; रसन य-
जीभ क ; न-नह ; रोिचका- वा द ; नु-अहा, कतना िविच है यह; कं तु-ले कन;
आदरात् - सावधानीपूवक; अनु दनम्- येक दन या अह नश; खलु - वभावत:; सा-वह
(पिव नाम पी िम ी); एव-िन य ही; जु ा- हण क गई या उ रत; वा ी-
वा द ; मात्- मशः; भवित–हो जाती है; तत्-गद-उस रोग क ; मूल-जड़; ह ी-न
करने वाली ।
54

अनुवाद

कृ ण का पिव नाम, च र , लीलाएं तथा कायकाल सभी िम ी के समान


आ याि मक प से मधुर ह ।य िप अिव ा पी पीिलया रोग से त रोगी क जीभ कसी
भी मीठी व तु का वाद नह ले सकती, ले कन यह आ य क बात है क इन मधुर नाम
का िन य सावधानी पूवक क तन करने से उसक जीभ म ाकृ ितक वाद जागृत हो उठता है
और उसका रोग धीरे -धीरे समूल न हो जाता है ।

ता पय

भगवान कृ ण का पिव नाम, उनके गुण, लीलाएँ इ या द सि दानंद व प ह ।


अतएव वभावत: वे सब को ि य लगने वाली िम ी के समान अ य त मधुर ह । क तु
अ ान क तुलना पीिलया रोग से क गई है, जो िप के ाव से उ प होता है । पीिलया
से त रोगी क जीभ िम ी का वाद नह ले पाती, अिपतु पीिलया के रोगी को मीठी व तु
कड़वी लगती है । इसी कार से अिव ा (अ ान) भगवान कृ ण के द सु वादु नाम, गुण,
प तथा लीला का आ वाद लेने क शि को िवकृ त कर देती है । इस रोग के होते ए
भी य द कोई अ य त सावधानी एवं यान के साथ कृ ण के पिव नाम का क तन करते ए
तथा उनक द लीला का वण करते ए कृ णभावनामृत को वीकार करता है, तो
उसक अिव ा न हो जाएगी और उसक जीभ भगवान क द कृ ित तथा उनके साज-
सामान का मधुर आ वाद ा करने म समथ हो जाएगी। इस कार का आ याि मक
वा य-लाभ कृ णभावनामृत के िनयिमत अनुशीलन ारा ही संभव हो पाता है ।

इस भौितक जगत म जब कोई कृ णभावनामृत क अपे ा भौितक जीवन शैली म


अिधक िच लेता है, तो वह ण अव था म है ऐसा समझा जाता है । सहज अव था तो
भगवान् का सनातन दास बने रहना है ( जीवरे ' व प ' हय-कृ णेर –“िन य दास”)। यह
व थ अव था तब चली जाती है, जब जीव कृ ण क माया शि के बा गुण से आक षत
होकर कृ ण को भूल जाता है । यह माया का संसार दुरा य कहलाता है, िजसका अथ है,
“िम या या बुरी शरण।" जो दुरा य म ा रखता है, उसे िनराशा ही ा होती है । इस
भौितक जगत म येक ि सुखी होने का यास करता है और य िप उसके यास सभी
तरह से िवफल होते ह, क तु अिव ा के कारण वह अपनी ु टय को समझ नह पाता।
लोग एक ु ट को दूसरी ु ट से सुधारना चाहते ह । इस जगत म अि त व टकाए रखने के
55

िलए संघष करने क यही रीित है । य द ऐसी अव था म कसी को कृ णभावनामृत हण


करके सुखी होने क सलाह दी जाती है, तो वह ऐसे उपदेश को वीकार नह करता।

यह कृ णभावनामृत आ दोलन सारे िव म इसी िनपट अ ान को दूर करने के िलए


सा रत कया जा रहा है । सामा य जनता अंधे नेता ारा गुमराह क जाती है । मानव
समाज के नेता चाहे वे राजनीित ह , दाशिनक ह या िव ानी-अंधे ह य क वे
कृ णभावना भािवत नह ह । भगवद् गीता के मतानुसार, चूँ क वे नाि तक जीवन शैली के
कारण सम त वा तिवक ान से वंिचत रहते ह, अतएव वे वा तिवक धूत और मनु य म
अधम ह ।
न मां दु कृ ितनो मूढाः प ते नराधमाः ।
माययाप त ाना आसुरं भावमाि ता ॥

"जो धूत मनु य म अधम, िनपट मूख ह, िजनका ान मोह के ारा अप त हो चुका है और
जो असुर का नाि तकतावादी वभाव धारण कये ह, वे मेरी शरण म नह आते।"
( भगवद गीता ७.१५)

ऐसे लोग कभी भी कृ ण क शरण म नह आते और जो कृ ण क शरण म जाने के


इ छु क ह, उनका वे िवरोध करते ह । जब ऐसे नाि तक लोग समाज के नायक बन जाते ह,
तो सारा वातावरण अिव ा से भर जाता है । ऐसी दशा म लोग इस कृ णभावनामृत
आ दोलन का उ साहपूवक वागत नह कर पाते, िजस तरह क पीिलया रोग से पीिड़त
रोगी िम ी के वाद का आनंद नह ले पाता। क तु मनु य को यह जान लेना चािहए क
िम ी ही पीिलया क एकमा िविश औषिध है । इसी कार मानव क वतमान द िमत
अव था म कृ णभावनामृत ही िव को ठीक करने क एकमा औषिध है, िजसम भगवान
के पिव नाम---हरे कृ ण, हरे कृ ण, कृ ण कृ ण, हरे हरे । हरे राम, हरे राम, राम राम, हरे
हरे -का क तन कया जाता है । य िप कृ णभावनामृत ण ि के िलए अ य त रोचक
नह लगता, फर भी ील प गो वामी क सलाह है क य द कोई भवरोग से अ छा होना
चाहता है, तो उसे इस कृ णभावनामृत को बडी ही सावधानी से तथा यानपूवक हण
करना होगा। मनु य के रोग का उपचार हरे कृ ण महाम के क तन से ार भ होता है,
य क भगवान के इस पिव नाम के क तन से भौितक दशा म मनु य सारी ात
धारणा से मु हो जाएगा (चेतो दपण माजनम्) । अिव ा, जो मनु य क आ याि मक
पहचान क ा त धारणा है, अहंकार को ज म देती है ।
56

