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CHATURSEN-Vayam Raksham (Hindi)
CHATURSEN-Vayam Raksham (Hindi)
वयं र ाम:
ाचीन युग क पृ भूिम पर आधा रत
एक महान् मौिलक उप यास
आचाय चतुरसेन
ISBN : 9788170281351
सं करण : 2014 © आचाय चतुरसेन
VAYAM RAKSHAMAH (Novel) by Acharya Chatursen
राजपाल ए ड स ज़
1590, मदरसा रोड, क मीरी गेट– द ली–110006
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सकलकलो ािसत–प य–सकलोपधा–िवशु –मखशतपूत– स मू त–
ि थरो त–होमकरो वल– योित य ितमुख– वाधीनोदारसार– थिगतनृपराज य–
शतशतप रलु ठन् मौिलमािण य रोिचचरण–ि यवाचा–मायतन–साधुच रतिनके तन–
लोका यमागत –भारत–गणपितभौम महाराजािभध– ीराजे सादाय जातश वे
अ गणत ा ये पु याहे भौमे माघमासे िसते दले तृतीयायां वै मीये
कलाधरे रशू यने ा दे िनवेदयािम सा िल: वीयं सािह य–कृ तं ‘वयं र ाम:’ इित
सामोदमहं चतुरसेन:।
अंतव तु
पूव िनवेदन
1. ितल–तंदल
ु
2. तू न थम है, न अि तम
3. अब से सात सह ा दी पूव
4. मनुभरत
5. लय
6. व ण ा
7. आ द य
8. दै य–दानव
9. देवासुर–सं ाम
10. व पािण दै ये
11. वणपुरी लंका
12. लघु अिभयान
13. दानव मकरा
14. जल–देव
15. वाचे पु षमालभेत
16. सु बा ीप म
17. मधुयािमनी
18. वण–लंका म
19. इ
20. तारकामय
21. आयावत
22. मानव
23. पु रवा और उसके वंशधर
24. वा ा
25. देवे –न ष
26. पौरव
27. दाशराज–सं ाम
28. आनत
29. उ रकोशल
30. अनाय जन
31. रा से रावण
32. रावण का भारत– वेश
33. द डकार य
34. असुर का देश
35. वैजय तीपुरी
36. मायावती
37. असुर का िव म
38. श बर–सं ाम
39. सहगमन
40. ग धव क नगरी म
41. ग धवपुरी से थान
42. कि क धापुरी म
43.
44. देवािधदेव
45. देव–साि य
46. गु ाद् गु तमम्
47. लंग पूजा
48. माया का वष–न
49. ेय और ेय
50. आरोह त पम्
51. राजकु मार का दूषण
52. िनकु भला–य ागार
53. अ तःपुर म
54. सूपनखा
55. िव ुि न
56. मातृवध
57. ितगमन
58. यमिज ना
59. अ मपुरी का यु
60. विश –िव ािम
61. हैहय कातवीय सह ाजुन
62. मािह मती का यु
63. रावण क मुि
64. मधुपुरी
65. आयावत म वेश
66. धनुष–य
67. सावभौम रावण
68. उरपुर
69. सारं सुरमि दरम्
70. अमरावती म
71. लंका क ओर
72. रं ग म भंग
73. सुभ वट
74. र –कू ट ीप
75. राम
76. म थरा का कू ट तक
77. कै के यी का ी–हठ
78. वन–गमन
79. हरण
80. जटायु का आ मय
81. अशोक वन म
82. वार वे म
83. इ –मोचन
84. ऐ ािभषेक
85. सुलोचना
86. अशोक वन
87. हा सीते!
88. बािल–वध
89. सीता क खोज म
90. सागर–तरण
91. लंका म अ वेषण
92. सीता–सा मु य
93. परा म का संतुलन
94. अिभगमन
95. ि य–िनवेदन
96. अिभयान
97. जग यी का कामवैक य
98. राजसभा
99. शर यं शरणम्
100. रणभेरी
101. र ा–कवच
102. राम– ूह
103. सं ाम
104. हष–िवषाद
105. तुमुल यु
106. महातेज कु भकण
107. जगदी र का वैक य
108. रथी का अिभगमन
109. मेघनाद अिभषेक
110. देवे का औ सु य
111. धूज ट के साि यम
112. अिभसार
113. देवदूत
114. समागम
115. वैदह
े ी–वैक य
116. कू ट योग
117. जनरव
118. रथी –वध
119. व पात
120. देवानु ह
121. सीदतु देव:!
122. सुसंवाद
123. अ पािण रावण
124. िवश यासंजीवनी
125. सि ध–िभ ा
126. िचतारोहण
127. वध
पूव िनवेदन
ानधाम– ित ान
शाहदरा, द ली
26 जनवरी, 1955
–चतुरसेन
1.उ भा य इसी उप यास के शारदा काशन, भागलपुर ारा कािशत दूसरे सं करण म
देखा जा सकता है।
वयं र ाम:
1. ितल-तंदल
ु
द क सबसे बड़ी पु ी दित थी। उसका वंश दै य वंश कहलाया। दित के मरीिच
से चार पु ए–िहर यकिशपु, िहर या , व ांग और अ क।
िहर यकिशपु के चार पु ए– लाद, अनु लाद, लाद और सं लाद।
लाद के चार पु ए–आयु मान्, िशिव, वा किल और िवरोचन। िवरोचन का
पु बिल आ। बिल के ब त पु ए, ये पु बाण आ। बाण अजेय यो ा था। उसे
महाकाल कहते थे। व ांग का पु तारक था। ये सब अपने-अपने समय के तापी दै य
राजा ए।
िहर या के उ कू र, शकु िन, मूतसंतापन, महानािभ, महाबा और कालनाभ ये
परा मी पु ए, िजनके पु -पौ का अन त िव तार आ।
द क तीसरी क या दनु भी क यप को ही दी गई थी। दनु को क यप से श बर,
शंकर, एक क, महाबा , तारक, वृषपवा, पुलोमा, िव िचि मय आ द पु ए। वृषपवा
क पु ी श म ा से ययाित का याह आ। पुलोमा और कािलका नामक दो क याएं भी दनु
को , िजनके पृथक् वंश पौलोम और कािलके य चले। ये सब दानव वंश कहाए।
िहर यकिशपु क एक बहन थी, िजसका नाम संिहका था। वह दानव िव िचि को याही
थी। इसके वंश म श य, वातािप, नमुिच, इ वल, नरक, कालनाभ, च योधी, रा आ द
तेरह वीर पु ए। ये सब सिहके य कहाए, िजनम रा अ य त भयंकर िस आ। िनिवत
और कवच, जो सं लाद के वंश म थे, तप वी हो गए।
का यप सागर-तट से लेकर गज़नी, िहरात, हरम, कुं जशहर, खुरासान, बुखारा,
गलदमन, शंकारा, इक, शाकटा रया, वशपुर, वा पोरस, कश आ द देश म इसी दै य-वंश
का िव तार आ। वृषपवा सी रया का राजा था।
िहर यकिशपु ने अपनी नई राजधानी िहर यपुर बसाई थी, जो एक स प नगरी
हो गई थी। उधर उसका भाई िहर या बेबीलोन का अिधपित था। दै य और दानव के
और भी रा य आसपास थे। इस कार समूचे एिशया माइनर का देश इन दो महाशि य
म बंटा आ था। एक तरफ दै य-दानव के रा य थे, दूसरी ओर आ द य के , जो देव कहाते
थे। बल के संतुलन म दै य ही का पासा ऊंचा था, य क एक तो वे ये थे, दूसरे उनके
रा य स प थे। उनका संगठन अि तीय था। पर तु इस भूिम म दो जाितयां और भी
िनवास करती थ : एक ग ड़ और दूसरी नाग। दित, अ दित, दनु–इन तीन ि य के
अित र क यप क दो ि यां और थ –एक क ,ू दूसरी िवनता। क ू क संतान म छ बीस
नाग वंश चले। नाग म शेष, वासु क, कक ट, त क, धृतरा , धनंजय, महानील, अ तर,
पु पद त, शंखरोमा आ द बल राजा थे। िवनता के दो पु थे–ग ड़ और अ ण। अ ण के
दो पु ए–स पाित और जटायु। इनके भी अनेक पु ए।
9. देवासुर–सं ाम
मनु का नाम िवमाता के नाम पर साव ण मनु और िपता के नाम पर वैव वत मनु
िस आ। वा तव म मनु ने ही आय जाित क थापना क , िजसम िपतृमूलक कु ल-वण-
व था और वेद- ामा य क िवशेषता थी। अ य वै दक ॠिषय के अित र
व ण,सूय,यम,शिन आ द क भांित मनु भी म ा वेद ष थे । पर तु उ ह ने
द ड व था और राज व था का शा सा रत कया, जो मानव धमशा कहाया। मनु
के नौ वंशकर पु ए जो सूयवंश क नौ शाखा के मूलपु ष थे। इ ह के वंशज मानव
कहाए। सं ेप म यह कहा जा सकता है क के वल सूयवंशी ही अपने को ‘मानव’ कह सकते
ह, दूसरे नह ।
मनु के इन वंशकर पु म न र य त, नाभाग, धृ , शयाित, करे षु और पृ ु के
पृथक् -पृथक् कु ल चले; िजनम नाभाग और शयाित के कु ल अिधक िस ए। इस कु ल म
भी अनेक म ा ॠिष ए। मानव का सातवां कु ल नाभाने द का था। इसका पु
भालन दन वै य हो गया। पर तु वह ॠिष था। नाभाने द को कोई रा य नह िमला,
उसके पु भालन दन को कु छ धन िमला, उससे उसने वै यवृि अिधकृ त कर ली।
भालन दन का पु व सि य भालन दन वै य ॠिष था। पृ ु क स तान शू हो गई।
मनु के आठव पु का कु ल ांशु का है। यही कु छ पीछे वैशाली का यात कु ल
आ। इसी कु ल म च वत म त् राजा आ।
मनु का सबसे ये पु इ वाकु अयो या म रहा। यही सूयकु ल िस आ, और
ब त िस आ। इस कु ल क अनेक शाखाएं चल । इसी कु ल म उ तालीसव पीढ़ी म
राम ने ज म िलया। िस पु ष म िवकु ि , शशाद, ककु थ, आद, युवना , बृहद ,
मा धाता, पु कु स, अ बरीष, रघु, अज और दशरथ ए।
इस कु ल क तीसव पीढ़ी म अनर य राजा आ। उसक पृथक् ग ी उ र कोशल
क दूसरी शाखा थािपत ई। िव यात ैया ण, स य त और ह र इसी शाखा म
ए। राम से के वल एक ही पीढ़ी पहले बा ने उ र कोशल वंश क तीसरी नई शाखा
थािपत क , िजसम सगर और भगीरथ ए। पतीसव पीढ़ी म अयुतायुस ने दि ण कोशल
राजवंश क न व डाली, िजसम ॠतुपण, सुदास, िम सहक माषपाद राजा िस ए।
यह रा य वतमान रायपुर, िवलासपुर और स भलपुर के आसपास था। इसक राजधानी
ीपुर थी। इसी वंश क िवदेह म मैिथल शाखा इ वाकु के भाई ने थािपत क , िजसम
