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TULSI DAL
TULSI DAL
TULSI DAL
काइ महानभु ाव
शिव
हेशमि स
कृष्ण
महावतार बाबा जी
महावीर
बद्ध
ु
लाओ त्सु
जोरास्टर
जीसस
महु म्मद
शमलोरपा
गरुु नानक
सेतू
डााँन जाअ
ु स
लोब साांग राांपा
ओिो रजनीि
सबको मेरा प्रमाण ।
ाआस तरह और भी ... काइ लोग
शवश्वशवख्यात ाऄथवा
शजनका नाम न सनु ा हो
सभी योगी हैं ।
सभी ाऄध्यात्म िास्त्रज्ञ हैं ।
शस्पररचाऄु ल वैज्ञाशनक है ।
हमें भी ईन जैसा बनना चानहए ।
1
ऄध्यात्म शास्त्र
एक ही िास्त्र है
शजसे सबको सवि प्रथम सीखना ही चाशहए ।
वही ाऄध्यात्म िास्त्र है ।
याशन शस्पररचाऄु ल सााआांस ।
जीवन की सच्चााइ को समझाने वाला िास्त्र ।
वही सबके शलए मूल है ।
2
अध्यानत्मक शास्त्र के नवभाग
ाऄध्यात्म िास्त्र पररज्ञान में चार मौशलक शवभाग है –
ध्यान ज्ञान – Meditation
ाअत्म ज्ञान प्रकाि – Elightenment
क्षण क्षण शनत्य जागशृ त – Awareness
मनोिशि - Thought Power
3
ध्यान
धी + यान = ध्यान
धी = सूक्ष्म िरीरादी समदु ाय के साथ प्रयाण ।
Astral Body Complex
यान = प्रयाण
ाआसशलए
ध्यान ाऄथाि त् सूक्ष्म िरीराशद समदु ाय के साथ प्रयाण ।
ाआसी को सक्ष्ु म िरीर यात्रा कहते हैं ।
4
नदव्य ज्ञान प्रकाश
हम क्या है ?
कौन है ?
कहााँ से ाअए है ?
कहााँ जा रहे है ?
क्यों पैदा हुए है ?
मरने के बाद क्या होता है ?
घटनाएाँ भी कै से घटती रहती है है ?
ाआन जन्म मरण चक्र का रहस्य क्या है ?
दैव का ाऄथि क्या है ?
यह ाऄदभतु सशृ ि क्रम कै से चल रहा है ?
ाआन सभी सवालो का
स्वानभु व के ाअधार पर
पूणि रूप से साधान प्राप्त करके ,
ाईसके ाऄनरू ु प जीना ही शदव्य ज्ञान प्रकाि को पाना है ।
5
ननत्य जागनृ त
शनत्य जागशृ त
ध्यान के माध्यम से
शदव्य ज्ञान प्रकाि के माध्यम से
ाईपलब्ध होने वाली शस्थशत है ।
ाआस शस्थशत में सदा जागशृ त रहती है ।
हमेिा वति मान स्फूशति में रहते हैं ।
जब चाहते है , शसफि तभी
भूत भशवष्य काल की छाया वति मान पर पड़ती है ।
ाआच्छा मात्र से ही ाईपशस्थत हो जाते हैं ।
ाऄध्यात्म िास्त्र के शवधाथी को
ध्यान में शनष्णात होने के बाद
शदव्य ज्ञान प्रकाि पाने के बाद
शनरन्तर ाऄभ्यास करने के बाद
पूणि ाऄध्यात्म िास्त्र ज्ञानी बनने के बाद ही
शनत्य जागशृ त शक शस्थशत प्राप्त होती है ।
हमारे भीतर और बाहर की पररशस्थशतयााँ
हर क्षण पररवशति त होती रहती हैं ।
हर चीज ाऄशस्थर है ,
कुछ भी शस्थर नहीं है ।
सभी चैतन्मय है ।
सभी पररवति निील है ।
∙ ननरन्तर बदिती दुननया में , प्रथततु संदभण और समथयाओं को पहचानकर, ईनके ऄनुरूप
प्रत्येक क्षण जागरुकता से रहना ही क्षण क्षण जागनृ त की नथथनत है ।
6
मनोशनि
‘ हममें जो िशि है वह ाऄनन्त है । ’
ऐसा समझकर ाईसका ाईपयोग करना चाशहए ।
हम जैसा चाहते है , वैसा ही होना चाशहए ।
सशु िशक्षत मन वालो के शलए
ाऄचांचल मन वालो के शलए
बद्ध
ु ीपूणि मन वालो के शलए
दशु नया में ाअगे ही बढ़ते जाना है ।
लेशकन यह मनोिशि
ध्यान के माध्यम से ही
शदव्य ज्ञान प्रकाि के माध्यम से ही
शदव्य जागशृ त द्रारा ही प्रबल होती है
और शकसी भी तरह प्रबल नहीं होती ।
7
ध्यान के िाभ
ध्यान से हमें
छाः प्रकार के लाभ होते है –
िारीररक ाअरोग्य
मानशसक िाांशत
बद्ध
ु ी - कुिलता
ाअशथि क सक्षमता
सशु मत प्राशप्त
ाअध्यशत्मक ज्ञान
ध्यान योग से ाऄनशभज्ञ व्यशि को ाअध्याशत्मक सत्य नहीं शदखते और ध्यानी लोग पूरी तरह शजन्दा
रहते हैं । पररणामताः ाईन्हे शकसी प्रकार की ाऄस्वस्थता नहीं रहती ।
∙ जो ध्यानी नहीं हैं , ईन्हे शारीररक अरोग्य, माननसक शांनत, बुद्धी –कुशिता, अनथणक
संपन्नता, सामानजक थवाथथय तथा अध्यानत्मक ज्ञान प्राप्त नहीं होता ।
8
कुछ अध्यानत्मक सत्य
∙ सशृ ि में करोड़ो लोक हैं ।
∙ हमारे काइ िरीर हैं ।
∙ ाअकाि से होने वाली वर्ाि की तरह ही मूल चैतन्य से ाअत्माओां की सशृ ि चलती ही रहती है ।
∙ ाआतना ही नहीं , पूणाि त्मा ाऄथाि त् पररणती प्राप्त ाअत्माओां से भी ाऄपने नूतन ाऄांिात्माओां का सशृ ि कायि
जारी ही रहता है ।
∙ चाहे मूल चैतन्य से ाअत्मा हो या पूणाि त्मा से जन्मे हुए ाऄांिात्मा हो, जन्म – मरण चक्र में या ाईसके
बाहर सभी ाऄनभु वो को प्राप्त करना चाशहए ।
∙ सभी ाअत्माओ को सभी रूप से पररणती प्राप्त कर लेनी चाशहए लेशकन सभी ाअत्माओां की स्वतन्त्र
ाआच्छा भी रहती है ।
∙ ाऄपनी ाऄपनी ाआच्छा से कायि करते , फल भोगते , काइ पाठ सीखते रहना चलता रहता है ।
∙ ाआसी प्रकार और भी बहुत से सत्य हैं । सभी को सीखते व जानते रहना चाशहए ।
9
चैतन्य ही मूि
चैतन्य
( Consciousness )
चैतन्य की शाखाएँ
( Unit of Consciousness )
पदाथण देही
( Matter ) ( entry )
सजीव देह
( Embodied Entities )
10
मेनडटेशन-1
MEDITATION-1
‘ मेशडटेिन ’ िब्द में बहुत कुछ ाऄन्तशनि शहत है –
M = Meditation ध्यान
E= Energy Conservation िशि सांयोजन
D = Detachment शनस्सांगता
I = Intent दीक्षा, सांकलप
T = Third eye सूक्ष्म िरीरयान
T = Thought Power मनोिशि
I = Intellect बद्ध
ु ी
O = Overself contact पूणाि त्मा ज्ञान
N = Nirvana मोक्ष , मशु ि
∙ Meditation ऄथाणत जो करना चानहए, यनद ईसे नकया तो जो पाना चानहए, वह प्राप्त होता है ।
डा. युगधं र
( कनि ूल शस्पररचाऄ
ु ल सोसायटी )
11
मेनडटेशन-2
MEDITATION-2
‘ MEDITATION ’ िब्द में बहुत कुछ ाऄन्तशनि शहत है –
∙ आसनिए शा‚वत रूप से बुद्धी को ननवाणण की ओर मोड़कर, ईसकी Tuning करके ईसमें
जीवन चिाना ही ध्यान है ।
12
यदभावम् तदभवनत
हमेिा हमारी भावना ही
हमारा वास्तव बनकर पररवशति त होती है ।
ाआसशलए-
शवनािकारक शवचारों से शवनािकारक पररणाम
( Disastrous Thinking ) ( Disastrous results )
शनरािात्मक शवचारों से शनरािात्मक पररणाम
( Negative thinking ) ( Negative results )
ाअिापूणि शवचारों से ाअिादायक पररणाम
( Positive thinking ) ( Positive results )
चमत्कारी शवचारो से ाऄदभतु पररणाम
( Miraculous thinking ) ( Miraculous results )
हुाअ करते हैं ।
∙ तीव्र रूप से आनच्छत , नत्रकरण शुद्धी से नकया हुअ नव‚वास , गहन रूप से नकए गए नवचार,
ईत्साह से नकए गए प्रयत्न – कुछ भी चाहो, वह होकर ही रहेगा ।
सैनबििीक् मातामनह
13
एकमात्र सत्य
‘हम स्वयां ाऄपनी वास्तशवकता की सशृ ि कर रहे हैं । ’
यही एकमात्र सत्य है ।
ाआतना ही नहीं
दूसरा कोाइ हमारी सहायता नहीं कर सकता ।
दूसरा कोाइ हमारा नक
ु सान भी नहीं कर सकता ।
∙ ऄपनी उध्वणगनत के भी और ऄधोगनत के भी हम थवयं ही कारक है , नजम्मेवार हैं ।
14
जीवन के परमाथण
यह जीवन है –
सभी शवर्यों का ाऄनभु व करने के शलए,
सकल कलाओां, सकल शवद्याओां का ाऄभ्यास करने के शलए,
ाऄध्यात्म िास्त्र को पूणि रूप से जानने के शलए और
मख्ु य रूप से ाअध्याशत्मक िशियों को पाने के शलए ।
ाआसशलए
15
नत्रनवध अनन्द
ाअनन्द तीन प्रकार के होते हैं –
शवर्यानन्द
भजनानन्द
ब्रह्मानन्द
हमारा जीवन है
∙ ऄन्नमय कोश के माध्यम से नवषयानंद प्रानप्त के निए ।
∙ मनोमय कोश के माध्यम से भजनानन्द प्रानप्त के निए ।
∙ नवज्ञानमय कोश और अनन्दमय कोश के माध्यम से ब्रह्मानन्द प्रानप्त के निए ।
16
ऄनन्तम ध्येय
‘ शत्रकाल ज्ञानी बनना चाशहए ।’
‘ शत्रलोक सांचारी बनना चाशहए । ’
‘ ाआस माांसशपांड को मन्त्रशपांड बनाना चाशहए । ’
यही है प्रत्येक व्यशि का ाऄशन्तम ध्येय ।
जन्म परम्परा में ये सभी सस ु ाध्य हैं ।
शजस जन्म में, ाआन ाऄशन्तम ध्येयों कों
प्राप्त करने के शलए चनु ते है ,
वही जन्म ाऄशन्तम जन्म होता है
‘ यद् भावम् तद् भवशत ।
या मशताः सा गशतभि वेत् । ’
ाऄथाि त्
हमारे मन के ाऄनस ु ार ही हमारी गशत भी रहती है । ाआन लक्ष्यों को हमारी ‘मशत ’
में रखकर दीक्षा से साधना करने से शनशित रूप से हमारी ‘ गशत ’ भी वैसी ही होती है ।
∙ ऄनन्तम ध्येयों की ही िक्ष्य रखेगें ।
∙ आसी जन्म को ही ऄनन्तम जन्म बनाएँगें ।
17
हर नदन क्या करना चानहए ?
हर शदन
कम से कम
∙ एक घन्टा – ध्यान
∙ एक घन्टा – थवाध्याय
∙ एक घन्टा – सज्जन सांगत्य करना ही चानहए ।
∙ बाकी समय में संतोष में रहकर सदा सभी कोनों में जीवन का ऄनभु व करना चानहए ।
‚ B. H. E. L. ‛
Be Happy & Enjoy Life
18
ऄक्षराभ्यास
ाऄ+क्षर = ाऄक्षर
जो क्षर नहीं होता , वह ाऄक्षर है ।
‘ क्षर’ाऄथाि त् ‘ नाि होना ’
‘ ाऄक्षर ’ाऄथाि त् ‘ नाि न होना । ’
19
तत्क्षण कतणव्य
तत्+क्षण = तत्क्षण
तत्क्षण ाऄथाि त् प्रस्ततु क्षण
‘ जो करना चाशहए ’ वह है ‘ कर्त्िव्य ’
प्रत्येक क्षण में जो करना चाशहए,
हमेिा ऐसे काइ काम रहते हैं ।
लेशकन ाईनमें ‘ जो करना चाशहए ’, वह हमेिा एक ही रहता है । जो करना चाशहए, ाईनमे करने लायक
काम को पहचानकर ाईसमें शनमग्न होने वाला ही कर्त्िव्यशनष्ठ होता है ।
‘ तत्क्षण कर्त्िव्य ’ ाऄथाि त्
‘ ाआस प्रस्ततु क्षण में जो करना चाशहए वह कायि ’
हमारी या दूसरों की मानशसक शस्थशतयााँ हो
या बाहर की पररशस्थशतयााँ ,
प्रत्येक क्षण पररवशति त होती ही रहती हैं ।
ऐसे पररवति निील प्रत्येक क्षण में और
प्रत्येक पररशस्थशत में भी कर्त्िव्यशनष्ठ रहना चाशहए ।
बद्ध
ु ने कहा है –
चलते समय चलना चाशहए,
खाते समय खाना चाशहए ।
ाऄपने शनयत काम को छोड़ कर मन को
एक क्षण भी परध्यान में नहीं रहना चाशहए ।
20
प्रजल्प रानहत्य
मनष्ु यो को
चाहे िारीररक रूप से , मानसीक रूप से , या ाअध्याशत्मक रूप से, हीन शस्थशत से ाईन्नत शस्थती को
पाने के शलए
जो गणु चाशहए वह है ‘ प्रजल्प राशहत्य ’
‘ प्रजलप ’ ाऄथाि त् ‘ ाऄसांबद्ध प्रलाप ’या ‘ बकवास ’।
‘ प्रजल्पराशहत्य ’ ाऄथाि त बेकार बातें न करना ।
तब देह ाऄपनी सहज प्राण िशि को गाँवा नहीं देती ।
प्रजल्प को बााँध के रखना चाशहए ।
प्रजल्प ही मनष्ु य को काने वाला कैं सर रोग है ।
महुाँ से एक भी ाऄनावश्यक बात नहीं शनकलनी चाशहए ।
तब हमारे भीतर ाऄपार िशि का सांग्रह होना िरुु होता है ।
‘ प्रजल्प राशहत्य ’ का ाऄथि है मौशलक ाअध्याशत्मक साधना ।
वाक् क्षेत्र सदा िास्त्रीय होना चाशहए ।
ाआसके द्रारा बची हुाइ प्राण िशि ही हमारी िारीररक, मानसीक व ाअध्याशत्मक पराकाष्ठा में काम ाअती
है ।
21
नक्रया योग
‘ शक्रया ’ ाऄथाि त ‘जो करना चाशहए ’,
‘ योग ’ ाऄथाि त ‘ साधना ’।
ाआसशलए शक्रयायोग का ाऄथि है ,
‘ वह साधना , जो करनी चाशहए । ’
ाआसशलए
हमें शक्रयायोग करना चाशहए ।
22
थवाध्याय
ध्यान शजतना महत्त्वपूणि है ,
स्वाध्याय भी ाईतना ही महत्त्वपूणि है ।
23
एक योगी की अत्मकथा
योगानांद परमहांस
द्रारा शलशखत महत्त्वपूणि पस्ु तक
‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी ’
( Autobiography of a Yogi )
शहन्दी में ‘ योगी कथामतृ ’ ।
महावतार बाबा जी के बारे में शलखी हुाइ शकताब ।
महावतार बाबा जी ाआस भूशम का वीक्षण करने वाले
परम गरुु ओां में ाऄग्रगण्य है ।
मत्ृ यु के बाद यि
ु े श्वर जी द्रारा
सिरीर वापस लौटकर योगानन्द जी को
मरणोपरान्त जीवन के बारे में
शववरण सशहत बताए जाने से
सम्बशन्धत ाऄद्भतु ाऄध्याय है ।
24
नहमािय के योगी
स्वामी रामा द्रारा शलशखत
ाऄनपु म योग पस्ु तक
‘ शलशवांग शवद द शहमालयन मास्टसि ’
( Living with the Himalayan Masters )
25
संभोग से समानध की और
सांभोग है
भोशतक ाअनन्द की पराकाष्ठा ।
लेशकन समाशध शस्थशत है
ाईससे भी बढ़कर
ाअत्मा के साथ िाश्वत रूप से
रहने वाली ब्रह्मानन्द शस्थती ।
ध्यान के माध्यम से
शदव्यज्ञान प्रकाि के माध्यम से
ाआस जन्म के परम ाऄथि
समाशध शस्थशत को ाऄवश्य पाना चाशहए ।
∙ नहन्दी में ओशो रजनीश की ऄनुपम पुथतको का भण्डार है । सभी साधकों को आनका सदुपयोग
करना चानहए ।
26
ओशो रजनीश
ओिो ।
वाह रे वाह
What a great Master !
