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Badi Didi Converted
Badi Didi Converted
जब गह
ृ स्थ की कन्याएं शमट्टी का दीपक जलाते समय उसमें तेल और
बाती डालती हैं, दीपक के साथ सलाई भी रख दे ती हैं। जब दीपक की लौ
मद्धधम होने लगती है, तब उस सलाई की बहुत आिश्यकता होती है ।
उससे बात्ती उकसानी पड़ती है । यहद िह छोटी-सी सलाई न हो तो तेल
और बात्ती के रहते हुए भी दीपक का जलते रहना असंभि हो जाता है ।
सुरेन्र नाथ का स्िभाि बहुत कुछ इसी प्रकार का है । उसमें बल, बद्
ु धध
और आत्मविश्िास सभी कुछ है लेफकन िह अकेला कोई काम परू ा नहीं
कर सकता। क्जस प्रकार िह उत्साह के साथ थोड़ा-सा काम कर सकता
है , उसी तरह अलसा कर बाकी का सारा काम अधरू ा छोड़कर चुपचाप बैठ
भी सकता है और उस समय उसे ऐसे व्यक्तत की आिश्यकता होती है ,
जो अधरू े काम को परू ा करने की प्रेरणा दे ।
सुरेन्र के वपता सद
ु रू पक्श्चम में िकालत करते हैं। िंगाल के साथ उनका
कोई अधधक सम्बन्ध नहीं है । िहीं पर सरु े न्र ने बीस िर्ष की उम्र में
एम.ए. पास फकया था। कुछ तो अपने गण
ु ों से और कुछ अपनी विमाता
के गण
ु ों से। सरु े न्र की विमाता एसे पररश्रम और लगन से उसके पीछे
लगी रहती है फक अनेक अिसरों पर िह यह नहीं समझ पाता फक स्ियं
उसका भी कोई स्ितंत्र व्यक्ततत्ि है या नहीं। सरु े न्र नाम का कोई स्ितंत्र
प्राणी इस संसार में रहता है या नहीं। विमाता की इच्छा ही मानि रूप
धारण करसे उससे सोना, जागना, पढ़ना, शलखना, परीक्षाएं पास करना
आहद सभी काम करा लेती है । यह विमाता अपनी संतान के प्रतत बहुत
कुछ उदासीन रहने पर भी सरु े न्र के प्रतत क्जतनी सतकष रहती है, उसकी
कोई सीमा नहीं है । उसका थक
ू ना-खखारना तक उसकी आंखों से नहीं
तछप सकता। इस कतषव्यपरायण नारी के िासन में रहकर सरु े न्र ने
पढ़ना शलखना तो सीख शलया लेफकन आत्मतनभषरता बबल्कुल नहीं
सीखी। उसे अपने ऊपर रत्ती भर भी विश्िास नहीं है । उसे यह विश्िास
नहीं है फक िह फकसी भी काम को कुिलता से परू ा कर सकता है ।
सरु े न्र के प्रतत उसके आंतररक प्रयास में नाम के शलए भी कभी नहीं
होती। यहद ततरस्कार और लांछना सुनने के बाद सरु े न्र की आंखें और
चेहरा लाल हो जाता तो रायगह
ृ णी उस ज्िर आने का लक्षण समझकर
तीन हदन तक साबद
ू ाना खाने की व्यिस्था कर दे ती। मानशसक विकास
और शिक्षा-दीक्षा की प्रगतत के प्रतत उनकी दृक्ष्ट और भी अतघक पैनी
थी। सरु े न्र के िरीर पर साफ-सुथरे या आधुतनक फैिन के कपड़े दे खते
ही िह साफ समझ लेती थी फक ल़ड़का िौकीन बनने लगा है । बाबू
बनकर रहना चाहता है और उसी समय दो-तीन सप्ताह के शलए सरु े न्र
