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ऄध्यात्म वैज्ञाननक

काइ महानभु ाव
शिव
हेशमि स
कृष्ण
महावतार बाबा जी
महावीर
बद्ध

लाओ त्सु
जोरास्टर
जीसस
महु म्मद
शमलोरपा
गरुु नानक
सेतू
डााँन जाअ
ु स
लोब साांग राांपा
ओिो रजनीि
सबको मेरा प्रमाण ।
ाआस तरह और भी ... काइ लोग
शवश्वशवख्यात ाऄथवा
शजनका नाम न सनु ा हो
सभी योगी हैं ।
सभी ाऄध्यात्म िास्त्रज्ञ हैं ।
शस्पररचाऄु ल वैज्ञाशनक है ।
हमें भी ईन जैसा बनना चानहए ।

1
ऄध्यात्म शास्त्र
एक ही िास्त्र है
शजसे सबको सवि प्रथम सीखना ही चाशहए ।
वही ाऄध्यात्म िास्त्र है ।
याशन शस्पररचाऄु ल सााआांस ।
जीवन की सच्चााइ को समझाने वाला िास्त्र ।
वही सबके शलए मूल है ।

∙ ऄध्यात्म शास्त्र का जानना सबके निए अवश्यक है ।


∙ किा , नवधा तथा ऄन्य शास्त्र अनद सभी महत्वपण
ु ण हैं, िेनकन ईन सबको अध्यानत्मक ज्ञान के
बाद ही ऄनजणत करन चानहए ।

2
अध्यानत्मक शास्त्र के नवभाग
ाऄध्यात्म िास्त्र पररज्ञान में चार मौशलक शवभाग है –
ध्यान ज्ञान – Meditation
ाअत्म ज्ञान प्रकाि – Elightenment
क्षण क्षण शनत्य जागशृ त – Awareness
मनोिशि - Thought Power

∙ ध्यान से हम नदव्य अत्म ज्ञान प्रकाश के योग्य बनते है ।


∙ नदव्य अत्म ज्ञान प्रकाश से ही हमारे भीतर ननत्य जागनृ त नथथनत पैदा होती है और हम सनु थथर
होते है ।
∙ ध्यान , ननत्य ज्ञान प्रकाश , क्षण क्षण ननत्य जागतृ ऄवथथा – आन तीनो से ही मनोशनि प्रबि
होती है ।
∙ दुननया में ऐसा कुछ भी नहीं है , नजसे प्रबि मनोशनि के द्वारा नहीं साधा जा सकता ।

3
ध्यान
धी + यान = ध्यान
धी = सूक्ष्म िरीरादी समदु ाय के साथ प्रयाण ।
Astral Body Complex
यान = प्रयाण
ाआसशलए
ध्यान ाऄथाि त् सूक्ष्म िरीराशद समदु ाय के साथ प्रयाण ।
ाआसी को सक्ष्ु म िरीर यात्रा कहते हैं ।

∙ ध्यान के माध्यम से ही हम सभी िोकों में घुमते हैं ।


∙ ध्यान के माध्यम से ही हमारी सवणिोक वानसयों से मि ु ाकात होती है ।
∙ ध्यान के माध्यम से ही हम सवणिोक के रहथयो को समझते है ।
∙ ध्यान के माध्यम से ही हम सवणिोक के अनन्द को भी प्राप्त करते हैं ।

4
नदव्य ज्ञान प्रकाश
हम क्या है ?
कौन है ?
कहााँ से ाअए है ?
कहााँ जा रहे है ?
क्यों पैदा हुए है ?
मरने के बाद क्या होता है ?
घटनाएाँ भी कै से घटती रहती है है ?
ाआन जन्म मरण चक्र का रहस्य क्या है ?
दैव का ाऄथि क्या है ?
यह ाऄदभतु सशृ ि क्रम कै से चल रहा है ?
ाआन सभी सवालो का
स्वानभु व के ाअधार पर
पूणि रूप से साधान प्राप्त करके ,
ाईसके ाऄनरू ु प जीना ही शदव्य ज्ञान प्रकाि को पाना है ।

∙ ध्यान के माध्यम से प्रत्यक्ष रूप से,


ध्वननयों के ऄनुभवों को सुनने से,
ध्वननयों की पुथतको को पढ़ने से,
परोक्ष रूप से नदव्य ज्ञान प्रकाश पा सकते हैं ।

5
ननत्य जागनृ त
शनत्य जागशृ त
ध्यान के माध्यम से
शदव्य ज्ञान प्रकाि के माध्यम से
ाईपलब्ध होने वाली शस्थशत है ।
ाआस शस्थशत में सदा जागशृ त रहती है ।
हमेिा वति मान स्फूशति में रहते हैं ।
जब चाहते है , शसफि तभी
भूत भशवष्य काल की छाया वति मान पर पड़ती है ।
ाआच्छा मात्र से ही ाईपशस्थत हो जाते हैं ।
ाऄध्यात्म िास्त्र के शवधाथी को
ध्यान में शनष्णात होने के बाद
शदव्य ज्ञान प्रकाि पाने के बाद
शनरन्तर ाऄभ्यास करने के बाद
पूणि ाऄध्यात्म िास्त्र ज्ञानी बनने के बाद ही
शनत्य जागशृ त शक शस्थशत प्राप्त होती है ।
हमारे भीतर और बाहर की पररशस्थशतयााँ
हर क्षण पररवशति त होती रहती हैं ।
हर चीज ाऄशस्थर है ,
कुछ भी शस्थर नहीं है ।
सभी चैतन्मय है ।
सभी पररवति निील है ।

∙ ननरन्तर बदिती दुननया में , प्रथततु संदभण और समथयाओं को पहचानकर, ईनके ऄनुरूप
प्रत्येक क्षण जागरुकता से रहना ही क्षण क्षण जागनृ त की नथथनत है ।

6
मनोशनि
‘ हममें जो िशि है वह ाऄनन्त है । ’
ऐसा समझकर ाईसका ाईपयोग करना चाशहए ।
हम जैसा चाहते है , वैसा ही होना चाशहए ।
सशु िशक्षत मन वालो के शलए
ाऄचांचल मन वालो के शलए
बद्ध
ु ीपूणि मन वालो के शलए
दशु नया में ाअगे ही बढ़ते जाना है ।
लेशकन यह मनोिशि
ध्यान के माध्यम से ही
शदव्य ज्ञान प्रकाि के माध्यम से ही
शदव्य जागशृ त द्रारा ही प्रबल होती है
और शकसी भी तरह प्रबल नहीं होती ।

∙ पररणनत प्राप्त पूणाणत्मा ( Overselves ) ऄथाणत् सह-सनृ िकताण ( Co-Creators ) ऄपनी


प्रबि मनोशनि के द्वारा ही नूतन ऄंशात्माओं ( Underselves ) की ऄिग िोको की सृनि
करते रहते हैं ।

7
ध्यान के िाभ
ध्यान से हमें
छाः प्रकार के लाभ होते है –
िारीररक ाअरोग्य
मानशसक िाांशत
बद्ध
ु ी - कुिलता
ाअशथि क सक्षमता
सशु मत प्राशप्त
ाअध्यशत्मक ज्ञान

ध्यान योग से ाऄनशभज्ञ व्यशि को ाअध्याशत्मक सत्य नहीं शदखते और ध्यानी लोग पूरी तरह शजन्दा
रहते हैं । पररणामताः ाईन्हे शकसी प्रकार की ाऄस्वस्थता नहीं रहती ।

∙ जो ध्यानी नहीं हैं , ईन्हे शारीररक अरोग्य, माननसक शांनत, बुद्धी –कुशिता, अनथणक
संपन्नता, सामानजक थवाथथय तथा अध्यानत्मक ज्ञान प्राप्त नहीं होता ।

∙ सामानजक थवाथ्य का मतिब है सामानजक जीवन में सच्चे नमत्रो का रहना ।


∙ अध्यानत्मक ऄज्ञान ऄथाणत् हम कौन हैं , नकस निए जी रहे हैं – आसका ज्ञान न रहना ।

8
कुछ अध्यानत्मक सत्य
∙ सशृ ि में करोड़ो लोक हैं ।
∙ हमारे काइ िरीर हैं ।
∙ ाअकाि से होने वाली वर्ाि की तरह ही मूल चैतन्य से ाअत्माओां की सशृ ि चलती ही रहती है ।
∙ ाआतना ही नहीं , पूणाि त्मा ाऄथाि त् पररणती प्राप्त ाअत्माओां से भी ाऄपने नूतन ाऄांिात्माओां का सशृ ि कायि
जारी ही रहता है ।
∙ चाहे मूल चैतन्य से ाअत्मा हो या पूणाि त्मा से जन्मे हुए ाऄांिात्मा हो, जन्म – मरण चक्र में या ाईसके
बाहर सभी ाऄनभु वो को प्राप्त करना चाशहए ।
∙ सभी ाअत्माओ को सभी रूप से पररणती प्राप्त कर लेनी चाशहए लेशकन सभी ाअत्माओां की स्वतन्त्र
ाआच्छा भी रहती है ।
∙ ाऄपनी ाऄपनी ाआच्छा से कायि करते , फल भोगते , काइ पाठ सीखते रहना चलता रहता है ।
∙ ाआसी प्रकार और भी बहुत से सत्य हैं । सभी को सीखते व जानते रहना चाशहए ।

9
चैतन्य ही मूि
चैतन्य
( Consciousness )

चैतन्य की शाखाएँ
( Unit of Consciousness )

प्राण शनि शाखाएँ चैतन्य शाखाएँ

( Electro Magnetic Energy Units) ( Consciousness unit )

पदाथण देही
( Matter ) ( entry )

सजीव देह
( Embodied Entities )

∙ सृनि का मूिाधार ही मूि चैतन्य है ।


∙ हम आस मूि चैतन्य की शाखाएँ हैं ।
∙ कुछ चैतन्य शाखाएँ प्राणशनि शाखाएँ बनकर रुपांतररतहोती है ।
∙ आन प्राणशनि शाखाओं का समदु ाय ही मूि प्रकृनत है ।
∙ यह मूि प्रकृनत ही क्रमशः थथूि प्रकृनत ऄथाणत् पंचभोनतक बनकर रुपांतररत होती रहती है ।
∙ पंचभोनतक पदाथण पररणाम-क्रम में , देहों की ईत्पनत होने के बाद चैतन्य शाखाएँ ‘ देही ’ बनकर
देह में प्रवेश करती हैं ।

10
मेनडटेशन-1
MEDITATION-1
‘ मेशडटेिन ’ िब्द में बहुत कुछ ाऄन्तशनि शहत है –

M = Meditation ध्यान
E= Energy Conservation िशि सांयोजन
D = Detachment शनस्सांगता
I = Intent दीक्षा, सांकलप
T = Third eye सूक्ष्म िरीरयान
T = Thought Power मनोिशि
I = Intellect बद्ध
ु ी
O = Overself contact पूणाि त्मा ज्ञान
N = Nirvana मोक्ष , मशु ि

∙ Meditation ऄथाणत जो करना चानहए, यनद ईसे नकया तो जो पाना चानहए, वह प्राप्त होता है ।

डा. युगधं र
( कनि ूल शस्पररचाऄ
ु ल सोसायटी )

11
मेनडटेशन-2
MEDITATION-2
‘ MEDITATION ’ िब्द में बहुत कुछ ाऄन्तशनि शहत है –

M = Mind मााआांड (मन )


E = Elernally ाआटनि ली ( शनरन्तर )
D = Directed डायरेशक्टड ( शनदेशित )
I = In ाआन ( में )
T = Tuning ट् यूशनांग ( समस्वरण )
A = And एण्ड ( और )
T = Taming टेशमांग ( वि में करना )
I = In ाआन (में )
O = Only ओन्ली ( के वल )
N = Nirvana शनवाि ण ( शनवाि ण )

∙ आसनिए शा‚वत रूप से बुद्धी को ननवाणण की ओर मोड़कर, ईसकी Tuning करके ईसमें
जीवन चिाना ही ध्यान है ।

यू. सी. संपत कुमार


( शपराशमड ध्यान के न्र , ाऄनांतपरु )

12
यदभावम् तदभवनत
हमेिा हमारी भावना ही
हमारा वास्तव बनकर पररवशति त होती है ।
ाआसशलए-
शवनािकारक शवचारों से शवनािकारक पररणाम
( Disastrous Thinking ) ( Disastrous results )
शनरािात्मक शवचारों से शनरािात्मक पररणाम
( Negative thinking ) ( Negative results )
ाअिापूणि शवचारों से ाअिादायक पररणाम
( Positive thinking ) ( Positive results )
चमत्कारी शवचारो से ाऄदभतु पररणाम
( Miraculous thinking ) ( Miraculous results )
हुाअ करते हैं ।

∙ तीव्र रूप से आनच्छत , नत्रकरण शुद्धी से नकया हुअ नव‚वास , गहन रूप से नकए गए नवचार,
ईत्साह से नकए गए प्रयत्न – कुछ भी चाहो, वह होकर ही रहेगा ।

सैनबििीक् मातामनह

13
एकमात्र सत्य
‘हम स्वयां ाऄपनी वास्तशवकता की सशृ ि कर रहे हैं । ’
यही एकमात्र सत्य है ।

भगवद् गीता में कहा गया है –


ाईद् धरेदात्मनात्मानम् नात्मानमवसादयेत्
ाअत्मैवह्यात्मने बन्धाःु ाअतोवरर परु ात्मनाः

हमें स्वयां ही ाऄपना ाईद्दार कर लेना चाशहए ।


हमें स्वयां ही ाऄपना पतन नहीं कर लेना चाशहए ।
और कोाइ नहीं ,
हम स्वयां ही ाऄपने बन्धु हैं ,
हम स्वयां ही ाऄपने ित्रु हैं ।

ाआतना ही नहीं
दूसरा कोाइ हमारी सहायता नहीं कर सकता ।
दूसरा कोाइ हमारा नक
ु सान भी नहीं कर सकता ।
∙ ऄपनी उध्वणगनत के भी और ऄधोगनत के भी हम थवयं ही कारक है , नजम्मेवार हैं ।

14
जीवन के परमाथण
यह जीवन है –
सभी शवर्यों का ाऄनभु व करने के शलए,
सकल कलाओां, सकल शवद्याओां का ाऄभ्यास करने के शलए,
ाऄध्यात्म िास्त्र को पूणि रूप से जानने के शलए और
मख्ु य रूप से ाअध्याशत्मक िशियों को पाने के शलए ।

ाआसशलए

जीवन के चार परमाथि हैं ।

भनु ि – नवषयानन्द के माध्यम से


रनि – किाओं, खेि , गीतों के माध्यम से
मनु ि – अध्यानत्मक ज्ञान के माध्यम से
शनि – योगसाधना के माध्यम से

15
नत्रनवध अनन्द
ाअनन्द तीन प्रकार के होते हैं –
शवर्यानन्द
भजनानन्द
ब्रह्मानन्द
हमारा जीवन है
∙ ऄन्नमय कोश के माध्यम से नवषयानंद प्रानप्त के निए ।
∙ मनोमय कोश के माध्यम से भजनानन्द प्रानप्त के निए ।
∙ नवज्ञानमय कोश और अनन्दमय कोश के माध्यम से ब्रह्मानन्द प्रानप्त के निए ।

16
ऄनन्तम ध्येय
‘ शत्रकाल ज्ञानी बनना चाशहए ।’
‘ शत्रलोक सांचारी बनना चाशहए । ’
‘ ाआस माांसशपांड को मन्त्रशपांड बनाना चाशहए । ’
यही है प्रत्येक व्यशि का ाऄशन्तम ध्येय ।
जन्म परम्परा में ये सभी सस ु ाध्य हैं ।
शजस जन्म में, ाआन ाऄशन्तम ध्येयों कों
प्राप्त करने के शलए चनु ते है ,
वही जन्म ाऄशन्तम जन्म होता है
‘ यद् भावम् तद् भवशत ।
या मशताः सा गशतभि वेत् । ’
ाऄथाि त्
हमारे मन के ाऄनस ु ार ही हमारी गशत भी रहती है । ाआन लक्ष्यों को हमारी ‘मशत ’
में रखकर दीक्षा से साधना करने से शनशित रूप से हमारी ‘ गशत ’ भी वैसी ही होती है ।
∙ ऄनन्तम ध्येयों की ही िक्ष्य रखेगें ।
∙ आसी जन्म को ही ऄनन्तम जन्म बनाएँगें ।

17
हर नदन क्या करना चानहए ?
हर शदन
कम से कम
∙ एक घन्टा – ध्यान
∙ एक घन्टा – थवाध्याय
∙ एक घन्टा – सज्जन सांगत्य करना ही चानहए ।
∙ बाकी समय में संतोष में रहकर सदा सभी कोनों में जीवन का ऄनभु व करना चानहए ।
‚ B. H. E. L. ‛
Be Happy & Enjoy Life

18
ऄक्षराभ्यास
ाऄ+क्षर = ाऄक्षर
जो क्षर नहीं होता , वह ाऄक्षर है ।
‘ क्षर’ाऄथाि त् ‘ नाि होना ’
‘ ाऄक्षर ’ाऄथाि त् ‘ नाि न होना । ’

चैतन्य ाऄथाि त् मैं , ाअत्म पदाथि ।


चैतन्य ाऄथाि त् ाऄक्षर, नाि न होने वाली वस्तु ।
हम चेतनामय ाअत्मा हैं ।
ाआस सत्य को शनरन्तर ाऄभ्यास में रखना ही ाऄक्षराभ्यास है ।

∙ ध्यान करना ही ‘ ाऄक्षराभ्यास ’ है ।


∙ ाअत्मज्ञान समपु ाजि न करना ही ‘ ाऄक्षराभ्यास ’ है ।
∙ ध्यान का ाऄक्षराभ्यास पूणि होने तक ,
‘ पनु रशप जननम् , पनु रशप मरणम् ’ चलता ही रहेगा ।
∙ ाअध्याशत्मकता भी ाऄनक्षु ण ाऄक्षराभ्यास ही है । ाऄक्षराभ्यास शदव्य क्षेत्र में सबकी साधना ाऄपनी
ाऄपनी ही है ।

19
तत्क्षण कतणव्य
तत्+क्षण = तत्क्षण
तत्क्षण ाऄथाि त् प्रस्ततु क्षण
‘ जो करना चाशहए ’ वह है ‘ कर्त्िव्य ’
प्रत्येक क्षण में जो करना चाशहए,
हमेिा ऐसे काइ काम रहते हैं ।

लेशकन ाईनमें ‘ जो करना चाशहए ’, वह हमेिा एक ही रहता है । जो करना चाशहए, ाईनमे करने लायक
काम को पहचानकर ाईसमें शनमग्न होने वाला ही कर्त्िव्यशनष्ठ होता है ।
‘ तत्क्षण कर्त्िव्य ’ ाऄथाि त्
‘ ाआस प्रस्ततु क्षण में जो करना चाशहए वह कायि ’
हमारी या दूसरों की मानशसक शस्थशतयााँ हो
या बाहर की पररशस्थशतयााँ ,
प्रत्येक क्षण पररवशति त होती ही रहती हैं ।
ऐसे पररवति निील प्रत्येक क्षण में और
प्रत्येक पररशस्थशत में भी कर्त्िव्यशनष्ठ रहना चाशहए ।

बद्ध
ु ने कहा है –
चलते समय चलना चाशहए,
खाते समय खाना चाशहए ।
ाऄपने शनयत काम को छोड़ कर मन को
एक क्षण भी परध्यान में नहीं रहना चाशहए ।

∙ नदव्य ज्ञान प्रकाश के माध्यम से हमारा मन नथथर होता है ।


∙ ‘ परध्यान ’ रनहत नथथनत ही ननत्य जागतृ ऄवथथा है ।
∙ ननत्य जागतृ व्यनि ही तत्क्षण कर्त्णव्यननष्ठ बन सकता है ।
∙ तत्क्षण कर्त्णव्यननष्ठ व्यनि ही ऄद्भुत प्रगनत कर सकता है ।

20
प्रजल्प रानहत्य
मनष्ु यो को
चाहे िारीररक रूप से , मानसीक रूप से , या ाअध्याशत्मक रूप से, हीन शस्थशत से ाईन्नत शस्थती को
पाने के शलए
जो गणु चाशहए वह है ‘ प्रजल्प राशहत्य ’
‘ प्रजलप ’ ाऄथाि त् ‘ ाऄसांबद्ध प्रलाप ’या ‘ बकवास ’।
‘ प्रजल्पराशहत्य ’ ाऄथाि त बेकार बातें न करना ।
तब देह ाऄपनी सहज प्राण िशि को गाँवा नहीं देती ।
प्रजल्प को बााँध के रखना चाशहए ।
प्रजल्प ही मनष्ु य को काने वाला कैं सर रोग है ।
महुाँ से एक भी ाऄनावश्यक बात नहीं शनकलनी चाशहए ।
तब हमारे भीतर ाऄपार िशि का सांग्रह होना िरुु होता है ।
‘ प्रजल्प राशहत्य ’ का ाऄथि है मौशलक ाअध्याशत्मक साधना ।
वाक् क्षेत्र सदा िास्त्रीय होना चाशहए ।
ाआसके द्रारा बची हुाइ प्राण िशि ही हमारी िारीररक, मानसीक व ाअध्याशत्मक पराकाष्ठा में काम ाअती
है ।

∙ प्रजल्प सनहत हमेशा ननवीयण रहता है ।


∙ प्रजल्प रनहत हमेशा वीयणवान रहता है ।
∙ चाहे भोगकामी हो या मोक्षकामी ,
प्रजल्प रानहत्य सभी के ऄननवायण है ।

21
नक्रया योग
‘ शक्रया ’ ाऄथाि त ‘जो करना चाशहए ’,
‘ योग ’ ाऄथाि त ‘ साधना ’।
ाआसशलए शक्रयायोग का ाऄथि है ,
‘ वह साधना , जो करनी चाशहए । ’

‘ तपाः स्वाध्याय ाइ‚वर प्रशणधानेन शक्रया योगाः ।’


- यह पतांजशल महशर्ि के योग सूत्रो में से एक सूत्र है ।
तप, स्वाध्याय और ाइ‚वर प्रशणधान
ये तीनो प्रशक्रयाएाँ शमलकर
शक्रयायोग होता है ।

ाआसशलए
हमें शक्रयायोग करना चाशहए ।

∙ तप या ध्यान ऄथाणत् शारीररक भौनतक अवश्यकताओं को कम करना।


∙ थवाध्याय ऄथाणत् अत्मनवकास के निए प्रयोजनकारी पुथतकों को पढ़ना।
∙ इ‚वर प्रनणधान - ‘ सभी दैवमय है ।’ यह सूझबूझ हमेशा रहना ।
∙ ध्यानाभ्यास के द्वारा ही आन तीनो को पा सकते हैं ऄन्यथाशरणम् नानथत ।

22
थवाध्याय
ध्यान शजतना महत्त्वपूणि है ,
स्वाध्याय भी ाईतना ही महत्त्वपूणि है ।

ध्यान के ाऄनभु व जब पस्ु तक रूप लेते हैं,


तब वे सवोत्कृि ग्रांथ होते हैं ।
ाईन ग्रन्थो का ाऄध्ययन करना बहुत ही महत्त्वपूणि है ।

∙ थवाध्याय मनष्ु य के चौथे शरीर की ,


ऄथाणत् नवज्ञानमय कोश की शुद्धी करता है,
ऄनभवनृ द्ध करता है ।

23
एक योगी की अत्मकथा
योगानांद परमहांस
द्रारा शलशखत महत्त्वपूणि पस्ु तक
‘ऑटोबायोग्राफी ऑफ ए योगी ’
( Autobiography of a Yogi )
शहन्दी में ‘ योगी कथामतृ ’ ।
महावतार बाबा जी के बारे में शलखी हुाइ शकताब ।
महावतार बाबा जी ाआस भूशम का वीक्षण करने वाले
परम गरुु ओां में ाऄग्रगण्य है ।

ाआस शकताब में प्रमख ु रूप से


‘यिु े श्वर पनु रुत्थान ’ ाऄध्याय
पूरी शकताब में सबसे महत्त्वपूणि है ।

मत्ृ यु के बाद यि
ु े श्वर जी द्रारा
सिरीर वापस लौटकर योगानन्द जी को
मरणोपरान्त जीवन के बारे में
शववरण सशहत बताए जाने से
सम्बशन्धत ाऄद्भतु ाऄध्याय है ।

∙ ‘ योगी कथामतृ ’ पुथतक को जो पढ़ते हैं,


वे तत्क्षण नजज्ञासु बनकर पररवनतणत होते हैं ।

24
नहमािय के योगी
स्वामी रामा द्रारा शलशखत
ाऄनपु म योग पस्ु तक
‘ शलशवांग शवद द शहमालयन मास्टसि ’
( Living with the Himalayan Masters )

शहमालय पवि त श्रेशणयों में शस्थत


परम गरुु ओां की योग शसशद्धयों के बारे में ,
ाईनकी ाऄपार ज्ञान शनशध के बारे में ,
स्वामी रामा के स्वानभु वों से भरी हुाइ पस्ु तक ।

ाअध्याशत्मक लोक को स्वामी रामा की


ाऄनपु म व ाऄनन्त सेवा का प्रशतरूप है यह पस्ु तक ।

∙ योग साधक को यह पथु तक ऄवश्य पढ़नी चानहए ।


∙ यह पुथतक कइ अध्यानत्मक पाठ नसखाने वािी है ।

25
संभोग से समानध की और
सांभोग है
भोशतक ाअनन्द की पराकाष्ठा ।
लेशकन समाशध शस्थशत है
ाईससे भी बढ़कर
ाअत्मा के साथ िाश्वत रूप से
रहने वाली ब्रह्मानन्द शस्थती ।

सांभोग समाशध के शलए बाधा नहीं बननी चाशहए ।


क्योंशक समाशध सांभोग के शलए बाधा नहीं बनती ।

मनष्ु य के वल सांभोगानन्द को चाहता है ,


लेशकन परम ाअनन्ददायक समाशध –शस्थशत को नहीं ।

ध्यान के माध्यम से
शदव्यज्ञान प्रकाि के माध्यम से
ाआस जन्म के परम ाऄथि
समाशध शस्थशत को ाऄवश्य पाना चाशहए ।

यही ओिो रजनीि का परम सन्देि है ।

∙ नहन्दी में ओशो रजनीश की ऄनुपम पुथतको का भण्डार है । सभी साधकों को आनका सदुपयोग
करना चानहए ।

26
ओशो रजनीश
ओिो ।
वाह रे वाह
What a great Master !

यह जीवन तो तभी साथि क है ,


जब ओिो की शकताबों को पढ़ते हैं ।
वही ाअनन्द है !
वही शवज्ञान है !

प्रपांच के सभी ाअध्याशत्मक शवज्ञाशनयों के बारे में ,


ाईनके समाज , जीवन शवधान के बारे में ,
ध्यानानभु व के बारे में
‘ न भूतो न भशवष्यशत ’ की तरह
लगभग 650 पस्ु तकों में
सशवस्तार शवश्लेर्ण शकए हुए
ाऄशत ाऄद् भतु ज्ञानी
ओिो रजनीि !

∙ नूतन , ननथसंकोच, ननभणय, ननत्यानंदमय जीवन शैिी को ‘ देविोक ’ से ‘ भूिोक ’ पर ईतार


िाने का महान साहस करने वािी नदव्य मूनतण हैं ओशो रजनीश ।
∙ ओशो रजनीश के नाम से गित प्रचार करने वािे, ईनकी पुथतकों को पढ़े नबना ही , ईनकी
ननन्दा करने वािे, नकारात्मक िोग हैं ।

27
िोब सांग राम्पा
1979 में मझु े जागतृ करने वाले कारुण्य मूशति
बीसवी िताब्दी के महान शतब्बती योगी
लोबसाांग राम्पा ।

1983 में देह त्याग शकया है


ाऄध्यात्म – िास्त्र ाऄध्यापकों में ाऄग्रगण्य हैं ।
‘ यू फॉर एवर ’ ( You For ever ) नामक पस्ु तक
मझु से पढ़वाकर
मेरे जीवन लक्ष्य को मझ ु े समझाने वाले
मेरे शप्रय गरुु वर ।

सूक्ष्म िरीर यान के बारे में,


शदव्य चक्षु के बारे में ,
ाअकाशिक रेकॉडि स के बारे में ,
मरणोर्त्र जीवन के बारे में ,
ाऄपने स्वानभु वों को ाऄनपु म ढ़ांग से
समझाने वाले महान योगी ।

∙ बीस पुथतकों के रचनयता ।


∙ ऐसी पुथतकों को पढ़ने के बाद ही
हम ऄध्यात्म वैज्ञाननक बन सकते हैं ।

28
ररचडण बाक़
सम्पूणि ाअध्याशत्मक शवकास के
सच्चे प्रशतरूप हैं – ररचडि बाक़ ।
ाईनकी पस्ु तकें –
∙ जॉनाथन शलशवांग्स्टन सीगल ( Jonathan Livingston Seagull )
∙ ाआल्यूजन्स ( Illusions )
∙ द शब्रज एक्रॉस फारएवर ( The Bridge Across Forever )
∙ रशनांग फ्रॉम सेफ्टी ( Running From Safety )
∙ वन ( One )
ाअदी ाऄनपु म ाअध्याशत्मक ज्ञान मशणयााँ है । ाईदाहरण के शलए ‘ Illiusions ’ से चनु ा हुाअ एक
ाऄनमोल मोती-
‘‘ The mark of your ignorance is the depth
Of your belief in injustice and tragedy. ’’
‘’ाऄन्याय और दाःु ख में तमु शकतना ाऄशधक शवश्वास रखते हो , ाआस बात की पहचान है तम्ु हारा ाऄज्ञान !’’

∙ ऄगर पढ़ना है तो ररचडण बाक़


की नकताबों को ही पढ़ना चानहए ।

29
डान जअ
ु न / कािोस काथटानेडा
ाअधशु नक ाअध्याशत्मक िास्त्रज्ञों में
ाअध्याशत्मक िास्त्र ाऄध्यापकों में
डान जाअु न प्रथम श्रेणी के हैं !