27
िोब सांग राम्पा
1979 में मझु े जागतृ करने वाले कारुण्य मूशति
बीसवी िताब्दी के महान शतब्बती योगी
लोबसाांग राम्पा ।
28
ररचडण बाक़
सम्पूणि ाअध्याशत्मक शवकास के
सच्चे प्रशतरूप हैं – ररचडि बाक़ ।
ाईनकी पस्ु तकें –
∙ जॉनाथन शलशवांग्स्टन सीगल ( Jonathan Livingston Seagull )
∙ ाआल्यूजन्स ( Illusions )
∙ द शब्रज एक्रॉस फारएवर ( The Bridge Across Forever )
∙ रशनांग फ्रॉम सेफ्टी ( Running From Safety )
∙ वन ( One )
ाअदी ाऄनपु म ाअध्याशत्मक ज्ञान मशणयााँ है । ाईदाहरण के शलए ‘ Illiusions ’ से चनु ा हुाअ एक
ाऄनमोल मोती-
‘‘ The mark of your ignorance is the depth
Of your belief in injustice and tragedy. ’’
‘’ाऄन्याय और दाःु ख में तमु शकतना ाऄशधक शवश्वास रखते हो , ाआस बात की पहचान है तम्ु हारा ाऄज्ञान !’’
29
डान जअ
ु न / कािोस काथटानेडा
ाअधशु नक ाअध्याशत्मक िास्त्रज्ञों में
ाअध्याशत्मक िास्त्र ाऄध्यापकों में
डान जाअु न प्रथम श्रेणी के हैं !
ाईनका एक सूत्र –
शजज्ञासु जब ममु क्षु ु बनता है ,
तो थोड़े समय में ज्ञानी बनकर
साधना की परम शस्थशत के द्रारा
ाऄन्त में रिा बनता है ।
शजज्ञासु ( Apprentice )
ममु क्षु ु ( Warrior )
ज्ञानी ( Knower )
रिा ( Seer )
∙ डान जुअन, ईनके गरुु और ईनके सानथयो की योगनसद्धी के बारे मे, पररपूणण अत्मज्ञान के बारे
में ईनके नशष्य कािोस काथटानेडा द्वारा निनखत ऄद्भुत नकताबों को पढ़ना ही चानहए ।
30
ममु क्ष
ु ु के शत्रु
ममु क्षु ु को चार तरह के ित्रओ
ु ां से ाऄपने ाअप को बचाना चाशहए ।
वे ित्रु है –
भय (3) शसद्धीयााँ
पररशमत ज्ञान (4) वद्ध
ृ त्व – भावनाएाँ
∙ ममु क्ष
ु ु को भय, सीनमत ज्ञान, नसद्धीयों ओर वृद्धत्व-भावना रूपी शत्रुओ ं को जीतना चानहए ।
31
जेन राबट्णस / सेत्
भौशतक िास्त्रज्ञों में
जैसे ाअाआस्टााइन हैं,
वैसे ाअध्याशत्मक वैज्ञाशनकों में सेत् ( Seth ) है
‘ सेत् ’ ाउध्वि लोक के एक पूणाि त्मा हैं ।
जेन रॉबटि स नामक मशहला के माध्यम से
1965 से 1985 तक चैनशलांग प्रशकया द्रारा
भूलोक को पूणि ज्ञान पहुचाँ ाने वाले महात्मा हैं ।
सेत् की शकताबे शहन्दी में ?
सेत् ज्ञान समझने के शलए ाऄांग्रेजी सीखना ही चाशहए ।
32
निंडा गडु ् मन
शलांडा गडु मन
ाऄसाधारण योशगनी हैं
ाऄसाधारण ाअध्याशत्मक िास्त्र वेर्त्ा हैं ।
ाऄभी ाऄभी ाआस पथ्ृ वी पर 300 वर्ि तक
रहने के बाद ाआस भौशतक िरीर को छोड़ा है ।
‘ स्टार सााआन्ज ’ ( Star Signs ) ाईनकी ाऄद् भतु कृशत है
शस्पररचाऄु ल सााआांस के बारे में शलखी हुाइ
बहुत ही ाऄच्छी पस्ु तक है ।
शदमाग भौशतक िरीर से सम्बशन्धत है ।
शदव्यचक्षु सूक्ष्म िरीर से सम्बशन्धत है ।
मन, शदमाग का मूल है ।
ाऄांिात्मा , शदव्यचक्षु का मूल है ।
सब का मूल है , पूणाि त्मा ।
∙ ध्यान के माध्यम से आस क्रम के बारे में थवानुभवपूवणक समझ सकते हैं । तब हम भी निंडा गडु ् मन
जैसे अध्यानत्मक वैज्ञाननक बन जाएँगें ।
33
जीसस
जीसस ने कहा है –
34
महु म्मद
‘ तम्ु हें धरती पर ाऄांकुर जैसे ाईगना चाशहए ,
ऐसा ाऄल्लाह ने शकया है ।
ाऄब शफर धरती में भेजता है ,
नए रूप से और ाउपर लाता है । ’
कुरान
35
जोराथटर
जोरास्रीयन मत के सांस्थापक
जोरास्टर महा ाऊशर् हैं ।
ाईनके द्रारा बताए गए ाऄनमोल
मोशतयों में से एक मोती है –
‘ तम्ु हारे पास शजतना है,
ाईतने में हमेिा सांतप्तृ रहो,
लेशकन ाअत्मा की प्रगशत में तो
कभी भी सांतप्तृ मत बनो । ’
और एक ाऄनमोल मोती-
‘ाऄपनी ाअत्मा रूपी नदी के प्रवाह का िोधन करो,
ाऄपने पररणाम क्रम के बारे में सोचो ,
ाऄपने पूवि जन्मों के बारे में, पूणाि त्मा के बारे में,
तमु शकस लोक से ाअए हो,
ाआसके बारे में पररिोधन करो । ’
यही जोरास्टर का सन्देि है ।
36
जिािद्ध
ु ीन रुमी
पशिि या देि के
जलालद्दु ीन रुमी
एक महान सूफी सन्त है ।
ाईनके द्रारा कहा गया एक सत्य वाक्य है –
‘‘ मैं खशनज जैसे मरकर , ाऄांकुर के रूप में पररवशति त हुाअ ।
ाऄांकुर जैसे मरकर , कीट बन कर पैदा हुाअ ।
कीट जैसे मरकर , मनष्ु य के रूप में ाऄवतररत हुाअ ।
ाऄब मैं शकस शलए डरूाँ ?
मर जाने से मझ ु े क्या नक
ु सान हुाअ ? ’’
‘‘ ाआतना ही नहीं, मैं मनष्ु य जैसे भी मर जााउाँगा ।
मर कर मैं देवता बनकर देवलोक में जााउाँगा ।
वहााँ से और भी ाउपर के लोको में जा सकता हाँ ।
िायद मैं और ाउपर, और भी ाउपर जाकर
ाईस शस्थशत मैं पहुचाँ जााउाँगा जहााँ
कोाइ कल्पना भी नहीं कर सकता ।’’
37
गयथे
यूरोप के ाअधशु नक यगु के
महान तत्त्ववेर्त्ा, महान मेधावी !
जन्म और मरण रूपी पररणाम क्रम धमि
को तमु जब तक नहीं समझते
तब तक ाआस धरती पर तमु ऐसे ाऄशतशथ हो ,
शजसने गम्य को जाना पहचाना नहीं है ।
38
कन््यूनशयस
छठी िताब्दी ाइसा पूवि के
चीन देि के महान ज्ञानी
कन्फ्यूशियस ने कहा है –
‘‘ यशद दशु नया को, ाऄपने देि की महानता शदखानी है,
तो पहले राज्यो को ाऄच्छा रखना चाशहए ।
राज्यो को ाऄच्छा रखने के शलए पहले पररवारो को ाऄच्छा रखना चाशहए ।
पररवारो को ाऄच्छा रखना है तो व्यशिगत जीवन को सधु ार लेना चाशहए।
व्यशिगत जीवन को सधु ार लेने के शलए श्रद्धा और दीक्षा प्रमख ु हैं।
श्रद्धा और दीक्षा पाने के शलए ज्ञान का शवस्तार होना चाशहए ।
ज्ञान का शवस्तार होने के शलए सभी को िोधन करना ही चाशहए ।’’
वस्तु तत्त्व के पररिोधन के माध्यम से,ज्ञान का शवस्तार होता है ।
ज्ञान का शवस्तार होने से श्रदा व दीक्षा ाऄकांु शठत बनती है ।
दीक्षा ाऄकांु शठत होने से बद्ध
ु ीहीनता शमट जाती है ।
बद्ध
ु ीहीनता शमटने से व्यशिगत जीवन ठीक बनता है ।
व्यशिगत जीवन ठीक होने से पररवार ाऄच्छे रहते है ।
पररवार ाऄच्छे रहने से राज्य ठीक रहते है ।
राज्य ठीक रहने से देि का ाईद्धार होता है ।
तभी तो तम्ु हारा देि ाऄपनी महानता का सारी दशु नया में प्रसार कर सकता है ।
39
प्िेटो
पााँचवीं िताब्दी ाइसा पूवि के
यूनान देि के तत्त्ववेर्त्ा,
सक ु रात के शिष्य हैं प्लेटो ।
ाईनकी कुछ सूशियााँ-
‘‘ भगवान ाऄथाि त् समूचे शवश्व में व्याप्त शववेक बशु द्ध ।’’
‘‘ ाअत्मा ाऄशवनािी है ।’’
‘‘ मनष्ु य लौशकक व्यवहार में शसर नीचे करके डूबकर ाऄपने पांखों
को खो बैठा है । ाआससे पूवि वह ाअध्याशत्मकता प्रपांच (जगत) में
देवताओां के समान जीता था । ाईस दशु नया में सब कुछ यथाि थ भी
है और पशवत्र भी ।’’
40
चुअगं त्सु
चीन देि के ाऄत्यर्त्
ु म ाऊशर् ,
ाअध्याशत्मक तत्त्ववेर्त्ा हैं चाअ
ु ांग त्सु
ाईनकी कुछ सूशियााँ-
‘‘ जीवन है तो मरण है ।
ाआसी प्रकार यशद मरण है तो शफर जीवन भी है ।
शसफि कुिल बशु द्ध वाले ही समझते हैं शक ये सब एक ही है ।’’
‘‘ ाईर्त्म व्यशि हमेिा ाअध्याशत्मक वैज्ञाशनक ही है । ाईसे जन्म मरण स्पिि नहीं करतें । ाआस जीवन के
हाशन लाभ , ऐसे व्यशियों को छू भी नहीं सकते ।’’
‘‘ जन्म मरण चक्र के बारे में , काल के बारे में , िभु - ाऄिभु के बारे में भूल जााआए । ाऄनांतत्व में शवश्राम
पााआए । ’’
‘‘ सम्यक ज्ञान पाने के शलए , मनष्ु य को पहले शत्रकरण िशु द्ध पाना चाशहए । ज्ञानी लोग यह समझते है
शक वे और ाईनके िरीर ाऄलग-ाऄलग है ।’’
‘‘ ज्ञानी के शलए ाअत्मा का नाि नहीं है ’’
के वल िरीर का नाि है ।
मात्र स्थान पररवति न ही है ,
वास्तशवक नाि नहीं है ।’’
∙ चुअगं त्सु , िाओत्सु जैसे महाज्ञाननयों की नकताबों को पढ़ने के बाद ही अध्यानत्मक ज्ञान
नमिता है ।
41
ऄन्नमय्या
ाऄन्नमय्या महान योगी है , महान ज्ञानी हैं ।
ाआसीशलए शनम्नोि शवर्यों को ाऄशभव्यि कर सके ।
42
गौतम बुद्ध
धम्मपद में बद्धु ने
ाआस तरह कहा है –
‘ शनरयां पाप कशम्मनो
सांगां सगु शतनो यांशत, पररशनब्बांशत ाऄनासवा । ’( पाली )
ाआसी प्रकार
‘ मझु से पहले भी काइ बद्ध
ु ाअए है ,
मेरे बाद भी काइ बद्ध
ु ाअएाँगे । ’
43
चार अयण सत्य
ाआन चार परम सत्यों को
गौतम बद्धु ने समझ शलया है –
दाःु ख सवि त्र है ।
तष्ृ णा ही दाःु ख का मूल कारण है ।
यह तष्ृ णा ाऄशवद्या से पैदा होती है ।
ाऄिाांग मागि ही ाऄशवद्या का शवनािक है ।
44
ऄिांग मागण
गौतम बद्ध
ु द्रारा
हमे शदया हुाअ ाऄिाांग मागि
ाआस प्रकार है-
ाऄिाांग मागि के ाऄनष्ठु ान द्रारा ाऄशवद्या दूर होने से तष्ृ णा शमटती है , तन्मूलक दाःु ख का शनमि ूलन होता है
।
ाऄिाांग मागि में प्रज्ञा, िील समाशध से सम्बशन्धत शिक्षा है ।
45
सही दृक्पथ
सही दृक्पथ ये है –
िशि चैतन्य और ज्ञान ाआन तीनों का समदु ाय ‘ मैं ’ है ।
चैतन्य से ही भौशतक िरीर का जन्म हुाअ है,
लेशकन भौशतक िरीर से चैतन्य का जन्म नहीं हुाअ है ।
चैतन्य के शवस्तार के शलए कभी भी समय की सीमा
नहीं है , ाऄसाध्य जो है , वह है ही नहीं ।
हर एक तात्काशलक ही है ।
हम स्वांय ही ाऄपनी वास्तशवकता की
सशृ ि करते रहते हैं ।
भूतकाल और भशवष्यकाल कुछ भी नहीं है ।
सब कुछ वति मान ही है ।
46
मध्यमागण
सीशमत ाअहार
सीशमत शवहार
सीशमत शवशधयिु धमि
सीशमत शनरा
सीशमत ध्यान रहना चाशहए ।
47
ब्रह्म नवहार
गौतम बद्ध ु द्रारा शनदेशित
सही प्रवति न के सूत्र ये हैं –
ये सूत्र ब्रह्मज्ञानी समाज में
सांचार करने की ररशत को समझाते हैाः
मैत्री – ाअशथि क रूप से हमसे ाईच्च स्तर में रहने
वालो के साथ ।
करुणा- ाअशथि क रूप से हमसे शनम्न स्तर में रहने
वालो के साथ
मशु दत – ाअध्याशत्मक रूप से हमसे ाईच्च स्तर में
रहने वालो के साथ ।
ाईपेक्षा – ाअध्याशत्मक रूप से हमसे शनम्न स्तर में
रहने वालों के साथ ।
48
धम्मपद में
धम्मपद में महात्मा बद्ध
ु द्रारा कही गाइ कुछ ाऄमूल्य बातेाः
‘ ाऄशभद् धरेथ कल्याणे ’ (पाली )
( ाऄशभत्वरेत कल्याणे ) ( सांस्कृत )
49
ऄर्त्ानह ऄर्त्नो नाथो
धम्मपद में बद्ध
ु ने कहा
ाआस प्रकार कहा है –
‘ ाऄर्त्ना चोदयर्त्ानां , पशटमाने ाऄर्त्मर्त्ना ’ (पाली )
( ाअत्मान चोदये दात्मानाम्, प्रशतवसेदात्मानमात्मना ) ( सांस्कृत)
‘सद्ध
ु ी ाऄिद्ध
ु ी पच्चर्त्ां नाञ्ञ ाऄञ्ञां शवसोदये ’ (पाली )
( िद्ध
ु ी, ाऄिद्ध
ु ी , प्रत्यात्मां, नान्योन्यां शविोधयेत ) ( सांस्कृत )
50
बुद्ध की दृनि में ब्राह्मण
शजसने शनवाि ण शस्थशत को प्राप्त शकया है ,
वही ब्राह्मण है ।
बद्ध
ु ने धम्मपद में ाआस प्रकार का शववरण शदया हैाः
' न चाहां ब्राह्मणां भूशम , यो शनजां मशर्त्सांभवम् ' ( पाली )
( न चाहां ब्राह्मणां ब्रवीशम , यो शनजां मातृ सांभवम् ) ( सांस्कृत )