असली रोग तो दय म रहता है । क तु य द मन व छ कया जाता है, य द चेतना


शु क जाती है, तो भवरोग से ि को हािन नह हो सकती। मन तथा दय को सम त
ा त धारणा से व छ करने के िलए मनु य को हरे कृ ण महाम का क तन अपनाना
चािहए । यह सरल है और लाभकारी भी है । भगवान के पिव नाम के क तन से मनु य
तुर त ही भौितक अि त व पी विलत अि से मु हो जाता है ।
भगवान के पिव नाम क तन म तीन अव थाएँ ह -- अपराध पूण अव था, अपराध
को कम करने क अव था तथा शु अव था । जो नवदीि त हरे कृ ण मं का क तन
ार भ करता है, तो सामा य प से वह अनेक अपराध करता है । इनम से दस अपराध
मुख ह और य द भ इनसे बचा रहता है, तो उसे अगली अव था के दशन होते ह, जो
अपराध पूण शु क तन के बीच क अव था है । जब कोई शु अव था को पा लेता है, तो
वह तुरंत मु हो जाता है । यही भवमहादावाि िनवापणम् कहलाता है । य ही मनु य
भौितक अि त व पी विलत अि से मु हो जाता है, य ही वह द जीवन का
रसा वादन कर सकता है ।
सारांश यह है क भवरोग से मु होने के िलए मनु य को हरे कृ ण मं का क तन
अपनाना चािहए । कृ णभावनामृत आ दोलन िवशेषतया ऐसा वातावरण उ प करने के
िलए है, िजसम लोग हरे कृ ण मं का क तन कर सके । मनु य को ा के साथ शुभार भ
करना चािहए और जब क तन करने से यह ा बढ़ जाती है, तब वह इस संघ का सद य
बन सकता है । हम लोग सारे िव म क तन मंडिलयाँ भेजते ह और इन मंडिलय का
अनुभव है क िव के उन सुदरू तम भाग म जहाँ कृ ण का कसी को ान तक नह है, हरे
कृ ण महाम हजार ि य को हमारे पड़ाव म आकृ करता है । कु छ भाग म तो इस
म को कु छ दन तक सुनने के बाद लोग िसर मुँडाकर तथा हरे कृ ण महाम का
संक तन करके भ क नकल करने लगते ह । भले ही यह नकल मा हो, ले कन अ छी
व तु का अनुकरण वांछनीय है । अनुकरण करने वाले कु छेक लोग मश: गु ारा दीि त
होना चाहते ह और दी ा के िलए वयं को तुत करते ह ।

य द कोई िन ावान आ, तो उसको दी ा दी जाती है और यह आ था भजन- या


कहलाती है । तब वह धीरे -धीरे हरे कृ ण महाम का ित दन सोलह माला जाप करके
और अवैध मैथुन, मादक , मांसाहार तथा धूत ड़ा से अपने को दूर रख कर भगवान
क भि म सचमुच लग जाता है । भजन- या से मनु य भौितकतावादी जीवन के क मष
से मुि ा कर लेता तब वह न तो कसी होटल या भोजनालय म मांस तथा याज से बने
तथाकिथत वा द ज
ं न खाने जाता है, न ही वह धू पान करने या चाय अथवा कॉफ
57

पीने क परवाह करता है । वह न के वल अवैध मैथुन से दूर रहता है, अिपतु मैथुन-जीवन से
पूणत: बचता है और न ही वह अपना समय तक-िवतक करने या ूत ड़ा म बबाद करता
है । इस तरह से यह समझना चािहए क वह अवांिछत व तु से शु हो रहा है (अनथ
िनवृित:) । अनथ श द अवांिछत व तु का ोतक है । कृ णभावनामृत आ दोलन म
सि मिलत होते ही सारे अनथ न हो जाते ह ।

जब मनु य अवांिछत व तु (अनथ ) से मु हो जाता है, तो वह अपने कृ ण-काय


को स प करने म ि थर हो जाता है । वा तव म वह ऐसे काय म आस होकर भि करन
म उ लास का अनुभव करता है । यह भाव कहलाता है-भगवान् के सु ेम का ारं िभक
उ मेष । इस तरह ब जीव भौितक अि त व से मु हो जाता है और भौितक ऐ य, भौितक
ान तथा सम त कार के भौितक आकषण समेत देहा मबुि से रिहत हो जाता है । ऐसे
समय म मनु य समझ सकता है क- पूण पु षो म भगवान कौन ह और उनक माया या
है।

एक बार भाव दशा ा हो जाने पर माया भ को िवचिलत नह कर पाती, य िप


माया िव मान होती है । इसका कारण यह है क भ माया क वा तिवक ि थित का
दशन कर सकता है । माया का अथ है, कृ ण का िव मरण और कृ ण का िव मरण तथा
कृ णभावनामृत, काश तथा छाया क भाँित पास-पास रहते ह । य द कोई छाया म रहता
है, तो वह काश ारा द सुिवधा का लाभ नह उठा पाता और य द वह काश म
रहता है, तो वह छाया के अंधकार से िवचिलत नह हो सकता। कृ णभावनामृत अपनाने से
मनु य मशः मु हो जाता है और काश म आ जाता है । िन स देह, वह अंधकार का पश
तक नह करता। जैसा क चैत य च रतामृत (म य २२.३१) म पुि ई है:

कृ ण-- सूयसम; माया हय अंधकार ।

याहाँ कृ ण ताहाँ नाही मायार अिधकार ॥


कृ ण क तुलना सूय काश से क गई है और माया क तुलना अंधकार से। जहां धूप होती है
वहाँ अंधकार नह रहता। य ही मनु य कृ णभावनामृत को हण करता है, माया का
अंधकार अथात् बिहरं गा शि का भाव तुर त ही लु हो जाता है ।" ■
58

ोक ८

त ाम पच रता दसुक तनानु-

मृ योः मेण रसनामनसी िनयो य।


ित न् जे तदनुरािग जनानुगामी
कालं नयेदिखलिम युपदेशसारम् ॥८॥

तत- भगवान कृ ण का; नाम-पिव नाम; प- व प; च रत-आ द —च र , लीलाएँ


आ द; सु-क तन-चचा करने या उ म रीित से क तन करने म; अनु मृ योः–तथा मरण
करने म ; मेण-धीरे -धीरे ; रसना-जीभ; मनसी–तथा मन; िनयो य- लगाकर; ित न्
- रहते ए; जे- ज म; तत्- भगवान कृ ण को; अनुरागी - अनुर ; जन- ि ;
अनुगामी - पीछे-पीछे चलते ए ; कालम् - काल या समय को ; नयेत् - उपयोग करना
चािहए; अिखलम्- पूण; इित- इस कार; उपदेश-उपदेश का; सारम् -सार, मूल त व।

अनुवाद

सम त उपदेश का सार यही है क मनु य अपना पूरा समय-चौबीस घ टे - भगवान् के


द नाम, द प, गुण तथा िन य लीला का सु दर ढंग से क तन तथा मरण करने
से लगाए, िजससे उसक जीभ तथा मन मशः त रह। इस तरह उसे ज (गोलोक
वृ दावन धाम ) म िनवास करना चािहए और भ के मागदशन म कृ ण क सेवा करनी
चािहए । मनु य को भगवान् के उन ि य भ के पदिच न का अनुगमन करना चािहए,
जो उनक भि म गाढता से अनुर ह।

