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kabir-jivan-parichay
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प्रारम्भिक जीवन
कबीर दास जी ज्ञानमार्ी शाखा के एक महान सतं ि समाज-सधु ारक थे। कबीर जी को सतं समदु ाय का प्रितुक
माना जाता है। कबीर दास जी का जन्म विक्रम संित 1455 अथाुत सन 1398 ईस्िी में हुआ था।
प्राचीन मान्यताओ ं के अनसु ार, इनका जन्म काशी के लहरतारा के आसपास हुआ था। यह भी माना जाता है वक
इनको जन्म देने िाली, एक विधिा ब्राह्मणी थी। इस विधिा ब्राह्मणी को र्रुु रामानंद स्िामी जी ने पत्रु प्रावि का
िरदान वदया था। वजसके पररणामस्िरूप कबीर दास जी का जन्म हुआ। लेवकन उस विधिा ब्राह्मणी को लोक-लाज
का भय सताने लर्ा। वक दवु नया उस पर लांछन लर्ाएर्ी। इसी िजह से उन्होंने, इस निजात वशशु को, काशी में
लहरतारा नामक तालाब के पास छोड़ वदया था।
इसके बाद उनका पालन-पोषण एक मवु स्लम जल ु ाहा दपं वत्त नीरू और नीमा ने वकया था। इस जल
ु ाहा दपं वत्त की
कोई संतान नहीं थी। इन्होंने ही कबीर दास जी का पालन-पोषण वकया।
म्िक्षा व गुरु
कबीर दास जी इतने ज्ञानी कै से थे आवखर उन्होंने यह ज्ञान कहां से प्राि वकया था उनके र्रुु को लेकर भी बहुत सारी
बातें हैं कुछ लोर् मानते हैं वक इनके र्रुु रामानदं जर्तर्रुु रामानदं जी थे इस बात की पवु ि स्ियं कबीर दास के इस दोहे
से वमलती है।
“काशी में हम प्रर्ट भए, रामानदं चेताए”
यह बात इन्होंने ही कही है। उन्हें जो ज्ञान वमला था। उन्होंने जो राम भवि की थी। िह रामानदं जी की देन थी। राम शब्द
का ज्ञान, उन्हें रामानंद जी ने ही वदया था। इसके पीछे भी एक रोचक कहानी है।
रामानदं जी उस समय एक बहुत बड़े र्रुु हुआ करते थे। रामानदं जी ने कबीरदास को, अपना वशष्य बनाने से मना कर
वदया था। यह बात कबीर दास जी को जमी नहीं। उन्होंने ठान वलया वक िह अपना र्रुु , जर्तर्रुु रामानंद को ही बनाएंर्े।
कबीरदास जी को ज्ञात हुआ वक रामानंद जी रोज सबु ह पंचर्ंर्ा घाट पर स्नान के वलए जाते हैं। इसवलए कबीर दास जी
घाट की सीवढयों पर लेट र्ए। जब िहां रामानदं जी आए। तो रामानदं जी का पैर, कबीर दास के शरीर पर पड़ र्या।
तभी रामानंद जी मखु से, राम-राम शब्द वनकल आया। जब कबीरदास जी ने रामानंद के मख ु से, राम राम शब्द सनु ा।
तो कबीरदास जी ने, उसे ही अपना दीक्षा मंत्र मान वलया। साथ ही र्रुु के रूप में, रामानदं जी को स्िीकार कर वलया।
अवधकतर लोर् रामानंद जी को ही कबीर का र्रुु मानते हैं लेवकन कुछ लोर् ऐसे भी हैं जो मानते हैं वक कबीर दास जी
के कोई र्रुु नहीं थे उन्हें वजतना भी ज्ञान प्राि हुआ है उन्होंने अपनी ही बदौलत वकया है कबीर दास जी पढे-वलखे नहीं
थे इस बात की पोस्ट के वलए भी पवु ि के वलए भी दोहा वमलता है
“मवस कार्ज छुओ नहीं, कलम र्ई नहीं हाथ”
अथाुत मैंने तो कभी कार्ज छुआ नहीं है। और कलम को कभी हाथ में पकड़ा ही नहीं है।
कबीरदास जी का दिशनिास्त्र
कबीरदास जी का मानना था वक धरती पर अलर्-अलर् धमों में बटिारा करना। यह सब वमथ है। र्लत है। यह एक ऐसे