* जो नसर्ण ब्राह्मण स्त्री के गभण से पैदा हुअ है ,
ईसे मैं ब्राह्मण नहीं कहता ।
पच्ु चे शनवासां या वेशद , सग्गापायञ्च पस्सशत ।
ाऄथो जाशतकखयां पर्त्ो , ाऄशभवोशसतो मशु न
सब्ब वोशसत वसानां , तमहां भूशम ब्राह्मणां ' ( पाली )
( पूवि शनवसम् यो वेद , स्वगाि , वायञ्च पश्यशत ाऄथ :
जाशतक्षयां प्राप्तो , ाऄशभज्ञाव्यवशसांतो मशु न ।
सवि व्यावशसतावसानम् , तमहम् , ब्रवीशम ब्राह्मणम् ) ( सांस्कृत )
* नजसको पूवण जन्म का ज्ञान है ,
जो ज्ञान नेत्र से थवगण और नरक को देखता है ,
नजसने जन्म रानहत्य को प्राप्त नकया है ,
जो ऄनभज्ञा ( नदव्यज्ञान ) परायण है ,
जो मनु न कृतकृत्य है ,
ईसको ही मैं ब्राह्मण कहता हँ ।
51
नारद की सिाह
नारद ने कहा है –
‘ ऐसा कभी भी मत कहना शक
मझु े ाऄनभु व नहीं हुाअ है , ाआसशलए वह हकीकत नहीं है ;
ाऄध्ययन शकया तो ही वास्तशवकता का पता चलता है ।
वास्तशवकता का पता चलने से ही
पररशस्थशतयााँ समझ में ाअती हैं ।
पररशस्थशतयााँ समझ में ाअने के बाद ही
सही फै सला कर सकते हैं ।
ाआसशलए जीसस ने भी कहा है शक
' Judge ye not ' ।
ाऄथाि त् ‘ जल्दबाजी में कभी भी फै सला मत करना ।
नदव्यचक्षु के माध्यम से ही नकसी भी नवषय की
सही जानकारी पा सकते हैं ।
हर हाित में योगी ही र्ैसिा देने में समथण होते हैं ।
जो योगी नहीं हैं , वे र्ैसिा नहीं दे सकते ।
52
महदवधान ।
‘ महत् ' ाऄथाि त् ज्यादा
' ाऄवधान ' ाऄथाि त् पढ़ना
ाआसशलए ' महदवधान ' का ाऄथि है सबसे ज्यादा पढना ।
िांकराचायि के भजगोशवन्दम् का एक श्लोक –
प्राणायामम् प्रत्याहारम् , शनत्याशनत्य शववेक शवचारम् ।
जाप्य समेत समाशध शवधानम् कुवि वधानम् महदवधानम् ।
‘ प्राणायाम ' ाऄथाि त् ‘ ाईच््वास - शन : श्वास को देखना '
‘प्रत्याहार ' ाऄथाि त् बाह्य ाआशन्रयों को ाऄन्तमि ख
ु ी बनाने से ,
ाऄन्ताः ाआशन्रय ाईर्त्ेशजत होते हैं ।
' शनत्याशनत्य शववेक शवचार ' ाऄथाि त् जो शनत्य है ,
जो ाऄशनत्य है , ाआसे स्पि रूप से समझ लेना ।
‘ जप ' ाऄथाि त् ' ाऄभ्यास ' बार बार करना ।
‘ जाप्य समेत ' ाऄथाि त् ‘ जप के साथ जड़ु ा हुाअ
' ाआसशलए ' जाप्य समेत समाशध ' का ाऄथि है –
‘ प्राणायाम ' , ' प्रत्याहार ' , ' शनत्याशनत्य शववेकशवचार '
ाआन तीनों को बार - बार करते रहना चाशहए ।
यही ' समाशध शवधान ' ाऄथाि त्
‘ समाशध शस्थशत के शलए मागि है ।
‘ कुरू ऄवधान ' ऄथाणत् ‘ आसको पढ़ो ।
' ॎ योगनवद्या , ब्रह्मनवद्या आन सबसे भी महत्त्वपूणण है ,
‘ ज्यादा पढ़ना ' ऄथाणत् ‘ महदवधान ' ।
53
तापत्रय
' ताप ' ाऄथाि त् दाःु ख
‘ त्रय ' ाऄथाि त् तीन ।
तीन प्रकार के दाःु ख ही ‘ तापत्रय ' हैं ।
ताप तीन प्रकार के हैं –
1 . अध्यानत्मक ताप : हमारे ाऄन्दर काम , क्रोध , लोभ , मोह मद , मत्सर रूपी र्ट् वगि हैं , ाआनसे
होने वाला द:ु ख ाअध्याशत्मक ताप कहलाता है । प्रत्येक व्यशि के कुल द:ु खों में 90 % द:ु ख
ाअध्याशत्मक हैं ।
2 . अनधभौनतक ताप : दूसरे प्राशणयों से होने वाले दाःु ख को ाअशधभौशतक ताप कहते हैं । दूसरों के
ाऄज्ञान और ाऄक्रम चयाि के कारण होने वाले दाःु ख ाआस श्रेणी में ाअते हैं । व्यशि के 9 % दाःु ख ाआस
प्रकार के होते हैं ।
3 . अनधदैनवक ताप : प्रकृशत के सहज पररवति न से होने वाले द:ु ख ाअशधदैशवक द:ु ख कहलाते हैं ।
ाऄशतवशृ ि , ाऄनावशृ ि , भूकम्प ाअशद ाआस श्रेणी में ाअते हैं । ये व्यशि के कुल द:ु खों में से 1 % ही होते हैं
।
54
ज्ञानान् मनु िः
‘ मशु ि ' ाऄथाि त् शवमोचन ।
शकस से शवमोचन ?
तापत्रय से ।
कशपल महामशु न का एक साांख्य सूत्र ाआस प्रकार है –
' शत्रशवध दु : ख ाऄत्यन्त शनवशृ र्त् ाऄत्यन्त परुु र्ाथि ाः ।
' शत्रशवध दु : ख ही तापत्रय हैं ।
ाआन तीन प्रकार के दु : खों से सांपूणि शवमोचन ही
' ाऄत्यन्त महत्त्वपूणि परुु र्ाथि '
। ाऄथाि त् ' मोक्ष ' या ' मशु ि ' है ।
कशपल महामशु न ने और भी कहा है –
' ज्ञानान् मशु ि : '
ाऄथाि त् ।
ज्ञान से ही मशु ि होती है ।
55
पंच नवंशनत
‘ शवांिशत ' ाऄथाि त् सौ का पााँचवााँ भाग याशन बीस ।
' पांच ' ाऄथाि त् पााँच । ाऄत : पांचशवांिशत हुाअ पच्चीस ।
परुु र् व प्रकृशत का शमलन ही सशृ ि है ।
( सशृ ि ने पच्चीस तत्त्वों को ाऄपने में िाशमल शकया है । )
पच्चीस तत्वों से बनी ाआस ‘ सशृ ि ' में
व ' परुु र् मूल चैतन्य का भाग है ाऄथाि त् ' जीव '
जीवात्मा ाऄथवा ाऄांिात्मा ।
परुु र् की सांख्या है एक ।
प्रकृशत 24 तत्त्वों में िाशमल है ।
जीवात्मा प्रकृशत में प्रवेि करते ही तीन कपड़े पहनता है ,
वे हैं –
( 1 ) कारण िरीर
( 2 ) सूक्ष्म िरीर
( 3 ) स्थूल िरीर ।
कारण िरीर की सांख्या - दो ।
वे हैं - शचर्त् व ाऄहांकार ।
सूक्ष्म िरीर की सांख्या - सत्रह ।
वे हैं - पााँच तन्मात्राएाँ , पााँच ज्ञानेशन्रय ,
पााँच कमेशन्रय + मन + बशु द्ध ।
‘ तन्मात्र ' का ाऄथि है पांच महाभूत के सूक्ष्म रूप ।
स्थूल िरीर की सांख्या है - पााँच , वे ही पांचमहाभूत हैं ।
ाआस प्रकार ाआस भौशतक लोक में भौशतक देहधारी जीव
की सांख्या है –
पांच शवांिशत = 1 + 2 + 17 + 5 = 25
57
तीथण यात्रा
लोग शजससे पार होते हैं ,
वही तीथि है ।
धन्य होने के सारे प्रयत्न ‘ तीथि यात्रा ' ही हैं ।
वेदों में ऐसा कहा गया है –
‘ जनााः यै स्तरांशत ताशन तीथाि शन । '
' धन्यता ' ाऄथाि त् शकनारे को पार करना ।
कौन सा शकनारा ?
‘ तापत्रय रूपी शकनारा ।
' तापत्रय रशहत शकनारे को पहुचाँ ना ही
धन्यता है ।
धम्मपद में बद्ध
ु ने कहा है –
‘ ाईस पार के शकनारे को बहुत कम लोग पहुचाँ ते हैं ,
बाकी सब ाआस ओर के शकनारे में ही दौड़ते रहते हैं ।
58
तीथंकर गोत्र बन्ध
' तीथंकर ' ाऄथाि त् ' ाअध्याशत्मक ाऄध्यापक । '
‘ गोत्र ' ाऄथाि त् ‘ रीशत ' ।
ाआसशलए तीथंकर गोत्र बन्ध ' का ाऄथि है ,
ाअध्याशत्मक ाऄध्यापकों से बन्धन ।
योगाभ्यास करते - कराते रहने वािे ही सही ऄथण में ‘ धीर ' हैं ।
महावाक्य
शनशम्लशखत ाईपशनर्द वाक्यों को महावाक्य कहते हैं –
‘ प्रज्ञानम् ब्रह्म '
प्रज्ञान ाऄथाि त् पररपूणिज्ञान
मल चैतन्य को समझना ही पररपूणि ज्ञान है ।
वह प्रज्ञान ही ब्रह्म है ।
60
ऄहम् ब्रह्मानथम '
' मैं ' कहने वाला पदाथि ही , वह प्रज्ञान ,
वह मूल चैतन्य , वह शवश्वात्मा , वह ब्रह्म है ।
‘ तत्त्वमनस '
तमु भी वही हो ! वही शवश्वात्मा ! वही प्रज्ञान !
61
वृद्ध
‘ाऄज्ञो भवशत वै बालाः , शपता भवशत मांत्रदाः
ाऄज्ञम् शह बालशमत्याहम् , शपतत्येन तु मांत्रदम् । '
- मनस्ु मशृ त
62
पुनजणन्म
' शनरुि ' एक प्रमख ु वेदाांग है ।
वह पनु जि न्म के बारे में ाआस प्रकार कहता है –
ज्ञानी यह समझता है नक –
‘ मैं बहुत बार पैदा हुअ हँ , बहुत बार मर चक
ु ा हँ ,
मैंने कइ योननयों में ननवास नकया है ।
- शनरुि
ज्ञानी ऐसा समझता है नक –
‘ ईन योननयों में कइ प्रकार के भोजन मैंने नकए हैं ।
कइ माताओं का दूध मैंने नपया है । कइ नपताओं ।
की सरृदयता मैंने पायी है ।
- दयानन्द गोपदेव के ाअधार से
63
पनण्डत
" ाअत्मज्ञान समारांभ शस्थशतक्षा धमि शनत्यता ,
यमथाि नापकर्ि शत स वै पांशडत ाईच्यते ।
- व्यास महाभारतम्
64
सत्यमेव जयते
मण्ु डकोपशनर्द में ऐसा कहा गया है –
' सत्यमेव जयते नानतृ म् सत्येन पांथा शववतो देवयानाः परमां ।
येना क्रमशत ाऊर्यो ह्याप्तकामा , यत्र तत् सत्यस्य शनधानम् ।
65
अत्मा दृश्यते सूक्ष्म दनशणनभः
कठोपशनर्द् में ाआस प्रकार कहा गया हैं –
' एर् सवेर्ु भूतेर्ु गूढोत्मान प्रकािते
दृश्यते त्वग्रया सूक्ष्मया सूक्ष्मया सूक्ष्मदशिि शभाः
सवेर्ु = सभी
भूतेर्ु = जीवों में
गूढाः = शछपा हुाअ ।
एर् =ाआस
ाअत्मा = ाअत्मा
न प्रकािते = प्रकािमान नहीं होता
सूक्ष्मदिाि शभ = सूक्ष्म शवर्यों का दिि न करने में
समथि ाऊशर्यों से
ाऄग्रया = तीक्ष्ण, एकाग्र
सूक्ष्मया = सूक्ष्म
बद्ध
ु या = बशु द्ध से
एर्ाः ाअत्मा = यह ाअत्मा
तू= लेशकन
दृश्यते = साक्षात्कार हो जाता है
66
ऄयं िोको नानथतपरः
न सांपरायाः प्रशतभाशत बालम्
प्रमाधांतम् शवर्त् मोहेन मूढम्
ाऄयां लोको नाशस्त पर : ाआशतमानी
पनु ाः पनु वि ि मापद्यते में । -
कठोपशनर्द ( 2 - 6 )
सांपराय =ाईर्त्रगशत
शवर्त्मोहेन = धन का ाऄहांकार से
मूढ़म् = सम्मोशहत लोगों को
प्रमाधांतम् = प्रमाशदत ( those who are not aware )
बालम् = बालक ( शववेकरशहत ) को
न प्रशतभाशत =शदखााइ नहीं देती
ाऄयां लोक =यह लोक ( ाऄशस्त है )
पराः = परलोक ( नाशस्त - नहीं है )
ाआशत = ऐसे ( माशन - मानने वाला )
पनु ाः पनु ाः = बार – बार
विम् = ाऄधीन
ाअ पद्यते = रहते हैं
67
श्रेय - प्रेय
श्रेयश्च - प्रेयश्च मनुष्यमेत
थता संपररत्य नवनवननि धीरः ।
श्रेयोनद ही धीरोनभ प्रेयपोवृणीते ।
प्रेयो मन्दो योगक्षेमात् वृणीते ।
- कठोपशनर्द ( 2 - 2 )
िभु कारक और सख ु कारक - ये दोनों मनष्ु य के पास ाअते हैं ।
समझदार व्यशि दोनों का शवश्लेर्ण करके शववेचन करता है और
सख ु कारक से भी िभु कारक को ही ाईर्त्म समझकर चनु लेता है ।
लेशकन बशु द्धशवहीन व्यशि लोभ और ाअसशि के कारण के वल
सख ु कारक को ही चनु लेता है ।
- रामकृष्ण शमिन प्रकािन
प्रत्येक क्षण में दो मागि शमलते रहते हैं ।
वे हैं श्रेय और प्रेय मागि ।
श्रेय ाऄथाि त् श्रेयकारक ।
प्रेय ाऄथाि त् शप्रयकारक ।
68
ध्यान – मोक्षानन्द
' तस्य योशनम् पररश्यशत धीरास्तशस्मनाः
तस्थरु भवु नाशन शवश्व । '
- यजवु ेद
तस्य = परब्रह्मणो
योशनम् = सत्यधमाि नष्ठु ानम् वेद शवज्ञानमेव प्राशप्त
कारणम्
धीरा = ध्यानवांत
तशस्मन भवु नाशन शवश्व = सवाि शण सवि लोकास्तस्तु शस्थशत
चशक्ररे हेशत शनियाथे
तशस्मन्ने व = परमे परुु र्े।
धीरा = ज्ञाशननो मनष्ु या मोक्षानांदम् प्राप्य
तस्थाःु = शस्थरा भवांते त्यथि ाः
- दयानंद जी की व्याख्या
नवद्वान िोग , परब्रह्म प्रानप्त के कारक सत्याचरण ,
सत्यनवद्या को ध्यान के माध्यम से समझकर ,
परमात्मा को प्राप्त होते हैं ।
70
तथमात् योगी भव
! भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं :
' तपशस्वभ्योशधको योगी , ज्ञाशनभ्योशप मतोशधकाः ,
कशमि भ्यिाशधको योगी , तस्मात् योगी भवाजि नु । '
गीता ( 6 - 46 )
ाऄथाि त्
तपस्वी से योगी श्रेष्ठ है ,
ज्ञानी से भी योगी श्रेष्ठ है ,
कमि करने वाले से भी योगी श्रेष्ठ है ,
ाआसशलए हे ाऄजि नु ! योगी बनो !