िनिम, िमिथ, जनक सीर वज, वीतह िस राजा ए। मैिथल क एक शाखा मूल
शाखा से सतीसव पीढ़ी म बसी, िजसम कु श वज कृ त वज, आ द ए। तीसरी मैिथल
शाखा ॠतुिजत् क फटी िजसम सीर वज जनक–राम के सुर ए।
दि ण कोशल राजवंश के राजा ॠतुपण के यहां नल ने गु वास कया था। नल
उ र पांचाल-नरे श के स ब धी थे, उनक पु ी इ सेना पांचाल-नरे श के पु मु ल को
याही थी, जो वेद ष थे।
मु ल के पु व के पु और पु ी दवोदास और अह या थे। अह या का याह
शर त गौतम से आ था। इ वाकु के बाद तीसरी पीढ़ी ही म िवदेह का सूयवंश थािपत
हो चुका था िजसक तीन ग यां थ –एक मैिथल, दूसरी संका य, तीसरी ॠतुिजत्।
मनु के नौ कु ल मानव कहाते थे। पर तु इ वाकु क सबक सब शाखा के कु ल
सूयवंशी कहाते थे। उनका नाम सूयम डल था।
23. पु रवा और उसके वंशधर
च -पु बुध अपने सुर वैव वत मनु के साथ भारत म आ बसे थे–यह पाठक
जानते ह। उ ह ने गंगा-यमुना के संगम पर ित ान नगरी बसा च दवंश क थापना क
थी। बुध बड़े भारी अथशा ी और हि तशा ी थे। अपने दादा दै य-गु शु से उ ह ने ये
िव ाएं सीखी थ । उनके पु पु रवा और भी तापी ए। उ ह अपने िपता का ित ान
का रा य तो िमला ही, िपतामह का इलावत का रा य भी िमला। अत: उनका मह व
असुर- देश से आयावत तक ापक हो गया। उ ह ने चौदह ीप जय कए। के वल इतना
ही नह , पु रवा म ा ॠिष भी थे। वे बड़े ही तेज वी, स यवान्, अ ितम व पवान्
और दानशील थे। उ ह ने अनेक य ाि य का आिव कार कया था। पु रवा के दादा च
ने उ ह एक द रथ दया था, िजसका नाम सोमद था। यह रथ ह रण-के तन का था।
उनके ासाद का नाम मिणह य था।
मरीिच-पु सूय और द पित व ण भाई भी थे और बा धव भी। व ण दै यगु
शु के दामाद थे और सूय शु पु व ा के दामाद। इस कार व ण सूय के फू फा हो गए
थे। एक बार ऐसा आ क मरीिच-पु सूय ने उरपुर क अ सरा उवशी को अपने िवलास-
क म बुलाया। देवलोक म ऐसी ही प रपाटी थी। उ ह ने वैयि क कु टु ब- था पूणतः
थािपत नह क थी। धन-स पि , ी–पु , कसी पर भी देवलोक म ि गत अिधकार
न था। सब कु छ सावजिनक था। उवशी सोलह शृंगार कर मरीिच-पु सूय के पास िवलास-
क म जा रही थी। छह ॠतु म िखलने वाले सुगि धत पु प के आभूषण पहने, देह म
अंगराग लगाए, के श म अ लान पा रजात-पु प गूंथे, वह अपूव शोभा क िनिध लग रही
थी। उसके बड़े-बड़े ने आकषक थे। उसका च िब ब-सा मुख, बं कम भ ह, गजराज क
सूंड़ के समान जंघाएं, सुडौल भारी िनत ब और वण-कलश से सुढार कु च को देख
ािणमा म काम-संचार हो रहा था। माग म उसे द पाल व ण िमल गए। उस समय
उवशी के ृंगार और प-वैभव को देख द पाल व ण काम-िवमोिहत हो गए और उसे
अपने िवलास-क म चलने को कहा। पर तु उवशी ने िवन भाव से द पाल व ण को
कहा–‘‘देव, इस समय तो मेरी यह देह आपके छोटे भाई सूयदेव के अधीन है। उ ह के िलए
मने यह ृंगार कया है। उ ह के बुलाने पर म उ ह रित-संतु करने को जा रही ।ं
इसिलए आपका मनोरथ म पूरा नह कर सकती।’’ पर तु व ण ने उसका अनुनय वीकार
नह कया । उसे जबद ती अपने िवलास-क म ले गए । व ण-देव क सेवा से िनवृ
होकर जब वह सूयदेव के िनकट प च ं ी, उस समय उसका ृंगार खि डत हो गया था,
आभूषण िततर-िबतर हो चुके थे, पु पाभरण दल-मल कर ीहीन हो गए थे। उसक दशा
म गज ारा मिथत कमिलनी क -सी हो रही थी। उसक यह दशा देख और इतने िवल ब
से आने के कारण सूयदेव अ य त ु ए। वह पीपल के प े क भांित कांपती ई सूयदेव
के चरण म िगर गई, और कहा–‘‘हे सु त, मेरा दोष नह है, मने आप ही के िलए शृंगार
कया था, और आप ही के पास आ रही थी क आपके भाई और फू फा द पाल व ण मुझे
जबद ती पकड़कर अपने िवलास-क म ले गए। अवश मुझे यह शृंगार उ ह अ पत करना
पड़ा।’’ इस पर अ य त ु होकर सूयदेव ने कहा-“अरी दुराचा रणी,मुवास वादा करके
दूसरे के पास य गई?” उ ह ने उसे देवलोक से िनकाल दया। काल पाकर उसने एक
बालक को सव कया और फर नवीन शृंगार कर सूयदेव को स कर उ ह तृ कया।
सूयदेव के औरस से भी उसे एक पु क उपलि ध ई। काला तर म वे दोन बालक युवा
होने पर मह ष अग य और मह ष विश के नाम स िस ए। काला तर म सूय से
उसने एक अिन सु दरी क या को भी ज म दया, जो यौवन का साद पाकर अपनी
माता से भी अिधक द पा ई। उरपुर के िनवासी देव उस फु टत कु दकली-सी
सुकुमारी–उस उवशी पर मु ध हो उठे । उन दन ऐसी ही प रपाटी थी। अ सराएं नगर–
वधू होती थ । इसी से इस अ सरा का नाम भी माता के नाम क भांित ‘उवशी’–उर म
रहने वाली–देवलोक म िस हो गया। इस नवीना पर ब त लोलुप दृि पड़ने लगी, पर
यह बड़ी मािननी थी। इसने कसी को भी अपना शरीर अपण नह कया।
उ ह दन दै य क राजधानी िहर यपुर म के िशय का एक स प यूथपित
रहता था। उन दन बेबीलोिनया और इलावत के बीच का सारा इलाका के शी लोग के
अधीन था। के शी िस घुड़सवार थे—संभवतः वतमान क ज़ाक इ ह के वंशधर ह। इस
के शी यूथपित ने देवता को परा त कर ब त याित ा क थी। उसका बा बल असीम
था। ब त दन से उसक दृि उर नगर-िनवािसनी इस उवशी पर थी। पर सूय के भय से
वह उससे दूर ही रहता था, फर भी वह उसे हरण करने क ताक म था। उन दन असुर-
देश का उर नगर बड़ा िस नगर था। आज भी प शया म िहर यपुर के थान पर
‘िहरन’ नगर बसा है, तथा वह पर उर नगर भी अभी तक है। दैवसंयोग से उसे एक
अवसर िमल गया। उर नगर के बाहर वन म िवचरण करती ई अके ली देवबाला उवशी
को उसने घेरकर पकड़ िलया और उसे बलात् हरण करके िहर यपुर क ओर ले भागा। संह
के पंजे म फं सी ह रणी क भांित उवशी उसके अंक म फं सी छटपटाने तथा बाज प ी के
पंज म फं सी कु कुटी क भांित िच लाने लगी। संयोग ऐसा आ क इसी समय महाराज
पु रवा उसी राह से रथ पर सवार जा रहे थे। उ ह ने उवशी का दन सुना। सुनकर
उ ह ने उस के शी का पीछा कर उसे ललकारा। अपने काम म ाघात पाकर के शी यूथपित
ु हो अपना िशकार छोड़ पु रवा पर झपटा। दोन महावीर म तुमुल सं ाम िछड़ गया
और बड़े भारी यास के बाद पु रवा ने के शी को मार डाला।
यूथपित के शी से छु टकारा पाकर उवशी भय से पीली, कांपती ई राजा के पास
आ खड़ी ई। उसने मौन हो के वल वा पाकु ल ने से राजा के ित कृ त ता कट क । वह
राजा के प और शौय पर रीझ गई। राजा उसे रथ म बैठाकर उरपुर म आया तथा उसे
देव के सुपुद कर दया। उवशी के मुख से घटना का पूरा िववरण सुन तथा महाराज
पु रवा का शौय, वंश और व प देख देव ने उ ह ही उवशी दे दी। अि को सा ी कर
महाराज पु रवा उवशी को अपने मिणह य म ला उसके साथ िवलास करने लगे। पु रवा
ने साठ वष उवशी के साथ कालयापन कया। इस बीच उवशी से उसके आठ तेज वी पु
उप ए। ब त वृ होने पर एक दन महाराज पु रवा मृगया-िवनोद करने प रवार-
सिहत नैिमषार य वन गए। वहां कु छ ॠिष य कर रहे थे। उनके य -वाट िहर यमय थे।
िहर यमय य -बाट देख राजा को लोभ हो आया । उसने कहा–“अरे ॠिषयो, िहर यमय
य -वाट रखने से तु हारा या योजन है? यह वण राजा का है। तुम मृत् वाट से य
करो।’’
ॠिषय ने िवरोध कया। इस पर ॠिषय से राजा का िव ह हो गया। िव ह म
ॠिषय के हाथ से राजा मारा गया।
पु रवा के आठ पु म ये आयु का पु न ष था। न ष बड़ा ही तापवान्
राजा आ। उसका िववाह िपतृक या िवरजा से आ था। उसने पृ वी के राजा को
जीतकर च वत पद पाया। स भवत: वही थम आय च वत नरे श था।
24. वा ा
ि कू ट-उप यका म समु -तीर से तिनक हटकर रमणीय िनकु भला-उ ान था।
उ ान म एक बड़ा सरोवर था। ताल, तमाल, िह ताल, मौलिसरी और च दन के वृ थे।
उ ान अ य त िव तृत था। उसम िविवध लता-म डप, लता-गु म, वीथी और चौक थे।
हरी घास के बड़े-बड़े चौगान थे। सघन छाया म नाना जलचर, नभचर, िवहंग और जीव
वहां िवचरण करते थे। वहां का दृ य बड़ा ही मनोरम था।
सरोवर के तीर पर एक फ टक-वेदी पर मेघनाद कृ ण मृगचम पहने, हाथ म
कम डल िलए, िसर पर िशखा बढ़ाए, य सू पहने, दीि त हो, मौन त धारण कए बैठा
था। पास ही दै य-याजक समासीन हो िविधपूवक उससे य करा रहे थे।
रावण को यह सब अ छा न लगा। उसने कहा–‘‘पु , यह तुम या कर रहे हो?’’