ता पय

चूँ क मनु य का मन उसका श ु या तो िम हो सकता है, अतएव उसे मन को अपना


िम बनाने के िलए िशि त करना चािहए । कृ णभावनामृत आंदोलन िवशेष प से मन
59

को िशि त करने के िलए है, िजससे वह सदैव कृ ण के काय म लगा रहे। मन म सैकड़
हजार सं कार ह, जो न के वल इस ज म के ह , अिपतु िवगत अनेकानेक ज म के भी ह ।
कभी- कभी ये सं कार एक दूसरे के स पक म आकर िवरोधी िच उप करते ह । इस
कार मन का काय ब जीव के िलए खतरनाक बन सकता है । मनोिव ान के िव ाथ मन
के िविवध मनोवै ािनक प रवतन से भलीभाँित प रिचत ह । भगव ीता (८.६) म यह
कहा गया है :

यं यं वािप मर भावं यज य ते कलेवरम् ।


तं तमेवैित कौ तेय सदा त ावभािवतः।

“अपना शरीर यागते समय मनु य िजस िजस दशा का मरण करता है, वह दशा उसे
अव य ा होगी।"

मृ यु के समय जीव के मन तथा बुि अगले जीवन के िलए एक िवशेष कार के सू म


व प वाले शरीर का िनमाण करते ह । य द मन सहसा ऐसी व तु के स ब ध म सोचता है,
जो िहतकर नह है, तो उसे अगले ज म म उसी के अनुसार ज म लेना पड़ता है । दूसरी ओर,
य द कोई मृ यु के समय कृ ण का िच तन करता है, तो वह गोलोक वृ दावन नामक वैकु ठ
लोक को भेज दया जाता है । देहा तर क यह िविध अ य त सू म होती है, अतएव ील
प गो वामी भ को अपने मन को िशि त करने का उपदेश देते ह, िजससे वे कृ ण के
अित र और कु छ भी मरण न रख सक। इसी कार जीभ को के वल कृ ण के िवषय म
बोलने के िलए और के वल कृ ण साद चखने के िलए िशि त करना चािहए । ील प
गो वामी आगे सलाह देते ह -ित न् जे– मनु य को वृ दावन म या जभूिम के कसी भी
भाग म रहना चािहए । जभूिम चौरासी ोश के े फल तक मानी जाती है । एक ोश दो
वग मील के बराबर होता है । जब मनु य वृ दावन को अपना आवास बनाता है, तो उसे वहाँ
कसी समु त भ क शरण हण करनी चािहए । इस तरह मनु य को कृ ण तथा उनक
लीला के ही िवषय म सोचना चािहए । इसक और अिधक ा या ील प गो वामी ने
भि रसामृतिस धु (१.२.२९४) म क है:

कृ णं मरन् जनं चा य े ं िनजसमीिहतम् ।


तत् त कथारत चासौ कु या ासं जे सदा॥

“भ को सदैव ज के द े म िनवास करना चािहए और सदैव कृ ण मरन् जनं चा य


े म् अथात् ीकृ ण तथा उनके ि य पाषद के मरण म लगना चािहए । ऐसे पाषद के
60

पदिच न पर चलकर और उनके िन य पथ-िनदशन म आ य लेकर भ भगवान क सेवा


करने के िलए बल इ छा ा कर सकता है ।“

पुन: ील प गो वामी भि रसामृत-िस धु(१.२.२९५),म कहते ह ,

सेवा साधक पेण िस पेण चा िह ।


त ाव िल सुना काया जलोकानुसारतः ॥

“ ज के द े ( ज धाम) म मनु य को परमे र ीकृ ण ' क सेवा भगवान के पाषद


क सी भावना से करनी चािहए और उसे अपने आप को कृ ण के कसी िवशेष संगी के
य मागदशन के अ तगत रखकर उसके पदिच ह पर चलना चािहए । यह िविध साधन
(ब धन को अव था म स प कया जाने वाला आ याि मक अ यास) तथा सा य (भगवत्
सा ा कार) दोन ही अव था म लागू होती है, जब कोई िस -पु ष अथात आ याि मक
प से पूण आ मा होता है ।”

ील भि िस ा त सर वती ठाकु र ने इस ोक पर िन कार से टीका दी है-


"िजसने अभी तक कृ णभावनामृत म िच का िवकास नह कर िलया है, उसे सारी भौितक
ेरणा को याग देना चािहए और समु त िविध-िवधान का, अथात् कृ ण तथा उनके
नाम, प, गुण, लीला आ द के क तन तथा मरण का पालन करते ए अपने मन को
िशि त करना चािहए । इस कार ऐसी व तु के िलए िच उ प करके मनु य को
वृ दावन म रहने तथा कसी यो य भ के िनदशन एवं संर ण म कृ ण के नाम, यश
लीला तथा गुण को मरण करने म अपना समय िबताना चािहए । भि के अनुशीलन के
िवषय म सम त उपदेश का यही सारांश है ।
नवदीि त अव था म मनु य को सदैव कृ ण कथा सुननी चािहए । यह वण दशा
कहलाती है । कृ ण के द पिव नाम का िनर तर वण करने से तथा उनके द प,
गुण तथा लीला के िवषय म वण करने से मनु य वरण-दशा को अथात् वीकृ ित के तर
को ा करता है । इस दशा को ा कर लेने पर वह कृ ण कथा सुनने म अनुर हो जाता
है । जब कोई ऊ म म क तन करने लगता है, तो वह मरणाव था अथात् मरण करने क
अव था को ा करता है । उ त कृ ण- मरण के पाँच िमक अंग ह मृित, धारणा, यान,
अनु मृित तथा समािध। ार भ म कृ ण का मरण थोड़े-थोड़े अ तराल पर खि डत हो
सकता है, ले कन इसके बाद मरण अबाध प से चलता है । जब मरण िनर तर होता है,
तो के ि त होकर वह यान कहलाता है और जब यान िव तृत होकर ि थर हो जाता है, तो
61