71
ब्रह्मज्ञान - आनन्रय वश
रुचां ब्राह्मण जनयांतो देवा ाऄग्रे तदब्रवु न ,
यस्त्वैवां ब्राह्मणो शवद्यार्त्स्य देवा ाअसन् विे : '
- यजवु ि दम्
रुचां = प्रीशतकरां
ब्रह्मा = ब्राह्मणोपत्यशमव ब्राह्मण , सकािा ज्ञातां ज्ञानां
जनयांत = ाईत्पादयतो
देवा = शवद्राांसाः
वाब्रवु न = बवु ांतूपशदिांतचु
यस्वै = यमनु ा प्रकारेण तद् ब्रह्म
ब्राह्मणो = शवद्यात पिात् स्वैव
ब्रह्मशवदो ब्राह्मणस्य
देवा = ाआशन्रयाशण
विे = ाअसन भवांशत नान्यसेशत
ब्रह्मज्ञान अनन्ददायक है ।
वह मनुष्य की ब्रह्म में रुनच बढ़ाता है ।
ईस ब्रह्मज्ञान को , ईसकी साधना को ,
नवद्वान िोग दूसरों को ईपदेश देकर ।
ईनको अननन्दत करते हैं ।
आस तरह जो व्यनि ब्रह्म को समझता है ,
ऐसे नवद्वान के मन अनद सभी आनन्रय वश में रहते हैं ,
ऄन्य िोगों के नहीं ।
72
धमण
र्ट् दिि न में से एक –
73
धमण - ऄधमण
' धमि ' ाऄथाि त् शजस कमि से ,
शजस चयाि से ाआहलोक में सख ु ,
परलोक में भी सख ु ,
ाआतना ही नहीं ,
क्रम - क्रम से ाऄशन्तम मोक्ष ाअशद
सब ाईपलब्ध होते हैं , शसद्ध होते हैं ,
वह कमाि चरण ' धमि ' कहलाता है
74
धमो रक्षनत रनक्षतः
' धमि एवां हतो , धमो रक्षशत रशक्षताः
तन्माधमो हन्तव्यो मान धमो हतोवधीत् '
- मनस्ु मशृ त
मारा गया धमि मारने वाले को मारता है ।
रक्षा शकया गया धमि रक्षक की रक्षा करता है ।
ाआसशलए धमि को कभी भी नहीं मरने देने के शलए हमें धमि की
रक्षा करनी चाशहए ।
धमि क्या है ?
ाऄशहांसा धमि है ।
ाऄशहांसा परमो धमि ाः ।
शकसी भी प्राणी को जानबूझ कर हाशन न पहुचाँ ाएाँ ।
जानवर को ाऄपना ाअहार कदाशप न बनाएाँ ।
यही परम धमि है ।
75
धमणत्रय
हमारे शलए तीन धमि शनदेशित हैं ।
वे हैं –
1 . िरीर के प्रशत हमारे धमि
2 . ाअत्मोन्नशत के प्रशत हमारे धमि
3 . चारों ओर शस्थत प्राशणयों के प्रशत हमारे धमि
ाआसशलए
जो धमण ऄपनी अत्मोन्ननत के निए ठीक नहीं
वह दूसरों के निए भी ठीक नहीं है ।
76
चतवणणण
गणु ों के ाअधार पर ाऄथवा कमों से हम प्रजा को
चार वगों में शवभाशजत कर सकते हैं –
78
तमो रजो सतो गण
ु
' गणु ' ाऄथाि त् ाऄांतर् पररशस्थशत ।
' कमि ' ाऄथाि त् बशहर् पररशस्थशत ।
हमारे गणु ों के ाऄनरू ु प हमारे कमि भी रहते हैं ।
कमि से ही गणु भी बदलते रहते हैं ।
िद्ध
ु साशत्त्वक और शनगि णु व्यशि मोक्ष के ाऄशधपशत होते हैं ।
पररणशत प्राप्त व्यशि श्री रामचन्र जैसे ज्ञानी और शसद्ध होते हैं ।
ाआसशलए
भशियोग ‘ प्राथशमक शवद्याशथि यों के शलए ाऄथाि त्
ाअध्याशत्मक रूप से िैिवावस्था में रहने वालों के शलए है ।
कमि योग ‘ माध्यशमक शवद्याशथि यों ाऄथाि त् ।
ाअध्याशत्मक रूप से बाल्यावस्था में रहने वालों के शलए है ।
ज्ञानयोग ‘ ाईन्नत ' शवद्याशथि यों ाऄथाि त्
ाअध्याशत्मक रूप से यवु ावस्था में रहने वालों के शलए है ।
ज्ञानयोग के बाद ाअध्याशत्मक रूप से वद्ध ृ ावस्था में पहुचाँ ना ही
ध्यान योग है ।
80
मूढ़ भनि
भशि दो दिाओां में ाअती है –
एक जीवात्मा की िैिवावस्था में और दूसरे ,
जीवात्मा के पररणाम क्रम की ाऄशन्तम ाऄवस्था में ।
82
भनि योग
योग ाऄथाि त् कोाइ भी ' साधना ' ।
वास्तव में भशि योग है ही नहीं ।
' भशि ' साधना की वस्तु नहीं है ।
' भशि ' शसद्ध शस्थशत है ।
भनि का ऄथण है –
सभी में ऄपने अप को देख िेने की नथथनत ।
तझ में सब कुछ देख िेने की नथथनत ।
' थव ' व ' पर ' की भावना से रनहत नथथनत ।
83
वणाणश्रम धमण
' धमि ' ाऄथाि त् ' कति व्य
दो चीजों पर शनभि र रहता है ।
1 . वणि
2 . ाअश्रम
वणि ाऄथाि त् रांग ाऄथाि त् ाअभामण्डल ( जीव काांशत ) ।
यह मनष्ु य के ाआदि शगदि सभी ओर शस्थत काांशत वलय है ।
यह ाऄांिात्मा को एक पररपक्व स्थायी गणु है ।
हमारा कति व्य , हमारा धमि , हमारी ाअत्मा
एक ज्ञानाज्ञान की शस्थशत पर शनभि र रहता है ।
84
संसार
नागाजि नु ने कहा है शक
' सांसार ' ही शनवाि ण है ।
85
संन्यास
सम्यक् + न्यास = सांन्यास
‘ सम्यक् ' ाऄथाि त् सही
' न्यास ' ाऄथाि त् त्याग करना ।
ाआसशलए सांन्यास का ाऄथि है ,
शजसे त्यागना चाशहए , ाईसी का त्याग करना ।
जो त्याज्य है , के वल ाईसका त्याग करना ।
86
गहृ थथाश्रम
यस्मात् त्रयस्याश्रशमणे
दानेन्नानेव चान्वहान्
गहृ स्थे नैव धायि न्ते
तस्माज्येष्ठाश्रमों गहृ े
- मनस्ु मशृ त
ब्रह्मचयि , वानप्रस्थ और सांन्यास
ाआन तीनों ाअश्रमधाररयों को
ाऄन्नाशददान देकर पोर्ण करने वाले गहृ स्थ ही हैं ।
87
ब्रह्मचयण
' भूररशत ब्रह्म : ' ।
' भू ' ाऄथाि त् ‘ सबसे महान ' ।
88
आच्छाओं का दमन मत करो
कभी भी ाआच्छाओां का दमन नहीं करना चाशहए ।
चाहे धमि यि
ु ाआच्छाएाँ हों या ाऄधमि यि
ु ,
ाआच्छाओां का दमन करने से ,
तत्सम्बन्धी पाठ को सीखने से हम चूक जाते हैं ।
89
ऄधमणयुि कमण
ाऄधमि यिु कमि करने की ,
शवपरीत ाआच्छा हुाइ तो करना ही चाशहए ।
यह रजोगणु से सांबशां धत है ।
एक व्यशि के शलए यह भी
बहुत जरूरी हो सकता है ।
ाआसको भी पूरा कर लेना चाशहए ।
तभी प्रगशत हो सकती है ,
तभी ाअगे बढ़ सकते हैं ।
90
िेनकन थवप्नावथथा में
लेशकन
ाऄधमि यिु ाआच्छाओां को पूणि करते हुए
तत्सम्बन्धी दष्ु फल से मिु होना है
तो एक ाऄद्भतु मागि है ।
ाईन ाआच्छाओां को स्वप्नावस्था में
पूणि कर लेना चाशहए ।
ाआसशलए
' ाऄसमांजस ' लगी सभी ाआच्छाओां को ,
सूक्ष्मलोक में पूरा कर लेना चाशहए ।
तब वे स्थूल िरीर में रहकर भौशतक पीड़ा नहीं देतीं ।
91
कमणबद्ध
हमेिा कमि करना ही चाशहए ।
शनशित हार होने की सांभावना होने पर भी ,
ाऄकमी कभी नहीं होना चाशहए ।
ाआसशलए
प्रत्येक व्यशि को कमि करते ही रहना चाशहए ।
‘ माते सांगोस्व कमि शण ' - ऐसा गीताकार ने भी कहा है ।
92
निो मोहः
गीता - बोध पूणि होने के बाद ,
ाऄजि नु ऐसा कहता है –
‘ निोमाः स्मशृ तरलब्धवा त्वत्प्रसादान्मयाच्यतु ! ' ाऄथाि त् '
हे ाऄच्यतु ! ाअपकी कृपा से मेरे मोह का नाि हुाअ ,
ाअत्मज्ञान स्मशृ त ाईपलब्ध हो गाइ ।
' लेशकन ाऄजि नु शकस मोह से मि ु हुाअ ?
ाईसके शकस मोह का नाि हुाअ ?
93
मागा मोहावेश
ाआच्छाएाँ होनी चाशहएाँ ।
ाआच्छाएाँ सखु कारक हैं ।
' मोह ' ाऄथाि त् ' ाऄशत ' ,
। ' शमशत ' ाऄथाि त सीमा को पार करना ।
' सीमा रशहत ाआच्छाओां को ' मोह ' कहते हैं ।
ाआसशलए
लोकोशि भी है शक ' ाऄशत सवि त्र वजि येत ।
94
कारण कायण
कारण कायि सम्बन्धी कुछ वैिेशर्क सूत्र :
1 . ' कारण भावात् कायि भावाः । ' ाऄथाि त्
कायि तभी सांभव है जब कारण हो ।
2 . ' कारण गणु पूविकाः कायि गणु ो दृिाः । ' ाऄथाि त्
कारण में शजस प्रकार के गुण रहते हैं ,
कायि में भी ाईसी प्रकार के गणु रहते हैं ।
3 . ' कारण भावात् कायि भावाः ' ाऄथाि त् ।
कारण के शबना कायि सम्भव नहीं है ।
4 . ' न तु कायि भावात् कारणाभाव : ' ाऄथाि त्
कायि के ाऄभाव से कारण का ाऄभाव नहीं होता ।
कायि नहीं है तो ाआसका ाऄथि यह नहीं शक कारण भी नहीं है ।
( गागर न होने से माटी नहीं होती क्या ? )
- पांशडत गोपदेव के ाअधार से
प्रत्येक कारण कायि ही है ।
प्रत्येक कायि के पीछे कुछ न कुछ कारण रहता ही है ।
कारण के शबना कायि नहीं होता ।
ाऄक्सर कारण कायि का रूप नहीं भी धारण कर पाता ।
कारण के शलए तो कारण नहीं होता ।
कारण हमेिा स्वयां शसद्ध है ।
95
ऄदृि
दृशि = नजर
रिा = देखने वाला
दृि = देखा हुाअ ( जो शदखता है , वह )
ाऄ + दृि = जो शदखता नहीं है , वह ।
ाऄदृि का ाऄथि यह नहीं शक ' नहीं है ।
96
वनशष्ठ गीता में ऄदृि
' यधा सांयतते येन तधा तेनानभु ूयते ।
स्वकमि वेशत चस्ते या व्यशतररिा न दैन्यदृक् । '
- वशिष्ठगीता
जो जैसा प्रयत्न करता है ,
वह वैसा र्ि प्राप्त करता है ।
पूवणजन्मों के ऄपने कमण जब र्ि देते हैं
तो ' देव ' या ‘ ऄदृि ' कहते हैं ।
आस दृनि से कमण से दस ू रा न
कोइ ' दैव ' है , न ही ‘ ऄदृि ।
97
पुरुष प्रयत्न
‘ परुु र् प्रयत्न ' के बारे में
वशिष्ठ गीता में ाआस प्रकार कहा है –
' व्दौहुडाशवव यध्ु येते परुु र्ाथे समासवता
प्रािनिैशहकिैव श्याम्यत्यत्राल्प वीयि वान् ।
- वशिष्ठ गीता
पूवण जन्म के और आस जन्म के समान - ऄसमान
परुु ष प्रयत्न दो भेड़ों जैसे अपस में िड़ते हैं ।
ईसमें जो दुबणि होता है , वह हार जाता है ।
98
थवेच्छा – यादृनच्छक
सभी स्वेच्छा के ाऄनस ु ार ही होता है ,
कुछ भी यादृशच्छक नहीं है ।
' ाआच्छा ' ाऄथाि त् ' ाऄशभलार्ा ' , ' चाह '
यादृशच्छक ाऄथाि त् सांयोग
सब कुछ ‘ थवेच्छा से ही है ,
यह परम सत्य ग्रहण करने के निए ,
हमें पूणण रूप से ऄपने नदव्यचक्षु का
ईर्त्ेजन कर िेना चानहए ।
99
पाप - पुण्य ज्ञान
धम्मपद में बद्ध
ु ने कहा है –
' ाआथ सोचशत पेच्च सोचशत , पापकारी ाईभयत्थ सोचशत
हथ मोदशत पेच्च मोदशत , कतपञ्ु ज ाईभयत्थ मोदशत । ' ( पाली )
100
पाप- व्यानध
‘ पूवि जन्म कृतम् पापम् व्याशधरुपेण पीड् यते ’
यह एक लोकोशि है ।
101
रोग का मूि है पाप;
पाप का मूि है ऄनवद्या,
अत्मज्ञान ही ऄनवद्या का नाशक है
102
नवनध निनखत
कुछ भी नवनध निनखत
या ििाट निनखत नहीं है।
हम जो चाहते है,
वह कर सकते है।
हमारी आच्छा ! हमारी मजी !
