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राम का काल

अरुण कु मार उपाध्याय, बी-९, सीबी-९, कै ण्टोनमेण्ट रोड, कटक


मो-९४३७०३४१७२, arunupadhyay30@yahoo.in
१. इतिहास तत्त्व
परिवर्त्तन का आभास काल है, और यह ३ प्रकार का है-(१) कु छ चीजें शाश्वत हैं, बिलकु ल नही बदलतीं, (२) कु छ परिवर्तन चक्रीय क्रम (दिन, मास, वर्ष आदि)
में हैं, (३) अधिकांश क्रियायें एक बार होने पर मूल रूप में नहीं जा सकतीं। लकड़ी जल कर कोयला होती हैं, कोयला लकड़ी नहीं हो सकती। (कबीर)। अतः पुरुष
(व्यक्ति या विश्व) तथा काल दोनों के ३-३ रूप हैं-
पुरुष काल सन्दर्भ
अव्यय अक्षय गीता (१०/३३)
अक्षर जन्य सूर्य सिद्धान्त (१/१०), गीता (१०/३०)
क्षर नित्य सूर्य सिद्धान्त (१/१०), गीता (१०/३२)
इसी प्रकार मूल साहित्य ३ प्रकार का हैं, जिनका समन्वय रामायण है-
नाना पुराण-निगमा-गम सम्मतं यद्, रामायणे निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि।
स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ-गाथा भाषा निबद्ध-मति मञ्जुल-मातनोति। (राम चरितमानस, मङ्गलाचरण)
शाश्वत तथ्य वेद में हैं। पुरानी घटना कब और क्या हुई यह इतिहास है। इतिहास = इति + ह + आस = ऐसा ही हुआ था। पुरानी चीजें कै से नये रूप में बदलती हैं
उसका कारण-क्रिया आदि पुराण है। पुराण =पुरा + नवति = पुराना नया होता है। लगभग इसी अर्थ में कहते हैं-इतिहास अपने को दुहराता है। सबसे प्रसिद्ध
इतिहास ग्रन्थ रामायण, महाभारत हैं। इतिहास और पुराण से ही वेद ठीक से समझ में आता है -
वेदवेद्ये परे पुंसि जाते दशरथात्मजे। वेदो प्राचेतसादासीत्, साक्षाद् रामायणात्मना॥ (मन्त्र रामायण १/१/१)
= परम तत्त्व के वल वेद द्वारा जाना सकता है (ब्रह्म- सूत्र १/१/१-४), जब वह दशरथ के पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ तो वेद भी प्राचेतस (वाल्मीकि) द्वारा रामायण रूप
में हुआ।
वाल्मीकि २४ वें व्यास थे। वह प्रचेता की १० वीं पीढ़ी में थे (रामायण, उत्तरकाण्ड) । प्रचेता वरुण थे, जो अरब (यादस = ताजिक) के शासक, पाशी (पाशा के
प्रमुख), अप्-पति (आप, अप्पा) आदि थे।
प्रचेतसोऽहं दशमः पुत्रो राघव-नन्दन। नस्मराम्यनृतं वाक्यमिमौ तु तव पुत्रकौ॥१९॥ (रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ७८)
रामायण भी वेद को समझाने के लिये ही पढ़ाया गया था-
स तु मेधाविनौ दृष्ट्वा वेदेषु परिनिष्ठितौ। वेदोपबृंहणार्थाय तावग्राहत प्रभुः॥ (रामायण १/४/६)
अन्य स्थानों पर भी इतिहास को वेद का अंश कहा गया है-ऋचः सामानि चन्दांसि पुराणं यजुषा सह उच्छिष्टाज्जज्ञिरे। (अथर्व संहिता १५/९/२४)
ऋग्वेदं भगवोध्येमि ... इतिहास- पुराणं पञ्चमं वेदानां वेदम्। (छान्दोग्य उपनिषद् ७/१/४)
पुराण-न्याय-मीमांसा धर्मशास्त्राङ्ग-मिश्रिताः। वेदाः स्थानानि विद्यानां धर्मय च चतुर्दश॥ (याज्ञवल्क्य स्मृति १/३)
इतिहास पुराणाभ्यां वेदं समुपवृंहयेत्। बिभेत्यल्पश्रुताद् वेदो मामयं प्रहरिष्यति॥ (महाभारत १/१/२६७)
२. काल-गणना
दीर्घकालिक गणना में सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी की गतियों का ठीक तालमेल नहीं बैठता है। अतः मुख्यतः २ प्रकार की वर्ष गणना है-(१) शक-सौर वर्ष में दिनों की गणना
सहज है, उसके आधार पर गणितीय वर्ष-गणना को शक या फारसी में अमली कहते हैं। इसमें किसी निश्चित समय से दिन-वषों की गिनती कर ग्रह-स्थिति निकाली
जाती है। दिनों का समूह शक है। (२) सम्वत्सर-चन्द्रमा मन का कारक है, अतः सभी पर्व चान्द्र तिथियों के अनुसार होते हैं। चान्द्र-मास तथा वर्ष की गणना कर
उसके अनुसार तिथि, पर्व का निर्णय करते है। इसके अनुसार समाज चलता है, अतः इसे सम्वत्सर कहते हैं। यह ऋतु चक्र के अनुसार होने से इसे फारसी में फसली
कहते हैं।
पृथ्वी की कक्षा का आकार, अक्ष-भ्रमण की गति आदि में बहुत धीमे परिवर्तन होते हैं, जिनका सटीक निर्धारण सम्भव नहीं है। अतः सन्देह दूर करने के निये ५
प्रकार से दिन का निर्धारण होता है-तिथि, वार, नक्षत्र, योग, करण। अतः काल-पत्र को पञ्चाङ्ग कहते हैं। इसी प्रकार ७ प्रकार के युग तथा योजन होते हैं, पर
ऐतिहासिक तिथियों के निर्णय के लिये ५ प्रकार के युगों का व्यवहार होता है। अतः वेदाङ्ग ज्योतिष में कहा गया है-पञ्च सम्वत्सर-मयं युगम्। इसके कई अर्थ हैं-(१)
५ वर्षों का युग होता है। (२) ऋक् ज्योतिष में १९ वर्ष का युग होता है जिसमें ५ वर्ष सम्वत्सर हैं, बाकी १४ वर्ष अन्य ४ प्रकार के हैं-परिवत्सर, इदावत्सर,
अनुवत्सर, इद्वत्सर। (३) युग का निर्णय ५ प्रकार के सम्वत्सरों से होता है-सौर, बार्हस्पत्य, दिव्य, सप्तर्षि, अयनाब्द। ४३,२०,००० वर्षों का ज्योतिषीय युग बहुत
बड़ा है तथा ४,५, १२, १८, १९ वर्षों के मनुष्य युग बहुत छोटे हैं।
ऐतिहासिक युग-चक्र उत्तरी ध्रुव के हिम-नदों के विस्तार और संकोच पर निर्भर है। संकोच होने पर जल-प्रलय होता है, जो ऐतिहासिक काल में दो बार हुये थे-
३१००० तथा १०००० ई.पू.में तथा प्रायः १००० वर्षों तक रहे। ३१००० ई.पू.के जल प्रलय के बाद २९१०२ ई.पू. में स्वायम्भुव मनु का युग हुआ, जिनको
बाइबिल, कु रान में आदम कहा गया है। दूसरा जल प्रलय वैवस्वत मनु के बाद वैवस्वत यम के काल में हुआ जिनको जेन्द-अवेस्ता में जमशेद कहा गया है। हिम युग
होने पर उत्तरी भाग बर्फ से ढंक जाते हैं तथा सभ्यता का के न्द्र विषुवत् रेखा के निकट आ जाता है, जैसे ब्राजील का हिरण्याक्ष, मिस्र-लिबिया का हिरण्यकशिपु,
लंका का रावण आदि। उत्तरी सीमा पर हिमालय रहने से भारत प्रायः अछू ता रह जाता है तथा यहां सनातन सभ्यता चल रही है। अतः हिमालय को देवतात्मा कहा
गया है। २ कारणों से उत्तरी गोलार्द्ध में शीत या हिम युग होता है-(१) जब पृथ्वी कक्षा के सबसे दूर विन्दु (मन्दोच्च) पर हो, (२) उसी समय उत्तरी ध्रुव सूर्य से
विपरीत दिशा में हो। अतःआधुनिक गणित के अनुसार हिमयुग का चक्र दो गतियों पर निर्भर है-(१) पृथ्वी-कक्षा की लम्बे अक्ष का चक्र १ लाख वर्षों में, तथा (२)
विपरीत दिशा में अक्ष का २६००० वर्षों में अयन-चक्र। इनका संयुक्त चक्र २१६०० वर्षों में होता है। पर वास्तविक हिम-चक्र २४००० वर्षों का है, जिसे अयनाब्द
युग कहा गया है। इसमें मन्दोच्च के ३१२,००० वर्ष के दीर्घकालिक चक्र को अयन गति से मिलाकर होता है।
१/१००,००० + १/२६००० = १/२१६००
१/३१२,००० + १/२६००० = १/२४०००
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/९)-स वै स्वायम्भुवः पूर्वम् पुरुषो मनुरुच्यते॥३६॥ तस्यैक सप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥३७॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-त्रीणि वर्ष शतान्येव षष्टिवर्षाणि यानि तु। दिव्यः संवत्सरो ह्येष मानुषेण प्रकीर्त्तितः॥१६॥
त्रीणि वर्ष सहस्राणि मानुषाणि प्रमाणतः। त्रिंशदन्यानि वर्षाणि मतः सप्तर्षिवत्सरः॥१७॥
षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु। वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥१९॥
चत्वारि भारते वर्षे युगानि कवयोऽब्रुवन्। कृ तं त्रेता द्वापरं च कलिश्चेति चतुष्टयम्॥२३॥
चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां च कृ त युगम्।तस्य तावच्छती सन्ध्या सन्ध्यांशः सन्ध्यया समः॥२५॥
इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु। एकन्यायेन वर्तन्ते सहस्राणि शतानि च॥२६॥
त्रीणि द्वे च सहस्राणि त्रेता द्वापरयोः क्रमात्। त्रिशती द्विशती सन्ध्ये सन्ध्यांशौ चापि तत् समौ॥२७॥
कलिं वर्ष सहस्रं तु युगमाहुर्द्विजोत्तमाः।तस्यैकशतिका सन्ध्या सन्ध्यांशः सन्ध्यया समः॥२८॥
मत्स्य पुराण अध्याय २७३-अष्टाविंश समाख्याता गता वैवस्वतेऽन्तरे। एते देवगणैः सार्धं शिष्टा ये तान् निबोधत॥७६॥
चत्वारिंशत् त्रयश्चैव भविष्यास्ते महात्मनः। अवशिष्टा युगाख्यास्ते ततो वैवस्वतो ह्ययम्॥७७॥
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व १/४-षोडशाब्दसहस्रे च शेषे तद्द्वापरे युगे॥२६॥
द्विशताष्टसहस्रे द्वे शेषे तु द्वापरे युगे॥२८॥ तस्मादादमनामासौ पत्नी हव्यवतीस्मृता॥२९॥
स्वायम्भुव मनु से कलि आरम्भ तक २६००० वर्षों का ऐतिहासिक मन्वन्तर हुआ था, जिसमें ७१ युग प्रायः ३६० वर्षों के थे, जिसे दिव्य युग, कभी त्रेता या कभी
द्वापर खण्ड कहा गयाहै। स्वायम्भुव से ४३ युग या प्रायः १६००० वर्ष बाद वैवस्वत मनु हुये, तथा उनके २८ युग या १०,८०० वर्ष बाद कलियुग हुआ।
हिरण्यकशिपु द्वितीय त्रेता, बलि सप्तम त्रेता, दत्तात्रेय १०वें, मान्धाता १५ वें, परशुराम १९ वें, राम २४ वें त्रेता तथा वेदव्यास २८ वें द्वापर युग में हुये।
वायु पुराण अध्याय, ९८-यज्ञं प्रवर्तयामास चैत्ये वैवस्वतेऽन्तरे॥७१॥
प्रादुर्भावे तदाऽन्यस्य ब्रह्मैवासीत् पुरोहितः। चतुर्थ्यां तु युगाख्यायामापन्नेष्वसुरेष्वथ॥७२॥
सम्भूतः स समुद्रान्तर्हिरण्यकशिपोर्वधे द्वितीयो नारसिंहोऽभूद्रुदः सुर पुरःसरः॥७३॥
बलिसंस्थेषु लोके षु त्रेतायां सप्तमे युगे। दैत्यैस्त्रैलोक्य आक्रान्ते तृतीयो वामनोऽभवत्॥७४॥
त्रेतायुगे तु दशमे दत्तात्रेयो बभूव ह। नष्टे धर्मे चतुर्थश्च मार्क ण्डेय पुरःसरः॥८८॥
पञ्चमः पञ्चदश्यां तु त्रेतायां सम्बभूव ह। मान्धातुश्चक्रवर्तित्वे तस्थौ तथ्य पुरः सरः॥८९॥
एकोनविंशे त्रेतायां सर्वक्षत्रान्तकोऽभवत्। जामदग्न्यास्तथा षष्ठो विश्वामित्रपुरः सरः॥९०॥
चतुर्विंशे युगे रामो वसिष्ठेन पुरोधसा। सप्तमो रावणस्यार्थे जज्ञे दशरथात्मजः॥९१॥
राम के काल के ये उल्लेख हैं-(१) २४ वां त्रेता, (२) दोनों प्रकार के बार्हस्पत्य सम्वत्सरों में प्रभव वर्ष, (३) महाभारत से ३५ पीढ़ी पूर्व, परशुराम से ९ पीढ़ी बाद।
(४) वाल्मीकि रामायण में राम जन्म की ग्रह स्थिति।
२४,००० वर्षों के अयनाब्द युग में १२,००० वर्षों का अवसर्पिणी है जिसमें सत्य, त्रेता, द्वापर, कलि क्रमशः ४८००, ३६००, २४००, १२०० वर्षों के हैं।
इसका तीसरा चक्र १३,९०२ ई.पू. में वैवस्वत मनु के काल में आरम्भ हुआ तथा इसमें कलि ३१०२ ई.पू.में आरम्भ हुआ। कलि १९०२ ई.पू. में पूर्ण हुआ, उसके
बाद विपरीत क्रम से उत्सर्पिणी के कलि, द्वापर पूर्ण हो चुके हैं तथा १६९९ ई. से त्रेता चल रहा है। त्रेता का ३००० वर्ष का सन्ध्या काल १९९९ ई. में पूर्ण हुआ।
इस युग में यज्ञ (उत्पादन) का विकास होता है, जैसा महाभारत में लिखा है। २८ वां खण्ड ३१०२ में पूरा हुआ। उससे ४ x ३६० = १४४० वर्ष पूर्व ४५४२ ई.पू.
में २४ वां त्रेता पूर्ण हुआ। इसमें थोड़ा अन्तर होगा क्योंकि हम २८ खण्डों के १०,०८० वर्षों के बदले १०८०० वर्ष का सत्य-त्रेता-द्वापर ले रहे हैं।
दोनों प्रकार से प्रभव वर्ष तथा जन्म समय की ग्रह स्थिति के अनुसार श्री राम का जन्म ११-२-४४३३ ई.पू. में हुआ था। राम जीवन की ८९ तिथियां बाद में
विस्तार से दी गयी हैं।
मान्धाता १५ वें त्रेता में हुये थे जो ९१०२-४ x ३६० = ७६६२ ई.पू.में शुरु हुआ तथा ७३०२ ई.पू. तक चला। उसके १८ पीढ़ी बाद राजा बाहु यवन आक्रमण
में मारा गया था। यह काल मेगास्थनीज, सोलिनस, एरियन ने सिकन्दर के ६४५१ वर्ष ३ मास पूर्व, अर्थात् अप्रैल, ६७७७ ई.पू. कहा है। १८ पीढ़ी में प्रायः ८००
वर्ष का अन्तर ठीक है। परशुराम को बाहु या डायोनिसस के १५ पीढ़ी बाद कहा है। उनके निधन के बाद ६१७७ ई.पू. से कलम्ब संवत् चला जो अभी भी के रल में
प्रचलित है। उस काल में ग्रीक लेखकों ने १२० वर्ष तक गणतन्त्र कहा है, जो २१ बार क्षत्रियों का विनाश था। यह १९ वें त्रेता अर्थात् राम से प्रायः १८०० वर्ष पूर्व
थे।
३. रामायण कालीन भूगोल
प्राचीन काल में उत्तरी गोलार्द्ध में ९०-९० अंश देशान्तर मान के ४ नक्शे बनते थे, जिनको ४ रंग में रंगा जाता था। नकशे के लिए ४ रंग पर्याप्त होते हैं तथा यह
परम्परा आज तक चली आ रही है। इन ४ खण्डों को पृथ्वी रूपी कमल के ४ दल कहा गया है।
विष्णु पुराण (२/२/२४)-भद्राश्वं पूर्वतो मेरोः के तुमालं च पश्चिमे। वर्षे द्वे तु मुनिश्रेष्ठ तयोर्मध्यमिलावृतः।
भारताः के तुमालाश्च भद्राश्वाः कु रवस्तथा। पत्राणि लोकपद्मस्य मर्यादाशैलबाह्यतः॥४०॥
मत्स्य पुराण ११३-नाभीबन्धनसम्भूतो ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः। पूर्वतः श्वेतवर्णस्तु ब्राह्मण्यं तस्य तेन वै॥।१४॥
पीतश्च दक्षिणेनासौ तेन वैश्यत्वमिष्यते। भृङ्गिपत्रनिभश्चैव पश्चिमेन समन्वितः॥१५॥
पार्श्वमुत्तरतस्तस्य रक्तवर्णं स्वभावतः। तेनास्य क्षत्रभावः स्यादिति वर्णाः प्रकीर्तिताः॥१६॥
मध्ये त्विलावृतं नाम महामेरोः समन्ततः॥१९
भारत के दल में विषुव से लेकर ७ लोक थे-(१) विन्ध्य के दक्षिण भू लोक, (२) विन्द्य से हिमालय भुवः या मध्यम लोक, (३) हिमालय-स्वर्लोक, (४) चीन-
महर्लोक, (५) मंगोलिआ-जनः लोक, (६) साइबेरिया-तपः लोक, (७) ध्रुव वृत्त-सत्यलोक।
ब्रह्माण्ड पुराण उपसंहार पाद, अध्याय २ (३/४/२)-
लोकाख्यानि तु यानि स्युर्येषां तिष्ठन्ति मानवाः॥८॥ भूरादयस्तु सत्यान्ताः सप्तलोकाः कृ तास्त्विह॥९॥
पृथिवीचान्तरिक्षं च दिव्यं यच्च महत् स्मृतम्। स्थानान्येतानि चत्वारि स्मृतान्यावर्णकानि च॥११॥
जनस्तपश्च सत्यं च स्थान्यान्येतानि त्रीणि तु। एकान्तिकानि तानि स्युस्तिष्ठंतीहा प्रसंयमात्॥१३॥
भूर्लोकः प्रथमस्तेषां द्वितीयस्तु भुवः स्मृतः।१४॥
स्वस्तृतीयस्तु विज्ञेयश्चतुर्थो वै महः स्मृतः। जनस्तु पञ्चमो लोकस्तपः षष्ठो विभाव्यते॥१५॥
सत्यस्तु सप्तमो लोको निरालोकस्ततः परम्।१६। महेति व्याहृतेनैव महर्लोकस्ततोऽभवत्॥२१॥
यामादयो गणाः सर्वे महर्लोक निवासिनः।५१॥
उत्तरी गोलार्द्ध के अन्य ३ पद्म तथा दक्षिणी गोलार्द्ध के ४ पद्म-कु ल ७ तल हैं, जिनको अरबी में इक्लीम कहा गया है (अंग्रेजी का क्लाइमेट)। हर पद्म में तथा अन्य
के न्द्र स्थलों में एक-एक मेरु पर्वत है, जिसकी चर्चा यहां जरूरी नहीं है।
पृथ्वी पर मुख्य ४ के न्द्र स्थान हैं, जो ९०-९० देशान्तर पर हैं-(१) विषुव पर लङ्का, उसी देशान्तर पर भारत का उज्जैन। (२) ९०० पूर्व यमकोटि-पत्तन,
अण्टार्क टिक यम द्वीप, न्यूजीलैण्ड यमकोटि द्वीप, उसका दक्षिणी पश्चिमी कोना (३) ९०० पश्चिम रोमकपत्तन, हरकु लस स्तम्भ, रबात से पश्चिम, यहां ९३२३
ई.पू. में सूर्य सिद्धान्त का संशोधन मय असुर द्वारा हुआ। (४) उज्जैन से १८०० पूर्व सिद्धपुर।
भूवृत्तपादे पूर्वस्यां यमकोटीति विश्रुता। भद्राश्ववर्षे नगरी स्वर्णप्राकारतोरणा॥३८॥
याम्यायां भारते वर्षे लङ्का तद्वन् महापुरी। पश्चिमे के तुमालाख्ये रोमकाख्या प्रकीर्तिता॥३९॥
उदक् सिद्धपुरी नाम कु रुवर्षे प्रकीर्तिता॥४०॥ भूवृत्तपादविवरास्ताश्चान्योन्यं प्रतिष्ठिता ॥४१॥
तासामुपरिगो याति विषुवस्थो दिवाकरः। न तासु विषुवच्छाया नाक्षस्योन्नतिरिष्यते ॥४२॥
(सूर्य सिद्धान्त १२/३८-४२)
रामायण में इसे पूर्व दिशा का अन्त कहा गया है जहां ब्रह्मा ने इसका चिह्न देने के लिये एक द्वार (पिरामिड) बनवाया था। वाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड,
अध्याय ४०-
यत्नवन्तो यवद्वीपं सप्तराज्योपशोभितम्। सुवर्णरूप्यकद्वीपं सुवर्णाकरमण्डितम्॥३०।
ततः समुद्रद्वीपांश्च सुभीमान् द्रष्टु मर्हथ।।३६॥
स्वादूदस्योत्तरे तीरे योजनानि त्रयोदश। जातरूपशिलो नाम सुमहान् कनकप्रभः॥५०॥
त्रिशिराः काञ्चनः के तुमालस्तस्य महात्मनः॥५३॥पूर्वस्यां दिशि निर्माणं कृ तं तत् त्रिदशेश्वरैः॥५४॥
पूर्वमेतत् कृ तं द्वारं पृथिव्या भुवनस्य च। सूर्यस्योदयनं चैव पूर्वा ह्येषा दिगुच्यते ॥६४॥
पुराणों में ४ नगर ९०-९० देशान्तर पर कहे गये हैं (१) इन्द्र की वस्वौक-सारा, (२) वरुण की सुखा ९०० पूर्व, (३) यम की संयमनी ९०० पश्चिम, (४) सोम की
विभावरी १८०० पूर्व। यम के नगर अभी भी उसी नाम से प्रचलित हैं-यमन, अम्मान, सना, मृत सागर आदि।
मत्स्य पुराण अध्याय १२४-मेरोः प्राच्यां दिशायां तु मानसोत्तरमूर्धनि॥२०॥
वस्वौकसारा माहेन्द्री पुण्या हेमपरिष्कृ ता। दक्षिणेन पुनर्मेरोर्मानसस्य तु पृष्ठतः॥२१॥
वैवस्वतो निवसति यमः संयमने पुरे। प्रतीच्यां तु पुनर्मेरोर्मानसस्य तु मूर्धनि॥२२॥
सुखा नाम पुरी रम्या वरुणस्यापि धीमतः। दिश्युत्तरस्यां मेरोस्तु मानसस्यैव मूर्धनि॥२३॥
तुल्या महेन्द्रपुर्यापि सोमस्यापि विभावरी।
वैवस्वते संयमने उद्यन् सूर्यः प्रदृश्यते। सुखायामर्धरात्रस्तु विभावर्यास्तमेति च॥२८॥
वैवस्वते संयमने मध्याह्ने तु रविर्यदा। सुखायामश्च वारुण्यामुत्तिष्ठन् स तु दृश्यते॥२९॥
विभावर्यामर्धरात्रं माहेन्द्र्यामस्तमेव च। सुखायामथ वारुण्यां मध्याह्ने तु रविर्यदा॥३०॥
विभावर्यां सोमपुर्यामुत्तिष्ठति विभावसुः। महेन्द्रस्यामरावत्यामुद्गच्छति दिवाकरः॥३१॥
सुखायामथ वारुण्यां मध्याह्ने तु रविर्यदा। स शीघ्रमेव पर्येति भानुरालातचक्रवत्॥३२॥
प्राचीन काल में ६-६ अंश के अन्तर पर ६० काल-खण्ड (Time zone) थे। अधिकांश का नाम लंका था। सभी काल खण्ड या नकशे के मूल विन्दु को लंका
कहते थे। इंगलैण्ड का स्टोनहेन्ज उज्जैन से १३ काल-खण्ड = ७८० पश्चिम था अतः इसक्षेत्र को भी लंका शायर कहते हैं। अन्तिम लंका वाराणसी में है जहां सवाई
जयसिंह ने वेधशाला बनायी थी। मुख्य लंका द्वीप वर्तमान लक्कादीव से मालदीव तक था। वर्तमान श्रीलंका सिंहल कहा गया है, जैसे जायसी के पदमावत में)। रावण
काल में यह राजनीतिक रूप से लंका का भाग था। इण्डोनेसिया को शुण्डा द्वीप कहा गया है क्योंकि यह विश्व मानचित्र में हाथी की सूंढ़ जैसा दीखता है। इसको सप्त-
राज्य द्वीप ( ७ मुख्य द्वीप) भी कहा गया है। आज भी पश्चिमी भाग को बड़ा शुण्डा तथा पूर्वी भाग को छोटा शुण्डा कहते हैं। दोनों के बीच में शुण्डा समुद्र है।
आस्ट्रेलिया को सुवर्ण द्वीप, अग्नि द्वीप (भारत से अग्नि कोण में) या अंग द्वीप भी कहा गया है। रावण की राजधानी लंका थी, पर उसका प्रत्यक्ष शासन माली (पश्चिम
अफ्रीका) सुमालिया से आस्ट्रेलिया (सुवर्ण द्वीप) तक था।
एसिया के पूर्वी भाग में पञ्चजन द्वीप (५ द्वीपों का जापान) कहा है जिसका शंख पाञ्चजन्य विष्णु द्वारा व्यवहृत होता था। पश्चिम में एटलस पर्वत (के तुमाल) को
चक्रवान् भी कहा है, क्योंकि यहां के लोहे से सुदर्शन चक्र बना था। पूर्वी भाग के शासक इन्द्र थे। इन्होंने पश्चिम में पाक दैत्यों का दमन (अफगानिस्तान के ) किया
था अतः ब्रह्मा ने उनको पाकशासन की उपाधि दी। जहां इन्द्र ने अपनी शक्ति दिखाई, वह क्षेत्र शक्र (सक्खर जिला, हक्कर नदी) है।
कु मारिका खण्ड के द्वीप-उत्तर से देखने पर भारत की सीमा हिमालय के रूप में अर्द्ध चन्द्राकार दीखती है। अतः इसे इन्दु कहते थे, जो ग्रीक उच्चारण से इण्डे हो गया
(हुएनसांग)। इसके अतिरिक्त भारत को दो और कारणों से इन्दु कहते थे-यह ठण्ढा है तथा चन्द्रमा के समान ज्ञान का प्रकाश पूरे विश्व को देता है। विश्व का भरण
पोषण करने के कारण भारत है। मूल नाम अजनाभ वर्ष था। हिमालय सीमा होने से इसे हिमवर्ष भी कहते थे। दक्षिण की तरफ यह त्रिकोणाकार है। अधोमुख त्रिकोण
को शक्ति त्रिकोण कहते है। भारत वर्ष अरब से वियतनाम तक के ९ खण्डों में मुख्य होने के कारण यह शक्ति का मूल रूप कु मारिका था। इसके दक्षिण का महासागर
भी कु मारिका खण्ड था। (इलंगोवन का सिलप्पाधिकारम्)। आज भी इसे भारत महासागर कहते हैं।
कु मारिका खण्ड के कई द्वीपों का वाल्मीकि रामायण में उल्लेख है-(१) पाण्ड्य राजधानी कबाट जहां स्वर्ण के दरवाजे थे। (२) रावण की लंका जिसका दक्षिणी
भाग मालीद्वीप (मालदीव) था, उसके अधीन सिंहल था। (३) पुष्पितक गिरि, (४) सूर्यवान् पर्वत, (५) उससे १४ योजन दक्षिण वैद्युत पर्वत। ये ३ हैं-डिएगो
गार्सिअ, मारिशस, सिचेलस। (६) कु ञ्जर पर्वत, जहां अगस्त्य का निवास था। अगस्त्य तारा (कै नोपस) के समान इसका दक्षिणी अक्षांश ५२०४२’ था। यह सर्पों की
भोगवती नगरी थी। यह फ्रांस के अधीन प्रायः ४९० दक्षिण करगुइलि द्वीप समूह है। (७) पितृ लोक (दक्षिणी ध्रुव वृत्त में), महावृषभ पर्वत (अण्टार्क टिका का पर्वत)।
(८) सबसे बड़ा द्वीप मगाडास्कर या मलगासी है जिसे मृग-द्वीप (अरब में हरिण द्वीप) कहते थे, क्योंकि आकाश के मृगव्याध (मृग-तस्कर = मगाडास्कर) का तथा
इस द्वीप का दक्षिणी अक्षांश एक ही है।
वाल्मीकि रामायण किष्किन्धा काण्ड, अध्याय ४१-
ततो हेममयं दिव्यं मुक्तामणि विभूषितम्॥१८॥ युक्तं कबाटं पाण्ड्यानां गता द्रक्ष्यथ वानराः॥१९॥
द्वीपस्तस्यापरे पारे शतयोजन विस्तृतः॥२३॥ स हि देशस्तु वध्यस्य रावणस्य दुरात्मनः॥२५॥
तमतिक्रम्य लक्ष्मीवान् समुद्रे शतयोजने॥ गिरिः पुष्पितको नाम सिद्ध-चारण सेवितः॥२८॥
तमतिक्रम्य दुर्धर्षं सूर्यवान्नाम पर्वतः॥३१॥
अध्वना दुर्विगाहेन योजनानि चतुर्दश। ततस्तमतिक्रम्य वैद्युतो नाम पर्वतः॥३२॥
मधूनि पीत्वा जुष्टानि परं गच्छत वानराः। तत्र नेत्रमनः कान्तः कु ञ्जरो नाम पर्वतः॥३४॥
अगस्त्यभवनं यत्र निर्मितं विश्वकर्मणा॥३५॥ तत्र भोगवती नाम सर्पाणामालयः पुरी॥३६॥
तं च देशमतिक्रम्य महानृषभ संस्थितिः॥३९॥ ततः परं न वः सेव्यः पितृलोकः सुदारुणः॥४४।
राजधानी यमस्यैषा कष्टेन तमसाऽऽवृता । शक्यं विचेतुं गन्तुं वा नातो गतिमतां गतिम्॥४५॥
राम अवतार-देवता असुरों के युद्ध में देवों को विजय दिलाने के लिये विष्णु के कई अवतार हुये। देवता वह हैं जो यज्ञों के क्रम द्वारा अपना उत्पादन स्वयं करते थे।
यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवास्तानि धर्माणि प्रथमान्यासन्।
ते ह नाकं महिमानः सचन्तः यत्र पूर्वे साध्याः सन्ति देवाः॥ (वाज. यजु. ३१/१६)
असुर बिना परिश्रम के दूसरों की सम्पत्ति पर अधिकार करते थे। बलि के काल में वामन का मूल नाम विष्णु ही था। बाकी उनके अवतार कहे जाते हैं। राम के काल में
रावण ने प्रायः सभी देवों को पराजित कर दिया था। उसके विरुद्ध ३०० राजाओं ने राम की सहायता की थी जिसके लिये राम ने अपने राज्याभिषेक के बाद उनको
धन्यवाद दिया था।
विसृज्य तं काशिपतिं त्रिशतं पृथिवीपतिम्॥२१॥
प्रहसन् राघवो वाक्यमुवाच मधुराक्षरम्। भवतां प्रीतिरव्यग्रा तेजसा परिरक्षिता॥।२२॥
धर्मश्च नियतो नित्यं सत्यं च भवतां सदा। युष्माकं चानुभावेन तेजसा च महात्मनाम्॥२३॥
हतो दुरात्मा दुर्बुद्धी रावणो राक्षसाधमः। हेतुमात्रमहं तत्र भवतां तेजसा हतः॥२४॥
रावणः सगणो युद्धे सपुत्रामात्यबान्धवः। भवन्तश्च समानीता भरतेन महात्मना॥२५॥
श्रुत्वा जनकराज्यस्य काननात् तनयां हृतम्। उद्युक्तानां च सर्वेषां पार्थिवानां महात्मनाम्॥२६॥
(रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ३८)