वह अनु मृित कहलाता है । अबाध तथा अनवरत अनु मृित से मनु य समािध दशा को ा
होता है । मरण दशा या समािध के पूण िवकिसत हो लेने पर आ मा अपनी मूल वैधािनक
ि थित को समझ सकता है । उस समय वह कृ ण के साथ अपने सनातन स ब ध को भली
भाँित तथा पूणतया समझ सकता है । यह स पि -दशा अथात जीवन क पूणता कहलाती
है।
चैत यच रतामृत म नवदीि त को यह सलाह दी गई है क वे सारी भौितक इ छाएँ
याग द और शा के आदेशानुसार भगवान क िनयिमत भि म लग जाँए। इस कार
नवदीि त भ कृ ण के नाम, यश, प, गुण आ द के िलए अनुराग उ प कर सकता है ।
एक बार ऐसा अनुराग िवकिसत हो जाने पर वह िविध-िवधान का पालन कये िबना भी
कृ ण के चरणकमल क सेवा त काल कर सकता है । यह दशा रागभि कहलाती है,
िजसका अथ है, वयं फू त ेम म क जाने वाली भि सेवा। इस अव था म भ वृ दावन म
कृ ण के कसी िन य पाषद के चरणिच न का अनुगमन कर सकता है । यह रागानुभि
कहलाती है । रागानुभि अथात् वयं फू त भि सेवा शा त-रस म स प क जा सकती
है, जब मनु य अपने को कृ ण क गौव के समान या लकु टी के समान या कृ ण के हाथ क
वंशी के समान या कृ ण के गले म पड़ी पु पमाला के सामान बनने क आकां ा करता है ।
दा य-रस म मनु य, िच क ,प क या र क जैसे सेवक के पदिच न का अनुसरण करता
है । स य-रस म मनु य बलदेव, ीदामा या सुदामा जैसा िम बन सकता है । वा स य-रस
म मनु य न द-महाराज तथा यशोदा के समान बन सकता है और माधुय-रस म, िजसक
िवशेषता दा प य ेम है, मनु य ीमती राधारानी या उनक लिलता जैसी सिखयाँ तथा
उनक दािसयाँ-मंज रय यथा प तथा रित- जैसा बन सकता है । भि के िवषय म सम त
उपदेश का सार यही है ।" ■
62

ोक ९

वैकु ठा िनतो वरा मधुपुरी त ािप रासो सवाद्

वृ दार यमुदारपािणरमणा ािप गोवधन:।

राधाकु डिमहािप गोकु लपतेः ेमामृता लावनात्


कु याद य िवराजतो िग रतटे सेवां िववेक न कः ॥९॥

वैकु ठात् — वैकुठ क अपे ा; जिनत— ज म के कारण; वरा– े ; मधु-पुरी— मथुरा


नामक द नगरी; त अिप— उससे भी े ; रास-उ सवात-रासलीला स प होने के
कारण; वृ दा-अर यम्-- वृ दावन का वन; उदार-पािण --भगवान कृ ण के ; रमणात् —
िविभ कार क ेममयी लीला के कारण; त अिप-उससे भी े ; गोवधन-गोवधन
पवत; राधा-कुं डम् — राधा कुं ड नामक थल; इह अिप–इससे भी े , गोकु ल-पते:—
गोकु ल के वामी कृ ण का; ेम-अमृत— दैवी ेम के अमृत से; आ लावनात-आपू रत
होकर; कु यात्-करेगा; अ य -- इस (राधाकुं ड) का; िवराजत: — ि थत; िग र-तटे —
गोवधन पवत क तलहटी म; सेवाम् — सेवा; िववेक -बुि मान, न — नह ; क: —
कौन।
अनुवाद

मथुरा नामक पिव थान आ याि मक दृि से वैकु ठ से े है, य क भगवान वहाँ कट
ए थे। मथुरा पुरी से े वृ दावन का द वन है, य क वहाँ कृ ण ने रासलीला रचाई
थी। वृ दावन के वन से भी े गोवधन पवत है, य क इसे ीकृ ण ने अपने द हाथ से
उठाया था और यह उनक िविवध ेममयी लीला का थल रहा और इन सब म परम
े ी राधाकु ड है, य क यह गोकु ल के वामी ी कृ ण के अमृतमय ेम से आ लािवत
रहता है । तब भला ऐसा कौन बुि मान ि होगा, जो गोवधन पवत क तलहटी पर
ि थत इस द राधाकु ड क सेवा करना नह चाहेगा?

ता पय
63

आ याि मक जगत (वैकु ठ) पूण पु षो म भगवान क स पूण सृि के तीन चौथाई


भाग म फै ला है और यह सवािधक उ त े है । आ याि मक जगत वभावत: भौितक
जगत से े है, क तु मथुरा तथा उसके िनकटवत े , इस भौितक जगत म होते ए भी
आ याि मक जगत (वैकु ठ) से े माने जाते ह, य क मथुरा म सा ात भगवान वयं
कट ए थे। वृ दावन के भीतरी जंगल मथुरा से े माने जाते ह, य क इनम ऐसे बारह
वन ( ादश-वन) ह, जैसे तालवन, मधुवन, ब लावन इ या द जो भगवान क िविवध
लीला के िलए िस है । इस कार वृ दावन का आ त रक वन मथुरा से े माना जाता
है, क तु इन वन से भी े गोवधन पवत है, य क कृ ण ने इसे देवता के राजा इ
ारा ु होकर क गई मूसलाधार वषा से अपने संगी जवािसय क र ा करने के िलए
अपने कमल सदृश सु दर हाथ से छाते क भाँित उठा िलया था। गोवधन पवत पर ही कृ ण
अपने गोपिम के साथ गौएँ चराते थे और वह पर वे अपनी ि यतमा ी राधा से िमला
करते थे और उसके साथ ेममयी लीला करते थे। गोवधन पवत क तलहटी पर ि थत
राधाकु ड इन सब से े है, य क यह वही थान है, जहाँ कृ ण का ेम उफनता रहता है
। उ को ट के भ राधाकु ड म िनवास करना अिधक पसंद करते ह, य क यह थान
कृ ण तथा राधा रानी के पार प रक सनातन ेम- ापार क अनेक मृितय (रितिवलास)
का थल है ।

चैत य च रतामृत (म य लीला) म कहा गया है क जब ी चैत य महा भु ने


सव थम वृ दावन भूिम के दशन कये, तो वे आर भ म राधाकु ड के थान का पता नह
लगा पाए । इसका अथ यह है क ी चैत य महा भु वा तव म राधा कुं ड के सही थान क
खोज म थे। अंत म उ ह वह पिव थान िमल गया, जहाँ पर एक छोटा सा तालाब था।
उ ह ने उस छोटे से तालाब म ान कया और अपने भ को बताया क यही असली
राधाकु ड है । बाद म भगवान चैत य के भ ारा इस ताल क खुदाई करवाई गई, िजनम
छ: गो वामी, यथा प तथा रघुनाथ दास आ द मुख थे। इस समय वहाँ पर राधाकु ड
नाम से एक िवशाल सरोवर है । ील प गो वामी ने राधाकु ड को अ यािधक मह व
दान कया है, य क ी चैत य महा भु इसे खोज िनकालना चाहते थे। तब ऐसा कौन
होगा, जो राधाकु ड को छोड़कर अ य िनवास करना चाहे ? द बुि से यु कोई भी
ि ऐसा करना नह चाहेगा । ले कन राधाकु ड के मह व को न तो अ य वै णव स दाय
वाले समझ सकते ह । और न ही भगवान चैत य महा भु क भि म अ िच रखने वाले
लोग ही राधा कुं ड के आ याि मक मह व तथा उसक द कृ ित को समझ सकते ह । इस
64