ाईनका एक सूत्र –
शजज्ञासु जब ममु क्षु ु बनता है ,
तो थोड़े समय में ज्ञानी बनकर
साधना की परम शस्थशत के द्रारा
ाऄन्त में रिा बनता है ।

शजज्ञासु ( Apprentice )
ममु क्षु ु ( Warrior )
ज्ञानी ( Knower )
रिा ( Seer )

‘ शजज्ञासु ’ ाऄथाि त् सत्य शसद्धी प्राप्ती के शलए कृतसांकल्प व्यशि ।


‘ ममु क्षु ु ’ ाऄथाि त् सत्य के िोध और साधना में पूणिताः शनमग्न ।
‘ ज्ञानी ’ ाऄथाि त् शजसने सत्यशसद्धी को प्राप्त कर शलया है ।
‘ रिा ’ ाऄथाि त् शजसने शदव्यचक्षु को जागतृ कर शलया है ।

∙ डान जुअन, ईनके गरुु और ईनके सानथयो की योगनसद्धी के बारे मे, पररपूणण अत्मज्ञान के बारे
में ईनके नशष्य कािोस काथटानेडा द्वारा निनखत ऄद्भुत नकताबों को पढ़ना ही चानहए ।

30
ममु क्ष
ु ु के शत्रु
ममु क्षु ु को चार तरह के ित्रओ
ु ां से ाऄपने ाअप को बचाना चाशहए ।
वे ित्रु है –
भय (3) शसद्धीयााँ
पररशमत ज्ञान (4) वद्ध
ृ त्व – भावनाएाँ

‘ भय ’ ममु क्षु ु का पहला ित्रु है ।


ममु क्षु ु पहले सभी तरह के भय को जीतता है ।
तब ज्ञान की िरुु ाअत होती है ।

लेशकन हमेिा ाऄपने सीशमत ज्ञान को ही


‘ पूणि ज्ञान’ समझ लेने का खतरा रहता है ।
‘ पररशमत ज्ञान ’ही ममु क्षु ु का दूसरा ित्रु है ।

ाआन मसु ीबतों से बच गया तो शसद्धीया ाईपलब्ध होती हैं ।


शसद्धीयााँ प्राप्त होने के बाद ाऄगर ाऄहांकार पैदा होता है , तो वही पतन का मागि बनता है ।
‘शसद्धीयों से ाअने वाला ाऄहांकार ’ही ममु क्षु ु का तीसरा ित्रु है ।

ाईसको जीतने के बाद भी


जीवन के ाऄशन्तम ‚वास लेने तक
कभी भी वद्ध
ृ त्व भावना में नहीं पड़ना चाशहए ।
‘ थकावट ’ ममु क्षु ु का ाऄशन्तम ित्रु है ।

∙ ममु क्ष
ु ु को भय, सीनमत ज्ञान, नसद्धीयों ओर वृद्धत्व-भावना रूपी शत्रुओ ं को जीतना चानहए ।

31
जेन राबट्णस / सेत्
भौशतक िास्त्रज्ञों में
जैसे ाअाआस्टााइन हैं,
वैसे ाअध्याशत्मक वैज्ञाशनकों में सेत् ( Seth ) है
‘ सेत् ’ ाउध्वि लोक के एक पूणाि त्मा हैं ।
जेन रॉबटि स नामक मशहला के माध्यम से
1965 से 1985 तक चैनशलांग प्रशकया द्रारा
भूलोक को पूणि ज्ञान पहुचाँ ाने वाले महात्मा हैं ।
सेत् की शकताबे शहन्दी में ?
सेत् ज्ञान समझने के शलए ाऄांग्रेजी सीखना ही चाशहए ।

∙ ऄब धरती पर सेत् के द्वारा ऄनभव्यि ज्ञान ही ऄसाधारण और पररपूणण अध्यानत्मक ज्ञान


प्रकाश है ।

32
निंडा गडु ् मन
शलांडा गडु मन
ाऄसाधारण योशगनी हैं
ाऄसाधारण ाअध्याशत्मक िास्त्र वेर्त्ा हैं ।
ाऄभी ाऄभी ाआस पथ्ृ वी पर 300 वर्ि तक
रहने के बाद ाआस भौशतक िरीर को छोड़ा है ।
‘ स्टार सााआन्ज ’ ( Star Signs ) ाईनकी ाऄद् भतु कृशत है
शस्पररचाऄु ल सााआांस के बारे में शलखी हुाइ
बहुत ही ाऄच्छी पस्ु तक है ।
शदमाग भौशतक िरीर से सम्बशन्धत है ।
शदव्यचक्षु सूक्ष्म िरीर से सम्बशन्धत है ।
मन, शदमाग का मूल है ।
ाऄांिात्मा , शदव्यचक्षु का मूल है ।
सब का मूल है , पूणाि त्मा ।

∙ ध्यान के माध्यम से आस क्रम के बारे में थवानुभवपूवणक समझ सकते हैं । तब हम भी निंडा गडु ् मन
जैसे अध्यानत्मक वैज्ञाननक बन जाएँगें ।

33
जीसस
जीसस ने कहा है –

‘ मेरे शपता की सशृ ि में काइ लोक है । ’


‘ तमु दस ु रो के साथ जो करते हो,
वही तम्ु हारे साथ भी होता है । ’
‘ जब तम्ु हे शदव्य दृशि शमलती है
तब तम्ु हारा सारा सक्ष्ु म िरीर समदु ाय
तेजोमय होता है ।’
‘ ाआस साांसाररक सम्पशर्त् के शलए लड़ो मत,
लेशकन ाउध्वि लोक की सम्पशर्त् को पाने की कोशिि करो । ’

∙ जैसा जीसस ने कहा है, वैसा करेगें ।


जैसे इसामसीह जीनवत रहे , वैसे ही रहेंगे ।
बस ! और कुछ नहीं चानहए ।

34
महु म्मद
‘ तम्ु हें धरती पर ाऄांकुर जैसे ाईगना चाशहए ,
ऐसा ाऄल्लाह ने शकया है ।
ाऄब शफर धरती में भेजता है ,
नए रूप से और ाउपर लाता है । ’
कुरान

‘हमें ाआस लोक में बार बार ाअना पड़ा है ।’


यह पनु जि न्म शसद्धान्त ही ाआसका ाऄांतराथि है।
महु म्मद मक्का िहर के पास
‘ हीरा ’ नामक पवि त की गफ ु ा में ध्यान शकया करते थे ।
‘ गाशब्रयल ’ नामक मास्टर के माध्यम से
योग शसद्धी पाकर, सभी लोकों के दिि न करके ,
ाईन्होने सत्य का प्रत्यक्ष रूप से िोधन शकया ।
मूशति पूजा का खण्डन शकया ।

∙ महु म्मद महान योगी , महान प्रविा ।


∙ ईनके द्वारा बताए गये मागण पर चिते हुए
ईनके जैसे जीना ही हमारा िक्ष्य है ।

35
जोराथटर
जोरास्रीयन मत के सांस्थापक
जोरास्टर महा ाऊशर् हैं ।
ाईनके द्रारा बताए गए ाऄनमोल
मोशतयों में से एक मोती है –
‘ तम्ु हारे पास शजतना है,
ाईतने में हमेिा सांतप्तृ रहो,
लेशकन ाअत्मा की प्रगशत में तो
कभी भी सांतप्तृ मत बनो । ’

और एक ाऄनमोल मोती-
‘ाऄपनी ाअत्मा रूपी नदी के प्रवाह का िोधन करो,
ाऄपने पररणाम क्रम के बारे में सोचो ,
ाऄपने पूवि जन्मों के बारे में, पूणाि त्मा के बारे में,
तमु शकस लोक से ाअए हो,
ाआसके बारे में पररिोधन करो । ’
यही जोरास्टर का सन्देि है ।

∙ जोराथटर के बाद सभी परम अचायण


आसी परम सत्य को समझाते है ,
यही परम अचार है ।
∙ अचायण जो कहते है , वही अचरणीय
परम अचार है

36
जिािद्ध
ु ीन रुमी
पशिि या देि के
जलालद्दु ीन रुमी
एक महान सूफी सन्त है ।
ाईनके द्रारा कहा गया एक सत्य वाक्य है –
‘‘ मैं खशनज जैसे मरकर , ाऄांकुर के रूप में पररवशति त हुाअ ।
ाऄांकुर जैसे मरकर , कीट बन कर पैदा हुाअ ।
कीट जैसे मरकर , मनष्ु य के रूप में ाऄवतररत हुाअ ।
ाऄब मैं शकस शलए डरूाँ ?
मर जाने से मझ ु े क्या नक
ु सान हुाअ ? ’’
‘‘ ाआतना ही नहीं, मैं मनष्ु य जैसे भी मर जााउाँगा ।
मर कर मैं देवता बनकर देवलोक में जााउाँगा ।
वहााँ से और भी ाउपर के लोको में जा सकता हाँ ।
िायद मैं और ाउपर, और भी ाउपर जाकर
ाईस शस्थशत मैं पहुचाँ जााउाँगा जहााँ
कोाइ कल्पना भी नहीं कर सकता ।’’

∙ कइ जन्म ! कइ िोक ! और कइ ऄनुभव !


यह जीवन ऄनन्त नवनोदपूणण, महानवज्ञान यात्रा है।
यही रुमी के जीवन का ऄनुभव सार है ।

37
गयथे
यूरोप के ाअधशु नक यगु के
महान तत्त्ववेर्त्ा, महान मेधावी !
जन्म और मरण रूपी पररणाम क्रम धमि
को तमु जब तक नहीं समझते
तब तक ाआस धरती पर तमु ऐसे ाऄशतशथ हो ,
शजसने गम्य को जाना पहचाना नहीं है ।

तम्ु हें मत्ृ यु नहीं है !


तमु मर कर भी मरते नहीं !
ाआसें समझकर ाआस धरती पर
महाराजा जैसे जीशवत रहो ।
यही हमारे शलए
गयथे का सन्देि है ।

∙ जमणनी का महान पनण्डत गयथे


अध्यानत्मकता में ऄग्रगण्य है ।

38
कन््यूनशयस
छठी िताब्दी ाइसा पूवि के
चीन देि के महान ज्ञानी
कन्फ्यूशियस ने कहा है –
‘‘ यशद दशु नया को, ाऄपने देि की महानता शदखानी है,
तो पहले राज्यो को ाऄच्छा रखना चाशहए ।
राज्यो को ाऄच्छा रखने के शलए पहले पररवारो को ाऄच्छा रखना चाशहए ।
पररवारो को ाऄच्छा रखना है तो व्यशिगत जीवन को सधु ार लेना चाशहए।
व्यशिगत जीवन को सधु ार लेने के शलए श्रद्धा और दीक्षा प्रमख ु हैं।
श्रद्धा और दीक्षा पाने के शलए ज्ञान का शवस्तार होना चाशहए ।
ज्ञान का शवस्तार होने के शलए सभी को िोधन करना ही चाशहए ।’’
वस्तु तत्त्व के पररिोधन के माध्यम से,ज्ञान का शवस्तार होता है ।
ज्ञान का शवस्तार होने से श्रदा व दीक्षा ाऄकांु शठत बनती है ।
दीक्षा ाऄकांु शठत होने से बद्ध
ु ीहीनता शमट जाती है ।
बद्ध
ु ीहीनता शमटने से व्यशिगत जीवन ठीक बनता है ।
व्यशिगत जीवन ठीक होने से पररवार ाऄच्छे रहते है ।
पररवार ाऄच्छे रहने से राज्य ठीक रहते है ।
राज्य ठीक रहने से देि का ाईद्धार होता है ।
तभी तो तम्ु हारा देि ाऄपनी महानता का सारी दशु नया में प्रसार कर सकता है ।

∙ आस अठ ऄंश के सार को ही चीन में,


The Great Learning ऄथाणत् ‘महाज्ञान कहते हैं ।’

39
प्िेटो
पााँचवीं िताब्दी ाइसा पूवि के
यूनान देि के तत्त्ववेर्त्ा,
सक ु रात के शिष्य हैं प्लेटो ।
ाईनकी कुछ सूशियााँ-
‘‘ भगवान ाऄथाि त् समूचे शवश्व में व्याप्त शववेक बशु द्ध ।’’
‘‘ ाअत्मा ाऄशवनािी है ।’’
‘‘ मनष्ु य लौशकक व्यवहार में शसर नीचे करके डूबकर ाऄपने पांखों
को खो बैठा है । ाआससे पूवि वह ाअध्याशत्मकता प्रपांच (जगत) में
देवताओां के समान जीता था । ाईस दशु नया में सब कुछ यथाि थ भी
है और पशवत्र भी ।’’

‘‘ मनष्ु य रूप धारण कर लेने से पूवि वह के वल तेज –रूप में था ।’’


‘‘ सूयि ाऄमतृ मय तेजोमूशति है । ’’
ाआसी शदव्यत्व को प्राप्त करना और ज्ञान से भरकर
पशवत्र हो जाना ही जीवन यात्रा का लक्ष्य है ।)

ाअत्मा का ाअशवभाि व िरीर से पहले हुाअ है ।


िरीर ाईपाांग है, ाअनर्ु शां गक भी है ।
ाअत्मा का ाऄनयु ायी बनकर रहना ही ाईसका काम है ,
दूसरा कुछ नहीं ।
सब कुछ पूवि स्मशृ त ही है ।
मनष्ु य क्रमिाः पररपूणि होकर,
शदव्य ज्ञान समरु में यात्रा कर सकता है है ।

∙ प्रत्येक ममु क्ष


ु ु को प्िोटो की ‘ Republican ’ और ‘ Dialogues’ पुथतको को पढ़ना चानहए
ऄन्यथा बुनद्ध का नवकास ऄसम्भव है ।

40
चुअगं त्सु
चीन देि के ाऄत्यर्त्
ु म ाऊशर् ,
ाअध्याशत्मक तत्त्ववेर्त्ा हैं चाअ
ु ांग त्सु
ाईनकी कुछ सूशियााँ-
‘‘ जीवन है तो मरण है ।
ाआसी प्रकार यशद मरण है तो शफर जीवन भी है ।
शसफि कुिल बशु द्ध वाले ही समझते हैं शक ये सब एक ही है ।’’
‘‘ ाईर्त्म व्यशि हमेिा ाअध्याशत्मक वैज्ञाशनक ही है । ाईसे जन्म मरण स्पिि नहीं करतें । ाआस जीवन के
हाशन लाभ , ऐसे व्यशियों को छू भी नहीं सकते ।’’
‘‘ जन्म मरण चक्र के बारे में , काल के बारे में , िभु - ाऄिभु के बारे में भूल जााआए । ाऄनांतत्व में शवश्राम
पााआए । ’’
‘‘ सम्यक ज्ञान पाने के शलए , मनष्ु य को पहले शत्रकरण िशु द्ध पाना चाशहए । ज्ञानी लोग यह समझते है
शक वे और ाईनके िरीर ाऄलग-ाऄलग है ।’’
‘‘ ज्ञानी के शलए ाअत्मा का नाि नहीं है ’’
के वल िरीर का नाि है ।
मात्र स्थान पररवति न ही है ,
वास्तशवक नाि नहीं है ।’’

∙ चुअगं त्सु , िाओत्सु जैसे महाज्ञाननयों की नकताबों को पढ़ने के बाद ही अध्यानत्मक ज्ञान
नमिता है ।

41
ऄन्नमय्या
ाऄन्नमय्या महान योगी है , महान ज्ञानी हैं ।
ाआसीशलए शनम्नोि शवर्यों को ाऄशभव्यि कर सके ।

‘‘देखने की दृशि एक, लक्ष्य एक,


ाआन दोनो का शमलन हुाअ तो वही दैव है ।’’

‘‘ भाव ही जीवात्मा, प्रयत्क्ष परमात्मा है ।’’


‘‘ देखन को दृशि ’ाऄथाि त् ‘ ाऄन्तदृि शि या शदव्य दृशि ’।
‘‘ लक्ष्य एक ’ ाऄथाि त ‘ ब्रह्मज्ञान रुपी लक्ष्य ।’
‘ाआन दोनो का शमलन हुाअ तो ’ ाऄथाि त्
‘ शदव्य दृशि के माध्यम से ब्रह्मज्ञान को पाना ।’
‘ तब वही दैव है ’ाऄथाि त् ‘ तब हम ही दैव हैं ।’

‘ मैं ’ का भाव ही जीवात्मा और सारी प्रकृशत परमात्मा है ।


ाऄनांतकोटी ब्रह्माण्ड को प्रत्यक्ष रूप में शदव्य दृशि से देखने वाला ,
शजसको ‘ मनोगोचर ’ हुाअ है ,
वही मनष्ु य दैव है ।
ाऄन्नमय्या की कुछ और सूशियााँ –

∙ शरीर के ‚वासोच्छ् वास में ही खान है ।


∙ योनगन्र के ‚वासोच्छ् वास में ही भगवान है ।
∙ जो नचर्त् को ऄंतमणख
ु ी बनाकर सीखता है , ईसे योगी कह सकते हैं ।
∙ सत-् ऄसत् सुनवचार नजसके हैं , ईसे ईर्त्म नववेकवान कह सकते हैं ।

42
गौतम बुद्ध
धम्मपद में बद्धु ने
ाआस तरह कहा है –
‘ शनरयां पाप कशम्मनो
सांगां सगु शतनो यांशत, पररशनब्बांशत ाऄनासवा । ’( पाली )

‘शनरयां पाप कमाि शणाः


स्वगि म् सगु तयो याांशत , पररशनवाि णत्यनास्त्रवााः । ’ (सांस्कृत )
ाऄथाि त्
‘ पाप कमि करने वाले नरक को
पण्ु य कमि करने वाले स्वगि को
मनोमाशलन्य रशहत महात्मा पररशनवाि ण को प्राप्त होते है ।’

ाआसी प्रकार
‘ मझु से पहले भी काइ बद्ध
ु ाअए है ,
मेरे बाद भी काइ बद्ध
ु ाअएाँगे । ’

∙ ‘ बुद्ध बनो ’ ( बुद्धत्व की प्रानप्त करो )


यही हमारे निए गौतम बुद्ध का सन्देश है ।

43
चार अयण सत्य
ाआन चार परम सत्यों को
गौतम बद्धु ने समझ शलया है –
दाःु ख सवि त्र है ।
तष्ृ णा ही दाःु ख का मूल कारण है ।
यह तष्ृ णा ाऄशवद्या से पैदा होती है ।
ाऄिाांग मागि ही ाऄशवद्या का शवनािक है ।

ाऄिाांग मागि का ाऄवलम्बन करना ही िरणीय है ।


ाईसी से दाःु ख राशहत्य ाईपलब्ध होता है ।

तष्ृ णा ाऄथाि त् सीशमत से ाऄशधक ,


तष्ृ णा ाऄथाि त शमशत से कम ।
मध्यमागि को ाऄपनाओ ।

तष्ृ णा ही दाःु ख का प्रत्यक्ष कारण है ।


तष्ृ णा राशहत्य से दाःु ख राशहत्य ाईपलब्ध होता है ।
दाःु ख राशहत्य ही शनवाि ण है ।

∙ ननवाणण , मनु ि, ननःश्रेयस या मोक्ष,


चाहे नकसी भी नाम से जानें, सभी एक हैं ।

44
ऄिांग मागण
गौतम बद्ध
ु द्रारा
हमे शदया हुाअ ाऄिाांग मागि
ाआस प्रकार है-

सम्मा शदरि = सही दृक्पथ


सम्मा सांकप्पो = सही सकां ल्प
सम्मा वाचा = सही वाक्
सम्मा कम्म = सही कमि
सम्मा जीवो = सही जीवनोपाय
सम्मा वायामों = सही श्रद्धा
सम्मा सशत = सही एकाग्रता
सम्मा समाशध = सही ध्यान

ाऄिाांग मागि के ाऄनष्ठु ान द्रारा ाऄशवद्या दूर होने से तष्ृ णा शमटती है , तन्मूलक दाःु ख का शनमि ूलन होता है

ाऄिाांग मागि में प्रज्ञा, िील समाशध से सम्बशन्धत शिक्षा है ।

∙ प्रज्ञा – सही दृक्पथ , सही सकं ल्प ( आच्छाएँ )


∙ शीि – सही वाक् , सही जीवनोपाय और सही कमण
∙ समानध – सही श्रद्धा , सही एकाग्रता और सही ध्यान

45
सही दृक्पथ
सही दृक्पथ ये है –
िशि चैतन्य और ज्ञान ाआन तीनों का समदु ाय ‘ मैं ’ है ।
चैतन्य से ही भौशतक िरीर का जन्म हुाअ है,
लेशकन भौशतक िरीर से चैतन्य का जन्म नहीं हुाअ है ।
चैतन्य के शवस्तार के शलए कभी भी समय की सीमा
नहीं है , ाऄसाध्य जो है , वह है ही नहीं ।
हर एक तात्काशलक ही है ।
हम स्वांय ही ाऄपनी वास्तशवकता की
सशृ ि करते रहते हैं ।
भूतकाल और भशवष्यकाल कुछ भी नहीं है ।
सब कुछ वति मान ही है ।

∙ ‘ सही दृक्पथ ’बुद्धत्व की ईपिनधध के निए ऄंकुर हैं ।


∙ ‘ गित दृक्पथ ’बुद्धत्व की शून्यता के निए ननदशणन हैं ।

46
मध्यमागण
सीशमत ाअहार
सीशमत शवहार
सीशमत शवशधयिु धमि
सीशमत शनरा
सीशमत ध्यान रहना चाशहए ।

हमेिा मध्यमागि को ही ाऄपनाना चाशहए ।


मध्य मागि से ही दख
ु का नाि होता है ।

भगवद् गीता भी मध्यमागि का ही बोध कराती है –


‘यिु ाहार शवहारस्य यि
ु चेिस्य कमि सु
यि
ु स्वप्ना बोधस्य योगो भवशत दाःु खहा ।’

‘ ाऄवबोधस्य ’ ाऄथाि त् ध्यान


ध्यान भी घण्टों भर नहीं करना चाशहए ।
यिु होना चाशहए , सीशमत होना चाशहए ।
ध्यान शनत्य कमो के शलए बाधा नहीं बनना चाशहए ।

‘ ाऄशत सवि त्र वजि येत् ’


ध्यान में भी ‘ ाऄशत ’ ाऄनपु यि
ु है ।

∙ मध्यमागण गौतम बद्ध


ु का ऄत्यन्त
प्रमख
ु अध्यानत्मक सूत्र है ।

47
ब्रह्म नवहार
गौतम बद्ध ु द्रारा शनदेशित
सही प्रवति न के सूत्र ये हैं –
ये सूत्र ब्रह्मज्ञानी समाज में
सांचार करने की ररशत को समझाते हैाः
मैत्री – ाअशथि क रूप से हमसे ाईच्च स्तर में रहने
वालो के साथ ।
करुणा- ाअशथि क रूप से हमसे शनम्न स्तर में रहने
वालो के साथ
मशु दत – ाअध्याशत्मक रूप से हमसे ाईच्च स्तर में
रहने वालो के साथ ।
ाईपेक्षा – ाअध्याशत्मक रूप से हमसे शनम्न स्तर में
रहने वालों के साथ ।

∙ नकसी भी िोक ऄथवा नकसी भी काि में,


बुद्ध जन और अत्मज्ञानी िोग एक ही तरह रहते है ।
ईनकी अचरण पद्धनत ही ब्रह्मनवहार है ।

48
धम्मपद में
धम्मपद में महात्मा बद्ध
ु द्रारा कही गाइ कुछ ाऄमूल्य बातेाः
‘ ाऄशभद् धरेथ कल्याणे ’ (पाली )
( ाऄशभत्वरेत कल्याणे ) ( सांस्कृत )

∙ मंगिदायक कमो को जल्दी करना चानहए ।


‘ाअरोग्य परमा लाभा, सांतशु ि परमां धनां
शवस्सास परमा ज्ञाशत; शनब्बानां परांम सख ु ां ।’ ( पाली )
‘ ाअरोग्य परमो लाभाः, सांतशु िाः परमां धनां ,
शवश्वास परमा ज्ञाशताः शनवाि ण परमां सखु ’( सांस्कृत )

∙ अरोग्य परम िाभ है , संतुनि ही परम धन है


शवश्वास ही परम बन्धु है ,शनवाि ण ही परम सख ु है ।
‘सख ु मर्त्ेय्यता लोके , ाऄथो पर्त्ेय्यता सख ु ा
सख ु ा सामज्ञता लोके , ाऄथो ब्रह्मता सख ु ा ।’ (पाली )
( सख ु ा मात्रीयता लोके थ शपत्रीयता सख ु ा
सख ु ा श्रमणता लोके थ ब्राह्मणता सख ु ा ।) (सांस्कृत )

∙ आस िोक में मातृत्व धन्य है । नपतृत्व भी धन्य है ।


( श्रमणत्व धन्य है , ब्राह्मणत्व धन्य है ।
ाऄप्पमर्त्ोशह झायांतो, पप्पोशत शवपल ु म् सखु म् (पाली )
( ाऄप्रमर्त्ोशह ध्यायान , प्राप्नोशत शवपल ु म् सख
ु म् ) ( सांस्कृत)

∙ ऄप्रमर्त् होकर ध्यान करने वािा , नवपुि सुख को प्राप्त करता है ।


‘ ाऄप्पमादो ाऄमतपदां ,पमादो मच्चनु ोपदां ’(पाली )
( ाऄपमादो ाऄमतृ पदां , प्रमादो मत्ृ योाः पदम् ।) सांस्कृत
∙ जागरूकता ही ऄमतृ त्व है , ननरा ही मत्ृ यु के समान है ।

49
ऄर्त्ानह ऄर्त्नो नाथो
धम्मपद में बद्ध
ु ने कहा
ाआस प्रकार कहा है –
‘ ाऄर्त्ना चोदयर्त्ानां , पशटमाने ाऄर्त्मर्त्ना ’ (पाली )
( ाअत्मान चोदये दात्मानाम्, प्रशतवसेदात्मानमात्मना ) ( सांस्कृत)

∙ हे श्रमण । तुम ऄपने अप को चिाओ ,


तमु ऄपने अप की पररक्षा कर िो ।

‘सद्ध
ु ी ाऄिद्ध
ु ी पच्चर्त्ां नाञ्ञ ाऄञ्ञां शवसोदये ’ (पाली )
( िद्ध
ु ी, ाऄिद्ध
ु ी , प्रत्यात्मां, नान्योन्यां शविोधयेत ) ( सांस्कृत )

∙ शुद्धी ऄशुद्धी ऄपने से सम्बनन्धत है । एक दूसरे की शुद्धी नहीं कर सकते।

‘ ाऄर्त्ाही ाऄर्त्नो नाथो, ाऄर्त्ाही ाऄर्त्ने गशत ’(पाली )


( ाअत्मह्मात्यनो नाथाः ाअत्मह्मात्मोन गशताः ) ( सांस्कृत )

∙ अत्मा को अत्मा ही प्रभु है,


अत्मा को अत्मा ही गनत है
ऄथाणत्
ऄपने निए अप ही प्रभू हैं
ऄपने निए अप ही गनत है ।

50
बुद्ध की दृनि में ब्राह्मण
शजसने शनवाि ण शस्थशत को प्राप्त शकया है ,
वही ब्राह्मण है ।
बद्ध
ु ने धम्मपद में ाआस प्रकार का शववरण शदया हैाः
' न चाहां ब्राह्मणां भूशम , यो शनजां मशर्त्सांभवम् ' ( पाली )
( न चाहां ब्राह्मणां ब्रवीशम , यो शनजां मातृ सांभवम् ) ( सांस्कृत )
* जो नसर्ण ब्राह्मण स्त्री के गभण से पैदा हुअ है ,
ईसे मैं ब्राह्मण नहीं कहता ।
पच्ु चे शनवासां या वेशद , सग्गापायञ्च पस्सशत ।
ाऄथो जाशतकखयां पर्त्ो , ाऄशभवोशसतो मशु न
सब्ब वोशसत वसानां , तमहां भूशम ब्राह्मणां ' ( पाली )
( पूवि शनवसम् यो वेद , स्वगाि , वायञ्च पश्यशत ाऄथ :
जाशतक्षयां प्राप्तो , ाऄशभज्ञाव्यवशसांतो मशु न ।
सवि व्यावशसतावसानम् , तमहम् , ब्रवीशम ब्राह्मणम् ) ( सांस्कृत )
* नजसको पूवण जन्म का ज्ञान है ,
जो ज्ञान नेत्र से थवगण और नरक को देखता है ,
नजसने जन्म रानहत्य को प्राप्त नकया है ,
जो ऄनभज्ञा ( नदव्यज्ञान ) परायण है ,
जो मनु न कृतकृत्य है ,
ईसको ही मैं ब्राह्मण कहता हँ ।

51
नारद की सिाह
नारद ने कहा है –
‘ ऐसा कभी भी मत कहना शक
मझु े ाऄनभु व नहीं हुाअ है , ाआसशलए वह हकीकत नहीं है ;
ाऄध्ययन शकया तो ही वास्तशवकता का पता चलता है ।
वास्तशवकता का पता चलने से ही
पररशस्थशतयााँ समझ में ाअती हैं ।
पररशस्थशतयााँ समझ में ाअने के बाद ही
सही फै सला कर सकते हैं ।
ाआसशलए जीसस ने भी कहा है शक
' Judge ye not ' ।
ाऄथाि त् ‘ जल्दबाजी में कभी भी फै सला मत करना ।
नदव्यचक्षु के माध्यम से ही नकसी भी नवषय की
सही जानकारी पा सकते हैं ।
हर हाित में योगी ही र्ैसिा देने में समथण होते हैं ।
जो योगी नहीं हैं , वे र्ैसिा नहीं दे सकते ।

52
महदवधान ।
‘ महत् ' ाऄथाि त् ज्यादा
' ाऄवधान ' ाऄथाि त् पढ़ना
ाआसशलए ' महदवधान ' का ाऄथि है सबसे ज्यादा पढना ।
िांकराचायि के भजगोशवन्दम् का एक श्लोक –
प्राणायामम् प्रत्याहारम् , शनत्याशनत्य शववेक शवचारम् ।
जाप्य समेत समाशध शवधानम् कुवि वधानम् महदवधानम् ।
‘ प्राणायाम ' ाऄथाि त् ‘ ाईच््वास - शन : श्वास को देखना '
‘प्रत्याहार ' ाऄथाि त् बाह्य ाआशन्रयों को ाऄन्तमि ख
ु ी बनाने से ,
ाऄन्ताः ाआशन्रय ाईर्त्ेशजत होते हैं ।
' शनत्याशनत्य शववेक शवचार ' ाऄथाि त् जो शनत्य है ,
जो ाऄशनत्य है , ाआसे स्पि रूप से समझ लेना ।
‘ जप ' ाऄथाि त् ' ाऄभ्यास ' बार बार करना ।
‘ जाप्य समेत ' ाऄथाि त् ‘ जप के साथ जड़ु ा हुाअ
' ाआसशलए ' जाप्य समेत समाशध ' का ाऄथि है –
‘ प्राणायाम ' , ' प्रत्याहार ' , ' शनत्याशनत्य शववेकशवचार '
ाआन तीनों को बार - बार करते रहना चाशहए ।
यही ' समाशध शवधान ' ाऄथाि त्
‘ समाशध शस्थशत के शलए मागि है ।
‘ कुरू ऄवधान ' ऄथाणत् ‘ आसको पढ़ो ।
' ॎ योगनवद्या , ब्रह्मनवद्या आन सबसे भी महत्त्वपूणण है ,
‘ ज्यादा पढ़ना ' ऄथाणत् ‘ महदवधान ' ।

53
तापत्रय
' ताप ' ाऄथाि त् दाःु ख
‘ त्रय ' ाऄथाि त् तीन ।
तीन प्रकार के दाःु ख ही ‘ तापत्रय ' हैं ।
ताप तीन प्रकार के हैं –
1 . अध्यानत्मक ताप : हमारे ाऄन्दर काम , क्रोध , लोभ , मोह मद , मत्सर रूपी र्ट् वगि हैं , ाआनसे
होने वाला द:ु ख ाअध्याशत्मक ताप कहलाता है । प्रत्येक व्यशि के कुल द:ु खों में 90 % द:ु ख
ाअध्याशत्मक हैं ।
2 . अनधभौनतक ताप : दूसरे प्राशणयों से होने वाले दाःु ख को ाअशधभौशतक ताप कहते हैं । दूसरों के
ाऄज्ञान और ाऄक्रम चयाि के कारण होने वाले दाःु ख ाआस श्रेणी में ाअते हैं । व्यशि के 9 % दाःु ख ाआस
प्रकार के होते हैं ।
3 . अनधदैनवक ताप : प्रकृशत के सहज पररवति न से होने वाले द:ु ख ाअशधदैशवक द:ु ख कहलाते हैं ।
ाऄशतवशृ ि , ाऄनावशृ ि , भूकम्प ाअशद ाआस श्रेणी में ाअते हैं । ये व्यशि के कुल द:ु खों में से 1 % ही होते हैं

प्रत्येक व्यनि को नत्रनवध दुःख या तापत्रय रहते ही हैं ।


मि ु पुरुषों को , ध्यानयोनगयों को अध्यानत्मक तापत्रय
नहीं रहते । के वि अनधभौनतक व अनधदैनवक ताप ही रहते हैं ।

54
ज्ञानान् मनु िः
‘ मशु ि ' ाऄथाि त् शवमोचन ।
शकस से शवमोचन ?
तापत्रय से ।
कशपल महामशु न का एक साांख्य सूत्र ाआस प्रकार है –
' शत्रशवध दु : ख ाऄत्यन्त शनवशृ र्त् ाऄत्यन्त परुु र्ाथि ाः ।
' शत्रशवध दु : ख ही तापत्रय हैं ।
ाआन तीन प्रकार के दु : खों से सांपूणि शवमोचन ही
' ाऄत्यन्त महत्त्वपूणि परुु र्ाथि '
। ाऄथाि त् ' मोक्ष ' या ' मशु ि ' है ।
कशपल महामशु न ने और भी कहा है –
' ज्ञानान् मशु ि : '
ाऄथाि त् ।
ज्ञान से ही मशु ि होती है ।

तापत्रय रनहत नथथनत ही मनु ि है


अत्मज्ञान से ही मनु ि नमिती है ।
ध्यान से ही अत्मज्ञान िभ्य है ।

55
पंच नवंशनत
‘ शवांिशत ' ाऄथाि त् सौ का पााँचवााँ भाग याशन बीस ।
' पांच ' ाऄथाि त् पााँच । ाऄत : पांचशवांिशत हुाअ पच्चीस ।
परुु र् व प्रकृशत का शमलन ही सशृ ि है ।
( सशृ ि ने पच्चीस तत्त्वों को ाऄपने में िाशमल शकया है । )
पच्चीस तत्वों से बनी ाआस ‘ सशृ ि ' में
व ' परुु र् मूल चैतन्य का भाग है ाऄथाि त् ' जीव '
जीवात्मा ाऄथवा ाऄांिात्मा ।
परुु र् की सांख्या है एक ।
प्रकृशत 24 तत्त्वों में िाशमल है ।
जीवात्मा प्रकृशत में प्रवेि करते ही तीन कपड़े पहनता है ,
वे हैं –
( 1 ) कारण िरीर
( 2 ) सूक्ष्म िरीर
( 3 ) स्थूल िरीर ।
कारण िरीर की सांख्या - दो ।
वे हैं - शचर्त् व ाऄहांकार ।
सूक्ष्म िरीर की सांख्या - सत्रह ।
वे हैं - पााँच तन्मात्राएाँ , पााँच ज्ञानेशन्रय ,
पााँच कमेशन्रय + मन + बशु द्ध ।
‘ तन्मात्र ' का ाऄथि है पांच महाभूत के सूक्ष्म रूप ।
स्थूल िरीर की सांख्या है - पााँच , वे ही पांचमहाभूत हैं ।
ाआस प्रकार ाआस भौशतक लोक में भौशतक देहधारी जीव
की सांख्या है –
पांच शवांिशत = 1 + 2 + 17 + 5 = 25

भौशतक मत्ृ यु के बाद यह सांख्या 25 - 5 = 20 रह जाती है ।


सक्ष्म लोक से कारण लोक पहुचाँ ने के बाद यह सांख्या
20 - 17 = 3 रह जाती है ।
56
ाअत्मज्ञान पाने के बाद ाऄथाि त् ाऄहांकार नि होने पर
तथा शचर्त् की पररिशु द्ध होने के बाद
ाईसकी सांख्या रह जाती है 3 - 2 = 1
तब ाऄद्रैत जैसे परुु र्ोर्त्म होकर ,
परमात्मा बनकर वह प्रकािमान होता है ।
यही कनपि महामनु न प्रणीत सांख्ययोग का सार है ।

57
तीथण यात्रा
लोग शजससे पार होते हैं ,
वही तीथि है ।
धन्य होने के सारे प्रयत्न ‘ तीथि यात्रा ' ही हैं ।
वेदों में ऐसा कहा गया है –
‘ जनााः यै स्तरांशत ताशन तीथाि शन । '
' धन्यता ' ाऄथाि त् शकनारे को पार करना ।
कौन सा शकनारा ?
‘ तापत्रय रूपी शकनारा ।
' तापत्रय रशहत शकनारे को पहुचाँ ना ही
धन्यता है ।
धम्मपद में बद्ध
ु ने कहा है –
‘ ाईस पार के शकनारे को बहुत कम लोग पहुचाँ ते हैं ,
बाकी सब ाआस ओर के शकनारे में ही दौड़ते रहते हैं ।

सत्संग का मतिब ध्यान ही है ,


वही प्रत्यक्ष तीथणयात्रा है ।

सज्जन सांगत्य , सदग्र् थ


ं - पठन ,
ये दोनों परोक्ष तीथण यात्राएँ हैं ।

58
तीथंकर गोत्र बन्ध
' तीथंकर ' ाऄथाि त् ' ाअध्याशत्मक ाऄध्यापक । '
‘ गोत्र ' ाऄथाि त् ‘ रीशत ' ।
ाआसशलए तीथंकर गोत्र बन्ध ' का ाऄथि है ,
ाअध्याशत्मक ाऄध्यापकों से बन्धन ।

सभी सीखने के बाद ाऄन्त में ,


दूसरों को शसखाने के शलए शफर जन्म लेते हैं ।
ाऄथाि त् हमें मि
ु परुु र् होने के बाद भी ,
मशु ि के बारे में ,
दूसरों को शसखाने का धमि और कति व्य
ाऄभी बाकी रहता है ।
वही तीथंकर गोत्र बन्ध है ।

हर योगी गरुु बनने के बाद


दूसरों को भी गरुु बनाने के शलए ।
कशटबद्ध होता है ।

ाआस तरह कुछ लोग तो गरुु होकर


तैयार होने के बाद
' तीथंकर गोत्र बन्ध ' से मि
ु होते हैं ।

तीथंकर गोत्र बन्धन से मि ु होने के बाद ,


जन्मरानहत्य पदवी ईपिधध होती है ।
वापस आस भूिोक में अने की ज़रूरत नहीं है ।
यजुवेद में धीर
‘ सीरा यजु शां त कवयो यगु ा शवतन्वते पथृ क्
धीरा देवेर्ु सम्ु नया ' यजवु ेद
( 12 - 67 )
59
कवयाः - शवद्राांस , क्राांत दिि नााः , क्राांत प्रज्ञाह ,
धीरााः - ध्यानवांतो योशगनाः
पथृ क् - शवभागेन
सीरा - योगाभ्यासोपासनाधि म् नाडीर् यांज ु शां त ,
ाऄथाि त् तासु परमात्मानम् ज्ञातमु भ्यस्यशततथ्
यगु ा - यगु ाशन योगयि ु ाशन कमि शणाः
वशतन्वते - शवस्तारयशत , य एवां कुवंशत ते ;
देवेर्ु - शवद्रत्सु , योशगर्ाःु
सम्ु नया - सख ु ेनैन शस्थत्वा परमानन्दम् ;
यज ु शां त - प्राप्नवु ांते त्यथि ाः –
- दयानन्द व्याख्या

नवद्वान , योगी , ध्यानी िोग ईपासनायोग के निए


नवनभन्न नानड़यों का ईपयोग करते हैं । परमात्मा के
साक्षात्कार के निए ईपासना योग का ऄभ्यास करते हैं ।
योग का ननरन्तर नवथतार करते हैं । योगाभ्यानसयों से
प्रशंसा पाकर परमानन्द भररत होते हैं ।
पांशडत गोपदेव के ाअधार पर

योगाभ्यास करते - कराते रहने वािे ही सही ऄथण में ‘ धीर ' हैं ।
महावाक्य
शनशम्लशखत ाईपशनर्द वाक्यों को महावाक्य कहते हैं –
‘ प्रज्ञानम् ब्रह्म '
प्रज्ञान ाऄथाि त् पररपूणिज्ञान
मल चैतन्य को समझना ही पररपूणि ज्ञान है ।
वह प्रज्ञान ही ब्रह्म है ।

60
ऄहम् ब्रह्मानथम '
' मैं ' कहने वाला पदाथि ही , वह प्रज्ञान ,
वह मूल चैतन्य , वह शवश्वात्मा , वह ब्रह्म है ।

‘ ऄयम् अत्मा ब्रह्म '


मेरी ाअत्मा ही ब्रह्म है ,
शवश्वात्मा है ।

‘ तत्त्वमनस '
तमु भी वही हो ! वही शवश्वात्मा ! वही प्रज्ञान !

