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अनुच्छेद लेखन
अनुच्छेद लेखन
सामान्य धारणा
कय
मानव शरीर की रचना के लिए आवयक
जीवन का आधार
कल्याणकारी रूप
बच्चों के लिए मिट्टी।
प्रायः जब किसी वस्तु को अत्यंत तुच्छ बताना होता है तो लोग कह उठते हैं कि यह तो
मिट्टी के भाव मिल जाएगी। लोगों की धारणा मिट्टी के प्रति भले ही सी हो परंतु तनिक-सी
गहराई से विचार करने पर यह धारणा गलत साबित हो जाती है। समस्त जीवधारियों यहाँ
तक पेड़-पौधों को भी यही मिट्टी शरण देती है। आध्यात्मवादियों का तो यहाँ तक मानना है कि
मानव शरीर निर्माण के लिए जिन तत्वों का प्रयोग हुआ है उनमें मिट्टी भी एक है।
जब तक शरीर जिंदा रहता है तब तक मिट्टी उसे शांति और चैन देती है और फिर मृत शरीर को
अपनी गोद में समाहित कर लेती है।पृथ्वी पर जीवन का आधार यही मिट्टी है, जिसमें नाना
प्रकार के फल, फ़सल और अन्य खाद्य वस्तुएँ पैदा होती हैं, जिसे खाकर मनुष्य एवं
अन्य प्राणी जीवित एवं हृष्ट-पुष्ट रहते हैं। यह मिट्टी कीड़े-मकोड़े और छोटे जीवों
का घर भी है। यह मिट्टी विविध रूपों में मनुष्य और अन्य जीवों का कल्याण करती है।
विभिन्न देवालयों को नवजीवन से भरकर कल्याणकारी रूप दिखाती है। मिट्टी का बच्चों से
तो अटूट संबंध है। इसी मिट्टी में लोटकर, खेल-कूदकर वे बड़े होते हैं और बलिष्ठ
बनते हैं। मिट्टी के खिलौनों से खेलकर वे अपना मनोरंजन करते हैं। वास्तव में
मिट्टी हमारे लिए विविध रूपों में नाना ढंग से उपयोगी है।
2. आज की आवश्यकता-संयुक्त परिवार
मय सतत परिवर्तन ललशी है। इसका उदाहरण है-प्राचीनकाल से चली आ रही संयुक्त परिवार
की परिपाटी का टूटना और एकल परिवार का चलन बढ़ते जाना। शहरीकरण, बढ़ती महँगाई,
नौकरी की चाहत, उच्च शिक्षा, विदे शमें बसने की प्रवृत्ति के कारण एकल परिवारों की
संख्या बढ़ती जा रही है। इसके अलावा बढ़ती स्वार्थ वृत्ति भी बराबर की ज़िम्मेदार है।
इन एकल परिवारों के कारण आज बच्चों की शिक्षा-दीक्षा, पालन-पोषण, माता-पिता के लिए
दुष्कर होता जाता है।
जिस एकल परिवार में पति-पत्नी दोनों ही नौकरी करते हों, वहाँ यह और भी दुष्कर बन
जाता है। आज समाज में बढ़ते क्रेच और उनमें पलते बच्चे इसका जीता जागता
उदाहरण हैं। प्राचीनकाल में यह काम संयुक्त परिवार में दादा-दादी, चाचा-चाची, ताई-बुआ
इतनी सरलता से कर देती थी कि बच्चे कब बड़े हो गए पता ही नहीं चल पाता था। संयुक्त
परिवार हर काल में समाज की ज़रूरत थे और रहेंगे।
भारतीय संस्कृति में संयुक्त परिवार और भी महत्त्वपूर्ण हैं। बच्चों और युवा पीढ़ी को
रितोंश्तों
का ज्ञान संयुक्त परिवार में ही हो पाता है। यही सामूहिकता की भावना, मिल-जुलकर
काम करने की भावना पनपती और फलती-फूलती है। एक-दूसरे के सुख-दुख में काम आने की
भावना संयुक्त परिवार में ही पनपती है। संयुक्त परिवार बुजुर्गं सदस्यों के लिए किसी
वरदान से कम नहीं है।
परिवार के अन्य सदस्य उनकी आवश्यकताओं का ध्यान रखते हैं जिससे उन्हें बुढ़ापा
कष्टकारी नहीं लगता है। संयुक्त परिवार व्यक्ति को अकेलेपन का शिकार नहीं होने देते
हैं। आपसी सुख-दुख बाँटने, हँसी-मजाक करने के साथी संयुक्त परिवार स्वतः उपलब्ध
कराते हैं। इससे लोग स्वस्थ, प्रसन्न और हँसमुख रहते हैं।
गत एक दशक में जिस समस्या ने मनुष्य का ध्यान अपनी ओर खींचा है, वह है-ग्लोबल
वार्मिंग। ग्लोबल वार्मिंग का सीधा-सा अर्थ है है-धरती के तापमान में निरंतर वृद्धि।
यद्यपि यह समस्या विकसित दे शके कारण बढ़ी है परंतु इसका नुकसान सारी धरती को
भुगतना पड़ रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारणों के मूल हैं-मनुष्य की बढ़ती आवश्यकताएँ
और उसकी स्वार्थवृत्ति। मनुष्य प्रगति की अंधाधुंध दौड़ में शामिल होकर पर्यावरण को
अंधाधुंध क्षति पहुँचा रहा है। कल-कारखानों की स्थापना, नई बस्तियों को बसाने, सड़कों
को चौड़ा करने के लिए वनों की अंधाधुंध कटाई की गई है।
इससे पर्यावरण को दोतरफा नुकसान हुआ है तो इन गैसों को अपनाने वाले पेड़-पौधों की
कमी से आक्सीजन, वर्षा की मात्रा और हरियाली में कमी आई है। इस कारण वैविक कश्वि
तापमान
बढ़ता जा रहा है। ग्लोबल वार्मिंग के कारण एक ओर धरती की सुरक्षा कवच ओजोन में
छेद हुआ है तो दूसरी ओर पर्यावरण असंतुलित हुआ है। असमय वर्षा, अतिवृष्टि, अनावृष्टि,
सरदी-गरमी की ऋतुओं में भारी बदलाव आना ग्लोबल वार्मिंग का ही प्रभाव है।
इससे ध्रुवों पर जमी बरफ़ पिघलने का खतरा उत्पन्न हो गया है जिससे एक दिन प्राणियों
के विनाश का खतरा होगा, अधिकाधिक पौधे लगाकर उनकी देख-भाल करनी चाहिए तथा
प्रकृति से छेड़छाड़ बंद कर देना चाहिए। इसके अलावा जनसंख्या वृद्धि पर नियंत्रण
करना होगा। आइए इसे आज से शुरू कर देते हैं, क्योंकि कल तक तो बड़ी देर हो जाएगी।
4. नर हो न निराश करो मन को
आत्मविश्वास और सफलता
आशा से संघर्ष में विजय
कुछ भी असंभव नहीं
महापुरुषों की सफलता का आधार।
मानव जीवन को संग्राम की संज्ञा से विभूषित किया है। इस जीवन संग्राम में उसे कभी
सुख मिलता है तो कभी दुख। सुख मन में आशा एवं प्रसन्नता का संचार करते हैं तो दुख
उसे निरा शएवं शोक के सागर में डुबो देते हैं। इसी समय व्यक्ति के आत्मविश्वास की
परीक्षा होती है। जो व्यक्ति इन प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अपना विवास सश्वा
नहीं खोता
है और आशावादी बनकर संघर्ष करता है वही सफलता प्राप्त करता है।
आत्मविश्वास के बिना सफलता की कामना करना दिवास्वप्न देखने के समान है। मनुष्य के मन
में यदि आशावादिता नहीं है और वह निराश मन से संघर्ष करता भी है तो उसकी सफलता में
संदेह बना रहता है। कहा भी गया है कि मन के हारे हार है मन के जीते जीत। मन में
जीत के प्रति हमे शआशावादी बने रहना जीत का आधार बन जाता है। यदि मन में आशा संघर्ष
करने की इच्छा और कर्मठता हो तो मनुष्य के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।
वह विपरीत परिस्थितियों में भी उसी प्रकार विजय प्राप्त करता है जैसा नेपोलियन
बोनापार्ट ने। इसी प्रकार निरा श, काम में हमें मन नहीं लगाने देती है और आधे-अधूरे
मन से किया गया कार्य कभी सफल नहीं होता है। संसार के महापुरुषों ने आत्मविश्वास,
दृढनिचययश्च
, संघर्ष लता
लताशी
के बल पर आशावादी बनकर सफलता प्राप्त की। अब्राहम लिंकन हों
या एडिसन, महात्मा गांधी हों या सरदार पटेल सभी ने प्रतिकूल परिस्थितियों में भी
आशावान रहे और अपना-अपना लक्ष्य पाने में सफल रहे।