कार राधाकु ड मु यतया गौड़ीय वै णव ारा पूिजत है, जो भगवान् ीकृ ण चैत य
महा भु के अनुयायी ह । ■

ोक १०

क म यः प रतो हरे ः ि यतया ं ययु ािनन-

ते यो ानिवमु भि परमाः म
े क
ै िन ा ततः।
ते य ताः पशुपालप कजदृश ता योऽिप सा रािधका
े ा त दयं तदीयसरसी तां ना येत् कः कृ ती॥१०॥

क म यः-- सम त सकाम क मय क अपे ा; प रत: --सभी कार से; हरे ः–पूण


पु षो म भगवान ारा; ि यतया — ेम भाजन होने के कारण ; ि म् युय:ु —
शा म कहा गया है; ािनन: — ानीजन ; ते य:--उनसे भी े ; ान-िवमु ान
के ारा मु ए; भि -परमाः भि म लगे ए; ेम -एक-िन ा: — िज ह ने ई र का
शु ेम ा कर िलया है; ततः --उनसे भी े ; ते य:— उनसे भी उ तर; ता: — वे;
पशु-पाल-पंकज-दृशः-- गोिपयाँ, जो गाय चराने वाले कृ ण पर सदैव आि त ह; ता य: -
-उन सबसे ऊपर; अिप-िन य ही, सा-वह, रािधका-- ीमती रािधका; े ा--अ यंत
ि य; त त-उसी तरह; इयम् — यह; तदीय- सरसी — उनका सरोवर, ी राधा कुं ड;
ताम — राधाकुं ड क ; न—नह ; आ येत् –शरण लेना चाहेगा; क: -कौन; कृ ती-
अ य त भा यशाली।

अनुवाद
शा का कथन है क सभी कार के सकाम क मय म परमे र ह र उस पर िवशेष
कृ पा करते ह, जो जीवन के उ तर मू य स ब धी ान म उ त होता है । ऐसे ान म
उ त अनेक लोग ( ािनय ) म से जो अपने ान के बल पर ावहा रक प से मु हो
65

जाता है, वह भि हण कर सकता है । ऐसा ि अ य से े है । क तु िजसने कृ ण


का श द ेम वा तव म ा कर िलया है, वह उससे भी े है । गोिपयाँ सम त उ तर
भ से उ कृ ह, य क वे द गोपाल कृ ण पर सदैव आि त रहती ह । गोिपय म से
ीमती राधा रानी कृ ण को सवािधक ि य ह । उनका कु ड कृ ण को उसी कार अ यिधक
ि य है, िजस तरह गोिपय म सवािधक ि य यह राधा रानी। तो ऐसा कौन होगा, जो राधा
कुं ड म नह रहना चाहेगा और उ लास समय भि भाव (अ ाकृ त भाव) से पू रत
आ याि मक शरीर ारा ी ी राधा-गोिव द के द युगल जो िन य ही अपनी
अ कालीय लीला स प करते ह, उनक ेममयी सेवा करना नह चाहेगा। िन स देह, जो
लोग राधाकुं ड के तट पर भि करते ह, वे ा ड म सवािधक भा यशाली ि ह।

ता पय

इस समय ायः: हर ि कसी न कसी सकाम कम म लगा आ है । जो लोग कम


करके भौितक लाभ उठाना चाहते ह, वे कम कहलाते ह । इस भौितक जगत के सारे जीव
माया के जादू से वशीभूत हो गये ह । िव णुपुराण (६.७.६१) म उसका वणन आ है :

िव णुशि ः परा ो ा े ा या तथा परा।


अिव ाकमसं ा या तृतीयाशि र यते ।।

मुिनय ने पूण पु षो म भगवान क शि को तीन को टय म िवभ कया है-


आ याि मक शि , तट था शि तथा भौितक शि । भौितक शि को तीसरी ेणी क
शि (तृतीया शि :) माना जाता है । जो जीव भौितक शि क सीमा के भीतर ह, वे
कभी-कभी इि यतृि के िलए कु कर - सूकर क तरह कठोर म म लगे रहते ह । क तु
इस जीवन म या पु यकम करने पर अगले जीवन म कु छ कम वेद म व णत िविवध य
को स प करने के ित बल प से आक षत होते ह । इस कार अपने पु य के बल पर वे
वगलोक को भेजे जाते ह । वा तव म जो लोग वै दक आदेश के अनुसार ही य करते ह, वे
च लोक तथा उससे ऊपर के लोक को भेजे जाते ह । जैसा क भगव ीता (९.२१) म उलेख
है- ीणे पु ये म यलोकं िवशि त- -अपने तथाकिथत पु यकम के फल के ीण होने पर वे
पुनः: पृ वी पर लौट आते ह, जो म यलोक अथात् मृ यु का थान कहलाती है । य िप ऐसे
लोग अपने पु य कम से वग जा सकते ह और वहाँ हजार वष तक जीवन का आन द ा
66

कर सकते ह, तो भी उ ह अपने पु य कम के फल के ीण होने पर इस लोक म लौटना


पड़ता है ।

यह ि थित सभी सकाम क मय क है, चाहे वे पु य करने वाले ह या पाप करने


वाले। इस ह पर अनेक ापारी, राजनीित तथा अ य ऐसे लोग ह, जो के वल भौितक
सुख म िच रखते ह । वे सभी कार के साधन से धन कमाने का यास करते ह, चाहे वह
साधन अ छा हो या बुरा। ऐसे लोग कम या िनपट भौितकतावादी कहलाते ह । इन कम य
म कु छ िवकम होते ह, जो वै दक ान के मागदशन के िबना ही कम करते ह । जो लोग
वै दक ान के आधार पर कम करते ह, वे भगवान् िव णु क तुि के िलए तथा उनसे
वरदान ा करने के िलए य करते ह । इस कार वे उ तर लोक म उ त होते ह । ऐसे
कम िवकम य से े होते ह, य क वे वै दक िनदश के ित आ ाकारी बने रहते ह और
वे िन य ही कृ ण के ि य ह । भगवद् गीता (४.११) म कृ ण कहते ह- ये यथा मां प ते
तां तथैव भजा यहम्-- "जो िजस प म मेरी शरण म आता है, उसे म तदनुसार फल देता
।ँ " कृ ण इतने दयालु है क वे कम य तथा ािनय क इ छा पू त करते ह, तो फर भ
के िवषय म तो कहना ही या ? य िप कम जन कभी-कभी उ तर लोक को ा कर लेते
ह, क तु जब तक वे सकाम कम के ित आस रहते ह, तब तक उ ह मृ यु के प ात नवीन
भौितक देह धारण करनी होती है । य द कोई पु य कम करता है, तो वग लोक म वह या
तो देवता के म य नवीन शरीर धारण करता है या उसे कोई अ य पद ा होता है,
िजसम वह और अिधक सुख भोग सकता है । दूसरी ओर, जो लोग पापकम म लगे ह, वे
पितत होकर पशु , वृ तथा पौध के प म ज म लेते ह । इस कार जो सकाम कम
वै दक आदेश क परवाह नह करते (िवकम ) वे िव ान् साधु पु ष ारा शंिसत नह
होते। ीम ागवत (५.५.४) म कहा गया है :