‘ सवणम् खनल्वदम् ब्रह्म '


जो है वह सभी ब्रह्म ही है । प्रज्ञान ही है ।
शवश्वात्ममय ही है !

रिा , वह ऊनष नजसने ध्यान में सभी ऄनुभवों को


एकत्र करके समझ निया है , ईसके निए ये सभी
सूत्र ऄखण्ड सत्य सूत्र हैं ।

61
वृद्ध
‘ाऄज्ञो भवशत वै बालाः , शपता भवशत मांत्रदाः
ाऄज्ञम् शह बालशमत्याहम् , शपतत्येन तु मांत्रदम् । '
- मनस्ु मशृ त

नवद्या और ज्ञान को देने वािा चाहे बािक हो ।


या सौ वषण अयु का बज ु गु ण हो ,
ईसे वद्ध ृ के रूप में थवीकार करना चानहए ।
क्योंनक सारे शास्त्र और नवज्ञान
ऄज्ञानी को बािक और ज्ञानी को नपता कहते हैं ।
- पां . दयानन्द गोपदेव के ाअधार पर

धम्मपद में बद्ध


ु ने ऐसा कहा है शक –
' न तेनथेरो सोहाशत , येनस्स पशलतां शसरो : ' ( पाली )
ाऄथाि त् बाल सफे द होने मात्र से ाआन्सान वद्ध
ृ नहीं होता ।

अयु से कोइ भी वृद्ध होता है पर ईससे कुछ भी


र्ायदा नहीं है । वृद्ध होने के निए ज्ञान का होना
अवश्यक है ।

62
पुनजणन्म
' शनरुि ' एक प्रमख ु वेदाांग है ।
वह पनु जि न्म के बारे में ाआस प्रकार कहता है –

' मतृ िाहम् पनु जाि त् , जानिाहम् पनु मि तृ ाः


नाना योशन सहस्राशण , मयोशर्ताशन योशनवै ।’
- शनरुि

ज्ञानी यह समझता है नक –
‘ मैं बहुत बार पैदा हुअ हँ , बहुत बार मर चक
ु ा हँ ,
मैंने कइ योननयों में ननवास नकया है ।

ाअहार शवशवधा भिु ा , शपता नाना शवध स्तनााः


मातरो शवशवधा दृिा , शपतर सरृु दस्तथा ।

- शनरुि
ज्ञानी ऐसा समझता है नक –
‘ ईन योननयों में कइ प्रकार के भोजन मैंने नकए हैं ।
कइ माताओं का दूध मैंने नपया है । कइ नपताओं ।
की सरृदयता मैंने पायी है ।
- दयानन्द गोपदेव के ाअधार से

63
पनण्डत
" ाअत्मज्ञान समारांभ शस्थशतक्षा धमि शनत्यता ,
यमथाि नापकर्ि शत स वै पांशडत ाईच्यते ।
- व्यास महाभारतम्

शजसे ाअत्मज्ञान ाईपलब्ध है ,


शनष्कमि और ाअलस्य से रशहत होकर
कायि िरू ु करने वाला है ;
सख ु - दु : ख , लाभ हाशन ,
मान - ाऄपमान , शनन्दा - प्रिांसा ाअने पर भी
हर्ि - िोक से ाऄतीत होकर
धमि में ही शनत्य शनिय रहने वाला है ;
ाईर्त्मोर्त्म पदाथों के , शवर्य - वस्तओ
ु ां के
ाअकर्ि ण में नहीं पड़ने वाला है ,
वही वास्तव में पशण्डत है ।
- दयानांद गोपदेव के ाअधार पर

व्यास की दृनि में जो के वि शास्त्र - पठन करके


, श्लोकों का ईच्चारण करता है , वह पंनडत नहीं है ।
पनण्डत तो अत्मज्ञानी , योगी और सकि गण ु ों से ।
सम्पन्न होता है ।

64
सत्यमेव जयते
मण्ु डकोपशनर्द में ऐसा कहा गया है –
' सत्यमेव जयते नानतृ म् सत्येन पांथा शववतो देवयानाः परमां ।
येना क्रमशत ाऊर्यो ह्याप्तकामा , यत्र तत् सत्यस्य शनधानम् ।

' सत्यमेव जयते - के वल सत्य ( ाअत्मा ) ही जयिाली होता है ।


जो शनत्य है वही सत्य है , जो ाऄशनत्य है ।
| वह ाऄसत्य है ।
नानतृ म् - ाऄनात्मा ( ाऄसत्य ) कभी शवजयी नहीं होता ।
सत्येन देवयानाः - ाअत्मज्ञान से ही ाउध्वि लोक की प्राशप्त होती है ।
पांथा शववताः - मागि बन गया है ।
येन - शकससे ाअत्मकामााः
ाऊर्य : - शजन ाऊशर्यों की ाआच्छाएाँ पूरी हो गाइ हैं , वे
यत्र - कहााँ
सत्यस्य - सत्य का ( ाअत्मतत्त्व का )
तत् परमां शनधानम् - ाईस परम पद को
ाऄशस्त - है
तत्र -वहााँ
ाऄक्रमशत शह - पहुचाँ ते है ।

नजन ऊनषयों की आच्छाएँ पूणण हो गइ हैं , वे ध्यान मागण


के माध्यम से सत्यननिय , परम पद को प्राप्त होते हैं ।
देविोक ऄिग है , नपतृिोक ऄिग है ।
अत्मज्ञान से उध्वणिोक की प्रानप्त होती है ।
अत्मज्ञान नहीं है तो के वि नपतृिोक की प्रानप्त होती है ,
ईससे नर्र पनु रनप जननम्

65
अत्मा दृश्यते सूक्ष्म दनशणनभः
कठोपशनर्द् में ाआस प्रकार कहा गया हैं –
' एर् सवेर्ु भूतेर्ु गूढोत्मान प्रकािते
दृश्यते त्वग्रया सूक्ष्मया सूक्ष्मया सूक्ष्मदशिि शभाः
सवेर्ु = सभी
भूतेर्ु = जीवों में
गूढाः = शछपा हुाअ ।
एर् =ाआस
ाअत्मा = ाअत्मा
न प्रकािते = प्रकािमान नहीं होता
सूक्ष्मदिाि शभ = सूक्ष्म शवर्यों का दिि न करने में
समथि ाऊशर्यों से
ाऄग्रया = तीक्ष्ण, एकाग्र
सूक्ष्मया = सूक्ष्म
बद्ध
ु या = बशु द्ध से
एर्ाः ाअत्मा = यह ाअत्मा
तू= लेशकन
दृश्यते = साक्षात्कार हो जाता है

छुपी हुइ अत्मा का सभी जीवों को साक्षात्कार नहीं होता ।


के वि सूक्ष्मदशी ऊनष ही ऄपनी तीक्ष्ण , एकाग्र बनु द्ध से
आस अत्मा का साक्षात्कार कर पाते हैं ।
- रामकृष्ण शमिन प्रकािन

66
ऄयं िोको नानथतपरः
न सांपरायाः प्रशतभाशत बालम्
प्रमाधांतम् शवर्त् मोहेन मूढम्
ाऄयां लोको नाशस्त पर : ाआशतमानी
पनु ाः पनु वि ि मापद्यते में । -
कठोपशनर्द ( 2 - 6 )
सांपराय =ाईर्त्रगशत
शवर्त्मोहेन = धन का ाऄहांकार से
मूढ़म् = सम्मोशहत लोगों को
प्रमाधांतम् = प्रमाशदत ( those who are not aware )
बालम् = बालक ( शववेकरशहत ) को
न प्रशतभाशत =शदखााइ नहीं देती
ाऄयां लोक =यह लोक ( ाऄशस्त है )
पराः = परलोक ( नाशस्त - नहीं है )
ाआशत = ऐसे ( माशन - मानने वाला )
पनु ाः पनु ाः = बार – बार
विम् = ाऄधीन
ाअ पद्यते = रहते हैं

ऄजागतृ बािक को , धनमद से युि मनतहीन को


कभी भी श्रेय मागण नदखाइ नहीं देता ।
‚ यही एक िोक है , दूसरा कोइ िोक है ही नहीं
ऐसा मानने वािा बार बार मेरे हाथ में पड़ता रहता है ।
ऐसा यम ने ननचके ता को कहा है ।
- रामकृष्ण शमिन प्रकािन

67
श्रेय - प्रेय
श्रेयश्च - प्रेयश्च मनुष्यमेत
थता संपररत्य नवनवननि धीरः ।
श्रेयोनद ही धीरोनभ प्रेयपोवृणीते ।
प्रेयो मन्दो योगक्षेमात् वृणीते ।
- कठोपशनर्द ( 2 - 2 )
िभु कारक और सख ु कारक - ये दोनों मनष्ु य के पास ाअते हैं ।
समझदार व्यशि दोनों का शवश्लेर्ण करके शववेचन करता है और
सख ु कारक से भी िभु कारक को ही ाईर्त्म समझकर चनु लेता है ।
लेशकन बशु द्धशवहीन व्यशि लोभ और ाअसशि के कारण के वल
सख ु कारक को ही चनु लेता है ।
- रामकृष्ण शमिन प्रकािन
प्रत्येक क्षण में दो मागि शमलते रहते हैं ।
वे हैं श्रेय और प्रेय मागि ।
श्रेय ाऄथाि त् श्रेयकारक ।
प्रेय ाऄथाि त् शप्रयकारक ।

श्रेय में जो ननमग्न है , वही ईर्त्म और धीर है ।


प्रेय में जो ननमग्न है , वह मंदबुनद्ध वािा है ।
के वि प्रेय में श्रेय शून्य है । िेनकन जो हमेशा श्रेय है , वह प्रेयसनहत है ।

68
ध्यान – मोक्षानन्द
' तस्य योशनम् पररश्यशत धीरास्तशस्मनाः
तस्थरु भवु नाशन शवश्व । '
- यजवु ेद
तस्य = परब्रह्मणो
योशनम् = सत्यधमाि नष्ठु ानम् वेद शवज्ञानमेव प्राशप्त
कारणम्
धीरा = ध्यानवांत
तशस्मन भवु नाशन शवश्व = सवाि शण सवि लोकास्तस्तु शस्थशत
चशक्ररे हेशत शनियाथे
तशस्मन्ने व = परमे परुु र्े।
धीरा = ज्ञाशननो मनष्ु या मोक्षानांदम् प्राप्य
तस्थाःु = शस्थरा भवांते त्यथि ाः
- दयानंद जी की व्याख्या
नवद्वान िोग , परब्रह्म प्रानप्त के कारक सत्याचरण ,
सत्यनवद्या को ध्यान के माध्यम से समझकर ,
परमात्मा को प्राप्त होते हैं ।

‘ ईसमें ही सभी िोक हैं ।

ज्ञानी िोग सत्य ननश्चय से मोक्षानन्द प्राप्त कर


जन्म - मरण रूपी अवागमन से नवमि ु होकर
अनन्द में डूबे रहते हैं ।
- पां . गोपदेव के ाअधार से

सूक्ष्म शरीर यान


मांडु कोपशनर्द में सूक्ष्म िरीर यान के बारे में ,
बहुत सन्ु दर ढांग से कहा गया है ।
' यां यां लोक मनसा सांशवभाशत
69
शविद्ध ु सत्त्वाः कामयते याांि कामान्
तां तां लोक जायते ताांि कामाम् . . .

शविद्ध ु सत्वाः - िद्ध


ु ाांत करणो मनष्ु य
यां यां लोकां - शजस शजस लोक को
मानसा - ध्यानेन
सांशवभाशत - ाआच्छशत
कामयते याांि कामान् - याांि मनोरथा शनच्छशत
तां तां लोक - ाईस ाईस लोक को
ताांि कामान् जायते - प्राप्नोशत

पररशुद्ध मन का व्यनि ध्यान में नजस िोक को


चाहता है , ईस िोक को देखता है ।
- दयानन्द गोपदेव के ाअधार पर
बद्ध
ु ने भी धम्मपद में आसी प्रकार कहा है –
‘ अकासे यनत आनिया । ' ( पािी )
ऄथाणत् - योगी योग नसनद्ध के बि से अकाश में
प्रयाण करते हैं ।

70
तथमात् योगी भव
! भगवद्गीता में कृष्ण कहते हैं :
' तपशस्वभ्योशधको योगी , ज्ञाशनभ्योशप मतोशधकाः ,
कशमि भ्यिाशधको योगी , तस्मात् योगी भवाजि नु । '
गीता ( 6 - 46 )
ाऄथाि त्
तपस्वी से योगी श्रेष्ठ है ,
ज्ञानी से भी योगी श्रेष्ठ है ,
कमि करने वाले से भी योगी श्रेष्ठ है ,
ाआसशलए हे ाऄजि नु ! योगी बनो !

‘ तपस्वी ' ाऄथाि त् ाईपवास , व्रत ाअशद से


ाऄपने ाअप को दण्ड देने वाला ,
‘ ज्ञानी ' ाऄथाि त् िास्त्र ाऄध्ययन से
सत्य को जानने वाला ,
‘ कमी ' ाऄथाि त् शनत्य , नैशमशर्त्क ,
यज्ञ - यागाशद ाअशद कमि करने वाला
' योग ' ाऄथाि त् ' ध्यान '
' योगी ' ाऄथाि त् ' ध्यानी ' , शदव्य दृशि ाईपलब्ध व्यशि
कृष्ण की दृशि में , सत्कमों से भी , वेदान्त ज्ञान से भी ,
ाईपवास ाअशद से भी , योग ही श्रेष्ठ है ।

एक योगीश्वर सभी को यही अदेश देते हैं नक


तुम भी योगी बनो ! '
तो हम सब ध्यान करेंगे क्या ? योगी बनेंगे क्या ?

71
ब्रह्मज्ञान - आनन्रय वश
रुचां ब्राह्मण जनयांतो देवा ाऄग्रे तदब्रवु न ,
यस्त्वैवां ब्राह्मणो शवद्यार्त्स्य देवा ाअसन् विे : '
- यजवु ि दम्
रुचां = प्रीशतकरां
ब्रह्मा = ब्राह्मणोपत्यशमव ब्राह्मण , सकािा ज्ञातां ज्ञानां
जनयांत = ाईत्पादयतो
देवा = शवद्राांसाः
वाब्रवु न = बवु ांतूपशदिांतचु
यस्वै = यमनु ा प्रकारेण तद् ब्रह्म
ब्राह्मणो = शवद्यात पिात् स्वैव
ब्रह्मशवदो ब्राह्मणस्य
देवा = ाआशन्रयाशण
विे = ाअसन भवांशत नान्यसेशत

ब्रह्मज्ञान अनन्ददायक है ।
वह मनुष्य की ब्रह्म में रुनच बढ़ाता है ।
ईस ब्रह्मज्ञान को , ईसकी साधना को ,
नवद्वान िोग दूसरों को ईपदेश देकर ।
ईनको अननन्दत करते हैं ।
आस तरह जो व्यनि ब्रह्म को समझता है ,
ऐसे नवद्वान के मन अनद सभी आनन्रय वश में रहते हैं ,
ऄन्य िोगों के नहीं ।

- दयानांद गोपदेव के ाअधार पर

72
धमण
र्ट् दिि न में से एक –

' वैिेशर्क दिि न ' में धमि के बारे में


बहुत सन्ु दर ढांग से सूत्र में कहा गया है –
' यतोभ्यदु य शनाःश्रेयस शसशद्धाः स धमि । '
यतो = शकस से
ाऄशभ = पूणि , ाईदयां = वशृ द्ध
ाऄभ्यदु य के दो प्रकार हैं - ाअमशु ष्मक और
ऐशहक । ाअमशु ष्मक का ाऄथि है ' मत्ृ यु के बाद '
और ऐशहक ' का ाऄथि है ' ाआस लोक में रहते
हुए ।
शनाःश्रेयस् = ाऄांशतम श्रेयस् , मशु वत ।
शन : श्रेयस , मशु ि , मोक्ष , ाऄपवगि , शनवाि ण – ये
सभी पयाि य हैं ।
शसशद्ध = शसशद्ध होती है ।
स = ाईसे
धमि = धमि कहते हैं ।

नजससे आहिोक और परिोक में ऄभ्युदय और ईसके


साथ शाश्वत मोक्ष की प्रानप्त होती है , ईसे धमण कहते
है ।

73
धमण - ऄधमण
' धमि ' ाऄथाि त् शजस कमि से ,
शजस चयाि से ाआहलोक में सख ु ,
परलोक में भी सख ु ,
ाआतना ही नहीं ,
क्रम - क्रम से ाऄशन्तम मोक्ष ाअशद
सब ाईपलब्ध होते हैं , शसद्ध होते हैं ,
वह कमाि चरण ' धमि ' कहलाता है

ाआसी तरह शजस कमि से , शजस चयाि से ाआहलोक में दु : ख ,


परलोक में भी दु : ख होकर
ाअत्मज्ञान ाऄांकुरण के शलए
कभी भी मौका नहीं शमलता ,

धमाणचरण हमारे निए िाभकारक है ,


आसनिए ईसका थवागत करना चानहए ।

ऄधमाणचरण हमारे निए हाननकारक है ,


आसनिए ईसका पररत्याग करना चानहए ।

74
धमो रक्षनत रनक्षतः
' धमि एवां हतो , धमो रक्षशत रशक्षताः
तन्माधमो हन्तव्यो मान धमो हतोवधीत् '
- मनस्ु मशृ त
मारा गया धमि मारने वाले को मारता है ।
रक्षा शकया गया धमि रक्षक की रक्षा करता है ।
ाआसशलए धमि को कभी भी नहीं मरने देने के शलए हमें धमि की
रक्षा करनी चाशहए ।

धमि क्या है ?
ाऄशहांसा धमि है ।
ाऄशहांसा परमो धमि ाः ।
शकसी भी प्राणी को जानबूझ कर हाशन न पहुचाँ ाएाँ ।
जानवर को ाऄपना ाअहार कदाशप न बनाएाँ ।
यही परम धमि है ।

ज्ञान मोक्ष का प्रत्यक्ष साधन है ।


धमण मोक्ष का परोक्ष साधन है ।

मनुष्य तत्क्षण ज्ञानकामी नहीं हो तो भी कम से कम


धमाणचरण को तो नकसी हाित में नहीं छोड़ देना चानहए ।

आसनिए बुद्ध के ऄनुसार ‘ धम्मं शरणं गच्छानम । '

75
धमणत्रय
हमारे शलए तीन धमि शनदेशित हैं ।
वे हैं –
1 . िरीर के प्रशत हमारे धमि
2 . ाअत्मोन्नशत के प्रशत हमारे धमि
3 . चारों ओर शस्थत प्राशणयों के प्रशत हमारे धमि

ाआनमें से प्रत्येक धमि ाऄपने ाअप में महत्त्वपूणि है ।


भगवद्गीता में तीन धमों के शलए कहा गया है –

मन प्रपन्न गतागतम् कामकामािवंते ।

ाआसशलए
जो धमण ऄपनी अत्मोन्ननत के निए ठीक नहीं
वह दूसरों के निए भी ठीक नहीं है ।

जो धमण ऄपने शरीर के निए ठीक नहीं ,


वह नकसी काम का नहीं है ।

जो धमण ऄपने पररवार के निए काम का नहीं ,


वह नकसी काम को भी नहीं ।

76
चतवणणण
गणु ों के ाअधार पर ाऄथवा कमों से हम प्रजा को
चार वगों में शवभाशजत कर सकते हैं –

परुु र्ाथि काम ाऄथि धमि मोक्ष


ाईपाधी िरीर मन बशु द्ध ाअत्मा
वणि िूर वैश्य क्षशत्रय ब्राहम्ण
गणु तमो रजो सत्व शनगि णु
रामायण कांु भकणि रावण शवशभर्ण राम
कीटकदिा ाऄणड दिा लावाि दिा प्यूपा दिा शततली दिा
योग भशियोग कमि योग ज्ञान योग ध्योन योग
गीता श्लोक ाअशथि ाऄथाि शथ शजज्ञासु ज्ञानी

िरीर स्तर पर जीवन शबताने वाले िूर हैं ।


िरीर व मन के स्तर पर जीवन शबताने वाले वैश्य हैं ।
िरीर , मन तथा बशु द्ध के स्तर पर जीवन शबताने वाले
क्षशत्रय हैं ।
िरीर , मन , बशु द्ध तथा ाअत्मा के स्तर पर जीवन शबताने वाले
ब्राह्मण हैं ।
मनष्ु य ाऄपनी जन्म परम्परा में क्रमिाः
ाआन चार पररशस्थशतयों में ाऄनभु व प्राप्त करके ,
ाऄन्त में जन्म - मरण चक्र से मिु होता है ।

शकतने कम जन्मों में वह ाआन सभी पाठों को सीख सकता है,


यह ाऄपनी ाऄपनी बशु द्धमर्त्ा पर शनभि र करता है ।

जन्मना जायते शूरः कमणणा जायते नद्वजः । '


77
ऄथाणत् जन्म से सभी शूर ही हैं ,
मनुष्य ऄपने कमण से ही नद्वज बनता है ।
( मनुथमनृ त )
बुद्ध ने कहा है –
न जच्छाहोती ब्राह्मणओ । ' ऄथाणत्
जन्म से कोइ भी ब्राह्मण नहीं बनता ।

78
तमो रजो सतो गण

' गणु ' ाऄथाि त् ाऄांतर् पररशस्थशत ।
' कमि ' ाऄथाि त् बशहर् पररशस्थशत ।
हमारे गणु ों के ाऄनरू ु प हमारे कमि भी रहते हैं ।
कमि से ही गणु भी बदलते रहते हैं ।

' गणु ' और ' कमि ' - ये दोनों


एक दूसरे से जड़ु े हुए सााँप जैसे होते हैं ।
ाऄांतर पररशस्थशत के ाऄनस ु ार मनष्ु यों को तमोगणु प्रधान ,
रजोगणु प्रधान , सतो गणु प्रधान , िद्ध ु साशत्त्वक और
शनगि णु में शवभाशजत कर सकते हैं ।

तमोगणु प्रधान व्यशि जैसे कांु भकणि ,


के वल िारीररक ाअवश्यकताओां को ही प्रमख
ु ता देते हैं ।
सांकि ाअने पर ाअति नाद करते हैं ।

रजोगणु प्रधान व्यशि जैसे रावण ,


कीशति कामक ु और ाऄसीम सख ु ों के ाआच्छुक होते हैं ।
ाईसके शलए वे शकसी भी तरह का
ाऄधमि करने के शलए तैयार रहते हैं ।

सतोगणु प्रधान व्यशि जैसे शवभीर्ण ,


धमाि शभलार्ी , बशु द्धजीवी , ज्ञानयोग के शजज्ञासु होते हैं ।

िद्ध
ु साशत्त्वक और शनगि णु व्यशि मोक्ष के ाऄशधपशत होते हैं ।
पररणशत प्राप्त व्यशि श्री रामचन्र जैसे ज्ञानी और शसद्ध होते हैं ।

हमारा िक्ष्य है - शुद्ध सानत्त्वक और ननगणण


ु बनकर
शीघ्रानतशीघ्र पररवनतणत होना ।
79
चार योग
प्रत्येक जीव को
ाऄपने पररणाम क्रम में
सभी दिाओां को पार करना ही चाशहए ।
भशियोग का मतलब हैं नाम सांकीति न ाअशद ।
कमि योग का मतलब है शनष्काम कमि ।
ज्ञानयोग का मतलब है ाअत्मज्ञान िास्त्र पररचय ।
ध्यानयोग का मतलब है ाऄनभु व से प्राप्त ज्ञान ।

भशियोग से तमोगणु क्षीण होता है ।


कमि योग से रजोगणु क्षीण होता है ।
ज्ञानयोग से सत्वगणु प्रबल होता है ।

सत्त्वगणु प्रधान व्यशि ध्यान योग से क्रमिाः


िद्ध
ु साशत्त्वक और शनगि णु भी बनता है ।

ाआसशलए
भशियोग ‘ प्राथशमक शवद्याशथि यों के शलए ाऄथाि त्
ाअध्याशत्मक रूप से िैिवावस्था में रहने वालों के शलए है ।
कमि योग ‘ माध्यशमक शवद्याशथि यों ाऄथाि त् ।
ाअध्याशत्मक रूप से बाल्यावस्था में रहने वालों के शलए है ।
ज्ञानयोग ‘ ाईन्नत ' शवद्याशथि यों ाऄथाि त्
ाअध्याशत्मक रूप से यवु ावस्था में रहने वालों के शलए है ।
ज्ञानयोग के बाद ाअध्याशत्मक रूप से वद्ध ृ ावस्था में पहुचाँ ना ही
ध्यान योग है ।

ऄंनतम ऄध्याय ही ध्यानयोग है ।


ध्यान से ही ज्ञान , ज्ञान से ही मनु ि है ।

80
मूढ़ भनि
भशि दो दिाओां में ाअती है –
एक जीवात्मा की िैिवावस्था में और दूसरे ,
जीवात्मा के पररणाम क्रम की ाऄशन्तम ाऄवस्था में ।

प्राथशमक शवद्याशथि यों को मूढ़ भशि ाअवश्यक है ।


मूढ़ भशि का ाऄथि है ,
' भगवान कहीं और है ' ऐसा समझ लेना ।
राम , ाऄल्लाह , यहोवा - ाआनकी पूजा करना ,
रामकोशट शलखना , व्रत ाअशद करना ,
पूजा , प्राथि ना , ाऄशभर्ेक , ाऄचि ना करना ,
शविेर् शतशथयों में मांशदरों की प्रदशक्षणा करना ,
तीथि यात्रा करना - ये सभी िैिवावस्था के
तमोगणु को शमटाने वाली प्रशक्रयाएाँ हैं ।
लेशकन ये मशु िदाशयनी नहीं हैं ।

िैिवावस्था में मशु ि की ाअवश्यकता भी नहीं है ।


तमोगणु प्रधान व्यशियों को ये सभी ाऄवश्य चाशहएाँ ,
तमोगणु प्रधान ाऄथाि त् शजनकी बशु द्ध का शवकास
ाऄभी नहीं हुाअ है ।

जो बशु द्धजीवी हैं ाऄथाि त् ाअध्याशत्मक रूप से


िैिवावस्था को शजन्होंने पार कर शलया है ,
यशद वे भी ाईपयि ि ु शक्रयाओां को करते रहते हैं तो
ाईन्हें भशि रोगी ' कहते हैं , न शक भशि योगी ।

बुनद्ध का नवकास होने के बाद कमणकाण्ड


छोड़ देना चानहए ।
81
नजसे थोड़ा सा भी ज्ञान नहीं है,
ईसके निए वह ठीक है ।

थोड़ा सा ज्ञान प्राप्त होने के बाद ,


ईसको परखने और नवकास करने के निए
ध्यान - ज्ञानयोग ही शरण्य हैं ।
ध्यान योग व ज्ञानयोग ही हमें सद्योभनि
की ओर िे जाते हैं ।

82
भनि योग
योग ाऄथाि त् कोाइ भी ' साधना ' ।
वास्तव में भशि योग है ही नहीं ।
' भशि ' साधना की वस्तु नहीं है ।
' भशि ' शसद्ध शस्थशत है ।

कमि ' योग ' है ।


ज्ञान ' योग ' है ।
राज ' योग ' है ।
लेशकन भशि ' योग ' नहीं है ।

ज्ञानयोग की साधना करना ाअवश्यक है ।


राजयोग की साधना करना ाअवश्यक है ।
कमि योग की साधना करना ाअवश्यक है ।
पररपक्व ज्ञानी बनने के बाद ,
पररपक्व योगी बनने के बाद ,
ाईस शसद्ध परुु र् की मनोशस्थशत ही ' भशि ' है ।

‘ भशि ' पररणाम क्रम में ाऄांशतम शस्थशत है ।


ाआस शस्थशत में ' मैं ' और ' मेरा ' कुछ नहीं रहता ।

भनि का ऄथण है –
सभी में ऄपने अप को देख िेने की नथथनत ।
तझ में सब कुछ देख िेने की नथथनत ।
' थव ' व ' पर ' की भावना से रनहत नथथनत ।

योग साधना में ईपक्रम करने से पहिे ‘ मूढ़भनि ।


योग साधना में पररपूणण होने के बाद ‘ सद्योभनि । '

83
वणाणश्रम धमण
' धमि ' ाऄथाि त् ' कति व्य
दो चीजों पर शनभि र रहता है ।
1 . वणि
2 . ाअश्रम
वणि ाऄथाि त् रांग ाऄथाि त् ाअभामण्डल ( जीव काांशत ) ।
यह मनष्ु य के ाआदि शगदि सभी ओर शस्थत काांशत वलय है ।
यह ाऄांिात्मा को एक पररपक्व स्थायी गणु है ।
हमारा कति व्य , हमारा धमि , हमारी ाअत्मा
एक ज्ञानाज्ञान की शस्थशत पर शनभि र रहता है ।

' ाअश्रम ' ाऄथाि त् शनलय ।


देह ही हमारा शनलय है ।

हमें कब , क्या करना चाशहए


यह के वल ाअत्मशस्थशत पर ही नहीं
देह और वयोशस्थशत पर भी शनभि र करता है ।

के वि ज्ञानी िोग ही ऄपने थवधमण के बारे में ,


दूसरे के धमण के बारे में सही रूप में समझ सकते हैं ।

जो ज्ञानी नहीं हैं , वह ऄपने थवधमण के बारे में भी


नहीं समझ सकते , दूसरे के धमण के बारे में समझना
तो दूर की बात है ।

84
संसार
नागाजि नु ने कहा है शक
' सांसार ' ही शनवाि ण है ।

सांसारी लोगों की कभी हार नहीं है ।


सांन्यासी लोगों की कभी जीत नहीं है ।

ाआसशलए परम पद सोपान में भी


' पावि ती - परमेश्वर ' , ' सरस्वती - ब्रह्मा '
‘ लक्ष्मी - नारायण ' कहकर सांसार की
श्रेष्ठता के बारे में जोर देकर कहा गया है ।

सांसार से कभी भी पलायन नहीं करना चाशहए ।


सांसार में रहकर समस्याओां का समाधान कर लेना चाशहए ।

समस्याएाँ हमारे शलए चनु ौशतयााँ हैं ।


चनु ौशतयााँ होती हैं तो ही हम पररश्रम करते हैं ।
पररश्रम करने से ही हमारी प्रगशत है ,
ाऄन्यथा हमारी ाऄधोगशत है ।
ाआतना ही नहीं ।
गाहि स्थ्य जीवन प्रकृशत का सहज रूप है ।
सांन्यास जीवन प्रकृशत के शवरुद्ध है ।

संसार को कभी भी छोड़ना नहीं चानहए ।


संसार में ही संन्यास का सामरथय करना चानहए

85
संन्यास
सम्यक् + न्यास = सांन्यास
‘ सम्यक् ' ाऄथाि त् सही
' न्यास ' ाऄथाि त् त्याग करना ।
ाआसशलए सांन्यास का ाऄथि है ,
शजसे त्यागना चाशहए , ाईसी का त्याग करना ।
जो त्याज्य है , के वल ाईसका त्याग करना ।

यशद ऐसा है तो शकसका त्याग करना चाशहए ?