सिंगापुर-निषाद राज गुह ने चित्रकू ट के निकट राम से वनवास के पूर्व तथा उसके बाद भेंट किया था, पर मूल शृङ्गवेरपुर आज का सिंगापुर है, जो एसिया के नकशे में
सींग जैसा दीखता है। सुमालिया को भी अफ्रीका का सींग कहते हैं।
वानर-वन का अर्थ वृक्षों का समूह है, पर इसका अर्थ जल-भण्डार रूप में समुद्र भी है-
बांध्यो वननिधि नीरनिधि जलधि सिन्धु वारीश। सत्य तोयनिधि कम्पति (कम् = जल) उदधि पयोधि नदीश॥
(रामचरितमानस, लङ्काकाण्ड, ५)
जो वननिधि में यात्रा कर सकता है, वह वानर है। आज भी समुद्री जहाज लगने का स्थान बन्दर कहते हैं-जैसे पोरबन्दर (गुजरात), बोरीबन्दर (मुम्बई), बन्दर
श्रीभगवान् (बोर्निओ), बन्दर अब्बास (इरान)। रावण पर आक्रमण के लिये सिंगापुर तथा अन्य बन्दरगाहों पर कब्जा आवश्यक था।
४. राम तत्व
विश्व का मूल एक ही ब्रह्म था, जिसने सृष्टि के लिये २ प्रकार की क्रियायें कीं-(१) भृगु (जबर) = गुरुत्व का आकर्षण, संकोच। इस आकर्षण का के न्द्र क्रीं = कृ ष्ण
है। जब प्रकाश भी आकर्षित होता है, तब वस्तु का कोई रंग नहीं होता, अतः कृ ष्ण = काला। आकर्षण का क्षेत्र क्लीं = काली है। क्रीं, क्लीं को अरबी में करीम, कलीम
कहा गया है, क्योंकि उसमें संयुक्ताक्षर नहीं हैं। (२) अङ्गिरा (अंगारा) = तेज का विकिरण, प्रसार। जब यह प्रकाश रूप में गतिशील होता है, तो रं है-
ॐ खं ब्रह्मं, खं पुराणं (पुर में गतिशील प्राण) वायु रं इति ह स्माह-बृहदारण्यक उपनिषद् (५/१/१)
प्राणो वै रं, प्राणे हीमानि सर्वाणि भूतानि रमन्ति। (शतपथ ब्राह्मण १४/८/१३/३, बृहदारण्यक उपनिषद् ५/१२/१)
रकारो वह्निः, वचनः प्रकाशः पर्यवसति (रामरहस्योपनिषद् ५/४)
रं को भाषा में राम या रहीम (अरबी) कहते हैं। ब्रह्म का ३ प्रकार से निर्देश होता है-ॐ, तत्, सत्-गीता (१७/२३)। ॐ गतिशील होने पर रं है, व्यक्ति के लिये तत्
या निर्देश नाम द्वारा है, अतः उसका प्राण बाहर निकलने पर कहते हैं-राम-नाम-सत्।
राम और कृ ष्ण मनुष्य रूप में ही थे, पर उनकी समाधि अवस्था में उनकी और ब्रह्म चेतना में कोई अन्तर नहीं था। उस रूप में उन्होंने अपने को ब्रह्म ही कहा है,
उनको सामान्य मनुष्य मानना भूल है-
मयाध्यक्षेण प्रकृ तिं सूयते सचराचरम्। हेतुनानेन कौन्तेय जगद् विपरिवर्तते॥
अवजानन्ति मां मूढ़ा मानुषी तनुमाश्रितम्। परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्॥ (गीता ९/१०-११)
दोनों के बारे में कई बार सन्देह हुआ है कि वे मनुष्य हैं या ब्रह्म हैं। अर्जुन ने कहा कि कृ ष्ण भी उनके साथ ही पैदा हुये, फिर उन्होंने बहुत पहले विवस्वान् को कै से
ज्ञान दिया? (गीता ४/४)। रामचरितमानस में भी शंकर प्रिया सती को सन्देह होता है कि राम ईश्वर होने पर सीता के वियोग में कै से रो रहे थे? लेकिन उनके सीता
रूप धरने पर भी राम ने उनको पहचान कर नमस्कार किया।
हनुमान्-मनुष्य की ज्ञानेन्द्रिय तथाकर्मेन्द्रिय का मिलन दो ओठों (हनु) के बीच में है। जो ज्ञान-कर्म का समन्वय करता है, वह हनुमान् है-
अथाध्यात्मम्। अधरा हनुः पूर्व रूपम्। उत्तरा हनुरुत्तररूपम्। वाक् सन्धिः। जिह्वा सन्धानम्। इत्यध्यात्मम्॥ (तैत्तिरीय उपनिषद् १/३/५)
रावण-रावण भी सम्मान-सूचक शब्द है। कै लास पर्वत उठाने के समय दशानन ने बहुत रव (ध्वनि, स्प्न्दन) किया था, अतः महादेव ने उसे रावण कहा-
प्रीतोऽस्मि तव वीरस्य शौटीर्याच्च दशानन। शैलाक्रान्तेन यो मुक्तस्त्वथा रावः सुदारुणः॥३६॥
यस्माल्लोकत्रयं चैतद् रावितं भयमागतम्। तस्मात्त्वं रावणो नाम नाम्ना राजन् भविष्यसि॥३७॥
(रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग १६)
जो यज्ञ अर्थात् उत्पादन में कु शल है, उसके भीतर यज्ञ रूपी वृषभ रव कर रहा है, और महादेव जैसा पूजनीय है। अतः काशी क्षेत्र में सम्मान के लिये रवा कहते हैं-
जो राउर (आपका) अनुशासन पावौं। कन्दुक इव ब्रह्माण्ड उठावौं। (रामचरितमानस, बालकाण्ड)
चत्वारि शृङ्गा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य।
त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति, महोदेवो मर्त्यां आविवेश॥ (ऋक् ४/५८/३)
= इसके ४ सींग, ३ पाद, २ सिर, ७ हाथ हैं। यह वृषभ ३ प्रकार से बन्ध कर बहुत रव करता है। इस प्रकार महोदेव (महादेव) का मर्त्य में आवेश होता है।
सबसे पहले पुरुरवा को रवा कहा गया था क्योंकि उन्होंने ३ प्रकार की यज्ञसंस्था निर्द्धारित की थी- पुरुरवा बहुधा रोरूयते (यास्क का निरुक्त १०/४६-४७)। वह
दस्यु आदि की बाधा दूर कर देश को रमणीय (रणाय) बनाता है। इस महान् कार्य के कारण उसे पुरुरवा कहा गया-
महे यत् त्वा पुरूरवो रणाया वर्धयन् दस्यु-हत्याय देवाः। (ऋक् १०/९५/७)
दक्षिण भारत में भी राव सम्मान सूचक उपाधि है। तमिल में प्रायः राम को रामन लिखते हैं, इसी प्रकार राव का रावण हो गया है।
एक वेद तथा भाषा- रावण और राम दोनों ने एक ही वेद एक ही भाषा में पढ़ा था। हनुमान् जब सीता से मिले थे तो उन्होंने मिथिला तथा अयोध्या के मध्य की भाषा
(भोजपुरी) में सीता से बात की। संस्कृ त में बोलने पर सीता उनको रावण का आदमी समझतीं क्योंकि संस्कृ त विश्व की सम्पर्क भाषा थी।
वाल्मीकि रामायण, सुन्दरकाण्ड, अध्याय ३०-
यदि वाचं प्रदास्यामि द्विजातिरिव संस्कृ ताम्। रावणं मन्यमाना मां सीता भीता भविष्यति॥१८॥
अवश्यमेव वक्तव्यं मानुषं वाक्यमर्थवत्। मया सान्त्वयितुं शक्या नान्यथेयमनिन्दिता॥१९॥
पर के वल धर्मशास्त्र या वेद पढ़ने से मनुष्य अच्छा नहीं होता है, उसके लिये चरित्र ठीक होना चाहिये-
न धर्मशास्त्रं पठतीति कारणं, न चापि वेदाध्ययनं दुरात्मनाम्।
स्वभाव एवात्र तथातिरिच्यते, यथा प्रकृ त्या मधुरं गवां पयः॥ (हितोपदेश, मित्रलाभ)
५. राम काल की कु छ परम्परायें
(१) हुलहुली- आकाश के ५ पर्वों को संस्कृ त के ५ मूलस्वरों से व्यक्त किया जाता है (नन्दिके श्वर काशिका)-अ, इ, उ, ऋ, लृ। इनमें स्वायम्भुव (पूर्ण जगत्) तथा
परमेष्ठी (आकाशगंगा) हमारे अनुभव से परे हैं। बाकी ३ का हम अनुभव करते हैं, जो शिव के ३ नेत्र हैं-सूर्य, चन्द्र, पृथ्वी (अग्नि)। अतः मांगलिक कार्यों में इनका
उच्चारण किया जाता है। बार-बार कहने से उ+ऋ+लृ = हुलहुली हो जाता है। यही भाषा में होली हो गया है। इन्द्र विजय के बाद उनके स्वागत के लिये यह किया
गया था, जिसे उलुलयः कहा गया है।
उद्धर्षतां मघवन् वाजिनान्युद वीराणां जयतामेतु घोषः।
पृथग् घोषा उलुलयः एतुमन्त उदीरताम्॥। (अथर्व ३१/९/६)
राम के अश्वमेध यज्ञ में भी जब सीता को वाल्मीकि लेकर आये, तो उनके स्वागत के लिये हुलहुली हुयी थी-
तां दृष्ट्वा श्रुतिमायान्तीं ब्रह्माणमनुगामिनीम्। वाल्मीकेः पृष्ठतः सीतां साधुवादो महानभूत्॥१२॥
ततो हलहला शब्दः सर्वेषामेवमाबभौ। दुःख-जन्म विशालेन शोके नाकु लितात्मनाम्॥१३॥
(रामायण, उत्तरकाण्ड, सर्ग ७८)
यह परम्परा उड़ीशा में आज भी चल रही है।
(२) राम से गिनती-अव्यक्त जगन्नाथ के मनुष्य रूप में २ मुख्य अवतार थे। कृ ष्ण ने जन्म से ही कई ऐसे कार्य किये जो के वल भगवान् ही कर सकते हैं। पर राम सदा
मनुष्य की सीमा में रहे, अतः उनको मर्यादा पुरुषोत्तम कहते हैं। इसी अर्थ में पुरी भी पुरुषोत्तम क्षेत्र है। अव्यय पुरुष के रूप में वह क्षर तथा अक्षर दोनों से उत्तम होने
के कारण पुरुषोत्तम रूप में प्रथित हैं, अतः एक का बहुवचन प्रथम है (अंग्रेजी में वन का फर्स्ट)। अतः धान आदि का वजन करते समय प्रथम के बदले पुरुषोत्तम
राम कहते हैं, उसके बाद २,३ आदि गिनते हैं-
यस्मात् क्षरमतीतोऽह-मक्षरादपि चोत्तमम्। अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथितः पुरुषोत्तमः॥ (गीता १५/१८)
(३) रामगिरि-उड़ीशा के दक्षिण पश्चिम में दण्डकारण्य क्षेत्र है जहां लोगों को दण्ड के लिये निर्वासित किया जाता था। वहां राम ने जिस पर्वत पर निवास किया
उसका नाम रामगिरि पर्वत है। वहां एक झरने के नीचे वस्त्र खोलकर सीता जी स्नान कर रहीं थीं, तो कु छ स्थानीय स्त्रियों ने उनपर हंस दिया। सीता ने शाप दिया
कि वे कभी वस्त्र नहीं पहनेंगीं। आज भी उस क्षेत्र की बोण्डा जाति की स्त्रियां वस्त्र नहीं पहनती हैं। सीता मिथिला, अयोध्या, चित्रकू ट तथा लंका में भी स्नान करती
थीं, पर स्नान से सम्बन्धित विशेष घटना यहीं हुयी। कु बेर ने अपने एक यक्ष को भी दण्ड के लिये रामगिरि पर एक वर्ष के लिये भेजा था, आज भी दण्ड के लिये
उड़ीशा के अधिकारियों की बदली यहीं होती है। कालिदास ने मेघदूत महाकाव्य के प्रथम श्लोक में इसी घटना की चर्चा की है-
कश्चित् कान्ता विरह-गुरुणा स्वाधिकारात् प्रमत्तः, शापेना-स्तङ्गमित-महिमा वर्ष-भोग्येण भर्त्तुः।
यक्ष-श्चक्रे जनक-तनया-स्नान-पुण्योदके षु, स्निग्ध-च्छाया तरुषु वसति रामगिर्याश्रमेषु॥१॥
(४) महेन्द्रगिरि-धनुषयज्ञ में राम द्वारा धनुष-भङ्ग के बाद परशुराम तपस्या के लिये महेन्द्रगिरि आये थे। परशुराम के स्थान बांकी अंचल में हैं तथा उनके कई स्थान
टांगी नाम से प्रसिद्ध हैं। परशुराम टांगी = परशु रखते थे। उड़ीशा के राजाओं को भी महेन्द्रराज कहते थे। यह प्रसिद्ध राजा महेन्द्रवर्मन् के बहुत पूर्व रघुवंश में लिखित
है-उत्कलादर्शित पथः कलिङ्गाभिमुखं ययौ॥३८॥ स प्रतापं महेन्द्रस्य मूर्ध्नि तीक्ष्णं न्यवेशयन्। ... श्रियं महेन्द्रनाथस्य जहार न तु मेदिनीम्॥४३॥ (रघुवंश ४/३८-
३९, ४३) कई लोगों की धारणा है कि कालिदास को पता नहीं था कि विक्रमादित्य कौन है जिसके नवरत्नों में से वे थे, तथा रघु के नाम से उसी का वर्णन कर रहे
थे। एक शोधकर्त्ता श्रीकृ ष्ण जुगनू ने एक ही लेख में रघु के वर्णन को विक्रमादित्य ( असली या चन्द्रगुप्त द्वितीय), हर्षवर्धन, पृथ्वीराज, राणा कु म्भा आदि मान लिया
है (वैचारिकी, २१०२ का चतुर्थ अंक।
(५) नियम के अनुसार धनुष भंग के बाद ही राम का विवाह हो गया था। पर उसके चौथे दिन उनके पिता दशरथ के आने पर पुनः विवाह हुआ। आज भी मिथिला से
अयोध्या के बीच के क्षेत्रों में विवाह के चौथे दिन ही पति-पत्नी मिलते हैं।
(६) सूर्य वंश-विश्व के कई क्षेत्रों के राजा अपने को सूर्यवंशी कहते हैं-मिस्र, जापान, पेरु आदि। इथियोपिआ के राजा ने अपने को सबसे पुराना राजपरिवार सिद्ध
करने के लिये राम के बड़े पुत्र कु श से अपने काल तक की वंशावली प्रकाशित कराई थी। उनके वंश को कु श वंश तथा अफ्रीका को कु श द्वीप कहा जाता था। विश्व
की सभी भाषाओं में सूर्य को रवि, रा, या रब कहते हैं जिनका भगवान् अर्थ भी होता है।
(७) सूर्य क्षेत्र-विश्व के सूर्य क्षेत्र काल क्षेत्र की सीमाओं पर थे। कालहस्ती-उज्जैन से ६० पूर्व, कोणार्क -उज्जैन से १२० पूर्व, क्योटो (जापान की प्राचीन राजधानी)-
६०० पूर्व, पुष्कर (बुखारा) उज्जैन से १२० पश्चिम (विष्णु पुराण २/८/२६), वाराणसी का लोलार्क , पटना से पूर्व पुण्यार्क (पुनारख) ६० तथा ९० पूर्व, मिस्र के
पिरामिड ४५० पश्चिम, पेरु के इन्का (सूर्य सिद्धान्त में इनः = सूर्य) राजाओं की प्राचीन राजधानी १५०० पश्चिम, इंगलैण्ड का स्टोनहेज ७८० पूर्व, फ्रांस का
लौर्डेस ७२० पश्चिम, हेलेसपौण्ट (ग्रीस-तुर्की सीमा पर, हेलिओस = सूर्य), तुर्की के इजमीर (मेरु), कनक्कटे (कोणार्क ) ४२० पश्चिम हैं।
६. रामायण की तिथियां
वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड सर्ग १८ में राम जन्म समय की ग्रह स्थिति इस प्रकार दी है-
ततो यज्ञे समाप्ते तु ऋतूनां षट् समत्ययुः। ततश्च द्वादशे मासे चैत्रे नावमिके तिथौ॥८॥
नक्षत्रेऽदितिदैवत्ये स्वोच्चसंस्थेषु पञ्चसु। ग्रहेषु कर्क टे लग्ने वाक्पताविन्दुना सह॥९॥
प्रोद्यमाने जगन्नाथं सर्वलोकनमस्कृ तम्। कौशल्याजनयद् रामं सर्वलक्षण संयुतम्॥१०॥
= (पुत्र कामेष्टि= अश्वमेध) यज्ञ के ६ ऋतु बाद १२वें मास में चैत्र नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र (जिसका देवता अदिति है) में जन्म हुआ जब ५ ग्रह स्व (स्थान)
या उच्च के थे। जब कर्क लग्न, बृहस्पति और चन्द्र का एक साथ उदय हो रहा था, सभी लोकों से वन्दित जगन्नाथ का भी उदय हुआ तथा कौशल्या ने सभी लक्षणों से
युक्त राम को जन्म दिया।
अगले दिन पुष्य नक्षत्र, मीन लग्न में भरत का तथा उसी दिन अश्लेषा नक्षत्र में लक्ष्मण-शत्रुघ्न का जन्म हुआ जब सूर्य उच्च (१००) पर थे-
पुष्यो जातस्तु भरतो मीनलग्ने प्रसन्नधीः। सार्पे जातो तु सौमित्री कु लीरेऽभ्युदिते रवौ॥१५॥
अतः राम जन्म के समय सूर्य ९० अंश पर, चन्द्र, गुरु, लग्न ९००००’१", तथा चैत्र नवमी (सौर मास की) थी। गुरु और सूर्य प्रायः उच्च पर थे (इनका उच्च १००,
९५० हैं), अन्य ५ ग्रह पूर्ण उच्च के थे-मंगल २९८०, शुक्र ३५७०, शनि २०००। चन्द्र का उच्च ५८० है पर उसका स्थान ९०० दिया है जो उसका अपना स्थान है।
है। बुध का उच्च १६५० है पर यह सूर्य से २८० से अधिक दूर नहीं हो सकता। अतः बुध राहु-के तु की गणना करनी होगी। राम की ४७ पीढ़ी बाद बृहद्बल महाभारत में
मारा गया। अतः राम का काल महाभारत (३१३८ ई.पू.) से प्रायः १३०० वर्ष पूर्व होगा। ३५०१-४७०० ई.पू. के सभी वर्षों की गणना करने पर के वल ४४३३
ई.पू. में ही अयोध्या की सूर्योदय कालीन तिथि नवमी थी (चैत्र शुक्ल) जो अगले सूर्योदय तक थी। इस गणना से राम का जन्म ११-२-४४३३ ई.पू., रविवार, १०-
४७-४८ स्थानीय समय पर हुआ। सूर्योदय ५-३५-४८, सूर्यास्त १८-२८-४८ था। अयनांश १९-५७-५४, प्रभव वर्ष था। अन्य ग्रह बुध २१०, राहु १२०४’४६"।
श्री नरसिंह राव की पुस्तक- Date of Sri Rama, १९९०, १०२ माउण्ट रोड, मद्रास के अनुसार अन्य तिथियां हैं-
जुलियन अहर्गण ई.पू. तिथि/वार वर्ष/मास, अर्धरात्रि नक्षत्र घटना
(१-१-४७१३ ई.पू. से) अर्धरात्रि तिथि
१०२३११ ११-२-४४३३, रवि प्रभव, चैत्र शुक्ल ८.१९ पुनर्वसु ८४.०७/पुष्य राम जन्म
१०२३१२ १२-२-४४३३, सोम चैत्र शुक्ल ९.२ पुष्य ९७.२५/अश्लेषा-लक्ष्मण शत्रुघ्न का जन्म
१०२३२३ २३-२-४४३३ शुक्र चैत्र कृ ष्ण २०.३८ मूल २४२.१९ १२वें दिन नामकरण संस्कार।
१०६६८२ ३०-१-४४२१, बुध प्रमाथी, चैत्र ८.६७ आर्द्रा ७८.११ राम का १३वां जन्मदिन, शनिशुक्र/राहु दशा।
१०६६८९ -६-२-४४२१, बुद चैत्र १५.७८ हस्त १७०.१७ विश्वामित्र द्वारा राम-लक्ष्मण की १० दिन के लिये मांग।
१०६६९० -७-२-४४२१, गुरु चैत्र १६.८० चिरा १८३.३४ कामाश्रम।
१०६६९१ ८-२-४४२१, शुक्र चैत्र १७.८१ स्वाती १९६.५२ ताडका वन।
१०६६९२ ९-२-४४२१ , शनि चैत्र १८.८३ विशाखा २०९.७ सिद्धाश्रम।
१०६६९३ १०-२-४४२१, रवि चैत्र १९.८५ अनुराधा २२.८७ यज्ञ रक्षा का आरम्भ।
१०६६९८ १५-२-४४२१, शुक्र चैत्र २४.९२ श्रवण २८८.७५ यज्ञ के षष्ठ दिन सुबाहु का वध, मारीच का पलायन।
१०६६९९ १६-२-४४२१, शनि चैत्र २५.९४ धनिष्ठा ३०१.९३ मिथिला के लिये प्रस्थान, अर्धरात्रि में चन्द्र उदय।
१०६७०० १७-२-४४२१, रवि चैत्र २६.९६ शतभिषक् ३१५.११ सोन नद पार कर गंगा तट पहुंचे।
१०६७०१ १८-२-४४२१, सोम चैत्र २७.९७ पूर्वभाद्रपद ३२८.२८ गंगा पारकर विशाला पहुंचे।
१०६७०२ १९-२-४४२१, मंगल चैत्र २८.९९/अमावास्या ३०.०५ उत्तर भाद्रपद-गौतम आश्रम, अहल्या उद्धार।
१०६७०३ २०-२-४४२१, बुध, वैशाख ०.००४ रेवती ३५४.६४ जनक से धनुष दिखाने का अनुरोध, धनुष भङ्ग।
१०६७०४ २१-२-४४२१, गुरु वैशाख १.०१९ अश्विनी ७.८१ जनक के दूत अयोध्या रवाना।
१०६७०७ २४-२-४४२१, रवि वैशाख ४.०७ रोहिणी ४७.३४ दशरथ के पास दूत पहुंचे।
१०६७०८ २५-२-४४२१, सोम वैशाख ५.०८ मृगशिरा ६०.५१ दशरथ का मिथिला के लिये प्रस्थान।
१०६७१२ १-३-४४२१, शुक्र वैशाख ९.१५ अश्लेषा ११३.२२ दशरथ मिथिला पहुंचे, जनक से मिले।
१०६७१३ २-३-४४२१, शनि वैशाख १०.१६ मघा १२६.४ जनक का १२ दिवसीय यज्ञ मघा नक्षत्र में पूर्ण।
१०६७१४ ३-३-४४२१, रवि वैशाख ११.१८ पूर्वाफाल्गुनी १३९.५८ गोदान आदि।
१०६७१५ ४-३-४४२१, शुक्र वैशाख १२.२ उत्तरा फाल्गुनी १५२.७५ सीताराम विवाह
१०६७१६ ५-३-४४२१, शुक्र वैशाख १३.२१ हस्त १६५.९३ विश्वामित्र का हिमालय प्रस्थान।
१११०८१ १५-२-४४०९,शनि, खरवर्ष, चैत्र७.५९ पुनर्वसु ८०.७३-श्रीराम का २५ वां जन्मदिन, युवराज का निर्णय।
१११०८२ १६-२-४४०९, रवि, चैत्र ८.६१ पुष्य ९३.९१राज्याभिषेक के बदले वनवास, तमसा के उत्तर तट पर रात्रि।
१११०८३ १७-२-४४०९, सोम चैत्र ९.६३ अश्लेषा १०७.०९ तमसा पार कर कोसल सीमा पर।
१११०८४ १८-२-४४०९, मंगल चैत्र १०.६४ मघा १२०.२६ गुह से मिलन।
१११०८५ १९-२-४४०९, बुध चैत्र ११.६६ पूर्वाफाल्गुनी १३३.४४ गंगा नदी पार कर वनवासी वेश धारण।
१११०८६ २०-२-४४०९, गुरु चैत्र १२.६८ उत्तरा फाल्गुनी १४६.६२ भरद्वाज आस्रम।
१११०८७ २१-२-४४०९, शुक्र चैत्र १३.६९/पूर्णिमा७/२४ बजे से. हस्त १५९.७९-चित्रकू ट के लिये प्रस्थान, यमुना तट।
१११०८८ २२-२-४४०९, शनि चैत्र पूर्णिमा १४.७१ चित्रा १७२.९७-चित्रकू ट पहुंचे। वसिष्ठ ने भरत के पास दूत भेजा।
१११०८९ २३-२-४४०९ रवि चैत्र१५.७२-स्वाती १८६.१५भरत का दुःस्वप्न, दूत से खबर पाकर प्रस्थान, जम्बूप्रस्थ।
१११०९० २४-२-४४०९, सोम चैत्र १६.७४-विशाखा १९९.३२ भरत सर्वतीर्थ पहुंचे।
१११०९१ २५-२-४४०९, मंगल चैत्र १७.७६-अनुराधा २१२.५-भरत सालवन में।
१११०९२ २६-२-४४०९, बुध चैत्र १८.७७ ज्येष्ठा २२५.६७ अयोध्या की तरफ।
१११०९६ २-३-४४०९, रवि चैत्र २२.८३ श्रवण २७८.३८ -८वें दिन सन्ध्या अयोध्या पहुंचे, पिता की मृत्यु का संवाद।
१११०९७ २६-२-४४०९, बुध चैत्र २३.८५ धनिष्ठा २९१.५५ पिता का श्राद्ध।
११११०७ १३-३-४४०९ गुरु वैशाख ४.०१ मृगशिरा ६३.३२ पुण्याह वाचन।
११११०८ १४-३-४४०९ शुक्र वैशाख ५.०२ आर्द्रा ७६.५ भरत द्वारा पिता का श्राद्ध पूर्ण।
११११०९ १५-३-४४०९ शनि वैशाख ६.०४ पुनर्वसु ८९.६७ १३वीं तिथि को सञ्चयन।
१११११० १६-३-४४०९ रवि वैशाख ७.०६ पुष्य १०२.८५ भरत का राज्याभिषेक का प्रस्ताव अस्वीकार।
११११११ १७-३-४४०९ सोम वैशाख ८.०७ अश्लेषा ११६.०२ राम को बुलाने के लिये प्रस्थान।
१११११२ १८-३-४४०९ मंगल वैशाख ९.०९ मघा १२९.२ सूर्योदय मैत्र मुहूर्त्त में गंगा पार भरद्वाज आश्रम में।
१११११३ १९-३-४४०९ बुध वैशाख १०.११ पूर्वाफाल्गुनी १४२.३८ चित्रकू ट में राम से मिलन।
१११११४ २०-३-४४०९ गुरु वैशाख ११.१२ उत्तरा फाल्गुनी १५५.५५ राम की पादुका के साथ भरत का प्रस्थान।
१११११५ २१-३-४४०९ शुक्र,वैशाख१२.१४,हस्त १६८.७३,राक्षसों के भय से जनस्थान से आश्रमवासियों का पलायन।
१११११६ २२-३-४४०९ शनि वैशाख १३.१५ चित्रा १८१.९१ राम का चित्रकू ट से प्रस्थान।
१११११७ २३-३-४४०९ रवि वैशाख पूर्णिमा १४.१७ स्वाती १९५.०८ अत्रि आश्रम सायंकाल चन्द्रोदय।
१११११८ २४-३-४४०९ सोम वैशाख १५.१८ विशाखा २०८.२६ ऋषियों के अतिथि।
१११११९ २५-३-४४०९ मंगल वैशाख १६.२ अनुराधा २२१.४३-विराध वध, शरभङ्ग आश्रम, सुतीक्ष्ण।
११११२० २६-३-४४०९ बुध वैशाख १७.२२ ज्येष्ठा २३४.६१ विभिन्न ऋषियों के आश्रम्ं में १० वर्ष तक निवास।
११४७४२ २३-२-४३९९ शनि, प्लव-वर्ष,चैत्र ६.७९ पुनर्वसु ७९.३८-३५वां जन्मदिन, वनवास का ११ वां वर्ष, अगस्त्य से मिलने चले।
११४७४३ २४-२-४३९९ रवि, चैत्र ७.८१ पुष्य ९२.५६ अगस्त्य के अनुज का आश्रम।
११४७४४ २५-२-४३९९ सोम, चैत्र ८.८२ अश्लेषा १०५.७४ अगस्त्य आश्रम, ब्रह्मास्त्र की प्राप्ति।
११४७४५ २६-२-४३९९ मंगल, चैत्र ९.८४ मघा ११८.९१ पञ्चवटी मार्ग पर जटायु से भेंट।
११५८१५ ३१-१-४३९६ सोम क्रोधी वर्ष, फाल्गुन १६.८५ चित्रा १७७.६२ शूर्पणखा का आगमन, खर सेना से युद्ध।
११५८५५ २०-२-४३९६ रवि चैत्र ७.१६ पुनर्वसु ८१.१४ राम का ३८वां जन्मदिन, सीता का हरण।
११६१०० १२-११-४३९६ शनि पौष ६.३८ पूर्वभाद्रपद ३३२.८८ सीता की खोज में सुग्रीव ने वानरों को भेजा।
११६१३० १२-१२-४३९६ सोम माघ ६.८५ अश्विनी ८१.७ पूर्व, पश्चिम, उत्तर से वानर लौटे, हनुमान् महेन्द्रगिरि से लङ्का चले।
११६१३८ २०-१२-४३९६ मंगल माघ १४.९७, पूर्णिमा १/१४ से, अश्लेषा ११३.५० सीता को हनुमान् ने राम का सन्देश दिया।
११६१३९ २१-१२-४३९६ बुध माघ १५.९९ मघा १२६.७६ लङ्का दहन, सीता की चूड़ामणि लेकर लौटे।
११६१४० २२-१२-४३९६ गुरु माघ १७.०१ पूर्वाफाल्गुनी १३९.३३ महेन्द्रगिरि पर वापस।
११६१४१ २३-१२-४३९६ शुक्र माघ १८.१५ उत्तरा फाल्गुनी १५३.११ राम को सीता का समाचार, विजय मुहूर्त में प्रस्थान।
११६१५८ ९-१-४३९५ सोम, विश्वावसु वर्ष, फाल्गुन ५.५, भरणी १७.११ समुद्र तट पर महेन्द्रगिरि पर्वत पहुंचे।
११६१५९ १०-१-४३९५ मंगल फाल्गुन ६.३१ कृ त्तिका ३०.२८ विभीषण का निर्वासन, राम की शरण में, समुद्र से विनय।
११६१६० ११-१-४३९५ बुध फाल्गुन ७.३२ रोहिणी ४३.४६ उपवास का द्वितीय दिन।
११६१६१ १२-१-४३९५ गुरु फाल्गुन ८.३४ मृगशिरा ५६.६४ उपवास का तृतीय दिन।
११६१६२ १३-१-४३९५ शुक्र फाल्गुन ९.३६ आर्द्रा ६९.८१ राम का अग्निबाण, नल नील द्वारा १४ योजन सेतु।
११६१६३ १४-१-४३९५ शनि फाल्गुन १०.३७ पुनर्वसु ८२.९९ दूसरे दिन २० योजन सेतु का निर्माण।
११६१६४ १५-१-४३९५ रवि फाल्गुन ११.३९ पुष्य ९६.१६ तीसरे दिन २० योजन सेतु का निर्माण।
११६१६५ १६-१-४३९५ सोम फाल्गुन १२.४१ अश्लेषा १०९.३४ चौथे दिन २० योजन सेतु का निर्माण।
११६१६६ १७-१-४३९५ मंगल फाल्गुन १३.४२ मघा१२२.५१ पांचवें दिन २० योजन सेतु का निर्माण।
११६१६७ १८-१-४३९५ बुध फाल्गुन१४.४४, पूर्वाफाल्गुनी१३५.६९-पुल पूर्ण-पार कर पूर्णिमा रात्रि को सुबेल पर्वत पर
११६१६८ १९-१-४३९५ गुरु फाल्गुन १५.४६ उत्तरा फाल्गुनी १४८.८७ अंगद को दूत भेजा, युद्ध आरम्भ।
११६१६९ २०-१-४३९५ शुक्र फाल्गुन १६.४८ हस्त १६२.०५-६ दिनों का युद्ध।
११६१७४ २५-१-४३९५ बुध फाल्गुन २१.५६ ज्येष्ठा २२७.९२-इन्द्रजीत द्वारा लक्ष्मण की मूर्छा, हनुमान् द्वारा संजीवनी।
११६१७५ २६-१-४३९५ गुरु फाल्गुन २२.५७ मूल २४१.१-कु म्भ निकु म्भ वध।
११६१७६ २७-१-४३९५ शुक्र फाल्गुन २३.५९ पूर्वाषाढ़ २५४.२८-रात्रि में राम द्वारा मकराक्ष का वध।
११६१७७ २८-१-४३९५ शनि फाल्गुन २४.६ उत्तराषाढ़ २६७.४६-इन्द्रजीत द्वारा माया सीता का वध, लक्ष्मण से ३ दिन युद्ध।
११६१८० ३१-१-४३९५ मंगल फाल्गुन २७.६५ शतभिषक् ३०८.९९-लक्ष्मण द्वारा मेघनाद वध।
११६१८१ १-२-४३९५ बुध फाल्गुन २८.६७ पूर्वभाद्रपद ३२०.१६-सीता हत्या के बदले अगले दिन प्रतिपदा को युद्ध।
११६१८२ २-२-४३९५ गुरु फाल्गुन २९.६८ उत्तरभाद्रपद/रेवती-३ दिन राम रावण युद्ध, अगस्त्य द्वारा आदित्य मन्त्र।
११६१८५ ३-२-४३९५ रवि चैत्र २.७३ कृ त्तिका/रोहिणी-रावण वध, उसका श्राद्ध।
११६१८६ ४-२-४३९५ सोम चैत्र ३.७४ -रोहिणी/मृगशिरा-विभीषण का अभिषेक, सीता की अग्नि परीक्षा।
११६१८७ ५-२-४३९५ मंगल चैत्र ४.७६ मृगशिरा/आर्द्रा/पुनर्वसु-पुष्पक विमान से किष्किन्धा आगमन।
११६१८८ ६-२-४३९५ बुध चैत्र ५.७८ पुनर्वसु/पुष्य-राम का राज्याभिषेक।
१२७११८ २२-३४३६५ शनि- राम ने ब्रह्मलोक प्रस्थान किया।