यही ‘ सेत् ’ ज्ञान है ।
कभी भी भूतकाि जैसा वतणमान नहीं रहता।
वतणमान ही भनवष्य की सनृ ि करता है ।
आस समझ िेना बहुत कनठन है ।
िेनकन , यही सच है ।
‘ऄनप चेदनस पापेभ्य सवेश्य पाप कृतम्
सवणज्ञानप्िवेनैव वृनजनम् संतररष्यनस ।’
ऄथाणत्
तुम सबसे हीनानतहीन पापात्मा होने पर भी
ज्ञान रुपी अँधी से सभी पाप और रोग
तत्क्षण नवदा होते है ।
आसनिए भूतकाि चाहे कुछ भी हो,
वतणमान तो हमारे हाथ में है ।
यनद ईसे ठीक कर निया तो सब ठीक है
103
ऄज्ञ- ऄल्पज्ञ-नवज्ञ
‘ाऄज्ञ’ ाऄथाि त ाऄज्ञानी,
शजसे कुछ भी ज्ञान नहीं है,
शजसे कुछ भी समझ में नहीं ाअता है , वह ।
िारीररक ाअवश्यकताओां की तशु ि के शलए सभी तरह की
िशि और यशु ि प्रयोग करते हुए,
रर्त्ी भर सखु और पवि त जैसा दाःु ख
ाऄनभु व करने वाला ही ाऄज्ञ है ।
104
अचायण
‘यः’ यानचनोनत अचरनत, अचारयनत च सः अचायणः’
यः = जो कोइ
यानचनोनत = ज्ञान की याचना करता है
अचरनत = अचरण करता है
च = और
अचारयनत = अचरण कराता है
स = वह
अचायण = अचायण है
‘याचना’ का ऄथण है अत्मज्ञान की याचना करना ।
अचायण जो है पहिे ऄनेक गरु ु ओं से
अत्मज्ञान का संग्रह करके ,
ईसे ऄपना थवानुभव बनाकर
नर्र दूसरों से वह अचरण करवाता है ।
प्रत्येक व्यनि को अचायण बनना चानहए ।
अचायण बनने के निए प्रयत्नरत रहना चानहए ।
अचायण बनने तक हमें बार बार अना ही चानहए ।
बार बार जन्म िेना ही चानहए ।
105
मन का प्रिोभ-ऄंतरात्मा का प्रबोध
मन शजसे चाहता है , ाईस करना ही
‘ मन के प्रलोभ ’ में पड़ना है ।
वही ाऄधम व्यशियों का लक्ष्ण है ।
106
सूत्रप्राय – प्रबन्धप्राय
हमें ाऄपने शलए सूत्र रूप में
धमि , सत्य और ाअत्मज्ञान को
समझ लेना पयाि प्त नहीं है ।
ाईद्धरेदात्मनात्मानां नात्मानमवसादयेत् ।
ाअत्मैव ह्यात्मनो बन्धरु ात्मैव ररपरु ात्मनाः ।।6/5।।
बद्ध
ु ने ‘ धम्मपद ’ में कहा है –
‘ संघं शरणम् गच्छानम ।’
‘संघ ’ ऄथाणत् ‘सज्जन संघ’
ऄथाणत् योनगयों का संघ ।
109
राक्षस, - मानव – देवता
तीन प्रकार के मनष्ु य हैं ।
राक्षस
मानव
देवता
110
जीव नहंसा
वेमना
के वल एक महान योगी ही नहीं,
परम सत्यो का बैशझझक, शहम्मत के साथ ,
स्पि रूप से और सल ु भ िैली में व्यि करने वाले
ाअध्याशत्मक िास्त्र के महान ाऄध्यापक भी हैं ।
111
ििाट िेख
‘लेख के बाद वरदान देने वाला भगवान ।
कमि से ही लेख है ।
शलखने वाला ाऄज ( ब्रह्म ) है ,
करने वाला स्वयां है ,
शव“वधाशभराम सनु ो वेमा । '
- वेमन
‘ ललाट लेख ' ाऄथाि त् शवशध
' कमि ' ाऄथाि त् ' स्वेच्छाकमि । '
112
योगी
योगी कौन है ?
वेमन ने ाआस बारे में बहुत
सन्ु दर ढांग से कहा है –
113
ईर्त्म गरु
ु
शवशभन्न गरुु ओां के बारे में ,
वेमन ने ऐसा कहा है –
लेशकन
ाईर्त्म गरुु सभी को , सभी काल में ,
के वल ध्यानयोग का प्रबोधन करता है ।
बाह्य पूजा ाअशद करना मूखिता है ।
मांत्रोपासना करना मूखिता तो नहीं ।
लेशकन वह परमयोग भी नहीं ।
ाईसमें तात्काशलक रूप से मन को िाांशत शमलती है ।
114
देह - अत्मा
‘ जैसे लकड़ी में ाऄदृश्य रूप से ाअग है ,
वैसे ही देह में ाअत्मा है ।
ाआस रहस्य को समझकर , ाअत्मा को जान लीशजए ।
शव“वधाशभराम सनु ो वैमा ।
115
नचंरजीवत्व
शचरांजीवत्व साध्य है ।
काइ महानभु ावों ने ाआसे साधा है ।
ाआसके बारे में वेमन कहते हैं –
‘ ाऄकारण शवध को समझकर
ाईस मूलधन की वशृ द्ध करते हुए
कल्पान्त तक भी हमेिा - हमेिा के शलए
रहने वाले की ाआहलोक में कम ाईम्र है वेमा ! '
116
कुछ भी न्यूनता नहीं
' भोजन करने से ,
कपड़े , जेवर पहनने से ,
लड़शकयों का सांग करने से ,
ाऄपनी सन्तान को ममता से देखने से ,
ररश्ते - नातेदारों के साथ रहने से ,
कुछ भी कमी नहीं है । '
- सदानन्द योगी
मेरे गरुु देव
सदानांद योगी ( कनि ूल स्वामी )
सौ फीसदी िद्ध ु ब्रह्मशर्ि हैं ।
117
करो या मरो
सदानन्द योगी ( कनि ूल स्वामी )
हमेिा मझ ु े कहा करते थे –
' सभु ार् ! करो या मरो ! '
' DO OR DIE '
118
सम्यक् चररत्र
जो नहीं है , ाईसकी ाऄपेक्षा नहीं करनी चाशहए,
जो है , ाईसका ाआांकार नहीं करना चाशहए ।
जो ाअने वाला है , वह ाअएगा ही ;
ऐसा समझकर कभी खिु ी से नहीं मचलना चाशहए
जो जाने वाला है , ाईस देखकर ‘हाय ! जा रहा है ’,
ऐस कहकर िोकाकुल नहीं होना चाशहए ।
-सदानन्द योगी
स्वामी जी कहते है शक जो नहीं है- ाईसकी साधना नहीं करनी
चाशहए । शबना चाहे ही जो शमल गया तो ाईसे छोड़ना नहीं चाहे ।
ाआस साांसाररक प्रपांच में एक ज्ञानी कै से शवहार करता है
और कै सा ाईसे करना चाशहए । ाआसे सशवस्तार रूप में
कहना ही सम्यक् चाररत्र्य का सूत्र है ।
119
माँसनपण्ड - मंत्रनपण्ड
स्वामी जी हमेिा कहा करते थे –
‘ सभु ार् ! मााँसशपण्ड को मांत्रशपण्ड बनाना चाशहए ।
120
अनथतक नानथतक
' ाअशस्तक ' ाऄथाि त् ' ाऄशस्त ' कहने वाले
ाऄशस्त ' का ाऄथि है ‚ है । ’’
' है ' मतलब क्या है ?
‘ मरणोपरान्त जीवन है । '
‘ दैव पदाथि हैं । '
‘ यह जो सब कुछ है , वही है । '
' सशृ ि की रचना में ाआनका प्रयोजन है ।
न + ाऄशस्त = नाशस्त
‘ ये सभी नहीं हैं ' मतलब नाशस्त ,
ऐसा कहने वाले ही नाशस्तक हैं ।
और पा भी िेता है ।
121
गरु
ु – िघु
' गरुु ' ाऄथाि त् जो भारी है ,
ाऄथाि त् ‘ ज्ञान और ाऄनभु व से भारी । '
124
गरु
ु - परम गरु
ु
ाअज का शिष्य ही
कल का गरुु है ।
' गरुु ' ाऄथाि त् जो ज्ञान से भारी है , वह ।
ाअज का ममु क्षु ु ही कल का मि ु परुु र् है , गरुु है ।
शजसने ध्यान के माध्यम से
शदव्य चक्षु को ाईपलब्ध करके
ज्ञान को प्राप्त शकया है , वहीं गरुु है ।
ाआसी तरह ाअज का गरुु ही
कल का परम गरुु है ।
परम गरुु ाऄथाि त् ज्ञान से बहुत ही भारी ।
ाअज का ाऊशर् ही कल का राजशर्ि हैं ,
ाईसके बाद वह ' ब्रह्मशर्ि ' बनता है ।
125
ननवाणण के बाद
' शनवाि ण ' ाऄथाि त् ' दु : ख राशहत्य की शस्थशत '
बाद में जन्म राशहत्य की शस्थशत ।
' ाईसके बाद ' सशृ ि कताि ' की शस्थशत ।
ाऄपने से नूतन ाऄांिात्माओां की सशृ ि करने की शस्थशत ।
कुछ लोकों की भी सशु ि करने की शस्थशत ।
ाआसशलए
शनवाि ण है पहली शस्थशत
ाईसके बाद में दो और शस्थशतयााँ हैं ।
शनवाि ण - पररशनवाि ण – महापररशनवाि ण
दु : खराशहत्य - जन्मराशहत्य – सशृ िकताि पद्री
ाऊशर् - राजशर्ि – ब्रह्मशर्ि
ाऄररहांत - बोशधसत्व – बद्ध ु
बोशध वक्षृ के नीचे ध्यान को पूणि
करने के बाद गौतम बद्ध ु ने कहा शक
' मैं महापररशनवाि ण को ाईपलब्ध हुाअ । '
126
गरु
ु हमेशा हैं
सदानन्द योगी कहते थे
शक बोलने वाली हमेिा ही है ।
लेशकन सनु ने वाला ही नहीं है ।
जब शिष्य सही शस्थशत में रहता है ।
तब गरुु ाअते ही हैं ।
चाहे वे ाईस समय भौशतक रूप में हों
या सूक्ष्म िरीर के रूप में ।
ाआसशलए हमें ाऄपने ाअप को
परख लेना चाशहए शक ।
हम सही शस्थशत में हैं या नहीं ।
ाऄगर सही शस्थशत में नहीं हैं तो
गरुु भौशतक रूप में हमारे पास मौजूद रहने पर भी
हमारी समझ में नहीं ाअता ।
127
साधना चतुिय
‘ साधना चतिु य ' के शवर्य में
‘ शववेक चूडामशण ' में ाअशद िांकराचायि
ने ाआस प्रकार कहा है –
साधना के चार प्रकार हैं –
1 . शववेक 2 . वैराग्य 3 . र्ट् सपां शर्त् 4 . ममु क्षु त्व
शनत्याशनत्य वस्तु शवचक्षणा ज्ञान ही ' शववेक ' है ।
ाआह , ाऄमत्रु , कमि फल भोग , ाऄनासशि ही ‘ वैराग्य ' है ।
तीव्र साधक ममु क्षु ु के गणु गण ही ' र्ट् सपां शर्त् ' है ।
र्ट् । सांपशर्त् = र्ट् सम्पशर्त् ।
वे हैं - दम , सम , शततीक्षा , ाईपररत , श्रद्धा और समाधान ।
बशहर् ाआशन्रयों का शनग्रह ' दम ' है ।
ाऄांतर् ाआशन्रयों का शनग्रह ' सम ' है ।
पीड़ा को सहन करने का गणु ' शततीक्षा ' है ।
काम से मशु ि ही ' ाईपरशत ' है ।
शत्रकरण िशु द्ध + दीक्षा ही ‘ श्रद्धा ' है ।
द्रन्द्र रशहत होकर सम में रहना ही ' समाधान ' है ।
तीव्र रूप से मशु ि की ाआच्छा करना ही ‘ ममु क्षु त्ु व ' है ।
128
वेदान्त घोष
िष्ु क वेदान्त की घोर्णा की ाअवश्यकता नहीं है ।
ाईससे कोाइ प्रयोजन नहीं है ।
' द्रैत '
' ाऄद्रैत '
' शवशििाद्रैत '
क्या है यह झांझट !
दो ही काम करने हैं ।
पहला है योगसाधना
, दूसरा है योग साधक के
ध्यानानभु वों को सनु ना और पढ़ना ।
मतों में भेद शबल्कुल बेकार है ।
शवशवध मत हैं ही नहीं ।
129
योग साधना
योग साधना के बारे में
। धम्मपद में ऐसा कहा है –
‘ योग में जायते भूरर , ाऄयोगा भूरर सज्ञया
तथर्त्ानां शनवेसेय्य , यथाभूरर पवड् डशत । ' ( पाली )
योगद्रै जायते भूरर , ाऄयोगाभूरर सांक्षयाः
तथात्मानां शनवेियेद् , यथा भूरर प्रवथि ते । ( सांस्कृत )
योगानष्ठु ान ( ध्यान ) से ज्ञान प्राप्त होता है ।
योगानष्ठु ान के शबना ज्ञान का क्षय होता है ।
हमें ाऄपने ाअप को ज्ञान वशृ द्ध के मागि में ही चलाना चाशहए ।
योग साधना में शस्थशतयााँ –
130
पतंजनि के ऄिांग योग
पतांजशल महशर्ि ने जो प्रवचन शकया है ।
वहीं ाऄिाांग योग मागि है ।
ाअठ ाऄांगों से यि ु साधना - क्रम ाऄिाांग योग है ।
यम , शनयम , ाअसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा ,
ध्यान , समाशध - ये ाअठ ाऄांग हैं ।
यम , शनयम शसशद्ध शस्थशत की सूचना देते हैं ।
साधक जब प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान के
साधना क्रम द्रारा क्रमिाः समाधान पाकर सम्पूणि
समाशध शचर्त् ाऄथाि त् समाशध शस्थशत को ाईपलब्ध होता है ,
तब ाईसके शलए यम , शनयम
बहुत ाअसान और ाऄशत सहज होते हैं ।
यम , शनयम भौशतक जीवन में शसद्धत्व की सूचना देते हैं ।
भौशतक जीवन में शसद्धत्व की ाईपलशब्ध के शलए ही ।
ाअध्याशत्मक ज्ञान की ाअवश्यकता है ।
शचर्त्वशृ र्त् से रशहत होने के बाद ही ,
ाअध्याशत्मक ज्ञान की ाईपलशब्ध होती है ।
ाईसके शलए सवि प्रथम ाअसन शसशद्ध की साधना करनी चाशहए ।
ाईसके बाद ाईच््वास - शन : श्वास का गमन करना चाशहए ।
यही प्राणायाम ' है ।
तब बशहर् ाआशन्रय क्रमि : ाऄन्तमि ख ु ी बनती है ।
यही ' प्रत्याहार ' है ।
यम ननयम
‘ यम ' ाऄथाि त् काबू ।
मौशलक ाअध्याशत्मक जीवन सूत्रों पर काबू में रहना है ।
पतांजशल ने पााँच ' यम ' का प्रवचन शकया है ।
वे है –
1 . सत्य = जीवन में हमेिा सत्य वचन बोलना ।
2 . ाऄशहांसा = शहांसात्मकचयाि को पूणि रूप से शवसशजि त करना ।
3 . ब्रह्मचयि = हमेिा मध्यमागि का ही ाऄनस ु रण करना ।
4 . ाऄस्तेय = दूसरों की सम्पशर्त् पर मत्सर नहीं करना ।
5 . ाऄपररग्रह = दूसरों के देने पर भी ऐसी चीजों को न लेना | जो हमें चाशहएाँ ही नहीं ।
' शनयम ' ाऄथाि त् वे कायि कलाप जो हमें ाऄवश्य करने चाशहएाँ ।
पााँच ऐसे शनयम हैं ।
1 . िौच = िरीर व पयाि वरण का िशु चत्व रखना ।
2 . सांतोर् = मन को हमेिा प्रफुशल्लत रखना ।
3 . स्वाध्याय = ाऄच्छे ाअध्याशत्मक ग्रन्थों का ाऄध्ययन करना ।
4 . तप = शनराहार ाअशद कम करके ध्यान ाऄशधक करना ।
5 . ाइश्वर प्रशणधान = ‘ सब कुछ ाइश्वरमय ही है ' ाआस भावदिा में हमेिा रहना ।
132
यम शनयम हस्तगत करने के शलए ाअध्याशत्मक ज्ञान के ाऄशतररि
ाऄन्य कोाइ िरण नहीं है ।
आसनिए ‘ हे पतंजनि महनषण ! नमथकार ! कररष्येम् वचनम् तव !