के कपड़े के धोबी के घर जाने पर रोक लगा दे ती है ।
एक हदन यही हुआ उसके एक शमत्र ने आकर उसे परामिष हदया फक अगर
तम्
ु हारे जैसा बद्
ु धधमान लड़का इंग्लैंड चला जाए तो भविष्य में उसकी
उन्नतत की बहुत कुछ आिाएं हो सकती है और स्िदे ि लौटकर िह
अनेक लोगों पर अनेक उपकार कर सकता है । यह बात सरु े न्र को कुछ
बुरी मालम
ू नहीं हुई। िन मे रहने िाले पक्षी की अपेक्षा वपंजड़े में रहने
िाला पक्षी अधधक फडफड़ाता है । सरु े न्र की कल्पना की आंखों के आगे
स्िाधीनता के प्रकाि से भरा स्िछन्द िातािरण झझलमलाने लगा। और
उसके पराधीन प्राण पागलों की तरह वपंजेर के चारों और फ़ड़फड़ाकर
धम
ू ने लगे।
उसने वपता के पास पहुंचकर तनिेदन फकया फक चाहे क्जस तरह हो मेरे
इंग्लैंड जाने की व्यिस्था कर दी जाए। साथ ही उसने यह भी कह हदया
फक इंग्लैंड जाने पर सभी प्रकार की उन्नतत की आिा है । वपता ने उत्तर
हदया, ‘अच्छा सोचग
ुं ा।’ लेफकन घर की मालफकन फक इच्छा इसके
बबल्कुल विरुद्ध थी। िह वपता और पत्र
ु के बीच आंधी की तरह पहुंच गई
और इस तरह ठहाका मार कर हंस पड़ी फक िह दोनों सन्नाटे में आ गए।
गह
ृ णी ने कहा, ‘तो फफर मुझे भी विलायत भेज दो। िरना िहां सुरेन्र को
संभालेगा कौन? जो यही नहीं जानता फक कब तया खाना होता है और
कब तया पहनना होता है उस अकेले विलायत भेज रहे हो? क्जस तरह घर
के घोड़े को विलायत भेजना है उसी तरह इसे भेजना है । धोड़े और िैल
कम-से-कम इतना तो समझते हैं की उसे भख
ू लगी है या नींद आ रही है ।
लेफकन तम्
ु हारा सरु े न्र तो इतना भी नहीं समझता।’
घर आकर सरु े न्र इसी बात को सोचने लगा। उसने क्जतना ही सोचा
उतना ही अपने शमत्र की कथन की सच्चाई पर विश्िास हो गया। उसने
तनश्चय कर शलया फक भीख मांगकर ही क्जया जाए। सभी लोग तो
विलायत जा नहीं सकते लेफकन इस तरह क्जन्दगी और मौत के बीच
रहकर भी उन्हें जीना नहीं पड़ता।
राय महािय ने गहृ हणी को पत्र हदखाया और बोले, ‘सरु े न्र अब बड़ा हो
गया है । पढ़-शलख चुका है । अब उसके पंख तनकल आए हैं। अगर िह अब
भी उड़कर न भागेगा तो और कब भागेगा?’
प्रकरण 2
सरु े न्र ने पछ
ू ा, ‘मझ
ु े भी कोई नौकरी हदलिा सकते हो?’
‘तम
ु भले घर के लड़के हो?’
‘सीखा है ।’
उस आदमी ने कुठ सोचकर कहा, ‘तो फफर उस बड़े मकान में चले जाओ।
इसमें एक बहुत बड़े जमींदार रहते है । िह कुछ-न-कुछ इंतजाम कर
दें गे।’
सुरेन्र नाथ फाटक के पास गया। कुछ दे र िहीं खड़ा रहा। फफर जरा पीछे
हटा। एक बार फफर आगे बढ़ा और फफर पीछे हट आया।
दो हदन में साहस संजोकर उसने फकसी तरह फाटक में कदम रखा।
सामने एक नौकर खड़ा था। उसने पछ
ू ा, ‘तया चाहत हो?’