पर तु मेघनाद उसी कार िन ल बैठा रहा।इस पर रावण ने फर
कया–‘‘अरे मेघनाद, यह तू कै सा अनु ान कर रहा है? य कर रहा है? मुझे ठीक-ठीक
बता।’’ पर तु मेघनाद फर भी मौन-जड़ रहा। तब याि क ने कहा–‘‘हे र े , तु हारे पु
मेघनाद ने छः य समा कर िलए ह।’’
‘‘कै से छः य ?’’
‘‘जैसे वेद-िविहत ह–अि ोम, अ मेध, ब सुवणक, वै णव और राजसूय।’’
‘‘ क तु इनम तो देव क पूजा होती है।ै या रावण के पु को इन मूख देव क
पूजा करना उिचत है?’’
‘‘र े अब तक क पर परा तो यही रही है।’’
‘‘र -कु ल म यह पर परा न चलेगी, र -कु ल के इस आयु मान् को तो इन
देवता को श ु क भांित यु म जय करके उ ह ब दी बनाना होगा।’’
‘‘ क तु र े , देवगण ब दी कै से ह गे?’’
‘‘हमारे बल परा म से, मने अपनी र -सं कृ ित म के वल एक ही देव को
वीकार कया है।’’
‘‘वह कौन है?’’
‘‘महे र, वृषभ वज , शंकर! उठ पु , इन हीन देव का आ य याग! और जा,
भूतपित क अचना कर! फर उनके साि य से दुजय देव को ब दी बनाकर अपनी
सेवा म रख!’’
‘‘रा से के ऐसे वचन सुनकर मेघनाद क ं ृ ित कर, य ासन छोड़ उठ खड़ा आ।
य -सू उसने तोड़ दया। िशखा काट फक । य -हिव पशु को िखला दी। फर वह
ब ांजिल हो, िपता के चरण म िगर गया। उसने रावण के चरण म म तक टेककर
कहा–‘‘हे तात, कौन ह वे दुलभ महे र ?’’
‘‘वे शरवन के उस पार उ ुंग िहम-िशखर पर रहते ह। जा और देवजय करने
िनिम उनसे वर ा कर। उनका साि य ा करके तू कामचारी हो सकता है। उनसे
खेचरमु ा, मृ युंजयिसि , देविसि , और द ा को ा कर।’’ इतना कह, रावण ने
भुजा उठाकर कहा–‘‘सब देव, दै य, य , क र, असुर, नर, नाग सुन–रा स का यह वंश
अब से कभी देवाचन न करे गा। देव इस वंश के दास ह, पूजाह नह । पूजाह के वल
देवािधदेव महादेव वृषाभ वज ह।’’
मेघनाद ने अल य को सा ांग िणपात कया और कहा–‘‘हे िपता, म यथावत्
यम-िनयम-अनु ान करके भगवान् वृषाभ वज क शरण म जाता ।ं ’’
‘‘जा पु , और महत् ेय को िस कर। फर हम इन दुबल देव का स मुख समर
म िनधन कर, िव म एक र -सं कृ ित का सार करगे।’’
मेघनाद ने रावण क व दना क और गध के वायुवेगी रथ म बैठ वहां से थान
कया। रावण भी अब िचर-िवयोग-िवद धा सु दरी सुकुमारी म दोदरी का यान कर अपने
अ तःपुर क ओर चला।
53. अ तःपुर म
रा सपुरी लंका अपने ढंग क िब कु ल िनराली नगरी थी। उसम कतनी सुषमा
थी और कतनी कु सा–यह कहना क ठन था। वहां के वन–उपवन बड़े िवशाल और रमणीय
थे। वे वन-उपवन च पा, चमेली, अशोक, मौलिसरी, साखू, ताल, तमाल, िह ताल, कटहल,
नागके शर, अजुन, कद ब, ितलक, क णकार आ द पुि पत वृ -लता से आ छा दत थे।
कु बेर का चै रथ नामक िवहार-वन ऐसा मनोहारी और अनुपम था, िजसका वणन हो ही
नह सकता। उसम सभी ऋतु के पु प पुि पत थे। पपीहा, को कल और नाचते ए मोर
अपने मधुर रव से उस उ ान को गुंजायमान कर रहे थे। भांित-भांित के िवहंग के कलरव
और मरावली से गुजायमान उस उपवन का पु पवािसत शीतल, म द सुग ध समीर
ाण म आन द का संचार करता था।
लंका के ि कू ट िशखर का िव तार सौ योजन था। उसी के एक िशखर पर
वणलंका बसी थी, िजसक ल बाई बीस योजन और चौड़ाई दस योजन थी। इस नगर के
ाचीर के गगन पश चार ार ेतवण मेघ के समान तीत होते थे। जैसे वषा ऋतु के
सघन घन िविवध आकृ ित के होते ह, वैसे ही लंका के भवन, ासाद और मि दर थे। कु बेर
का राज ासाद एक सह ख भ पर आधा रत था, िजसक धवल सुषमा कै लास के समान
थी। इसी को रावण ने अपनी िच और िवलास-भावना से, मिण-मु ा से सुसि त कया
था। दस सह धनुधर रा स दन-रात उसक रखवाली करते थे। धन, धा य, र , मिण,
वण और यो ा से भरपूर, य यु कपाट से सुरि त वह लंकापुरी सब पु रय से
िविच और शोभास प थी।
पाठक को मरण होगा क यह लंका दै य क थी। यहां हम सं ेप म फर उस
इितहास को दोहराते ह। िजस समय का उपा यान इस उप यास म व णत है, उसके कोई
डेढ़ सौ वष पहले दै य का सा ा य पृ वी म सव प र था। इस सा ा य के ित ाता
िहर यकिशपु, िहर या , व ांग, अ धक और व नािभ आ द थे। इनम िहर यकिशपु और
िहर या का ताप सव प र था। िहर या क सहायता से िहर यकिशपु ने अपना रा य
ब त बढ़ा िलया था, िजसका बड़ा आतंक पृ वी-भर के रा य पर था। िहर या ने जो
अपना दूसरा सा ा य थािपत कया था, वही आगे चलकर िव ुत बेबीलोन सा ा य के
प म िवकिसत आ था। इन दोन भाइय ने अनेक देवराज को पद युत कर दया था
तथा वे ि लोकपित िव यात थे। इन दोन भाइय का सा ा य वतमान एिशयाई स,
सफे द कोह, काके िशया, पामीर से तु क तान और अफगािन तान तक फै ला आ था। उन
दन देवगण, जो आ द य भी कहाते थे, सुमे –पामीर तक ही सीिमत थे। उनका वहां एक
छोटा-सा गणत था। पीछे ग धव अ सरा क एक नई िमि त जाित हेमकू ट कराकु रम
पर और नाग क िन सा पहाड़ पर आ बसी थी। ऋिष नीलाचल म और िपतृ शृंगवान्
पवत के आंचल म रहते थे, जो सुमे से पि म का यप सागर के तट पर था। वाराह का
एक छोटा-सा रा य के तुमाल ीप म था, जो देव के िम थे। व ण ने लय के बाद उनसे
पृ वी के सं कार-उ ार म भारी मदद ली थी। तब से वाराहपित भी देव क पंि म िगने
जाने लगे थे। वाराह ने घात लगाकर एक दन वन म मृगया को गए ए िहर या को
मार डाला। तब से िहर यकिशपु का रा य डगमगा गया। फर भी कसी तापी देव ने उस
पर चढ़ाई करने का साहस नह कया। अ त म िव णु के यास से उनके भाई नृ संह ने, जो
िहर या के मरने पर बेबीलोिनया सा ा य के वामी बन गए थे, िहर यकिशपु को भी
म लयु म मार डाला। लाचार िहर यकिशपु के पु लाद को िव णु से सि ध करनी
पड़ी। देव क ओर से िव णु ने वचन दया क अब दै य का र पृ वी पर नह िगरे गा।
इसके बाद लाद और उसके पु िवरोचन ने कोई राजनीितक मह ा नह ा क ।
आ द य से इनके यु ए अव य और उनके दबाव से दै य ने पूव क ओर अपना सार
ार भ कया। उ र-पि म के रा य-समूह उनसे िछन गए और वहां देव तथा आ द य के
अनेक ख ड-रा य थािपत हो गए।
इसके बाद िवरोचन-पु बिल बड़ा तापी आ। उसने अपने िपता िवरोचन और
िपतामह लाद के जीवन-काल म ही अपनी राजनीितक मह ा बढ़ा ली थी और अपना
नया सा ा य संग ठत कर िलया था। उसने दै य और दानव को सि ध ारा एक सू म
बांधा। उसने राजनीितक ही नह , सां कृ ितक संबंध भी थािपत कर िलए। धीरे -धीरे उसके
शौय, राजनीित ता, पु षाथ, यायपटु ता, धम, दान आ द गुण के कारण उसका यश दूर-
दूर तक फै ल गया। एक बार दै य का फर बोलबाला हो गया। पर तु देव को यह कै से
सहन हो सकता था? उ ह ने नाग से िम ता के स ब ध थािपत कए और अंततः बिल से
उनका िवकट समर आ।
इस मह सं ाम म बिल का दोष न था। उसने अपने िपतामह के िनधन का वैर
छोड़कर देव से सि ध क , उनके साथ िमलकर समु -मंथन कया और पूरा प र म करने
पर भी दै य खाली हाथ रह गए। सो देव क ध गाध गी और अपमान से खीझकर बिल ने
यु -दान दया, िजसम लाद तक ने वृ ाव था म योग दया। इस यु म दै य क
कटक म महापि नी, प , कु भ, कु भकण, कांचना , किपक ध, ि ित, क पन, मैनाक,