नचर्त्वृनर्त् ननरोध
बद्ध
ु ने धम्मपद में कहा है शक
' शचर्त्स्समदथो साधु , शचर्त्ां दांत सख ु ावहां ' ( पाली )
शचर्त् शनग्रह के शलए परम योग्य है ,
शनग्रह शकया गया शचर्त् सख ु प्रद है ।
महशर्ि पतांजशल ने कहा है –
‘ योग : शचर्त्वशृ र्त् शनरोधाः । '
शदव्यचक्षु का ाईर्त्ेजन होने से पहले
शचर्त्वशृ र्त् का शनरोध ाअवश्यक है ।
शचर्त्वशृ र्त् शनरोध के तरु न्त बाद ही ,
कांु डशलनी जागतृ होती है ।
शचर्त्वशृ र्त् शनरोध का ाऄथि है ,
मन और बशु द्ध को वि में रख लेना ।
ाईदाहरण के शलए - जैसे िाम के छाः बजे हैदराबाद के ाऄशबड् स रोड पर िोर मचता
रहता है , जो ध्यानी नहीं हैं , ाईनका शचर्त् वैसा रहता है । लेशकन ,
ाअनापानसशत के द्रारा , जैसे रात के दो बजे ाऄशबड् स रोड िान्त
रहता है , वैसा ाऄपने शचर्त् को बना सकते हैं ।
133
अनापानसनत
शवचार शदव्य ाऄनभु व
ाअनापानसशत
हमें ाऄपने ाईच््वास - शन : श्वास से जड़ु े रहना चाशहए ।
ाआसको ही पाली भार्ा में ाअनापानसशत ' कहते हैं ।
' ाअन ' ाऄथाि त् ाईच््वास ।
' ाऄपान ' ाऄथाि त् शन : श्वास
‘ सशत ' ाऄथाि त् जड़ु े हुए रहना ।
शवचारवाशहनी को रोकने का ।
एक मात्र ाऄद्भतु मागि है ‘ ाअनापानसशत ' ।
शवचार वाशहनी के रुकते ही
ध्यानानभु व िरू ु होते हैं ।
ाईच््वास शन : श्वास का गमन करने के बाद क्रमिाः ,
श्वास छोटा होते होते नाशसका में प्रवेि कर ाऄन्त में ,
नाशसकाग्र में जाकर शमलता है ।
ाईस शस्थशत में शनमन्त्रण शदया तो भी शवचार नहीं ाअते ।
नाशसकाग्र का ाऄथि है ' भूमध्य '
न शक ‘नाशसका की नोक । '
134
नवपथसना
पश्यशत = देखना ( सांस्कृत )
पस्सना = देखना ( पाली )
शव = सांपूणि रूप से , शविेर् रूप से
शव+ पस्सना = सांपूणि रूप से देखना
शवपस्सना = ध्यान में शदव्यदृशि को पाने का ाऄनभु व ।
ाअनापानसशत शनवाि ण
शवपस्सना
अनापानसनत से नचर्त्वनृ र्त् का ननरोध होता है ।
नचर्त्वनृ र्त् के ननरोध के बाद पथसना शरू
ु होता है ।
ध्यानानभ ु व होने िगते हैं ।
नवपथसना के द्वारा ननवाणण नथथनत को ईपिधध होते हैं ।
ध्यान सूत्र समझ में अने िगते हैं ।
दःु खरानहत्य ईपिधध होता है ।
135
ईपासना – नवपथसना
‘ ाईपासना ' ाऄथाि त् मांत्रयोग
ाआससे देवता - स्वरूपों के
शनशित रूप से दिि न होते हैं ।
शविेर् ज्ञान और मोक्ष
की प्राशप्त नहीं होती ।
136
कुंडनिनी का जागरण
‘ ाअनापानसशत ' से ही
कांु डशलनी जागतृ होती है ।
कांु डशलनी प्राणमय कोि के
मूलाधार चक्र में शस्थत
एक शनरामय िशि है ।
137
नाड़ी मण्डि की शुनद्ध
हमारे नाड़ी मण्डल में
ाऄथाि त् प्राणमय कोि में लगभग 72000 नाशड़यााँ हैं ।
‘ नाडी ' का ाऄथि है प्राणमय िशि के प्रवाहमान होने की नली
ाऄथाि त् Energy Tubel
' ाअापानसशत ' िरू होते ही ,
नाड़ीमण्डल की िशु द्ध भी िरूु होती है ।
लेशकन क्या नाशड़यााँ साधारणत : िद्ध ु नहीं रहती हैं ?
कुछ िद्धु रहती हैं , कुछ ाऄिद्ध
ु ।
हमारे पाप - कमों से वे ाऄिद्ध
ु रहती हैं ।
धूल भरी नली जैसी सभी ाऄिद्ध ु नाशड़यााँ ,
मात्र ाअनापानसशत से ही िद्धु होती हैं ।
कांु डशलनी जागतृ होकर जब नाड़ी सांिोधन चलता रहता है ,
ाऄन्नमय कोि में बहुत ही ददि और बाधाएाँ होती हैं ।
शचढ़ , क्रोध और नाराजगी भी ाऄशधक होती है ।
ाआन सबका सहन करना ही चाशहए ।
भूख भी ज्यादा लगती है ,
ाआसशलए ज्यादा खाना खाना चाशहए ।
हम नजतने समय ध्यान में रहते हैं , मात्र ईतने ही समय ये
सारे ददण रहते हैं । आसनिए डॉक्टर के पास नहीं
जाना चानहए । दवाआयों का ईपयोग नहीं करना चानहए ।
नाड़ीमण्डि शुनद्ध पूणण होने के बाद ,
नदव्यचक्षु ईर्त्ेनजत होता है ।
138
षट्चक्र - सहस्रार
नाड़ी मण्डल में प्रमख
ु चक्र ाआस प्रकार हैं –
1 . मूलाधार
2 . स्वाशधष्ठान
3 . मशणपूर
4 . ाऄनाहत
5 . शविद्ध
ु
6 . ाअज्ञा
ाऄनेक नाशड़यााँ शमलकर जहााँ शस्थत होती हैं , वह ' चक्र ' होता है ।
प्रत्येक चक्र एक - एक िरीर के साथ बाँधा रहता है ।
र्ट् चक्र और सहस्रार सात िरीरों से सांबशां धत हैं ।
139
नदव्य चक्षु
ाअनापानसशत ाऄभ्यास से
थोड़े समय में ही
शचर्त् वशृ र्त्रशहत हो जाता है ।
शचर्त् वशृ र्त्रशहत होते ही ,
कांु डशलनी जागतृ होती है ।
कांु डशलनी जागतृ होकर ,
सभी चक्रों को ाईर्त्ेशजत करके
सहस्रार में शमलने के बाद ,
जो चाशहए , ाईसे देखने की क्षमता ाअने
के बाद शदव्य चक्षु खल ु ता है ।
140
सनवकल्प समानध
समाशध = सभी ाअध्याशत्मक प्रश्नों का समाधान
शमलने की शस्थशत
स + शवकल्प = शवचार सशहत
शचर्त् के िाांत शस्थशत में पहुचाँ ने के बाद तथा
कांु डशलनी का जागरण पूणि होने के बाद जो शस्थशत होती है ,
वही सशवकल्प समाशध है ।
141
नननवणकल्प समानध
शनाः + शवकल्प = शनशवि कल्प ाऄथाि त् शवचार रशहत
ाआसशलए
शनशवि कल्प समाशध का ाऄथि है
शवचार रशहत शस्थशत , शजसमें सांदेह का लेिमात्र भी न हो ।
शदव्य चक्षु के ाईर्त्ेशजत होने के बाद की शस्थशत ।
142
अत्मज्ञान – ब्रह्मज्ञान
‘ ाअत्म ज्ञान ' ाऄथाि त् ाअत्मा से सांबशन्धत ज्ञान ,
स्वयां ाऄपने बारे में खदु जानना ।
यह समझना शक ाअप भौशतक िरीर मात्र नहीं ,
बशल्क ' िरीरधारी ' भी हैं ।
यह जानना शक ाअप मूल चैतन्य हैं ,
यह ध्यान के माध्यम से ही सांभव है ।
यशद ाअत्मज्ञान पहली सीढ़ी है तो ब्रह्मज्ञान दूसरी ।
ब्रहाज्ञान का ाऄथि है सकल चराचर सशृ ि का ज्ञान ।
करोड़ों करोड़ लोकों के बारे में सस्ु पि शवज्ञान ।
143
माया
' माया '
ाआस िब्द के शलए सूत्र है –
या मा सा माया ।
या = जो
मा = नहीं
सा = वह
माया = माया कहते हैं ।
जो नहीं है ाऄथाि त् शजसका ाऄशस्तत्व नहीं है ,
ाईसे माया कहते हैं ।
दराऄसल , ाआस दशु नया में दो चीज माया हैं –
एक तो ' मत्ृ यु ' की भावना और दूसरी
' मैं ाऄलग तू ाऄलग ' की भावना ।
मत्ृ यु कहीं भी नहीं है , जो है सभी पररणाम क्रम ही है ।
शजसने जान शलया शक मत्ृ यु नहीं है ,
ाईसने माया को जीत शलया ।
ाआसी तरह ' ाऄहां ब्रह्माशस्म ' , ' तत्त्वमशस '
ाऄथाि त् में और तू वही हैं ।
ाआसशलए शजसने ' ममात्मा सवि भूतात्मा ' समझ शलया है ,
ाईसने माया को जीत शलया है ।
शजसको देहात्मा की भ्राांशत है ,
वह माया में फां सा हुाअ है ।
' देहात्मा की भ्राांशत '
ाऄथाि त् देह को ' मैं ' समझने वाला ।
ाअत्मा ही देह है ,
ाआस ज्ञान से रहने वाला माया से रशहत है ।
ाऄथाि त् ' मैं ' का भाव ही ाऄपना िरीर और स्वरूप है ,
ाआस बात को समझने वाला ।
144
ध्यान के माध्यम से ही देहात्मा की भ्ांनत दूर होती है ।
ध्यान के माध्यम से ही आस बात को समझ िेंगे नक
' ममात्मा सवण भूतात्मा । '
145
तीन कदम
वामन ने चक्रवती राजा बशल से
भूलोक , भवु लोक और सवु लोक रूपी तीन कदम मााँगे ।
' भूलोक ' ाऄथाि त् हमारा िरीर ,
कुछ लोग ाआसे ' प्रकृशत ' भी कहते हैं ।
' भवु लोक ' ाऄथाि त् हमारा मन
‘ सवु लोक ' ाऄथाि त् हमारी प्रज्ञा
' बशल ' ाऄथाि त् टैक्स या कर ।
हमारे घरों को पानी , शबजली ाअशद सशु वधा के शलए
नगर सभा को हम कर देते हैं न !
ाईसी तरह जो मन से सांबशां धत हैं ,
ाईसके शलए भी ' कर ' देना चाशहए ।
चक्रवती बशल ने क्या ' कर ' शदया ?
ाऄपनी िारीररक , मानशसक और ाअध्याशत्मक
िशियों को भगवान के प्रशत समशपि त शकया ।
परु ाणों में कुछ कथाएाँ बड़ी ाऄजीब होती हैं ।
भगवान का एक पाद सारे भूलोक पर छा गया
और दूसरा पाद सारे ाअसमान पर
और तीसरा ाईन्होंने बशल के शसर पर रखा !
ाआसका ाऄथि है िारीररक भ्राांशत को ध्वांस शकया ।
राजा बनि के शारीररक , माननसक और अध्यानत्मक –
आन तीनों िोकों में भगवान ने प्रवेश नकया । यही आसका ऄन्तराथण है ।
146
मूषक वाहन
शवनायक का वाहन चूहा है ।
शजसका ाआतना बड़ा पेट है ,
वह ाआतने छोटे चूहे पर
भला शकस तरह बैठ सकता है ?
ऐसा काइ लोग ाअलोचना करते ाअए हैं ।
दराऄसल शजन मख ु को ाआसका ाऄन्तराथि
समझ में नहीं ाअया है , वे ही ाआस तरह
ाऄथों को बढ़ा - चढ़ा कर यथाथि को शछपाते ाअए हैं ।
‘मूर्क ' ाऄांधकार का सूचक है ।
शवनायक ने ाईस ाऄांधकार को ाऄपने नीचे डाल शलया है ।
ाआसका ाऄथि है - ाऄांधकार को शछपाया
या वि में कर शलया है ।
147
अहार – व्यवहार
' देह ' ाऄलग है ।
' देही ' ाऄलग है ।
रोटी , ाऄन्न , पानी ाअशद
मात्र देह के शलए ाअहार हैं ।
देही के शलए ाअहार नहीं हैं ।
ाऄथाि त् ' हमारे शलए नहीं हैं ।
पांच ज्ञानेशन्रयों के माध्यम से
बाह्य ज्ञान , िरीर के ाऄांदर के चैतन्य
ाऄथाि त् ‘ देही ' से शमलकर ाईसे जो
ाईर्त्ेजन करता है , वही हमारे शलए ाअहार है ।
पांच कमेशन्रयों के माध्यम से हम जो चेिाएाँ करते हैं ,
वह हमारा व्यवहार है ।
ाईदाहरण के शलए हमारी बातें दूसरों के शलए
ाऄपने कानों के माध्यम से ाअहार बनती हैं ।
हमारी चेिाएाँ दूसरों के शलए ाऄपनी ाअाँखों के
माध्यम से ाअहार बनती हैं ।
148
अहार व्यवहार में जागतृ रहना चानहए
ाअहार व्यवहार में जागतृ रहना चाशहए ।
ाअहार में होशियार रहना चाशहए ,
ाऄथाि त् जो बरु ा है , ाईसे न सनु ना चाशहए , न देखना चाशहए ।
बरु ा का ाऄथि है ' बेकार ' ाऄथाि त्
जो ाऄनावश्यक है , ाईसे नहीं लेना चाशहए ।
ाआसी तरह
व्यवहार में भी जागरूकता बरतनी चाशहए ।
जो बरु ा है , ाईसे नहीं बोलना चाशहए ।
ाआसका ाऄथि है - दोनों ओर ाऄनावश्यक बातें नहीं होनी चाशहएाँ ।
ाआसशलए जो हम नहीं समझते
ाईसे समझदार जैसे नहीं बोलना चाशहए ।
यही गााँधी जी के तीन बांदरों का सूत्र है ।
149
ऄशोक वन
सीता देवी ाऄिोक वन में
ाऄिोक वक्षृ के नीचे
फूट फूट कर रोाइ ां।
क्या यह सच है ?