रामायण किस काल में लिखी गई? बाल्मीकि और तुलसीदास की रामायण में क्या अंतर है?
आपका बहुत ही अच्छा प्रश्न है बंधु। आपके इस प्रश्न का साहित्यक/एतिहासिक प्रमाण मै आपको देने का प्रयत्न करूँ गा। आशा है अधिक से अधिक लोग लाभान्वित होंगे।
पहले मै रामायण के काल पर आता हूँ। देखिये बंधु रामायण का काल वैवस्वत, मन्वंतर के 28 वी चतुर्युगी के त्रेतायुग का है। वैदिक गणित/विज्ञान के अनुसार ये सृष्टि 14 मन्वंतर तक चलती है। प्रत्येक
मन्वंतर मे 71 चतुर्युगी होती है। 1 चतुर्युगी मे 4 युग- सत,त्रेता,द्वापर एवं कलियुग होते है। अब तक 6 मन्वंतर बीत चुके है 7 वाँ मन्वंतर वैवस्वत मन्वंतर चल रहा है।
देखिये बंधु, सतयुग 17,28,000 वर्षो का एक काल है, इसी प्रकार त्रेतायुग 12,96,000 वर्ष, द्वापरयुग 8,64,000 वर्ष एवं कलियुग 4,32,000 वर्ष का है। वर्तमान मे 28 वी चतुर्युगी का
कलियुग चल रहा है। अर्थात् श्रीराम के जन्म होने और हमारे समय के बीच द्वापरयुग है। जो कि उपरोक्त 8,64,000 वर्ष का है। अब आगे आते है कलियुग के लगभग 5200 वर्ष बीत चुके है। ऐसा
मानना था महान गणितज्ञ एवं ज्योतिष वराहमिहिर जी का। उनके अनुसार
असन्मथासु मुनय: शासति पृथिवी: युधिष्ठिरै नृपतौ:
षड्द्विकपञ्चद्वियुत शककालस्य राज्ञश्च:
जिस समय युधिष्ठिर राज्य करते थे उस समय सप्तऋषि मघा नक्षत्र मे थे। वैदिक गणित मे 27 नक्षत्र होते है और सप्तऋषि प्रत्येक नक्षत्र मे 100 वर्ष तक रहते है।ये चक्र चलता रहता है। राषा युधिष्ठिर
के समय सप्तऋषियो ने 27 चक्र पूर्ण कर लिये थे उसके बाद आज तक 24 चक्र और हुए कु ल मिलाकर 51 चक्र हो चुके है सप्तऋषि तारा मंडल के । अत: कु ल वर्ष व्यतीत हुए 51×100= 5100
वर्ष। राजा युधिष्ठिर लगभग 38 वर्ष शासन किये थे। तथा उसके कु छ समय बाद कलियुग का आरम्भ हुआ अत: मानकर चलते है कि कलियुग के कु ल 5155 वर्ष बीत चुके है।
इस प्रकार कलियुग से द्वापरयुग तक कु ल 8,64,000+5155=8,69,155 वर्ष।
श्रीराम का जन्म हुआ था त्रेतायुग के अंत मे। इस प्रकार कम से कम 9 लाख वर्ष के आस पास श्रीराम और रामायण का काल आता है।
अब तथ्य पर आते है।
रामायण सुन्दरकांड सर्ग 5, श्लोक 12 मे महर्षि वाल्मीकि जी लिखते है-
वारणैश्चै चतुर्दन्तै श्वैताभ्रनिचयोपमे
भूषितं रूचिद्वारं मन्तैश्च मृगपक्षिभि:||
अर्थात् जब हनुमान जी वन मे श्रीराम और लक्ष्मण के पास जाते है तब वो सफे द रंग 4 दांतो नाले हाथी को देखते है। ये हाथी के जीवाश्म सन 1870 मे मिले थे। कार्बन डेटिंग पद्धति से इनकी आयु
लगभग 10 लाख से 50 लाख के आसपास निकलती है।