ऊ वव , िशतके श, िवकच, सुबा , सह बा , ा ा , व नािभ, एका , गज क ध,
गजशीष, कालिज व, किप, हय ीव, लाद, श बर, अनु लाद, नमुिच, यम, पुलोमा,
िवरोचन, धेनुक, युवराज बाण, अनायुषा-पु बिल, वृषपवा, वृ , कनक बंद,ु कु जंभ,
एकच , रा , िव िचि , के शी, हेममाली, मय आ द अनेक दै य-दानव छ पित और
मा डिलक सरदार लड़े। देव क ओर िव ाधर, ग धव, नाग, य , ड बर, तु बर, क र
आ द थे। यु म पहले देव को परािजत होकर अफगािन तान क ओर भागना पड़ा। उ ह
अपना देव-लोक भी खो देना पड़ा। बाद म उ ह ने बृह पित और वामन ारा सि ध कर
तथा बिल को य म फं साकर, उसका बल हरण कर अ त म बिल को परािजत कया।
इस यु म दै य-दानव का बल भंग हो गया और उनका सा ा य भी िछ -िभ
हो गया। लंकािधपित दै य-ब धु माली, सुमाली और मा यवान् के इस यु म सब प रजन
खेत रहे। पर तु बिल-पु बाण ने फर उ कष दखाया। उसने से िम ता क , िजससे
उसक शि अमोघ हो गई। बाण अपने काल का महान् दै य-स ाट् था। उसक शि
असीम थी। उसी के समय म कािलके य क एक नई जाित दानव म से िवकिसत ई।
क यप क तृतीय प ी दनु क दो क याएं भी थ िजनम एक पुलोमा थी, दूसरी कािलका।
इन दोन क संतान से दो नई शाखाएं चल –पौलोम और कािलके य। इस समय बीस
सह कािलके य ने बाण क अधीनता वीकार कर उसका बल बढ़ाया, पर तु काल पाकर
बाण का भी बल- य आ और कािलके य को क यप-तट छोड़कर लंका क ओर भागना
पड़ा। इनम से ब त ने लंका के आसपास के ीप-समूह पर अिधकार कर िलया। ये सारे
ही ीप उस समय रावण के र -सा ा य म आ चुके थे। अतः रावण को कािलके य पर
ब त बार सेना भेजनी पड़ी। पर तु हर बार कािलके य ने रा स-सै य को तािड़त कया।
कािलके य के आतंक का िस ा रा स पर बैठ गया, पर मह वाकां ी रावण न अभी
कािलके य क गितिविध पर िवशेष यान नह दया था। वह अपने भारत वास म चला
गया था। इसी बीच िव ुि व लंका म छ वेश म आने-जाने लगा। वही वा तव म
कािलके य का सरदार था। रा स के भय से वह िछपकर लंका म आता था, पर दैवयोग से
उसका प रचय हो गया सूपनखा-राज-क या से इसिलए अब लंका म उसका आना-जाना
और ही कार का हो गया। वह सूपनखा से भी िछपकर िमलता था, इसिलए ब धा कई-
कई दन तक उसे घात म लंका म िछपे रहना पड़ता था।
िव ुि व एक ितभास प और वीर त ण था। उसम साहस क भी कमी न
थी। अपने अद य साहस और उ साह के कारण ही वह कािलके य का सरदार बन गया था।
अपने असाधारण िव म से उसने वह ीप जय कया था और हर बार रा स को उससे
हार खाकर भागना पड़ता था। पर तु उसने अभी लंका म यह कट नह कया था क वही
कािलके य का सरदार है। सूपनखा उसे एक कु लीन दानव-त ण ही समझती थी। उसक
उठान बड़ी सु दर थी, घुंघराले काले बाल तथा भरी ई गदन। रं ग काला था, पर तु दांत
हीरे के समान उ वल और चमकदार थे। उसका हा य बड़ा िनमल था। उसका िवशाल
व , चंड बा , पु जघन और तीखी दृि उसके ि व को आकषक बना देते थे। वह
श दबेधी था। धनुष भी उसका खूब बड़ा था। बाण का तूणीर सदैव ही उसके क धे पर
पड़ा रहता था। इसके अित र एक िवशाल शूल भी वह हाथ म रखता था। सूपनखा से
तथा अ य भी िम से उसने यही कहा था क वह आखेट के िलए लंका के वन म शौक से
घूम रहा है। सूपनखा के अित र यह कोई नह जानता था क वह कािलके य दानव है।
सं या का अंधकार गहरा होता जा रहा था। इसी समय िव ुि व ल बे-ल बे
डग भरता आ लंका क वीिथय म तेजी से आगे बढ़ता जा रहा था। वीिथका म अंधकार
था। वह नगर का बूचड़ मुह ला था, जहां नर-मांस से लेकर सब पशु का मांस िमलता
था। यहां ा का मांस भी िबक रहा था, िजसे लोग शौय-वृि के िलए खाना िचकर
समझते थे।
िव ुि व के क धे पर एक भारी ह रण का भार था। जो बाण उसके दय म
पार हो गया था, वह अभी उसके शरीर म अटका आ था। उसम से अभी तक र टपक
रहा था। उसके झोले म और भी कु छ प ी थे, िजनका उसने िशकार कया था। पर तु ऐसा
तीत हो रहा था जैसे उसका ायुजाल लोहे का बना हो। वह दूर से आ रहा था और उसके
पास काफ बोझा था, पर तु वह िब कु ल तरोताजा था।
एक जीण क तु िवशाल घर के फाटक पर आकर वह तिनक ठठका। फर वह
भीतर घुस गया। उस समय घर के िवशाल ांगण म अंधेरा छाया था। कोई पु ष भी वहां
न था। वह दालान पारकर भीतर चला गया, जहां ब त-से रा स, दै य, दानव, नर, नारी,
बालक बैठे खा-पी रहे थे। सबके हाथो म बड़े-बड़े भुने ए मांस-ख ड थे और म के भरे
भा ड उनके आगे धरे थे। वह उन पर भेिड़य क भांित ज दी-ज दी तीखे दांत का हार
कर रहे थे तथा म पी रहे थे। िव ुि व ने क धे का भार एक ओर सहन म पटक दया,
फर उसने इधर-उधर देख एक रा स–लड़क को संकेत से िनकट बुलाकर कहा–‘‘अरी
सरमा, इन पि य को मेरे िलए झटपट अभी भून ला। ज दी कर और नमक भी संग ही ले
आ।’’ रा सबाला मृत पि य से भरा चमड़े का झोला लेकर भीतर चली गई। उसने
उलटकर देखा तो उसम एक सांप भी था। सांप ब त मोटा था और अभी तक उसके फन से
िवष और झाग िनकल रहे थे।
वह उसे हाथ म िलए आई। िव ुि व एक िशलाख ड पर बैठकर समूचे सूअर म
दांत गड़ा रहा था। सरमा ने कहा–‘‘यह सांप य लाया है?’’
‘‘फिनयर है, खूब चब है इसम। मेरे िलए भून ला। मजेदार रहेगा। मुझे इसका
शौक है।’’
‘‘और य द दूषीिवष हो गया तो या होगा?’’
‘‘िव ुि व मर जाएगा, और या होगा! तेरा ब त झंझट छू ट जाएगा। जा
भाग।’’–इतना कहकर उसने सूअर क उरोगुहा म हाथ घुसेड़कर उसका कलेजा ख चकर
बाहर िनकाल िलया और चाव से खाने और हंसने लगा।
सरमा चली गई। थोड़ी ही देर म वह उस सांप को और पि य को समूचा भून-
भानकर ले आई। िव ुि व ने स मु ा से उसक ओर देखा और सांप के ख ड करके
च- चकर खाना आर भ कया। सरमा खड़ी देखती रही। कहा—
‘‘ या म लाऊं?’’
‘‘ले आ, दो भा ड।’’
पर तु सरमा ने एक भा ड लाकर उसके आगे धर दया। िव ुि व ने ु होकर
कहा—
‘‘अरी कृ या, मने दो कहा था।’’
‘‘दो यादा ह। तू संयत नह रह सकता।’’
‘‘तो तुझे या! तू भा ड ला।’’
‘‘यह है तो।’’
‘‘एक और ला।’’
‘‘एक ही यथे है।’’
‘‘तू मुझ पर अंकुश रखती है?’’ उसने लाल-लाल आंख से रा स-बािलका को
देखा। पर तु रा स-बाला फर भी नह गई। खड़ी रही।
यह देखकर िव ुि व हंस दया। उसने खाते-खाते सप का एक टु कड़ा उठाकर
कहा–‘‘ले, तू भी खा।’’
‘‘ऊ क ं ् , म सप नह खाती।’’
‘‘खा ले कृ या, ने -दोष दूर हो जाएगा। यह ने क अ छी ओषिध है।’’
‘‘मेरे ने म दोष नह है।’’
‘‘तो यह ले।’’ उसने एक समूचा भूना आ तीतर उसे दे दया। प ी को लेकर भी
वह खड़ी ही रही। िव ुि व ने कहा—‘‘जा भाग, अब य खड़ी है?’’
‘‘मुझे कु छ कहना है।’’ उसके ने म भय और वाणी म क णा थी।
‘‘कह।’’
‘‘वे मुर, उसक ी और बालक पु को पकड़ लाए ह।’’
‘‘कौन?’’
‘‘ ा ा और िवकटोदरी।’’
‘‘ य ?’’
‘‘ऋण के िलए।’’
‘‘ फर?’’
‘‘मुर ऋण नह चुका सका, अब ये उसे सप रवार मारकर खा जाना चाहते ह।’’
‘‘ क तु मुर तो हमारा िम है। उसका बालक मुझे ब त ि य है। उसक ी भी
मृदभ
ु ािषणी है।’’
‘‘उसक मुझ पर भी मातृदिृ है। कृ पा कर उसे बचा ल।’’
‘‘ऋण कतना है?’’