नूनं म : कु ते िवकम

य दि य ीतय आपृणोित ।

न साधु म ये यत आ मनोsय-

मस िप लेशद आस देहः ॥

"भौितकतावादी लोग, जो के वल इि यतृि के िलए कु कर सूकर क तरह काय करते ह,


वा तव म पागल ह । वे के वल इि यतृि के िलए सभी कार के ग हत काय करते ह ।
67

भौितकतावादी कायकलाप बुि मान ि के िलए तिनक भी शोभा नह देत,े य क ऐसे


कम करने से मनु य को भौितक शरीर िमलता है, जो दुखमय होता है ।“ मनु य जीवन का
उ े य तीन कार क दुखमय अव था से बाहर िनकलना है, जो भौितक अि त व क
भाग प ह । दुभा यवश सकाम कम धन कमाने तथा येन-के न- कारेण िणक भौितक
सुख-सुिवधा पाने के पीछे पागल ए रहते ह, अतएव वे िन योिनय म पितत होने का
संकट मोल लेते ह । भौितकतावादी लोग इस भौितक जगत म सुखी बनने के िलए मूखतावश
अनेक योजनाएँ बनाते ह । वे यह नह सोचते क उ ह कु छ ही वष जीिवत रहना है ।
िजसका अिधकांश भाग इि यतृि के िलए धन अ जत करने म बीत जाएगा। अ ततोग वा
ऐसे कम मृ यु के साथ धरे के धरे रह जायगे। भौितकवादी यह नह सोचते क इस शरीर को
यागने पर वे िन पशु या पौध या वृ का शरीर धारण कर सकते ह । इस तरह उनके
सारे काय जीवन के उ े य को परािजत करने वाले होते ह । वे न के वल अ ानी के प म
उप होते ह, अिपतु अ ान के धरातल पर यह सोचते ए कम भी करते ह क वे
गगनचु बी इमारत , बड़ी-बड़ी मोटरकार , स माननीय पद आ द के प म भौितक लाभ
भी ा कर रहे ह । वे यह नह जानते क अगले ज म म वे पितत ह गे और उनके सारे
कायकलाप उनके पराभाव या पराजय व प ह गे। यही ीम ागवत (५.५.५) का िनणय
है- पराभव तावद्— अबोधजातः।

अतएव मनु य को आ मा का िव ान (आ मत व) समझने के िलए उ सुक रहना


चािहए । जब तक मनु य आ म त व के उस तर पर नह प च
ँ ता, िजससे वह समझ सकता
है क वह शरीर नह अिपतु आ मा है, तब तक वह अ ान के तर पर रहता है । ऐसे
हजार -लाख अ ानी लोग म से जो अपनी इि य क तुि मा म ही सारा समय गँवाते
रहते ह, कोई एक ि ही ान के तर तक प च
ँ सकता है तथा जीवन के उ तर मू य
को समझ सकता है । ऐसा ि ानी कहलाता है । ानी जानता है क सकाम कम उसे
संसार से बांध दगे और एक शरीर से दूसरे म देहा तर करने के िलए बा य करगे। जैसा क
ीम ागवत म शरीर-ब ध: पद से संकेत दया गया है, जब तक मनु य इि यभोग क कोई
भी धारणा रखता है, तब तक उसका मन सकाम कम म वृ रहता है । इससे वह एक
शरीर से दूसरे म देहा तर करने के िलए बा य होता है ।

इस कार ानी को कम से े माना जाता है, य क वह कम से कम इि यभोग


के अंधे कायकलाप से तो बचता है । यह पूण पु षो म भगवान का िनणय है । य िप ानी
कम य के अ ान से मु हो सकता है, फर भी जब तक वह भि मय सेवा के तर तक नह
प च
ँ जाता, तब तक वह अ ान (अिव ा) म ि थत है ऐसा माना जाता है । भले ही कोई
68

ानी या ान म उ त मान िलया जाये, क तु उसका ान अशु माना जाता है, य क


उसे भि मय सेवा का पता नह रहता है, और इस तरह वह पूण पु षो म भगवान के
चरणकमल क य सेवा क उपे ा करता है ।

जब ानी भि मय सेवा म संल होता है, तो वह सामा य ानी क तुलना म शी


े बन जाता है । ऐसा समु त ि ानिवमु भि परम कहलाता है । ानी िजस तरह
भि मय सेवा हण करता है, उसका उ लेख भगव ीता (७.१९) म आ है, िजसम कृ ण
कहते ह :

ब नां ज मनाम ते ानवा मां प ते ।

वासुदव
े : सविमित स महा मा सुदल
ु भः ॥

“जो अनेकानेक ज मा तर के बाद वा तव म ान ा कर लेता है, वह मुझे सम त कारण


तथा येक व तु का कारण जानकर मेरी शरण म आता है । ऐसा महा मा अ यंत दुलभ
होता है ।" वा तव म चतुर पु ष वही है, जो कृ ण के चरणकमल क शरण हण करता है,
ले कन ऐसा महा मा अ य त दुलभ होता है ।

िविध-िवधान के अनुसार भि वीकार करने के बाद नारद तथा सनक-सनातन


जैसे परम भ के पदिच न पर चलकर मनु य ई र के सहज ेम के पद को ा कर
सकता है । तब पूण पु षो म भगवान् उसे े मानने लगते ह । िजन भ ने ई र- ेम
िवकिसत कर िलया है, वे िन य ही उ पद पर ह ।

सम त भ म गोिपयाँ े मानी जाती ह, य क वे कृ ण को तु करने के


अित र और कु छ भी नह जानत । न ही वे कृ ण से बदले म कु छ आशा करती ह ।
िन स देह, कभी-कभी कृ ण ही उनसे अपने को िवलग करके उ ह अतीव क दान करते ह।
फर भी वे कृ ण को भूल नह सकत । जब कृ ण वृ दावन से मथुरा चले गये, तो गोिपयाँ
अ यिधक िनराश हो गई और उ ह ने अपना शेष जीवन के वल कृ ण के िवयोग म रो-रो कर
िबता दया। इसका अथ यह आ क एक तरह से वे वा तव म कृ ण से िवलग कभी नह
ई। कृ ण का िच तन करने तथा उनके संग रहने म कोई अंतर नह है । युत िव ल भ
सेवा जो िवयोग म कृ ण का िच तन है, जैसा क ी चैत य महा भु ने कर दखाया, कृ ण
क य सेवा करने से बेहतर है । इस कार िजतने सारे भ ने कृ ण के िलए अन य
भि ेम िवकिसत कया है, उनम गोिपयाँ े ह और इन उ गोिपय म भी ीमती
राधारानी सव ह। ीमती राधा रानी क भि से कोई भी आगे नह बढ़ सकता। यहाँ
तक क कृ ण भी ीमती राधारानी के भाव को समझ नह पाते अतएव वे उनका (राधा
69