नहीं
ाआसमें वाल्मीशक का काव्य चातयु ि है ।
ाऄज्ञाशनयों के शलए सांकेत रूप से ,
पशत से ाऄलग होकर शवयोग के कारण
सीता फूट - फूट कर रोाइ ां- ऐसा ाईन्होंने कहा है ।
लेशकन वह महाज्ञानी व योशगनी हैं ।
ाईनके शलए िोक ाऄसांभव है ।
ाआसशलए ाईन्होंने कहा है –
ाऄ + िोक = ाऄिोक
ाऄथाि त् जहााँ िोक नहीं है , वहााँ ।
150
सनवराम पररश्रम
पररश्रम करना ही चाशहए ।
तभी कायि शसद्ध होते हैं ,
शवद्याएाँ ाअती हैं और
कलाओां में पूणिता ाअती है ।
151
मेनका प्रयोग
वशिष्ठ जैसे तरु तां ब्रह्मशर्ि बनने के शलए
ाऄशवराम पररश्रम कर रहे हैं शव“वाशमत्र ।
152
दर्त्ात्रेय
मशु न ाऄथाि त् मौनी ।
वाक् से जो मौन है , वह ।
महामशु न का ाऄथि है , शचर्त्वशृ र्त् से रशहत ।
नत्रगण
ु को पार करके ननगणण ु में सदा ,
ऄनसूया नथथनत में नथथत होने के बाद ही ,
सवण नसनद्धयाँ ' दर्त् ' होती हैं ।
154
सात पवणतों का ऄनधपनत
वेंकटे“वर स्वामी
ाऄथाि त् ‘ सात पवि तों वाला ’ ।
155
पुत्र - पुन्नाम नरक
‘ पनु : नाम नरक ' ।
ाऄथाि त् बार - बार ' नाम ' लेने वाला नरक ।
ाआसका ाऄथि है ‘ पनु जि न्म ' ।
156
चतुमणख
ु ेन ब्रह्मः
कहते हैं शक ब्रह्मा जी के चार मख ु हैं ।
‘ ाऄहां ब्रह्माशस्म ' - ाआस वेद वाक्य के ाऄनस
ु ार
' ाऄहां ' का ाऄथि ‘ ब्रह्म ' है ।
' मैं ' जो है वही ब्रह्म है ।
' मैं ' का ाऄथि है ‘ ाअत्मा पदाथि '
157
दुि चतुिय - चार योग
महाभारत में ‘ दिु चतिु य '
मन , बशु द्ध , शचर्त् , ाऄहांकार रूपी
चतमु ि ख
ु को सूशचत करता है ।
मन = दाःु िासन
बशु द्ध = कणि
शचर्त् = िकुशन
ाऄहांकार = दयु ोधन
ाआसी तरह कृष्ण को ' ब्रह्मा ' के रूप में सूशचत शकया गया है ।
' चतमु ि ख
ु ' के द्रारा चार योग सूशचत शकए गए हैं ।
158
नचत्रगप्तु
वास्तव में यह ‘ गप्तु - शचत्र ' है ।
गप्तु = रहस्यमय
शचत्र = रेकॉडि
ाऄथाि त् ाअकाशिक रेकॉड्ि स ( Akashic Records )
159
दपणदः - दपणहः
शवष्णु सहस्रनाम
एक ज्ञानी के ाऄनांतगणु ों का शववरण है ।
ाईसमें ाआन दो की चचाि ाअती है -
‘ दपि दाः ' तथा ' दपि ह : ' ।
दपि + दाः = दपि दाः ' ाऄथाि त् गवि ,
ाआसका ाऄथि है ाअत्मशव“वास ।
‘ मझ
ु े भी सत्य मालूम है ' , ाआस स्फूशति को पाना ।
160
गरि कण्ठ
गरल ाऄथाि त् शवर्
कां ठ , शजसने कां ठ में धारण शकया है ।
161
नत्रपुर सन्ु दरी
शत्रपरु सन्ु दरी
देवता = मूशति नहीं है , ाअत्म पदाथि है ।
शत्र = तीन
परु = नगर
सन्ु दरी = जो सदांु र है ।
‘ शत्रपरु सन्ु दरी ' को ' बाल ' नाम से भी पक ु ारा जाता है ।
‘ बाल ' ाऄथाि त् ' शनत्य नूतन ' , ' शनत्य िोभन ।
' ये लक्षण ाअत्म तत्व के एक गणु गण को सूशचत करते हैं ।
ाआसशलए श्री त्यागराज ने ाआस तरह गाया है
‘ दाररशन तेलसक ु ोंशट - शत्रपरु सन्ु दररशन तेलसकु ोंशट
ाऄथाि त् ‘ मागि को पा शलया , मांशजल ( ाअत्मज्ञान ) को भी ।
162
ऄहमेव शरणं मम्
‘ भशियोग ' में
ाअमतौर से हम सनु ते रहते हैं शक
‘ त्वमेव िरणम् मम । '
ाऄथाि त्
‘ तमु ही मेरे त्राता ( रक्षक ) हो । '
यह शस्थशत हमेिा हमें शनवीयि करती है ।
हमेिा त्वमेव ' कहते रहना
‘ ाऄपनी कब्र खदु खोदने के समान है ।’
आसनिए
हमेशा ‘ ऄहमेव शरणं मम ' कहते रहना चानहए ।
ऄथाणत् ‘ मैं ऄपनी शरण में जाता हँ । ' यही सही
दृक्पथ है ।
163
शेष शयन
िेर् = सपि
िेर् ियन = जो सपि के ाउपर सोया हुाअ है , वह ।
164
नशव - तीसरी अँख
कहते हैं शक –
शिव जी की तीसरी ाअाँख है ।
यशद तीसरी ाअाँख खल
ु गाइ तो सब कुछ भस्म हो जाएगा ।
Correct
लेशकन ' शिव ' पद का ाऄथि क्या है ?
क्या के वल शिव जी की ही तीसरी ाअाँख होती है ?
क्या करना है ?
ाऄपने बारे में सांपूणि जानकारी प्राप्त करना चाशहए ।
यह जानकारी प्राप्त करने वाला ही कृष्ण है ।
यह जानकारी प्राप्त करने वाला ही परुु र्ोर्त्म है ।
यह जानकारी प्राप्त करने वाला ही नारायण है ।
‘ करने वाला काम ’ करने से पाने वाला फल पाते हैं ।
‘ न करने वाला काम करने से न पाने वाला फल पाते हैं ।
जैसी करनी वैसी भरनी ।
166
दशरथ - ऄयोध्या
ऄयोध्या - जो योध्य नहीं है , वह ।
‘ योध्य ' ऄथाणत् ‘ नजसे जीत सकते हैं । '
‘ ऄयोध्या ' का ऄथण है नजसे कभी जीत नहीं सकते । '
ाऄथाि त् यह भौशतक िरीर ।
दि = दस
रथ = शजसने रथों को पाया है ।
दिरथ ाऄथाि त् पााँच ज्ञानेशन्रय तथा पााँच कमेशन्रय ।
167
आन्र - ऐरावत – वज्रायुध
शजसने ाआशन्रयों पर शवजय पााइ है ,
वह ‘ ाआन्र ' है ।
िद्ध
ु सत्त्व को जो ाऄपनाता है ,
वह ाआशन्रयों पर शवजय पाता है ।
168
कल्पतरु - कामधेनु - नचन्तामनण
ाआन्र के पास , देवताओां के पास ,
कल्पतरु - कामधेनु - शचन्तामशण ाअशद रहते हैं ।
ाईनकी प्राशप्त से हम जो चाहें वह पा सकते हैं ।
ाऄपनी ाआच्छाओां को पूरा कर सकते हैं ।
क्या यह सब सच है ?
हााँ ! ये सारे िब्द , ठीक ाअध्याशत्मक सत्यों को सूशचत करते हैं ।
‘ कल्पना ' ाऄथाि त् मनोिशि !
ऐसी कोाइ भी चीज नहीं है , शजसे हम
ाऄपनी मनोिशि से नहीं पा सकते ।
170
ब्राह्मण – नद्वजत्व
ब्राह्मण ही पूणि रूप से ' शद्रज ' हैं ।
‘ ब्रह्म जनाशत ाआशत ब्राह्मण : ।’
शजसको ब्रह्मज्ञान है , वही ब्राह्मण है ।
ाअमतौर से जन्म से कोाइ भी ब्राह्मण नहीं है ।
पहला जन्म
माता शपता से प्राप्त जन्म को सूशचत करता है ।
यह हमारे भौशतक िरीर को सूशचत करता है ।
दूसरा जन्म
हमारे पूणाि त्मा को सूशचत करता है ।
जीसस ने कहा है शक ,
‚ मैं एक देव पत्रु हाँ ।’’
ाऄथाि त् वह एक शदव्यात्मा से ाअया हुाअ ाऄांिात्मा है ।
प्रत्येक जीव शदव्यात्मा से ाअया हुाअ ाऄांिात्मा ही है ।
लेशकन ज्यादा लोग तो ाआसके प्रशत ाऄनशभज्ञ ही हैं ।
जानने वाले बहुत कम हैं ।
171
यज्ञोपवीत
शजसको ाईपनयन हुाअ है ,
जो ब्राह्मणत्व पाकर शद्रज बना है ,
वह यज्ञोपवीत को धारण करता है ।
‘ ाईपवीत ' ाऄथाि त् ' कपडा ' , ' कपास का डोरा '
शजसको ाईपनयन हुाअ हैं , वह यज्ञोपवीत धारण करता हैं ।
ाऄथाि त् शदव्यचक्षु को ाईपलब्ध योगी ।
172
ननत्यानग्नहोत्र
ब्राह्मण के शलए शनत्याशग्नहोत्र ' कति व्य है ।
ब्राह्मण ाऄथाि त् ' शदव्य चक्षु को ाईपलब्ध योगी । '
‘ ब्रह्मज्ञान प्राप्त व्यशि ' ।
173
संध्यावन्दन
‘ सांध्या ' ाऄथाि त् ‘ बीच का समय '
वह शदन भी नहीं है , रात भी नहीं है ;
रात भी नहीं है , शदन भी नहीं है ।
सांध्या समय पररवति न ' का समय है ।
रात बीत कर शदन ाअने का समय ,
शदन बीतकर रात ाअने का समय ।
175
मानस पुत्र
जब हम पूणाि त्मा की शस्थशत को पहुचाँ ते हैं ,
तब हम ाऄपने से ाऄांि ( ाऄांिात्मा )
को ाऄलग करते रहते हैं ।
वे ही मानस पत्रु हैं ।
176
मत्ृ यु - ननरा - ध्यान
मत्ृ यु - - शनरा - ध्यान
ये सभी हमारे ाऄपने स्थूल िरीर को
छोड़ने की प्रशक्रयाएाँ ही हैं ।
177
ननरावथथा
शनरावस्था हमें ाऄवश्य चाशहए ।
ाईसमें हम स्थूल िरीर को छोड़कर ,
सूक्ष्म िरीर के साथ काइ
दूसरे लोकों में शवहार करते हैं ,
काइ प्रयोग करते हैं ,
भूत , भशवष्य की खोज करते हैं ,
काइ लोगों के साथ शमलते हैं ।
178
भ्ोगी – भ्योगी
भोगी + रोगी = भ्रोगी
भ्रोगी = शजसको भोग व रोग दोनों हैं ।
ाअध्याशत्मक ज्ञान व जीवन मागि जो नहीं जानते ,
वे हैं भ्रोगी । प्रापांशचक रूप से 99 . 99 % लोग
भोग और रोग का शदन रात ाऄनभु व करते रहते हैं ।
179
ये सारे ाऄज्ञान भाव योग के माध्यम से
ाऄनभु वपूविक दूर शकए जाने चाशहएाँ ,
तो जो बाकी बचता है ,
वही हैं शनत्य भोग ।
180
गत - ऄवगत - नवगत
‘ गत ' ाऄथाि त् ' हमारी भूत शस्थशत ' ।
जन्म से लेकर ाऄब तक की ,
समस्त कायि कलापों की सूची ।
और भी पीछे जाएाँ तो शपछले जन्म की कथाएाँ ।
' गत ' ' ाऄवगत ' होकर ' शवगत ' होने के बाद ही
भशवष्य के शलए स्वणि मागि बनता है ।
‘ गत ' पूणि रूप से ाऄवगत ' नहीं हुाअ तो
वह ' गत ' बार - बार पनु रावर्त्
ृ होता रहता है ।
की गाइ गलशतयों को बार - बार करते रहना चलता ही रहता है ।
तब जीवन चशवि त-चवि ण बन जाता है ।
181
थोडा समय व्यय करना चाशहए ।
तब ' गत ' की प्रत्येक घटना पहले मनोपटल पर ,
बाद में हमारे शदव्यचक्षु में भी बार - बार प्रत्यक्ष होकर ,
समझ में ाअने लगती है ।
जो भी समझ में ाअता है ,
वह ' शवगत ' होकर शमट जाता है ।
जो ' गत ' नहीं शमटता , वह बार – बार
वति मान में ाअकर पीड़ा देता रहता है ।
182
ऄप्पो दीपो भव
बद्ध
ु द्रारा
ाऄपने जीवन में ,
ाऄपने शप्रय शिष्य ाअनन्द को शदया हुाअ
ाऄांशतम सांदेि ाआस प्रकार है-
‘ ओह ाअनन्द ! तमु स्वयां ाऄपना प्रकाि बनो !
दूसरों पर कभी भी शनभि र नहीं रहना !