‘‘के वल तीन वण।’’
‘‘इतना तो म अभी दे सकता ।ं ’’
‘‘तब तो वे तीन तेरे दास बन जाएंगे।’’
‘‘तो जाकर देख, वहां या हो रहा है और मेरे आने तक उ ह ठहरने को कह।’’
‘‘बािलका क उ तेरह-चौदह साल क थी। उसके अंग पर के वल अधो-व था।
वह सूअर के दांत का क ठ-भूषण पहने थी जो वण म मढ़ा था। कछु ए क खोपड़ी के चूड़
उसक भुजा म भरे थे। मनु य के दांत क एक वण-सू िथत करधनी वह क ट म
पहने थी। वह बड़ी चपल और ती बुि लड़क थी। गत वष उसे कसी ु ीप म बांधकर
बिल के िलए ले जाया जा रहा था। िव ुि व उधर आखेट को गया था। उसका आतनाद
सुन उसने उसे पांच वण म खरीद िलया। अब वह उसक सेवा बड़ी लगन से कर रही थी।
िव ुि व उस पर ब त सदय था। बािलका िव ुि व का आदेश पा भाग गई।
िव ुि व ज दी-ज दी उस शूकर और पि य को तथा उस म भा ड को उदर थ करने
लगा, पर तु बािलका तुर त ही बदहवास-सी दौड़ी आई। उसने िव ुि व के क धे
झकझोरकर कहा–‘‘चल-चल, ज द!’’
‘‘ या आ? अभी मेरा भोजन पूरा कहां आ?’’
‘‘पर उ ह ने मुर को मार डाला। वे उसे खा रहे ह। वे उसक ी और पु को भी
मार डालगे।’’
‘‘अरे ,’’ कहकर िव ुि व उठा। अपना भारी शूल उसने हाथ म ले िलया।
बािलका उसे एक कार से घसीटती ई-सी अंधेरी और तंग वीथी म ले चली। ा ा के
घर जाकर उसने देखा क मुर का मु ड कटा पड़ा है और िवकटोदरी उसका व चीरकर
उसका दय िनकाल रही है। हाथ म र सना ख ग लेकर ा ा मुर क ी और बालक
को वध-यूप से बांध रहा है, दोन चीख-िच ला रहे ह।’’ िव ुि व ने ललकारकर कहा–
‘‘यह या कया रे , ा ा ?’’
‘‘तो म अपना ऋण छोड़ दू?ं ’’
‘‘छोड़ उ ह! अभी ब धनमु कर!’’
‘‘तो ला तीन वण मु ाएं तू ही दे दे।’’
‘‘पर तूने मुर को मार ही डाला।’’
‘‘उस सूखे बूढ़े म मांस ही कतना है, एक वण भी तो नह उठे गा उसका। आज
यु म उस ीप के ब त त ण का वध आ है। वे सब िबकने हाट म आए ह। आज नर-
मांस का भाव ब त स ता हो गया है। फर यह बूढ़ा, वह बालक। ऊ क ं ् –म ब त घाटे म
र गं ा। सोच भला तीन वण और याज!’’
‘‘यह ले तीन वण मु ाएं, खोल उनका ब धन।’’ उसने वण मु ाएं उसक ओर
फक द ।
ा ा ने हंसकर वण उठा िलया। फर कहा–‘‘तिनक पहले आता तो यह बूढ़ा
भी तेरे काम आता।’’ वह बालक और ी को ब धनमु करने लगा। पर तु िवकटोदरी ने
ु मु ा से कहा–‘‘यह दय-ख ड और इसका मांस म नह दूग ं ी, कहे देती –ं सूद कतना
आ, यह य नह कहते?’’ उसने रोषभरी आंख से पित क ओर देखा।
पर तु िव ुि व उससे िववाद करने को वहां का नह । िससकते और बदहवास
ी और बालक को िलए, हाथ का शूल हवा म िहलाता आ, तेजी से वहां से चल दया–
उसके पीछे खुशी से ताली बजाती वह रा स-बािलका भी।
56. मातृवध
उरपुर म सुर तथा सास से सुपूिजत होकर रावण अपनी चतुरंिगणी सेना ले
अमरावती क ओर बढ़ा। अब तक रावण ने मेघनाद को यु से िवरत कर रखा था। उसने
कहा था–‘‘पु , तू के वल देखता रह, यु न कर। म देवराट् इ के साथ तेरा थम यु
देखना चाहता ।ं ’’ सो अब जब अमरावती के वण-कलश रावण ने देख,े तो पु मेघनाद
को छाती से लगाकर उसने कहा–‘‘पु , यह अमरावती है, यहां हमारे रा स धम के परम
िवरोधी देव आ द य रहते ह। अब तेरा यह काय है क इस देवराट् को रि सय स बांध ला।
आज तू ही इस देवािभयान का नेतृ व कर, पु ! हम सब तेरे अनुगत रहकर तेरी पृ -र ा
करगे।’’
िपता के वचन सुन मेघनाद ने रावण क प र मा कर णाम कया और
कहा–‘‘तात आप मेरा कौतुक देख क कस कार देवराट् को बांधकर आपके चरण म ला
डालता ।ं ’’
इतना कहकर मेघनाद ने वम पहना, श धारण कए और यामकण सोलह
घोड़ के रथ म बैठे समूचे र बल का व - ूह रच, ध सा बजाता आ अमरावती क ओर
अ सर आ। रा स क इस महती वीरवािहनी को देखकर देवतागण घबरा गए। देवराट्
ने अपने पु जय त को मेघनाद से लोहा लेने को भेजा और पुर के सब राह-घाट पर अपने
धनुधर देव को स कया।
दोन ओर से रणवा बजते ही दोन सेनाएं िभड़ ग । जय त के संर ण म देव-
सै य ने मेघनाद पर भीषण हार करने आर भ कए। मेघनाद ने अनायास ही जय त के
सभी बाण को काट डाला तथा एकबारगी ही बाण के जाल से उसे ढांप दया। यह एक
अभूतपूव धानुयु था, िजसम एक ओर एकाक मेघनाद– - कं कर, िव ुत्- वाह क
भांित बाण-वषा कर रहा था, दूसरी ओर जय त देवराट् -सुत द रथ पर सवार, िजसम
वणाभरण पहने सोलह ेत अ जुते थे, अपना अमोघ लाघव दखा रहा था। देखते-ही-
देखते मेघनाद ने देव-सा रथ मातिल को बाण से छेद दया। उ र म जय त ने मेघनाद के
सारिथ वीर चूड़ामिण सारण को अि बाण से द ध कर दया। इस पर अित आवेिशत हो
मेघनाद ने मायाच रच यु भूिम म घोर अ धकार फै ला दया और फर चार ओर से
ास, मुशल, शति य के हार से देवकु ल को आतं कत कर दया। ऐसा अ भुत और
भयानक यु देख देव हाहाकर कर भागने लगे। कसी को भी अपने-पराये का ान न रहा।
यु का सारा म भंग हो गया।
अब मायावी मेघनाद जय त पर अ तक के समान हार करने लगा। जय त पर
घोर िवपि आई देख, उसके नाना भीम-िव म दानवे पुलोमा ने ूह म बलात् घुसकर
रथ पर से जय त को उठा िलया और उसे कांख म दबा, जल- त भनी िव ा ारा समु -
जल म घुसा। जब देव ने जय त के रथ को खाली तथा मातिल को मू छत देखा तो जय त
को मरा समझ रण थली से भाग िनकले।
इसी समय मातिल क मू छा भंग ई और वह रथ दौड़ाकर ाकु ल भाव से
देवराट् इ के पास प च ं ा। अपने पु को रण े से इस कार गायब सुन देवराट् इ
व ह त हो वयं रथ म बैठ यु थली म प च ं ा। शत-सह मेघ क गजना के समान
विनत उस रथ को हेम-पवत क भांित अबाध गित से आता देख रा स भय से चीखने-
िच लाने लगे। अब , वसु, आ द य और म ण इ क र ा करते ए उसे चार ओर
से घेरकर चले। यह देख रावण ने मेघनाद को यु से िवरत करके कहा–‘‘तू तिनक िव ाम
कर पु , तब तक म इस ा देवराट् को देख।ूं ’’ कु भकण रथ के आगे तथा शुक, सारण
दाय-बाय और भीम-परा म सुमाली दै य रावण क पृ -र ा पर स हो चले। चार
ओर रा स का कटक। ण-भर ही म घमासान मच गया। कु भकण को अपना-पराया
कु छ न सूझ पड़ता था। वह िजसको भी सामने पाता, अपने दांत , भुजा और लात से
मसल डालता। श हण करने का उसे िवचार ही न आता था। वह देव को बीच से चीर-
चीरकर इधर-उधर फकने लगा। उसका यह बीभ स काय देख देव ‘ ािह माम्– ािह माम्’
करने और इधर-उधर भागने लगे। अब परा मी मेघनाद से िभड़ गया। ने उसके
चार ओर से िलपटकर उसके अंग िवदीण कर डाले। उनम से र झरने लगा। उधर
म ण ने रा स को मार-मारकर िबछा दया। य -भूिम मर और अधमर से पट गई।
अनेक रा स अपने वाहन पर िगरकर मर गए। वहां र क नदी बह चली। उसम तैरती
ई लोथ जलचर-सी दखाई देने लग । आकाश म चील, िग और कौए उड़ने लगे। बड़ा
ही बीभ य दृ य उपि थत हो गया। रावण ने जब यह दशा देखी तो वह अपना रथ बढ़ाकर
इ को ललकारता तथा बाण क वषा करता आगे बढ़ा। इ ने भी धनुष को टंकारकर
शरसंधान कया। अब रावण और इ का ऐसा घनघोर यु आ क जैसा कसी ने न
देखा, न सुना होगा।
इसी समय मेघनाद ने माया रची। रण े म अ धकार छा गया। इ , रावण और
मेघनाद को छोड़ सम त वीर अ ध के समान आचरण करने लगे।
अब रावण ने ललकारकर सारिथ से कहा–‘‘अरे , मेरा रथ म य यु -भूिम म ले
चल, आज म इस आयवीयान् क देव-भूिम से देव का बीज नाश क ं गा। देव का वध
करने से मेरे कु ल क क त बढ़ेगी। चल-चल–उदय पवत क ओर चल!’’
रावण क इस आ ा को सुन सारिथ रथ को युि से व गित से चलाकर देव क
सेना को चीरता आ उसके म य भाग म जा प च ं ा। इस कार रावण को आते देख इ ने
िच लाकर कहा–‘‘इसे जीता पकड़ना चािहए। िजस कार हमने बिल को बांधकर
ि लोक का रा य पाया है, उसी कार इस दु वै वण को भी बांध लो।’’ यह कहकर इ
वहां से हट गया। आ द य, , वसु और म ण ने अब रावण को चार ओर से घेर िलया
और बाण से उसे ढांप दया। इस पर सब रा स जोर-जोर से िच लाने लगे और कहने
लगे–‘‘हाय-हाय, र े को इ ने ब दी बना िलया। अब कौन हमारी र ा करे गा?’’