' मैं यही हाँ ाआस तादात्म्य भाव का ,
' मैं ाआतना ही हाँ , ाआस भाव का ,
और यह मेरा है ' ाआस भाव का त्याग करना चाशहए ।

सवि ' सांघ ' पररत्याग की ाअवश्यकता नहीं है ,


सवि ' सांग ' पररत्याग की ाअवश्यकता है ।
‘ सांघ ' ाऄथाि त् ाअसपास के व्यशियों का वस्तओ ु ां का समदु ाय ,
‘ सांग ' ाऄथाि त् सीमा रशहत मैं की भावना ाऄथाि त्
undue attachment ाऄथाि त् बन्धन ।
' सांघ ' में रहकर ' सांग ' रशहत रहना चाशहए ।
' पद्मपत्रशमवाांभसा ' जैसे ।
‘ कमल के पर्त्े पर शस्थत पानी की बूदां जैसे ' रहना चाशहए ।

‘ संघ ' वांछनीय है , हमारी प्रगनत के निए अवश्यक है ।


‘ संग ' ऄवांछनीय है , हमारी प्रगनत में बाधक है ।
' सवणसगं ' पररत्याग ही सम्यक् न्यास है ।

86
गहृ थथाश्रम
यस्मात् त्रयस्याश्रशमणे
दानेन्नानेव चान्वहान्
गहृ स्थे नैव धायि न्ते
तस्माज्येष्ठाश्रमों गहृ े
- मनस्ु मशृ त
ब्रह्मचयि , वानप्रस्थ और सांन्यास
ाआन तीनों ाअश्रमधाररयों को
ाऄन्नाशददान देकर पोर्ण करने वाले गहृ स्थ ही हैं ।

सांपशर्त्यों का शनमाि ण करने वाले तथा


सबको ाअश्रय देने वाले गहृ स्थ ही हैं ।

मानव िरीर शनमाि ण के शलए सहायता


करने वाले भी गहृ स्थ ही हैं ।
भौशतक िरीर ाऄांिात्माओां की परु ोगशत
में बहुत ाअवश्यक है ।

ाआसशलए गहृ स्थ ाअश्रम ही हमेिा पररग्रहणीय है ।

ईत्कृि गहृ थथाश्रम में रहते हुए यनद ऄज्ञान से मनु ि


को प्राप्त नकया तो ईससे बड़ी नवजय और साथणकता
दूसरी नहीं है ।

87
ब्रह्मचयण
' भूररशत ब्रह्म : ' ।
' भू ' ाऄथाि त् ‘ सबसे महान ' ।

सभी कायों को यि ु रूप में करना ही


वास्तव में सबसे महान है ।

शकसी भी कायि को न ज्यादा करना चाशहए ,


न ही ाअलस्यपूविक करना चाशहए ।
ाआस तरह हमेिा ‘ यि
ु ' में सांचार करना ही ब्रह्मचयि है ।

ब्रह्मचयि का ाऄथि यह नहीं शक


‘ स्त्री - परुु र् का सांपकि राशहत्य ' या
‘ दाांपत्य राशहत्य ' या ' श्रगांृ ार राशहत्य
' जीवन में हो ।
श्रगांृ ार से दूर रहना प्रकृशत के शवरुद्ध है ।
सब कुछ हो , लेशकन ‘ शमशत ' में रहना चाशहए ।

सभी में युि रूप से रहना ही ब्रह्मचयण है ।

88
आच्छाओं का दमन मत करो
कभी भी ाआच्छाओां का दमन नहीं करना चाशहए ।

चाहे धमि यि
ु ाआच्छाएाँ हों या ाऄधमि यि
ु ,
ाआच्छाओां का दमन करने से ,
तत्सम्बन्धी पाठ को सीखने से हम चूक जाते हैं ।

कमि करते हुए ही ाऄनभु व होते हैं ,


चाहे शकसी भी तरह के कमि क्यों न हों ।
लेशकन ाऄकमी होकर कभी नहीं रहना चाशहए ।

ाआच्छाएाँ ही प्रगशत और परु ोगशत के मूल कारण हैं ।


ाआच्छाएाँ न होने से या दबु ि ल ाआच्छाओां से
कुछ भी साध्य नहीं होता ।

ाआच्छा से ही शवद्या का ाऄध्ययन करते हैं


। ाआच्छा से ही कलाओां को सीखते हैं ।
ाआच्छा से ही धन का ाऄजि न करते हैं ।
ाआच्छा से ही सख प्राप्त करते हैं ।

आच्छाएँ प्रबि होनी चानहएँ , नननदणि होनी चानहएँ


और धमणयुि होनी चानहएँ ।

आच्छाओं के नबना कभी नहीं रहना चानहए ।

89
ऄधमणयुि कमण
ाऄधमि यिु कमि करने की ,
शवपरीत ाआच्छा हुाइ तो करना ही चाशहए ।
यह रजोगणु से सांबशां धत है ।
एक व्यशि के शलए यह भी
बहुत जरूरी हो सकता है ।
ाआसको भी पूरा कर लेना चाशहए ।
तभी प्रगशत हो सकती है ,
तभी ाअगे बढ़ सकते हैं ।

ाआसशलए वेमना ने कहा है –


‘ कामी हुए शबना , मोक्षगामी नहीं हो सकता ।
ाआच्छाओां को पूरा करने में ाईद्योगी व्यशि ही कामी है ।

‘ ऄकामी ' को पहिे ‘ कामी ' बनकर पररवनतणत


होना चानहए । यनद दुष्कामी हो तो क्रमशः
तत्संबधं ी पाठ सीखकर ‘ सत्कामी ' बनना है ।

90
िेनकन थवप्नावथथा में
लेशकन
ाऄधमि यिु ाआच्छाओां को पूणि करते हुए
तत्सम्बन्धी दष्ु फल से मिु होना है
तो एक ाऄद्भतु मागि है ।
ाईन ाआच्छाओां को स्वप्नावस्था में
पूणि कर लेना चाशहए ।

स्वप्नावस्था में शकसी भी ाआच्छा


को पूणि कर सकते हैं ।
ाईसमें कोाइ गलती नहीं है ।
हत्या प्रयोग भी कर सकते हैं ।
सभी तरह की कामवासना को भी
पूणि कर सकते हैं ।

ाआसशलए
' ाऄसमांजस ' लगी सभी ाआच्छाओां को ,
सूक्ष्मलोक में पूरा कर लेना चाशहए ।
तब वे स्थूल िरीर में रहकर भौशतक पीड़ा नहीं देतीं ।

हमेशा ऄपने आि के ऄनरू ु प ही करना चानहए ।


चाहे कुछ भी हो , दूसरों के आि के ऄनुरूप नहीं
करना चानहए ।

91
कमणबद्ध
हमेिा कमि करना ही चाशहए ।
शनशित हार होने की सांभावना होने पर भी ,
ाऄकमी कभी नहीं होना चाशहए ।

पहले हार ही क्यों न हो ,


हार भी ाऄांशतम शवजय के शलए एक सीढ़ी है ।
धमाि धमि का शववेक न होने पर भी कमि करना चाशहए ।
कमि बद्ध व्यशि को क्रमिाः शनशित रूप से
धमाि धमि का ज्ञान होता है ।

ाआसशलए
प्रत्येक व्यशि को कमि करते ही रहना चाशहए ।
‘ माते सांगोस्व कमि शण ' - ऐसा गीताकार ने भी कहा है ।

ाअलसी होकर , तमोगणु ी होकर ,


ाऄकमी होकर तो कभी भी नहीं रहना चाशहए ।
शकसी भी हालत में ' कल ' नहीं कहना चाशहए ।

कमणबद्ध हमेशा नवजयी ही होता है ।


ऄकमी का हमेशा नाश होता है ।

92
निो मोहः
गीता - बोध पूणि होने के बाद ,
ाऄजि नु ऐसा कहता है –
‘ निोमाः स्मशृ तरलब्धवा त्वत्प्रसादान्मयाच्यतु ! ' ाऄथाि त् '
हे ाऄच्यतु ! ाअपकी कृपा से मेरे मोह का नाि हुाअ ,
ाअत्मज्ञान स्मशृ त ाईपलब्ध हो गाइ ।
' लेशकन ाऄजि नु शकस मोह से मि ु हुाअ ?
ाईसके शकस मोह का नाि हुाअ ?

ाऄजि नु परुु र्ोर्त्म है ।


प्रापांशचक मोह ने ाईसे कभी स्पिि नहीं शकया ।
ाईस यद्ध ु के समय ाईसने ाअध्याशत्मक मोह ,
. के वल क्षणमात्र के शलए ग्रहण शकया था ।
गीता - बोध से तरु न्त वह भी छूट गया ।
ाऄथाि त् ' मोह ' में ' ाअध्याशत्मक मोह ' भी रहता है ।

ऄधम िोगों को प्रापंनचक मोह सहज है ।


ऄल्पज्ञ को आससे सजग रहना चानहए ।

ईर्त्म व्यनियों के निए अध्यानत्मक मोह प्रनतबंधक है ।


नवज्ञ पुरुष को आससे ऄपनी रक्षा कर िेनी चानहए ।

93
मागा मोहावेश
ाआच्छाएाँ होनी चाशहएाँ ।
ाआच्छाएाँ सखु कारक हैं ।
' मोह ' ाऄथाि त् ' ाऄशत ' ,
। ' शमशत ' ाऄथाि त सीमा को पार करना ।
' सीमा रशहत ाआच्छाओां को ' मोह ' कहते हैं ।

हर हालत में मोह को छोड़ना ही चाशहए ।


िांकराचायि ने ' भजगोशवन्दम् ' में ऐसा कहा है ।
शक ‘ मा गा मोहावेि ' ाऄथाि त् '
मोह का ाअवेि नहीं रहना चाशहए । '

ाआसशलए
लोकोशि भी है शक ' ाऄशत सवि त्र वजि येत ।

ऄनत चाहे नकसी भी नवषय में क्यों न हो , वह प्रमाद ही है ।

सभी नवषयों में ऄनत ' से रनहत रहना चानहए ।


नमनत को पकड़ना चानहए ।

94
कारण कायण
कारण कायि सम्बन्धी कुछ वैिेशर्क सूत्र :
1 . ' कारण भावात् कायि भावाः । ' ाऄथाि त्
कायि तभी सांभव है जब कारण हो ।
2 . ' कारण गणु पूविकाः कायि गणु ो दृिाः । ' ाऄथाि त्
कारण में शजस प्रकार के गुण रहते हैं ,
कायि में भी ाईसी प्रकार के गणु रहते हैं ।
3 . ' कारण भावात् कायि भावाः ' ाऄथाि त् ।
कारण के शबना कायि सम्भव नहीं है ।
4 . ' न तु कायि भावात् कारणाभाव : ' ाऄथाि त्
कायि के ाऄभाव से कारण का ाऄभाव नहीं होता ।
कायि नहीं है तो ाआसका ाऄथि यह नहीं शक कारण भी नहीं है ।
( गागर न होने से माटी नहीं होती क्या ? )
- पांशडत गोपदेव के ाअधार से
प्रत्येक कारण कायि ही है ।
प्रत्येक कायि के पीछे कुछ न कुछ कारण रहता ही है ।
कारण के शबना कायि नहीं होता ।
ाऄक्सर कारण कायि का रूप नहीं भी धारण कर पाता ।
कारण के शलए तो कारण नहीं होता ।
कारण हमेिा स्वयां शसद्ध है ।

कारण - कायण सम्बन्ध को समझ िेना ही कमण नसद्धान्त को समझना है ।

95
ऄदृि
दृशि = नजर
रिा = देखने वाला
दृि = देखा हुाअ ( जो शदखता है , वह )
ाऄ + दृि = जो शदखता नहीं है , वह ।
ाऄदृि का ाऄथि यह नहीं शक ' नहीं है ।

कारण शदखााइ देता है तो ‘ दृि ’ ।


यशद कारण नहीं शदखााइ देता तो ' ाऄदृि ।

' कारण पूविजन्म में और


कायि ाआस जन्म में होता है ,
तो वह ाअम लोगों को शदखता नहीं है ।
जब कारण िभु प्रद रहता है तो ' ाऄदृि '
और ाऄिभु प्रद रहता है तो ‘ ददृु ि ि ' भी कहते हैं ।

कारण के नबना कोइ भी कायण नहीं होता ।


‘ भाग्य ' और ' ऄभाग्य ' दोनों कारण - कायण सम्बन्ध ही हैं ।

96
वनशष्ठ गीता में ऄदृि
' यधा सांयतते येन तधा तेनानभु ूयते ।
स्वकमि वेशत चस्ते या व्यशतररिा न दैन्यदृक् । '
- वशिष्ठगीता
जो जैसा प्रयत्न करता है ,
वह वैसा र्ि प्राप्त करता है ।
पूवणजन्मों के ऄपने कमण जब र्ि देते हैं
तो ' देव ' या ‘ ऄदृि ' कहते हैं ।
आस दृनि से कमण से दस ू रा न
कोइ ' दैव ' है , न ही ‘ ऄदृि ।

ाआसी तरह एक और श्लोक –


' दोर् : िाम्यत्व सांदेह प्रिनोद्यत् नैगि णु ै
दृिान्तोत्र ह्यस्तनस्य दोर् स्याद्य गणु क्षै यम् । '
- वशिष्ठ गीता
ननथसंदेह आस जन्म के शुभ प्रयत्न के माध्यम से ,
नपछिे जन्म के सभी ऄशुभ प्रयत्न नि होते हैं ।
गत नदनों के ऄजीणाणनद दोष का अज की दवा
अनद गण ु ों से पररहार होता है –
यह यहाँ का दृिान्त है ।

97
पुरुष प्रयत्न
‘ परुु र् प्रयत्न ' के बारे में
वशिष्ठ गीता में ाआस प्रकार कहा है –
' व्दौहुडाशवव यध्ु येते परुु र्ाथे समासवता
प्रािनिैशहकिैव श्याम्यत्यत्राल्प वीयि वान् ।
- वशिष्ठ गीता
पूवण जन्म के और आस जन्म के समान - ऄसमान
परुु ष प्रयत्न दो भेड़ों जैसे अपस में िड़ते हैं ।
ईसमें जो दुबणि होता है , वह हार जाता है ।

' पौरुर् च न वानन्तम् न यलमशभवाां्यते ।


नयत्नेनाशप महता प्राप्यते रत्न ममताः ।

मोक्ष प्रानप्त के निए ऄनन्त काि तक पुरुष प्रयत्न की


अवश्यकता नहीं है । ज्यादा पररश्रम की भी अवश्यकता
नहीं है । रि के गण ु परीक्षा की ननपुणता से पररश्रम के
नबना पत्थर से ही रन की प्रानप्त होती है न !

' ाअलस्यम् यशद न भवेज्ञ गत्यनथि ाः


कोन स्याबहुधन को बहुश्रतु ो वा । '
- वशिष्ठ गीता
यनद आस दुननया में ऄनथण के कारण ' अिथय ' नहीं होता
तो कौन महा धननक , महा नवद्वान नहीं होता ?

पुरुष प्रयत्न ही सब की बुननयाद है । बाकी ‘ नवनध


नविास ' ‘ ििाट निनखत ' , ' दैविीिा ' अनद सब
ऄथणहीन शुष्क शधद ही है

98
थवेच्छा – यादृनच्छक
सभी स्वेच्छा के ाऄनस ु ार ही होता है ,
कुछ भी यादृशच्छक नहीं है ।
' ाआच्छा ' ाऄथाि त् ' ाऄशभलार्ा ' , ' चाह '
यादृशच्छक ाऄथाि त् सांयोग

स्व + ाआच्छा = स्वेच्छा ,


ाऄथाि त् ' ाऄपनी ाआच्छा । '
प्रत्येक कायि ाऄपनी ाआच्छा से ही होता है ।
कुछ और से नहीं ।
‘ यादृशच्छक ' तो है ही नहीं ।

सेत् कहते हैं शक कहीं भी जाओ ,


शकसी भी लोक में भ्रमण करो ,
लेशकन ाअप ाऄपने वास्तव की सशृ ि स्वयां
ाअप ही कर रहे हैं ।

सब कुछ ‘ थवेच्छा से ही है ,
यह परम सत्य ग्रहण करने के निए ,
हमें पूणण रूप से ऄपने नदव्यचक्षु का
ईर्त्ेजन कर िेना चानहए ।

99
पाप - पुण्य ज्ञान
धम्मपद में बद्ध
ु ने कहा है –
' ाआथ सोचशत पेच्च सोचशत , पापकारी ाईभयत्थ सोचशत
हथ मोदशत पेच्च मोदशत , कतपञ्ु ज ाईभयत्थ मोदशत । ' ( पाली )

पापकमी आहिोक तथा परिोक दोनों में दख ु पाता है ।


पण्ु यकमी आहिोक तथा परिोक दोनों में सख
ु पाता है ।

पाप = ाऄज्ञान , ाऄधमि ाअचरण से


पण्ु य = धमाि चरण से
शदव्यज्ञान = ध्यान से

ाऄधमि ाअचरण से ाआहलोक और परलोक दोनों में


दख
ु शमलता है । शफर से जन्म की प्राशप्त होती है ।

धमाि चरण से ाआहलोक और परलोक दोनों में सख ु


शमलता है । शफर से जन्म की प्राशप्त होती है ।

शदव्यज्ञान प्रकाि से ाआहलोक और परलोक


दोनों में ाऄखण्ड ाअनन्द शमलता है और
जन्म राशहत्य शस्थशत की प्राशप्त होती है ।
हमें दैननक जीवन में धमाणचरण का ही सहारा िे कर ,
बाकी समय को नदव्य ज्ञान संप्रानप्त के निए ईपयोग
करना चानहए । आसी प्रकार सारा जीवन नबताना चानहए ।
यही सम्यक् जीवन है ।

100
पाप- व्यानध
‘ पूवि जन्म कृतम् पापम् व्याशधरुपेण पीड् यते ’
यह एक लोकोशि है ।

पूविजन्म में शकये गए पाप ही ाआस जन्म में


व्याशध रूप में पीड़ा देते है ।

हमारे द्रारा शकए गए पाप कमि ही ,


बार बार हमारे पैरो को लपेट लेते हैं ।
ज्ञान पाठ सीख लेने के बाद ही व्याशधयााँ गायब होती है ।

‘ाऄशप चेदशस पापेभ्य सवेश्य पाप कृतम्


सवि ज्ञानप्लेवेनैव वशृ जनम् सांतररष्यशस’
गीता (4/46)
स्वानभु ाव के माध्यम से हम ज्ञान पाठ सीख लेते है ।
झेली हुाइ और ाअने वाली व्याशधयों से मि ु होने
के शलए ध्यान ही एकमात्र िरण है ।
ध्यान से ाअत्मज्ञान ाईपलब्ध होता है ।

गीताकार ने कहा है शक ‘ज्ञानाशग्न दग्ध कमाि णाम् । ’


ाअत्मज्ञान से पापकमि का दहन होता है ।
वैद्यो की दवाओां से पाप कमि शमटते नहीं है।
दराऄसल हमें जो नहीं है, एसी शबमाररयााँ भी
कुछ दवााइयो से ाअ सकती है ।
डाक्टर के पास जाने वालो को,
दवााइयााँ लेने वालों को
ाअत्मज्ञान ाऄगोचर और दस्ु साध्य है ।

101
रोग का मूि है पाप;
पाप का मूि है ऄनवद्या,
अत्मज्ञान ही ऄनवद्या का नाशक है

‘ ममात्मा सवणभूतात्मा ’ ऐसा समझ िेने


तक पाप कमण छूटते नहीं तथा
रोग से भी मनु ि नहीं होती ।

102
नवनध निनखत
कुछ भी नवनध निनखत
या ििाट निनखत नहीं है।
हम जो चाहते है,
वह कर सकते है।
हमारी आच्छा ! हमारी मजी !
यही ‘ सेत् ’ ज्ञान है ।
कभी भी भूतकाि जैसा वतणमान नहीं रहता।
वतणमान ही भनवष्य की सनृ ि करता है ।
आस समझ िेना बहुत कनठन है ।
िेनकन , यही सच है ।
‘ऄनप चेदनस पापेभ्य सवेश्य पाप कृतम्
सवणज्ञानप्िवेनैव वृनजनम् संतररष्यनस ।’
ऄथाणत्
तुम सबसे हीनानतहीन पापात्मा होने पर भी
ज्ञान रुपी अँधी से सभी पाप और रोग
तत्क्षण नवदा होते है ।
आसनिए भूतकाि चाहे कुछ भी हो,
वतणमान तो हमारे हाथ में है ।
यनद ईसे ठीक कर निया तो सब ठीक है

103
ऄज्ञ- ऄल्पज्ञ-नवज्ञ
‘ाऄज्ञ’ ाऄथाि त ाऄज्ञानी,
शजसे कुछ भी ज्ञान नहीं है,
शजसे कुछ भी समझ में नहीं ाअता है , वह ।
िारीररक ाअवश्यकताओां की तशु ि के शलए सभी तरह की
िशि और यशु ि प्रयोग करते हुए,
रर्त्ी भर सखु और पवि त जैसा दाःु ख
ाऄनभु व करने वाला ही ाऄज्ञ है ।

‘ाऄल्पज्ञ’ ाऄथाि त् ाऄल्पज्ञानी,


‘परलोक है’- ाआस बात को समझ कर भी , ग्रहण करने पर भी,
ाआहलोक के शवर्यो को ही बहुत महत्व देते हुए,
ाअध्याशत्मक प्रगशत के शलए शजतना महत्व देना चाशहए ,
ाईतना न देकर , सख ु और दाःु ख को ाऄलग तरह से
ाऄनभु व करने वाला ही ाऄल्पज्ञ है ।

‘शवज्ञ’ ाऄथाि त् शवज्ञानी ,


ाअध्याशत्मक ाईन्नशत के शलए ाऄशधक महर्त्व देते हुए ,
ाआहलोक के शवर्यो को शजतना चाशहए
ाईतन ही महत्व देने वाला शवज्ञ है ।

नवज्ञानी ही दुःख रनहत होकर,


सदा ऄनवनच्छन्न अनन्द ऄनुभव करता रहता है ।
नवज्ञ होना ही हमारा िक्ष्य है ।

104
अचायण
‘यः’ यानचनोनत अचरनत, अचारयनत च सः अचायणः’
यः = जो कोइ
यानचनोनत = ज्ञान की याचना करता है
अचरनत = अचरण करता है
च = और
अचारयनत = अचरण कराता है
स = वह
अचायण = अचायण है
‘याचना’ का ऄथण है अत्मज्ञान की याचना करना ।
अचायण जो है पहिे ऄनेक गरु ु ओं से
अत्मज्ञान का संग्रह करके ,
ईसे ऄपना थवानुभव बनाकर
नर्र दूसरों से वह अचरण करवाता है ।
प्रत्येक व्यनि को अचायण बनना चानहए ।
अचायण बनने के निए प्रयत्नरत रहना चानहए ।
अचायण बनने तक हमें बार बार अना ही चानहए ।
बार बार जन्म िेना ही चानहए ।

105
मन का प्रिोभ-ऄंतरात्मा का प्रबोध
मन शजसे चाहता है , ाईस करना ही
‘ मन के प्रलोभ ’ में पड़ना है ।
वही ाऄधम व्यशियों का लक्ष्ण है ।

ाईर्त्म व्यशि हमेिा ाऄांतरात्मा के


प्रबोध का पहचानता है ।

‘ ाऄांतरात्मा ’ ाऄथाि त ‘ पूणाि त्मा ’


‘ ाऄांतरात्मा के प्रबोध ’ का ाऄथि है
पूणाि त्मा के साथ सम्बन्ध ।

ाईसके ाअधार पर ाईर्त्म व्यशि


ाऄपनी ाआच्छा को वि में कर लेता है ।

मन के प्रलोभ में न पड़कर,


जो हमेिा ाऄतांरात्मा के प्रबोध को
ध्यान में रखकर चलता है ,
वह शनत्य श्रेयस् को प्राप्त करता है ।

जो नत्रकरण शुद्धी से रहता है , ईसको ऄतंरात्मा का


प्रबोध थपि रूप से समझ में अता है ।

यनद वह योगी भी हुअ तो परम गरु


ु ओं के साथ
अन्तररक संभाषण सहज रूप से होता रहता है ।

106
सूत्रप्राय – प्रबन्धप्राय
हमें ाऄपने शलए सूत्र रूप में
धमि , सत्य और ाअत्मज्ञान को
समझ लेना पयाि प्त नहीं है ।

ाईसके बाद प्रबन्ध प्राय ाअत्मज्ञान


का शवस्तार कर लेना चाशहए ।
ाईसके ाऄनरूु प हमें ाऄपनी वास्तशवकता का
सांपूणि सज
ृ न कर लेना चाशहए ।

ाईसी तरह सत्य, धमि और ाअत्मज्ञान के बारे में


प्रत्येक व्यशि को सूत्र रूप में समझाना
हमारा ाऄशनवायि कर्त्िव्य है ।

ाईद्धरेदात्मनात्मानां नात्मानमवसादयेत् ।
ाअत्मैव ह्यात्मनो बन्धरु ात्मैव ररपरु ात्मनाः ।।6/5।।

मनुष्य को चानहए की ऄपने मन की सहायता से


ऄपना ईद्वार करे और ऄपन को नीचे न नगरने दे ।
यह मन बद्धजीव का नमत्र भी है और शत्रु भी ।

सबको ाऄपने- ाऄपने वास्तव के बारे में


शवस्तार रूप से समझाना शववेकहीनता है ।

सभी ऄपने निए अप ही यमनु ा तीर है ।


नकसी को भी जबदणथती नहीं करनी चानहए ।
107
क्या नननध ऄत्यन्त सख
ु दायक है ?
त्यागराज ने कहा है –
‘शनशध ाऄत्यन्त सख ु कारी है क्या ?
राम की सशन्नशध ाऄत्यन्त सख ु दायक है क्या ? ’
मनष्ु य को शकतनी सम्पशर्त् की ाअवश्यकता है ?
रोज दो कौर ाऄन्न, थोड़े से कपड़े, थोड़ी सी नींद !
ाऄथि और काम को कशनष्ठ पक्ष में रखकर
धमि और मोक्ष को ाईर्त्म पक्ष में रखना
यही सदा सख ु दायक है ।
िांकराचायि ने भी कहा है –
‘ ाऄथि ाऄनथि भावय शनत्यम्,
नाशस्त तताः सख ु लेिाः सत्यम् ।’ ाऄथाि त्
सीमारनहत धन ऄनथण का मागण होता है ,
ईसमे िेश मात्र भी सुख नहीं है ।
‘ यल्लभ से शनज कमोपार्त्म्,
शवर्त्ां तेन शवनोदय शचर्त्म् ।’ ाऄथाि त्
पररश्रम से धनोपाजणन करके ,
ईसमे सुख और अनन्द से रहो ।
हमेिा ाआस बात को पहचान लेना चाशहए शक
‘ पैसे में परमात्मा नहीं है पर परमात्मा में पैसा है ।’
भि रामदास को श्रीराम की सशन्नशध में ही
ाऄक्षरिाः शनशध की प्राशप्त हुाइ थी न !

आसनिए हमें ‘ नननध ’ नहीं, ‘ तारक के रूप के ननज तत्त्व ’


को समझना चानहए ।
नवचारो का क्षण भर के निए ननरोध करने ऄथाणत्
ध्यान करने से ही यह संभव है ।
108
सत्संग – सज्जन सांगत्य
सत्+सांग = सत्सांग , सत्य के साथ शमलन ।
सत्य ाऄथाि त् जो शनत्य है , वह ।
मतलब यह शक ‘जो सभी काल में शस्थत है , वह ।’
ाऄपने शलए ाअप ही सत्य है ।
एक दूसरे के शलए सत्य नहीं बन सकता ।
सत्सांग ाऄथाि त ‘सत्य के साथ शमलन ’ ाऄथाि त्
‘ध्यान ’।
मात्र ध्यान मे ही हमारा ाऄपने से शमलन होता है ।
ाआसशलए हमारा ाऄपने में शस्थत रहना ही सत्सांग होता है ।
सत्+जन = सज्जन , जो सत्य को जानते है।
सज्जन साांगत्य का ाऄथि है –
जो लोग सत्य को जानते है , ाईनके साथ शमलना ।
ाआसशलए
‘ भजगोशवन्दम् ’ में िांकराचायि ने कहा है –
‘ शत्रजगशत सज्जन सांगशत रेका
भवशत भवाणि व तरणे नौका ।’ ाऄथाि त
नकसी भी िोक में जाने पर भी,
योनगयों के साथ नमिना ही चानहए ।
ऄज्ञान सागर से वे ही हमें पार करा सकते हैं ।

 सत्संग ऄथाणत् ‘सत्य ’ के साथ संगम


सज्जन सांगत्य ऄथाणत्
परमगरु
ु ओं के साथ नमिन ।

 बद्ध
ु ने ‘ धम्मपद ’ में कहा है –
‘ संघं शरणम् गच्छानम ।’
‘संघ ’ ऄथाणत् ‘सज्जन संघ’
ऄथाणत् योनगयों का संघ ।
109
राक्षस, - मानव – देवता
तीन प्रकार के मनष्ु य हैं ।
राक्षस
मानव
देवता

राक्षसता शजनमें है , वे राक्षस हैं ।


ाईनका मानना है ‘शहसाां परमों धमि ाः ।’
मााँस भक्षण करने वाले सभी राक्षस ही हैं ।
हमारी राक्षसता ही हमारे शलए ाऄि दारररय् लाती है ।

जो ाऄशहांसात्मक हैं , वे मानव हैं ।


ाईनका मानना है ‘ाऄशहांसा परमो धमि ाः ।’
ाईन्होने बद्ध
ु और महाबीर के सूत्र के ाऄथि को ग्रहण शकया है ।
प्राशणशहांसा और मााँसाहार का त्याग ही मानवता है ।

ाऄब ितपथ ब्राह्मण वेदोशि के ाऄनस ु ार


‘ शवदूसां ों शह देवााः ।’
वेद में शवद्रान को ‘देवता ’ कहते हैं ।
शवद्रान ाऄथाि त् ाअत्मज्ञानी ।
शवद्या ाऄथाि त् ाअशत्मशवद्या ।

 पहिे राक्षसता का नाश कर िेना चानहए ।


 बाद में देवत्व को प्राप्त करना चानहए ।

110
जीव नहंसा
वेमना
के वल एक महान योगी ही नहीं,
परम सत्यो का बैशझझक, शहम्मत के साथ ,
स्पि रूप से और सल ु भ िैली में व्यि करने वाले
ाअध्याशत्मक िास्त्र के महान ाऄध्यापक भी हैं ।

प्राशणशहांसा के बारे में वे ाआस प्रकार कहते है –


‘ पेट भर लेने के शलए,
बहुत शहांसा करके , पांछी ाअशद को पकड़कर
तल कर खान वाला, ाआस दशु नया में चांडाल है ,
शव“वधाशभराम सनु ो वेमा ।’
‘ जीव जीव को मार कर
जीव को देने के शलए
जीवन में बल से घमु ते हैं ।
जीव शहांसक को कभी मोक्ष शमलता है क्या ?
शव“वधाशभराम सनु ो वेमा । ’

प्राशणशहांसा के द्रारा मनष्ु य बांधनो में बांध जाता है ।


ाईसे छोड़ देने पर ही मोक्ष यात्रा ाअरम्भ होती है ।
ाईनके द्रारा व्यि शकये गये वचन नग्न सत्य ही हैं –

 पंछी अनद जीव पकड़कर खाने वािा चंडाि है ।


 प्रानणनहंसक को कभी मोक्ष नहीं नमिता ।

111
ििाट िेख
‘लेख के बाद वरदान देने वाला भगवान ।
कमि से ही लेख है ।
शलखने वाला ाऄज ( ब्रह्म ) है ,
करने वाला स्वयां है ,
शव“वधाशभराम सनु ो वेमा । '
- वेमन
‘ ललाट लेख ' ाऄथाि त् शवशध
' कमि ' ाऄथाि त् ' स्वेच्छाकमि । '

हमारे द्रारा शकए गए कमि ही हमारी शवशध बनते हैं ।


हम जो भी करते हैं ,
वही हमारा ‘ ललाट लेख ' बनकर पररवशति त होता है ।
हमारे कमों के ाऄनरू ु प ही ,
हमारे साथ ' ाऄदृि ' , ' ददृु ि ि ' घटते हैं ।
हमारे पूवि कमों के ाऄनस ु ार , हमें जो भगु तना है ,
वह हम पैदा होने से पहले ही तय करके पैदा हुए हैं ।
वे ही प्रारब्ध ' कमि हैं ।
ाआसी को वेमन ने कहा है शक ाआसे शलखने वाला ' ाऄज ' है ।
‘ ाऄज ' ाऄथाि त् ाऄ + ज = जन्म से पूवि ( जन्मरशहत )

हम स्वयां ाऄपने कमों के शलए शजम्मेदार हैं ।


हमारे वति मान कमि हमारे हाथ में ही रहते हैं ।
ाआसे करने वाला तो स्वयां है , ऐसा वेमन ने कहा है ।

प्रारधध को खुशी से थवीकार कर ऄपने वतणमान को


धमणयि
ु , ज्ञानयि
ु और योगयि ु बना िेना चानहए ।

112
योगी
योगी कौन है ?
वेमन ने ाआस बारे में बहुत
सन्ु दर ढांग से कहा है –

' कहााँ से ाअता है ? वह कहााँ जाता है ?