तमु श्रद्धा से ाऄपनी मशु ि प्राप्त करो ! '
183
मेरा राथता रेनगथतान
मेरा नाम है शभखारी , मेरा रास्ता है रेशगस्तान ;
जहााँ मन , वहााँ महल , नहीं तो बस स्थानाांतरण ।
184
यह एक ऄद्भुत गीत है ।
ाआस गीत में ाअध्याशत्मक ज्ञान ,
ाअत्मशवकास ही भर गया है ।
' मेरा रास्ता रेशगस्तान ' ाऄथाि त् ' बाहर सभी िून्य है ।
' मेरा नाम है शभखारी ' ाऄथाि त् ' भीतर सभी िून्य है ।
सुभाष पत्री
187
समनपणत है
तलु सीदल ब्रह्मशर्ि पत्री जी की प्रथम स्वरशचत पस्ु तक है , शजसे ाईन्होंने तेलगु ु भार्ा में शलखा था ।
ाईनकी ाआच्छा हमेिा यह रही शक ाईनकी ाआस पस्ु तक के दोनों भागों का ाऄशधकाशधक भार्ाओां में
रूपान्तरण हो ताशक यह जनसाधारण तक पहुचाँ सके और ाईनके काांसेप्ट् स को हर साधक तक पहुचाँ ा
भी सके । ाआस ाऄशभयान को समस्त भारत में पहुचाँ ाने के शलए यह ाऄशत ाअवश्यक भी था ।
2008 में जब मैं शपराशमड शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटीज मूवमेंट के साथ जड़ु ी और मैंने ‘ ध्यान भारत ' में
शलखना िरू ु शकया तब मझ ु े तक तल ु सीदल ( शद्रतीय ) के शहन्दी ाऄनवु ाद की एक हस्तशलशखत प्रशत
पहुचाँ ााइ गाइ ाआस ाऄनरु ोध के साथ शक मैं ाआस प्रयास में यथावश्यक सांिोधन करके ाईसे पस्ु तक रूप में
प्रस्ततु करूाँ । मेरे शलए यह एक चनु ौती थी । एक ाआतने महान् गरुु की रचना , वह भी ऐसी शजसमें ाईनके
सभी ाअध्याशत्मक कााँसेप्रस सांगहृ ीत थे , को मैं शकस प्रकार शहन्दी में पनु : प्रस्ततु करूाँ जबशक मैं
स्वयां मूल भार्ा से पूरी तरह ाऄनशभज्ञ हाँ । तब ध्यानरत्न श्री पी . वी . रामा राजू , जो ाईस समय
चण्डीगढ़ में काम कर रहे थे , की मदद से मैंने लगभग तीन महीने में तल ु सीदल ( शद्रतीय ) का
रूपान्तरण शहन्दी में शकया और 2009 में मझ ु े वह पस्ु तक पत्री जी के हाथों में सौंपने का सौभाग्य शमला
। ाआस पस्ु तक में ब्रह्मशर्ि पत्री जी ने जो प्राक्कथन शलखा ाईसमें ाईन्होंने यह िभु ेच्छा व्यि की शक मेरे
हाथों ाऄन्य ाऄनेक ऐसी पस्ु तके साधकों के हाथों में पहुचाँ े । ाईस समय तो मझ ु े यह काम ाऄकल्पनीय
लगा था परन्तु ाअज यह एक सत्य बन चक ु ा है , यह मेरी बारहवीं पस्ु तक है जो मैं ाईनके चरणों में
समशपि त करती हाँ ।
मझ
ु े कुछ महीने पूवि स्वयां पत्री जी मूल ' तल
ु सीदलम् ' के सांिोशधत व पररवशद्धि त रूप
का शहन्दी रूपान्तर करने को कह चक ु े थे पर मैं नहीं समझ पा रही थी शक क्योंकर ाआस ाऄनूशदत रचना
को ाऄनदेखा करके मैं ाआस काम को कर सकूाँगी और ाआस पर ाऄपना नाम दे पााउाँगी । परन्तु जैसे ही
के तप्पनवर जी से सांपकि सधा , सब कुछ ाअसान हो गया । ाईन्होंने न के वल तल ु सीदल के पररवशद्धि त व
सांिोशधत सांस्करण का रूपान्तरण कायि करने के शलए प्रसन्नता प्रकट की बशल्क ाऄपनी पस्ु तक के
ाऄांिों को ाआस्तेमाल करने को सहर्ि ाऄनमु शत भी दी शजसके शलए मैं ाईनकी ाअभारी हाँ । ाआस कायि के
शनष्पादन हेतु मैं शविाखापट्टनम की सीशनयर शपराशमड मास्टर मैडम रेवती देवी की भी रृदय से ाअभारी
हाँ शजन्होंने ाआस काम को समापन तक पहुचाँ ाने में मेरी बहुत मदद की । ाऄपने व्यस्त जीवन से कुछ शदन
शनकाल कर वे स्वयां चण्डीगढ ाअाइ और मेरे साथ बैठकर पूरी पस्ु तक के एक - एक िब्द को शहन्दी में
रूपान्तररत करने में ाऄपूवि धैयि का शनवि हण करते हुए ाऄमूल्य योगदान शदया । ाईनके सहयोग के शबना
ाआस कायि का सम्पादन सम्भव नहीं था ।
प्रस्ततु रचना मैं ब्रह्मशर्ि पत्री जी को ही समशपि त करती हाँ । ाईन्होंने यह कायि मझ
ु े सौंप कर न
के वल मझ ु में ाऄपना शव“वास प्रकट शकया है बशल्क ाआस माध्यम से मझ ु े ाऄपनी सांकल्पनाओां को गहरााइ
से समझने का ाऄवसर भी शदया है । मैं डॉ . जीवांधर के तप्पनवर और मैडम रेवती देवी के प्रशत कृतज्ञ
रहगां ी शजनके योगदान के फलस्वरूप यह पस्ु तक ाआस पररधान को धारण कर ाअज ाअपके हाथों में है ।
चण्डीगढ़
शदसम्बर 2012
सन्तोर् कालरा
189
मेरा पररचय
ाआस बार ाऄपनी ाआस भौशतक यात्रा हेतु ,
मैंने चनु ा है माता साशवत्री देवी , शपता रमणराव जी को ।
सन् 1947 में िरीर का धारण हुाअ ।
191
शसांगापरु व हाांगकाांग में ध्यान शिक्षण कक्षाएाँ ।
यह है प्रस्ततु जीवन यात्रा की शविेर्ताएाँ –
192
कृतज्ञता
बहुत शदनों के बाद ाआस पस्ु तक की रूप - कल्पना शसतम्बर 1994 में गन्तकल
में हुाइ ।
ड्राफ्ट तैयारी में ाऄपना योगदान करने के शलए ाऄनांतपरु के मास्टर पी . रमना
का ाऄशभनन्दन !
- सुभाष पत्री
193
तुिसीदि
ाईस शदन 13 नवांबर 1994 को
शतरूपशत शस्पररचाऄु ल सोसााआटी के साथ
शतरूपशत से पीलेरू जा रहे थे ध्यान - क्लास लेने के शलए ।
मेरे साथ थे मास्टर शमट्टा श्रीशनवासल
ु ु,
कॉच रघरु ाम , िेखर , मनु स्ु वामी और मैडम ाईदय लक्ष्मी ।
बस में यात्रा करते समय भावतरांशगणी िरू ु हुाइ ,
शदमाग चपु नहीं बैठता न !
ाईनमें भी कुछ लोग ' हमारी परम्परा कां चीमठ की है ' कहते हैं ।
और कुछ लोग कहते हैं ‘ हमारा सम्प्रदाय श्रगांृ ेरी का है ।
कुछ लोग कहते हैं शक ‘ हमारा मत ‘ ‘ शवशििाद्रैत ' ' है ।
सगणु ोपासना ही हमारे शलए प्रधान है ।
कुछ ाऄन्य लोग कहते हैं शक ' हम मध्व ब्राह्मण हैं । '
' जीव ाऄलग और ब्रह्म ाऄलग है ।
195
कुछ लोग कहते हैं शक ' हम शसख हैं ,
गरुु ग्रांथ की पूजा ही हमारे शलए िरणदायक है । ’
कुछ लोग कहते हैं शक । ' हमारे कुल देवता वेंकटे“वर स्वामी हैं ,
वे ही कशलयगु के देवता हैं ,
वे ही सबको देखते हैं , वे ही दाता हैं ।
हम ाऄपने के ि ाईन्हें समशपि त करते रहते हैं ,
ाईसी के फलस्वरूप वे हमारी ाआच्छाओां की पूशति करते रहते हैं । '
197
कुछ लोग कहते हैं शक ‘ हमारा शसद्ध योग है ।
हम श्री शनत्यानन्द , श्री मि
ु ानन्द गरुु परम्परा से सम्बशन्धत हैं । िशिपात ही
हमारे शलए िरण है । '
199
ाआतना ही नहीं , स्वयां सत्य के िोध में शनमग्न हो जाते हैं ।
शफर भी ाआनका पूणि मत कौन सा है ?
ाआनका पूणि तत्त्व कौन सा है ?
‘ परम सत्यां ’ शदखााइ नहीं शदया । तब ाईसे याद ाअया , ‚ मैं ‛ एक चीज तो
भूल ही गाइ । ाऄपने प्राणों से भी प्यारी ' श्यमांतक मशण ' ाऄभी तक मेरे
पास है । '
ाईत्साहपूविक ाईसे भी लाकर तराजू में डाल शदया । ाअह ! कुछ भी नहीं
हुाअ । ‘ परमसत्यां ' ाऄणु मात्र भी शहला नहीं । बेचारी , वह औरत पसीने
से तरबतर हो गाइ । और कुछ करने को न सूझा , हैरान हो गाइ । ाईस
हालत में बहुत ाआत्मीनान के साथ मस्ु काराते हुए एक स्त्री ने ाअकर
एक तल ु सीदल को ाईसमें रखा ।
ाआतने में ही हठात् ,
200
तत्क्षण परम सत्य शहल गया ।
‘ परमसत्य पूणि रूप से खल ु गया । '
ाआसशलए शजससे परम सत्य तरु तां ग्राह्य होता है ,
तत्क्षण दृग्गोचर होता है , तत्क्षण ाऄनभु व में ाअता है ,
वहीं , वही ' तल ु सीदल ' मत है ।
201
जो चाहें ाईसे पाने का सामथ्यि सभी को है ।
यह है परम सत्य ।
यही है शवकशसत ज्ञान चक्षु का पूणि साराांि ।
203
‘ परम सत्य ' एक ही है ।
‘ ाईद्धरेदात्मनात्मानम् ' ऐसा समझकर
एक ही परम प्रशक्रया कर लेनी चाशहए ,
वह है ' ाअनापानसशत ' शवपस्सना ।
204
समझने और समझाने लायक एक ही परम सत्य है ।
करने और कराने लायक एक ही परम शक्रया हैं !
ये ही तल
ु सीदल के दो पर्त्े हैं ।
205
नवषय साररणी
क्रमाांक शवर्य क्रमाांक शवर्य
1. ाऄध्यात्म वैज्ञाशनक 22.शक्रया योग
2. ाऄध्यात्म िास्त्र 23.स्वाध्याय
3. ाऄध्यात्म िास्त्र के शवभाग 24.एक योगी की ाअत्म कथा
4. ध्यान 25.शहमालय के योगी
5. शदव्य ज्ञान प्रकाि 26.सांभोग से समाशध की ओर
6. शनत्य जागशृ त 27.ओिो रजनीि
7. मनोिशि 28.लोब साांग राम्पा
8. ध्यान के लाभ 29.ररचडि बाक़
9. कुछ ाअध्याशत्मक सत्य 30.डॉन जाअ ु न/ कालोस
10.चैतन्य ही मूल 31.कास्टानेडा
11.मेशडटेिन-1 32.ममु क्षु ु के ित्रु
12.मेशडटेिन-2 33.जेन रॉबट्ि स/सेत्
13.यद्भावम् तद्भवशत 34.शलांडा गडु ् मन
14.एकमात्र सत्य 35.जीसस
15.जीवन के परमाथि 36.महु म्मद
16.शत्रशवध ाअनन्द 37.जोरास्टर
17.ाऄशन्तम ध्येय 38.जलालद्दु ीन रूमी
18.हर शदन क्या करना चाशहए 39.गयथे
19.ाऄक्षराभ्यास 40.कन््यूशियस
20.तत्क्षण कर्त्िव्य 41.प्लेटो
21.प्रजल्प राशहत्य 42.चाअु ांग त्सु
206
क्रमाांक शवर्य क्रमाांक शवर्य
43.ाऄन्नमय्या 67.सूक्ष्म दशिि शभाः
44.गौतम बद्ध ु 68.ाऄयम् लोकोनाशस्त पराः
45.चार ाअयि सत्य 69.श्रेय प्रेय
46.ाऄिाांग मागि 70.ध्यान-मोक्षानन्द
47.सही दृक्पथ 71.सूक्ष्म िरीर यान
48.मध्य मागि 72.तस्मात् योगी भव !
49.ब्रह्म शवहार 73.ब्रह्मज्ञान-ाआशन्रयवि
50.धम्मपद में 74.धमि
51.ाऄर्त्ाही ाऄर्त्नो नाथो 75.धमि - ाऄधमि
52.बद्ध
ु की दृशि में ब्राह्मण 76.धमो रक्षशत रशक्षताः
53.नारद की सलाह 77.धमि त्रय
54.महदवधान 78.चतवु ि ण
55.तापत्रय 79.तमो रजो सतोगणु
56.ज्ञानान् मशु िाः 80.चार योग
57.पांच शवांिशत 81.मूढ़ भशि
58.तीथि यात्रा 82.भशियोग
59.तीथि कर गोत्रबन्ध 83.वणाि श्रम धमि
60.यजवु ेद में धीर 84.सांसार
61.महावाक्य 85.सन्यास
62.वद्धृ 86.गहृ स्थाश्रम
63.पनु जि न्म 87.ब्रह्मचयि
64.पशण्डत 88.ाआच्छाओां का दमन
65.सत्यमेव जयते 89.मत करो
66.ाअत्मा दृश्यते 90.ाऄधमि यि ु कमि
207
क्रमाांक शवर्य क्रमाांक शवर्य
91.लेशकन स्वप्नावस्था में । 114. ाईर्त्म गरुु
92.कमि बद्ध 115. देह ाअत्मा
93.निो मोहाः 116. शचरांजीवत्व
94.मा गा मोहावेि 117. कुछ भी न्यूनता नहीं
95.कारण- कायि 118. करो या मरो
96.ाऄदृि 119. सम्यक् चररत्र
97.वशिष्ठ गीता में ाऄदृि 120. मााँस शपण्ड- मांत्र शपण्ड
98.परुु र् प्रयत्न 121. ाअशस्तक-नाशस्तक
99.स्वेच्छा- यादृशच्छक 122. गरुु - लघु
100. पाप-पण्ु य-ज्ञान 123. ाअशस्तक के चार वगि
101. पाप – व्याशध 124. मूढ़भि -शिष्य
102. शवशध शलशखत 125. गरुु -परमगरुु
103. ाऄज्ञ - ाऄल्पज्ञ- शवज्ञ 126. शनवाि ण के बाद
104. ाअचायि 127. गरुु हमेिा हैं
105. मन का प्रलोभ- ाऄांतरात्मा 128. साधना चतिु य
का प्रबोध 129. वेदान्त घोर्
106. सूत्रप्राय- प्रबन्धप्राय 130. योगसाधना
107. क्या शनशध ाऄत्यांत 131. पतांजशल के ाऄिाांग योग
108. सख ु दायक है ? 132. यम – शनयम
109. सत्सांग – सज्जन साांगत्य 133. शचर्त्वशृ त शनरोध
110. राक्षस- मानव –देवता 134. ाअनापानासशत
111. जीव शहांसा 135. शवपस्ना
112. ललाट लेख 136. ाईपासना – शवपस्सना
113. योगी 137. कुण्डशलनी का जागरण
208
क्रमाांक शवर्य क्रमाांक शवर्य
138. नाड़ी मण्डल की िशु द्ध 162. शत्रपरु सन्ु दरी
139. र्ट् चक्र- सहस्रार 163. ाऄहमेव िरणम् मम्
140. शदव्य चक्षु 164. िेर् ियन
141. सशवकल्प समाशध 165. शिव –तीसरी ाअाँख
142. शनशवि कल्प समाशध 166. कृष्ण
143. ाअत्मज्ञान – ब्रह्मज्ञान 167. दिरथ- ाऄयोध्या
144. माया 168. ाआन्र-ऐरावत-वज्रायधु
145. तीन कदम 169. कल्पतरु – कामधेन-ु
146. मूर्क वाहन 170. शचन्तामशण
147. ाअहार – व्यवहार 171. ब्रह्मोपदेि- गरू ु पदेि –
148. ाअहार व्यवहार में 172. ाईपनयन
149. जागतृ रहना चाशहए 173. ब्राह्मण-शद्रजत्व
150. ाऄिोक वन 174. यज्ञोपवीत
151. सशवराम पररश्रम 175. शनत्याशग्नहोत्र
152. मेनका प्रयोग 176. सांध्यावन्दन
153. दर्त्ात्रेय 177. ाऄांिात्मा- पूणाि त्मा
154. सात पवि तो का ाऄशधपशत 178. मानस पत्रु
155. ( वेंकटे“वर ) 179. मत्ृ य-ु शनरा –ध्यान
156. पत्रु – पन्ु नाग नरक 180. शनरावस्था
157. चतमु ि खु ेन ब्रह्माः 181. भ्रोगी – भ्योगी
158. दिु चतिु य- चार योग 182. गत- ाऄवगत- शवगत
159. शचत्रगप्तु 183. ाऄप्पो दीपो भव
160. दपि दाः –दपि हाः 184. मेरा रास्ता रेशगस्तान
161. गरल कण्ठ
तल
ु सीदल
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