का) भाव हण करके ी चैत य महा भु के प म कट ए, िजससे वे उनके द


मनोभाव को समझ सक।
इस कार ील प गो वामी मशः यह िन कष िनकालते ह क ीमती राधारानी
कृ ण क सव े भ ह और उनका कु ड, ीराधाकु ड, सवािधक पू य थल है । इसक
पुि लघु भागवतामृत ( उ राखंड ४५) के एक उ रण से होती है, िजसे चैत य च रतामृत
म दया गया है :

यथा राधा ि या िव णो त याः कु डं ि यं तथा।


सव गोपीषु सैवैका िव णोर य तव लभा ॥

“िजस कार ीमती राधारानी भगवान कृ ण (िव णु) को ि य ह, उसी कार उनके ान
का थान (राधाकु ड) भी उ ह उतना ही ि य है । सम त गोिपय म वे ही अके ले भगवान
क परम ि या के प म ह ।"

अतएव कृ णभावनामृत म िच रखने वाले येक ि को अ ततः राधाकु ड क


शरण हण करनी चािहए और वहाँ रहकर आजीवन भि , करनी चािहए । उपदेशामृत के
दसव ोक म प गो वामी का यही िन कष है । ■
70

ोक ११

कृ ण यो ःै णयवसितः य
े सी योऽिप राधा
कु डं चा या मुिनिभरिभत तादृगव
े धािय ।
य े रै यलमसुलभं कं पुनभि भाजां
त म
े द
े ं सकृ दिप सरः ातुरािव करोित ॥ ११ ॥

कृ ण य-- भगवान् ीकृ ण का; उ ैः-अ यिधक ऊँचा; णय-वसित— ेम का पा ;


ेयसी यः-अनेक ेयसी गोिपका म से; 'अिप-िन य ही; राधा- ीमती राधारानी;
कु डम्-सरोवर; च-भी; अ या:-उनका; मुिनिभ: - मुिनय के ारा; अिभतः-सभी कार
से; तादृक एव- उसी तरह; धािय-व णत है; यत्- जो; े ःै - परमो भ ारा;
अिप-भी; अलम्- पया ; असुलभम् - ा करना क ठन; कम- या; पुनः- फर;
भि -भाजाम्-भि म लगे ए ि य के िलए; तत-वह; ेम- ई र ेम; इदम्- यह;
सकृ त्-एक बार; अिप-भी; सर:-सरोवर, ातु:- िजसने ान कर िलया है; अिव करोित-
कट कर देता है ।

अनुवाद
अनेक आमोद क व तु तथा जभूिम क सम त ेयसी बाला म से ीमती राधारानी
िन य ही कृ ण ेम क सवािधक अमू य िनिध ह । हर कार से उनका द कु ड मुिनय
ारा कृ ण को उतना ही ि य व णत कया गया है । िन स देह, राधाकु ड महान् भ के
िलए भी अ य त दुलभ है, अतएव सामा य भ के िलए इसे ा करना तो और भी क ठन
है । य द कोई इसके पिव जल म के वल एक बार ान कर ले, तो उसम कृ ण के िलए शु
ेम पूणतः कट हो जाता है ।
ता पय

राधाकु ड इतना पू य य है? यह सरोवर इसिलए पू य है, य क यह ीमती राधारानी


का है, जो ीकृ ण क सवािधक ि य पा ा ह । वे सम त गोिपय म से सवािधक ि य ह ।
71

इसी कार उनका सरोवर ीराधाकु ड भी बड़े-बड़े मुिनय ारा ऐसे सरोवर के प म
व णत कया गया है, जो कृ ण को सा ात् राधा के ही समान ि य है । िन स देह, राधाकु ड
तथा ीमती राधा के िलए कृ ण का ेम सभी तरह से एक-जैसा है । यह राधाकु ड भि म
पूरी तरह संल बडे-बडे पु ष तक के िलए अ य त दुलभ है, तो फर उन सामा य भ के
िलए या कहा जाये, जो के वल वैधीभि के अ यास म लगे रहते ह ?

ऐसा कहा जाता है क जो भ राधा कुं ड म एक बार ान कर लेता है, वह तुर त


कृ ण के ित गोिपय जैसा ेमभाव उ प कर लेता है । ील प गो वामी सं तुित करते
ह क य द कोई राधाकु ड के कनारे थायी प से न भी रह सके , तो कम से कम िजतनी
बार हो सके इस सरोवर म ान तो कर ही ले। भि स प करने म यह सबसे मह वपूण
बात है । इस संग म ील भि िवनोद ठाकु र िलखते ह क जो लोग ीमती राधा रानी क
सिखय तथा िव ासपा दािसय (मंज रय ) के प म अपनी भि िवकिसत करने के
इ छु क ह, उनके िलए राधाकु ड सव े थान है । जो लोग अपने आ याि मक शरीर
(िस -देह) को पाकर भगवान के द धाम, गोलोक वृ दावन लौट जाने के इ छु क ह, उ ह
राधाकु ड म रहना चािहए, उ ह ीराधारानी क िव ासपा दािसय क शरण हण
करनी चािहए और उ ह के िनदशन के अनुसार िनर तर ी राधा क सेवा करनी चािहए ।
जो लोग ी चैत य महा भु के संर ण म भि करते ह, उनके िलए यह सव े िविध है ।
इसके स ब ध म ील भि िस ा त सर वती ठाकु र देखते ह क नारद तथा सनक जैसे बड़े-
बड़े मुिन एवं परम भ भी राधाकु ड तक आकर एक बार ान करने का अवसर ा नह
कर पाते, तो फर सामा य भ के िवषय म या कहा जाये ? य द कोई महान्
सौभा यवश राधाकु ड तक आने और एक बार भी ान करने का अवसर ा कर लेता है,
तो वह कृ ण के ित वैसा ही द ेम िवकिसत कर सकता है, िजस तरह गोिपय ने कया
था। यह भी सं तुित क गई है क मनु य राधाकु णड के तट पर िनवास कर और भगवान क
ेममयी सेवा म त लीन रहे । उसे िनयिमत प से वहाँ ान करना चािहए और
ीराधारानी तथा उनक सहायक-गोिपय क शरण हण करके सारी भौितक धारणा
का प र याग कर देना चािहए । य द कोई जीवन भर इसी तरह संल रहता है, तो शरीर
छोड़ने पर वह ी राधा क वैसी ही सेवा करने के िलए भगवान के पास लौट जाएगा,
जैसा क उसने अपने जीवन म राधा कुं ड के कनारे रहकर सोचा था। िन कष यह है क राधा
कुं ड के कनारे रहना तथा िन य उसम ान करना भि क सव िसि है । नारद जैसे
महान् ऋिषय तथा भ के िलए भी इस पद को ा कर पाना क ठन है । इस कार ी
राधा कुं ड क मिहमा क कोई सीमा नह है । राधा कुं ड क सेवा करने से मनु य गोिपय के
शा त मागदशन म रहकर ीमती राधारानी के सहायक बनने का अवसर ा कर सकता
है । ■
72