वैज्ञानिक भाषा मे इस हाथी को Gomphothere नाम दिया गया। इस से रामायण के लगभग 10 लाख साल के आस पास घटित होने का वैज्ञानिक प्रमाण भी उपलब्ध होता है।
अब आते तुलसीदास पर। तुलसीदास आज से लगभग 500 वर्ष पूर्व पैदा हुए थे। वे अवधी एवं ब्रज भाषा मे लिखते थे। यहाँ पर एक तथ्य आपको बता दूँ कि जो गीता वेदव्यास द्वारा लिखित थी वो
के वल 80 श्लोक की थी जो आज 800 श्लोक तक पहुँच गयी है। आज से 1500 वर्ष पूर्व जन्मे राजाभोज अपनी पुस्तक भोजप्रबंध मे लिखते है कि म़ेरे से 500 वर्ष पूर्व जब राजा विक्रमादित्य
शासन करते थे तब महाभारत मे 1000 श्लोक थे ,मेरे दादा के समय मे 2500 श्लोक तथा मेरे समय मे 3000 श्लोक है। वर्तमान मे गीताप्रेस गोरखपुर 1 लाख 10,000 श्लोक की महाभारत
छापता है। इसी प्रकार मूल रामायण के बहुत से संस्कृ त श्लोको को अवधी,ब्रज भाषा मे बदलकर तुलसीदास ने काव्य रूप से रामायण की रचना की जिसे रामचरितमानस के नाम से जाना जाता है।
अत: रामचरितमानस मे जो जो तथ्य मूल रामायण(मुनि वाल्मीकि रचित) सम्मत है उन्हे ग्रहण करे और जो विरूद्ध है उन्हे त्याग दे।

वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास कृ त रामचरितमानस में बहुत सारे अन्तर हैं जिन्हें दोनों ग्रन्थ पढ़ने पर सरलता से देखा जा सकता है। इनमें से कु छ अन्तर निम्न
हैं...
 सर्वप्रथम दोनों ग्रन्थों को लिखने की भावना में ही बहुत अन्तर है। ऋषि वाल्मीकि ने जहाँ मूलकथा को एक अवतार के रूप में बताने का प्रयत्न किया है, वहीं
तुलसीदास ने श्रीराम की भक्ति में ग्रन्थ लिखा है। वाल्मीकि के राम देवताओं के हित के लिए विष्णु के अवतार हैं परन्तु तुलसीदास के राम स्वयं सर्वशक्तिशाली,
अनादि, अनन्त ईश्वर हैं। स्वयंभुव मनु-शतरूपा तपस्या से राम को प्रसन्न कर उन्हें पुत्र रूप में पाने का वरदान माँगते हैं। यहाँ कहीं-कहीं सीता को लक्ष्मी से भी महान
दर्शाया गया है।
 दूसरा अन्तर जो सभी जानते हैं, वह भाषा का है। रामायण कई शताब्दियों तक संस्कृ त में पढ़ी-सुनी जाती रही, उसका अनुवाद दक्षिण भारत की अन्य भाषाओं में तो
हुआ था परन्तु उत्तर भारत में नहीं। ऐसे में जब सम्पूर्ण भारत में इस्लाम का प्रचार-प्रसार हो रहा था, धर्मांतरण का बोलबाला था, तुलसीदास ने श्रीराम के सुराज्य के
अर्थ को समझाने हेतु रामकथा को जनमानस की भाषा में बताने का बीड़ा उठाया। उन्होंने इसके लिए अवधी भाषा को चुना। वह अयोध्या में रहते थे और उन्होंने
अयोध्या में ही इस ग्रन्थ को रामनवमी के दिन लिखना प्रारम्भ किया।
 रामायण (उत्तरकाण्ड) के अनुसार वाल्मीकि प्रचेता के दसवें पुत्र थे जो धर्मात्मा थे परन्तु तुलसीदास उन्हें मूढ़ (राम को मरा-मरा कहने वाले) बताते हैं। कदाचित
वाल्मीकि एक से अधिक रहे हों। पहले वाल्मीकि रामायण के रचयिता और बाद में उन्हीं की परम्परा निभाने वाले अन्य। उन्हीं अन्य वाल्मीकियों में रत्नाकर डाकू रहा
होगा जिसे तुलसीदास ने प्रथम वाल्मीकि समझा हो।
 तुलसीदास ने अपने ग्रन्थ में कई विरोधाभास दिखाए हैं। उदाहरणार्थ, बालकाण्ड में सती-शिव को सीताहरण के समय दिखाया गया है जबकि सती सतयुग में ही
दक्षयज्ञ में भस्म हो चुकीं थीं। बाद में शिव-पार्वती के विवाह में उन्हें गणेश की पूजा करते हुए बताया गया है। सीता विवाह से पूर्व पार्वती की पूजा करतीं हैं और उन्हें
कार्तिके य व गणेश की माता कह कर उनकी स्तुति करतीं हैं। राम-सीता विवाह में भी पार्वती के सम्मिलित होने का कई बार वर्णन है।
 रामचरितमानस में दशरथ-कौशल्या को कश्यप-अदिति एवं मनु-शतरूपा का अवतार बताया गया है जबकि रामायण में नहीं।
 रामायण में दशरथ की 350 स्त्रियाँ हैं जिनमें तीन मुख्य हैं। राजा की प्रत्येक वर्ण (क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) से रानी होती थी। इस प्रकार राजा प्रजा का पिता होता था।
रामचरितमानस में के वल तीन रानियों का वर्णन है।
 रामायण में अहिल्या को अदृश्य होकर रहने का श्राप दिया जाता है जिनका उद्धार राम के दर्शन से होता है और राम-लक्ष्मण उनके पाँव छू ते हैं जबकि
रामचरितमानस में अहिल्या को पत्थर की देह धारण करने का श्राप मिलता है एवं राम की चरणधूल से उनका उद्धार होता है।
 रामायण में राम सीता के स्वयंवर में नहीं जाते हैं, वह जनक के यज्ञ में शिवधनुष देखने मिथिला जाते हैं और उसकी कथा सुनकर उसे उठा कर प्रत्यंचा चढ़ाते हैं,
जिससे धनुष टू ट गया। पूर्वकाल में कई योद्धा शिवधनुष उठाने में असफल हो चुके थे। रामचरितमानस में सीता के स्वयंवर में रावण एवं बाणासुर के धनुष को छू ए
बिना भाग जाने और राम द्वारा धनुर्भंग का वर्णन है। पुष्पवाटिका में राम-सीता के एक दूसरे को देखने का भी वर्णन है।
 रामभक्ति में तुलसीदास ने अन्य चरित्रों में दोष लगा दिये हैं। लक्ष्मण को बहुत अधिक क्रोधी दिखाया है जो स्वयंवर के समय जनक पर क्रोध दिखाते हैं और धनुर्भंग
के बाद परशुराम से परिहास करते हैं। सेतुबंध से पहले भी लक्ष्मण समुद्र पर क्रोध करते हैं। रामायण में जनक एवं परशुराम से लक्ष्मण की कोई वार्ता नहीं होती है।
समुद्र पर भी राम ने स्वयं क्रोध करके बाण छोड़ दिया था, लक्ष्मण ने ही दूसरा बाण छोड़ने से राम को रोका था। रामायण में लक्ष्मण को दो बार क्रोध करते हुए
दर्शाया गया है - पहला राम के वनवास की सूचना पर और दूसरा भरत के चित्रकू ट आगमन पर।
 इसी प्रकार देवताओं और विशेषतः इन्द्र को तुलसीदास ने बहुत ही अशोभनीय शब्द कह दिए हैं जबकि रामायण में उनकी महिमा कई बार बताई गई है। कई महत्त्वपूर्ण
व्यक्तियों के मरने के बाद इन्द्रलोक प्राप्त करने का वर्णन है जैसे - श्रवणकु मार, शरभंग ऋषि, दशरथ आदि। सीता को अशोकवाटिका में इन्द्र दिव्य खीर खिलाने जाते
हैं जिससे सीता को कई वर्षों तक भूख न लगे। हनुमान को इन्द्र ने इच्छामृत्यु का वरदान दिया था।
 रामायण में परशुराम जी धनुर्भंग के तुरन्त बाद नहीं आते हैं, वह बारात अयोध्या वापस लौटते समय रास्ते में मिलते हैं और दशरथ तथा राम से बात करते हैं। राम
क्रु द्ध होकर उनसे वैष्णव धनुष लेकर उनके पुण्य नष्ट कर देते हैं जबकि रामचरितमानस में परशुराम स्वयंवरसभा में ही पहुँच जाते हैं और लक्ष्मण-विश्वामित्र सम्वाद
होता है। राम परशुराम से विनयपूर्वक बात करते हैं और परशुराम वापस लौट जाते हैं।
 रामायण में राम एवं सीता की आयु का वर्णन किया गया है जिससे पता चलता है कि विवाह के समय राम की आयु 15 वर्ष और सीता की आयु 6 वर्ष थी। उसके
उपरान्त वह 12 वर्ष अयोध्या में रहे अर्थात वनवास के समय राम 27 वर्ष और सीता 18 वर्ष की थीं (यह तथ्य कु छ पाठकों को आपत्तिजनक लग सकता है परन्तु
ग्रन्थ में ऐसा ही है। यह ध्यान दिया जाना चाहिए कि आज-कल का उपलब्ध ग्रन्थ मूल ग्रन्थ नहीं है। उसमें कई क्षेपक हैं)। रामचरितमानस में पात्रों की आयु गणना
नहीं मिलती है।
 रामायण में वसिष्ठ कै के यी को फटकारते हुए कहते हैं कि यदि राम वन को जाएँ तो सीता को ही सिंहासन पर बिठाया जाए (स्त्री सशक्तिकरण का उदाहरण)।
रामचरितमानस में यह प्रसंग नहीं है।
 रामायण में के वट का कोई वर्णन नहीं हैं। रामचरितमानस में रामभक्ति में ऐसे प्रसंग जोड़े गए हैं। रामायण में निषादराज गुह भारद्वाज ऋषि के आश्रम में नहीं गए थे
जबकि रामचरितमानस में वह राम के साथ ही आश्रम में जाते हैं।
 रामायण में राम को भारद्वाज ऋषि चित्रकू ट में रहने का सुझाव देते हैं, रामचरितमानस में वाल्मीकि यह सुझाव देते हैं।
 रामचरितमानस में ऋषि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्ष्ण मुनि राम से आशीर्वाद माँगते हैं (यहाँ राम-भक्ति अपने चरम पर दर्शाई गई है) जो रामायण में नहीं है।
 रामायण में खर-दूषण से युद्ध में राम अपने पराक्रम से ही सभी राक्षसों का वध करते हैं और खर ने भी असाधारण रणकौशल दिखाया है जबकि रामचरितमानस में
राम उन्हें मोह में डाल देते हैं और सभी राक्षस आपस में एक दूसरे को राम समझ कर लड़ मरते हैं।
 रामायण में रावण को युद्धकाण्ड में अपने भाइयों व पुत्रों की मृत्यु के बाद विश्वास होता है कि राम नारायण के अवतार हैं जबकि रामचरितमानस में अरण्यकाण्ड में
खर-दूषण की मृत्यु के बाद ही रावण समझ जाता है कि राम अवतार हैं।
 रामायण में रावण मारीच के पास दो बार सहायता हेतु जाता है। पहली बार मारीच राम की महिमा का गुणगान करके उसे वापस भेज देता है परन्तु शूर्पणखा के कहने
पर रावण दुबारा जाता है और मारीच को मायामृग बनना पड़ता है। रामचरितमानस में पहली बार में ही वह मायामृग बनने पर विवश हो जाता है।
 रामायण में सीता राम से मृग को पकड़ कर लाने के लिए कहतीं हैं जिसे वह अयोध्या ले जा सकें । रामचरितमानस में सीता मृगचर्म लाने को कहतीं हैं।
 रामायण में लक्ष्मण को पहले ही सन्देह हो जाता है कि मृग रूप में मायावी मारीच ही होगा परन्तु रामचरितमानस में ऐसा नहीं है।
 रामायण में मारीच मरते समय सीता और लक्ष्मण दोनों को पुकारता है परन्तु रामचरितमानस में के वल लक्ष्मण को पुकारता है।
 रामायण में लक्ष्मण रेखा का कोई वर्णन नहीं है परन्तु रामचरितमानस में लक्ष्मण रेखा का वर्णन लंकाकाण्ड में मंदोदरी द्वारा किया गया है।
 रामचरितमानस में सीता का नहीं छायासीता का हरण होता है जबकि रामायण में ऐसा नहीं है।
 रामायण में जटायु रावण का रथ तोड़ देते हैं और रावण सीता को गोद में उठा कर लंका तक उड़ कर जाता है जबकि रामचरितमानस में वह रथ में ही लंका पहुँचता
है।
 रामायण में कु म्भकर्ण युद्ध से पहले भी जागा था और उसने रावण को भरी सभा में सीताहरण जैसे दुष्कृ त्य के लिए फटकारा था। रामचरितमानस में यह प्रसंग नहीं है।
 रामायण में राम हनुमान से अपना परिचय देते हैं और दोनों में मित्रता होती है जबकि रामचरितमानस में हनुमान पहले से प्रभु श्रीराम के भक्त हैं।
 रामायण में सुग्रीव राम-लक्ष्मण के क्रोध के बाद वानरों को सीताखोज हेतु भेजते हैं जबकि रामचरितमानस में वह पहले ही ऐसा कर चुके होते हैं।
 रामायण में सीता की खोज के समय समुद्रतट पर अंगद के मन में विद्रोह के भाव आते हैं जिन्हें हनुमान चालाकी से दबा देते हैं। रामचरितमानस में ऐसा कु छ नहीं है।
 रामचरितमानस में हनुमान की लंका जाने पर विभीषण से भेंट होती है और वही उन्हें अशोकवाटिका भेजते हैं। रामायण में हनुमान की विभीषण से कोई भेंट नहीं होती
है और हनुमान पूरी लंका में सीता को कई बार ढूँढने के बाद स्वयं ही अशोकवाटिका जाते हैं।
 रामायण में हनुमान सीता को अपना परिचय देकर मुद्रिका देते हैं जबकि रामचरितमानस में हनुमान मुद्रिका पेड़ से सीता के पास गिरा देते हैं और बाद में उनके समक्ष
आते हैं।
 रामायण में हनुमान सीता को साथ चलने को कहते हैं परन्तु वह मना कर देतीं हैं जबकि रामचरितमानस में हनुमान कहते हैं कि वह सीता को साथ ले चलते परन्तु
प्रभु की ऐसी आज्ञा नहीं है।
 रामायण में सीता हनुमान को चूड़ामणि पहले ही दे देतीं हैं जबकि रामचरितमानस में लंकादहन के उपरान्त चूड़ामणि देतीं हैं।
 रामायण में विभीषण का अपमान होने पर वह स्वयं लंका छोड़ देते हैं परन्तु रामचरितमानस में रावण उन्हें लात मार कर निकाल देता है।
 रामायण में शुक व सारण को विभीषण पकड़ते हैं एवं समुद्र पार होने के उपरान्त राम के आदेश पर छोड़ते हैं। रामचरितमानस में वानर ही उन्हें पकड़ते हैं और लक्ष्मण
उन्हें अपना सन्देशपत्र देकर छोड़ देते हैं और रावण द्वारा निकाले जाने पर शुक अगस्त्य ऋषि के पास लौट कर शापमुक्त हो मुनि बन जाता है।
 रामायण में समुद्र पर पत्थरों के तैरने का वर्णन नहीं है। सेतु नल की शिल्पकला से बाँधा गया था। रामचरितमानस और महाभारत में समुद्र पर पत्थर तैरने का वर्णन
है।
 रामचरितमानस में राम एक तीर से रावण के मुकु ट और मंदोदरी के कु ण्डल गिरा देते हैं जो रामायण में नहीं है।
 रामचरितमानस में दूत अंगद के लंका जाने पर रावण के एक पुत्र को मारने एवं रावण के चार मुकु ट फें कने का वर्णन है जो रामायण में नहीं है।
 रामायण में संजीवनी बूटी लाने का दो बार वर्णन है, सुषेण वैद्य एक वानर है और कालनेमि, हनुमान-भरत मिलाप का कोई वर्णन नहीं है जबकि रामचरितमानस में
संजीवनी बूटी एक बार लाने का वर्णन है, सुषेण वैद्य लंका का राजवैद्य है और कालनेमि, हनुमान-भरत मिलाप आदि का वर्णन हैं।
 रामायण में मेघनाद का शीश काट कर वध होता है जबकि रामचरितमानस में लक्ष्मण का बाण मेघनाद की छाती में लगता है।
 रामायण में लक्ष्मण को रावण ने मयदानव की दी हुई शक्ति मारी परन्तु रामचरितमानस में यह शक्ति उसे ब्रह्मा ने दी थी।
 रामायण में मेघनाद का यज्ञ विध्वंस लक्ष्मण करते हैं जबकि रामचरितमानस में रावण के यज्ञ का विध्वंस वानर करते हैं।
 रामचरितमानस में रावण ने इन्द्र के रथ के घोड़ों व सारथी को मार कर गिरा दिया था परन्तु रामायण में ऐसा नहीं हुआ।
 रामचरितमानस में रावण के हृदय में सीता का वास होने के कारण राम उसके हृदय में तीर मारने में समय लगाते हैं जबकि रामायण में ऐसा कु छ नहीं है।
 रामचरितमानस में रावण की नाभि में अमृत का वास बताया गया है जो कि रामायण में नहीं है। रामचरितमानस में रावण का वध 31 बाणों द्वारा होता है जबकि
रामायण में ब्रह्मा द्वारा बनाए हुए एवं अगस्त्य द्वारा दिये हुए अस्त्र (ब्रह्मास्त्र) से रावण वध हुआ था।
 रामायण में युद्ध के उपरान्त इन्द्र वरदान में सभी वानरों, लंगूरों व रीछों को पुनर्जीवित (अपवादस्वरूप) कर देते हैं परन्तु रामचरितमानस में यह प्रसंग दूसरे रूप में है।
यहाँ देवराज अमृतवर्षा द्वारा इन्हें पुनर्जीवित करते हैं (श्री गोपाल दास जी को यह बात याद दिलाने हेतु आभार) (यह भी ध्यान योग्य है कि अमृतपान से लोग
पुनर्जीवित ही नहीं, अमर हो जाते हैं)।
 रामचरितमानस में राम अयोध्यावासियों से मिलने हेतु चमत्कार से कई रूप बना कर सबसे एक साथ मिलते हैं। रामायण में ऐसे किसी चमत्कार का वर्णन नहीं है।
 रामचरितमानस में तुलसीदास ने रामभक्ति में स्त्रियों के विरुद्ध भी कई बार कु छ कह दिया है जैसे वह स्वभावतः अज्ञानी, मूर्ख, अधम, माया इत्यादि हैं परन्तु रामायण
में स्त्रियों को यथोचित सम्मान दिया गया है।
 रामायण के विशेषज्ञ उत्तरकाण्ड को मूलकथा का भाग नहीं बल्कि क्षेपक मानते हैं। यह एक प्रकार से पूरक ग्रन्थ लगता है जो मूलकथा में छू ट गए किस्सों को विस्तार
देता है। इसमें कई अन्य कथाओं (जिनमें कई मूलकथा से विरोधाभासी भी हैं) के साथ ही सीता के परित्याग, कु श-लव के जन्म की कथा है। रामचरितमानस में
उत्तरकाण्ड में के वल राम के राज्याभिषेक और शासन का वर्णन है और कागभुशुंडि की कथा है।
अन्ततः कु छ ऐसे तथ्य भी बताना सही रहेगा जो रामायण एवं रामचरितमानस दोनों में ही नहीं हैं परन्तु जनमानस में प्रचलित हैं। यह कदाचित पुराणों एवं कालिदास
कृ त रघुवंश से जनमानस में फै ले होंगे -
 कहीं भी हनुमान को रुद्रावतार नहीं कहा गया है।
 किसी भी वानर के पास कोई हथियार (गदा आदि) नहीं थी। उनके हथियार नख, दाँत, पत्थर, पहाड़ और पेड़ ही थे। अभी गदा के बिना हनुमान की कल्पना भी नहीं
की जा सकती।
 श्रवणकु मार का माता-पिता को लेकर काँवड़ यात्रा का वर्णन नहीं है। वह अपने पिता के आश्रम में सपरिवार तपस्या करता था।
 सीताहरण में पुष्पक विमान का प्रयोग नहीं हुआ था।
 शबरी के जूठे बेरों का कहीं वर्णन नहीं है।
 युद्ध में बालि के प्रतिद्वंदी का आधा बल बालि को मिलने का भी कोई वर्णन नहीं है।
 सेतुबन्ध के समय किसी गिलहरी का वर्णन नहीं है।
 लक्ष्मण को शक्ति मेघनाद ने नहीं रावण ने मारी थी। मेघनाद ने पहली बार नागपाश और दूसरी बार ब्रह्मास्त्र द्वारा राम-लक्ष्मण दोनों को मूर्छित कर दिया था, जिन्हें
गरुड़ एवं संजीवनी बूटी द्वारा पुनः चेतना मिली।
 अहिरावण, महिरावण, सुलोचना, रावण की मृत्यु के समय लक्ष्मण को उपदेश, मन्दोदरी का विभीषण से विवाह, अयोध्या में कर प्राप्ति हेतु धर्मकाँटा, राम की मुद्रिका
का छिद्र में गिरना और हनुमान द्वारा उसे ढूँढना आदि का वर्णन नहीं है।
 कु श-लव के द्वारा अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को पकड़ने और युद्ध का कोई वर्णन नहीं है।