सैनिकों के मन में यदि एक पल के लिए भी निरा शका भाव आ जाए तो देश को गुलाम बनने
में देर न लगेगी। मनुष्य को सफलता पाने के लिए सदैव आशावादी बने रहना चाहिए।
यूँ तो कोयल और कौआ दोनों ही देखने में एक-से होते हैं परंतु वाणी के कारण दोनों
में ज़मीन आसमान का अंतर हो जाता है। दोनों पक्षी किसी को न कुछ देते हैं और न कुछ
लेते हैं परंतु कोयल मधुर वाणी से जग को अपना बना लेती है और कौआ अपनी कर्कश
वाणी के कारण भगाया जाता है। कोयल की मधुर वाणी कर्ण प्रिय लगती है और उसे सब
सुनने को इच्छुक रहते हैं। यही स्थिति समाज की है।
समाज में वे लोग सभी के प्रिय बन जाते हैं जो मधुर बोलते हैं जबकि कटु बोलने
वालों से सभी बचकर रहना चाहते हैं। मधुर वाणी औषधि के समान होती है जो सुनने
वालों के तन और मन को शीतलकर देती है। इससे लोगों को सुखानुभूति होती है। इसके
विपरीत कटुवाणी उस तीखे तीर की भाँति होती है जो कानों के माध्यम से हमारे शरीर में
प्रवेश करती है और पूरे शरीर को कष्ट पहुँचाती है।
कड़वी बोली जहाँ लोगों को ज़ख्म देती है वहीं मधुर वाणी वर्षों से हुए मन के घाव को
भर देती है। मधुर वाणी किसी वरदान के समान होती है जो सुनने वाले को मित्र बना देती
है। मधुर वाणी सुनकर शत्रु भी अपनी शत्रुता खो बैठते हैं। इसके अलावा जो मधुर वाणी
बोलते हैं उन्हें खुद को संतुष्टि और सुख की अनुभूति होती है। इससे व्यक्ति का
व्यक्तित्व प्रभावी एवं आकर्षक बन जाता है। इससे व्यक्ति के बिगड़े काम तक बन जाते
हैं।
शिक्षा और माता-पिता
शिक्षा की महत्ता
उत्तरदायित्व
शिक्षाविहीन नर प श%समान।
अर्थात वे माता-पिता बच्चे के लिए शत्र के समान होते हैं जो अपने बच्चों को शिक्षा नहीं
देते। ये बच्चे शिक्षितों की सभा में उसी तरह होते हैं जैसे हंसों के बीच बगुला। एक
बच्चे के लिए परिवार प्रथम पाठ ला लाशा
होती है और माता-पिता उसके प्रथम शिक्षक। माता-
पिता यहाँ अभी अपनी भूमिका का उचित निर्वाह तो करते हैं पर जब बच्चा विद्यालय जाने
लायक होता है तब कुछ माता पिता उनके शिक्षा-दीक्षा पर ध्यान नहीं देते हैं और अपने
बच्चों को स्कूल नहीं भेजते हैं। ऐसे में बालक जीवन भर के लिए निरक्षर की वि षशे ष
महत्ता एवं उपयोगिता है।
शिक्षा के बिना जीवन अंधकारमय हो जाता है। कभी वह साहकारों के चंगल में फँसता है
तो कभी लोभी दकानदारों के। उसके लिए काला अक्षर भैंस बराबर होता है। वह समाचार
पत्र. पत्रिकाओं, पुस्तकों आदि का लाभ नहीं उठा पाता है। उसे कदम-कदम पर कठिनाइयों का
सामना करना पडता है ऐसे में माता-पिता का उत्तरदायित्व है कि वे अपने बच्चों के
पालन-पोषण के साथ ही उनकी शिक्षा की भली प्रकार व्यवस्था करें। कहा गया है कि
विद्याविहीन नर की स्थिति पओंओंशुजैसी होती है, बस वह घास नहीं खाता है। शिक्षा से ही
मानव सभ्य इनसान बनता है। हमें भूलकर भी शिक्षा से मुंह नहीं मोड़ना चाहिए।
भारतवासी त्योहार प्रिय होते हैं। यहाँ त्योहार ऋतुओं और भारतीय महीनों के आधार पर
मनाए जाते हैं। साल के बारह महीनों में शायद ही कोई ऐसा महीना हो जब त्योहार न मनाया
जाता हो। चैत महीने में राम नवमी मनाने से त्योहारों का जो सिलसिला शुरू होता है, वह
बैसाखी, गंगा दशहरा मनाने के क्रम में नाग पंचमी, तीज, रक्षाबंधन, कृष्ण जन्माष्टमी,
दशहरा, दीपावली, क्रिसमस, लोहिड़ी से आगे बढ़कर वसंत पंचमी तथा होली पर ही आकर
रुकती है। इसी बीच पोंगल, ईद जैसे त्योहार भी अपने स हैं।
त्योहार थके हारे मनुष्य के मन में उत्साह का संचार करते हैं और खु शएवं उल्लास
से भर देते हैं। वे लोगों को बँधी-बँधाई जिंदगी को अलग ही ढर्रे पर ले जाते हैं।
इससे जीवन की ऊब एवं नीरसता गायब हो जाती है। त्योहार मनुष्य को मेल-मिलाप का
अवसर देते हैं। इससे लोगों के बीच की कटुता दूर होती है। त्योहार लोगों में सहयोग
ष
और मिल-जुलकर कर रहने की प्रेरणा देते हैं। एकता बढ़ाने में त्योहारों का वि षशे
महत्त्व है।
वर्तमान समय में त्योहार अपना स्वरूप खोते जा रहे हैं। इनको महँगाई ने बुरी तरह से
प्रभावित किया है। इसके अलावा त्योहारों पर बाज़ार का असर पड़ा है। अब प्रायः बाज़ार
में बिकने वाले सामानों की मदद से त्योहारों को जैसे-तैसे मना लिया जाता है।
इसका कारण लोगों की व्यस्तता और समय की कमी है। त्योहार हमारी संस्कृति के अंग हैं।
हमें त्योहारों को मिल-जुलकर हर्षोल्लास से मनाना चाहिए।
महँगाई उस समस्या का नाम है, जो कभी थमने का नाम नहीं लेती है। मध्यम और निम्न
मध्यम वर्ग के साथ ही गरीब वर्ग को जिस समस्या ने सबसे ज्यादा त्रस्त किया है वह
महँगाई ही है। समय बीतने के साथ ही वस्तुओं का मूल्य निरंतर बढ़ते जाना महँगाई
कहलाता है। इसके कारण वस्तुएँ आम आदमी की क्रयशक्ति से बाहर होती जाती हैं और ऐसा
व्यक्ति अपनी मूलभूत आवश्यकताएँ तक पूरा नहीं कर पाता है।
ऐसी स्थिति में कई बार व्यक्ति को भूखे पेट सोना पड़ता है।महँगाई के कारणों को ध्यान
से देखने पर पता चलता है कि इसे बढ़ाने में मानवीय और प्राकृतिक दोनों ही कारण
जिम्मेदार हैं। मानवीय कारणों में लोगों की स्वार्थवृत्ति, लालच अधिकाधिक लाभ कमाने
की प्रवृत्ति, जमाखोरी और असंतोष की भावना है। इसके अलावा त्याग जैसे मानवीय
मूल्यों की कमी भी इसे बढ़ाने में आग में घी का काम करती है।
सूखा, बाढ़ असमय वर्षा, आँधी, तूफ़ान, ओलावृष्टि के कारण जब फ़सलें खराब होती हैं तो
उसका असर उत्पादन पर पड़ता है। इससे एक अनार सौ बीमार वाली स्थिति पैदा होती है
और महँगाई बढ़ती है।महँगाई रोकने के लिए लोगों में मानवीय मूल्यों का उदय होना
आवश्यक है ताकि वे अपनी आवश्यकतानुसार ही वस्तुएँ खरीदें। इसे रोकने के लिए
जनसंख्या वृद्धि पर लगाम लगाना आवश्यक है।
महँगाई रोकने के लिए सरकारी प्रयास भी अत्यावयककश्य है। सरकार को चाहिए कि वह आयात-
निर्यात नीति की समीक्षा करे तथा जमाखोरों पर कड़ी कार्यवाही करें और आवश्यक वस्तुओं
का वितरण रियायती मूल्य पर सरकारी दुकानों के माध्यम से करें।
अब समाचार पत्र अत्यंत सस्ता और सर्वसुलभ बन गया है। समाचार पत्रों के कारण लाखों
लोगों को रोजगार मिला है। इनकी छपाई, ढुलाई, लादने-उतारने में लाखों लगे रहते हैं
तो एजेंट, हॉकर और दुकानदार भी इनसे अपनी जीविका चला रहे हैं। इतना ही नहीं पुराने
समाचार पत्रों से लिफ़ाफ़े बनाकर एक वर्ग अपनी आजीविका चलाता है। छपने की अवधि
पर समाचार पत्र कई प्रकार के होते हैं।
प्रतिदिन छपने वाले समाचार पत्रों को दैनिक, सप्ताह में एक बार छपने वाले समाचार