नींद की गशत न समझने वाला ।
ाअत्मा के ाअवागमन में वहीं शिवयोगी
शव“वधाशभराम सनु ो वेमा । '

' ाअत्मा ' ाऄथाि त्


‘ देह ' से पथृ क रहने वाला ' देही ' ,
बल्ब में प्रवाशहत होने वाली शबजली जैसे ।

ाअत्मा के बारे में जानना ही योगशवद्या है ।


जो योग शवद्या के बारे में जान लेता है , वही शिवयोगी है ।

हम शकस लोक से ाअए हैं ?


मत्ृ यु के बाद शकस लोक में जाते हैं ?
नींद का ाऄथि क्या है ?
ाअत्मा का ाअना - जाना कै से घशटत होता है ?
ाआन सब के बारे में ,
ध्यान में समझ लेने वाला ही योगी है ।

वेमन महान योगी हैं ।


हमें भी योगी बनना चानहए ।

113
ईर्त्म गरु

शवशभन्न गरुु ओां के बारे में ,
वेमन ने ऐसा कहा है –

‘ मूखि गरुु बााँधता है कमि समूह


मध्यम गरुु बााँधता है मांत्र समूह
ाईर्त्म गरुु बााँधता है योग साम्राज्य
शव“वधाशभराम सनु ो वेमा ।’

' मूखि गरुु कमि करने के शलए प्रेरणा देता है ।


' कमि ' ाऄथाि त् ' बाह्य पूजा ' ाअशद कमि काण्ड ।

मध्यम गरुु मांत्रों की ाईपासना की प्रेरणा देता है ।


और कहता है शक यही परमयोग है ।

लेशकन
ाईर्त्म गरुु सभी को , सभी काल में ,
के वल ध्यानयोग का प्रबोधन करता है ।
बाह्य पूजा ाअशद करना मूखिता है ।
मांत्रोपासना करना मूखिता तो नहीं ।
लेशकन वह परमयोग भी नहीं ।
ाईसमें तात्काशलक रूप से मन को िाांशत शमलती है ।

 ध्यान ही सही योग है ।


 ध्यानयोग के बोधक ही सही गरु
ु हैं ।

114
देह - अत्मा
‘ जैसे लकड़ी में ाऄदृश्य रूप से ाअग है ,
वैसे ही देह में ाअत्मा है ।
ाआस रहस्य को समझकर , ाअत्मा को जान लीशजए ।
शव“वधाशभराम सनु ो वैमा ।

' दो लकशड़यों को शघसने से ाअग पैदा होती है ।


जैसे लकड़ी में ाऄदृश्य रूप से ाअग है ,
वैसे ही देह में ाअत्मा है ।
ाआस रहस्य को समझकर ाअत्मतत्त्व में डूब जााआए ।
यह वेमन का ाईपदेि है ।

क्या लकड़ी को चीरने से ाअग शदखााइ देती है ?


क्या बीज को शनकालकर देखने से पेड़ शदखााइ देता है ?
ाईसी तरह
िरीर को चीर - फाड़ कर देखने से भी ाअत्मा शदखााइ नहीं देती ।
चमि - चक्षु को शदखााइ नहीं देता तो ाआसका मतलब यह नहीं
शक ाअत्मा पूरे देह में व्याप्त नहीं है ।

' मझ ु े ' प्रत्यक्ष शदखाओ , ऐसा सवाल पूछने वाला मूखि है ।


प्रत्यक्ष शदखााइ देता है , लेशकन तीसरी ाअाँख को ।

 अत्मानभु व के निए नदव्यचक्षु की अवश्यकता है ।


 वह ध्यान के माध्यम से ही ईपिधध होता है ।

115
नचंरजीवत्व
शचरांजीवत्व साध्य है ।
काइ महानभु ावों ने ाआसे साधा है ।
ाआसके बारे में वेमन कहते हैं –
‘ ाऄकारण शवध को समझकर
ाईस मूलधन की वशृ द्ध करते हुए
कल्पान्त तक भी हमेिा - हमेिा के शलए
रहने वाले की ाआहलोक में कम ाईम्र है वेमा ! '

' ाऄकारण ' ाऄथाि त् शजसके शलए कारण नहीं है ।


तो ाऄकारण हुाअ मूल चैतन्य । ' ाऄकारण शवध ' ाऄथाि त् चैतन्य को जानने की शवद्या ।
' नन्हीं ाईम्र ' ाऄथाि त् शचरांजीवत्व ।

ाआसशलए ाआस पद्य का भाव है ।


' जो ाआस मूल चैतन्य को समग्र रूप से समझकर ाईस मूलधन की
वशृ द्ध प्राप्त करते रहते हैं , वे कल्पान्त तक , हमेिा हमेिा के शलए
शचरांजीवी बन कर ही ाआस लोक में रहते हैं ।

 आस तरह अंजनेय थवामी , महावतार बाबाजी , और भी


कइ िोग नचरंजीवी बनकर ऄभी भी आस धरती पर हैं ।
 निंडा गडु ् मन की Star Signs नामक पुथतक में ,
नचरंजीवत्व को प्राप्त कर िेने के नवधान के बारे में

ऄत्यन्त थपि रूप से निखा है । यह पथु तक सभी को


पढ़नी चानहए ।

116
कुछ भी न्यूनता नहीं
' भोजन करने से ,
कपड़े , जेवर पहनने से ,
लड़शकयों का सांग करने से ,
ाऄपनी सन्तान को ममता से देखने से ,
ररश्ते - नातेदारों के साथ रहने से ,
कुछ भी कमी नहीं है । '

- सदानन्द योगी
मेरे गरुु देव
सदानांद योगी ( कनि ूल स्वामी )
सौ फीसदी िद्ध ु ब्रह्मशर्ि हैं ।

1981 से ही मझ ु े ाईनका पररचय शमला ।


22 माइ 1983 को ाईन्होंने स्वेच्छा से िरीर त्याग शदया ।
तब ाईनकी ाईम्र थी 160 साल ।
ाईनके बारे में तो कहना बहुत . . . . बहुत . . . . . है ।

 ब्रह्मवेर्त्ा के ननवाणण के निए संसार बाधा नहीं है ।


एक ही बार ‘ संसार ' और ' ननवाणण ' नामक दोनों

घोड़ों पर सवारी करनी चानहए । यह एक बड़ी चुनौती है ।

117
करो या मरो
सदानन्द योगी ( कनि ूल स्वामी )
हमेिा मझ ु े कहा करते थे –
' सभु ार् ! करो या मरो ! '
' DO OR DIE '

वेमन भी यही बात कहते हैं –


‘ शजद नहीं करनी चाशहए , ाऄगर की तो छोड़ना नहीं ।
पकड़ा तो कसके पकड़ लेना ।
पकड़ के छोड़ने से , जान छोड़ना बेहतर है ।
शव“वधाशभराम सनु ो वेमा । '

धम्मपद में बद्ध ु ने भी कहा है –


' कशयरा चे कयराथेनां , व्दलमेनां परक्कमें ' ( पाली )
‘ कुयाि च्छे त् कुवीवैतद् , दृढ़मेतत् पराक्रमेत् ( सांस्कृत )
ाऄथाि त्

नकसी भी काम को दृढ़ ननष्ठा से , पूणण साम्यण


से करना चानहए ।

 नकसी भी काम को हाथ िगाने से पहिे न्याय - ऄन्याय ,


क्रम - ऄक्रम , शुभ - ऄशभ
ु अनद के बारे में सोचकर ,
यनद न्यायपूणण और शुभदायक है तो दृढ़नचर्त् से करके
ही छोड़ना चानहए । मौत से भी नहीं डरना चानहए ।

118
सम्यक् चररत्र
जो नहीं है , ाईसकी ाऄपेक्षा नहीं करनी चाशहए,
जो है , ाईसका ाआांकार नहीं करना चाशहए ।
जो ाअने वाला है , वह ाअएगा ही ;
ऐसा समझकर कभी खिु ी से नहीं मचलना चाशहए
जो जाने वाला है , ाईस देखकर ‘हाय ! जा रहा है ’,
ऐस कहकर िोकाकुल नहीं होना चाशहए ।
-सदानन्द योगी
स्वामी जी कहते है शक जो नहीं है- ाईसकी साधना नहीं करनी
चाशहए । शबना चाहे ही जो शमल गया तो ाईसे छोड़ना नहीं चाहे ।
ाआस साांसाररक प्रपांच में एक ज्ञानी कै से शवहार करता है
और कै सा ाईसे करना चाशहए । ाआसे सशवस्तार रूप में
कहना ही सम्यक् चाररत्र्य का सूत्र है ।

ाआसशलए गीताकार ने कहा है-


‘कमि ण्येवाशधकारस्ते भा फलेर्ु कदाचन,’ ाऄथाि त्
मात्र कमि करना ही तेरा ाऄशधकार है ।
फल ऐसा होना चाशहए ’ या ‘ वैसा होना चाशहए ’,
ाआसकी ाऄपेक्षा करना ठीक नहीं है ।

 अत्मज्ञान का सार यह है नक प्रापंनचक रूप से ज्यादा


ऄपेक्षा नहीं रखना चानहए ।
 सांसाररक रूप से कुछ भी अए या जाए, िेनकन
ऄनवचनित होकर जीना ही अत्मज्ञान का सार है

119
माँसनपण्ड - मंत्रनपण्ड
स्वामी जी हमेिा कहा करते थे –
‘ सभु ार् ! मााँसशपण्ड को मांत्रशपण्ड बनाना चाशहए ।

' मााँसशपण्ड ाऄथाि त् ' ाऄन्नमय कोि '


ाआसी को मांत्रशपण्ड ाऄथाि त्
‘ प्राणमय कोि ' बना लेना चाशहए ।
ाऄथाि त् Energy Body !

यही योग की पराकाष्ठा है ।


‘ राजयोग ' जैसी शक्रयाएाँ तभी सांभव हैं ।
ाआस तरह की शक्रयाओां को ,
शिरडी सााइ बाबा ने हमें करके शदखाया है ।
और सदानन्द योगी ने साधना करके बताया है ।
शफलहाल महायोगी काशि रेड्डी जी भी ,
जो ाऄभी भी हमारे बीच मौजूद हैं , ाआसी तरह के हैं ।

 डॉन जुअन जैसे गरु ु और ईनके नशष्य सभी ने


आसी की साधना की है । आन नवषयों को जानने
के निए कािोस काथटानेड़ा की पुथतक पढ़ना चानहए ।
 सभी महायोनगयों ने माँसनपण्ड को मंत्रनपण्ड बना निया है ।
 हमारा िक्ष्य भी वही होना चानहए ।

120
अनथतक नानथतक
' ाअशस्तक ' ाऄथाि त् ' ाऄशस्त ' कहने वाले
ाऄशस्त ' का ाऄथि है ‚ है । ’’
' है ' मतलब क्या है ?
‘ मरणोपरान्त जीवन है । '
‘ दैव पदाथि हैं । '
‘ यह जो सब कुछ है , वही है । '
' सशृ ि की रचना में ाआनका प्रयोजन है ।

न + ाऄशस्त = नाशस्त
‘ ये सभी नहीं हैं ' मतलब नाशस्त ,
ऐसा कहने वाले ही नाशस्तक हैं ।

 ‘ नहीं है ' कहने वािा कभी भी ,


जो है ईसको न देख सकता है ,
न पा सकता है ।

 ‘है ' कहने वािा जो है


ईसको देख भी सकता है

और पा भी िेता है ।

121
गरु
ु – िघु
' गरुु ' ाऄथाि त् जो भारी है ,
ाऄथाि त् ‘ ज्ञान और ाऄनभु व से भारी । '

ाआसका शवपरीत िब्द है ' लघु ' ।


लघु ाऄथाि त् ' जो हलका है ' ,
ाऄथाि त् ' ज्ञान और ाऄनभु व से रशहत । '

समाज में ' गरुु – शिष्य '


से हम ाअमतौर पर यही समझते हैं –
‘ शसखाने वाला ’ और ‘ सीखने वाला ’ ।
न तो ' गरुु ' का ाऄथि ' शसखाने वाला है ।’
और न ही शिष्य का ाऄथि ' सीखने वाला है । ’
दराऄसल कोाइ भी शकसी को शसखा नहीं सकता
लेशकन ाऄपने ाअप साधना की प्रशक्रया के माध्यम से ,
‘ सीखने का गणु ' शजसमें है , वह
सीखने की प्रशक्रया को देखकर सीख जाता है ।

जो ' लघु ' हैं ,


वे साधना की प्रशक्रया के माध्यम से ' गरुु ' बनते हैं ।
ाआसशलए यह स्पि रूप से जान लेना चाशहए शक
‘ गरुु ' का ाऄथि ' बोधन करने वाला नहीं है ।
साधना की प्रशक्रया के माध्यम से जो शसद्ध बने हैं ,
वे ' गरुु ' हैं ।

ाआसको जानने के बाद , गरुु नामक व्यशि का ाऄनस


ु रण
करने की कोाइ जरूरत नहीं रहती ।
साधना की प्रशक्रया का ाऄनसु रण करना िरू
ु होता है ।
अध्यानत्मक शास्त्रों के माध्यम से ,
122
योग साधना के माध्यम से ,
जो ‘ िघु ' हैं , वे ' गरु
ु ' बनकर पररवनतणत होते हैं ।

अनथतक के चार वगण

' ाअशस्तक ' में चार तरह के लोग ाअते हैं –


1 . मूढ़ भि
2 . शिष्य
3 . गरुु
4 . परम गरुु

मनष्ु य ाऄपने पररणाम क्रम में

नाशस्तकता से ाअशस्तकता में पररवशति त


होने से पहले मूढ भशि में पड़ता है ।
मूढ भशि में पहले वह परवि
ाऄथाि त् दूसरों के वि में होता है ।

ाईसके बाद ' ध्यान से ज्ञान , ज्ञान से ही मशु ि '


ाआस तरह के सूत्र को क्रमिाः समझते हुए
तीव्र साधना के माध्यम से ाऄि शसशद्धयों को .
ाऄधीन बनाकर परम गरुु के स्थान तक पहुचाँ ता है ।
ाआस स्थान तक पहुचाँ ने वाले ही सामान्य ाअशस्तक हैं ।
ाईनको भि ' भगवान ' कहते हैं ।

जो नदव्यत्व की साधना करता हैं , वही ' देवता ' हैं ।


परम गरूु ही ' देवता ' हैं ।
123
मूढ भि - नशष्य
भि बाह्य कमों में डूबा रहता है ाऄथाि त्
पूजा , ाऄशभर्ेक , ाऄचि ना ाअशद की बाढ़ में बह जाता है ।
भि भयग्रस्त रहता है ।
कुछ हद तक ाऄच्छे मांत्रों का ाऄनष्ठु ान करता रहता है ।
ाआससे ज्यादा शजज्ञासु और ज्ञान शपपासु
बनने के शलए वह तैयार नहीं होता ।
हमेिा ‘ पाशहमाम् ' कहकर ाअति नाद् करता रहता है ।
ाऄपने ाआदि शगदि हमेिा शवपदाओां को ही देखता रहता है ।
भि , गरुु , परम गरुु ओां का ाअदर करता रहता है ।
लेशकन ाईनके जैसा बनने का प्रयास नहीं करता ।
लेशकन शिष्य चाहता है शक
वह भी गरुु , परम गरुु जैसा बने ।
जैसे वे परम गरुु बने हैं , वैसे वह भी बन सकता है ,
ाआस बात को ग्रहण कर , दीक्षा से ध्यान का ाअरांभ करता है ।
शिष्य भय को ाऄपने वि में रखता है ।
न ‘ पाशहमाम् , पाशहमाम् ' करता है ,
न ही शवपदाओां से डरता है ।
यही शजज्ञासु है जो क्रमिाः ममु क्षु ु बनता है ।
ममु क्षु ु का ाऄथि है मोक्ष की ाआच्छा रखने वाला तीव्रध्यानी ।

मूढ़ भनि से कुछ भी नहीं होता , जो है ईसका भी


नाश होता है । तुरन्त नशष्य बनना चानहए ।

124
गरु
ु - परम गरु

ाअज का शिष्य ही
कल का गरुु है ।
' गरुु ' ाऄथाि त् जो ज्ञान से भारी है , वह ।
ाअज का ममु क्षु ु ही कल का मि ु परुु र् है , गरुु है ।
शजसने ध्यान के माध्यम से
शदव्य चक्षु को ाईपलब्ध करके
ज्ञान को प्राप्त शकया है , वहीं गरुु है ।
ाआसी तरह ाअज का गरुु ही
कल का परम गरुु है ।
परम गरुु ाऄथाि त् ज्ञान से बहुत ही भारी ।
ाअज का ाऊशर् ही कल का राजशर्ि हैं ,
ाईसके बाद वह ' ब्रह्मशर्ि ' बनता है ।

नजसने नदव्य चक्षु को प्राप्त कर निया है ,


वह गरु
ु है , ऊनष है ।
नजसने नदव्य चक्षु को पररपूणण कर निया है , वह परम
गरु
ु , राजनषण व ब्रह्मनषण है ।

125
ननवाणण के बाद
' शनवाि ण ' ाऄथाि त् ' दु : ख राशहत्य की शस्थशत '
बाद में जन्म राशहत्य की शस्थशत ।
' ाईसके बाद ' सशृ ि कताि ' की शस्थशत ।
ाऄपने से नूतन ाऄांिात्माओां की सशृ ि करने की शस्थशत ।
कुछ लोकों की भी सशु ि करने की शस्थशत ।
ाआसशलए
शनवाि ण है पहली शस्थशत
ाईसके बाद में दो और शस्थशतयााँ हैं ।
शनवाि ण - पररशनवाि ण – महापररशनवाि ण
दु : खराशहत्य - जन्मराशहत्य – सशृ िकताि पद्री
ाऊशर् - राजशर्ि – ब्रह्मशर्ि
ाऄररहांत - बोशधसत्व – बद्ध ु
बोशध वक्षृ के नीचे ध्यान को पूणि
करने के बाद गौतम बद्ध ु ने कहा शक
' मैं महापररशनवाि ण को ाईपलब्ध हुाअ । '

यही हमारा िक्ष्य होना चानहए नक नजस परमोन्नत


नथथनत को गौतम बुद्ध ने प्राप्त नकया , हम भी ईस
नथथनत को पाएँ ।

126
गरु
ु हमेशा हैं
सदानन्द योगी कहते थे
शक बोलने वाली हमेिा ही है ।
लेशकन सनु ने वाला ही नहीं है ।
जब शिष्य सही शस्थशत में रहता है ।
तब गरुु ाअते ही हैं ।
चाहे वे ाईस समय भौशतक रूप में हों
या सूक्ष्म िरीर के रूप में ।
ाआसशलए हमें ाऄपने ाअप को
परख लेना चाशहए शक ।
हम सही शस्थशत में हैं या नहीं ।
ाऄगर सही शस्थशत में नहीं हैं तो
गरुु भौशतक रूप में हमारे पास मौजूद रहने पर भी
हमारी समझ में नहीं ाअता ।

प्रापंनचक नशष्यों को , कुबुनद्ध वािे िोगों को ,


दगा देने वािा गरुु ही नमिता है ।

मोक्षाहणत नशष्य को , मोक्ष को ईपिधध गरु


ु ही
नमिते हैं ।

127
साधना चतुिय
‘ साधना चतिु य ' के शवर्य में
‘ शववेक चूडामशण ' में ाअशद िांकराचायि
ने ाआस प्रकार कहा है –
साधना के चार प्रकार हैं –
1 . शववेक 2 . वैराग्य 3 . र्ट् सपां शर्त् 4 . ममु क्षु त्व
शनत्याशनत्य वस्तु शवचक्षणा ज्ञान ही ' शववेक ' है ।
ाआह , ाऄमत्रु , कमि फल भोग , ाऄनासशि ही ‘ वैराग्य ' है ।
तीव्र साधक ममु क्षु ु के गणु गण ही ' र्ट् सपां शर्त् ' है ।
र्ट् । सांपशर्त् = र्ट् सम्पशर्त् ।
वे हैं - दम , सम , शततीक्षा , ाईपररत , श्रद्धा और समाधान ।
बशहर् ाआशन्रयों का शनग्रह ' दम ' है ।
ाऄांतर् ाआशन्रयों का शनग्रह ' सम ' है ।
पीड़ा को सहन करने का गणु ' शततीक्षा ' है ।
काम से मशु ि ही ' ाईपरशत ' है ।
शत्रकरण िशु द्ध + दीक्षा ही ‘ श्रद्धा ' है ।
द्रन्द्र रशहत होकर सम में रहना ही ' समाधान ' है ।
तीव्र रूप से मशु ि की ाआच्छा करना ही ‘ ममु क्षु त्ु व ' है ।

नववेक , वैराग्य , षट्सपं नर्त् और ममु क्ष


ु त्व - ये चार
िक्षण साधक में होते हैं तो मोक्ष की प्रानप्त होती है –
ऐसा शंकराचायण का ईपदेश है ।

128
वेदान्त घोष
िष्ु क वेदान्त की घोर्णा की ाअवश्यकता नहीं है ।
ाईससे कोाइ प्रयोजन नहीं है ।
' द्रैत '
' ाऄद्रैत '
' शवशििाद्रैत '
क्या है यह झांझट !
दो ही काम करने हैं ।
पहला है योगसाधना
, दूसरा है योग साधक के
ध्यानानभु वों को सनु ना और पढ़ना ।
मतों में भेद शबल्कुल बेकार है ।
शवशवध मत हैं ही नहीं ।

शुष्क वेदान्त की चचाण नबल्कुि छोड़ देनी चानहए ।


समझदार िोग वेदान्त पठन जीवन भर नहीं करते ।
थवयं ही सत्यरिा बनने के निए प्रयत्नशीि रहते हैं ।

129
योग साधना
योग साधना के बारे में
। धम्मपद में ऐसा कहा है –
‘ योग में जायते भूरर , ाऄयोगा भूरर सज्ञया
तथर्त्ानां शनवेसेय्य , यथाभूरर पवड् डशत । ' ( पाली )
योगद्रै जायते भूरर , ाऄयोगाभूरर सांक्षयाः
तथात्मानां शनवेियेद् , यथा भूरर प्रवथि ते । ( सांस्कृत )
योगानष्ठु ान ( ध्यान ) से ज्ञान प्राप्त होता है ।
योगानष्ठु ान के शबना ज्ञान का क्षय होता है ।
हमें ाऄपने ाअप को ज्ञान वशृ द्ध के मागि में ही चलाना चाशहए ।
योग साधना में शस्थशतयााँ –

पहिे नचर्त्वृनर्त् ननरोध


ईससे कुण्डनिनी जागरण
ऄन्त में नदव्यचक्षु की ईर्त्ेजना और पररपक्वता ।

130
पतंजनि के ऄिांग योग
पतांजशल महशर्ि ने जो प्रवचन शकया है ।
वहीं ाऄिाांग योग मागि है ।
ाअठ ाऄांगों से यि ु साधना - क्रम ाऄिाांग योग है ।
यम , शनयम , ाअसन , प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा ,
ध्यान , समाशध - ये ाअठ ाऄांग हैं ।
यम , शनयम शसशद्ध शस्थशत की सूचना देते हैं ।
साधक जब प्राणायाम , प्रत्याहार , धारणा , ध्यान के
साधना क्रम द्रारा क्रमिाः समाधान पाकर सम्पूणि
समाशध शचर्त् ाऄथाि त् समाशध शस्थशत को ाईपलब्ध होता है ,
तब ाईसके शलए यम , शनयम
बहुत ाअसान और ाऄशत सहज होते हैं ।
यम , शनयम भौशतक जीवन में शसद्धत्व की सूचना देते हैं ।
भौशतक जीवन में शसद्धत्व की ाईपलशब्ध के शलए ही ।
ाअध्याशत्मक ज्ञान की ाअवश्यकता है ।
शचर्त्वशृ र्त् से रशहत होने के बाद ही ,
ाअध्याशत्मक ज्ञान की ाईपलशब्ध होती है ।
ाईसके शलए सवि प्रथम ाअसन शसशद्ध की साधना करनी चाशहए ।
ाईसके बाद ाईच््वास - शन : श्वास का गमन करना चाशहए ।
यही प्राणायाम ' है ।
तब बशहर् ाआशन्रय क्रमि : ाऄन्तमि ख ु ी बनती है ।
यही ' प्रत्याहार ' है ।

शचर्त् शवचार रशहत होकर ाऄन्तर् ाआशन्रय ाईर्त्ेशजत


होने के बाद , ाऄन्तमि ख
ु ी होकर द्योतक दृश्यों
का गमन करना ही ' धारणा ' है
। क्रमिाः धारणा करने से सूक्ष्म िरीर का शवमोचन होता है ,
यही ' ध्यान ' है ।
ध्यान के माध्यम से सभी समाधान ाईपलब्ध होते हैं ।
131
यही ' समाशध ' है ।

महनषण पतंजनि द्वारा प्रवनचत ऄिांग योगमागण


का ऄविंबन करना ही हमारा कतणव्य है ।

यम ननयम
‘ यम ' ाऄथाि त् काबू ।
मौशलक ाअध्याशत्मक जीवन सूत्रों पर काबू में रहना है ।
पतांजशल ने पााँच ' यम ' का प्रवचन शकया है ।
वे है –
1 . सत्य = जीवन में हमेिा सत्य वचन बोलना ।
2 . ाऄशहांसा = शहांसात्मकचयाि को पूणि रूप से शवसशजि त करना ।
3 . ब्रह्मचयि = हमेिा मध्यमागि का ही ाऄनस ु रण करना ।
4 . ाऄस्तेय = दूसरों की सम्पशर्त् पर मत्सर नहीं करना ।
5 . ाऄपररग्रह = दूसरों के देने पर भी ऐसी चीजों को न लेना | जो हमें चाशहएाँ ही नहीं ।

' शनयम ' ाऄथाि त् वे कायि कलाप जो हमें ाऄवश्य करने चाशहएाँ ।
पााँच ऐसे शनयम हैं ।
1 . िौच = िरीर व पयाि वरण का िशु चत्व रखना ।
2 . सांतोर् = मन को हमेिा प्रफुशल्लत रखना ।
3 . स्वाध्याय = ाऄच्छे ाअध्याशत्मक ग्रन्थों का ाऄध्ययन करना ।
4 . तप = शनराहार ाअशद कम करके ध्यान ाऄशधक करना ।
5 . ाइश्वर प्रशणधान = ‘ सब कुछ ाइश्वरमय ही है ' ाआस भावदिा में हमेिा रहना ।

132
यम शनयम हस्तगत करने के शलए ाअध्याशत्मक ज्ञान के ाऄशतररि
ाऄन्य कोाइ िरण नहीं है ।
आसनिए ‘ हे पतंजनि महनषण ! नमथकार ! कररष्येम् वचनम् तव !
नचर्त्वृनर्त् ननरोध
बद्ध
ु ने धम्मपद में कहा है शक
' शचर्त्स्समदथो साधु , शचर्त्ां दांत सख ु ावहां ' ( पाली )
शचर्त् शनग्रह के शलए परम योग्य है ,
शनग्रह शकया गया शचर्त् सख ु प्रद है ।
महशर्ि पतांजशल ने कहा है –
‘ योग : शचर्त्वशृ र्त् शनरोधाः । '
शदव्यचक्षु का ाईर्त्ेजन होने से पहले
शचर्त्वशृ र्त् का शनरोध ाअवश्यक है ।
शचर्त्वशृ र्त् शनरोध के तरु न्त बाद ही ,
कांु डशलनी जागतृ होती है ।
शचर्त्वशृ र्त् शनरोध का ाऄथि है ,
मन और बशु द्ध को वि में रख लेना ।

ाईदाहरण के शलए - जैसे िाम के छाः बजे हैदराबाद के ाऄशबड् स रोड पर िोर मचता
रहता है , जो ध्यानी नहीं हैं , ाईनका शचर्त् वैसा रहता है । लेशकन ,
ाअनापानसशत के द्रारा , जैसे रात के दो बजे ाऄशबड् स रोड िान्त
रहता है , वैसा ाऄपने शचर्त् को बना सकते हैं ।

मन का नवचार श्रख ृं िा की झंझट से , मर - मर ध्वननयों


से प्रशांत नथथनत में िौटना ही नचर्त्वृनर्त् ननरोध है ।
शंकराचायण ने कहा है - ‘ ननश्चि नचर्त्े जीवन्मनु ि '
ऄथाणत् नचर्त् ननश्चि हुअ तो वही मनु ि है ।

133
अनापानसनत
शवचार शदव्य ाऄनभु व
ाअनापानसशत
हमें ाऄपने ाईच््वास - शन : श्वास से जड़ु े रहना चाशहए ।
ाआसको ही पाली भार्ा में ाअनापानसशत ' कहते हैं ।
' ाअन ' ाऄथाि त् ाईच््वास ।
' ाऄपान ' ाऄथाि त् शन : श्वास
‘ सशत ' ाऄथाि त् जड़ु े हुए रहना ।
शवचारवाशहनी को रोकने का ।
एक मात्र ाऄद्भतु मागि है ‘ ाअनापानसशत ' ।
शवचार वाशहनी के रुकते ही
ध्यानानभु व िरू ु होते हैं ।
ाईच््वास शन : श्वास का गमन करने के बाद क्रमिाः ,
श्वास छोटा होते होते नाशसका में प्रवेि कर ाऄन्त में ,
नाशसकाग्र में जाकर शमलता है ।
ाईस शस्थशत में शनमन्त्रण शदया तो भी शवचार नहीं ाअते ।
नाशसकाग्र का ाऄथि है ' भूमध्य '
न शक ‘नाशसका की नोक । '

अनापानसनत में कुंभक ( श्वास को नथथरता से


पकड़ना ) नहीं करना चानहए ।
नकसी मंत्र का ईच्चारण नहीं करना चानहए ।
नकसी आिदेव की रूपधारणा नहीं करनी चानहए ।

134
नवपथसना
पश्यशत = देखना ( सांस्कृत )
पस्सना = देखना ( पाली )
शव = सांपूणि रूप से , शविेर् रूप से
शव+ पस्सना = सांपूणि रूप से देखना
शवपस्सना = ध्यान में शदव्यदृशि को पाने का ाऄनभु व ।
ाअनापानसशत शनवाि ण
शवपस्सना
अनापानसनत से नचर्त्वनृ र्त् का ननरोध होता है ।
नचर्त्वनृ र्त् के ननरोध के बाद पथसना शरू
ु होता है ।
ध्यानानभ ु व होने िगते हैं ।
नवपथसना के द्वारा ननवाणण नथथनत को ईपिधध होते हैं ।
ध्यान सूत्र समझ में अने िगते हैं ।
दःु खरानहत्य ईपिधध होता है ।

135
ईपासना – नवपथसना
‘ ाईपासना ' ाऄथाि त् मांत्रयोग
ाआससे देवता - स्वरूपों के
शनशित रूप से दिि न होते हैं ।
शविेर् ज्ञान और मोक्ष
की प्राशप्त नहीं होती ।

‘ शवपस्सना ' ाऄथाि त् ध्यानयोग


ाआसमें परम गरुु ओां से मल
ु ाकात करके
सभी लोकों में घूमकर ज्ञान प्राप्त करते हैं ।

ाईपासना शसफि हमें ाअनन्दमय कोि तक ही ले जाता है ।


लेशकन शवपस्सना , हमें शवश्वमय कोि और
शनवाि णमय कोि तक भी ले जाता है ।

‘ ईपासना का मागण ऄल्प है ।


‘ नवपथसना ' का मागण ही योग्य है ।

136
कुंडनिनी का जागरण
‘ ाअनापानसशत ' से ही
कांु डशलनी जागतृ होती है ।
कांु डशलनी प्राणमय कोि के
मूलाधार चक्र में शस्थत
एक शनरामय िशि है ।

कांु डशलनी िशि जागतृ होने के बाद ,


हमारे भीतर ऐसा लगता है शक
एक सााँप ाऄपनी पूछ
ाँ के बल पर
सर ाईठाकर खड़ा हुाअ है ।

कुंडनिनी जागरण से ‘ तीसरी अँख खुिती है ।


हमारे भीतर के शरीरों से संबनं धत
ऄंतआण नन्दयों के समदु ाय ही ‘ तीसरी अँख ' हैं ।

137
नाड़ी मण्डि की शुनद्ध
हमारे नाड़ी मण्डल में
ाऄथाि त् प्राणमय कोि में लगभग 72000 नाशड़यााँ हैं ।
‘ नाडी ' का ाऄथि है प्राणमय िशि के प्रवाहमान होने की नली
ाऄथाि त् Energy Tubel
' ाअापानसशत ' िरू होते ही ,
नाड़ीमण्डल की िशु द्ध भी िरूु होती है ।
लेशकन क्या नाशड़यााँ साधारणत : िद्ध ु नहीं रहती हैं ?
कुछ िद्धु रहती हैं , कुछ ाऄिद्ध
ु ।
हमारे पाप - कमों से वे ाऄिद्ध
ु रहती हैं ।
धूल भरी नली जैसी सभी ाऄिद्ध ु नाशड़यााँ ,
मात्र ाअनापानसशत से ही िद्धु होती हैं ।
कांु डशलनी जागतृ होकर जब नाड़ी सांिोधन चलता रहता है ,
ाऄन्नमय कोि में बहुत ही ददि और बाधाएाँ होती हैं ।
शचढ़ , क्रोध और नाराजगी भी ाऄशधक होती है ।
ाआन सबका सहन करना ही चाशहए ।
भूख भी ज्यादा लगती है ,
ाआसशलए ज्यादा खाना खाना चाशहए ।
हम नजतने समय ध्यान में रहते हैं , मात्र ईतने ही समय ये
सारे ददण रहते हैं । आसनिए डॉक्टर के पास नहीं
जाना चानहए । दवाआयों का ईपयोग नहीं करना चानहए ।
नाड़ीमण्डि शुनद्ध पूणण होने के बाद ,
नदव्यचक्षु ईर्त्ेनजत होता है ।