इसमें खास तरीके से दिखाया गया है

रामायण और रामचरितमानस महान भारतीय महाकाव्य हैं जो हमें पृथ्वी पर भगवान विष्णु के अवतार राम की यात्रा बताते हैं।
हममें से कु छ लोग रामायण और रामचरितमानस के शब्दों का परस्पर प्रयोग करते हैं । दोनों पुस्तकें भगवान राम और उनकी पत्नी सीता और उनके जीवन के बारे में हैं। रामचरितमानस रामायण का एक
बाद का रीटेलिंग है।
उनके बीच कविता की शैली, रचना के तरीके , एवं धार्मिक महत्व के आधार पर कु छ अंतर हैं। आइए एक नजर डालते हैं:
रामायण ऋषि वाल्मीकि द्वारा लिखी गई थी। ऋषि वाल्मीकि भगवान राम के समकालीन थे।
रामचरितमानस को महान अवधी कवि गोस्वामी तुलसीदास ने लिखा था।
रामायण वैदिक संस्कृ त में लिखी गई थी
रामचरितमानस अवधी में लिखा गया था ।
त्रेता युग में रामायण लिखी गई
रामचरितमानस कलियुग में लिखा गया था अर्थात 15 वीं शताब्दी ईस्वी ।
रामायण शब्द दो शब्दों से बना है - राम और अयनम (कहानी), इस प्रकार रामायण का अर्थ राम की कहानी है। शीर्षक में कोई अतिशयोक्ति या स्तवन नहीं है
रामचरितमानस शब्द तीन शब्दों से बना है - राम, चरित्र (अच्छे कर्म) और मानस (झील), इस प्रकार रामचरितमानस का अर्थ है राम के अच्छे कर्मों की झील। यह शीर्षक स्वयं राम की दिव्यता /
असाधारणता को दर्शाता है।
रामायण की रचना सात अध्यायों या कं डमों में की गई है - बालकाण्डम, अयोध्याकं दम, अरण्यकं दम, किष्किं धा कं दम, सुंदरकांड, शुद्ध कं डम और उत्तरा कं दम।
रामचरितमानस में भी के वल एक प्रमुख अंतर के साथ सात अध्याय हैं कि तुलसीदास ने छठा अध्याय युध कांड के तहत नहीं लिखा था, बल्कि उन्होंने इसका नाम लंका कांड रखा था।
रामायण को 'श्लोक' प्रारूप में लिखा गया है
रामचरितमानस को 'चौपाई' प्रारूप में लिखा गया है।
रामायण भगवान राम की मूल कहानी (आदि काव्य) और उनकी यात्रा है।
रामचरितमानस रामायण का मूलमंत्र है। तुलसीदास ने अपनी पुस्तक में वाल्मीकि को माना है।
रामायण के अनुसार, राजा दशरथ की 350 से अधिक पत्नियां थीं, जिनमें से तीन प्रमुख पत्नियां थीं - कौसल्या, कै के यी और सुमित्रा।
रामचरितमानस के अनुसार राजा दशरथ की के वल तीन पत्नियां थीं।
रामायण के अनुसार, भगवान हनुमान को एक ऐसे इंसान के रूप में दिखाया गया है जो वानर जनजाति से हैं। वानर दो शब्दों से बना है - वान (वन) और नर (मनुष्य)। वन में रहने वाली जनजातियों
को रामायण में वानर के रूप में वानर के रूप में संदर्भित किया गया था।
रामचरितमानस में उन्हें एक बंदर के रूप में दर्शाया गया है और 'वानर' का इस्तेमाल बंदरों की अपनी प्रजाति का उल्लेख करने के लिए किया जाता है।
रामायण के अनुसार, राजा जनक ने कभी सीता स्वयंवर का आयोजन एक बड़े समारोह के रूप में नहीं किया, इसके बजाय, जब भी कोई शक्तिशाली व्यक्ति जनक से मिलने जाता था, तो वह उन्हें
शिव धनुष (शिव का धनुष) दिखाते थे और उन्हें इसे उठाने के लिए कहते थे। एक बार जब विश्वामित्र राम और लक्ष्मण के साथ जनक के पास गए, तब जनक ने राम को धनुष दिखाया। भगवान राम ने
धनुष उठाया और उनका विवाह सीता से हुआ।
रामचरितमानस के अनुसार, स्वयंवर का आयोजन राजा जनक द्वारा सीता के लिए किया गया था और शिव के धनुष को उठाने की प्रतियोगिता थी। सीता उस व्यक्ति को अपने पति के रूप में चुनेंगी
जो धनुष को बिना तोड़े उठा सकता है। कोई भी तब तक धनुष नहीं उठा सकता था जब तक कि राम उसे उठाने नहीं आते। उन्होंने इसे उठा लिया लेकिन इस प्रक्रिया में इसे तोड़ दिया। यह सुनकर
परशुराम को बहुत गुस्सा आया और राम ने उन्हें क्षमा करने को कहा।
रामायण के अनुसार, सीता का अपहरण और कष्ट वास्तविक थे। उसे रावण द्वारा बलपूर्वक अपने रथ पर खींचकर उसका अपहरण किया गया था। राम ने सीता को बचाया और उनसे अग्नि परीक्षा
लेकर दुनिया को अपनी पवित्रता साबित करने के लिए कहा।
रामचरितमानस के अनुसार, असली सीता का अपहरण कभी नहीं हुआ था। राम सीता के अपहरण का पूर्वाभास करते हैं और सीता का क्लोन बनाते हैं और अग्नि देव को असली सीता भेजते हैं। अग्नि
परिक्षा ही वास्तविक सीता के साथ सीता के क्लोन का आदान-प्रदान करने का एक तरीका था।
रामायण के अनुसार, रावण दो बार रणभूमि में राम से लड़ने आया था। सबसे पहले, वह युद्ध की शुरुआत में आया था। उन्हें राम द्वारा अपमानित किया गया था लेकिन उन्होंने जीवित छोड़ दिया।
दूसरा, वह युद्ध के अंत में आया था और राम द्वारा मारा गया था।
रामचरितमानस में, रावण अंत में के वल एक बार युद्ध के मैदान में आया।
रामायण में, राम को "मर्यादा पुरुषोत्तम" के रूप में दर्शाया गया है, जिसका अर्थ है उत्कृ ष्ट आचरण वाले श्रेष्ठ पुरुष। उन्हें असाधारण गुणों वाले मानव के रूप में दिखाया गया है।
रामचरितमानस में राम को भगवान के अवतार के रूप में दर्शाया गया है। उसे अपने कामों के लिए दिव्य स्पर्श दिखाया गया है। उनके कार्यों ने बुराइयों को दूर करने और धर्म की स्थापना के लिए
भगवान के धर्मी तरीकों के रूप में वर्णित किया।
सीता का चरित्र चित्रण भी दोनों संस्करणों में काफी भिन्न है। दोनों के पास सीता के चरित्र का एक ही आधार है, उनकी पतिव्रता स्त्री होने के नाते, अपने पति के लिए निष्ठापूर्वक, और एक महिला के
रूप में, जो सब कु छ ऊपर रखती है। वे जिस पहलू में भिन्न हैं, वह सीता का दृष्टिकोण है। वाल्मीकि ने सीता को एक बहुत मजबूत और मुखर महिला के रूप में चित्रित किया है, कभी-कभी आक्रामक
भी और अपने पति, राम के बराबर।
रामचरितमानस में उन्हें विनम्र, मितभाषी और मृदुभाषी महिला के रूप में दिखाया गया है। यह 16 वीं सदी में समाज में महिलाओं की भूमिका से उपजा है, जिस अवधि के दौरान महिलाओं को
पुरुषों के लिए एक अधीनस्थ पद दिया गया था। उस अवधि में महिलाओं के पास सांसारिक मामलों में एक कहावत नहीं थी और सभी क्षेत्रों में उन पर अत्याचार किया जाता था। इसलिए, तुलसीदास
को सीता को वाल्मीकि की रामायण में उनके दृष्टिकोण के विपरीत विनम्र चित्रित करना पड़ा।
रामायण में, लक्ष्मण रेखा को चित्रित नहीं किया गया है। वाल्मीकि लक्ष्मण रेखा के रूप में जानी जाने वाली किसी भी रेखा के अस्तित्व का उल्लेख नहीं करते हैं। सीता के अपहरण का प्रकरण अरण्य
कांड में निहित है। पुस्तक के अध्याय ४५ में, सीता के सामने हाथ जोड़कर, झोंपड़ी से दूर, लक्ष्मण का दृश्य। वह सीता को स्वर्ण मृग लाने के लिए जंगल में अके ले बाहर जाने वाले राम का समर्थन
नहीं करने के बारे में अपनी कठोर आलोचना सहन नहीं कर सके । लक्ष्मण सीता को अके ले छोड़ने के लिए अनिच्छु क थे, लेकिन उन्हें, जब उन्होंने सीता को बहुत थका हुआ देखा था।अध्याय ४५ और
सर्ग २ ९ में छंद यह दर्शाता है कि लक्ष्मण सीता से दूर चले गए, अपने हाथों से। किसी भी तरह की रेखा की उपस्थिति को दर्शाती कोई कविता नहीं थी।
रामचरितमानस ने लक्ष्मण रेखा की लोकप्रिय कहानी पेश की, जो कि लक्ष्मण द्वारा कु टी के चारों ओर खींची गई एक परिधि थी, जिसके अंदर बाहर से किसी भी प्राणी या जंगली जानवर का विनाश
होता था। उन्होंने सीता को उसके भीतर पूर्ण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए इस रेखा को आकर्षित किया।

वाल्मीकि का रामायण आदिकाव्य है। ये उन्होंने तब रचा था जब उन्हें नारद मुनि ने रचने को कहां था। कु छ लोग ये भी मानते है कि लव कु श वाल्मिकी के आश्रम में रहते थे और तब वाल्मिकी जी ने
सारी कथा सीताजी से जानी और भगवान राम का भयादोहन (ब्लैकमेल) कर के उन्हें सीता और लव कु श को अपनाने हेतु रामायण रची।

वाल्मीकि रामायण और तुलसीदास रामचरितमानस में बहुत सारी बाते अलग अलग वर्णित है जैसे कि—
सीता हरण
रामायण में "सीता" का हरण होता है, मानस में माया/छाया सीता का हरण होता है।
कै के ई का भड़कना
रामायण में मन्थरा कै के ई को भड़काती है, मानस में सरस्वती कै के ई की जीभ पर बैठती है और रामजी स्वयं उसे सन्यास भेजने के लिए कहते है।
लक्ष्मण रेखा
रामायण में कोई लक्ष्मण रेखा नहीं है क्योंकि लक्ष्मणजी उस समय विचलित हो गए थे। ऐसी स्थिति में शान्त रह कर मन्त्र करना असंभव है। मानस में लक्ष्मण रेखा है।
मेघनाद और लक्ष्मण
रामायण में मेघनाद राम, लक्ष्मण और ६७ करोड़ वानरों को ब्रह्मास्त्र से बेहोश कर देता है। मानस में मेघनाद के वल लक्ष्मण को ही बेहोश करता है।
सञ्जिवनि
रामायण में जांबवन्त हनुमानजी से सञ्जिवनि (संजीवनी) के साथ साथ तीन और औषधियां लाने को कहते है। मानस में जांबवन्त हनुमानजी से लङ्का से वैद्यराज सुषेण को बुलवाते है और सुषेण संजीवन
बूटी मंगवाते है।
रावणवध
रामायण में राम एक ही बाण से रावण का वध कर देते है। मानस में राम ३१ बाण छोड़ते है रावण को मारने के लिए।
अमृतकलश
रामायण में कोई अमृत कलश नहीं है। मानस में रावण की नाभि में अमृत कलश होता है।
हेतु
रामायण जैसे हुआ वैसे बताया गया ऐसा लगता है। मानस भक्ति रस में लिखा गया है।
स्रोत
रामायण का असली नाम "सीता का महान चरित्र" था जो लव कु श को वाल्मिकीजी ने सिखाया था। मानस में तुलसीदासजी का दावा है कि उन्हें ये कथा हनुमानजी ने सुनाई थी।
रचने का काल
रामायण आदिकाव्य है जो श्रीराम के ज़माने में रचा गया था। मानस १६वी शताब्दी में लिखा गया था।

साथ ही ये भी बताना चाहूङ्गा कि रामायण में श्रीराम को बार बार विष्णू का अवतार बताया गया है। जो लोग ऐसा दावा करते है कि रामायण में राम को सिर्फ एक राजा के रूप में दर्शाया है उन्होंने
वाल्मीकि रामायण पढ़ी ही नहीं है।
वाल्मीकि रामायण का आखरी काण्ड, उत्तर काण्ड, संशायस्पद तरीके से रचा हुआ/ लिखा हुआ है। इसके श्लोकों का छन्द बाकी के श्लोकों से मेल नहीं खाता। इसलिए बहुत सारे लोग सीता परित्याग,
शंबुक वध, इत्यादि को मिथ्या बताते है।
ऐसी बहुत सारी बाते है जो ना तो रामायण में मिलती है और ना ही मानस में जैसे अहिरावण, मकरध्वज, रावण—लक्ष्मण संवाद इत्यादि लेकिन ये बाते लोगों के मनों में इतनी छपी हुई है कि अब यदि
कोई रामायण बताते समय इन्हे ना बताए तो हम में से कई उसे सच नहीं मानते।

वाल्मीकि रामायण
1.रामायण ऋषि वाल्मीकि द्वारा संस्कृ त में त्रेतायुग में लिखी गई थी (जिसका अर्थ है 5000 [कलियुग] + 8.64,000 [द्वापरयुग] + 12,96,000 [त्रेतायुग] = 21, 65,000 साल पहले
2.1 मिलियन वर्ष पूर्व।
2.रामायण को been स्लोकास ’(अनिवार्य रूप से दोहों का एक रूप) में लिखा गया है
3.रामायण राम की कहानी का मूल संस्करण है
4.पुस्तक को is कांड्स ’के नाम से 7 भागों में विभाजित किया गया है।
5.दशरथ की 350 पत्नियां थीं, जिनमें से 3 प्रमुख थीं।
6.भगवान हनुमान ’वानर’ नामक जनजाति से संबंधित मानव हैं।
7.सीता के स्वयंवर का कोई उल्लेख नहीं, कोई प्रतियोगिता नहीं, कोई लक्ष्मणरेखा और भगवान परशुराम कभी नहीं आते।
8.वाल्मीकि रामायण में राम द्वारा शिव की पूजा करने का एक भी उदाहरण नहीं है।
9.कहानी 10,000 साल तक अयोध्या के राजा के रूप में राम के राज्याभिषेक के साथ समाप्त होती है।
10.सीता निर्वासन, वाल्मीकि आश्रम में जुड़वाँ लव-कु श का जन्म, अग्निपरिषद सभी उत्तरार्द्ध में मौजूद हैं और नकली उत्तर रामायण को विदेशी आक्रमणकारियों के विभिन्न शासनों में हिंदू धर्म को
बदनाम करने के लिए प्रक्षेपित किया है।
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तुलसी रामचरितमानस
1.रामचरितमानस को तुलसीदास दुबे ने 15 वीं शताब्दी में कलियुग में अवधी में लिखा था जब क्रू र मुगल शासन कर रहे थे।
2.रामचरितमानस को 'चौपाई' (शब्दाडंबर पद्य) में लिखा गया है।
3.रामचरितमानस अवधी में रामायण का एक छंद है।
4.पुस्तक को is कांड ’के नाम से 7 भागों में विभाजित किया गया है, के वल अंतर है रामायण में udd युग कांड’ का नाम बदलकर रामचरितमानस में Ka लंका कांड ’रखा गया है।
5.दशरथ की 3 पत्नियां थीं।
6.सीता के स्वयंवर का उल्लेख, प्रतियोगिता, लक्ष्मणरेखा और भगवान परशुराम।
7.रामचरितमानस में कहानी सीता के साथ समाप्त होती है जब माता पृथ्वी से उन्हें प्राप्त करने के लिए कहती हैं और राम अपने मानव रूप को त्यागकर आकाशीय दुनिया के लिए प्रस्थान करते हैं।
8.तुलसी रामचरितमानस में राम को शिव की पूजा करते हुए दिखाया गया है।
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तुलसीदास द्वारा रामचरितमानस को फिर से लिखने का कारण
1.उनका जन्म भारत के इतिहास के ऐसे नारकीय युग में हुआ था कि लोग क्रू र मोगल और हिन्दुओं पर उनके अत्याचार, उनके धर्म, उनके मंदिर आदि से डरते थे।
2.तुलसीदास ने रामचरितमानस को कु छ अलग संपादन के साथ हर घर में हरि नाम शुरू करने के लिए अपने सनातन धर्म के गौरवशाली अतीत को अपने अंदाज में फिर से हासिल करने के लिए
लिखा, जो विशेष प्रभाव के साथ पाठकों को एक नई सोच देता है।
3.वह कहानी में कोई नकली मिर्च मसाला नहीं डालते हैं, जो किसी भी तरह से राम और सीता के चरित्र को बिगाड़ता है, बजाय इसके कि वह भगवान विष्णु के एक पौराणिक अवतार के रूप में राम
की महिमा करें और उन्हें भगवान शिव का भक्त बना दें। (क्योंकि तुलसीदास शैव थे)
4.भगवान राम के प्रति उनकी पूरी श्रद्धा का परिणाम है कि रामचरितमानस को उत्तर भारत की बाइबिल कहा जाता है और आपको हर घर, पुस्तकालय, पुस्तक स्टाल, अंतर्राष्ट्रीय पुस्तकालय,
कॉलेज, विश्वविद्यालय, स्कू ल आदि में एक पुस्तक मिलेगी।

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पौराणिक वाल्मीकि की मूल रामायण को पुन: लिखकर सनातन धर्म के गौरव को प्राप्त करने के लिए तुलसीदास के लिए एक कु डोस।
नोट - वाल्मीकि रामायण के सभी बिंदु प्रामाणिक हैं, इसलिए मूल कहानी और सत्य तथ्यों का श्रेय के वल वाल्मीकि रामायण को दिया जाना चाहिए, सिवाय इसके कि नकली उत्तर रामायण जिसे बाद
में अज्ञात द्वारा सनातन इतिहास को विकृ त करने और हिंदू के आत्म घृणा करने के लिए जोड़ा गया था।

वाल्मीकि रामायण एवं रामचरितमानस में अंतर

महर्षि वाल्मीकि ने युगों पहले मूल रामायण की रचना की थी जिसमें भगवान विष्णु के ७वें अवतार श्रीराम की लीलाओं का वर्णन है। कालांतर में वाल्मीकि रामायण के अनेक भाषाओं में कई
संस्करणों (३०० से भी अधिक) की रचना की गयी किन्तु जो प्रसिद्धि एवं सम्मान १६ सदी में गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित श्री रामचरितमानस को प्राप्त है, उसकी कोई अन्य तुलना नहीं
है। आज भी ९०% घरों में वास्तव में रामचरितमानस ही होता है। मानस की तुलना में मूल वाल्मीकि रामायण का प्रसार उतना नहीं है।

इतनी शताब्दियों से हमारे बीच रहने के कारण रामचरितमानस की कहानियाँ जन-जन में व्याप्त है। उसमें वर्णित सभी घटनाओं से हम आत्मीयता से जुड़े हैं। किन्तु यदि एक ग्रन्थ के रूप में देखा
जाये तो मानस में ऐसी कई घटनाएं हैं जो मूल वाल्मीकि रामायण से मेल नहीं खाती। उन सभी घटनाओं की परिकल्पना गोस्वामी तुलसीदास ने अपनी ओर से की। इसी प्रकार रामायण के अन्य
संस्करणों में भी बहुत अंतर पाया जाता है। किन्तु चूंकि महर्षि वाल्मीकि ने ही सर्वप्रथम रामायण की रचना की, उसे सबसे शुद्ध माना जाता है।

जब तुलसीदास जी ने मानस की रचना की उस समय मुग़ल हिन्दू धर्म को मिटाने का पूरा प्रयास कर रहे थे। उन्होने उसकी एक प्रति राजा टोडरमल के पास सुरक्षित रखी। रामचरितमानस
लिखने से पहले तुलसीदास ने उत्तर और दक्षिण भारत में प्रचलित रामायण के कई अन्य संस्कारणों का अध्ययन किया था, विशेष कर अध्यात्म एवं आनंद रामायण का। यही कारण है कि
उनकी रचना में ऐसी कई घटनाएं हैं जो मूल वाल्मीकि रामायण में नहीं है।

वाल्मीकि रामायण एवं रामचरितमानस के घटनाक्रमों में इतना अधिक अंतर है कि उन सभी को समाविष्ट करना तो संभव नहीं है, किन्तु आइये हम कु छ मुख्य अंतरों के विषय में जानते हैं।