पत्रों को साप्ताहिक, पंद्रह दिन में छपने वाले समाचार पत्र को पाक्षिक तथा माह में
एक बार छपने वाले को मासिक समाचार पत्र कहते हैं। अब तो कुछ शहरों में शाम को भी
समाचार पत्र छापे जाने लगे हैं। समाचार पत्र हमें देश-दुनिया के समाचारों, खेल की
जानकारी मौसम तथा बाज़ार संबंधी जानकारियों के अलावा इसमें छपे विज्ञापन भी
भाँति-भाँति की जानकारी देते हैं।
भौगोलिक स्थिति
प्राकृतिक सौंदर्य
विविधता में एकता की भावना
अत्यंत प्राचीन संस्कृति।
सौभाग्य से दुनिया के जिस भू-भाग पर मुझे जन्म लेने का अवसर मिला दुनिया उसे भारत
के नाम से जानती है। हमारा देश ए या याशि
महाद्वीप के दक्षिणी छोर पर स्थित है। यह देश
तीन ओर समुद्र से घिरा है। इसके उत्तर में पर्वतराज हिमालय हैं, जिसके चरण सागर
पखारता है। इसके पचिम मश्चि में अरब सागर और पूर्व में बंगाल की खाड़ी है। चीन, भूटान,
नेपाल, पाकिस्तान, श्रीलंका आदि इसके पड़ोसी देश हैं।
हमारे देश का प्राकृतिक सौंदर्य अनुपम है। हिमालय की बरफ़ से ढंकी सफ़ेद चोटियाँ
भारत के सिर पर रखे मुकुट में जड़े हीरे-सी प्रतीत होती हैं।यहाँ बहने वाली गंगा-
यमुना, घाघरा, ब्रह्मपुत्र आदि नदियाँ इसके सीने पर धवल हार जैसी लगती हैं। चारों ओर
लहराती हरी-भरी फ़सलें और वृक्ष इसका परिधान प्रतीत होते हैं। यहाँ के जंगलों में
हरियाली का साम्राज्य है। भारत में नाना प्रकार की विविधता दृष्टिगोचर होती है।
यहाँ विभिन्न जाति-धर्म के अनेक भाषा-भाषी रहते है। यहाँ के परिधान, त्योहार मनाने
अनुच्छेद लेखन के ढंग और खान-पान व रहन-सहन में खूब विविधता मिलती है।यहाँ की
जलवायु में भी विविधता का बोलबाला है, फिर भी इस विविधता के मूल में एकता छिपी है।
देश पर कोई संकट आते ही सभी भारतीय एकजुट हो जाते हैं। हमारे देश की संस्कृति
लीशा
अत्यंत प्राचीन और समृद्धि ली है।
मनुष्य ज्यों-ज्यों सभ्य होता गया त्यों-त्यों उसकी आवश्यकताएँ बढ़ती गईं। बढ़ती जनसंख्या
की भोजन और आवास संबंधी आवश्यकता के लिए उसने वनों की अंधाधुंध कटाई की जिससे
धरती पर कार्बन डाईऑक्साइड की मात्रा बढ़ी। कुछ और विषाक्त गैसों से मिलकर कार्बन
डाईऑक्साइड ने इस परत में छेद कर दिया जिससे सूर्य की पराबैगनी किरणें धरती पर
आने लगीं और त्वचा के कैंसर के साथ अन्य बीमारियों का खतरा बढ़ गया।
इन पराबैगनी किरणों को धरती पर आने से ओजोन की परत रोकती है। ओजोन की परत नष्ट
करने में विभिन्न प्र तकतकशी
यंत्रों में प्रयोग की जाने वाली क्लोरो प्लोरो कार्बन का भी
हाथ है। यदि पृथ्वी पर जीवन बनाए रखना है तो हमें ओजोन परत को बचाना होगा। इसके
लिए धरती पर अधिकाधिक पेड़ लगाना होगा तथा कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन कम
करना होगा।
भ्रष्टाचार समाज और देश के लिए घातक है। दुर्भाग्य से आज हमारे समाज में इसकी
जड़ें इतनी गहराई से जम चुकी हैं कि इसे उखाड़ फेंकना आसान नहीं रह गया है।
भ्रष्टाचार के कारण देश की मान मर्यादा कलंकित होती है। इसे किसी देश के लिए अच्छा
तखोरी
नहीं माना जाता है। भ्रष्टाचार के कारण ही आज रिवतखोरी , मुनाफाखोरी, चोरबाज़ारी,
श्व
मिलावट, भाई-भतीजावाद, कमीशनखोरी आदि अपने चरम पर हैं।
इससे समाज में विषमता बढ़ रही है। लोगों में आक्रोश बढ़ रहा है और विकास का मार्ग
अवरुद्ध होता जा रहा है। इसके कारण सरकारी व्यवस्था एवं प्र सनसनशा
पंगु बन कर रह गए
हैं। भ्रष्टाचार मिटाने के लिए लोगों में मानवीय मूल्यों को प्रगाढ़ करना चाहिए।
ष आवश्यकता है। लोगों को अपने आप में त्याग एवं संतोष
इसके लिए नैतिक शिक्षा की वि षशे
की भावना मज़बूत करनी होगी। यद्यपि सरकारी प्रयास भी इसे रोकने में कारगर सिद्ध
होते हैं पर लोगों द्वारा अपनी आदतों में सुधार और लालच पर नियंत्रण करने से यह
समस्या स्वतः कम हो जाएगी।
परिवर्तन प्रकृति का नियम है। यह परिवर्तन समय के साथ स्वतः होता रहता है। मनुष्य भी
इस बदलाव से अछूता नहीं है। प्राचीन काल में मनुष्य ने न इतना विकास किया था और न
वह इतना सभ्य हो पाया था। तब उसकी आवश्यकताएँ सीमित थीं। ऐसे में पुरुष की कमाई से घर
चल जाता था और नारी की भूमिका घर तक सीमित थी। उसे बाहर जाकर काम करने की
आवश्यकता न थी।
वर्तमान समय में मनुष्य की आवश्यकता इतनी बढ़ी हुई है कि इसे पूरा करने के लिए पुरुष की
कमाई अपर्याप्त सिद्ध हो रही है और नारी को नौकरी के लिए घर से बाहर कदम बढ़ाना
पड़ा।आज की नारी पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर लगभग हर क्षेत्र में काम
करती दिखाई देती हैं। आज की नारी दोहरी भूमिका का निर्वाह कर रही है।
घर में उसे खाना पकाने, घर की सफ़ाई, बच्चों की देखभाल और उनकी शिक्षा का दायित्व है
तो वह कार्यालयों के अलावा खेल, राजनीति साहित्य और कला आदि क्षेत्रों में उतनी ही
कुशलता और तत्परता से कार्य कर रही है। वह दोनों जगह की ज़िम्मेदारियों की चुनौतियों
को सहर्ष स्वीकारती हुई आगे बढ़ रही है और दोहरी भूमिका का निर्वहन कर रही है।
वर्तमान में नारी द्वारा घर से बाहर आकर काम करने पर सुरक्षा की आवश्यकता महसूस होने
लगी है। कुछ लोगों की सोच ऐसी बन गई है कि वे ऐसी स्त्रियों को संदेह की दृष्टि से
देखते हैं। ऐसी स्त्रियों को प्रायः कार्यालय में पुरुष सहकर्मियों तथा आते-जाते कुछ
लोगों की कुदृष्टि का सामना करना पड़ता है। इसके लिए समाज को अपनी सोच में बदलाव
लाने की आवश्यकता है।
जनसंख्या वृद्धि के साथ देश के विकास की स्थिति ‘ढाक के तीन पात वाली’ बनकर रह जाती
है। प्रकृति ने लोगों के लिए भूमि वन आदि जो संसाधन प्रदान किए हैं, जनाधिक्य के
कारण वे कम पड़ने लगते हैं तब मनुष्य प्रकृति के साथ खिलवाड़ शुरू कर देता है। वह
अपनी बढ़ी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए वनों का विनाश करता है।
इससे प्राकृतिक असंतुलन का खतरा पैदा होता है जिससे नाना प्रकार की समस्याएँ
उत्पन्न होती हैं। जनसंख्या वृद्धि के लिए हम भारतीयों की सोच काफ़ी हद तक जिम्मेदार
है। यहाँ की पुरुष प्रधान सोच के कारण घर में पुत्र जन्म आवश्यक माना जाता है। भले ही
एक पुत्र की चाहत में छह, सात लड़कियाँ क्यों न पैदा हो जाएँ पर पुत्र के बिना न तो लोग
अपना जन्म सार्थक मानते हैं और न उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती दिखती है।
विज्ञान ने मानव जीवन को विविध रूपों में प्रभावित किया है। शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो
जहाँ विज्ञान ने हस्तक्षेप न किया हो। समय-समय पर हुए आश्चर्यजनक आविष्कारों ने मानव