138
षट्चक्र - सहस्रार
नाड़ी मण्डल में प्रमख
ु चक्र ाआस प्रकार हैं –
1 . मूलाधार
2 . स्वाशधष्ठान
3 . मशणपूर
4 . ाऄनाहत
5 . शविद्ध

6 . ाअज्ञा
ाऄनेक नाशड़यााँ शमलकर जहााँ शस्थत होती हैं , वह ' चक्र ' होता है ।
प्रत्येक चक्र एक - एक िरीर के साथ बाँधा रहता है ।
र्ट् चक्र और सहस्रार सात िरीरों से सांबशां धत हैं ।

ाअनापानसशत से कांु डशलनी जागतृ होती है ,


शफर र्ट् चक्रों में ाईसकी िशु द्ध होती है ।
सहस्रार ाऄशन्तम शस्थशत है ।
ाअमतौर से र्ट् चक्रों को ाईतना महत्त्व नहीं देना चाशहए ।
सहस्रार ही ‘ सहस्रदल कमल ' है ।
यही ‘ सहस्र फणी सपि ' है ।

जब कुंडनिनी सहस्रार में नथथत होती है , तब ननवाणण


को ईपिधध होते हैं तब ननवाणणमय कोश जागतृ होता है ।
ननवाणण नथथनत प्राप्त होने के बाद नदव्यचक्षु को ईपिधध होते हैं ।

139
नदव्य चक्षु
ाअनापानसशत ाऄभ्यास से
थोड़े समय में ही
शचर्त् वशृ र्त्रशहत हो जाता है ।
शचर्त् वशृ र्त्रशहत होते ही ,
कांु डशलनी जागतृ होती है ।
कांु डशलनी जागतृ होकर ,
सभी चक्रों को ाईर्त्ेशजत करके
सहस्रार में शमलने के बाद ,
जो चाशहए , ाईसे देखने की क्षमता ाअने
के बाद शदव्य चक्षु खल ु ता है ।

नदव्य चक्षु पररपक्व होने के बाद हम भी


परम गरु ु ओं की नगनती में अ जाते हैं ।

140
सनवकल्प समानध
समाशध = सभी ाअध्याशत्मक प्रश्नों का समाधान
शमलने की शस्थशत
स + शवकल्प = शवचार सशहत
शचर्त् के िाांत शस्थशत में पहुचाँ ने के बाद तथा
कांु डशलनी का जागरण पूणि होने के बाद जो शस्थशत होती है ,
वही सशवकल्प समाशध है ।

ाआसमें कुछ सूक्ष्म िरीर के ाऄनभु व होते हैं ।


ाआसमें यह बात समझ में ाअती है शक
मनष्ु य के वल भौशतक िरीर ही नहीं
बशल्क सूक्ष्म िरीराशद समदु ाय भी है ।
कुछ दूसरे लोकों के दृश्य भी देखे जा सकते हैं ।
ाआसशलए
यह चमि चक्षु को शदखााइ देने वाला प्रपांच ही नहीं है ।
यह बात समझ लेंगे शक काइ लोक हैं , शदव्य चक्षु भी है ।
लेशकन ाऄपनी जन्म परम्परा के बारे में ,
कमि परम्परा के बारे में , पूणाि त्मा के बारे में ,
पूरा ाऄनभु व नहीं रहता ।

समानध नथथनत सनवकल्प से अरम्भ होकर , क्रमशः


नननवणकल्प में पररवनतणत होती है ।

141
नननवणकल्प समानध
शनाः + शवकल्प = शनशवि कल्प ाऄथाि त् शवचार रशहत
ाआसशलए
शनशवि कल्प समाशध का ाऄथि है
शवचार रशहत शस्थशत , शजसमें सांदेह का लेिमात्र भी न हो ।
शदव्य चक्षु के ाईर्त्ेशजत होने के बाद की शस्थशत ।

ाऄपने पूणाि त्मा के बारे में सब कुछ समझी गाइ शस्थशत ।


पूणाि त्मा , ाऄन्य परम गरुु परम्परा में ,
ाऄशवशच्छन्न ाऄनस ु धां ान में शस्थत रहने की शस्थशत ।
ाऄपनी जन्म परम्परा के बारे में ,
कमि परम्परा के बारे में ,
कति व्य शनष्ठा के बारे में ,
सम्पूणि रूप से समझी हुाइ शस्थशत ।
नननवणकल्प समानध ऄथाणत् महापररननवाणण नथथनत ,
सवण संशय रनहत नथथनत ।
हम नननवणकल्प होने के बाद ही ऄपने सानथयों को ,
सत्य का मागण नदखा सकते हैं ।

142
अत्मज्ञान – ब्रह्मज्ञान
‘ ाअत्म ज्ञान ' ाऄथाि त् ाअत्मा से सांबशन्धत ज्ञान ,
स्वयां ाऄपने बारे में खदु जानना ।
यह समझना शक ाअप भौशतक िरीर मात्र नहीं ,
बशल्क ' िरीरधारी ' भी हैं ।
यह जानना शक ाअप मूल चैतन्य हैं ,
यह ध्यान के माध्यम से ही सांभव है ।
यशद ाअत्मज्ञान पहली सीढ़ी है तो ब्रह्मज्ञान दूसरी ।
ब्रहाज्ञान का ाऄथि है सकल चराचर सशृ ि का ज्ञान ।
करोड़ों करोड़ लोकों के बारे में सस्ु पि शवज्ञान ।

ाअत्मज्ञान के शबना ब्रह्मज्ञान ाऄसम्भव है ।


ाअत्मज्ञानी ' ाऊशर् ' , ब्रह्मज्ञानी ही ' ब्रह्मशर्ि ' है ।
ाऄपनी शनज शस्थशत को शजसने जान शलया है ।
वह ' ाअत्मज्ञानी ' है ।
शजसने ाऄपनी बाह्य प्रकृशत को समझकर
ाईसे पूरी तरह ाऄपने ाऄधीन कर शलया है ,
वही ' ब्रह्मज्ञानी ' है ।
‘ ब्रह्मज्ञानी ' होने के बाद ही ‘ ब्रह्म ' पदवी शमलती है ।
‘ ब्रह्म ' का ाऄथि है सशृ िकताि ।
कुछ ाअत्माओां की , कुछ लोकों की सशृ ि करने वाला
ाऄथाि त् स्वयां ही सशृ ि करने वाला ।

सकल लोकों का ज्ञानी ही नए लोकों की सशृ ि करता है ।


ाआन्हीं को सह - सशृ िकताि कहते हैं ।
अत्मज्ञान ध्यान से ईपिधध होने की प्रथम नथथनत है ।
ब्रह्मज्ञान नदव्यचक्षु की पररपक्वता की नथथनत है ।

143
माया
' माया '
ाआस िब्द के शलए सूत्र है –
या मा सा माया ।
या = जो
मा = नहीं
सा = वह
माया = माया कहते हैं ।
जो नहीं है ाऄथाि त् शजसका ाऄशस्तत्व नहीं है ,
ाईसे माया कहते हैं ।
दराऄसल , ाआस दशु नया में दो चीज माया हैं –
एक तो ' मत्ृ यु ' की भावना और दूसरी
' मैं ाऄलग तू ाऄलग ' की भावना ।
मत्ृ यु कहीं भी नहीं है , जो है सभी पररणाम क्रम ही है ।
शजसने जान शलया शक मत्ृ यु नहीं है ,
ाईसने माया को जीत शलया ।
ाआसी तरह ' ाऄहां ब्रह्माशस्म ' , ' तत्त्वमशस '
ाऄथाि त् में और तू वही हैं ।
ाआसशलए शजसने ' ममात्मा सवि भूतात्मा ' समझ शलया है ,
ाईसने माया को जीत शलया है ।
शजसको देहात्मा की भ्राांशत है ,
वह माया में फां सा हुाअ है ।
' देहात्मा की भ्राांशत '
ाऄथाि त् देह को ' मैं ' समझने वाला ।

ाअत्मा ही देह है ,
ाआस ज्ञान से रहने वाला माया से रशहत है ।
ाऄथाि त् ' मैं ' का भाव ही ाऄपना िरीर और स्वरूप है ,
ाआस बात को समझने वाला ।
144
ध्यान के माध्यम से ही देहात्मा की भ्ांनत दूर होती है ।
ध्यान के माध्यम से ही आस बात को समझ िेंगे नक
' ममात्मा सवण भूतात्मा । '

145
तीन कदम
वामन ने चक्रवती राजा बशल से
भूलोक , भवु लोक और सवु लोक रूपी तीन कदम मााँगे ।
' भूलोक ' ाऄथाि त् हमारा िरीर ,
कुछ लोग ाआसे ' प्रकृशत ' भी कहते हैं ।
' भवु लोक ' ाऄथाि त् हमारा मन
‘ सवु लोक ' ाऄथाि त् हमारी प्रज्ञा
' बशल ' ाऄथाि त् टैक्स या कर ।
हमारे घरों को पानी , शबजली ाअशद सशु वधा के शलए
नगर सभा को हम कर देते हैं न !
ाईसी तरह जो मन से सांबशां धत हैं ,
ाईसके शलए भी ' कर ' देना चाशहए ।
चक्रवती बशल ने क्या ' कर ' शदया ?
ाऄपनी िारीररक , मानशसक और ाअध्याशत्मक
िशियों को भगवान के प्रशत समशपि त शकया ।
परु ाणों में कुछ कथाएाँ बड़ी ाऄजीब होती हैं ।
भगवान का एक पाद सारे भूलोक पर छा गया
और दूसरा पाद सारे ाअसमान पर
और तीसरा ाईन्होंने बशल के शसर पर रखा !
ाआसका ाऄथि है िारीररक भ्राांशत को ध्वांस शकया ।
राजा बनि के शारीररक , माननसक और अध्यानत्मक –
आन तीनों िोकों में भगवान ने प्रवेश नकया । यही आसका ऄन्तराथण है ।

146
मूषक वाहन
शवनायक का वाहन चूहा है ।
शजसका ाआतना बड़ा पेट है ,
वह ाआतने छोटे चूहे पर
भला शकस तरह बैठ सकता है ?
ऐसा काइ लोग ाअलोचना करते ाअए हैं ।
दराऄसल शजन मख ु को ाआसका ाऄन्तराथि
समझ में नहीं ाअया है , वे ही ाआस तरह
ाऄथों को बढ़ा - चढ़ा कर यथाथि को शछपाते ाअए हैं ।
‘मूर्क ' ाऄांधकार का सूचक है ।
शवनायक ने ाईस ाऄांधकार को ाऄपने नीचे डाल शलया है ।
ाआसका ाऄथि है - ाऄांधकार को शछपाया
या वि में कर शलया है ।

आसनिए ‘ मूषक वाहन ' का ऄथण है नजसने


ऄंधकार को नछपाकर ज्ञान प्रकाश को
नदखाया है , वह । आसका ऄथण ' चूहे पर
बैठने वािा नहीं है ।

147
अहार – व्यवहार
' देह ' ाऄलग है ।
' देही ' ाऄलग है ।
रोटी , ाऄन्न , पानी ाअशद
मात्र देह के शलए ाअहार हैं ।
देही के शलए ाअहार नहीं हैं ।
ाऄथाि त् ' हमारे शलए नहीं हैं ।
पांच ज्ञानेशन्रयों के माध्यम से
बाह्य ज्ञान , िरीर के ाऄांदर के चैतन्य
ाऄथाि त् ‘ देही ' से शमलकर ाईसे जो
ाईर्त्ेजन करता है , वही हमारे शलए ाअहार है ।
पांच कमेशन्रयों के माध्यम से हम जो चेिाएाँ करते हैं ,
वह हमारा व्यवहार है ।
ाईदाहरण के शलए हमारी बातें दूसरों के शलए
ाऄपने कानों के माध्यम से ाअहार बनती हैं ।
हमारी चेिाएाँ दूसरों के शलए ाऄपनी ाअाँखों के
माध्यम से ाअहार बनती हैं ।

हमारा व्यवहार दूसरों के निए अहार है ।


दूसरों का व्यवहार हमारे निए अहार है ।

148
अहार व्यवहार में जागतृ रहना चानहए
ाअहार व्यवहार में जागतृ रहना चाशहए ।
ाअहार में होशियार रहना चाशहए ,
ाऄथाि त् जो बरु ा है , ाईसे न सनु ना चाशहए , न देखना चाशहए ।
बरु ा का ाऄथि है ' बेकार ' ाऄथाि त्
जो ाऄनावश्यक है , ाईसे नहीं लेना चाशहए ।
ाआसी तरह
व्यवहार में भी जागरूकता बरतनी चाशहए ।
जो बरु ा है , ाईसे नहीं बोलना चाशहए ।
ाआसका ाऄथि है - दोनों ओर ाऄनावश्यक बातें नहीं होनी चाशहएाँ ।
ाआसशलए जो हम नहीं समझते
ाईसे समझदार जैसे नहीं बोलना चाशहए ।
यही गााँधी जी के तीन बांदरों का सूत्र है ।

अहार व्यवहार में जागरूकता बरतनी चानहए ।


ऄथाणत्
बेकार दृश्यों को नहीं देखना चानहए ।
बेकार बातों को नहीं सुनना चानहए ।
बेकार बातों को नहीं बोिना चानहए ।

149
ऄशोक वन
सीता देवी ाऄिोक वन में
ाऄिोक वक्षृ के नीचे
फूट फूट कर रोाइ ां।

क्या यह सच है ?
नहीं
ाआसमें वाल्मीशक का काव्य चातयु ि है ।
ाऄज्ञाशनयों के शलए सांकेत रूप से ,
पशत से ाऄलग होकर शवयोग के कारण
सीता फूट - फूट कर रोाइ ां- ऐसा ाईन्होंने कहा है ।
लेशकन वह महाज्ञानी व योशगनी हैं ।
ाईनके शलए िोक ाऄसांभव है ।
ाआसशलए ाईन्होंने कहा है –

' ाऄिोक वन ' , ' ाऄिोक वक्षृ !’

ाऄ + िोक = ाऄिोक
ाऄथाि त् जहााँ िोक नहीं है , वहााँ ।

 आसनिए सीता माता शोकग्रथत हुइ हैं ,


ऐसा कहना गित है ।

150
सनवराम पररश्रम
पररश्रम करना ही चाशहए ।
तभी कायि शसद्ध होते हैं ,
शवद्याएाँ ाअती हैं और
कलाओां में पूणिता ाअती है ।

लेशकन ाऄशवराम पररश्रम शकसी काम नहीं ाअता है ।


हमेिा सशवराम पररश्रम का शवधान ही सही है ।

स + शवराम = शवराम सशहत


ाऄ + शवराम = शवराम रशहत

ाऄशवराम पररश्रम से ाअरांभ में ही वांचना होती है ।


‘ ाऄशवराम ’ ाऄथाि त् ाऄशतमोह ।

 कभी भी ऄनतमोह नहीं करना चानहए ।


ऄनत सवणदा ऄनथण का कारण है ।
 पररश्रम हमेशा ‘ सनवराम ' ही करना चानहए ।

151
मेनका प्रयोग
वशिष्ठ जैसे तरु तां ब्रह्मशर्ि बनने के शलए
ाऄशवराम पररश्रम कर रहे हैं शव“वाशमत्र ।

ाआन्र ने ाईन्हें देखकर ,


' यह शवधान गलत है , खदु को नक
ु सान पहुचाँ ा रहे हैं ,
यह बात पहले से जानने के कारण ,
ाईन पर तरस खाकर , मेनका को भेजकर
शवराम की सशु वधा बनााइ ।

कुछ महीनों तक मेनका के साथ रहकर ,


शवराम पाने के बाद शव“वाशमत्र
शफर से साधना करके ाऄशचर काल में
ब्रह्मशर्ि बन गए ।

मूखिता से बताि व करने वालों को


सहायता देने वाले हैं ाआन्र ।
लेशकन ाईन्हें शकस तरह शचशत्रत शकया गया है !

 अतुरता हमेशा हाननकारक होती है ।


नकसी में भी क्यों न हो , जीत तभी संभव है
जब धीरे - धीरे से खड़े होने में समथण हों ।

152
दर्त्ात्रेय
मशु न ाऄथाि त् मौनी ।
वाक् से जो मौन है , वह ।
महामशु न का ाऄथि है , शचर्त्वशृ र्त् से रशहत ।

ाऄ + शत्र = ाऄशत्र ाऄथाि त् शत्रगणु से रशहत ।


जो ाऄशत्र है , वही ध्यान के माध्यम से ‘ महामशु न ' होता है ।
जो ाऄशत्र नहीं है , वह शत्रगणु में डूबते - ाईतराते
रहने वाले शत्रगणु ात्मक हैं ।

ाऄपने से ज़्यादा बल , सौंदयि , ाऄशधकार , पद , ज्ञान , सांस्कार ाअशद


शजसमें हैं , ाईनके साथ द्रेर् - ाऄसूया से रहना सवि सामान्य है ।
लेशकन , कभी - कभी शत्रगणु ों को पार करके ,
ाअत्मपर होने के बाद भी एक - एक बार ाऄसूया रह सकती है ।
जैसे शव“वाशमत्र मात्र राजशर्ि और दूसरे तो ब्रह्मशर्ि ।
मनष्ु य को ाऄांशतम रूप से ाअध्याशत्मक ाऄसूया
भी नहीं रहनी चाशहए ।

ाऄथाि त् ाऄशत्र को महामशु न होने पर भी ,


ाऄनसूया के साथ ही सांसार में रहना चाशहए ।
ाऄसूया रशहत शस्थशत ही ‘ ाऄनसूया ' शस्थशत है ।
तभी सबकुछ दर्त्मय होता है ।
सारी शसशद्धयााँ ाईपलब्ध होती है ।
ाआस तरह सारी ाऄि शसशद्धयााँ ‘ दर्त्
हुाइ शस्थशत ही दर्त्ात्रेय शस्थशत है ।

ाआसशलए जीसस ने कहा है


प्रभु के राज्य में प्रवेि करके ,
ाईस सत्य में , ाईस धमि में ही शस्थत रहो ,
153
तब तम्ु हें सब कुछ शमलेगा ।
ाआसी का ाऄथि है ' दर्त्ात्रेय शस्थशत ' ।

 नत्रगण
ु को पार करके ननगणण ु में सदा ,
ऄनसूया नथथनत में नथथत होने के बाद ही ,
सवण नसनद्धयाँ ' दर्त् ' होती हैं ।

154
सात पवणतों का ऄनधपनत
वेंकटे“वर स्वामी
ाऄथाि त् ‘ सात पवि तों वाला ’ ।

सात पवि तों को पार करके जाना चाशहए ।


ाआसशलए लोग कहते हैं ‘ सात पवि तों वाला ।

लेशकन ‘ सात पवि त ' जो हैं ,


वे सात िरीरों को , सात चक्रों को सूशचत करते हैं ।

ाआसशलए शजसने ाऄपने सातों चक्रों को सांपूणि रूप से स्वाधीन करके ,


ाऄपने सात िरीरों को पररपूणि रूप से ाईर्त्ेशजत कर शलया है ,
ाईसे सात पवि तों वाला कहते हैं ।

प्रत्येक परम गरुु सात पवि तों का ाऄशधपशत ही है ।


प्रत्येक ध्यानी को ाऄांत में सात पवि तों वाला बनना ही है ।

 1500 सािों से िगातार योगनथथनत में रहकर ,


ऄब नतरुमि पवणतों में हमारे बीच नथथत होकर ,
मागणदशी बनकर हम सबकी रक्षा कर रहे हैं ।
महायोगी पुरुष वेंकटे“वर थवामी ।

155
पुत्र - पुन्नाम नरक
‘ पनु : नाम नरक ' ।
ाऄथाि त् बार - बार ' नाम ' लेने वाला नरक ।
ाआसका ाऄथि है ‘ पनु जि न्म ' ।

पत्रु ाऄथाि त् वाररस ।


हमारे गणु ों को ाऄपनाने वाला ।
हमारे ज्ञान को ग्रहण करने वाला ।

ाआसशलए पत्रु हमें पन्ु नाम नरक से


पार कराता है ाऄथाि त् हमारे
शिष्यों के माध्यम से ,
हमें ‘ जन्म राशहत्य पदवी ाईपलब्ध होती है ।
पत्रु का ाऄथि िारीररक पत्रु नहीं , मानस पत्रु है ।

 हमारे जैसे अत्मज्ञाननयों को , कुछ िोगों को तो


तैयार करने के बाद ही , जन्मों से छुटकारा नमिता है ।

156
चतुमणख
ु ेन ब्रह्मः
कहते हैं शक ब्रह्मा जी के चार मख ु हैं ।
‘ ाऄहां ब्रह्माशस्म ' - ाआस वेद वाक्य के ाऄनस
ु ार
' ाऄहां ' का ाऄथि ‘ ब्रह्म ' है ।
' मैं ' जो है वही ब्रह्म है ।
' मैं ' का ाऄथि है ‘ ाअत्मा पदाथि '

चतमु ि खु का ाऄथि है ' चार द्रार ।


ाआस ‘ मैं ' से शमलने के शलए चार द्रार हैं ।
चार द्रार ही चार मरु व हैं ।
मैं ' चार तत्त्वों में गोचर होता है ।
वे हैं - मन , बशु द्ध , शचर्त् , ाऄहांकार ।

एक ही व्यशि जब बाप के साथ होता है तो ‘ बेटा ' कहलाता है ।


जब बेटे के साथ होता है तो ' बाप ' कहलाता है ।
जब भााइ के साथ होता है तो ‘ भााइ ' कहलाता है ।
जब पोते के साथ होता है तो ' दादा ' कहलाता है ।
ाआसका ाऄथि यह हुाअ शक –
शवशभन्न पररशस्थशतयों में एक हीं ' मैं ' की
शवशभन्न रूपों में पररगणना की जाती है ।

 जब संकल्प - नवकल्प करते हैं , तब ‘ मन ’ के रूप में


ननत्य ननत्य ऄच्छा बरु ा बोिते समय ‘ बुनद्ध ' के रूप में
ननरन्तर नचन्तन करते समय ‘ नचर्त् ' के रूप में
' मैं ' , ' मेरा ' कहते समय ‘ ऄहंकार ' के रूप में
अत्मपदाथण ऄथाणत् ' मैं ' का नववरण देते हैं ।

157
दुि चतुिय - चार योग
महाभारत में ‘ दिु चतिु य '
मन , बशु द्ध , शचर्त् , ाऄहांकार रूपी
चतमु ि ख
ु को सूशचत करता है ।

मन = दाःु िासन
बशु द्ध = कणि
शचर्त् = िकुशन
ाऄहांकार = दयु ोधन

ाआसी तरह कृष्ण को ' ब्रह्मा ' के रूप में सूशचत शकया गया है ।
' चतमु ि ख
ु ' के द्रारा चार योग सूशचत शकए गए हैं ।

 भनियोग - ऄहंकार ऄथाणत् ' मैं और मेरा भाव का


संपूणण रूप से त्याग करना ।
 कमणयोग - संकल्प - नवंकल्प को ठीक करके मन को
शुद्ध करना ।
 ज्ञानयोग - बुनद्ध का ननश्चय करना ऄथाणत्
ननत्याननत्य नवचक्षण ज्ञान की वनृ द्ध करना ।
 राजयोग - नचर्त्वृनर्त्यों का ननरोध करके
समानध नथथनत को ईपिधध होना ।

158
नचत्रगप्तु
वास्तव में यह ‘ गप्तु - शचत्र ' है ।
गप्तु = रहस्यमय
शचत्र = रेकॉडि
ाऄथाि त् ाअकाशिक रेकॉड्ि स ( Akashic Records )

ाआस प्रपांच में हर एक ाऄपने ाअप


ाअकाि तत्त्व में रेकॉड्ि स को देखकर
भूत , भशवष्यत् और वति मान को समझ सकते हैं ।

वीर ब्रह्मेन्र स्वामी ने ध्यान में ाआन गप्तु शचत्रों को देखकर


‘ कालज्ञान ' शलखा था ।
ाआसी तरह नास्रेडेमस ने भी ।

 प्रत्येक योगी ऄपने नदव्य चक्षु का ईपयोग करके


आन गप्तु नचत्रों के माध्यम से सब कुछ समझते रहते हैं ।

159
दपणदः - दपणहः
शवष्णु सहस्रनाम
एक ज्ञानी के ाऄनांतगणु ों का शववरण है ।
ाईसमें ाआन दो की चचाि ाअती है -
‘ दपि दाः ' तथा ' दपि ह : ' ।
दपि + दाः = दपि दाः ' ाऄथाि त् गवि ,
ाआसका ाऄथि है ाअत्मशव“वास ।
‘ मझ
ु े भी सत्य मालूम है ' , ाआस स्फूशति को पाना ।

ाऄब दपि + हाः = दपि हाः


ाऄथाि त् ाऄशभमान का नाि करना ।
‘ मझ
ु े भी सत्य मालूम है ' ाआस ाऄशभमान का नाि करना ।

 प्रत्येक ज्ञानी को एक तरह का अत्मनवश्वास अता है


और अना भी चानहए ।
 और एक तरह का ऄनभमान जाता है ।
और वह जाना ही चानहए ।

160
गरि कण्ठ
गरल ाऄथाि त् शवर्
कां ठ , शजसने कां ठ में धारण शकया है ।

ाआन दशु नया में जाने - ाऄनजाने


लोग शवर् को ाईगलते ही रहते हैं ।
दिु भावनाओां की ाईत्पशर्त् करते रहते हैं ।
ाआसी को नकारात्मकता ( negativity ) कहते हैं ।
यह नकारात्मकता ही ‘ शवर् ' है ।
हमें ाईसे शनगले शबना ।
ाऄपने कां ठ में धारण करके रख लेना चाशहए ।
ाऄथाि त् ‘ शविद्ध
ु ' चक्र में ही रख कर िद्ध
ु करना चाशहए ।
ऐसा करने वाला ही ' गरल कठ ' है ।

रत्नाकर बाल राजू ने


‘ धम्मपद ' पस्ु तक में ाआसका ाऄच्छी तरह वणि न शकया है ।
जैसे चांर के हलाहल शवर् को ाइ“वर ने ग्रहण शकया है ,
वैसे ही पांशडत भी सभी के गणु ों को ग्रहण करके
मात्र दोर्ों को ाऄपने कां ठ में ही शस्थर कर लेता है ,
व्यि नहीं करता ।

 गरिकं ठ बने नबना कोइ भी , कभी भी


अत्मज्ञानी नहीं बन सकता ।

161
नत्रपुर सन्ु दरी
शत्रपरु सन्ु दरी
देवता = मूशति नहीं है , ाअत्म पदाथि है ।
शत्र = तीन
परु = नगर
सन्ु दरी = जो सदांु र है ।

मूल चैतन्य ही सदांु र है , दराऄसल यही सदांु री है ।


यह मूल चैतन्य प्रकृशत तत्व में तादात्म्य पाकर
क्रमि : तीन िरीर प्राप्त करता है
1 . कारण िरीर 2 . सूक्ष्म िरीर 3 . स्थूल िरीर

ये तीन िरीर ही तीन पोिाक हैं , तीन परु हैं ।


ाअत्म पदाथि ाआस पांचभौशतक लोक में ाअते ही
‘ शत्रपरु सन्ु दरी ' की तरह िोभायमान होता है ।

‘ शत्रपरु सन्ु दरी ' को ' बाल ' नाम से भी पक ु ारा जाता है ।
‘ बाल ' ाऄथाि त् ' शनत्य नूतन ' , ' शनत्य िोभन ।
' ये लक्षण ाअत्म तत्व के एक गणु गण को सूशचत करते हैं ।
ाआसशलए श्री त्यागराज ने ाआस तरह गाया है
‘ दाररशन तेलसक ु ोंशट - शत्रपरु सन्ु दररशन तेलसकु ोंशट
ाऄथाि त् ‘ मागि को पा शलया , मांशजल ( ाअत्मज्ञान ) को भी ।

 ‘ अत्मज्ञान ' को पाने के निए के वि एक ही मागण है –


वह है ' ध्यान ' ।

162
ऄहमेव शरणं मम्
‘ भशियोग ' में
ाअमतौर से हम सनु ते रहते हैं शक
‘ त्वमेव िरणम् मम । '
ाऄथाि त्
‘ तमु ही मेरे त्राता ( रक्षक ) हो । '
यह शस्थशत हमेिा हमें शनवीयि करती है ।
हमेिा त्वमेव ' कहते रहना
‘ ाऄपनी कब्र खदु खोदने के समान है ।’

 आसनिए
हमेशा ‘ ऄहमेव शरणं मम ' कहते रहना चानहए ।
ऄथाणत् ‘ मैं ऄपनी शरण में जाता हँ । ' यही सही
दृक्पथ है ।

163
शेष शयन
िेर् = सपि
िेर् ियन = जो सपि के ाउपर सोया हुाअ है , वह ।

‘ सपि काल ' का प्रतीक है ।


ाआसशलए काल सपि , काल वि होना - ऐसा कहते हैं ।
‘ काल '
समय रूपी ाऄवगाहन से
जो बाहर शनकल ाअया है ,
वही ‘ िेर्ियन ' है ।

शदव्य ज्ञान सांपन्न व्यशि ही िेर्ियन ' है ।


शदव्य ज्ञान शवहीन व्यशि ' काल ' रूपी सपि के
ाऄांधकार में बह जाने वाला है ।

 ‘ मैं अत्मा हँ ' , आस तत्व को जानने वािा प्रत्येक व्यनि


‘ शेषशयन ' ही है ।

164
नशव - तीसरी अँख
कहते हैं शक –
शिव जी की तीसरी ाअाँख है ।
यशद तीसरी ाअाँख खल
ु गाइ तो सब कुछ भस्म हो जाएगा ।

Correct
लेशकन ' शिव ' पद का ाऄथि क्या है ?
क्या के वल शिव जी की ही तीसरी ाअाँख होती है ?

' शिव ' पद का एक ाऄथि है ाअनन्द ' ।


एक और ाऄथि भी है ‘ मांगल कारक ' ।
ाआसशलए शिव ाऄथाि त् ाअनन्दमय ,
मांगलकारक जीवन व्यतीत करने वाला ।

लेशकन शिव पदवी पाना कै से सांभव है ?


जो कोाइ ाऄपनी - ाऄपनी ‘ तीसरी ाअाँख ' ाऄथाि त् ाऄतीशन्रय िशियों
( ESP ) को ाईर्त्ेशजत कर लेते हैं , वे सभी ‘ शिव ' बनते हैं ।

ाआसका ाऄथि यह हुाअ शक के वल शिव जी की ही तीसरी ाअाँख नहीं ,


शजनकी भी तीसरी ाअाँख है , ाईन सबको ' शिव ' कहते हैं ।

जब हमारा शदव्य चक्षु खल


ु ता है ,
तभी हमारा ाऄज्ञान भस्म होता है ।
तभी हमारे काम - शवकार भी भस्म होते हैं ।
काम ‘ शव ’ कार भस्म होकर काम ‘ स ’ कार बच जाता है ।

 ध्यान के माध्यम से ही ‘ तीसरी अँख ' ईर्त्ेनजत होकर


' नशव ' पद प्राप्त होता है ।
165
कृष्ण
कृ = करना
ष्ण = ाईपभोग करना

जो करना है ाईसे पूरा करके


ाईपभोग करते रहने वाला ही कृष्ण है ।

जो जानना है , ाईसे पूणि रूप से जानकर


ाईसके फलों को ाअराम से ाईपभोग करने वाला ही कृष्ण है ।
वह कोाइ भी हो , ' कृष्ण ' ही है ।

क्या करना है ?
ाऄपने बारे में सांपूणि जानकारी प्राप्त करना चाशहए ।
यह जानकारी प्राप्त करने वाला ही कृष्ण है ।
यह जानकारी प्राप्त करने वाला ही परुु र्ोर्त्म है ।
यह जानकारी प्राप्त करने वाला ही नारायण है ।
‘ करने वाला काम ’ करने से पाने वाला फल पाते हैं ।
‘ न करने वाला काम करने से न पाने वाला फल पाते हैं ।
जैसी करनी वैसी भरनी ।

 जैसे देवकी पुत्र कृष्ण बन गया , वैसे ही हम सबको


‘ कृष्ण ' बनना है ।

166
दशरथ - ऄयोध्या
ऄयोध्या - जो योध्य नहीं है , वह ।
‘ योध्य ' ऄथाणत् ‘ नजसे जीत सकते हैं । '
‘ ऄयोध्या ' का ऄथण है नजसे कभी जीत नहीं सकते । '
ाऄथाि त् यह भौशतक िरीर ।

दि = दस
रथ = शजसने रथों को पाया है ।
दिरथ ाऄथाि त् पााँच ज्ञानेशन्रय तथा पााँच कमेशन्रय ।

ाआसशलए दिरथ का ाऄथि है ,


‘ दिेशन्रयों में शस्थत ाऄांिात्मा ।

 ‘ दशरथ ऄयोध्या का पािन कर रहा है ।


आसका ऄथण यह है नक दशेनन्रय सनहत आस
भौनतक शरीर में ऄंशात्मा ननवास कर रहा है ।

167
आन्र - ऐरावत – वज्रायुध
शजसने ाआशन्रयों पर शवजय पााइ है ,
वह ‘ ाआन्र ' है ।

‘ ऐरावत ' ाआन्र का वाहन है


वह सफे द हाथी है ।
हाथी साशत्वक रूप है ।
‘ सफे द ' िद्ध
ु ता को सूशचत करता है ।
ाआसशलए ‘ ऐरावत ' ाऄथाि त् िद्ध
ु सत्त्व ।

िद्ध
ु सत्त्व को जो ाऄपनाता है ,
वह ाआशन्रयों पर शवजय पाता है ।

सभी महान - महान योगी ाआन्र ही हैं ।


ऐसे लोगों की बातों के शलए ,
मजाक के शलए कोाइ शवकल्प नहीं है ।
ाआसशलए ‘ ाआन्र ' का ाअयधु ' वज्रायधु ' है ।

 तप ऄथाणत् ध्यान के माध्यम से ही आन्र की नथथनत


ईपिधध होती है ।
 ‘ आन्द ' बनना हम सबका िक्ष्य होना चानहए ।

168
कल्पतरु - कामधेनु - नचन्तामनण
ाआन्र के पास , देवताओां के पास ,
कल्पतरु - कामधेनु - शचन्तामशण ाअशद रहते हैं ।
ाईनकी प्राशप्त से हम जो चाहें वह पा सकते हैं ।
ाऄपनी ाआच्छाओां को पूरा कर सकते हैं ।

क्या यह सब सच है ?
हााँ ! ये सारे िब्द , ठीक ाअध्याशत्मक सत्यों को सूशचत करते हैं ।
‘ कल्पना ' ाऄथाि त् मनोिशि !
ऐसी कोाइ भी चीज नहीं है , शजसे हम
ाऄपनी मनोिशि से नहीं पा सकते ।

' काम ' ाऄथाि त् ' ाआच्छा ' !