 सबसे पहला अंतर तो इन दोनों के अर्थ में है। रामायण का अर्थ है राम की कथा अथवा मंदिर, वहीं रामचरितमानस का अर्थ है राम चरित्र का सरोवर। मंदिर में जाने के कु छ नियम होते हैं इसी
कारण वाल्मीकि रामायण को पढ़ने के भी कु छ नियम हैं, इसे कभी भी कै से भी नहीं पढ़ा जा सकता। इसके उलट रामचरितमानस को लेकर कोई विशेष नियम नहीं है। इसमें एक सरोवर की
भांति स्वयं को पवित्र किया जा सकता है।
 वाल्मीकि रामायण की भाषा संस्कृ त है, वहीं रामचरितमानस की रचना अवधी भाषा में की गयी है।
 रामायण के अनुसार महर्षि वाल्मीकि प्रचेता के १०वें पुत्र थे जबकि गोस्वामी तुलसीदास ने उन्हें रत्नाकर नामक डाकू बताया है जो देवर्षि नारद की प्रेरणा से मरा-मरा कहते हुए रामभक्त बन
जाते हैं।
 इन दोनों के कालखंड में भी बड़ा अंतर है। आधुनिक गणना के अनुसार वाल्मीकि रामायण का कालखंड लगभग १४००० वर्ष पूर्व का बताया गया है। कु छ लोग इसे १०-११००० वर्ष पूर्व की
भी रचना मानते हैं। हालांकि यदि पौराणिक गणना की बात की जाये तो द्वापर युग के ८६४००० वर्ष एवं वर्तमान कलियुग के लगभग ५००० वर्ष जोड़ने पर इसका कालखंड करीब ८७००००
वर्षों के आस-पास का बनता है। इससे भी अधिक आगे जाएँ तो कई शंकराचार्यों एवं विद्वानों ने ये बताया है कि राम अवतार २७वें श्वेतवाराह कल्प के ७वें वैवस्वत मनु के २४वें त्रेतायुग में
हुआ था। उस हिसाब से देखें तो रामायण का कालखंड करीब १ करोड़, ७५ लाख वर्ष पूर्व का बैठता है। वैदिक काल गणना के बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ें। दूसरी ओर गोस्वामी तुलसीदास ने
रामचरितमानस की रचना सन १५७४ में राम नवमी के दिन आरम्भ की और एवं २ वर्ष, ७ मास एवं २६ दिनों के पश्चात सन १५७६ ईस्वी में इसे पूरा किया।
 सबसे बड़ा अंतर जो दोनों ग्रंथों में है वो ये कि वाल्मीकि रामायण के राम मानवीय हैं जबकि रामचरितमानस के राम अवतारी। चूंकि वाल्मीकि श्रीराम के समकालीन थे, उन्होंने श्रीराम का चरित्र
सहज ही रखा है। वाल्मीकि के लिए राम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, अर्थात पुरुषों में श्रेष्ठ। इसके उलट तुलसीदास के लिए श्रीराम ना के वल अवतारी हैं बल्कि उससे भी ऊपर परब्रह्म हैं। इसका वर्णन
मानस में इस प्रकार किया गया है कि जब मनु एवं शतरूपा ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश से वरदान लेने से मना कर देते हैं तो परब्रह्म श्रीराम उन्हें दर्शन देते हैं। तुलसीदास जी इससे भी आगे बढ़ते
हुए कहते हैं - "सुनु सेवक सुरतरु सुरधेनू, बिधि हरि हर बंदित पद रेनू। सेवत सुलभ सकल सुखदायक, प्रणतपाल सचराचर नायक।।" अर्थात जिनके चरणों की वन्दना विधि (ब्रह्मा), हरि
(विष्णु) और हर (महेश) तीनों ही करते है, तथा जिनके स्वरूप की प्रशंसा सगुण और निर्गुण दोनों करते हैं: उनसे वे क्या वर माँगें? यह इस बात को दर्शाता है कि तुलसीदास के लिए श्रीराम
उन नारायण, जिनके वे अवतार थे, उनसे भी ऊपर हैं।
 महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में सांके तिक रूप से बताया है कि श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार हैं जबकि रामचरितमानस में ना के वल स्पष्ट रूप से, बल्कि बार-बार इस बात पर जोर दिया गया
है कि श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार हैं।
 रामचरितमानस में दशरथ और कौशल्या को मनु एवं शतरूपा एवं कश्यप एवं अदिति का अवतार बताया गया है जबकि वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई वर्णन नहीं है।
 महर्षि वाल्मीकि श्रीराम के प्रसंशक थे किन्तु उनके आराध्य भगवान शंकर थे जिनकी सहायता से उन्होंने रामायण की रचना की। तुलसीदास श्रीराम के अनन्य भक्त थे और ऐसी मान्यता है कि
उन्होंने रामचरितमानस की रचना स्वप्न में भगवान शिव की आज्ञा के बाद की जिसमें रामभक्त हनुमान ने उनकी सहायता की।
 वाल्मीकि रामायण में ऐसा वर्णित है कि वनवास के समय श्रीराम की आयु २७ वर्ष की थी, माता सीता उनसे ९ वर्ष छोटी थी। ऐसा कोई वर्णन रामचरितमानस में नहीं है।
 दोनों ग्रंथों के आकार में भी बहुत बड़ा अंतर है। जहाँ वाल्मीकि रामायण में ६ कांड, ५०० सर्ग एवं २४००० श्लोक हैं, वही रामचरितमानस में ७ कांड एवं १०९०२ दोहे हैं। रामचरितमानस
श्लोकों (२७), चौपाईयों (४६०८), दोहों (१०७४), सोरठों (२०७) एवं छंदों (८६) में बंटा है।
 कई लोग उत्तर कांड को वाल्मीकि रामायण का भाग मानते हैं किन्तु ये सत्य नहीं है। वास्तव में ये रामायण का उपसंहार है जो काकभुशुण्डि एवं गरुड़ के बीच के संवाद के रूप में है। इसे उत्तर
रामायण कहा गया है, उत्तर कांड नहीं। निकट अतीत में श्रीराम के चरित्र को कलंकित करने हेतु इसमें भारी मात्रा में मिलावट की गयी है और कई भ्रामक जानकारियों को जोड़ा गया है। इसका
पता आपको इसे पढ़ कर चल जाएगा क्यूंकि महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचे गए पहले ६ कांड एवं आज के उत्तर कांड की भाषा में जमीन आसमान का अंतर है। इसके विषय में विस्तार से यहाँ पढ़ें।
रामचरितमानस के उत्तर कांड में भी एक बड़ा खंड (दोहा क्रमांक ९३ से ११५ तक) काकभुशुण्डि एवं गरुड़ के संवाद के रूप में ही लिखा गया है।
 वालमीकि रामायण एवं मानस, दोनों में पहले ५ कांडों का नाम समान है - बाल कांड, अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किं धा कांड एवं सुन्दर कांड। पर छठे कांड को महर्षि वाल्मीकि ने युद्ध
कांड कहा है जबकि तुलसीदास ने लंका कांड।
 रामचरितमानस में हर कांड "मंगलचरण" के आह्वान के साथ आरम्भ होता है। उसी प्रकार मानस के हर कांड का अंत भी तुलसीदास संस्कृ त के दोहे के साथ करते हैं जबकि वाल्मीकि रामायण
में ऐसा नहीं है।
 वाल्मीकि रामायण में देवी सीता का चरित्र अपने पति के प्रति पूर्ण रूपेण समर्पित एक स्पष्टभाषी दृढ स्त्री का है जो अपने पति से किसी भी प्रकार भी कम नहीं है। वे श्रीराम के साथ वन जाने
को एक निर्णय की भांति सुनाती है। रामचरितमानस की सीता भी पूर्ण रूपेण पतिव्रता है किन्तु उन्हें मितभाषी और लज्जापूर्ण बताया गया है जो वन जाने के लिए श्रीराम से आज्ञा मांगती है।
श्रीराम की भी भांति मानस में देवी सीता को माता लक्ष्मी से भी अधिक दैवीय बताया गया है।
 रामायण के अनुसार दशरथ की ३५० से भी अधिक पत्नियाँ थी जिनमें कौशल्या, सुमित्रा एवं कै के यी प्रमुख थी। इसके बारे में श्रीराम के वन गमन के समय कई बार लिखा गया है। अयोध्या
कांड के सर्ग ३४, श्लोक १३ में लिखा है - अर्ध सप्त शताः ताः तु प्रमदाः ताम्र लोचनाः। कौसल्याम् परिवार्य अथ शनैः जग्मुर् धृत व्रताः।। अर्थात: देवी कौशल्या के नेतृत्व में महाराज की
३५० रानियाँ अश्रुपूरित नेत्रों के साथ वहाँ पहुंची। इसके उलट रामचरितमानस में दशरथ की के वल तीन ही पत्नियों - कौशल्या, सुमित्रा एवं कै के यी का ही वर्णन है।
 पुत्रों की प्राप्ति के लिए विभण्डक पुत्र एवं श्रीराम की बड़ी बहन शांता के पति ऋषि ऋष्यश्रृंग से पुत्रेष्टि यज्ञ करवाने का वर्णन भी वाल्मीकि रामायण में है, रामचरितमानस में नहीं।
 वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम के वनगमन के समय दशरथ उनसे कहते हैं वो उन्हें कारागार में डाल दे और फिर राजा बन जाये पर रामचरितमानस में ऐसा कोई वर्णन नहीं है।
 रामायण में वनवास के समय महर्षि वशिष्ठ अत्यंत क्रोधित होकर कै के यी से कहते हैं कि यदि राम वन जाएँ तो सीता को ही सिंहासन पर बिठाया जाये। स्त्री सशक्तिकरण का ये जीवंत उदाहरण
है। रामचरितमानस में ऐसा वर्णन नहीं है।
 रामायण के अनुसार भरत को पहले ही दशरथ की मृत्यु का आभास हो गया था। उन्होंने स्वप्न देखा कि दशरथ काले वस्त्र पहने हुए हैं जिनपर पीतवर्णीय स्त्रियां प्रहार कर रही हैं और वे गर्दभों
के रथ पर सवार तेजी से दक्षिण दिशा की ओर जा रहे हैं। रामचरितमानस में दशरथ की मृत्यु के बाद उनका समाचार कै के य देश में भिजवाया जाता है।
 विश्वामित्र द्वारा दशरथ से श्रीराम को माँगने का वर्णन भी रामायण एवं मानस में अलग-अलग है। विश्वामित्र द्वारा राम एवं लक्ष्मण को बला-अतिबला नामक विद्या सहित अनेकानेक सिद्धि प्रदान
करना भी वाल्मीकि रामायण में विस्तार पूर्वक बताया गया है जो रामचरितमानस में सतही तौर पर बताया गया है।
 वाल्मीकि रामायण में ऋषि गौतम की पत्नी अहिल्या को अदृश्य हो उसी आश्रम में रहने का श्राप मिला था जबकि रामचरितमानस में वे पत्थर की शिला बन जाती हैं।
 वाल्मीकि रामायण में श्रीराम अहिल्या का उद्धार उनके पैरों को छू कर करते हैं जबकि रामचरितमानस में श्रीराम अपने पैर को अहिल्या की शिला पर रख कर अपनी चरण धूलि से उसका उद्धार
करते हैं।
 भारत मिलाप के समय राजा जनक का वहाँ आना और भरत को समझाने का वर्णन भी वाल्मीकि रामायण में है, रामचरितमानस में नहीं।
 रामायण के अनुसार राजा जनक ने सीता स्वयंवर नहीं करवाया था। रामायण में शिव धनुष का प्रदर्शन सार्वजानिक था एवं कोई भी शक्तिशाली व्यक्ति उसे उठाने के लिए स्वतंत्र था। जब महर्षि
विश्वामित्र के साथ श्रीराम और लक्ष्मण जनकपुर आये तो राजा जनक ने उन्हें शिव धनुष दिखाया और श्रीराम ने विश्वामित्र की आज्ञा से वो धनुष उठा लिया। तब राजा जनक ने देवी सीता का
विवाह श्रीराम से किया। वहीं रामचरितमानस में राजा जनक ने सीता स्वयंवर का आयोजन किया और जब सभी राजा धनुष को उठाने में विफल रहे तब श्रीराम ने उस धनुष को सहज ही उठा
कर तोड़ दिया।
 वाल्मीकि रामायण में भगवान शंकर के "पिनाक" धनुष का वर्णन है जिसे श्रीराम ने तोडा किन्तु रामचरतिमानस में उसे के वल "शिव धनुष" कहा गया है।
 रामचरितमानस में रावण और बाणासुर के स्वयंवर सभा में आने का किन्तु बिना धनुष छु ए चले जाने का वर्णन है जबकि रामायण में ऐसा नहीं है।
 रामचरितमानस में शिव-पार्वती और अन्य देवताओं का रूप बदल कर श्रीराम और सीता के विवाह में आने का वर्णन है जबकि वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई वर्णन नहीं है।
 रामचरितमानस के अनुसार धनुष टू टने पर परशुराम स्वयंवर स्थल में आये और उन्होंने श्रीराम से अपने धनुष पर प्रत्यंचा चढाने को कही। वाल्मीकि रामायण के अनुसार जब श्रीराम विवाह के
बाद अयोध्या लौट रहे थे तब मार्ग में उन्हें परशुराम मिले और श्रीराम ने उनका क्रोध शांत करने के लिए उनके वैष्णव धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाई।
 श्रीराम का सीताजी को वाटिका में देखना और फिर देवी सीता द्वारा माता पार्वती की प्रार्थना करना कि श्रीराम ही उन्हें पति के रूप में प्राप्त हों , ये वर्णन के वल रामचरितमानस में मिलता है
वाल्मीकि रामायण में नहीं।
 वाल्मीकि रामायण में रावण, कु म्भकर्ण एवं विभीषण की ११००० वर्षों की तपस्या और उनके वरदानों का विस्तार से वर्णन है किन्तु रामचरितमानस में इसके विषय में अधिक वर्णन नहीं है।
 वाल्मीकि रामायण में श्रीराम अपने बल और पराक्रम से खर-दूषण के १४००० योद्धाओं का अंत करते हैं किन्तु रामचरितमानस में वे सम्मोहनास्त्र का प्रयोग करते हैं जिससे वे १४००० सैनिक
आपस में युद्ध करते हुए मारे जाते हैं।
 रामचरितमानस में खर-दूषण के संहार के समय ही रावण समझ जाता है कि श्रीराम नारायण के अवतार हैं किन्तु वाल्मीकि रामायण में युद्धकांड में कु म्भकर्ण एवं मेघनाद की मृत्यु के बाद रावण
को समझ आता है कि श्रीराम भगवान विष्णु के अवतार हैं।
 वाल्मीकि रामायण में रावण मरीच से दो बार सहायता मांगने आता है। पहली बार मारीच उन्हें श्रीराम की महिमा समझा कर वापस भेज देता है। फिर शूर्पणखा के कहने पर वो पुनः मारीच के
पास आकर उसे विवश करता है। रामचरितमानस में मारीच एक ही बार में मान जाता है ताकि उसे श्रीराम के हाथों मुक्ति मिल सके ।
 वाल्मीकि रामायण में देवी सीता श्रीराम से उस स्वर्ण मृग को पकड़ कर लाने बोलती हैं ताकि वे उसे अयोध्या ले जा सके , जबकि रामचरितमानस में सीता उन्हें स्वर्ण मृग का चर्म लाने को
बोलती है।
 वाल्मीकि रामायण में मारीच मरते समय लक्ष्मण और सीता दोनों को सहायता के लिए पुकारता है जबकि रामचरितमानस में वो के वल लक्ष्मण को ही पुकारता है।
 वाल्मीकि रामायण के अनुसार लक्ष्मण को पहले ही संदेह हो जाता है कि स्वर्णमृग कोई मायावी राक्षस है जबकि रामचरितमानस में लक्ष्मण के वल इतना कहते हैं कि ये स्वर श्रीराम का नहीं है
क्यूंकि उनपर कोई संकट नहीं आ सकता।
 लक्ष्मण रेखा का प्रसंग कितना प्रसिद्ध है ये हम सभी जानते हैं किन्तु इसका वर्णन के वल रामचरितमानस में है, वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई वर्णन नहीं है।
 रामायण में देवी सीता का वास्तव में अपहरण हुआ था। रावण ने उन्हें बलपूर्वक अपने रथ में बिठाया और उन्हें अपहृत कर ले गया। वहीं रामचरितमानस में रावण जिस सीता का अपहरण कर
ले गया वो वास्तविक सीता की प्रतिछाया थी। असली सीता को श्रीराम ने उनकी सुरक्षा के लिए अग्निदेव को समर्पित कर दिया था।
 इसी सन्दर्भ में वाल्मीकि रामायण में सीता की अग्नि परीक्षा का कोई प्रसंग नहीं है। उसे बाद में जोड़ा गया था। इसके उलट रामचरितमानस में श्रीराम सीता को अग्नि परीक्षा देने को कहते हैं
ताकि उसी अग्नि से वे अपनी असली सीता को प्राप्त कर सकें ।
 रामचरितमानस के अनुसार सीता की अग्नि परीक्षा के बारे में उन्होंने लक्ष्मण को तब बताया जब वे सीता की अग्नि परीक्षा के विषय के बारे में सुनकर श्रीराम का प्रतिकार करते हैं। मूल वाल्मीकि
रामायण में ऐसा कु छ नहीं होता।
 वाल्मीकि रामायण में जटायु ने रावण का रथ तोड़ दिया और तब वो वायु मार्ग से लंका पहुँचता है। रामचरितमानस में ये प्रसंग नहीं है।
 वाल्मीकि रामायण के अनुसार एक बार रावण ने वेदवती नामक स्त्री को देखा जो श्रीहरि की तपस्या कर रही थी और उसका अपहरण करने का प्रयास किया। तब वेदवती ने उसे ये श्राप दिया
कि अगले जन्म में वही उसकी मृत्यु का कारण बनेगी और आत्मदाह कर लिया। तब वेदवती ही सीता के रूप में जन्मी। ऐसा को वर्णन रामचरितमानस में नहीं है।
 रामायण में कु म्भकर्ण के दो बार जागने का वर्णन है। पहले भी वो एक बार रावण को भरी सभा में सीता हरण पर खरी-खोटी सुनाता है और दूसरी बार वो जगकर युद्ध में जाता है जहाँ उसका
वध होता है। रामचरितमानस में कु म्भकर्ण के वल एक ही बार जगा है।
 रामचरितमानस में लक्ष्मण को अत्यंत क्रोधी एवं उत्तेजी दिखाया गया है। मानस में वे बात-बात पर क्रोधित होते हैं, स्वयंवर में जनक और परशुराम से उलझ जाते हैं। वाल्मीकि रामायण में उन्हें
धीर-गंभीर और विवेकी बताया गया है। मूल रामायण में लक्ष्मण के वल तीन समय पर क्रोधित होते हैं - पहला जब उन्हें श्रीराम के वनवास का समाचार मिलता है, दूसरा जब चित्रकू ट में भरत
श्रीराम से मिलने आते हैं और तीसरा जब वे सुग्रीव को उसकी प्रतिज्ञा याद दिलाने किष्किं धा पहुँचते हैं।
 रामचरितमानस के अनुसार जब समुद्र सेना को मार्ग नहीं देता तो लक्ष्मण अत्यंत क्रोधित होते हैं और श्रीराम से समुद्र को सुखा देने को कहते हैं जबकि मूल वाल्मीकि रामायण में बिलकु ल
इसका उल्टा है। रामायण के अनुसार श्रीराम समुद्र पर क्रोधित हुए और उसे सुखा देने को उद्धत हुए और तब लक्ष्मण ने उन्हें समझा-बुझा कर शांत किया।
 रामचरितमानस में श्रीराम को कई बार भगवान शंकर की पूजा करते दिखाया गया है पर वाल्मीकि रामायण में के वल महादेव को श्रीराम का आराध्य बताया गया है।
 वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्रीराम जब रामेश्वरम ज्योतिर्लिंग की स्थापना करते हैं तो हनुमान उनसे रामेश्वरम की व्याख्या करने को कहते हैं। तब श्रीराम के वल इतना कहते हैं कि "जो राम
का ईश्वर है वही रामेश्वर है।" रामचरितमानस में भी श्रीराम यही कहते हैं पर उसमें तुलसीदास ने एक प्रसंग और जोड़ा है कि भगवान शंकर भी माता पार्वती से रामेश्वरम की व्याख्या करते हुए
कहते हैं कि "राम जिनके ईश्वर हैं वो रामेश्वरम हैं।"
 वाल्मीकि रामायण में के वट नामक कोई चरित्र नहीं है, ये के वल रामचरितमानस में है।
 निषादराज गुह को भी रामचरितमानस में श्रीराम के साथ भरद्वाज ऋषि के आश्रम में जाते हुए दिखाया गया है जबकि वाल्मीकि रामायण में वे तमसा तट पर ही श्रीराम से मिलते हैं जिसके बाद
श्रीराम एकाकी ही आगे बढ़ जाते हैं।
 रामयण में भरद्वाज ऋषि श्रीराम को चित्रकू ट में रहने का सुझाव देते हैं जबकि रामचरितमानस में उन्हें ये सुझाव महर्षि वाल्मीकि देते हैं।
 रामचरितमानस में महर्षि अगस्त्य के शिष्य सुतीक्ष्ण ऋषि श्रीराम से उनका आशीर्वाद मांगते हैं जबकि वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई वर्णन नहीं है।
 वाल्मीकि रामायण में हनुमान को मनुष्य बताया गया है जो वानर समुदाय के थे और वन में रहते थे। वानर = वन (जंगल) + नर (मनुष्य) जबकि रामचरितमानस में हनुमान को वानर (बन्दर)
प्रजाति का बताया गया है।
 वाल्मीकि रामायण में हनुमान को कहीं भी सीधे तौर पर भगवान शंकर का अवतार नहीं बताया गया है किन्तु रामचरितमानस में उन्हें "शंकर-सुमन" कहा गया है।
 वाल्मीकि रामायण में ऋष्यमूक पर्वत पर हनुमान को जब श्रीराम अपना परिचय देते हैं तब उन दोनों में मित्रता होती है जबकि रामचरितमानस में हनुमान पहले से ही श्रीराम के अनन्य भक्त हैं।
 रामायण में जब लक्ष्मण क्रोध में सुग्रीव के महल पहुँच कर उन्हें धिक्कारते हैं तब सुग्रीव वानरों को माता सीता की खोज में भेजते हैं। रामचरितमानस में सुग्रीव बताते हैं कि वे पहले ही वानरों को
सीता की खोज में भेज चुके हैं।
 वाल्मीकि रामायण में जब हनुमान का दल सीता संधान करते हुए थक जाता है तब अंगद के मन में विद्रोह के भाव आते हैं जिसे हनुमान समझदारी से दबा देते हैं। रामचरितमानस में ऐसा कोई
प्रसंग नहीं है।
 रामचरितमानस में जब हनुमान लंका पहुँचते हैं तो वे विभीषण से मिलते हैं और वही उन्हें अशोक वाटिका का मार्ग बताते हैं। वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई प्रसंग नहीं है। वहाँ हनुमान स्वयं
सारी लंका में खोजते हुए अशोक वाटिका पहुँचते हैं।
 उसी संधान के समय वाल्मीकि रामायण में हनुमान को रावण के महल में मंदोदरी को देख कर उनके सीता होने का भ्रम हो जाता है किन्तु बाद बाद में वे समझ जाते हैं कि ये सीता नहीं है।
रामचरितमानस में ऐसा कोई प्रसंग नहीं है।
 रामायण में हनुमान सीता के समक्ष आकर अपना परिचय देते हैं और फिर उन्हें मुद्रिका देते हैं। रामचरितमानस में हनुमान वृक्ष पर से मुद्रिका सीता की गोद में गिरा कर ऊपर से ही राम चरित्र
सुनाते हैं और फिर उनके सामने आते हैं।
 वाल्मीकि रामायण में हनुमान देवी सीता से अपने साथ चलने का निवेदन करते हैं किन्तु सीता ये कहते हुए मना कर देती है कि वो जान-बूझ कर पर पुरुष का स्पर्श नहीं कर सकती। इसके
अतिरिक्त वे चाहती हैं कि ये श्रेय श्रीराम को मिले। रामचरितमानस में हनुमान कहते हैं कि वे उन्हें साथ ले जा सकते हैं किन्तु श्रीराम की ऐसी आज्ञा नहीं है।
 वाल्मीकि रामायण के अनुसार माता सीता अपनी चूड़ामणि हनुमान को पहले ही दे देती है किन्तु रामचरितमानस में जब हनुमान लंका दहन कर वापस उनके पास आते हैं तब वे उन्हें चूड़ामणि
देती है।
 वाल्मीकि रामायण में सभा में अपना अपमान होने के बाद विभीषण स्वयं लंका का त्याग कर देते हैं जबकि रामचरितमानस के अनुसार रावण विभीषण को लात मार कर लंका से निष्काषित कर
देता है।
 रामायण में शुक एवं सारण को विभीषण पहचानते हैं और फिर जब श्रीराम आज्ञा देते हैं तब उन्हें छोड़ा जाता है। रामचरितमानस में शुक -सारण को वानर पकड़ते हैं और लक्ष्मण ही उन्हें सन्देश
देकर वापस भेजते हैं। बाद में शुक अगस्त्य मुनि से दीक्षा लेकर तपस्वी बन जाता है।
 रामचरितमानस के अनुसार रामसेतु का निर्माण नल एवं नील दोनों ने किया था क्यूंकि उन्हें श्राप मिला था कि उनके हाथ से छु ई वस्तु पानी में नहीं डू बेगी। किन्तु वाल्मीकि रामायण में रामसेतु
का निर्माण के वल नल ने किया था क्यूंकि वे असाधारण शिल्पी थे और विश्वकर्मा का अंश थे। इसी कारण रामसेतु को "नलसेतु" भी कहा जाता है।
 रामचरितमानस में श्रीराम अपने एक बाण से विलास भवन में बैठे रावण का मुकु ट एवं मंदोदरी का कर्णफू ल गिरा देते हैं। वाल्मीकि रामायण में इसका कोई वर्णन नहीं है।
 रावण के दरबार में अंगद का पैर जमा देना और किसी का उसे ना उठा पाना तथा रावण का मुकु ट श्रीराम के पास फें क देने का वर्णन के वल रामचरितमानस में है, वाल्मीकि रामायण में नहीं।
 वाल्मीकि रामयण के अनुसार रावण और श्रीराम का युद्ध दो बार हुआ था। एक बार रावण युद्ध के आरम्भ में आया था और पराजित होकर गया। दूसरी बार वो युद्ध के अंत में आया और श्रीराम
के हाथों मृत्यु को प्राप्त हुआ। रामचरितमानस के अनुसार रावण युद्ध में के वल एक बार अंत समय में आया और वीरगति को प्राप्त हुआ।
 रामचरितमानस के अनुसार रावण इंद्र के रथ के घोड़े एवं सारथि को गिरा देता है जबकि रामायण में ऐसा कोई वर्णन नहीं है।
 रामायण में रावण ने जो शक्ति लक्ष्मण पर चलाई वो उसे मयदानव ने दी थी जबकि रामचरितमानस के अनुसार उसे ये शक्ति ब्रह्मा ने दी थी।
 रामायण में संजीवनी बूटी लाने का दो बार वर्णन है जबकि रामचरितमानस में एक बार।
 कालनेमि द्वारा संजीवनी बूटी लाते समय हनुमान के वध का प्रयास करना एवं हनुमान द्वारा मारे जाने का वर्णन भी के वल रामचरितमानस में है, वाल्मीकि रामायण में नहीं।
 संजीवनी बूटी लाते समय भरत का हनुमान पर बाण चलाना एवं दोनों का संवाद भी के वल रामचरितमानस में है, वाल्मीकि रामायण में नहीं।
 रामायण में मेघनाद के यज्ञ का विध्वंस और उसका वध लक्ष्मण अके ले ही करते हैं किन्तु रामचरितमानस में मेघनाद के यज्ञ का विध्वंस वानर करते हैं।
 रामायण में मेघनाद का वध लक्ष्मण उसका सर काट कर करते हैं जबकि रामचरितमानस में उसका वध लक्ष्मण उसके वक्ष में बाण मार कर करते हैं।
 रामायण में सुषेण वैद्य वानर है जो बाली के श्वसुर एवं तारा के पिता हैं जबकि रामचरितमानस में वो राक्षस हैं जो लंका के वैद्य है।
 हनुमान द्वारा सुषेण को उसके निवास सहित उठा कर लाने का वर्णन भी के वल रामचरितमानस में है, वाल्मीकि रामायण में नहीं।
 वाल्मीकि रामायण में इंद्र के सारथि मातलि श्रीराम को बताते हैं कि रावण का वध कै से संभव है जबकि रामचरितमानस में ये श्रीराम को ये बात विभीषण बताते हैं।
 रावण की नाभि में अमृत होना और उसे श्रीराम द्वारा सुखा देने का वर्णन के वल रामचरितमानस में है, वाल्मीकि रामायण में ऐसा कोई वर्णन नहीं है।
 रामचरितमानस के अनुसार रावण का वध ३१ बाणों द्वारा हुआ जबकि वाल्मीकि रामायण में रावण का वध श्रीराम ने महर्षि अगस्त्य द्वारा प्राप्त ब्रह्मास्त्र से किया।
 श्रीराम के ह्रदय पर उस समय प्रहार करना जब वो सीता का स्मरण ना कर रहा हो, इसका वर्णन भी के वल रामचरितमानस में है, वाल्मीकि रामायण में नहीं।
 श्रीराम के राज्याभिषेक के बाद हनुमान का अपना ह्रदय चीर कर सीता-राम की छवि दिखाने का वर्णन भी के वल रामचरितमानस में है, वाल्मीकि रामायण में नहीं।
 वाल्मीकि रामायण के बाद देवराज इंद्र युद्ध के बाद सभी वानरों एवं रीछों को पुनर्जीवित कर देते हैं जबकि रामचरितमानस में इंद्र अमृत की वर्षा करते हैं जिससे वे पुर्नर्जीवित हो जाते हैं।
 रामचरितमानस में श्रीराम का चमत्कार द्वारा अनेक रूप लेकर अयोध्या वासियों से मिलने का वर्णन है जबकि रामायण में ऐसा कोई प्रसंग नहीं है।
 रामायण के अनुसार ११००० वर्षों तक राज्य करने के बाद श्रीराम माता सीता एवं लक्ष्मण के विरह में सरयू में समाधि लेकर अपनी लीला समाप्त करते हैं। लक्ष्मण पहले ही सरयू में ही डू ब कर
अपना जीवन समाप्त करते हैं और माता सीता पृथ्वी में समाधि लेती हैं। रामचरितमानस का अंत लव एवं कु श के जन्म के साथ ही हो जाता है। इसमें माता सीता के धरती में समाने और लक्ष्मण
की मृत्यु का कोई वर्णन नहीं है।
 रामचरितमानस के बालकाण्ड में सती द्वारा श्रीराम की परीक्षा लेते हुए दिखाया गया है जिस कारण भगवान शंकर उनका त्याग कर देते हैं। इसके विषय में विस्तार से यहाँ पढ़ें। वाल्मीकि रामायण
में ऐसा कोई वर्णन नहीं है।
 रामचरितमानस में भगवान शिव और पार्वती के विवाह का वर्णन करते समय उन्हें श्रीगणेश की पूजा करते हुए दिखाया गया है जो कि अतार्कि क है।
 रामचरितमानस में कई देवी-देवताओं को महत्त्व नहीं दिया गया है, विशेषकर इंद्र का बहुत चरित्र हनन किया गया है। वाल्मीकि रामायण में इंद्र और अन्य देवताओं का महत्त्व बताया गया है। कई
लोगों को मृत्यु पश्चात इंद्रलोक प्राप्त करने का वर्णन भी है। इंद्र ही सीता को अशोक वाटिका में दिव्य खीर प्रदान करते हैं ताकि उन्हें कभी भूख ना लगे। श्रीराम की सहायता हेतु अंतिम युद्ध में
रथ और सारथि मातलि को भी इंद्र ही भेजते हैं। हनुमान को चिरंजीवी होने का वरदान भी इंद्र ही उन्हें देते हैं।