जीवन को बदलकर रख दिया है। विज्ञान की इन्हीं अद्भुत खोजों में एक है मोबाइल फ़ोन
जिससे मनुष्य इतना प्रभावित हुआ कि आप हर कि ररशोही नहीं हर आयु वर्ग के लोग इसका
प्रयोग करते देखे जा सकते हैं।
वास्तव में मोबाइल फ़ोन इतना उपयोगी और सुविधापूर्ण साधन है कि हर व्यक्ति इसे
अपने पास रखना चाहता है और इसका विभिन्न रूपों में प्रयोग भी कर रहा है। संचार की
दुनिया में फ़ोन का आविष्कार एक क्रांति थी। तारों के माध्यम से जुड़े फ़ोन पर अपने
प्रियजनों से बातें करना एक रोमांचक अनभव था। शरू में फ़ोन महँगे और कई उपकर
लाना-ले-जाना संभव न था।
हमें बातें करने के लिए इनके पास जाना पड़ता था पर मोबाइल फ़ोन जेब में रखकर
कहीं भी लाया-ले जाया जा सकता है। अब यह सर्वसुलभ भी बन गया है। वास्तव में
मोबाइल फ़ोन का आविष्कार संचार के क्षेत्र में क्रांति से कम नहीं है। आज मोबाइल
फ़ोन पर बातें करने के अलावा फ़ोटो खींचना, गणनाएँ करना, फाइलें सुरक्षित रखना
जैसे बहुत से काम किए जा रहे हैं क्योंकि यह जेब का कंप्यूटर बन गया है।
कुछ लोग इसका दुरुपयोग करने से नहीं चूकते हैं। असमय फ़ोन करके दूसरों को परे ननशा
करना, अवांछित फ़ोटो खींचना जैसे कार्य करके इसका दुरुपयोग करते हैं। इसके कारण
छात्रों की पढ़ाई पर बुरा असर पड़ा है। इसका आवश्यकतानुरूप ही प्रयोग करना चाहिए।
लीशा
भारतीय संस्कृति को समृद्ध ली और लोकप्रिय बनाने में जिन तत्त्वों का योगदान है
उनमें एक है-सादा जीवन उच्च विचार। सादा जीवन उच्च विचार रहन-सहन की एक शैली है
जिससे भारतीय ही नहीं विदे शतक प्रभावित हुए हैं। प्राचीनकाल में हमारे देश के
ऋषि मुनि भी इसी जीवन शैली को अपनाते थे। भारतीयों को प्राचीनकाल से ही सरल और
सादगीपूर्ण जीवन पसंद रहा है।
इनके आचरण में त्याग, दया, सहानुभूति, करुणा, स्नेह उदारता, परोपकार की भावना आदि गुण
विद्यमान हैं। मनुष्य के सादगीपूर्ण जीवन के लिए इन गुणों की प्रगाढ़ता आवश्यक है।
भारतीयों का जीवन किसी तप से कम नहीं रहा है क्योंकि उनके विचारों में महानता और
जीवन में सादगी रही है। प्राचीनकाल से ही यह नियम बना दिया गया था कि जीवन के
आरंभिक 25 वर्ष को ब्रहमचर्य जीवन के रूप में बिताया जाय।
इस काल में बालक गुरुकुलों में रहकर सादगी और नियम का पाठ सीख जाता था। इनका जीवन
ऐशो-आराम और विलासिता से कोसों दूर हुआ करता था। यही बाद में भारतीयों के जीवन का
आधार बन जाता था। महात्मा गांधी, सरदार पटेल आदि का जीवन सादगी का दूसरा नाम था। वे
एक धोती में जिस सादगी से रहते थे वह दूसरों के लिए आदर्श बन गया। वे दूसरों के लिए
अनुकरणीय बन गए।
धर्म के बिगड़े एवं कट्टर रूप को सांप्रदायिकता की संज्ञा दी जा सकती है। ‘धारयति इति
धर्मः’ अर्थात् जिसे धारण किया जाए वही धर्म है। मनुष्य अपने आचरण और जीवन को
मर्यादित रखने के लिए धर्म का सहारा लिया करता था। बाद में धर्म ने एक जीवन पद्धति
का रूप ले लिया। धर्म का यह रूप मनुष्य और समाज के लिए कल्याणकारी माना जाता था।
धीरे-धीरे लोगों की सोच में बदलाव आया और धर्म का उपयोग अपने स्वार्थ के लिए
करना शुरू कर दिया। यहीं से धर्म में विकृति आई। लोगों में अपने धर्म के प्रति
कट्टरता आने लगी और सांप्रदायिकता अपना रंग दिखाने लगी। सांप्रदायिकता के व भूतभूतशी
होकर मनुष्य वाणी और कर्म से दूसरे धर्मावलंबियों की भावनाएँ भड़काता है जो व्यक्ति
समाज और राष्ट्र सभी के लिए हानिकारक होती है।
दुर्भाग्य से यह कार्य आज समाज के तथा कथित ठेके दार और समाज सुधारक कहलाने वाले
नेता खुले आम कर रहे हैं जिससे लोगों का आपसी विवास सश्वा घट रहा है। इसके अलावा
धार्मिक सद्भाव, सहिष्णुता, भाई-चारा, आपसी सौहार्द्र नष्ट हो रहा है तथा घृणा की भावना
प्रगाढ़ हो रही है। सांप्रदायिकता की रोक थाम के लिए धार्मिक भावनाओं को भड़काना बंद
किया जाना चाहिए।
ऐसा करने वालों को कठोर दंड देना चाहिए। हमारे नेताओं को चाहिए कि वे वोट की
राजनीति बंद करें और लोगों को जाति-धर्म के आधार पर न बाँटें। इस स्थिति में हमारा
कर्तव्य यह होना चाहिए कि हम किसी के बहकावे में न आएँ और सद्भाव बनाए रखते हुए
दूसरों की भावनाएँ और उनके धर्मों का भी आदर करें।
विज्ञान ने मनुष्य को जो अद्भुत उपकरण प्रदान किए हैं उनमें प्रमुख है-कंप्यूटर।
कंप्यूटर ऐसा चमत्कारी उपकरण है जो हमारी कल्पना को साकार रूप दे रहा है। जिन बातों की
कल्पना कभी मनुष्य किया करता था, उन्हें कंप्यूटर पूरा कर रहा है। यह बहूपयोगी उपकरण
है जिससे मनुष्य की अनेकानेक समस्याएँ हल हुई हैं। कंप्यूटर में लगा उच्च तकनीकि
वाला मस्तिष्क मनुष्य की सोच से भी अधिक तेजी से कार्य करता है जिससे मनुष्य का
समय और भ्रम दोनों ही बचने लगा है।
अब तो छात्र अपनी पढ़ाई और लोग अपने व्यक्तिगत प्रयोग के लिए इसका प्रयोग आवश्यक
मानने लगे हैं। कंप्यूटर पर अब पीडीएफ (PDF) फ़ॉर्म में पुस्तकें अपलोड कर दी जाती
हैं। अब छात्रों को बस एक बटन दबाने की ज़रूरत है। ज्ञान का संसार कंप्यूटर की
स्क्रीन पर प्रकट हो जाता है। अब उन्हें न भारी भरकम बस्ता उठाने की ज़रूरत है और न
मोटी-मोटी पुस्तकें।
इसके अलावा कंप्यूटर पर गीत सुनने, फ़िल्में देखने और गेम खेलने की सुविधा भी
उपलब्ध रहती है। कंप्यूटर का अत्यधिक प्रयोग हमें आलसी और मोटापे का शिकार बनाता
है। इंटरनेट के जुड़ जाने से कुछ लोग इसका दुरुपयोग करते हैं। कंप्यूटर का अधिक
प्रयोग हमारी आँखों के लिए हानिकारक है। हमें कंप्यूटर का प्रयोग सोच समझकर करना
चाहिए।
मनोरंजन की आवश्यकता
मनोरंजन के प्राचीन साधन
मनोरंजन के साधनों में बदलाव
आधुनिक साधनों के लाभ-हानियाँ।
मनुष्य श्रमशील प्राणी है। वह आदिकाल से श्रम करता रहा है। इस श्रम के उपरांत थकान उत्पन्न
होना स्वाभाविक है। पहले वह भोजन की तलाश एवं जंगली जानवरों से बचने के लिए श्रम
करता था। बाद में उसकी आवश्यकता बढ़ीं अब वह मानसिक और शारीरिक श्रम करने लगा। श्रम की
थकान उतारने एवं ऊर्जा प्राप्त करने के लिए मनोरंजन की आवश्यकता महसूस हुई।
-पक्षियों के माध्यम
इसके लिए उसने विभिन्न साधन अपनाए। प्राचीन काल में मनुष्य प श%
से अपना मनोरंजन करता था। वह पक्षी और जानवर पालता था। उनकी बोलियों और उनकी
लड़ाई से वह मनोरंजन करता था। इसके अलावा शिकार करना भी उसके मनोरंजन का साधन
था। इसके बाद ज्यों-ज्यों समय में बदलाव आया, उसके मनोरंजन के साधन भी बढ़ते गए।
मध्यकाल तक मनुष्य ने नृत्य और गीत का सहारा लेना शुरू किया। नाटक, गायन, वादन,