हम प्रबल रूप से जो भी ाआच्छा करते हैं ,
वह तत्क्षण हमारे पास ाअता है ।

ाआसी तरह ‘ शचन्तन ' ाऄथाि त् ' मेधा का ाईपयोग


शचन्तन के माध्यम से सभी समस्याओां को सल ु झा सकते हैं ।

ाआसशलए ' कल्पना ' ही सब कुछ प्रदान करने वाला तरु है ।


' काम ' ही सब कुछ प्रदान करने वाला ' धेनु ' है ।
' शचांतन ' ही सभी समस्याओां को सल
ु झाने वाला ' मशण ' है ।

ये सभी सब के पास ही हैं , कहीं बाहर नहीं । ाऄपनी ाऄांतर् िशियों


को हमें स्वयां ही ाईर्त्ेशजत कर लेना चाशहए ।

 हम ‘ आन्र ' बनें तो हम ऄपने काम , ऄपनी कल्पना और


ऄपने नचंतन के माध्यम से जो चाहें , ईन सब की सृनि कर सकते हैं ।
169
ब्रह्मोपदेश - गुरूपदेश - ईपनयन
जैसे एक ज्योशत दूसरी ज्योशत को जलाती है ,
वैसे ही एक योगी दूसरे को योगी बना सकता है ।
यशद हमें योगी बनना है , तो गरू
ु पदेि ाऄत्यन्त ाअवश्यक है ।

1 . ' ाऄहां ब्रह्माशस्म ' , ' तत्त्वमशस ' की जानकारी देना


ही ब्रह्मोपदेि है ।
2 . मैं ब्रह्म पदाथि हाँ , तमु भी ब्रह्म पदाथि हो , यही
जानकारी देना ही ब्रह्मोपदेि है ।
3 . ' ाईद्धरेदात्मनात्मानम् ' यही गरू ु पदेि है ।
4 . ' ाअनापानसशत ' शिक्षा ही गरू ु पदेि है ।

गरुु के वल मागि शदखाता है ।


लेशकन शकसी का भी ‘ ाईपनयन ' नहीं कर सकता ।
‘ ाईप ' ाऄथाि त् ' और एक
‘ नयन ' ाऄथाि त् ाअाँख
' ाईपनयन ' का ाऄथि है ‘ तीसरी ाअाँख ' , ' शदव्यचक्षु ' ।

ऐसा समझो शक जब शदव्य चक्षु ाईर्त्ेशजत होता है ,


तो ‘ ाईपनयन ' होता है ।

 योग साधना के माध्यम से , कुंडनिनी पूणण रूप से


जागतृ होकर , हमारा ‚ ईप ' नयन खुिता है ।

 ‘ ईपनयन ' की ईपिनधध के बाद ही ब्राह्मणत्व , नद्वजत्व


प्राप्त होता है ।

170
ब्राह्मण – नद्वजत्व
ब्राह्मण ही पूणि रूप से ' शद्रज ' हैं ।
‘ ब्रह्म जनाशत ाआशत ब्राह्मण : ।’
शजसको ब्रह्मज्ञान है , वही ब्राह्मण है ।
ाअमतौर से जन्म से कोाइ भी ब्राह्मण नहीं है ।

योगी ही शद्रज हैं ।


' शद्रजत्व ' ाऄथाि त् दूसरा जन्म ।

पहला जन्म
माता शपता से प्राप्त जन्म को सूशचत करता है ।
यह हमारे भौशतक िरीर को सूशचत करता है ।
दूसरा जन्म
हमारे पूणाि त्मा को सूशचत करता है ।

योग साधना के माध्यम से पूणाि त्मा के साथ ,


शजन्होने ाऄनस
ु धां ान प्राप्त शकया है , वे ही शद्रज हैं ।

जीसस ने कहा है शक ,
‚ मैं एक देव पत्रु हाँ ।’’
ाऄथाि त् वह एक शदव्यात्मा से ाअया हुाअ ाऄांिात्मा है ।
प्रत्येक जीव शदव्यात्मा से ाअया हुाअ ाऄांिात्मा ही है ।
लेशकन ज्यादा लोग तो ाआसके प्रशत ाऄनशभज्ञ ही हैं ।
जानने वाले बहुत कम हैं ।

 ‚ हम ऄंशात्मा हैं । आसे जो समझते हैं ,


वे ही ब्राह्मण हैं , नद्वज हैं ।

171
यज्ञोपवीत
शजसको ाईपनयन हुाअ है ,
जो ब्राह्मणत्व पाकर शद्रज बना है ,
वह यज्ञोपवीत को धारण करता है ।

' ाईपनयन ' ाऄथाि त् ' शदव्यचक्षु '


' यज्ञोपवीत ' ाऄथाि त् ' यज्ञ ' रूपी ‘ ाईपवीत '
' यज्ञ ' ाऄथाि त् ‘ दूसरों के सेवाथि शकया जाने वाला कमि ,
' स्वाथि रशहत कमि ' ाऄथाि त्
लोक कल्याणकारी कायि ।

‘ ाईपवीत ' ाऄथाि त् ' कपडा ' , ' कपास का डोरा '
शजसको ाईपनयन हुाअ हैं , वह यज्ञोपवीत धारण करता हैं ।
ाऄथाि त् शदव्यचक्षु को ाईपलब्ध योगी ।

ाऄब ाऄपने साशथयों के ाअत्मज्ञान की ाऄशभवशृ द्ध के शलए ,


ाऄपनी सांपूणि िशि और यशु ि से सहायता करता है ।

 ‘ ज्ञानानग्न दग्ध कमाणणाम् ’ ज्ञान रूपी ऄनग्न में


ऄशुभ कमण दहन होने के बाद बचे हुए शुभ
और ननथवाथणपूणण कमण ही ' यज्ञ ' हैं ।

 आसनिए जीसस ने अदेश नदया है-


‘ ऄपने सानथयों को भी ऄपने जैसा ही प्रेम करो '
ऄथाणत् यज्ञोपवीत को धारण करो ।

172
ननत्यानग्नहोत्र
ब्राह्मण के शलए शनत्याशग्नहोत्र ' कति व्य है ।
ब्राह्मण ाऄथाि त् ' शदव्य चक्षु को ाईपलब्ध योगी । '
‘ ब्रह्मज्ञान प्राप्त व्यशि ' ।

एक परम गरुु का कति व्य क्या है ?


' शनत्याशग्नहोत्र । '

‘ ाऄशग्नहोत्र ' का ाऄथि है ‘ ाऄशग्न को प्रज्वशलत करना । '


शनत्याशग्नहोत्र ' का ाऄथि है-
‘ शनरांतर ाऄशग्न को प्रज्वशलत करते रहने वाला '
ज्ञान प्रकाि को 24 घण्टे शवराजमान रखने वाला व्यशि ।

‘ाऄशग्न ' ाऄथाि त् ' ज्ञान ाऄशग्न ' ।


ाऄथाि त् तलु सीदल का पहला पर्त्ा ।
ाआसका ाऄथि है ' ाईद्धरेदात्मनात्मानम् ’ ।
‘ाऄशग्न ' ाऄथाि त् ‘ योग ाऄशग्न भी ' ।
ाऄथाि त् तल ु सीदल का दूसरा पर्त्ा ।
ाआसका ाऄथि है ' शनरांतर कांु डशलनी योग साधना ' ।
एक योगी , योगी बनने के बाद भी
ाऄपनी साधना में शनरांतर मग्न रहता है ।
ाऄपनी ज्योशत को कभी कम नहीं होने देता ,
हमेिा सावधान रहता है ।
दूसरों की ज्योशत को देदीप्यमान करने के शलए ,
हमेिा कर्त्िव्यरत रहता है ।

 प्रत्येक योगी ननत्यानग्नहोत्र ही है ।

173
संध्यावन्दन
‘ सांध्या ' ाऄथाि त् ‘ बीच का समय '
वह शदन भी नहीं है , रात भी नहीं है ;
रात भी नहीं है , शदन भी नहीं है ।
सांध्या समय पररवति न ' का समय है ।
रात बीत कर शदन ाअने का समय ,
शदन बीतकर रात ाअने का समय ।

प्रकृशत हर समय रमणीय रहती है , शफर भी


सांध्या समय में ाईसकी रमणीयता ाऄदभतु रहती है ।
सांध्या समय के शलए ाअवश्यक , प्रत्येकता में शनमग्न रहना ही ,
‘ सांध्यावन्दन ' करना है ।

' वन्दन ' का ाऄथि है ‘ गौरव सशहत पहचानना । ’


सांध्या समय काइ ाअध्याशत्मक पाठ शसखाता है ।
ाईदाहरणाथि : - ‘ सब कुछ बदलता रहता है । '
‘ कुछ भी शस्थर नहीं रहता । '
' पररवति न को रोकना ाऄसम्भव भी है और ाऄवाांछनीय भी । '
यही बद्धु का मौशलक सूत्र है ।
‘ सांध्यावन्दन ' करने का ाऄथि है , ' प्रकृशत जो हमें शनरांतर
ाअध्याशत्मक पाठ शसखाती रहती है , ाईन्हें गौरव सशहत
पहचानकर ाईनका पालन करना । '
ाआतना ही नहीं , प्रकृशत से तादात्म्य होकर
ाआसकी रमणीयता का ाअस्वादन करने से ,
हमारे भीतर शव“व प्राण िशि दगु नु ी होती है ।

 आसनिए ननयनमत रूप से ‘ संध्यावन्दन ' करना चानहए ।


ईसके माध्यम से नदन का ज्ञान , अनन्द और शनि
हमारे भीतर समानहत हो जाती है ।
174
ऄंशात्मा – पूणाणत्मा
हम ाऄांिात्मा हैं ।
ाऄथाि त् ाऊशर् पत्रु हैं ।
' नीचे रहने वाले ाअत्मा हैं ।

ाआसका ाऄथि है , ' सत्यलोक ' में ाऄथाि त्


' महाकारण लोक ' में शस्थत एक ही
पूणाि त्मा के एक ही एक ाऄांि हैं ।

जब हम पूणि रूप से पररणशत प्राप्त करते हैं ,


तब हम भी ाईस शनवाि ण लोक में प्रवेि करते हैं ।
तब हम ाऄपने से नूतन ाऄांिात्माओां की सशृ ि करते हैं ।
ाऄथाि त् ' सशृ िकताि ' की पदवी प्राप्त करते हैं ।

 ध्यान में पराकाष्ठा ऄथाणत् ‘ द्वा सुपणाण ' नामक


ऊग्वेद के वाक्यों में वनणणत दूसरा पक्षी ।
ऄथाणत् उपर रहने वािा पक्षी ।

175
मानस पुत्र
जब हम पूणाि त्मा की शस्थशत को पहुचाँ ते हैं ,
तब हम ाऄपने से ाऄांि ( ाऄांिात्मा )
को ाऄलग करते रहते हैं ।
वे ही मानस पत्रु हैं ।

तब ाईनको ' नीचे ' शस्थत कारण लोक में भेजकर ,


ाऄपने स्वयां के कायि में रहकर भी ाईनके
घटना क्रम को देखते रहना भी होता रहता है ।

ाआन्हें ( ाऄांिात्माओां को ) भी यथाक्रम , यथाशवशध ,


जन्म मरण के चक्र में प्रवेि करके ,
सभी पाठों को सीखना ही चाशहए ।
वे स्वेच्छानस ु ार शवहार करते रहते हैं ,
परु ोगमन करते रहते हैं ।

 हमारे पूणाणत्मा बन कर पररवनतणत होते ही ,


हम से ऄपने मानस पुत्रों की सृनि करना
शुरू हो जाता है ।
 प्रत्येक पूणाणत्मा भी एक ब्रह्म हैं । आस निए सभी
मानस पुत्र , ब्रह्म मानस पुत्र हैं ।

176
मत्ृ यु - ननरा - ध्यान
मत्ृ यु - - शनरा - ध्यान
ये सभी हमारे ाऄपने स्थूल िरीर को
छोड़ने की प्रशक्रयाएाँ ही हैं ।

‘ मत्ृ यु ' में िा“वत रूप से िरीर को छोड़ते हैं ।


‘ शनरा ' में ाऄनजाने में ही हम ाऄपने िरीर को
छोड़कर कुछ घण्टों के बाद शफर से
ाऄनजाने में ही िरीर में प्रवेि करते हैं ।

‘ ध्यान ’ में हम पूणि जागरूकता से िरीर को छोड़कर ,


सूक्ष्म िरीर यात्रा के बाद ,
पूरे ज्ञान के साथ शफर से
स्थूल िरीर में प्रवेि करते हैं ।

 ध्यान से हमें ननरावथथा में की गइ यात्राएँ ज्यादा


थमरण रहती हैं ।
 आतना ही नहीं , वे यात्राएँ ज्यादा ईपयोगी भी होती हैं ।
 ध्यान के माध्यम से मरणोपरान्त जीवन के बारे में
भी हम समझ पाते हैं ।

177
ननरावथथा
शनरावस्था हमें ाऄवश्य चाशहए ।
ाईसमें हम स्थूल िरीर को छोड़कर ,
सूक्ष्म िरीर के साथ काइ
दूसरे लोकों में शवहार करते हैं ,
काइ प्रयोग करते हैं ,
भूत , भशवष्य की खोज करते हैं ,
काइ लोगों के साथ शमलते हैं ।

शनरावस्था में िरीर छोड़ने के बाद


हमें जो ाऄनभु व होते हैं ,
िरीर में वापस ाअने के बाद भी
कुछ ाऄनभु व याद रहते हैं ।
ाआन यादों को ही स्वप्न कहते हैं ।

ाऄमूल्य शनरावस्था में हम –

 नए नवषय सीखते हैं ।


नइ शनियाँ प्राप्त करते हैं ।
 भौनतक शरीर को ऄत्यावश्यक नवश्रांनत देते हैं ।
 भौनतक जीवन की समथयाओं के निए समाधान का
मागण असानी से जान िेते हैं ।
 भौनतक रूप से ऄपूणण आच्छाओं को भी अराम से
पूणण कर िेते हैं ।
 आन आच्छाओं को हम अराम से सूक्ष्म िोकों में पूणण
कर सकते हैं ।

178
भ्ोगी – भ्योगी
भोगी + रोगी = भ्रोगी
भ्रोगी = शजसको भोग व रोग दोनों हैं ।
ाअध्याशत्मक ज्ञान व जीवन मागि जो नहीं जानते ,
वे हैं भ्रोगी । प्रापांशचक रूप से 99 . 99 % लोग
भोग और रोग का शदन रात ाऄनभु व करते रहते हैं ।

भोगी + योगी = भ्योगी


भ्योगी = शजसको योग व भोग दोनों हैं ।
ाअध्याशत्मक ज्ञानी बनकर सही जीवन मागि
में रहने वाले ही भ्योगी हैं ।

दराऄसल सभी योग को ही चाहते हैं ,


यही सभी का गम्य भी है ।
लेशकन शफर भी शनत्य योगी बने रहने
के मागि को देखते ही नहीं ।
योग के माध्यम से ही सभी रोग जाते हैं ।
रोग िारीररक और मानशसक सभी ।

योग का ाऄथि है ‘ ाऄनस ु धां ान ' ाऄथाि त्


' ाऄपने पूणाि त्मा में तादात्म्य ' ,
‘ चारों ओर शस्थत प्रकृशत के साथ ाऄनस ु धां ान । '

‘ मैं ाऄलग हु ाँ , बाकी सब कुछ ाऄलग है ।


‘ दूसरों को शमटाने से मैं ाऄच्छा रहता हाँ ,
ऐसी भावनाएाँ जब तक रहती हैं ,
तब तक शनf“चत रूप से रोग ाअते ही हैं ।

179
ये सारे ाऄज्ञान भाव योग के माध्यम से
ाऄनभु वपूविक दूर शकए जाने चाशहएाँ ,
तो जो बाकी बचता है ,
वही हैं शनत्य भोग ।

 योगे“वर ही भोगे“वर हैं ।


जो कोइ ननत्य भोगी बनना चाहते हैं ,
ईन्हें तो अवश्यक रूप से योग सीखना ही चानहए ।

180
गत - ऄवगत - नवगत
‘ गत ' ाऄथाि त् ' हमारी भूत शस्थशत ' ।
जन्म से लेकर ाऄब तक की ,
समस्त कायि कलापों की सूची ।
और भी पीछे जाएाँ तो शपछले जन्म की कथाएाँ ।

' ाऄवगत ' ाऄथाि त् ‘ समझ में ाअना ' ,


ाऄव का ाऄथि ' पीछे ाअना ' भी है ।
जैसे िब्द हैं - ाऄवरोहण , ाऄवतार ाअशद ।
पीछे ाअना ाऄथाि त् ' ररवसि गेर ' डालना ।

‘ गत ' का ( जो पीछे हुाअ है )


‘ ररवसि गेर ' में पररिीलन करने से ही ,
जो पहले हुाअ है , वह पूणि रूप से
ाऄवगत होकर ' शवगत ' होता है ।

' गत ' ' ाऄवगत ' होकर ' शवगत ' होने के बाद ही
भशवष्य के शलए स्वणि मागि बनता है ।
‘ गत ' पूणि रूप से ाऄवगत ' नहीं हुाअ तो
वह ' गत ' बार - बार पनु रावर्त्
ृ होता रहता है ।
की गाइ गलशतयों को बार - बार करते रहना चलता ही रहता है ।
तब जीवन चशवि त-चवि ण बन जाता है ।

ाआसशलए हमेिा ' फॉवडि गेर ' में ही नहीं ,


कभी - कभी ररवसि गेर ' में भी जाना चाशहए
ाऄथाि त् हर शदन , चपु चाप ाअाँख बांद करके ,
श्वास को गमन करते देखने को बैठने के शलए

181
थोडा समय व्यय करना चाशहए ।
तब ' गत ' की प्रत्येक घटना पहले मनोपटल पर ,
बाद में हमारे शदव्यचक्षु में भी बार - बार प्रत्यक्ष होकर ,
समझ में ाअने लगती है ।
जो भी समझ में ाअता है ,
वह ' शवगत ' होकर शमट जाता है ।
जो ' गत ' नहीं शमटता , वह बार – बार
वति मान में ाअकर पीड़ा देता रहता है ।

 ‘ ररवसण गेर ' में समय यापन करने का ऄथण हैं


ध्यान में नथथत रहना ।
तभी ‘ गत ' ‘ ऄवगत ' बनकर ‘ नवगत ' हो जाता है ।

182
ऄप्पो दीपो भव
बद्ध
ु द्रारा
ाऄपने जीवन में ,
ाऄपने शप्रय शिष्य ाअनन्द को शदया हुाअ
ाऄांशतम सांदेि ाआस प्रकार है-
‘ ओह ाअनन्द ! तमु स्वयां ाऄपना प्रकाि बनो !
दूसरों पर कभी भी शनभि र नहीं रहना !
तमु श्रद्धा से ाऄपनी मशु ि प्राप्त करो ! '

' ाऄप्पो दीपो भव ' ाऄथाि त् '


तमु स्वयां ाऄपना प्रकाि बनो '
ाऄप्पो = तमु स्वयां ाऄपने शलए
दीपो = प्रकाि
भव = बनो

 ‘ तुम थवयं ऄपना प्रकाश बनो ' यही परम सत्य है ।


‘ तुिसीदि ' के सभी पाठकों के निए यही संदेश है
‘ ऄप्पो दीपो भव ' ।

183
मेरा राथता रेनगथतान
मेरा नाम है शभखारी , मेरा रास्ता है रेशगस्तान ;
जहााँ मन , वहााँ महल , नहीं तो बस स्थानाांतरण ।

मैं बाग का भााइ , नदी का बेटा ।


गीत है मेरा साथ , पांछी है साथी
। न कभी गम न थकान , बस खिु ी ही खिु ी
दराऄसल मेरा दूसरा नाम है ाअनन्द शवहारी ।

जागकर सपना देखा , बादलों के महलों पर


शबजली की चमक जैसे , शप्रयतम को कशल्पत कर
ाईसे शमलने , चढ़कर ाआन्रधनर्ु की पालकी में
ाअसमान की गशलयों में यात्रा करने वाला यात्री हाँ मैं ।

खाने का मैं गरीब , सांकल्प ही मेरा धन


गणु ों में ाऄमीर , साहस ही मेरा बल
कभी न कभी यह गरीब , बनके ही रहेगा नवाब
तब तक मैं रहगाँ ा एक शनरांतर सांचारी ।

- पाल गम्ु मी पद् मराज


श्री राजे“वरी शवलास कॉफी
क्लब 1973

184
यह एक ऄद्भुत गीत है ।
ाआस गीत में ाअध्याशत्मक ज्ञान ,
ाअत्मशवकास ही भर गया है ।
' मेरा रास्ता रेशगस्तान ' ाऄथाि त् ' बाहर सभी िून्य है ।
' मेरा नाम है शभखारी ' ाऄथाि त् ' भीतर सभी िून्य है ।

ाआस शस्थशत में सदा रहने वाला ही ज्ञानी है ।


ाईसके शलए कहीं खास जगह नहीं है ।
सभी जगह ाईसकी और ाईसी के शलए हैं ।
जहााँ मन चाहता है , वहााँ महल बनाता है ।
काम के बाद बस वहााँ से शनकल पड़ता है ।

1 . ' बाग ' ाऄथाि त् ‘ वक्षृ साम्राज्य ' ( Plant Kingdom )


‘ बाग का भााइ ' ाऄथाि त् पेड़ - पौधे ही सहयात्री बन गए हैं । '
‘ नदी ' , ' ख़शनज धातओ ु ां के साम्राज्य ' ( Mineral Kingdom )
को सूशचत करती है ।
' नदी का बेटा ' ाऄथाि त् ाआस बात का ज्ञानी शक
‘ खशनज धातओ ु ां से मैं पैदा हुाअ हाँ । '
' गीत है मेरा साथ ' ाऄथाि त्
‘ ाऄपना गीत ही ाऄपना साथी है ' ,
और ाऄपना साथी वह स्वयां ही है ।
ाईसे दूसरों के साथ की जरूरत नहीं हैं ।
‘ पांछी ' ‘ जन्तु साम्राज्य ' ( Animal Kingdom )
को सूशचत करता है ।
‘ पांछी हैं मेरे साथी ' ाऄथाि त् ‘ जीव जांतओ ु ां के साथ
सह जीवन करने वाला '
ाआस तरह प्रकृशत के समस्त जीव कोशट के साथ
185
शमल जल ु कर रहने के कारण
ज्ञानी को कभी भी गम नहीं है ।
वह हमेिा खिु रहता है ।
‘ थकान ' ाईसे कभी होती ही नहीं ;
ाआसशलए वह है शनरांतर ' ाअनन्द शवहारी ’ ।

2 . ' जागकर सपना देखना ' ाऄथाि त् ' ध्यान में


सूक्ष्म िरीर यात्राएाँ ( Astral Travel ) करना ।
' बादलों के महल में ' ाऄथाि त् ' ाउध्वि लोकों में ’ ।
‘ शबजली की चमक जैसी शप्रयतम ' ाऄथाि त् ।
‘ कौंधता हुाअ , ाऄत्यन्त शप्रय , सवि िशिमान
ाऄपने पूणाि त्मा ाऄथाि त् overself को
‘ कशल्पत कर ' ाऄथाि त् ‘ पहले शसद्धाांत रूप में समझकर '
‘ ाआन्रधनर्ु की पालकी ' ाऄथाि त् ‘ ाअत्मज्ञानी ' ,
शजसने ाऄपने सातों िरीरों को शक्रयािील कर शलया है ।
ाईसे सूशचत करता है ।
‘ चढ़कर ' ाऄथाि त् ‘ ाईस योग की सहायता से
ाअकाि मागि में चलने वाला यात्री हाँ
ाऄथाि त् ' शव“व सूक्ष्म लोकों के यात्री बनना । '
गरूु पदेि प्राप्त करके ध्यान प्रशक्रया द्रारा
पूणाि त्मा का ध्यान पाकर ाउध्वि लोकों में
प्रयाण करने वाला योगी ।

3 . खाने में गरीब हाँ , लेशकन गणु ों में ाऄमीर हाँ ।


सांकल्प िशि ही मेरा धन , साहस मेरा बल ।
' गरीब ' ाऄथाि त् िैिवात्मा ,
' नवाब ' ाऄथाि त् पूणाि त्मा या सहशवधाता ।
कभी न कभी , कहीं न कहीं
पूणाि त्मा के स्तर तक पहुचाँ जााउाँगा ।
186
हर छोटा बालक सहज रूप से कै से बढ़ता है ?
हर पौधा कै से वक्षृ बनता है ?
वैसे ही कभी भी , कहीं भी ब्रह्मशर्ि जरूर बनूगां ा ।

' नवाब होने तक शनरांतर सांचारी ' ाऄथाि त्


शनरांतर सांचार करके , सबको बोधन करके ,
सबको ाईर्त्ेशजत करता ही रहता है ।
कभी भी ाऄांदर की िून्यता ,
बाहर की िून्यता को न भूलने वाला ।

 वही अनन्द नवहारी !


 वहीं अकाश मागण में प्रयाण करने वािा यात्री !
 वही होने वािा नवाब !
 वही तथागत !

सुभाष पत्री

187
समनपणत है
तलु सीदल ब्रह्मशर्ि पत्री जी की प्रथम स्वरशचत पस्ु तक है , शजसे ाईन्होंने तेलगु ु भार्ा में शलखा था ।
ाईनकी ाआच्छा हमेिा यह रही शक ाईनकी ाआस पस्ु तक के दोनों भागों का ाऄशधकाशधक भार्ाओां में
रूपान्तरण हो ताशक यह जनसाधारण तक पहुचाँ सके और ाईनके काांसेप्ट् स को हर साधक तक पहुचाँ ा
भी सके । ाआस ाऄशभयान को समस्त भारत में पहुचाँ ाने के शलए यह ाऄशत ाअवश्यक भी था ।

2008 में जब मैं शपराशमड शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटीज मूवमेंट के साथ जड़ु ी और मैंने ‘ ध्यान भारत ' में
शलखना िरू ु शकया तब मझ ु े तक तल ु सीदल ( शद्रतीय ) के शहन्दी ाऄनवु ाद की एक हस्तशलशखत प्रशत
पहुचाँ ााइ गाइ ाआस ाऄनरु ोध के साथ शक मैं ाआस प्रयास में यथावश्यक सांिोधन करके ाईसे पस्ु तक रूप में
प्रस्ततु करूाँ । मेरे शलए यह एक चनु ौती थी । एक ाआतने महान् गरुु की रचना , वह भी ऐसी शजसमें ाईनके
सभी ाअध्याशत्मक कााँसेप्रस सांगहृ ीत थे , को मैं शकस प्रकार शहन्दी में पनु : प्रस्ततु करूाँ जबशक मैं
स्वयां मूल भार्ा से पूरी तरह ाऄनशभज्ञ हाँ । तब ध्यानरत्न श्री पी . वी . रामा राजू , जो ाईस समय
चण्डीगढ़ में काम कर रहे थे , की मदद से मैंने लगभग तीन महीने में तल ु सीदल ( शद्रतीय ) का
रूपान्तरण शहन्दी में शकया और 2009 में मझ ु े वह पस्ु तक पत्री जी के हाथों में सौंपने का सौभाग्य शमला
। ाआस पस्ु तक में ब्रह्मशर्ि पत्री जी ने जो प्राक्कथन शलखा ाईसमें ाईन्होंने यह िभु ेच्छा व्यि की शक मेरे
हाथों ाऄन्य ाऄनेक ऐसी पस्ु तके साधकों के हाथों में पहुचाँ े । ाईस समय तो मझ ु े यह काम ाऄकल्पनीय
लगा था परन्तु ाअज यह एक सत्य बन चक ु ा है , यह मेरी बारहवीं पस्ु तक है जो मैं ाईनके चरणों में
समशपि त करती हाँ ।

यह एक ाऄद् भतु सांयोग है शक मैंने तल ु सी दल ( शद्रतीय ) का पहले ाऄनवु ाद शकया और


तल ु सीदल का बाद में । मेरे ाआस सोसााआटी में ाअने से पूवि तल
ु सीदल का शहन्दी में रूपान्तरण प्रकाशित
हो चक ु ा था पर वह पस्ु तक सवि सल ु भ नहीं थी । तल ु सीदल ( शद्रतीय ) का जब प्रकािन हो गया ,
ाईसके बाद मझ ु े तल
ु सीदल की भी एक प्रशत पहुचाँ ााइ गाइ ताशक ाईसे भी सांिोशधत व पररमाशजि त कर
प्रकाशित कराया जा सके । मैं चाह कर भी यह नहीं जान पााइ शक यह श्रमसाध्य काम पहले शकसने
शकया था क्योंशक ाईस पस्ु तक में कहीं भी यह नाम ढूाँढें से नहीं शमला । कुछ समय पूवि मझ
ु े शकसी शमत्र ने
ाऄपनी कुछ पस्ु तकें भेजीं और ाईनके साथ ही ' ध्यान भारत ' पशत्रका की एक बहुत परु ानी प्रशत भी ,
जो 2004 में छापी गाइ थी । ाईसमें श्री जीवांधर के तप्पनवर जी का ाऄपना ध्यानानभु व भी था शजसमें
188
ाईन्होंने शलखा था शक स्वयां ब्रह्मशर्ि पत्री जी ने ाईनसे तल ु सीदल का शहन्दी में ाऄनवु ाद करने को कहा था
और ाऄब वे यह कायि पूणि कर चक ु े हैं । मैंने पशत्रका का प्रथम पष्ठृ खोलकर देखा , मख्ु य सांपादक भी
वही थे और ाईनका शचत्र भी वहााँ था । ाआस प्रकार मैं जान पााइ । शक यह काम ाईन्हीं ने शकया है । ाऄनेक
प्रयासों के फलस्वरूप मैं ाईनसे सांपकि कर पााइ बात हुाइ और सब कुछ स्पि हो गया ।

मझ
ु े कुछ महीने पूवि स्वयां पत्री जी मूल ' तल
ु सीदलम् ' के सांिोशधत व पररवशद्धि त रूप
का शहन्दी रूपान्तर करने को कह चक ु े थे पर मैं नहीं समझ पा रही थी शक क्योंकर ाआस ाऄनूशदत रचना
को ाऄनदेखा करके मैं ाआस काम को कर सकूाँगी और ाआस पर ाऄपना नाम दे पााउाँगी । परन्तु जैसे ही
के तप्पनवर जी से सांपकि सधा , सब कुछ ाअसान हो गया । ाईन्होंने न के वल तल ु सीदल के पररवशद्धि त व
सांिोशधत सांस्करण का रूपान्तरण कायि करने के शलए प्रसन्नता प्रकट की बशल्क ाऄपनी पस्ु तक के
ाऄांिों को ाआस्तेमाल करने को सहर्ि ाऄनमु शत भी दी शजसके शलए मैं ाईनकी ाअभारी हाँ । ाआस कायि के
शनष्पादन हेतु मैं शविाखापट्टनम की सीशनयर शपराशमड मास्टर मैडम रेवती देवी की भी रृदय से ाअभारी
हाँ शजन्होंने ाआस काम को समापन तक पहुचाँ ाने में मेरी बहुत मदद की । ाऄपने व्यस्त जीवन से कुछ शदन
शनकाल कर वे स्वयां चण्डीगढ ाअाइ और मेरे साथ बैठकर पूरी पस्ु तक के एक - एक िब्द को शहन्दी में
रूपान्तररत करने में ाऄपूवि धैयि का शनवि हण करते हुए ाऄमूल्य योगदान शदया । ाईनके सहयोग के शबना
ाआस कायि का सम्पादन सम्भव नहीं था ।

प्रस्ततु रचना मैं ब्रह्मशर्ि पत्री जी को ही समशपि त करती हाँ । ाईन्होंने यह कायि मझ
ु े सौंप कर न
के वल मझ ु में ाऄपना शव“वास प्रकट शकया है बशल्क ाआस माध्यम से मझ ु े ाऄपनी सांकल्पनाओां को गहरााइ
से समझने का ाऄवसर भी शदया है । मैं डॉ . जीवांधर के तप्पनवर और मैडम रेवती देवी के प्रशत कृतज्ञ
रहगां ी शजनके योगदान के फलस्वरूप यह पस्ु तक ाआस पररधान को धारण कर ाअज ाअपके हाथों में है ।

चण्डीगढ़
शदसम्बर 2012
सन्तोर् कालरा

189
मेरा पररचय
ाआस बार ाऄपनी ाआस भौशतक यात्रा हेतु ,
मैंने चनु ा है माता साशवत्री देवी , शपता रमणराव जी को ।
सन् 1947 में िरीर का धारण हुाअ ।

ाअध्याशत्मक ज्ञान का शवस्तार ही


शपछले पााँच जन्मों से शकया जा रहा हैं ।
ाआस बार की ाआस यात्रा का कारण भी वही है
लेशकन ाआस भूलोक के शलए वही ाऄांशतम नजर है ।
और ाईर्त्रोर्त्र ाऄनेकानेक ाउध्वि लोक हैं ।

चनु ी हुाइ पत्नी है - स्वणि माला ।


मझु े चनु कर ाअाइ हैं - पररशणता , पररमला ।
ाऄब सभी योगी ही हैं ।

1976 में शमत्र रामचेन्ना रेड्डी के द्रारा ाऄध्यात्म से पररचय


1979 में गत जन्मों की स्मशृ तयााँ िरूु हुाइां
1981 से 1983 तक सदानांद योगी जी से पररचय
और सेवा करने का भाग्य शमला ।
तब से ाअध्याशत्मक प्रचार का ाअरांभ ।
ाऄब एक ही लक्ष्य है –
सभी को योगी व ज्ञानी बनाकर रूपान्तररत कर देना ।

1990 में कनि ूल में ाईद्योगपशत बी .वी .रेड्डी से मल


ु ाकात ।
कनि ूल में ' बद्ध
ु शपराशमड ध्यान के न्र ' की स्थापना ।
' द कनि ूल शस्पररचाऄ
ु ल सोसााआटी ' का ाऄवतरण ।
1992 में कोरामण्डल ाईद्योग से शनष्क्रमण ।
ाआसी समय ाऄनन्तपरु िहर में प्रवेि ।
एन .पी .सांपत कुमार के साथ शमत्रता ।
190
फलस्वरूप ' शपराशमड ध्यान के न्र ाऄनांतपर ' बना ।
1993 में प्रोद्दटु ू रु , ाईरवकोंडा , गांतु कल शस्पररचाऄ
ु ल सोसााआटीज ।

1994 में शतरूपशत शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी ।


कडप्पा , धमि वरम् , कशदरर , पीलेरू , ब्राह्रापशल्ल , रायदगु ि म् ,
शहांदूपरु म् , ाअदोनी ाअशद ाऄनेक ध्यान के न्रों की स्थापना ।
1994 में Be A Master की रचना ।

1995 में स्वामी सदानांद ाअश्रम , नांदवरम् व शपराशमड ध्यान के न्र


तेनाली की स्थापना ।
1996 में नेल्लूर , नरसरावपेटा , नागलशदन्ने , गद्वाल ाअशद
शस्पररचाऄ
ु ल सोसााआटीज और ाईरवकोंडा में
लोब साांग राांपा शपराशमड ध्यान के न्र का ाअरांभ ।

1997 में शविाखापट्टनम , एशम्मगनूर , शवजयवाड़ा , श्रीकालाहशस्त ,


रायदगु ि , बल्लारी , बेंगलोर , हॉसपेट , साांगली शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटीज ।
1997 में ाऄनेकानेक शपराशमड पस्ु तकों और पशत्रकाओां का मरु ण ।
1998 में भोपाल , जयपरु ( राजस्थान ) , ाईज्जशयनी , मांबु ाइ , मैसूर ,
रायपरु , ाअदोनी , नशन्दयाला , मदनपशल्ल , कडप्पा , एलमनचशल्ल ,
ताशडपशत्र , गर्त्ु ी , नूशजवीडु , जयपरु ( ाईड़ीसा ) , पामरू , ाअलवाल ,
गांटु ू र गशु डवाडा , राजमांदु री , औरांगल , ाऄनकापशल्ल ,
श्रीकाकुलम् , शवजयनगरम् , पशर्त्कोंडा शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटीज ।
1998 में लगभग तीस द्रैमाशसक ध्यान पशत्रकाओां का ाअयोजन
ाऄनेकानेक ध्यान के न्रों की सहायता से ।

1999 में शचर्त्ूर , वायलपाडु , कशलचेरला , गडु ू रु , वेंकटशगरर ,


जगशतयाला , कम्मम , एलुरु , पलमनेरु ाअशद
शपराशमड शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटीज का ाऄशवभाि व ।
ाऄहमदाबाद , कलकर्त्ा , शदल्ली , सूरत , मरास तथा

191
शसांगापरु व हाांगकाांग में ध्यान शिक्षण कक्षाएाँ ।
यह है प्रस्ततु जीवन यात्रा की शविेर्ताएाँ –

शनरन्तर स्वाध्याय से ज्ञानमय !