दन
ू े उत्साह से लौटकर उसने दक
ु ान पर बैठकर भरपेट भोजन फकया।
थोड़ी दे र तक बड़ी प्रसन्नता से िह इधर-उधर घम
ू ता रहा और मन-ही-
मी िह सोचता रहा फक कल फकस प्रकार बातचीत करने पर मेरा कुछ
हठकाना बन जाएगा।
लेफकन दस
ू रे हदन िह उत्साह नहीं रहा। जैसे-जैसे उस मकान के तनकट
पहुंचता गया, िैसे-िैसे उसकी लौट चलने की इच्छा िढ़ती गई। फफर जब
िह फाटक के पास पहुंचा तो पूरी तरह हतोत्साहहत हो गया। उसके पैर
अस फकसी भी तरह अन्दर की ओर बढ़ने के शलए तैयार नहीं थे। फकसी
भी तरह िह यह नहीं सोच पा रहा था फक आज िह स्ियं अपने शलए ही
यहां आया है । ऐसा लग रहा था जैसे फकसी ने ठे लठालकर उसे यहां भेज
हदया है, लेफकन आज िह दरिाजे पर खड़ा रहकर और अधधक अपेक्षा
नहीं करे गा, इसशलए अन्दर चला गया।
फफर उसी नौकर से भेंट हुई। उसने कहा, ‘बाबू साहब घर पर हैं।’ ‘आप
उनसे भेंट करें गे?’
‘हां’
‘अच्छा तो चशलए।’
लेफकन इतनी बात सोचने का समय नहीं शमला। माशलक सामने ही बैठे
थे। सरु े न्रनाथ से बोले, ‘तया काम है ?’
आज तीन हदन से सुरेन्र यही बात सोच रहा था, लेफकन इस समय िह
सारी बातें भूल गया। बोला, ‘मैं....मैं....।’
ब्रजनाथ लाहहड़ी पि
ू ष बंगला के जमींदार है । उनके शसर के दो-चार बाल भी
पक गए है और िह बाल समय के पहले नहीं, बल्के ठीक उम्र में ही पके
हैं। बड़े आदमी हैं, इसशलए उन्होंने फौरन सरु े न्रनाथ के आने का उद्दे श्य
समझ शलया और पछ
ू ा, ‘तया चाहते हो?’
‘मझ
ु े कोई एक...!’
‘तया?’
‘नौकरी।’
‘िहां तम्
ु हारे कौन है ?’
‘जी हां।’
ब्रज बाबू को दया आ गई। सरु े न्र को बैठाकर उन्होंने कहा, ‘तम
ु अभी
बच्चे हो। इस उम्र में तम
ु घर छोड़ने को वििि हुए तो यह जानकर दख
ु
होता है । हालांफक मैं तो तम्
ु हें कोई नौकरी नहीं दे सकता लेफकन कुछ एसा
उपाय कर सकता हूं फक तुम्हारी कुछ व्यिस्था हो जाए।’
‘फकसी दक
ु ान पर।’
‘तम
ु ने शलखना-पढ़ना कहां तक सीखा है ?’
