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पर्वत प्रदे श में पार्स

कवर्ता की व्याख्या

1.

पावस ऋतु थी, पववत प्रदेश,


पल-पल परिवर्तवत प्रकृर्त-वेश।
मेखलाकाि पववत अपाि
अपने सहस्रु दृग - सुमन फाड़,
अवलोक िहा है बाि-बाि
नीचे जल में र्नज महाकाि,
र्जसके चिणों में पला ताल
दपवण सा फै ला है र्वशाल!

शब्दाथव: पावस-ऋतु = वर्ाा ऋतु, परिवर्तात = बदलता हुआ, प्रकृ र्त वेश = प्रकृ र्त का रूप (वेशभूर्ा), मेखलाकाि = मंडप
के आकाि वाला, अपाि = र्िसकी सीमा न हो, सहड्ड = हशािों, दृग-समु न = फूल रूपी आँखें, अवलोक = देख िहा, र्नि
= अपना, महाकाि = र्वशाल आकाि, ताल = तालाब, दपाण = शीशा।

व्याख्या: कर्व कहते हैं र्क वर्ाा ऋतु थी। सपं ूणा प्रदेश पवातों से र्ििा हुआ था। वर्ाा ऋतु में बादलों की उमड़-िमु ड़ के कािण
प्रकृ र्त प्रत्येक क्षण अपना रूप परिवर्तात कि िही थी। कभी बादलों की िटा के कािण अंध्काि हो िाता था, तो कभी बादलों
के हटने से प्रदेश चमकने लगता था। इसी प्रकाि क्षण-प्रर्त-क्षण प्रकृ र्त अपना रूप परिवर्तात कि िही थी। इस प्राकृ र्तक
वाताविण में मंडप के आकाि का र्वशाल पवात अपने समु न ;पफ ू लोंद्ध रूपी नेत्रों को फै लाए नीचे शीशे के समान चमकने वाले
तालाब के र्नमाल िल को देख िहा है। ऐसा प्रतीत होता है मानो यह तालाब उसके चिणों में पला हुआ है औि यह दपाण िैसा
र्वशाल है। पवात पि उगे हुए फूल, पवात के नेत्रों के समान लग िहे हैं औि ऐसा प्रतीत होता है मानो ये नेत्रा दपाण के समान
चमकने वाले र्वशाल तालाब के िल पि दृर्िपात कि िहे हैं अथाात पवात अपने सौंदया का अवलोकन तालाब रूपी दपाण में कि
िहा है। भाव यह है र्क वर्ाा ऋतु में प्रकृ र्त का रूप र्नखि िाता है। वह इस ऋतु में अपने सौंदया को र्नहाि िही है।

काव्य-सौंदयव:

भाव पक्ष:
1. वर्ाा ऋतु के समय प्रकृ र्त के सौंदया का वणान अत्यंत सिीव लगता है।
2. पवात का मानवीकिण र्कया गया है।
कला पक्ष:
1. पवात प्रदेश, परिवर्तात प्रकृ र्त में अनप्रु ास अलंकाि है।
2. पल-पल, बाि-बाि में पनु रुर्ि प्रकाश अलंकाि है।
3. ‘दृग-सुमन’ में रूपक अलंकाि तथा ‘दपाण-सा पैफला’ में उपमा अलंकाि है।
4. र्चत्रात्मक शैली तथा संस्कृ तर्नष्ठ शब्दावली का प्रयोग र्कया गया है।

2.
र्गरि का गौिव गाकि झि-झि
मद में नस-नस उत्तेर्जत कि
मोती की लर्ड़यों-से सुुंदि
झिते हैं झाग भिे र्नझवि!
र्गरिवि के उि से उठ-उठ कि
उच्चाकाुंक्षाओ ुं से तरुवि
हैं झााँक िहे नीिव नभ पि
अर्नमेष, अटल, कुछ र्चुंतापि।