नौटंकी, प्रहसन काव्य पाठ आदि के माध्यम से वह आनंदित होने लगा। खेल तो हर काल में
मनोरंजन का साधन रहे हैं। आज मनोरंजन के साधनों में भरपूर वृद्धि हुई है। अब तो
मोबाइल फ़ोन पर गाने सुनना, फ़िल्म देखना, सिनेमा जाना, दे टन टनशा
करना, कंप्यूटर का
उपयोग करना, चित्रकारी करना, सरकस देखना, पर्यटन स्थलों का भ्रमण करना उसके
मनोरंजन में शामिल हो गया है।
मनोरंजन के आधुनिक साधन घर बैठे बिठाए व्यक्ति का मनोरंजन तो करते हैं पर व्यक्ति
में मोटापा, रक्तचाप की समस्या, आलस्य, एकांतप्रियता और समाज से अलग-थलग रहने की
प्रवृत्ति उत्पन्न कर रहे हैं।
भारतीय संस्कृति के मूल में छिपी है-कल्याण की भावना। इसी भावना के व भूतभूतशी
होकर
प्राचीनकाल में कन्या का पिता अपनी बेटी की सुख-सुविधा हेतु कुछ वस्त्र-आभूषण और धन
उसकी विदाई के समय स्वेच्छा से दिया करता था। कालांतर में यही रीति विकृत हो गई।
इसी विकृति को दहेज नाम दिया गया। धीरे-धीरे लोगों ने इसे अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा
से जोड़ लिया।
सभ्यता और भौतिकवाद के कारण लोगों में धन लोलुपता बढ़ी है जिसने इस प्रथा को विकृत
करने में वही काम किया जो आग में घी करता है। वर पक्ष के लोग कन्या पक्ष से खुलकर
दहेज माँगने लगे और समाज की नज़र बचाकर बलपूर्वक दहेज लेने लगे जिससे इस
प्रथा ने दानवी रूप ले लिया। आज स्थिति यह है कि समाज में लड़कियों को बोझ समझा
जाने लगा है।
लोग घर में कन्या का जन्म किसी अपशकुन से कम नहीं समझते हैं। इससे समाज की सोच
में विकृति आई है। दहेज प्रथा हमारे समाज के लिए अत्यंत घातक है। इस प्रथा के
कारण ही जन्मी-अजन्मी लड़कियों को मारने का चलन शुरू हो गया। आज का समय तो जन्मपूर्व
ही कन्या भ्रूण की हत्या करा देता है। इसमें असफल रहने के बाद वह जन्म के बाद
कन्याओं के पालन-पोषण में दोहरा मापदंड अपनाता है।
दहेज प्रथा रोकने के लिए केवल सरकारी प्रयास ही काफ़ी नहीं हैं। इसके लिए युवा
वर्ग को आगे आना होगा और दहेज रहित-विवाह प्रथा की शुरूआत करके समाज के सामने
अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत करना होगा।
मनुष्य और त्योहारों का अटूट संबंध है। मनुष्य अपने थके हारे मन को उत्साहित एवं
आनंदित करने के साथ ही ऊर्जान्वित करने के लिए त्योहार मनाने का कोई न कोई बहाना
खोज ही लेता है। कभी महीना बदलने पर, कभी नई ऋतु आने पर और कभी फ़सल पकने की आड़
में मनुष्य प्राचीन समय से त्योहार मनाता आया है।
‘ज्ञापन’ में ‘वि’ उपसर्ग लगाने से विज्ञापन शब्द बना है, जिसका शाब्दिक अर्थ है-सूचना
या जानकारी देना। दुर्भाग्य से आज विज्ञापन का अर्थ सिमट कर वस्तुओं की बिक्री बढ़ाकर
लाभ कमाने तक ही सीमित रह गया है। वर्तमान समय में विज्ञापन का प्रचार-प्रसार इतना
बढ़ गया है कि अब तो कहीं भी विज्ञापन देखे जा सकते हैं। इस कारण से वर्तमान समय
को विज्ञापनों का युग कहने में कोई अतिशयोक्ति नहीं है।
विज्ञापन उत्पादक और उपभोक ता दोनों के लिए लाभदायी हैं। इसके माध्यम से हमारे
सामने चुनाव का विकल्प, सलभ तो विक्रेताओं को भी भरपूर लाभ होता है। विज्ञापन के
कारण वस्तुओं का मूल्य बढ़ जाता है। इनमें वस्तु के गुणों को बढ़ा-चढ़ाकर प्रस्तुत किया
जाता है। अतः हमें विज्ञापनों से सावधान रहना चाहिए।
उपकार का अर्थ है-भलाई करना। इसी उपकार में ‘पर’ उपसर्ग लगाने से परोपकार बना है।
इसका अर्थ है-दूसरों की भलाई करना। जब मनुष्य निस्स्वार्थ भाव से दूसरों की भलाई मन,
वाणी और कर्म से करता है, तब उसे परोपकार कहा जाता है। परोपकार का सर्वोत्तम
उदाहरण हमें प्रकृति के कार्यों से मिलता है।
वृक्ष अपने फल स्वयं नहीं खाते हैं, नदियाँ अपना पानी स्वयं नहीं पीती हैं। इसी
प्रकार फूल दूसरों के लिए खिलते हैं और बादल जीवों के कल्याण के लिए अपना
अस्तित्व तक नष्ट कर देते हैं। परोपकार मनुष्य का सर्वोत्तम गुण है। हमारे ऋषि-मुनि
तो अपना जीवन परोपकार में अर्पित कर देते थे। उनके कार्य हमें परोपकार की
प्रेरणा देते हैं। कहा भी गया है कि ‘वही मनुष्य है कि जो मनुष्य के लिए मरे।’
परोपकार से व्यक्ति को सुख-शांति की अनुभूति होती है तथा जिसकी भलाई की जाती है उसे
अपनी दीन-हीन स्थिति से मुक्ति मिल जाती है। परोपकार व्यक्ति को आदर्श जीवन की राह
दिखाते हैं। इससे व्यक्ति को मनुष्य बनने की पूर्णता प्राप्त होती है। वास्तव में
परोपकार में ही जीवन की सार्थकता है। परोपकार से व्यक्ति को सच्चा आनंद प्राप्त होता
है।
भू
इसी आनंद के व भूततशी
होकर व्यक्ति अपना तन-मन और धन देकर भी परोपकार करता है।
महर्षि दधीचि ने अपनी हड्डियाँ देकर मानवता का कल्याण किया तो शिवि ने अपने शरीर का
मांस देकर कबूतर की जान बचाई। हमें भी परोपकार का अवसर हाथ से नहीं जाने देना
चाहिए।
मित्र की आवश्यकता
मित्र का स्वभाव
सन्मार्ग पर ले जाते मित्र
मित्र के चयन में सावधानियाँ।
मानव जीवन को संग्राम की सभा से विभूषित किया गया है, जिसमें दुख और सुख क्रम0 श:आते-
जाते रहते हैं। सुख का समय जल्दी और सरलता से कब बीत जाता है पता ही नहीं चलता
पर दुख के समय में उसे ऐसे व्यक्ति की ज़रूरत होती है जो उसके काम आए। अब उसे मित्र
की आवश्यकता होती है जो होती है जो उसे दख सहने का साहस प्रदान करे। मित्र का स्वभाव
उदार. परोपकारी होने के साथ ही विपत्ति में साथ न छोड़ने वाला होना चाहिए।
उसे जल की भाँति नहीं होना चाहिए जो जाल पड़ने पर जाल में फँसी मछलियों का साथ
छोड़कर दूर हो जाता है और मछलियों को मरने के लिए छोड़ जाता है। वास्तव में मित्र
का स्वभाव श्रीराम और सुग्रीव के स्वभाव की भाँति होना चाहिए जिन्होंने एक-दूसरे की मदद
करके अनुकरणीय उदाहरण प्रस्तुत किया। एक सच्चा मित्र को बुराइयों से हटाकर सन्मार्ग
की ओर ले जाता है।
एक सच्चा मित्र अपने मित्र को व्यसन से बचाकर सत्कार्य के लिए प्रेरित करता है और
उसके लिए घावों पर लगी उस औषधि के समान साबित होता है जो उसकी पीड़ा हरकर शीतलता
पहुँचाती है। व्यक्ति के पास धन देखकर बहुत से लोग नाना प्रकार से मित्र बनने की
चेष्टा करते हैं। हमें इन अवसरवादी लोगों से सावधान रहना चाहिए। हमारी जी हुजूरी
और चापलूसी करने वाले को भी सच्चा मित्र नहीं कहा जा सकता है।
यदि शरीर स्वस्थ नहीं है तो दुनिया का कोई सुख व्यक्ति को रुचिकर नहीं लगता है, तभी
स्वास्थ्य को सबसे बड़ा धन कहा गया है। स्वास्थ्य पाने का एक साधन सात्विक भोजन,
स्वस्थ आदतें, उचित दिनचर्या और दवाईयाँ हैं, पर ये सभी स्वस्थ रहने के साधन मात्र