संत थे। वजन्होंने वहदं ू मवु स्लम एकता को बढािा वदया। इन्होंने एक सािुभौवमक रास्ता बताया उन्होंने कहा वक ऐसा रास्ता
अपनाओ। वजसे सभी अनसु रण कर सके ।
जीिाममा और परमाममा का जो आध्यावममक वसद्धांत है। उस वसद्धांत को वदया। यानी मोक्ष क्या है। उन्होंने कहा वक
धरती पर जो भी जीिाममा और साक्षात जो ईश्वर है। जब इन दोनों का वमलन होता है। यही मोक्ष है। अथाुत जीिाममा
और परमाममा का वमलन ही मोक्ष है।
कबीर दास जी का विश्वास था। वक ईश्वर एक है। िो एक ईश्वरिाद में विश्वास करते थे। इन्होंने वहदं ू धमु में मवू तु की पजू ा
को नकारा। उन्होंने कहा वक पमथर को पजू ने से कुछ नहीं होर्ा।
“कबीर पाथर पजू े हरर वमलै, तो मैं पजू ूँू पहार।
घर की चाकी कोउ न पजू ै, जा पीस खाए ससं ार।”
कबीर दास जी ने ईश्वर को एक कहते हुए। अपने अंदर झांकने को कहा। भवि और सफ ू ी आंदोलन के जो विचार थे।
उनको बढािा वदया। मोक्ष को प्राि करने के जो कमुकांड और तपस्िी तरीके थे। उनकी आलोचना की।
इन्होंने ईश्वर को प्राि करने का तरीका बताया। वक दया भािना हर एक के अदं र होनी चावहए। जब तक यह भािना इसं ान
के अंदर नहीं होती। तब तक िह ईश्वर से साक्षामकार नहीं कर सकता। कबीर दास जी ने अवहसं ा का पाठ लोर्ों को
पढाया।
कबीरदास जी की मृत्यु
कबीर दास जी की मृमयु से जड़ु ी हुई। एक कहानी है। उस समय ऐसा माना जाता था। वक यवद काशी में वकसी की मृमयु
होती है। तो िह सीधे स्िर्ु को जाता है। िहीं अर्र मर्हर में, वकसी व्यवि की मृमयु होती है। तो िह सीधा नकु में जाएर्ा।
ऐसी मान्यता प्रचवलत थी। कबीरदास जी ने, इस मान्यता को तोड़ने के वलए, अपना अंवतम समय मर्हर में वबताने का
वनणुय वलया। वफर िह अपने अवं तम समय में, मर्हर चले र्ए। जहां पर उन्होंने विक्रम सिं त 1575 यानी सन 1519 ई०
मे अपनी देह का मयार् कर वदया।
कबीरदास जी की ममृ यु पर वििाद
कबीरदास जी के देह मयार्ने के बाद, उनके अनयु ाई आपस में झर्ड़ने लर्े। उन में वहदं ओ ु ं का कहना था वक कबीरदास
जी वहदं ू थे। उनका अंवतम संस्कार वहदं ू रीवत-ररिाजों के अनसु ार होना चावहए। िही मवु स्लम पक्ष के लोर्ों का कहना था
वक कबीर मवु स्लम थे। तो उनका अंवतम सस्ं कार इस्लाम धमु के अनसु ार होना चावहए।
तब कबीरदास जी ने देह मयार् के बाद, दशुन वदए। उन्होंने अपने अनयु ावययों से कहा वक मैं न तो कभी वहदं ू था। न ही
मवु स्लम। मैं तो दोनों ही था। मैं कह,ं तो मैं कुछ भी नहीं कहा था। या तो सब कुछ था। या तो कुछ भी नहीं था। मैं दोनों
में ही ईश्वर का साक्षामकार देख सकता ह।ं
ईश्वर तो एक ही है। इसे दो भार्ों में विभावजत मत करो। उन्होंने कहा वक मेरा कफन हटाकर देखो। जब उनका कफन
हटाया र्या। तो पाया वक िहां कोई शि था, ही नहीं। उसकी जर्ह उन्हें बहुत सारे पष्ु प वमले।
इन पष्ु पों को उन दोनों संप्रदायों में आपस में बांट वलया। वफर उन्होंने अपने-अपने रीवत-ररिाजों से, उनका अंवतम संस्कार
वकया। आज भी मर्हर में कबीर दास जी की मजार ि समावध दोनों ही हैं।
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