इसके अतिरिक्त कई ऐसी चीजें हैं जिनका वर्णन ना ही वाल्मीकि रामायण में और ना ही रामचरितमानस में किया गया है किन्तु फिर भी वे कई लोक कथाओं के रूप में प्रचलित हैं।

 रामायण या रामचरितमानस में कही भी हनुमान को "रुद्रावतार" नहीं कहा गया है।
 वास्तव में किसी भी वानर अथवा रीछ के पास कोई गदा अथवा अन्य कोई हथियार नहीं था। लंका युद्ध उन्होंने अपने बाहुबल, दांत, नख, पत्थर, पहाड़, शिला, पेड़ इत्यादि द्वारा ही लड़ी
थी। पर क्या आज हनुमान जी की कल्पना बिना गदा के की जा सकती है?
 श्रवण कु मार का अपने माता-पिता को कांवड़ में उठा कर यात्रा करने का कोई वर्णन नहीं है। वो अपने पिता के आश्रम में सपरिवार तपस्या करते थे। इसी प्रकार श्रवण कु मार द्वारा कु रुक्षेत्र में
अपने माता पिता को पालकी से उतार देने का कोई वर्णन नहीं है। इसके बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ें।
 सीता हरण में पुष्पक विमान का प्रयोग नहीं किया गया था।
 शबरी का वर्णन दोनों ग्रंथों में है किन्तु उनके जूठे बेर का वर्णन कही नहीं है।
 बाली के साथ युद्ध करते हुए प्रतिद्वंदी का आधा बल उसमें आ जाने का कोई वर्णन नहीं है।
 रामसेतु के निर्माण के समय किसी गिलहरी का कोई वर्णन नहीं है।
 लक्ष्मण को शक्ति रावण ने मारी थी, मेघनाद ने नहीं।
 अहिरावण, महिरावण, पंचमुखी हनुमान, मकरध्वज का कोई वर्णन दोनों ग्रंथों में नहीं है।
 मृत्यु के समय लक्ष्मण द्वारा रावण से शिक्षा लेने का कोई प्रसंग नहीं है।
 वाल्मीकि रामायण में रावण के मरने का प्रसंग साधारण है जबकि रामचरितमानस में रावण मरते समय श्रीराम का उद्घोष करता है।
 मंदोदरी का विभीषण से विवाह का प्रसंग भी कही नहीं है।
 सुलोचना के पास मेघनाद का सर गिरना और उसे लक्ष्मण का माहात्म्य बताने का कोई वर्णन नहीं है।
 अयोध्या में कर प्राप्त करने के लिए धर्म कांटे के निर्माण का कोई वर्णन नहीं है।
 श्रीराम द्वारा पतंग उड़ाना, उसके सहारे हनुमान का स्वर्गलोग तक चले जाने का कोई वर्णन दोनों ग्रंथों में नहीं है।
 श्रीराम की मुद्रिका छिद्र में गिर जाना और हनुमान का उसे ढूंढते हुए पाताल में पहुँच जाने का कोई वर्णन नहीं है।
 युद्ध से पहले रावण का स्वयं श्रीराम के राजपुरोहित बनने का भी वर्णन किसी ग्रंथ में नही है।
 लव-कु श द्वारा अश्वमेघ यज्ञ के घोड़े को पकड़ने और फिर शत्रुघ्न, लक्ष्मण, हनुमान इत्यादि के साथ उनके युद्ध का कोई वर्णन नहीं है।

हालाँकि गोस्वामी तुलसीदास एवं रामचरतिमानस का स्थान अद्वितीय है किन्तु वाल्मीकि रामायण तो फिर भी रामायण ही है। चूँकि ये मूल ग्रन्थ है इसी कारण सबसे अधिक प्रामाणिक है।
रामायण में एक और बात भी है जो इसे अद्भुत बनाती है। क्या आपको पता है कि इसके २४००० श्लोकों में हर १००० श्लोक के पहले अक्षर को मिलाएं तो इससे गायत्री मन्त्र का निर्माण
होता है। है ना आश्चर्यजनक।

पहला अंतर
भगवान श्री राम और माता सीता का विवाह सीता स्वयंवर के बाद हुआ था। गोस्वामी तुलसीदास ने भी रामचरित में यही लिखा है, लेकिन क्या आप जानते हैं, महर्षि वाल्मीकि ने
अपनी रामायण में कहीं स्वयंवर की चर्चा नहीं की हैं। रामायण में कहीं पर भी धनुष यज्ञ का भी जिक्र नहीं किया गया है। दशरथ पुत्र श्री राम और सीता का पुष्प वाटिका में पहली बार
मिलना भी श्रीरामचरितमानस में लिखा गया है, जबकि वाल्मीकि रामायण में इसका उल्लेख कहीं भी नहीं आता है।
दूसरा अंतर
गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस में राम के छोटे भाई लक्ष्मण को क्रोधी बताया गया हैं, वो बात-बात पर गुस्से में उबल जाते हैं। जबकि वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण को एक
दम शांत और सौम्य बताया गया है। पूरी रामायण में लक्ष्मण जी को सिर्फ तीन बार ही गुस्सा आता है। पहली बार लक्ष्मण जी को तब क्रोध आता है, जब वो श्री राम के वनवास का
समाचार सुनते हैं, दूसरी बार भरत मिलाप के समय और तीसरी बार जब किष्किं धा में सुग्रीम को वो अपनी प्रतिज्ञा याद दिलाते हैं। तुलसी रामायण के अनुसार लंका जाने के लिए
समुद्र ने जब श्रीराम को रास्ता नहीं दिया, तो लक्ष्मण क्रोध में आ जाते हैं। उन्होंने श्री राम से समुद्र पर अग्निबाण चलाने की बात कही गयी है, वहीं दूसरी तरफ रामायण में वाल्मीकि
जी ने लिखा है, कि श्री राम को समुद्र पर क्रोध आता है, जबकि लक्ष्मण जी उनको शांत करने का प्रयास करते हैं।
तीसरा अंतर
रामचरित मानस में गोस्वामी तुलसीदास जी ने लक्ष्मण रेखा का जिक्र किया है। वहीं वाल्मीकि रामायण में लक्ष्मण रेखा का कोई उल्लेख या फिर कोई प्रसंग नहीं मिलता है।
चौथा अंतर
लंका पति रावण की सभा में अंगद ने पांव जमा दिए, तो एक प्रंसग में श्री राम के दरबार में पवन सुत हनुमान ने सीना चीर कर अपने हृदय में बसी हुई श्री राम और माता सीता की
छवि को सबके सामने दिखा दिया। दोस्तों आप को यह दोनों पसंद भी वाल्मीकि रामायण में पढ़ने को नहीं मिलते हैं। हम दोनों ही प्रंसगों को तुलसी रामायण से जानते हैं।
पांचवा अंतर
महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में माता सीता का हरण और लंका में मिले उन्हें कष्ट को वास्तविक बताया हैं, उन्होंने इस में कोई माया का उल्लेख कहीं भी नहीं किया हैं। वहीं दूसरी
तरफ तुलसीदास जी कहते हैं, की रावण ने जिस सीता का हरण किया था, वो असली सीता नहीं थी। वो सिर्फ माता सीता की परछाई और भगवान राम की के वल एक माया थी
और सीता हरण के समय भगवान राम ने माता सीता को अग्नि देव के हवाले कर दिया था। अग्नि परीक्षा के वल सीता मां को अग्नि देव से वापस प्राप्त करने के लिए आयोजित की गई
थी। इस प्रसंग में वाल्मीकि और तुलसीदास दोनों का आख्यान एकदम अलग-अलग दिखाई देता हैं।
छठवां अंतर
महर्षि वाल्मीकि की रामायण के अनुसार राम-रावण युद्ध दो बार हुआ था। युद्ध के पहले दिन लंकापति रावण लड़ने आया था और अंतिम दिन वो फिर से वापस लड़ने आया था,
जहां श्रीराम के बाणों से रावण मारा गया। वहीं गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस में श्रीराम-रावण युद्ध सिर्फ एक बार हुआ और उसी युद्ध में भगवान ने रावण को मार गिराया
था।
सातवां अंतर
गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में राम भक्त हनुमान को बंदर लिखा हैं, जबकी महर्षि वाल्मीकि की रामायण के अनुसार हनुमान जी बंदर नहीं बल्कि वानर थे, यानी वो
नर जो वन में रहता हैं। वहीं गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस में पवन पुत्र हनुमान को भगवान शिव का एक अवतार बताया है। उन्होंने लिखा हैं, कि शंकर सुमन के सरी नंदन,
जबकि वाल्मीकि रामायण में ऐसा कहीं पर भी उल्लेख नहीं किया गया है।
आठवां अंतर
भगवान श्री राम के वनवास के समय महर्षि वाल्मीकि ने लिखा हैं, कि महाराज दशरथ कै कई से कहते हैं, वनवास तो के वल मेरे पुत्र राम को हुआ हैं, सीता का नहीं, अगर राम वन
जा रहे हैं, तो सीता को राज सिंहासन पर बिठाया जाए। लेकिन श्री रामचरितमानस में ऐसा कोई प्रसंग तुलसीदास जी ने नहीं लिखा है।
नवां अंतर
दशानन रावण की नाभि में अमृत था, जी हां दोस्तों ऐसा रामचरितमानस में गोस्वामी तुलसीदासजी ने लिखा है, वहीं दूसरी तरफ महर्षि वाल्मीकि ने रामायण में रावण की नाभि में
अमृत होने का कोई भी प्रंसग हमको पढ़ने को नहीं मिलता है।
दसवां अंतर
गोस्वामी तुलसीदास जी की रामचरितमानस में एक उल्लेख में पढ़ने को मिलता है, जब माता सीता सोने का हिरण देखती है और श्री राम से उस हिरण के चर्म को मांगती है, जिसे वो
अपनी कु टिया में सजाकर रखना चाहती है, लेकिन वाल्मीकि रामायण में माता सीता सोने का हिरण किसी और उद्देश्य से मांगती हैं, वो सोने के हिरण को मारना नहीं, बल्कि वापस
अयोध्या लेकर जाना चाहती थी। गोस्वामी तुलसीदास की रामचरितमानस में के वट का सुंदर और सहज किरदार पढ़ने को मिलता हैं, लेकिन वाल्मीकि रामायण में के वट का कोई भी
प्रसंग या जिक्र नहीं किया गया है। तो दोस्तों आज के लेख में हमने रामायण और रामचरित की ऐसी अनकही और अनसुनी बातों को जाना हैं। जो कभी रामायण में तो कभी
रामचरित में पढ़ने को मिलती है। ऐसे ही अधिक जानकारियों के लिए जुड़े रहें।

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