हैं। स्वास्थ्य का अर्थ केवल शारीरिक नहीं बल्कि इस परिधि में मानसिक स्वास्थ्य भी आता
है।
इसे पाने की मुफ्त की औषधि है-व्यायाम, जिसे पाने के लिए धन खर्च करने की आवश्यकता
नहीं होती है। व्यायाम करने का सर्वोत्तम समय भोर की बेला है जब वातावरण में शांति,
हवा में शीतलता और सुगंध होती है। ऐसे वातावरण में मन व्यायाम में लगता है। व्यायाम
याँ
से हमारे शरीर का रक्त प्रवाह तेज़ होता है, हड्डियाँ मज़बूत और मांसपे याँ शि
लचीली
बनती हैं। इससे तन-मन दोनों स्वस्थ होता है। हमें भी समय निकालकर व्यायाम अवय श्य
करना चाहिए।
अनु सनसनशा
का अर्थ
अनु सनसनशा
की आवश्यकता
सनशा
प्रकृति में अनु सन
सनशा
अनु सन सफलता की कुंजी।
इस काल में विद्यार्थी जो कुछ सीखता है वही उसके जीवन में काम आता है। इस काल में
सनबद्
एक बार अनु सनबद्ध धशा
जीवन की आदत पड़ जाने पर आजीवन यही आदत बनी रहती है। मानव मन
अत्यंत चंचल होता है। वह स्वच्छंद आचरण करना चाहता है। इसके लिए अनु सन सनशा
बहुत
सनशा
आवश्यक है। प्रकृति अपने कार्य व्यवहार से मनुष्य तथा अन्य प्राणियों को अनु सन का
पाठ पढ़ाती है।
सूर्य समय पर निकलता है। चाँद और तारे रात होने पर चमकना नहीं भूलते हैं। ऋतु आने
पर फूल खिलना नहीं भूलते हैं। वर्षा ऋतु में बादल बरसना और समयानुसार वृक्ष फल नहीं
भूलते हैं। ऋतुएँ समय पर आती जाती हैं और मुर्गा समय पर बाँग देता है। ये हमें
अनु सनसनशा
का पाठ पढ़ाते हैं।
जीवन में जितने भी लोगों ने सफलता प्राप्त की है उसके मूल में अनु सन सनशारहा है।
सनशा
गांधी जी, नेहरू जी, टैगोर, तिलक, विवेकानंद आदि की सफलता का मूल मंत्र अनु सन रहा
सनशा
है। विद्यार्थियों को कदम-कदम पर अनु सन का पालन करना चाहिए और सफलता के सोपान
चढ़ना चाहिए।
समय की पहचान
समय पर काम न करने पर पछताना व्यर्थ
समय का सदुपयोग-सफलता का सोपान
आलस्य का त्याग।
एक सूक्ति है–’समय और सूक्ति किसी की प्रतीक्षा नहीं करते हैं।’ ये आते और जाते
रहते हैं, चाहे कोई इनका लाभ उठाए या नहीं पर गुणवान लोग समय की महत्ता समझकर
समय का लाभ उठाते हैं। एक चतुर मछुआरा अपने जाल और नाव के साथ ज्वार की
प्रतीक्षा करता है और उसका लाभ उठाता है। जो लोग समय पर काम नहीं करते हैं उनके
हाथ पछताने के सिवा कुछ भी नहीं लगता है।
समय बीतने पर काम करने से उसकी सफलता का आनंद सूख जाता है। ऐसे ही लोगों के लिए
गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-‘समय चूकि वा पुनि पछताने।’ का बरखा जब कृषि सुखाने।
अर्थात् समय पर काम करने से चक कर पछताना उसी तरह है जैसा कि फ़सल सखने के
बाद वर्षा होने से वह हरी नहीं हो पाती है। जो व्यकि सदुपयोग करते हैं वे हर काम में
सफल होते हैं।
शत्रु आक्रमण का जो देश मुकाबला नहीं करता वह गुलाम होकर रह जाता है, समय पर बीज न
बोने वाले किसान की फ़सल अच्छी नहीं होती है और समय पर वर्षा न होने से भयानक
अकाल पड़ जाता है। इस तरह निस्संदेह समय का उपयोग सफलता का सोपान है। समय पर
काम करने के लिए आवश्यक है-आलस्य का त्याग करना। आलस्य भाव बनाए रखकर समय पर काम
पूरा करना कठिन है। अतः हमें आलस्य भाव त्यागकर समय का सदुपयोग करना चाहिए।
28. दे टन
टनशा
अथवा
मनोरंजन का साधन : पर्यटन
टनशा
दे टन क्या है?
टनशा
दे टन का महत्त्व
टनशा
दे टन के लाभ
देश की प्रगति में सहायक।
‘दे टन
टनशा
’ शब्द दो शब्दों ‘देश’ और ‘अटन’ के मेल से बना है जिसका अर्थ है देश का भ्रमण
करना अर्थात् ज्ञान और मनोरंजन के उद्देय श्य टनशा
से किया जाने वाला भ्रमण दे टन
कहलाता है। दे टन टनशा षताहै। वह प्राचीनकाल से ही शिकार
करना मनुष्य की स्वाभाविक वि षताशे
और आश्रय के उद्देय श्य से भटकता रहा है। मनुष्य आज भी भ्रमण करता है पर उसके भ्रमण
की महत्ता आज अधिक है।
वह भिन्न-भिन्न लोगों की भाषाओं से परिचित होता है। इससे राष्ट्रीय एकता मज़बूत होती
है। दे टनटनशा
से देश के विकास में सहायता होती है। पर्यटन उद्योग फलता-फूलता है और
विदे शमुद्रा भंडार में वृद्धि होती है। लोगों को रोजगार मिलता है। इस प्रकार व्यक्ति
और राष्ट्र दोनों की आय बढ़ती है। हमें अवसर मिलते ही दे टन टनशाअवय श्य
करना चाहिए।
यात्रा की तैयारी
रास्ते का सौंदर्य
पर्वतीय सौंदर्य
यादगार पल।
मनुष्य के मन में यात्रा करने का विचार ज़ोर मारता रहता है। उसे बस मौके की तलाश
रहती है। मुझे भी यात्रा करना बहुत अच्छा लगता है। आखिर मुझे अक्टूबर के महीने में
यह मौका मिल ही गया जब पिता जी ने बताया कि हम सभी वैष्णो देवी जाएँगे। वैष्णो देवी
का नाम सुनते ही मन बल्लियों उछलने लगा और मैं तैयारी में जुट गया। उधर माँ भी
आवश्यक तैयारियाँ करने के क्रम में कपड़े, चादर और खाने के लिए नमकीन बिस्कुट
आदि पैक करने लगी।
आखिर नियत समय पर हम प्रात: तीन बजे नई दिल्ली स्टेशन पर पहुँचे और स्वराज
एक्सप्रेस से जम्मू के लिए चल पड़े। लगभग आधे घंटे बाद हम दिल्ली की सीमा पार
करते हुए सोनीपत पहुँचे। अब तक सवेरा हो चुका था। दोनों ओर दूर तक हरे-भरे खेत
दिखाई देने लगे। इसी बीच पूरब से भगवान भास्कर का उदय हुआ। उनका यह रूप मैं दिल्ली
में नहीं देख सका था।
दस बजे तक तो मैं जागता रहा पर उसके बाद चक्की बैंक पहुँचने पर मेरी नींद खुली।
उससे आगे जाने पर हमें एक ओर पहाड़ नज़र आ रहे थे। वहाँ से कटरा जाकर हमने
पैदल चढ़ाई की। पर्वतों को इतने निकट से देखने का यह मेरा पहला अवसर था। इनकी
ऊँचाई और महानता देखकर अपनी लघुता का अहसास हो रहा था।
अब मुझे समझ में आया कि ‘अब आया ऊँट पहाड़ के नीचे’ मुहावरा क्यों कहा गया होगा।
वैष्णो देवी पहुँचकर वहाँ का पर्वतीय सौंदर्य हमारे दिलो-दिमाग पर अंकित हो गया।
न हुए वह आजीवन भुलाए नहीं भूलेगा।
वहाँ से भैरव मंदिर पहुँचकर जिस सौंदर्य के दर्नर्श
30. परीक्षा का डर
अथवा
परीक्षा से पहले मेरी मनोद श
परीक्षा नाम से भय
पर्याप्त तैयारी
घबराहट और दिल की धड़कनें हुई तेज़
-पत्र देखकर भय हुआ दूर।
प्रन श्न
परीक्षा वह शब्द है जिसे सुनते ही अच्छे अच्छों के माथे पर पसीना आ जाता है। परीक्षा
का नाम सुनते ही मेरा भी भयभीत होना स्वाभाविक है। ज्यों-ज्यों परीक्षा की घड़ी निकट
आती जा रही थी त्यों-त्यों यह घबराहट और भी बढ़ती जा रही थी। जितना भी पढ़ता था
घबराहट में सब भूला-सा महसूस हो रहा था। खाने-पीने में भी अरुचि-सी हो रही थी।
इस घबराहट में न जाने कब ‘जय हनुमान ज्ञान गुण सागर’-उच्चरित होने लगता था पता
नहीं। यद्यपि मैं अपनी तरफ से परीक्षा का भय भूलने और सभी प्रनों श्नों