लेखक प रचय
कृ ण कृ पा मू त ी ीमद् ए.सी. भि वेदा त
वामी भुपाद का आिवभाव १८९६ ई. म भारत के
कलक ा नगर म आ था। अपने गु महाराज ील
भि िस ांत सर वती गो वामी से १९२२ म कलक ा म
उनक थम बार भट ई। एक सु िस धम त ववेता,
अनुपम चारक, िव ान-भ , आचाय एवं चौसठ गौड़ीय
मठ के सं थापक ील भि िस ा त सर वती को ये
सुिशि त नवयुवक ि य लगे और उ ह ने वै दक ान के
चार के िलए अपना जीवन सम पत करने क इनको ेरणा दी। ील भुपाद उनके छा
बने और यारह वष बाद (१९३३ ई.) याग (इलाहाबाद) म िविधवत् उनके दी ा-
ा िश य हो गए।

अपनी थम भट म ही ील भि िस ांत सर वती ठाकु र ने ील भुपाद से


िनवेदन कया था क वे अं ेजी भाषा के मा यम से वै दक ान का सार कर। आगामी वष
म ील भुपाद ने भगव ीता पर एक टीका िलखी, गौड़ीय मठ के काय म सहयोग दया
तथा १९४४ ई.म िबना कसी क सहायता के एक अं ज
े ी पाि क पि का आर भ क ।
उसका स पादन, पा डु िलिप का टकण और मु त साम ी के फ
ू शोधन का सारा काय वे
वयं करते थे। अब यह पि का उनके िश य ारा चलाई जा रही है और तीस से अिधक
भाषा म छप रही है।

ील भुपाद के दाशिनक ान एवं भि क मह ा पहचान कर गौड़ीय वै णव


समाज ने १९४७ ई. म उ ह भि वेदान उपािध से स मािनत कया। १९५० ई. म ील
भुपाद ने गृह थ जीवन से अवकाश लेकर वान थ ले िलया, िजससे वे अपने अ ययन और
लेखन के िलए अिधक समय दे सक। तदन तर ील भुपाद ने ी वृ दावन धाम क या ा
क , जहाँ वे अ य त साधारण प रि थितय म म यकालीन ऐितहािसक ीराम दामोदर
मं दर म रहे। वहाँ वे अनेक वष तक ग भीर अ ययन एवं लेखन म संल रहे। १९५९ ई.
म उ ह ने सं यास हण कर िलया। ी राधा-दामोदर मं दर म ही ील भुपाद ने अपने
जीवन के सबसे े और मह वपूण काय को ार भ कया था। यह काय था अठारह हजार
ोक सं या वाले ीम ागवत पुराण का अनेक ख ड म अं ेजी म अनुवाद और ा या।
वह उ ह ने अ य लोक क सुगम या ा नामक पुि तका भी िलखी थी।
73

ीम ागवतम् के ार भ के तीन ख ड कािशत करने के बाद ील भुपाद


िसत बर १९६५ ई. म अपने गु देव के आदेश का पालन करने के िलए संयु रा य
अमे रका गए। त प चात् ील भुपाद ने भारतवष के े दाशिनक और धा मक थ के
ामािणक अनुवाद, टीकाएँ एवं संि अ ययन-सार के प म साठ से अिधक थ- तुत
कए।

जब ील भुपाद एक मालवाहक जलयान ारा थम बार यूयाक नगर म आये,


तो उनके पास एक पैसा भी नह था। अ य त क ठनाई भरे लगभग एक वष के बाद जुलाई
१९६६ ई. म उ ह ने अंतरा ीय कृ णभावनामृत संघ क थापना क । १४ नव बर
१९७७ ई. को, कृ ण-बलराम मं दर, ीवृ दावन म अ कट होने के पूव ील भुपाद ने
अपने कु शल माग िनदशन से संघ को िव भर म सौ से अिधक आ म , िव ालय , मि दर ,
स था और कृ िष-समुदाय का बृहद् संगठन बना दया।

ील भुपाद ने ीधाम-मायापुर, पि म बंगाल म एक िवशाल अ तरा ीय के के


िनमाण क ेरणा दी। यह पर वै दक सािह य के अ ययनाथ सुिनयोिजत सं थान क
योजना है, जो अगले दस वष तक पूण हो जाएगा। इसी कार ीवृ दावन धाम म भ
कृ ण-बलराम मं दर और अंतरा ीय अितिथ भवन तथा ील भुपाद- मृित सं हालय का
िनमाण आ है। ये वे के है जहाँ पा ा य लोग वै दक सं कृ ित के मूल प का य
अनुभव ा कर सकते ह। मुंबई म भी ीराधारासिबहारीजी मि दर के प म एक िवशाल
सां कृ ितक एवं शै िणक के का िवकास हो चुका है। इसके अित र भारत म द ली,
बगलूर, अहमदाबाद, बड़ौदा तथा अ य थान पर सु दर मि दर है।

क तु ील भुपाद का सबसे बड़ा योगदान उनके थ ह। ये थ िव ान ारा


इनक ामािणकता, गंभीरता और प ता के कारण सवािधक वीकाय ह और अनेक
महािव ालय म उ तरीय पा ंथ के प म यु होते ह। ील भुपाद क
रचनाएँ ५० से अिधक भाषा म अनू दत ह। १९७२ ई. म के वल ील भुपाद के थ
के काशन के िलए थािपत भि वेदा त बुक ट, भारतीय धम और दशन के े म िव
का सबसे बड़ा काशक बन गया है। इस ट का एक अ यिधक आकषक काशन ील
भुपाद ारा के वल अठारह मास म पूण क गई उनक एक अिभनव कृ ित है, जो बंगाली
धा मक महा थ ी चैत य च रतामृत का स ह ख ड म अनुवाद और टीका है।

बारह वष म, अपनी वृ ाव था क िच ता न करते ए ील भुपाद ने िव के


छह महा ीप क चौदह प र माएँ क । इतने त काय म के रहते ए भी ील
74

भुपाद क उवरा लेखनी अिवरत चलती रहती थी। उनक रचना से वै दक दशन, धम,
सािह य और सं कृ ित का एक यथाथ थागार थािपत आ है। ■
75

You might also like