शनरन्तर योग - शमत्रों को सांगशत से ाअनन्दमय !
जीवन के प्रत्येक पल का साथि क ाईपयोग हो रहा है ।
यही है मेरा पररचय !
- सुभाष पत्री
माइ , 1999 हैदराबाद

192
कृतज्ञता

बहुत शदनों के बाद ाआस पस्ु तक की रूप - कल्पना शसतम्बर 1994 में गन्तकल
में हुाइ ।

पस्ु तक - रूप - कल्पना के समय जो जो सांिोधन शकए गए ाईसके शलए मैं


स्वगीय वी . वी . बालकृष्ण , कनि ूल का हमेिा कृतज्ञ रहगाँ ा ।

ड्राफ्ट तैयारी में ाऄपना योगदान करने के शलए ाऄनांतपरु के मास्टर पी . रमना
का ाऄशभनन्दन !

पस्ु तक शलखने के शलए गन्ु तकल शस्पररचाऄ


ु ल सोसााआटी के मास्टसि श्री टी .
मरु लीधर , के , शवजय कुमार और जी . नरशसांहयै ा जी को धन्यवाद !

- सुभाष पत्री

193
तुिसीदि
ाईस शदन 13 नवांबर 1994 को
शतरूपशत शस्पररचाऄु ल सोसााआटी के साथ
शतरूपशत से पीलेरू जा रहे थे ध्यान - क्लास लेने के शलए ।
मेरे साथ थे मास्टर शमट्टा श्रीशनवासल
ु ु,
कॉच रघरु ाम , िेखर , मनु स्ु वामी और मैडम ाईदय लक्ष्मी ।
बस में यात्रा करते समय भावतरांशगणी िरू ु हुाइ ,
शदमाग चपु नहीं बैठता न !

. . दशु नया में काइ मत हैं ।


कुछ लोग कहते हैं शक हमारा मत ाऄद्रैत मत है ।
‘‘ जगशन्मथ्या , ब्रह्मसत्यां , जीवो ब्रह्मैव न पर : । '’ ऐसा कहते हैं ।

ाईनमें भी कुछ लोग ' हमारी परम्परा कां चीमठ की है ' कहते हैं ।
और कुछ लोग कहते हैं ‘ हमारा सम्प्रदाय श्रगांृ ेरी का है ।
कुछ लोग कहते हैं शक ‘ हमारा मत ‘ ‘ शवशििाद्रैत ' ' है ।
सगणु ोपासना ही हमारे शलए प्रधान है ।

कुछ लोगों का कहना है शक ‘ हमारा श्री वैष्णव मत है । '


मतों में ाईत्कृि श्री वैष्णव मत ाअशद शवष्णु से सांबशां धत है ।
‘ हमारा मागि पूणि प्रपशर्त् का है ' ऐसा कुछ कहते हैं ।

कुछ ाऄन्य लोग कहते हैं शक ' हम मध्व ब्राह्मण हैं । '
' जीव ाऄलग और ब्रह्म ाऄलग है ।

ाईनमें भी कुछ लोग कहते हैं , ' हम दशक्षणाशद मठ के हैं । '


ाईडुशप क्षेत्र सभी क्षेत्रों में पशवत्र क्षेत्र है ।
और कुछ कहते हैं शक हम ाईर्त्राशद मठ के हैं ।
और हम ही ाऄसली मध्व सांप्रदाय के हैं ।
194
कुछ लोगों का ऐसा भी कहना है शक
' हम श्री शवद्या के ाईपासक हैं ।

सकल चराचर सशृ ि श्री चक्र में ही शछपी है ।


ाआसशलए ाईसकी ाईपासना सवि श्रेष्ठ है ।
कुछ लोगों का कहना है शक
‘ हमारा तो ाऄचल राजयोग है ,
बाकी सब कुछ ाआससे छोटा है ।
करना कुछ भी नहीं , जो है वह सब िून्य ही है ।
मूलरशहत यह िरीर िरीर ही नहीं है ।

कुछ लोग कहते हैं शक ‘ हमारा मत ओररजनल रोमन कै थोशलक है । '


कुछ लोग कहते हैं शक ' हम प्रोटेस्टेंट हैं और माता मेरी ही जीसस से भी प्रधान हैं ।
कुछ लोग कहते हैं शक हम यूथ हैं,
परु ाना टेस्टामेंट ही हमारे शलए प्रमाण है ,
योहोवा एक ही भगवान है । ’

कुछ लोग कहते हैं शक ‘ हम जैन हैं । '


ाईसमें भी कुछ कहते हैं , ' हम “वेताांबर हैं । '
और कुछ कहते हैं , ' नहीं - नहीं “वेताम्बर की शस्थशत नीची है ,
हम शदगम्बर हैं । '

और कुछ लोग कहते हैं ,


‘ हमारा मत वीरिैव है । हम शलांगायत हैं ।
सभी काल में शलांगधारण करना ाऄशनवायि है ।
परमशिव को छोड़कर बाकी छोटे देवताओां की
हमें ाअवश्यकता नहीं है । '

195
कुछ लोग कहते हैं शक ' हम शसख हैं ,
गरुु ग्रांथ की पूजा ही हमारे शलए िरणदायक है । ’

कुछ लोग कहते हैं शक ‘ हमारा मत ाआस्लाम है । '


' हम तो शिया हैं और
दूसरे कहते हैं ' हम तो सन्ु नी हैं । '
और कुछ का कहना है शक हम ाऄहमदीय हैं । '

कुछ लोग कहते हैं शक


‘ हम सांकुलम्मा देवता के ाअराधक हैं ।
हमें ाऄपने ग्राम देवता के ाऄलावा कुछ नहीं चाशहए ।
प्राणी बशल ही हमारे शलए मख्ु य है ।

कुछ लोग कहते हैं शक । ' हमारे कुल देवता वेंकटे“वर स्वामी हैं ,
वे ही कशलयगु के देवता हैं ,
वे ही सबको देखते हैं , वे ही दाता हैं ।
हम ाऄपने के ि ाईन्हें समशपि त करते रहते हैं ,
ाईसी के फलस्वरूप वे हमारी ाआच्छाओां की पूशति करते रहते हैं । '

कुछ लोग कहते हैं शक ' मास्टर सी . वी . वी . योग हमारा है ।


ाईनके मांत्र जपने से कांु डशलनी जागतृ होती है । '
कुछ लोग कहते हैं शक ‘ हम तो योगदा सत्सांग सोसायटी के हैं ।
बाबा जी , लाशहरी महािय , यि ु े “वर जी और
योगानन्द गरुु परम्परा ही हमारे शलए पूजनीय है । '

कुछ लोग कहते हैं शक ।


' हमारा मत transcendental meditation का हैं ।
नए तरह के मांत्रों के माध्यम से
भावातीत शस्थशत प्राप्त करते हैं ।
196
महशर्ि महेि योगी हमारे मागि दिि क हैं । '

कुछ लोग कहते हैं शक हमारा दर्त् सांप्रदाय है ।


ाऄवधूत शस्थशत ही परम शस्थशत है ।
दर्त् गरुु जी ही हमारे िरणागती हैं । '
कुछ लोग कहते हैं शक ' भागवत मत हमारा है ।
श्रीकृष्ण ही परुु र्ोर्त्म हैं । '
ाईनके शलए ' हरे रामा हरे कृष्णा ' महामांत्र ही तारक मांत्र है ।

कुछ लोग कहते हैं शक


" हम शनरांकार हैं , सत्य को पा चक
ु े हैं ।

हम शनरांकार हैं , शनगि णु पूजा करते हैं । '


कुछ लोग कहते हैं शक
' हमारा शदव्य ज्ञान समाज है ।
हमारे गरुु जी हैं श्री स्वामी शिवानन्द ,
मानव सेवा ही माधव सेवा है ।
जप और मांत्र योग ही हमारे शलए प्रधान हैं । '

कुछ लोग कहते हैं शक ।


' हम ाऄरशवन्द जी के मागि का ाऄनसु रण करते हैं ।
हमारे पास सभी प्रकार के योगों का समन्वय हैं ।
सपु रामााआण्ड ( मेधा ) धरती पर ाऄवतररत करना हमारा लक्ष्य है । ’

कुछ लोग कहते हैं -


शक ' हमारा रामकृष्ण शमिन ही हमारे शलए ाअवश्यक है ।
हम रृदय पर ध्यान के शन्रत करते हैं ।
गरुु ही सबकी देखभाल करेंगे । '

197
कुछ लोग कहते हैं शक ‘ हमारा शसद्ध योग है ।
हम श्री शनत्यानन्द , श्री मि
ु ानन्द गरुु परम्परा से सम्बशन्धत हैं । िशिपात ही
हमारे शलए िरण है । '

कुछ लोग कहते हैं शक हमारा प्रेम तत्व हैं ।


हम मस्त हैं , परम गरुु मेहर बाबा हमारे शलए ाअदिि हैं । '

कुछ लोग कहते हैं शक ' रमण महशर्ि जो कहते हैं ,


वही सही ाऄद्रैत है । ाईनकी शकताबें ाऄत्यन्त श्रेष्ठ हैं ।
" मैं कौन हाँ ' ' ाआस बात का शचन्तन सदैव करते रहते हैं । '

कुछ लोग कहते हैं शक ' हमारा रामकृष्ण शमिन है ।


रामकृष्ण परमहांस , शववेकानन्द ाआस यगु के महापरुु र् हैं ,
ाईपशनर्दों के द्रारा सब बोधन कराते हैं । '

कुछ लोग कहते हैं शक ' हमारा तो राधास्वामी सत्सांग है ।


के वल कृष्ण ही परमात्मा हैं , वे ही स्वामी हैं ।
बाकी सभी राधा हैं , जीवात्मा हैं । '
कुछ लोग कहते हैं शक
' हमारा प्रजाशपता ब्रह्मकुमारी ाइ“वरीय समाज है ।
ब्रह्मचयि ही ाऄशनवायि है । शबन्दु पर ध्यान करना चाशहए ।
‘ शिव बाबा ' ही ाआस लोक के परम गरुु हैं ।

' कुछ लोग कहते हैं शक हम शजड् डु कृष्णमशु ति का ाऄनस


ु रण करते हैं ।
सब कुछ ाआच्छा रशहत होकर देखते रहते हैं ।
ाईनकी शकताबें पढ़ते रहते हैं । '

कुछ लोग कहते हैं शक ' हम शिरडी सााइबाबा के ाऄधीन हैं ।


ाअजन्म ाईनका भजन करना हमारा कति व्य है ।
198
सभी प्रकार की मस ु ीबतों से पार करने वाले ,
मोक्ष प्रदान करने वाले वही हैं । '

कुछ लोग कहते हैं शक


" हम ाऄय्यप्पा स्वामी के भि हैं ।
ाईनकी ज्योशत के दिि न करके हम धन्य हो जाते हैं ।
प्रशतवर्ि िबरी मेले में शनयशमत रूप से ाअते रहते हैं ।

' ाआस तरह . . . . . काइ लोग . . . . . काइ तरह से . . .


पूणि रूप से . . . . . ाऄपने ाऄपने मतों में डूबे हैं ।
लेशकन ये सद्य जात
कनि ूल शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी के
शतरूपशत शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी के
ाऄनन्तपरु शपराशमड ध्यान के न्र के
गांतु कल शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी के
प्रोद्दटु ू रू शस्पररचाऄु ल सोसााआटी के
ाईरवकोंडा शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी के
धमि वरम् शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी के

पीलेरू , शचर्त्ूरू , ाअदोनी , कशदरर , शहन्दपु रु म् , तेनाली ाअशद


शपराशमड ध्यान के न्र के . . . .
और भी . . . . और भी . . . . काइ लोग
ये सभी शकस मत से सांबशां धत हैं ?

दराऄसल ाईपयि ि ु शकसी भी मत से ये लोग सांबशां धत नहीं है ।


सबके ाऄच्छे गणु ों को ग्रहण कर लेते हैं ।

199
ाआतना ही नहीं , स्वयां सत्य के िोध में शनमग्न हो जाते हैं ।
शफर भी ाआनका पूणि मत कौन सा है ?
ाआनका पूणि तत्त्व कौन सा है ?

ऐसे में एक शवचार मन में कौंध गया –


ाआन सबका मत है ‘तल ु सीदल ' ।
हााँ , शनf“चत रूप से ाआन सबका मत है , तल ु सीदल ।
तलु सीदल मत के बारे में एक कहानी सशु नए ।
. . एक गााँव में एक स्त्री मूशति रहती थी । ाईसको ाऄचानक परम सत्य
पर मोह हुाअ । तत्क्षण ाईसे प्राप्त करने के शलए ' त्याग ’ ही ाईसके शलए
सही मागि है । ' ऐसा समझकर हीरे का कां ठहार , जो ाईसे ाऄत्यन्त शप्रय
था , गले से शनकाल कर तराजू में डाला ।

. . कुछ भी प्रयोजन शसद्ध न हुाअ । ‘ परम सत्य ' जरा सा भी नहीं


शहला । िायद ाआतना काफी नहीं ' ऐसा समझकर ाईसने ाऄपने सभी
जवाहरात दे शदए । शफर भी कुछ नहीं हुाअ ।
घर में रखे सभी प्रकार के सोने चााँदी के बति न लाकर दे शदए शफर भी
कुछ नहीं हुाअ ।

‘ परम सत्यां ’ शदखााइ नहीं शदया । तब ाईसे याद ाअया , ‚ मैं ‛ एक चीज तो
भूल ही गाइ । ाऄपने प्राणों से भी प्यारी ' श्यमांतक मशण ' ाऄभी तक मेरे
पास है । '

ाईत्साहपूविक ाईसे भी लाकर तराजू में डाल शदया । ाअह ! कुछ भी नहीं
हुाअ । ‘ परमसत्यां ' ाऄणु मात्र भी शहला नहीं । बेचारी , वह औरत पसीने
से तरबतर हो गाइ । और कुछ करने को न सूझा , हैरान हो गाइ । ाईस
हालत में बहुत ाआत्मीनान के साथ मस्ु काराते हुए एक स्त्री ने ाअकर
एक तल ु सीदल को ाईसमें रखा ।
ाआतने में ही हठात् ,
200
तत्क्षण परम सत्य शहल गया ।
‘ परमसत्य पूणि रूप से खल ु गया । '
ाआसशलए शजससे परम सत्य तरु तां ग्राह्य होता है ,
तत्क्षण दृग्गोचर होता है , तत्क्षण ाऄनभु व में ाअता है ,
वहीं , वही ' तल ु सीदल ' मत है ।

तलु सीदल की छोटी िाखा के दो पर्त्े होते हैं ।


एक पर्त्े का नाम है ,
‘ तमु ाऄपने वास्तव की खदु ही सशृ ि कर रहे हो ' नामक ज्ञानसूत्र ।
दस ु रे पर्त्े का नाम है ,
‘ ाअनापानसशत ' नामक शवपस्सना ध्यानसूत्र !
पहला पर्त्ा ज्ञानाशग्न के शलए मूल है
तो दूसरा पर्त्ा ध्यानाशग्न के शलए है नाांदी !
पहला हमारे ज्ञान चक्षु को पूणि रूप से शवकशसत करके
सेत ज्ञान के पररपूणि शवज्ञान को हम तक पहुचाँ ाता है ।
दूसरा हमारे शदव्यचक्षु को ाईर्त्ेशजत करके ।
बद्ध
ु त्व रूपी पररपक्व योगशस्थशत को शदलाता है ।
ाआन दोनों का मत ही तल ु सीदल मत है ।

पहले पर्त्े के बारे में शवस्ततृ रूप से कहना है ।


जानकारी प्राप्त करने के शलए श्रीकृष्ण के पास जाना है ।
ाईनके मतानस ु ार तो ‘ ाईद्धरेदात्मनात्मानम् . . . ' नामक सूत्र !
कोाइ शकसी का कुछ नहीं कर सकता ,
स्वयां ही ाऄपना ाईद्धार कर लेना चाशहए ।
‘ाअत्मैवह्यात्मन बन्धाःु ाअत्मैव ररपरु ात्मन :’
स्वयां ही ाऄपने बांधु हैं , स्वयां ही ाऄपने ित्रु ,
स्वयां ही ाऄपने सख ु - दु : ख का शनमाि ण करते रहते हैं ।
सबके सब जन्म चक्र में , ाऄन्दर - बाहर
ाऄथाि त् ाआहलोक और परलोक में स्वेच्छा से शवहार कर रहे हैं ।

201
जो चाहें ाईसे पाने का सामथ्यि सभी को है ।
यह है परम सत्य ।
यही है शवकशसत ज्ञान चक्षु का पूणि साराांि ।

ाऄब दूसरा पर्त्ा है ाअनापानसशत शवपस्सना


ाअनापानसशत याशन ाईच््वास शनाः“वास का ाऄनगु मन करना
ाआससे दृशि नाक के शिखराग्र पर ।
ाऄथाि त् भ्रूमध्य पर सहज रूप से शस्थर होती है ।
क्रमि : तीसरी ाअाँख खल ु जाती है ।

शदव्यदृशि ाईपलब्ध होती है ।


ाआसी को शवपस्सना कहते हैं ।
सूक्ष्म िरीर का शवमोचन होता है ।
दसु रे लोकों का सांचार िरू
ु होता है ।
ाआन सबसे ही परम सत्य प्रत्यक्ष होता है ।
ाआसके शलए करना चाशहए मात्र एक ही प्रशक्रया
वह है - ाअनापानसशत ।
ाआसे छोड़कर और कुछ भी नहीं करना चाशहए ,
बाकी सब बेकार है ।

ाअयि समाज के सांस्थापक स्वामी दयानांद सरस्वती कहते हैं –


' मूशति पूजा सोपान नहीं है , खााइ है । '
सही है , शबल्कुल सही है , एकदम सही है ।
भजन के वल तात्काशलक रूप से मानशसक ाअनांद देते हैं ।
के वल मानशसक ाअनन्द के शलए भजन शकया तो ठीक है ।
लेशकन भजन और पूजा मशु ि का मागि नहीं बन सकते ।
202
स्तोत्र ( स्तशु त ) की जरूरत है मूखि राजनेताओां के शलए ।
क्या दैव को ाईसकी ाऄपेक्षा है ?
यशद ऐसी ाऄपेक्षा करता है ,
तो क्या वह दैव हो सकता है ?

के वल पारायण का क्या लाभ है ? िून्य ।


करना चाशहए ज्ञान का मांथन , योग साधना ।
तीथि यात्राओां को छोड़कर योशगयों के पास ,
ज्ञाशनयों के पास जाना चाशहए ।
सर मांडु न करना , कार्ाय धारण करना , मरु ाओां का लगाना ,
शतलक लगाना , शवभूशत लगाना ाअशद सब ,
ाऄपने ाअपको हीन कर लेने की शक्रयाएाँ हैं ।
जपमाला करने से , मांत्रोच्चारण से के वल
ाऄमूल्य समय का शनरूपयोग ही होता है ।
ाआससे दख ु का शवमोचन नहीं होता ,
शनवाि ण की प्राशप्त नहीं होती

ाईपवास रखना , गरुु की पादपूजा करना


ाअशद शुद्ध मूखिता हैं । सांसार को छोड़कर सांन्यास लेना
धमि , सत्य और ाअनन्द से दूर होना है ।
तकि , वाद , मत का ाऄशभमान सब
छोटा मोटा ज्ञान का व्यथि प्रयास ही है ।

यज्ञ यागाशद से के वल धन सांपशर्त् का नाि होता है ,


ज्ञान शनष्ठा प्राप्त नहीं होती ।
ाआन सब का सम्पूणि रूप से त्याग करना चाशहए ।
सभी देि - काल पररशस्थशतयों में
एक बात याद रखनी चाशहए शक ‘

203
‘ परम सत्य ' एक ही है ।
‘ ाईद्धरेदात्मनात्मानम् ' ऐसा समझकर
एक ही परम प्रशक्रया कर लेनी चाशहए ,
वह है ' ाअनापानसशत ' शवपस्सना ।

यही है कनि ूल शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी का


शतरूपशत शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी का
ाऄनांतपरु शपराशमड ध्यान के न्र का
गांतु कल शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी का ।
प्रोद्दटु ू रु शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी का
ाईरवकोंडा शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी का
धमाि वरम् शस्पररचाऄ ु ल सोसााआटी का
पीलेरू , शचर्त्ूरू , ाअदोनी , कशदरर , शहन्दूपरु ,
तेनाली ाअशद शपराशमड ध्यान के न्र का
और भी . . . और भी . . . बाकी सभी का पूणि मत ,
पूणि तत्त्व चाहे वह शकसी लोक में हो ,
या शकसी भी काल में क्यों न हो
दर ाऄसल एक ही ाअध्याशत्मक िास्त्र है
वही है Spiritual Science !

जैसे भ्रमर सभी फूलों से मकरांद को चूस लेता है ,


वैसे हर एक से शवशधपूविक ज्ञान को ग्रहण कर लेना चाशहए ।

जैसे प्रत्येक फूल में मकरन्द होता है ,


वैसे प्रत्येक मनष्ु य में ाऄशधक या कम ज्ञान होता है ।
ाआसशलए शकसी को भी नजर ाऄांदाज नहीं करना चाशहए ।
जो समझ में ाअया है , जो ाऄनभु व में ाअया हैं ,
ाईसे तरु न्त सबको देना चाशहए ।
शकसी को भी नहीं छोड़ना चाशहए ।

204
समझने और समझाने लायक एक ही परम सत्य है ।
करने और कराने लायक एक ही परम शक्रया हैं !
ये ही तल
ु सीदल के दो पर्त्े हैं ।

ाआस तरह भाव परम्परा पूणि हुाइ


. . . तरु न्त पास में ही बैठे कशच रघरु ाम को ‘
‘ाऄभी एक ाऄच्छी भावना पैदा हुाइ है ’
ऐसा सभी ाईन्हें समझाकर
और कह शदया शक तत्क्षण ही ाआसे
बाजू बैठे हुए सभी को कह दीशजए ।’
ाईसके बाद तल ु सीदल के बारे में
ाईस शदन पीलेरू की ध्यान क्लास में ,
दूसरे शदन ाऄनांतपरु की क्लास में ,
तीसरे शदन ाईरवकोंडा की क्लास में ,
ाईसके बाद कनि ूल शपराशमड ध्यान के न्र में ,
सबको बताना िरू ु हो गया ।

सभी लोग ाआस भाव लहरी को सनु कर कहने लगे शक


' ाअप ने जो One Day Spiritual Brain Wash
नाम की शकताब शलखी है ,
ाईसका यही नाम रशखए । '

. . ाआस तरह ' तल


ु सीदल ' का जन्म हुाअ ।
' तलु सीदल ' ाऄभी ाअपके हाथों में है ,
ाऄब ाअपकी मजी ।
यथा ाआच्छशस तथा कुरु ।
-सुभाष पत्री

205
नवषय साररणी
क्रमाांक शवर्य क्रमाांक शवर्य
1. ाऄध्यात्म वैज्ञाशनक 22.शक्रया योग
2. ाऄध्यात्म िास्त्र 23.स्वाध्याय
3. ाऄध्यात्म िास्त्र के शवभाग 24.एक योगी की ाअत्म कथा
4. ध्यान 25.शहमालय के योगी
5. शदव्य ज्ञान प्रकाि 26.सांभोग से समाशध की ओर
6. शनत्य जागशृ त 27.ओिो रजनीि
7. मनोिशि 28.लोब साांग राम्पा
8. ध्यान के लाभ 29.ररचडि बाक़
9. कुछ ाअध्याशत्मक सत्य 30.डॉन जाअ ु न/ कालोस
10.चैतन्य ही मूल 31.कास्टानेडा
11.मेशडटेिन-1 32.ममु क्षु ु के ित्रु
12.मेशडटेिन-2 33.जेन रॉबट्ि स/सेत्
13.यद्भावम् तद्भवशत 34.शलांडा गडु ् मन
14.एकमात्र सत्य 35.जीसस
15.जीवन के परमाथि 36.महु म्मद
16.शत्रशवध ाअनन्द 37.जोरास्टर
17.ाऄशन्तम ध्येय 38.जलालद्दु ीन रूमी
18.हर शदन क्या करना चाशहए 39.गयथे
19.ाऄक्षराभ्यास 40.कन््यूशियस
20.तत्क्षण कर्त्िव्य 41.प्लेटो
21.प्रजल्प राशहत्य 42.चाअु ांग त्सु

206
क्रमाांक शवर्य क्रमाांक शवर्य
43.ाऄन्नमय्या 67.सूक्ष्म दशिि शभाः
44.गौतम बद्ध ु 68.ाऄयम् लोकोनाशस्त पराः
45.चार ाअयि सत्य 69.श्रेय प्रेय
46.ाऄिाांग मागि 70.ध्यान-मोक्षानन्द
47.सही दृक्पथ 71.सूक्ष्म िरीर यान
48.मध्य मागि 72.तस्मात् योगी भव !
49.ब्रह्म शवहार 73.ब्रह्मज्ञान-ाआशन्रयवि
50.धम्मपद में 74.धमि
51.ाऄर्त्ाही ाऄर्त्नो नाथो 75.धमि - ाऄधमि
52.बद्ध
ु की दृशि में ब्राह्मण 76.धमो रक्षशत रशक्षताः
53.नारद की सलाह 77.धमि त्रय
54.महदवधान 78.चतवु ि ण
55.तापत्रय 79.तमो रजो सतोगणु
56.ज्ञानान् मशु िाः 80.चार योग
57.पांच शवांिशत 81.मूढ़ भशि
58.तीथि यात्रा 82.भशियोग
59.तीथि कर गोत्रबन्ध 83.वणाि श्रम धमि
60.यजवु ेद में धीर 84.सांसार
61.महावाक्य 85.सन्यास
62.वद्धृ 86.गहृ स्थाश्रम
63.पनु जि न्म 87.ब्रह्मचयि
64.पशण्डत 88.ाआच्छाओां का दमन
65.सत्यमेव जयते 89.मत करो
66.ाअत्मा दृश्यते 90.ाऄधमि यि ु कमि

207
क्रमाांक शवर्य क्रमाांक शवर्य
91.लेशकन स्वप्नावस्था में । 114. ाईर्त्म गरुु
92.कमि बद्ध 115. देह ाअत्मा
93.निो मोहाः 116. शचरांजीवत्व
94.मा गा मोहावेि 117. कुछ भी न्यूनता नहीं
95.कारण- कायि 118. करो या मरो
96.ाऄदृि 119. सम्यक् चररत्र
97.वशिष्ठ गीता में ाऄदृि 120. मााँस शपण्ड- मांत्र शपण्ड
98.परुु र् प्रयत्न 121. ाअशस्तक-नाशस्तक
99.स्वेच्छा- यादृशच्छक 122. गरुु - लघु
100. पाप-पण्ु य-ज्ञान 123. ाअशस्तक के चार वगि
101. पाप – व्याशध 124. मूढ़भि -शिष्य
102. शवशध शलशखत 125. गरुु -परमगरुु
103. ाऄज्ञ - ाऄल्पज्ञ- शवज्ञ 126. शनवाि ण के बाद
104. ाअचायि 127. गरुु हमेिा हैं
105. मन का प्रलोभ- ाऄांतरात्मा 128. साधना चतिु य
का प्रबोध 129. वेदान्त घोर्
106. सूत्रप्राय- प्रबन्धप्राय 130. योगसाधना
107. क्या शनशध ाऄत्यांत 131. पतांजशल के ाऄिाांग योग
108. सख ु दायक है ? 132. यम – शनयम
109. सत्सांग – सज्जन साांगत्य 133. शचर्त्वशृ त शनरोध
110. राक्षस- मानव –देवता 134. ाअनापानासशत
111. जीव शहांसा 135. शवपस्ना
112. ललाट लेख 136. ाईपासना – शवपस्सना
113. योगी 137. कुण्डशलनी का जागरण

208
क्रमाांक शवर्य क्रमाांक शवर्य
138. नाड़ी मण्डल की िशु द्ध 162. शत्रपरु सन्ु दरी
139. र्ट् चक्र- सहस्रार 163. ाऄहमेव िरणम् मम्
140. शदव्य चक्षु 164. िेर् ियन
141. सशवकल्प समाशध 165. शिव –तीसरी ाअाँख
142. शनशवि कल्प समाशध 166. कृष्ण
143. ाअत्मज्ञान – ब्रह्मज्ञान 167. दिरथ- ाऄयोध्या
144. माया 168. ाआन्र-ऐरावत-वज्रायधु
145. तीन कदम 169. कल्पतरु – कामधेन-ु
146. मूर्क वाहन 170. शचन्तामशण
147. ाअहार – व्यवहार 171. ब्रह्मोपदेि- गरू ु पदेि –
148. ाअहार व्यवहार में 172. ाईपनयन
149. जागतृ रहना चाशहए 173. ब्राह्मण-शद्रजत्व
150. ाऄिोक वन 174. यज्ञोपवीत
151. सशवराम पररश्रम 175. शनत्याशग्नहोत्र
152. मेनका प्रयोग 176. सांध्यावन्दन
153. दर्त्ात्रेय 177. ाऄांिात्मा- पूणाि त्मा
154. सात पवि तो का ाऄशधपशत 178. मानस पत्रु
155. ( वेंकटे“वर ) 179. मत्ृ य-ु शनरा –ध्यान
156. पत्रु – पन्ु नाग नरक 180. शनरावस्था
157. चतमु ि खु ेन ब्रह्माः 181. भ्रोगी – भ्योगी
158. दिु चतिु य- चार योग 182. गत- ाऄवगत- शवगत
159. शचत्रगप्तु 183. ाऄप्पो दीपो भव
160. दपि दाः –दपि हाः 184. मेरा रास्ता रेशगस्तान
161. गरल कण्ठ

तल
ु सीदल
209

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