शब्दाथव: र्गरि = पवात, गौिव = सम्मान, मद = मस्ती, आनंद, उत्तेर्ित किना = भड़काना, र्नर्ाि = र्िना, उि = हृदय,
उच्चाकांक्षाओ ं = ऊँ ची आकांक्षा, तरुवि = वृक्ष, नीिव = शांत, नभ = आकाशऋ अर्नमेर् = र्स्थि दृर्ि, अपलक, अटल
= र्स्थि।

व्याख्या: फे न से भिे हुए र्िने र्ि-र्ि किते हुए बह िहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है मानो उस र्िने का स्वि िोम-िोम को िोमांर्चत
कि िहा है औि उत्साह भि िहा है। र्िते हुए पानी की बूँदें मोर्तयों के समान सुशोर्भत हो िही हैं। ऊँ चे पवात पि अनेक वृक्ष लगे
हुए हैं। ये वृक्ष ऐसे प्रतीत होते हैं मानो ये पवातिाि के हृदय में उठने वाली महत्वाकांक्षाएँ हों। उन्हें एकटक शांत आकाश की
ओि देखते हुए लगता है र्क मानो ये र्चर्ं तत होकि अपने स्थान पि खड़े हैं।

काव्य-सौंदयव:

भाव पक्ष:
1. पवात का मानवीकिण र्कया गया है।
2. प्रकृ र्त सौंदया का सिीव र्चत्राण र्कया गया है।

कला पक्ष:
1. संस्कृ तर्नष्ठ शब्दों का प्रयोग र्कया गया है।
2. भार्ा प्रभावोत्पादक होने के साथ-साथ भावार्भव्यर्ि में सक्षम है।
3. ‘र्ि-र्ि’, ‘नस-नस’, ‘उठ-उठ’ में पुनरुर्ि प्रकाश अलंकाि है।
4. ‘र्िते र्ाग’, ‘नीिव नभ’, ‘अर्नमेर् अटल’ में अनुप्रास अलंकाि है।
5. मोर्तयों की लर्ड़यों से सुंदि ‘‘उच्चाकांक्षाओ ं से तरुवि’’ में उपमा अलंकाि है।

3.

उड़ गया, अचानक लो, भूध्र


फड़का अपाि पािद के पि!
िव-शेष िह गए हैं र्नझवि!
है टूट पड़ा भू पि अुंबि!
ध्ाँस गए धिा में सभय शाल!
उठ िहा धुआाँ, जल गया ताल!
यों जलद-यान में र्वचि-र्वचि
था इद्रुं खेलता इद्रुं जाल।

शब्दाथव: भूध्र = पवात, वारिद = बादल, िव-शेर् = के वल शोि बाकी िह िाना, र्नर्ाि = र्िना, अंबि = आकाश, भू =
ध्रती, धिा, सभय = डिकि, शाल = वृक्ष, ताल = तालाब, िलद = यान ;बादल रूपी वाहनद्ध, र्वचि-र्वचि = िमू -िमू कि,
इद्रं िाल = इद्रं धनुर्।

व्याख्या: कर्व कहते हैं र्क देखा! अचानक यह क्या हो गया? वह पहाड़ िो अभी तक र्दखाई दे िहा था, वह न िाने कहाँ
चला गया। वह पवात बादलों के अनेक पि फड़फड़ाने के कािण न िाने कहाँ र्िप गया अथाात आकाश में अत्यर्ध्क संख्या में
बादल र्िि आए औि वह पवात उन बादलों की ओट में र्िप गया। इस धुंधमय वाताविण में िबर्क सब कुि र्िप गया, के वल
र्िने के स्वि सुनाई दे िहे हैं। ऐसा प्रतीत हो िहा है मानो ध्रती पि आकाश टूट पड़ा हो। इस वाताविण में शांत स्वभाव वाले
शाल के वृक्ष भी धिती के अंदि धँस गए। ऐसे िौद्र वाताविण में धुंध को देखकि ऐसा प्रतीत हो िहा है मानो यह धुंध न होकि
तालाब के िलने से उठने वाला धआ ु ँ है। इस प्रकाि बादल रूपी वाहन में िमू ता हुआ प्रकृ र्त का देवता इद्रं नए-नए खेल खेल
िहा है अथाात प्रकृ र्त र्नत्य प्रर्त नवीन क्रीड़ाएँ कि िही है।