अब ह त, महोदर, मारीच, महापा व, महादं , य कोप, दूषण, खर, ि िशरा,
दुमुख, अितकाय, देवा तक, नरा तक आ द रण-पि डत महारथी रा स भट सुमाली को
आगे कर दैव-सै य म धंस गए।
सुमाली ने यहां ऐसा समर कया क देव-सेना क सारी व था भंग हो गई। यह
देख व ा और पूषा दो आ द य सेना-सिहत सुमाली पर टू ट पड़े। इसी समय आठव वसु
सािव ने भी वसु को ले सुमाली को घेर िलया। अब च म ं ुखी यु होने लगा और
रा स क सेना कट-कटकर िगरने लगी। सुमाली और सािव म अब घनघोर यु होने
लगा। दोन ही वीर परम परा मी थे। व ा और पूषा धके लकर रा स के ह त, महोदर
आ द महारिथय को यु म फं साकर सुमाली से दूर ले गए। दो मु त के तुमुल सं ाम म
वसु सािव ने सुमाली का रथ तोड़ दया, घोड़ को मार डाला। यह देख य ही सुमाली
रथ से कू दा, य ही सािव वसु ने उछलकर कालद ड के समान भयंकर गदा कई बार
घुमाकर उसके म तक पर दे मारी। उसक चोट से सुमाली का म तक चूर-चूर हो गया और
सुमाली चुरमुर हो भूिम पर िगर गया। यह देख रा स म हाहाकार मच गया। रा स रोते
और बाल नोचते इधर-उधर भागने लगे।
सुमाली के वध से ु अि के समान जलता आ मेघनाद रथ पर बैठ िबजली क
भांित इ पर टू ट पड़ा। छू टते ही उसने शि का इ के व म हार कया। साथ ही दस
बाण से सारिथ मातिल और दस बाण से उसके घोड़ को ब ध डाला। फर उसने माया-
िव तार करके अ धकार कर दया। सब देव ाकु ल हो गए। तब मेघनाद िन शंक इ के
रथ पर चढ़ गया और उसे जकड़कर रि सय से बांध, पीठ पर उठा, गजना करता आ
रा स क सेना म लौट आया।
जब काश आ और देव ने इ को रथ पर नह देखा, तो वे बड़े घबराए। न उ ह
मेघनाद ही दखाई दया, न इ । उ ह ने खीझकर रावण पर च ड आ मण कया।
आ द य और वसुआ ने उस पर अिवरत हार कर उसे जजर कर दया। इसी समय अदृ
रह मेघनाद ने आकाशवाणी से पुकारा–“ हे िपता, अब यु का या योजन है, हम
िवजयी हो गए ह। ि लोक के वामी इ को हमने बंदी बना िलया है। अब इन ु
देवता को मारने से या लाभ है? चिलए, लंका को लौट चिलए और ि लोक का रा य
भोिगए।’’
मेघनाद क यह सारग भत आकाशवाणी सुन रावण सं ह षत हो गया।
आकाशवाणी सुन देवता भी घबरा गए। इसी समय ह त ने शंख फूं ककर संकेत कया और
सारण व गित से रथ को चलाकर रावण को यु -भूिम से बाहर ले चला। रावण के रथ
क वजा देखते ही रा स ने हष-नाद कया। रा स क सै य म िवजय-दु दुिभ बज उठी।
अपनी िवजय से ग वत रावण ने ह षत हो इ जयी पु को छाती से लगाकर
कहा–‘‘अरे पु , तू आज से ैलो य म इ िजत् के नाम से िव यात हो! तूने आज इ को
ब दी बनाकर हमारे कु ल ऐ य को बढ़ाया है। अब इ को लेकर अभी लंका को थान
कर। पीछे म भी आता ।ं ’’ इतना कह रावण ने उसी ण सुर ा के िलए ब त-सी सै य दे,
ब दी इ के साथ इ जयी मेघनाद को लंका भेज दया।
71. लंका क ओर
सु दरी रानी कै के यी ने यही कया। मिलन व पहन, बाल िबखेर, िनराभरण हो,
कोप-भवन म जाकर भूिम पर लेट गई।
राजा दशरथ स थे। ण- ण पर वे आदेश दे रहे थे। विश , वामदेव,
िव ािम आ द ऋिष अिभषेक-साम ी जुटा रहे थे। राज- ासाद क पौर पर दु दुिभ बज
रही थी। रिनवास म अ -व , धन-र दान कया जा रहा था। अ यागत , अितिथय
तथा ऋिषय से राज ार पटा पड़ा था। सुम सबका यथोिचत स कार कर रहे थे। इसी
समय राजा को संदश े िमला क देवी कै के यी कोपभवन म चली गई ह।
देवी कै के यी का राजमहालय अित भ था। उसम सभी कार के सुख-साधन
उपि थत थे, वह भवन वग के समान काशवान था। सब ऋतु के अनुकूल सभी भांित
क सुख-साम ी उस िवलास-क म थी। पर तु राजा ने आकर देखा, महल सूना पड़ा है।
पु पाधार भूिम पर लुढ़क रहे ह। ग ध- धूपदान म नह जल रहे ह, मंगल-कलश इधर-
उधर लुढ़क रहे ह। व स ा सब अ त- त िछतराई पड़ी है। वह वग य भवन नरक-
तु य हो रहा है। दािसय ने भयभीत मु ा से संकेत ारा राजा को बताया क देवी कोप-
भवन म पड़ी ह।
राजा ने वहां जा कोप-भवन म पड़ी रानी को देखा और दुःखी होकर कहा–“ि ये,
कसने तेरा अिहत कया, तुझे या दुःख है? या म तेरा कु छ ि य कर तुझे स कर
सकता ?ं तूने यह अपनी ऐसी दुदशा य कर रखी है? कह, म तुझे स करने के िलए
या क ं ?’’ इतना कह राजा उं गिलय से उसके के शपाश सहलाने लगा।
फर उसने कहा–‘‘तू तो मेरी सव व है! म तुझे ऐसे दीन वेश म इस कार भूिम
पर लोटते नह देख सकता ।ं मने तो सदा तेरा िहत कया–सदा तेरी स ता का यान
रखा। अब भी तेरे िलए म सब कु छ करने को तैयार ।ं तू कथनीय कह।’’
तब रानी कै के यी ने कहा–‘‘देव, मुझे कसी ने न ोिधत कया है, न अपमािनत। म
आपसे के वल अपना ा मांगना चाहती ।ं मेरे दय म कु छ मनोरथ है, संक प है। मेरी
कु छ अिभलाषा है। म चाहती ,ं आप वचन द– ित ा कर। म अभी अपना मनोरथ आप से
क ।ं ’’
रानी के वचन सुन राजा ने हंसकर उसके बाल सहलाते ए कहा–‘‘तू तो जानती
ही है क तू मुझे कतनी ि य है। राम के बाद य द कोई मेरा ि य हो सकता है तो वह तू ही
है, अतः राम क शपथ खाकर कहता ं क तू अपना मनोरथ कह म अव य पूण क ं गा।
मेरी इस ित ा के सा ी सूय, च , देव, ऋिष, िपतृगण ह। रघुवंशी कभी अपनी ित ा
से नह टलते ह, सो तू जान।’’
कै के यी राजा के वचन सुनकर बोली–‘‘आप तापी इ वाकु वंश के िशरोमिण
नरपित ह और आपका वचन अभंग है। ऐसा ही आपने कहा है, तो म आपको मरण
दलाती ं क आपने मेरे साथ यह शत करके िववाह कया था क मेरा ही पु आपक ग ी
का उ रािधकारी होगा। इसके अित र देवासुर-सं ाम म आपने मुझे जो वचन दए थे, वे
भी आपके पास धरोहर ह। अतः अब इस कार आप अपने वचन से उऋण हो जाएं क
मेरा पु भरत राजा हो और राम आज ही वन जाएं और वहां चौदह वष वनवािसय का
जीवन तीत कर।’’
राजा दशरथ कै के यी के ये वचन सुनते ही मू छत होकर धरती पर िगर गए।
चेतना आने पर िध ार-िध ार उ ारण करते ए फर मू छत हो गए। पर तु चैत य
होकर फर बोले–‘‘अरी कु लनािशनी, तूने यह या कया? तू मेरे मनोरथ को फू लते-फलते
देख उसे समूल न कर रही है! अरी, राम ने तो अपनी माता से भी अिधक सदा तेरी सेवा
क है। मने तेरे वचन पर िव ास कया, यह मेरा ही दोष है। देख, म दीन क भांित तेरे
चरण पर िगरकर तुझसे भीख मांगता ं क तू इस भयानक िन य को बदल दे।’’
राजा क ऐसी कातरोि सुनकर रानी ने च ड ोध करके कहा–‘‘महाराज,
आपको य द वचन देकर उसका पालन करने म दुःख होता है, तो जाने दीिजए। पर अब तुम
पृ वी पर धमा मा और स यवादी नह कहलाओगे। अब तु ह सोच लो क कै से इस ल ा
के भार को सहन करोगे? अरे , इससे तो तु हारा पिव रघुकुल ही कलं कत हो जाएगा।
तु हारे ही कु ल म ऐसे ब त राजा ए ह िज ह ने ाण देकर भी वचन का पालन कया है।
सो राजन् य द तु ह यश ि य नह है और तुम अपने वचन से मुकरना चाहते हो तो तुम
ऐसा ही करो। पर तु म और मेरे पु तु हारे दास बनकर नह रहगे। म तो आज ही
िवषपान कर ाण दूग ं ी और मेरा समथ भाई तुमसे मेरा भरपूर शु क लेगा। म भरत क
शपथ खाकर कहती ं क म कसी भांित कसी दूसरे उपाय से स तु नह हो सकती। सो
तुम समझ लो।’’
ऐसे कठोर और िनमम वचन सुन राजा दशरथ अनेक िविध िवलाप करने लगे।
उ ह ने कहा–‘‘दूर देश से जो राजा आए ह, वे या कहगे! अब म कै से उ ह मुंह दखा
सकता !ं अरी, कु छ तो सोच, कु ल क ित ा और राम क ओर देख। राम से तेरा इतना
िवराग य है?’’
पर तु जैसे सूखा काठ मोड़ा नह जा सकता, उसी कार कै के यी पर इन बात का
कोई भाव नह पड़ा। उसने कहा–‘‘महाराज, आप धमा मा और दृढ़ ित ह। सारा
संसार आज तक आपको स य ित समझता है, सो आज आप उस ित ा को भंग करके
कलं कत होना चाहते ह!’’