सरु े न्र कुछ गंभीर हो गया। सोचकर बोला, ‘फकसी तरह काम चला ही
लंग
ू ा।’
ब्रज बाबू ने कुछ और नहीं कहा। नौकर को बुलाकर बोले, ‘िंद,ू इनके
रहने के शलए जगह का इंतजाम कर दो और भोजन आहद फक व्यिस्था
भी कर दो।’
फफर िह सुरेन्र की ओर दे खकर बोले, ‘संध्या के बाद मैं तुम्हें बुलिा
लूंगा। तम
ु मेरे मकान में ही रहो। जब तक फकसी नौकरी का इंतजाम न
हो तब तक तुम मजे में यहां रह सकते हो।’
‘Do not move’ सरु े न्रनाथ ने कहा, ‘Do not mpve’ यानी हहलो मत।
‘जाओ’
उसका सुबर का समय इसी प्रकार बीत जाता। लेफकन दोपहर का काम
कुछ और ही तरह का था। ब्रज बाबू ने दया करके सरु े न्रनाथ की नौकरी
का प्रबन्ध करने के शलए कुछ भले लोगों के नाम पत्र शलख हदए थे।
सुरेन्रनाथ उन पत्रों को जेब में रखकर घर से तनकल पड़ता। पता
लगाकर उन लोगों के मकानों के सामने पहुंच जाता और दे खता फक
मकान फकतना बड़ा है । उसमें फकतने दरिाजे और झखड़फकयां हैं। बाहर
की ओर फकतने कमरे हैं। मकान दो मंक्जला है या तीन मंक्जला। सामने
कोई रोिनी का खभ्भा हे या नहीं, आहद। इसके बाद संध्या होने से पहले
ही घर लौट आता।
प्रकरण 3
लगभग चार िर्ष हुए, ब्रजराज बाबु की पत्नी का स्िगषिास हो गया था।
बंढ़
ु ापे के पत्नी वियोग का दुःु ख बढ़
ू े ही समझ सकते है, लेफकन इस बात
को जाने दीक्जए। उनकी लाडली बेटी माधिी इस सोलह िर्ष की उम्र में
अपना पतत गंिा बैठी है । उससे अपना पतत गंिा बैठी है । उससे ब्रजराज
बाबू के बदन का आधा लहू सूख गया है। उन्होंने बड़े िौक और धूमधाम
से अपनी कन्या का वििाह फकया था। िह स्ियं धन सम्पन्न थे, इसशलए
उन्होंने धन की ओर बबल्कुल ध्यान नही हदया। लड़के के पास धन-
सम्पवत्त हे या नहीं, इसकी खोज नहीं की। केिल यह दे खा फक लड़का
शलख-पढ़ रहा है, सन्
ु दर है, सि
ु ील है, सीधा-साधा है । बस यही दे खकर
उन्होंने माधिी का वििाह कर हदया था।
ग्यारह िर्ष की उम्र में माधिी का वििाह हुआ था। तीन िर्ष तक यह
अपने पतत के यहां रही। प्यार, दल
ु ार सब कुछ उसे शमला था, लेफकन
उसके पतत योगेन्रनाथ जीवित नहीं रहे । माधिी के इस जीिन के सारे
अरमानों पर पानी फेरकर और ब्रजराज बाबू के कलेजे में बछी भोंककर
िह स्िगष शसधाए गए। मरने के समय जब माधिी फूट-फूट कर रोने
लगी, तब उन्होंने बहुत ही कोलम स्िर में कहा था, ‘माधिी! मुझे इसी
बात का सबसे अधधक दुःु ख नहीं, दुःु ख है तो इस बात का फक तुम्हें जीिन
भर कष्ट भोगने पड़ेगे। मैं तम्
ु हें आदर-सम्मान कुछ भी तो नहीं दे
सका...।’
इसके बाद योगेन्रनाथ के सीने पर आंसुओं की धारा बह चली थी।
माधिी ने उनके आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘जब मैं फफर तम्
ु हारे चरणों में
आकर शमलूं तब आदर मान दे ना...।’
‘तम
ु सत्यथ पर रहना। तम्
ु हारे पण्
ु य प्रताप से ही मैं तम्
ु हे फफर
पासकंू गा।’
उसके बगीचे में बहुत से फूल झखलते हैं। पहले िह उन फूलों की माला
गूंथकर अपने स्िामी के गले में पहनाती थी, लेफकन अब स्िामी नहीं है,
इसशलए उसने फूलों के पेड-पौधे कटिाए नहीं। अब भी उन पर उसी