काव्य-सौंदयव:

भाव पक्ष:
1. पूिे पद्य में प्रकृ र्त का मानवीकिण र्कया गया है।

कला पक्ष:
1. ‘अपाि वारिद के पि में’ रूपक अलंकाि औि ‘र्वचि-र्वचि’ में पुनरुर्ि प्रकाश अलंकाि है।
2. संस्कृ तर्नष्ठ भार्ा का प्रयोग र्कया गया है।
3. र्चत्रात्मक शैली औि दृश्य र्बंब का प्रयोग र्कया गया है।
कर्व परिचय

सुर्मत्रानुंदन पुंत
इनका िन्म सन 20 मई 1900 को उत्तिाखंड के कौसानी-अल्मोड़ा में हुआ था। इन्होनें बचपन से ही कर्वता र्लखना आिम्भ
कि र्दया था। सात साल की उम्र में इन्हें स्कूल में काव्य-पाठ के र्लए पिु स्कृ त र्कया गया। 1915 में स्थायी रूप से सार्हत्य
सृिन र्कया औि िायावाद के प्रमुख स्तम्भ के रूप में िाने गए। इनकी प्रािर्म्भक कर्वताओ ं में प्रकृ र्त प्रेम औि िहस्यवाद
र्लकता है। इसके बाद वे माक्सा औि महात्मा गांधी के र्वचािों से प्रभार्वत हुए।

प्रमुख कायव

कर्वता सग्रुं ह – कला औि बूढ़ा चाँद, र्चदबं िा


कृर्तयााँ – वीणा, पल्लव, यगु वाणी, ग्राम्या, स्वणार्किण औि लोकायतन।
पुिस्काि – पद्मभूर्ण, ज्ञानपीठ, सार्हत्य अकादमी पिु स्काि।

कर्वता का साि
‘पवात प्रदेश में पावस’ कर्वता प्रकृ र्त के कुशल र्चतेिे सर्ु मत्रानंदन पंत द्वािा िर्चत है। इस कर्वता में वर्ाा ऋतु में क्षण-क्षण प्रकृ र्त
के परिवर्तात हो िहे परिवेश का र्चत्राण र्कया गया है। मेखलाकाि पवात अपने ऊपि र्खले हुए पफ ू लों के िंगों के माध्यम से तालाब
के िल में अपना प्रर्तर्बंब देखकि अपने सौंदया को र्नहाि िहा है। तालाब का िल दपाण के समान प्रतीत हो िहा है। र्िने र्िते
हुए ऐसे प्रतीत होते हैं मानो वे पवात का गौिव गान कि िहे हैं। र्िनों की र्ाग मोती की लर्ड़यों की भाँर्त प्रतीत हो िहा है। पवात
पि उगे हुए ऊँ चे-ऊँ चे वृक्ष शांत आकाश में र्स्थि, अपलक औि र्चतं ाग्रस्त होकि र्ाँक िहे हैं। अचानक पवात बादलों के पीिे
र्िप गया। उस समय र्िने का के वल शोि बाकी िह गया। तब आकाश ऐसा प्रतीत हो िहा था मानो वह पृथ्वी पि टूट कि र्गि
िहा है। वाताविण में धंधु चािों आिे फै ल गई। धुंध ऐसी प्रतीत हो िही थी मानो वह तालाब के िलने पि उठने वाला धआ ु ँ हो।
इस प्रकाि बादल रूपी वाहन में र्वचिण किता हुआ इद्रं अपना खेल खेल िहा था। इन्हीं चीशों का संपूणा कर्वता में पंत िी ने
प्रकृ र्त का मानवीकिण र्कया है।

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