यह सुन राजा घायल हाथी क भांित भूिम पर िगर गए। वे अनुनय करके कहने
लगे–‘‘लोग कहगे, ी के कहने से पु को वन भेज दया। हाय, म पु -रिहत ही या बुरा
था? अरी रानी, कु छ तो िवचार कर, अयो या क ओर देख, इस वंश क ओर देख, तू राम
ही को राजा होने दे। विश , वामदेव सभी क यही स मित है और जा भी यही चाहती
है। भरत भी यही पस द करे गा, तू हठ न कर!’’
पर तु रानी न मानी। महल के बाहर ब दी-भाट यशोगान कर रहे थे, वा बज रहे
थे, गिलय और सड़क पर च दन-के सर िछड़का जा रहा था। वजा-पताकाएं फहरा रही
थ और भूिम पर पड़े कराहते ए राजा से रानी कह रही थी–‘‘राजन्, तु हारा गौरव,
यश, ित ा, मान, बड़ाई सब इसी म है क स य का पालन करो। राम को आज ही वन
भेजो और भरत को अभी रा य दो।’’
78. वन–गमन
गृ राज स पाित ारा सीता का समाचार सुन गजना करते ए स पूण वानर ने
समु -तट पर आ डेरा डाल दया। स मुख आकाश के समान अपार सागर था। समु को
देख वे सोचने लगे–कै से इस अपार सागर को पार कया जाएगा? यह तो अ य त दु कर
काय है। इस दु तर काय के स ब ध म बात करते-करते सभी वानर िवषाद त हो गए।
जब अंगद ने यह देखा तो कहा–‘‘वीरो, िच ता न करो, िवषाद को याग दो। िवषाद म
अनेक दोष ह। अत: वह िवचारशील के िलए या य है। िवषाद से पु षाथ का नाश होता
है। परा म के अवसर पर िवषाद त होने पर परा मी पु ष के तेज का नाश हो जाता है,
िजससे वह पु ष ठीक समय पर पु षाथ से िवहीन हो जाता है। अब कहो, तुमम से कौन
शूर इस सौ योजन िव तार के समु को लांघकर सम त यूथपितय को महान् संकट से मु
कर सकता है? कसक कृ पा से हम सफल-मनोरथ होकर घर लौटने और अपने ी-ब से
िमलने क आशा कर? हमम कौन वीर समु -लंघन म समथ है, जो यह दु कर काय कर हम
अभय दान करे ?’’
युवराज अंगद के वचन सुनकर भी सब यूथपित मौन हो बैठ गए। उनके मुंह से
बोल न िनकला। तब अंगद ने उ ेिजत होकर कहा–‘‘हे वीरो, आप अजेय यो ा ह,
महापरा मी ह, उ म कु ल म आपका ज म आ है, आपका परा म िव ुत है, फर भी
आप मौन ह! यह हमारे ाण का तथा हमारे वामी क ित ा का है, इसिलए हम
इस उ ोग म ाण भी देने पड़ तो हम उनक आ ित दगे। अब तुम कहो– कसम कतनी
शि है? म तो समझता ं क हम सभी समु -लंघन म समथ ह।’’
युवराज अंगद के वचन सुनकर यूथपित वानर अपना-अपना बल िनवेदन करने
लगे। गज ने कहा–‘‘म दस योजन तैर सकता ।ं ’’ गवा ने कहा–‘‘म बीस योजन जा
सकता ।ं ’’ शरभ ने कहा–‘‘म तीस योजन।’’ ॠिष बोला ‘‘म चालीस योजन तैर जा
सकता ।ं ’’ महातेज वी ग धमादन ने पचास योजन जाने क बात कही। तब मयंक ने साठ
योजन क अपनी शि बताई। यूथपित ि िवद ने कहा–‘‘म स र योजन तैर सकता ।ं ’’
फर सुषेण वानरपित ने अ सी योजन क हामी भरी। सबके बाद ॠ राज जा बव त ने
कहा–‘‘म वृ आ। मेरा पु षाथ ीण हो गया है, पर म न बे योजन तक जा सकता ।ं ’’
इस पर महावीयवान् अंगद ने कहा–‘‘म सौ योजन तक जा सकता ,ं पर तु लौटने
म सं द ध ।ं ’’ तब जा बव त ने कहा–‘‘युवराज, तु हारी शि म जानता –ं तुम सौ या,
पांच सौ योजन तैर सकते हो; पर तु तु हारा भेजना हम अभी नह है। तुम हम सबको
आ ा देने वाले, हमारे कटकपित हो। हम सब तु हारे आ ापालक सेवक ह। वामी क
र ा करना सेवक का कम है। तु हारे ऊपर सीता क खोज का दािय व-भार है, अत: तुम
अपनी आ ा से इ ह म से कसी को भेजो।’’ इस पर दु:िखत अंगद ने कहा–‘‘ॠ े , म
नह जाऊंगा तो फर यह काय स प नह होगा। हम सभी को मरण- त धारण करना
होगा। फर आप ही हम राह बताइए। आप हमारे ये और वयोवृ ह।’’ जा बव त ने बड़े
वेग क गजना क । उ ह ने एक ओर मौन बैठे हनुमान को स बोिधत करके कहा–‘‘अरे
मा ित, तुम कै से एक ओर मौन बैठे हो? अरे , तुम सकल शा के वे ा म े , अि तीय
वीर पवनकु मार, इस समय चुप य हो? यह या तु हारे मौन का काल है? अरे मा ित,
पृ वी पर तुम-सा बली कौन है? तु हारी गमन-शि से तो ग ड़ भी पधा करते ह।
तु हारा तेज और अ ितम ताप, मेधा-शि और धैय अप रसीम है। तु हारे रहते वानर-
समाज भला शोक-सागर म कै से डू बा रह सकता है! अरे वीर, तुम या अपने बल-िव म
को िब कु ल ही भूल बैठे? तु हारे अप रसीम पु षाथ को या हम बखानना पड़ेगा? तु हारे
रहते या मुझ वृ को दु:साहस करना पडे़गा? हे वायुकुमार, अपने बल को जा त करो।
तु हारा तेज और पु षाथ अ ितम है। जब म युवा था, मने इ स बार पृ वी क प र मा
क थी। बिल-य मने देखा था, समु -म थन भी देखा। अब म वृ हो गया ।ं वह बल,
परा म और साहस मुझम नह रह गया है। इस समय इन सब वानर यूथपितय म एक
तु ह इस मह व के काय के िलए समथ हो। फर य िवल ब कर रहे हो! उठो, हम सबका
उपकार करो। अपना परा म ध य करो।’’
हनुमान् ने जा बव त ॠ राज के ये वचन सुन बार-बार क ं ृ ित क । व उतार
डाले, लंगोट कसा, सवा ग म िस दूर का लेप कया और वे बार बार अपना व देह
कु भक ारा फु लाते ए सागर-अित मण को स हो गए।
हनुमान को इस कार उ त देख सब वानर हष म हो नाचने और िच ला-
िच लाकर हनुमान् मा ित का जय-जयकार करने लगे। वे परा मी हनुमान् क बारं बार
शंसा करने और गजना करने लगे। अब सब वयोवृ वानर ारा पूिजत हो अिमततेज
हनुमान् ने सब वानर को णाम कया और कहा–‘‘म िबना िव ाम कए ही इस सौ
योजन के सागर को तैरकर पार क ं गा। यह व णालय मेरी जांघ और पंडिलय के
आघात से पीिड़त हो अपनी मयादा को याग देगा। समु के इस कार मेरे थपेड़ से ु ध
होने पर उसम िनवास करने वाले बड़े-बड़े ाह अ दर से उसके ऊपर िनकल आएंग।े म
अ य त वेगवान् वैनतेय ग ड़ क गित क भी परवाह नह करता। म समु का लंघन कर,
दूसरी ओर भूिम पर उतरे िबना ही फर लौट आने म पूण समथ ।ं मुझे नभचर-जलचर
कसी का भय नह । इस समय म उ सािहत ,ं मुझे ऐसा तीत होता है क म दस हजार
योजन जा सकता ।ं म चा ं तो समु को सोख लूं। खूंदकर पृ वी को चूण कर दू।ं जब म
जल म छलांग भ ं गा और आकाश म भी, उस समय नाना लता-वृ -पु प मेरे साथ उड़
जाएंगे। म आकाश म छाया क भांित चलूंगा। अब पृ वी पर कोई स व मुझे रोक नह
सकता। म िन य ही भगवती सीता क खोज लगाऊंगा। अब आप सब िनि त रह। हष
मनाएं। मुझसे बना तो म समूची लंका ही को िव वंस करके लौटूंगा। आज म उस िव वा
मुिन के पु स ीपपित रावण और उसके इ िजत् पु को देखूंगा। य द वह स य ही
सीता भगवती का चोर है तो िन य जानो क अब उसके जीवन क इित हो चुक ।’’
इतना कह हनुमान् मा ित ने बारं बार व -गजना क । यह देख सभी वानर गजना
करने लगे। उनक सि मिलत गजना से वातावरण विनत हो उठा। अब जा बव त ॠ े
ने स मन कहा–‘‘वीरवर, हम सब तु हारी मंगल कामना करते ह। तु हारे लौटने तक
हम तु हारे िलए मंगल-अनु ान करगे। वीरवर, तुम गु जन और वृ जन के आशीवाद से
इस समु के पार जाओगे तथा काय िस करोगे, ऐसा हमारा िव ास है। तु हारा यह
दु:सह काय पृ वी म जब तक नृवंश है, अ ितम रहेगा। संसार का कोई ाणी कभी भी
तु हारे इस परा म क मता न कर सके गा। अब तुम इस महे पवत के िशखर पर चढ़
जाओ और वह से छलांग मारो।’’
यह सुनकर धीरगित से हनुमान् पवत-शृंग पर चढ़ गए। ग धव, य , र , वानर
सभी हतचेत-से खड़े हो मा ित के इस असह िव म को देखने लगे। संह के समान अिमत-
िव म मा ित िग रशृंग पर चढ़ कु भक-रे चक ारा शरीर को पवनपू रत करने लगे। पवन
के भर जाने से उनका व देह अ त और िवशाल हो गया। पवत-गुहा म रहनेवाले
तप वी और क र भयभीत तथा आ याि वत हो अपनी ि य -सिहत इधर-उधर दौड़ने
लगे। वायुपु हनुमान् ने अपना शरीर िहला, व गजना क , अपनी बिल भुजा को
पवत पर जमाया, फर पीठ क ओर ख चकर अपनी गदन और भुजा को िसकोड़ िलया।
तब उ ह ने ने उठाकर िव तीण समु पर दृि डाली। ाण को दय म रोका और