के उत्तर
पर तनिक भी आशंका होती तो उस पर नि ननशा
दोहराने की तैयारी कर रहा था और जिन प्रनों श्नों
लगाकर पिता जी से शाम को हल करवा लेता था पर मन में कहीं न कहीं भय तो था ही।
परीक्षा का दिन आखिर आ ही गया।
31. देश-प्रेम
अथवा
प्राणों से प्यारा : देश हमारा
यह वह पवित्र भावना है जो देश की रक्षा करते हुए अपना तन-मन-धन अर्थात् सर्वस्व
न्योछावर करने के लिए प्रेरित करती है। ऐसा व्यक्ति ही सच्चादेश प्रेमी कहलाता है।
कहा गया है-‘जननी जन्म भूमिच श्चस्वर्गादपि गरीयसी’ अर्थात् जननी और जन्मभूमि स्वर्ग
से भी बढ़कर हैं। आखिर हो भी क्यों न व्यक्ति को स्वर्ग जाने के योग्य जननी और
जन्मभूमि ही बनाते हैं। माँ संतान को जन्म देती है पर जन्मभूमि की रज में लोटकर
बच्चा बढ़ता है और यहीं का अन्न जलग्रहण कर बड़ा होता है।
वास्तव में जन्मभूमि के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। हमारे देश के
वीरों और देशभक्तों ने जन्मभूमि की रक्षा के लिए सुख-चैन त्याग दिया, जेल की दर्दनाक
यातनाएँ भोगी, हँसते-हँसते लाठियाँ और कोड़े खाए और हँसते-हँसते फाँसी के
फंदे को चूम गए। देश प्रेम की पवित्र भावना जाति, धर्म, भाषा, वर्ण, वर्ग, प्रांत और दल
से ऊपर होती है। यह इन संकीर्णताओं का बंधन नहीं स्वीकारती है। इससे राष्ट्रीय
एकता मजबूत होती है। हमें अपने देश पर गर्व है। मैं इससे असीम प्यार करता हूँ।
राष्ट्रीय पर्व व्यक्तिगत न होकर राष्ट्रीय होते हैं, इसलिए देशवासियों के अलावा
सनि
विभिन्न प्र सनिक कशा
और सरकारी कार्यालय, विभिन्न संस्थाएँ मिल-जुलकर मनाती हैं। इस
दिन देश में सरकारी अवकाश रहता है। यहाँ तक कि दुकानें और फैक्ट्रियाँ भी बंद रहती
हैं ताकि देशवासी इन्हें मनाने में अपना योगदान दें। हमारे राष्ट्रीय पर्व हैं-
स्वतंत्रता दिवस (15 अगस्त), गणतंत्र दिवस (26 जनवरी) और गांधी जयंती (02 अक्टूबर)।
देश की एकता अखंडता बनाए रखने में राष्ट्रीय त्योहार महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री देशवासियों से एकता बनाए रखने का आह्वान करते हैं। ये
पर्व हमें एकजुट रहकर देश की स्वतंत्रता की रक्षा करने तथा देश के लिए तन-मन और
धन न्योछावर करने का संदेश देते हैं। हमें इस संदेश को सदा याद रखना चाहिए।
हमारे गाँवों में। अगर हमें अपने देश की सच्ची तसवीर देखनी है तो हमें गाँवों की
ओर रुख करना पड़ेगा। हमारे देश की आत्मा इन्हीं गाँवों में निवास करती है। देश की
जनसंख्या का 70 प्रतिशत से अधिक भाग इन्हीं गाँवों में बसता है। इनमें से अधिकांश
लोगों की आजीविका का साधन कृषि है। यहाँ रहने वाले चाहे खुद भूखे सो जाएँ पर
देशवासियों को पेट भरने का दायित्व यही गाँव निभाते हैं।
यहाँ के किसानों का श्रम और कार्य देखकर श्री लाल बहादुर शास्त्री ने ‘जय जवान जय किसान’
का नारा दिया था। गाँवों में चारों ओर हरियाली का साम्राज्य होता है। ये पेड़-पौधे
ग्रामवासियों को शुद्ध वायु उपलब्ध कराते हैं। यहाँ कारखाने और औद्योगिक इकाइयों का
अभाव है। यहाँ मोटर गाड़ियों का न धुआँ है और न शोर। यहाँ का वातावरण शुद्ध और
स्वास्थ्यवर्धक है।
गाँवों की धूलभरी गलियाँ, कच्चे घर, घास-फूस की झोपड़ियाँ, नालियों में बहता गंदा
पानी, मैले-कुचैले कपड़े पहने बच्चे और अधनंगे बदन वाले किसान की दयनीय द श
देखकर गाँवों की अभाव ग्रस्तता का पता चल जाता है। यहाँ रहने वालों की कृषि मानसून
पर आधारित है। मानसून की कमी होने पर फ़सल अच्छी नहीं होती है जिससे उन्हें
साहूकारों से कर्ज लेने पर विवश होना पड़ता है और वे ऋण ग्रस्तता के जाल में फँस
जाते हैं।
प्रकृति ने भारत को अनेक उपहार प्रदान किए हैं। इन उपहारों में एक है-छह ऋतुओं का
उपहार । ये ऋतुएँ एक के बाद एक बारी बारी से आती हैं और मुक्त हाथों से सौंदर्य
बिखरा जाती हैं। ऋतुओं के जैसा मनभावन मौसम का समन्वय भारत में बना रहता है
वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। हमारे देश में छह ऋतुएँ पाई जाती हैं। ये छह ऋतुएँ हैं
ग्रीष्म, वर्षा, शरद, शिशिर, हेमंत और वसंत।
भारतीय महीनों के अनुसार बैसाख और जेठ ग्रीष्म ऋतु के महीने होते हैं। इस समय
छोटी-छोटी वनस्पतियाँ सूख जाती हैं। धरती तवे-सी जलने लगती है। आम, कटहल, फालसा,
जामुन आदि फल इस समय प्रचुरता से मिलते हैं। इसके बाद अगले दो महीने वर्षा ऋतु
के होते हैं। इस समय वर्षा होती है जो मुरझाई धरती और प्राणियों को नवजीवन देती
हैं।
अधिक वर्षा बाढ़ के रूप में प्रलय लाती है। वर्षा ऋतु के उपरांत शरद ऋतु का आगमन होता
है। यह ऋतु दो महीने तक रहती है। दशहरा और दीपावली इस ऋतु के प्रमुख त्योहार हैं।
इस समय सरदी और गरमी बराबर होती है, जिससे मौसम सुहाना रहता है। शिशिर और हेमंत
ऋतुओं में कड़ाके की सरदी पड़ती है। हेमंत पतझड़ की ऋतु मानी है। इस समय पेड़-
पौधे अपनी पत्तियाँ गिरा देते हैं।
इसके बाद ऋतुराज वसंत का आगमन होता है। इस से मौसम सुहावना होता है। चारों ओर
खिले फूल और सुगंधित हवा इस समय को सुहावना बना देते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से यह
सर्वोत्तम ऋतु है। विभिन्न ऋतुओं का अपना अलग-अलग प्रभाव होता है। इस कारण हमारा
खान-पान और रहन-सहन प्रभावित होता है। तरह-तरह की फ़सलों के उत्पादन में ऋतुएँ
महत्त्वपूर्ण योगदान देती हैं। सचमुच ये ऋतुएँ किसी वरदान से कम नहीं हैं।
35. भारतीय समाज में नारी की स्थिति
अथवा
भारतीय समाज में नारी की बदलती स्थिति
स्त्री और पुरुष जीवन रूपी गाड़ी के दो पहिए हैं। इनमें स्त्रियों की स्थिति में देश काल
और परिस्थिति के अनुसार समय-समय पर बदलाव आता रहा है। प्राचीनकाल में हमारे देश
में स्त्रियों को सम्मानजनक स्थान प्राप्त था। वह यज्ञ कार्यों, वेद-पुराण और ऋचाओं
की रचना में सहभागी रहती थी। वह पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर चलती थी।
उस समय कहा जाता था कि ‘यत्र नार्यास्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता’ अर्थात जहाँ
नारियों की पूजा होती है वहीं देवता निवास करते हैं। इससे नारी की उच्च स्थिति का
अनुमान स्वयं लगाया जा सकता है। मध्यकाल तक नारियों की स्थिति में बहुत गिरावट आ
चुकी थी। पुरुष प्रधान समाज ने नारियों को परदे की वस्तु बनाकर घर की चारदीवारी तक
सीमित कर दिया।
सनशा
चिकित्सा, शिक्षा, पुलिस सेवा, प्र सन आदि में वह अपनी योग्यता से पुरुषों से आगे निकलती
जा रही है। ‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’, ‘लाडली योजना’ जैसी योजनाओं के कारण उनकी
स्थिति में सुधार हो रहा है। नारी त्याग, ममता, सहानुभूति, स्नेह की मूर्ति है। हमें
नारियों का सम्मान करना चाहिए।
प्रकृति ने मनुष्य को जो नाना प्रकार के उपहार दिए हैं, वन उनमें सबसे अधिक उपयोगी
और महत्त्वपूर्ण हैं। मनुष्य और प्रकृति का साथ अनादिकाल से रहा है। पृथ्वी पर जीवन
ष योगदान है। मनुष्य
योग्य जो परिस्थितियाँ हैं उन्हें बनाए रखने में वनों का वि षशे
अन्य जीव-जंतुओं के साथ इन्हीं वनों में पैदा हुआ, पला, बढ़ा और सभ्य होना सीखा।
वनों ने मनुष्य की हर जरूरत को पूरा किया है। वन हमें लकड़ी, छाया, फल-फूल, कोयला,
गोंद, कागज, नाना प्रकार की औषधियाँ देते हैं। वे पओं ओंशुतथा प श%
-पक्षियों के लिए
आश्रय-स्थल उपलब्ध करते हैं। इससे जैव विविधता और प्राकृतिक संतुलन बना रहता है।
वन वर्षा लाने में सहायक हैं जिससे प्राणी नवजीवन पाते हैं। वन बाढ़ रोकते हैं
और भूक्षरण कम करते हैं तथा धरती का उपजाऊपन बनाए रखते हैं।
वास्तव में वन मानवजीवन का संरक्षण करते हैं। वन परोपकारी शिव के समान हैं जो
विषाक्त वायु का स्वयं सेवन करते हैं और बदले में प्राणदायी शुद्ध ऑक सीजन देते
हैं। दुर्भाग्य से मनुष्य की जब ज़रूरतें बढ़ने लगी तो उसने वनों की अंधाधुंध कटाई
शुरू कर दी। नई बस्तियाँ बनाने, कृषि योग्य भूमि पाने, सड़कें बनाने आदि के लिए पेड़ों
की कटाई की गई, जिससे पर्यावरण असंतुलन बढ़ा और वैविक कश्वि ऊष्मीकरण में वृद्धि हुई।
इससे असमय वर्षा, बाढ़, सूखा आदि का खतरा उत्पन्न हो गया। धरती पर जीवन बचाने के
लिए पेड़ों को बचाना आवश्यक है। आओ हम जीवन बचाने के लिए अधिकाधिक पेड़ लगाने
और बचाने की प्रतिज्ञा करते हैं।
प्रदूषण का अर्थ
प्रदूषण के कारण
प्रदूषण के प्रभाव
प्रदूषण से बचाव के उपाय।
स्वस्थ जीवन के लिए आवश्यक है कि हम जिन वस्तुओं का सेवन करें, जिस वातावरण में
रहें वह साफ़-सुथरा हो। जब हमारे पर्यावरण और वायुमंडल में ऐसे तत्व मिल जाते हैं
जो उसे दूषित करते हैं तथा इनका स्तर इतना बढ़ जाता है कि स्वास्थ्य के लिए
हानिकारक हो जाते हैं तब यह स्थिति प्रदूषण कहलाती है। आज सभ्यता और विकास की इस
दौड़ में मनुष्य के कार्य व्यवहार ने प्रदूषण को खूब बढ़ाया है।
मोटर-गाड़ियों और फैक्ट्रियों के शोर के कारण स्वास्थ्य बुरी तरह प्रभावित हुआ है। अति
वृष्टि, अनावृष्टि और असमय वर्षा प्रदूषण का ही दुष्परिणाम है। इस प्रदूषण से बचने का
सर्वोत्तम उपाय है अधिकाधिक वन लगाना। पेड़ लगाकर प्रकृति में संतुलन लाया जा
सकता है। इसके अलावा हमें सादा जीवन उच्च विचार वाली जीवन शैली अपनाते हुए प्रकृति
के करीब लौटना चाहिए।
समाज शास्त्रियों ने मानवजीवन को आयु के विभिन्न वर्गों में बाँटा है। इसके अनुसार
सामान्यतया 5 से 11 साल के बच्चे को बालक कहा जाता है। इसी उम्र में बालक विद्यालय
जाकर पढ़ना-लिखना सीखता है और शिक्षित जीवन की नींव रखता है परंतु परिस्थितियाँ
प्रतिकूल होने के कारण जब बच्चे को पढ़ने-लिखने का मौका नहीं मिलता है और उसे
अपना पेट पालने के लिए न चाहते हुए काम करना पड़ता है तो उसे बाल मजदूरी कहते
हैं।
मजदूर की भाँति काम करने वाले इन बालकों को बाल मज़दूर कहते हैं। बाल मजदूरी के
मूल में है-गरीबी। गरीब माता-पिता जब बच्चे को विद्यालय भेजने की स्थिति में नहीं
होते हैं और वे परिवार की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं कर पाते हैं तो वे अपने
बच्चों को भी काम पर भेजना शुरू कर देते हैं। इसका एक कारण समाज के कुछ लोगों की
शोषण की प्रवृत्ति भी है।
वे अपने लाभ के लिए कम मजदूरी देकर इन बच्चों से काम करवाते हैं। बाल मजदूरी के
ष क्षेत्र हैं जहाँ बच्चों से काम कराया जाता है। दियासलाई उद्योग, पटाखा
कुछ वि षशे
उद्योग, अगरबत्तियों के कारखाने, कालीन बुनाई, चूड़ी उद्योग, बीड़ी, गुटखा फैक्ट्रियों
में बच्चों से काम लिया जाता है।
बाल मजदूरी रोकने के लिए सरकार को कड़े कदम उठाने की ज़रूरत है। बाल मजदूरों को
क्षि
मज़बूरी से मुक्त कराकर उन्हें शिक्षित और प्र क्षिततशि
किया जाना चाहिए। इसके अलावा
स्वार्थी लोगों को अपनी स्वार्थवृत्ति त्यागकर इन बच्चों पर दया करना चाहिए और इनसे
काम नहीं करवाना चाहिए।
ऐसे में आवागमन को सरल, सुगम और सुखद बनाने के लिए ऐसे साधन की आवश्यकता महसूस होने
लगी जो इनका समाधान कर सके। महानगरों में आवागमन की समस्या को हल किया है मैट्रो
रेल ने। आज मैट्रो रेल दिल्ली के अलावा अन्य महानगरों जैसे-मुंबई, जयपुर, लखनऊ,
चेन्नई आदि में संचालित करने की योजना है जिन पर जोर-शोर से काम हो रहा है। मैट्रो
रेल का संचालन खंभों पर पटरियाँ बिछाकर ज़मीन से काफ़ी ऊँचाई पर किया जाता है।
इस कारण जाम की समस्या से मुक्ति तो मिली है तीव्र गति से यात्रा भी संभव हो गई है।
इसके अलावा वातानुकूलित मैट्रो रेल की यात्रा लोगों को थकान, चिड़चिड़ेपन और
रक्तचाप बढ़ने से बचाती है। इस यात्रा के बाद भी थकान की अनुभूति नहीं होती है।
मैट्रो में लोगों की बढ़ती भीड़ इसका स्वयं में प्रमाण है। हमें मैट्रो रेल के
नियमों का पालन करते हुए स्टेशन और रेल को साफ़-सुथरा बनाना चाहिए ताकि यह सुखद
यात्रा सदा वरदान जैसी बनी रहे।
40. जल है तो जीवन है
अथवा
जल ही जीवन है
अथवा
जल संरक्षण-आज की आवश्यकता
जीवनदायी जल
जल प्रदूषण के कारण
जल संरक्षण कितना ज़रूरी
जल संरक्षण के उपाय।
पृथ्वी पर प्राणियों के जीवन के लिए हवा के बाद सबसे आवश्यक वस्तु है-जल। यद्यपि
भोजन भी आवश्यक है पर इस भोजन को तरल रूप में लाने और सुपाच्य बनाने के लिए जल
की आवश्यकता होती है। मानव शरीर में लगभग 70 प्रतिशत जल होता है। कहा भी गया है-
क्षिति, जल, पावक, गगन, समीरा। पंच तत्व से बना शरीरा। वनस्पतियों में तो 80 प्रतिशत
से ज़्यादा जल पाया जाता है। इस जल के बिना जीवन की कल्पना करना कठिन है।
पृथ्वी पर यूँ तो तीन चौथाई भाग जल ही है पर इसमें पीने योग्य जल की मात्रा बहुत कम
है। यह पीने योग्य जल कुओं, तालाबों, नदियों और झीलों में पाया जाता है जो मनुष्य की
स्वार्थपूर्ण गतिविधियों के कारण दूषित होता जा रहा है। मनुष्य नदी, तालाबों में खुद
नहाता है और जानवरों को नहलाता है।
इतना ही नहीं वह फैक्ट्रियों और नालियों का दषित पानी इसमें मिलने देता है जिससे
जल प्रदषित होता है। पेयजल की मात्रा में आती कमी और गिरते भ-जल स्तर के कारण
जल संरक्षण अत्यावयककश्य
हो गया। पृथ्वी पर जीवन बनाए और बचाए रखने के लिए जल
बचाना ज़रूरी है।