एकबारगी ही भयानक छलांग मारी।
हनुमान् के शरीर के साथ ही पवत-शृंग पर ि थत लता-गु म-वृ सभी फल-फू ल
टहिनयां समेत समु म जा िगरे । समु -गभ से ऊपर आकर उ ह ने एक बार पीछे फरकर
वानर के यूथ को देखा, फर डु बक ली। इस कार डु बक लेते-िनकलते वे समु म आगे
बढ़ने लगे। कभी वे छलांग भरते, कभी समु -तल म घुस जाते, कभी कसी बहती ई
का प का या त ख ड का आ य लेते, कभी दोन हाथ आकाश म उठाकर के वल लात से
जल को आंदोिलत करते। उनक आकाश म फै ली ई भुजाएं ऐसी तीत होती थ , जैसे
पवत से पांच फनवाले दो सप िनकल आए ह । उनक गोल पीले रं ग क बड़ी-बड़ी आंख
सूय और च मा के समान तीत होती थ । जब मा ित जल पर लात का आघात करते
तब उनक बगल से िनकलती ई हवा बादल के समान गजती थी। जहां-जहां वे आगे बढ़
रहे थे वहां-वहां समु उठती ई तरं ग तथा फे न से भर गया। वे अपने व - थल से समु
क दुगम तरं ग को तोड़ते-फोड़ते वेग से आगे बढ़ रहे थे। उनके वेग और मेघ से उ प ई
हवा ने समु को भी डांवाडोल कर दया, िजससे कछु ए, मगरम छ आ दजलचर जीव
ाकु ल होकर इधर-उधर भागने लगे। वे एक-एक छलांग म एक योजन पार कर रहे थे।
उस जगह का समु परनाले के समान िछछला था। जलगभ म िछपी ई च ान पर ण
भर चरण रख िव ाम लेत,े फर आगे कू द जाते। चार ओर अगम जल, चार ओर उ म
लहर, चार ओर िवषम संकट, पर तु मा ित बढ़े चले जा रहे थे। जब वे वायु म छलांग
भरते तो ग ड़ तीत होते थे। उनके वेग के साथ काले-पीले मेघ भी उड़ रहे थे। हनुमान्
कभी मेघ म िछप जाते, कभी कट हो जाते।
बीच सागर म मैनाक पवत क कु छ चो टयां जल-तल को पश करती देख हनुमान्
ने ण-भर वहां िव ाम कया और फर यह कहकर क ‘रामकाज कए िबना मोिह कहां
िव ाम,’ वे आगे बढ़े। पर तु इसी ण बीच सागर म एक िवकराल जीव मुंह फाड़ उ ह
सने को लपका। उसका पवत के समान िवशाल वदन था। महासप के समान आकृ ित थी।
उसक कांटेदार महापु छ थी। उसका िवकराल मुख भी एक गुहा के समान था। हनुमान्
जब तक संभल, तब तक उस िवकाराल ज तु ने उ ह समूचा ही िनगल िलया। हनुमान
िन पाय उस महाज तु के उदर म प चं तथा दप से उसका पेट फाड़कर बाहर िनकल आए।
फर उ ह ने एक कलकारी भर आकाश म छलांग भरी और दस योजन सागर पार कर
िलया।
इस कार धैय, सूझ, साहस और कौशल से सब िव -बाधा को पार कर
हनुमान् उस ओर समु -तट पर ीप के कनारे जा प चं े। वहां तट पर उगे ए सु दर वृ
तथा समु म िगरनेवाली न दय के मुहान से उसक शोभा अपूव हो रही थी। उ ह ने एक
सुरि त पवत-शृंग पर चढ़, फल-मूल खा िव ाम कया।
91. लंका म अ वेषण
उषा का उदय हो रहा था। राम-कटक सज रहा था। पर राम सब सेनािनय सिहत
ाकु ल भाव से बैठे परामश म म थे। िवभीषण, सु ीव, अंगद, जा बव त, नल, नील,
गय, ि पद, ॠ , वृषभ सभी सेनानायक, गु मपित राघवे को घेरे, आज होनेवाले काल-
समर के स ब ध म परामश कर रहे थे। लंका म यु के नगाड़े गड़गड़ा रहे थे। रा स के
जयिननाद और हष लास सुन-सुनकर वानर-सै य के मन म शंका का भूत बैठ रहा था।
राम ने कहा–‘‘िम र े , यह तो असा य साधन है। भला यह कै से स भव हो सकता है
क दुजय मेघनाद का िनर वध कया जाए? ऐसा सुयोग हम पा ही कै से सकते ह? हाय,
यह हमारा दुभा य ही समझना चािहए क सुरे का अनु ह और उमा, हेमवती का साद
पाकर भी हम उससे लाभाि वत नह हो रहे। र े , कहो, अब तु ह रघुवंश क डू बती
नाव को पार लगा सकते हो।’’ गदापािण िवभीषण ग भीर सोच म िनम हो गए। इसी
समय वानर-सै य को िवि मत करते ए मा ित सरमा को राम के स मुख ले आए। उ ह ने
कहा–‘‘यह रा सबाला आपके पादप म कु छ कू ट िनवेदन करना चाहती है।’’ राम ने
कहा–‘‘कह भ ,े म तेरा या ि य कर सकता !ं ’’
सरमा ने थम राम-ल मण को, फर िवभीषण को णाम करके कहा–‘‘धमा मा
रा सराज िवभीषण मुझे पहचानते ह, पहले ये सा ी द तो म कू ट िनवेदन क ं ।’’
िवभीषण ने कहा–‘‘म तुझे पहचानता ,ं तू सरमा कं करी है। मुझे मरण होता है,
तू अशोक वन क रि का रा सी सै य क अिध ा ी है।’’
‘‘और वैदहे ी क कं करी भी।’’
‘‘यह भी मने सुना था, भगवती से सौहाद रखने के कारण रा से क धषणा भी
पा चुक है।’’
‘‘तो राघवे स ह और कं करी के वचन पर िव ास कर। या म यहां सबके
सम कू ट िनवेदन क ं ?’’
‘‘कह भ ,े ये सब हमारे िव त सेनापित ह।’’
‘‘तो रथी मेघनाद इस ण एकाक िनकु भला य ागार म वै ानर क पूजा
कर रहा है। राघवे साहस कर तो इसी ण उसका िनर वध कर सकते ह। बस यह ण
चूके तो चूके।’’
यह सुनते ही सौिम उछलकर खड़े हो गए। उ ह ने कहा–‘‘हे क याणी, या तू
िनकु भला य ागार का माग जानती है? या तू माग बताकर अपना अनु ह शतगुण कर
सकती है?’’
‘‘गदापािण रा सिशरोमिण धमा मा िवभीषण को आपका वरद साि य ा
है। ये चाह तो आपको गु प से अग य य ागार म सश , िनर एकाक राविण के
स मुख, एक मु त म ही ले जाकर खड़ा कर सकते ह।’’
‘‘तो आय, अब िवल ब मत क िजए, अनुमित दीिजए, उषा का उदय हो रहा है।’’
राम ने आ नयन होकर कहा–‘‘भाई, िजसे देखकर देव, दै य सभी भयभीत होते
ह, िजसने देखते ही वानर-कटक से रि त हम बात क बात म शरिव कर दो-दो बार
भूपितत कया, उसके स मुख तु ह कै से जाने दू?ं िजस िवषधर के िवष से देव-नर तुर त
भ म हो जाते ह, कै से म उसक बांबी म तु ह अके ला भेजूं? अरे सौिम , सीता के उ ार का
अब कु छ योजन नह है। मने थ ही समु पर सेतु बांध श ु-िम के र से पृ वी को
रं गा। भा य-दोष से मने रा यपाट, माता-िपता, ब धु-बा धव सभी को खोया। इस मेरे
अ धकारावृ जीवन म एक जनकसुता सीता ही दीपिशखा थी, सो अदृ ने उसे भी बुझा
दया। अब एक तु ह मेरी आशा के आधार हो, तु ह म नह खोऊंगा। चलो सौिमि , वन
को लौट चल।’’
ल मण ने कहा–‘‘आय, ये कै से वचन म आपके मुंह से सुन रहा !ं लंका का
सौभा य सूय डू ब गया। लंका के जग यी सुभट के शव को िग और शृगाल खा रहे ह।
लाइए देवा , म अभी–इसी ण नराधम राविण का हनन करता ।ं ’’
िवभीषण ने अब धीर वर म कहा–‘‘राघव, सौिमि ठीक कहते ह, म उनके साथ
,ं आप िच ता न कर। सरमा का कू ट िनवेदन ब मू य है। यह भगवती क शुभिचि तका
कं करी है, इस पर संदह
े का कोई कारण नह है। यह कू ट योग हम चूकना नह चािहए।’’
‘‘िम ,’’–राम ने संत वर म कहा–‘‘जब मने िपता क आ ा से वनगमन कया
तो वीरवर ल मण त ण यौवन म सब सुख को ितलांजिल दे, वे छा से मेरे पीछे वन को
चल दए। तब माता सुिम ा ने नयना ुपात कर कहा था–‘राम, मेरे इस नयन-मिण को,
मेरे दय-धन को य से रखना!’ सो म अब इस ातृर को कै से संकट म डालूं, अथवा
प रणाम जो हो सो हो, म भी तु हारे साथ चलूं?’’
िवभीषण ने कहा–‘‘महाराज, आप कातर न ह । धैय के कु छ ण ही आते ह, जब
धैयवान क परी ा होती है। सरमा का कू ट योग ब मू य है, अब आप हम आ ा दीिजए।
ये ण थ ही जा रहे ह।’’
राम ने म तक नवा आंख से अ ु िगराए और कहा–‘‘लाओ देवा , म अपने हाथ
सौिमि का वीर-शृंगार क ं गा।’’ उ ह ने द कवच धारण कराकर, कमर म कृ पाण,
पीठ पर उमाद ढाल, हाथ म नागिस द धनुष, पीठ पर अ य तूणीर कस दया।
म तक पर लौह ाण सजा दया। सौिमि ने राघवे क दि णा करके सा ांग द डवत्
कया और कहा–‘‘आय, आशीवाद दीिजए, म आज दुधर श ु का संहार क ं !’’
‘‘भाई, जैसे पीठ दखाते हो, वैसे ही मुंह दखाना। िम र े िवभीषण मेरे
जीवन और मृ यु तु हारे ही हाथ ह। म अपना र तु ह स पता ।ं अब और या क ?ं
मातिल, सौिमि को तुम ले जाओ और ऐसे ही ले आओ, देव!’’
इतना कह राम िवकल भाव ले उि मन खड़े रहे। सौिमि और िवभीषण द
देवरथ म बैठ त ु गित से, िनकु भला य ागार म नीलप क म पूत आ ित देते ए
य दीि त, राविण का िनर वध करने चल पड़े।
117. जनरव