प्रकार फूल झखलते है , लेफकन िह धरती पर धगर कर मुरझा जाते है । अब
िह उन फूलों की माला नहीं वपरोती। उन सबको इकट्ठा करके अंजूली
भर-भरकर दीन-दझु खयों के बांट दे ती है। क्जनके पास नहीं है , उन्हीं को
दे ती है । इसमें जरा भी कंजस
ू ी नहीं करती, जरा भी मंह
ु भारी नहीं करती।
क्जस हदन ब्रज बाबू की पत्नी परलोक शसधारीं उसी हदन से इस घर में,
कोई व्यिस्था नहीं रह गई थी। सभी लोग अपनी-अपनी धचन्ता में रहते।
कोई फकसी की ओर ध्यान न दे ता। सभी के शलए एक-एक नौकर मक
ु रष र
था। हर नौकर केिल अपने माशलक का काम करता था। रसोई घर में
रसोइया भोजन बनाता ओर एक बड़े अन्न सत्र की तरह सब अपनी-
अपनी पत्तल बबछाकर बैठ जाते। फकसी को खाना शमल पाता, फकसी को
न शमल पाता। कोई इस बात को जानने का प्रयत्न भी न करता।
लेफकन क्जस हदन माधिी भादों मास की गंगा की तरह अपना रूप, स्नेह
और ममता लेकर अपने वपता के घर लौट आई, उसी हदन से धर में एक
नया बसन्त लोट आया। सभी लोग उसे बड़ी बहन कहकर पुकारते हैं। घर
का पालतू कुत्ता तक िाम को एक बार बड़ी बहन को अिश्य दे खना
चाहता है । मानो इतने आदशमयों में से उसने भी एक को स्नेहमयी और
दयामयी मनाकर चन
ु शलया है । घर के माशलक से लेकर नायब, गम
ु ाश्ते,
दास-दाशसयां बड़ी दीदी पर ही तनभषर रहते हैं। कारण कुछ भी हो, लेफकन
सभी के मन यह धारणा बैठ गई है फक बड़ी दीदी पर हमारा कुछ वििेर्
अधधकार है ।
स्िगष का कल्पतरु हममें से फकसी ने कभी नहीं दे खा। यह भी नहीं जानते
फक कभी दे ख पाएंगे या नहीं। इसशलए उसके बारे में कुछ कह नहीं
सकते। लेफकन ब्रज बाबू की गहृ स्थी के सभी लोगों ने एक कल्पिक्ष
ृ पा
शलया है । उसी कल्पिक्ष
ृ के नीचे आकर िह हाथ फैलाते हैं और मनचाही
िस्तु पाकर हं सते हुए लौट जाते है ।
कुताष, धोती, जूता, छाता, घड़ी-जो कुछ भी चाहहए सभी उसके शलए
हाक्जर है । रुमाल तक कोई उसके शलए अच्छी तरह सजाकर रख जाता
है । पहले कौतह
ू ल होता था और िह पछ
ू ता था, ‘यह सब चीजें कहां से
आई।’ उत्तर शमलता, ‘बड़ी दीदी ने भेजी है ।’ आजकल जलपान की प्लेट
तक दे खरक िह समझ लेता है फक यह बड़ी दीदी ने ही बड़े प्रयत्न से
सजाया है ।
गझणत के प्रश्न हल करने बैठा तो एक हदन उसे कम्पास का ख्याल आया
उसने प्रशमला से कहा, ‘प्रशमला, बड़ी दीदी के यहां से कम्पास लाओ।’
बड़ी दीदी को कम्पास से कोई काम नहीं पड़ता इसशलए उसके पास नहीं
था। लेफकन उसने तत्काल ही आदमी को बाजार भेज हदया। संध्या को
सुरेन्रनाथ टहलकर लौटा तो उसने दे खा-टे बल पर िांतछत िस्तु रखी हैं।
दस
ू रे हदन सिेरे प्रशमला ने कहा, ‘मास्टर साहब, बडी बहन ने िह भेज
हदया है ।’
इसके बाद बीच-बीच में एकाध चीज एसी मांग बैठता क्जसके शलए
माधिी बड़ी संकट में पड़ जाती। बहुत खोज करती तब कहीं जाकर
प्राथषना परू ी कर पाती। फफर भी यह कभी न कहती फक मैं यह चीज नहीं दे
सकंू गी।
ब्रज बाबू बीच-बीच में पूछते फक नौकरी की कोई व्यिस्था हुई या नहीं।
सुरेन्र इस प्रश्न का कुछ यों ही-सा उत्तर दे हदया करता। माधिी यह सब
बातें अपने वपता से सन
ु ती और समझ जाती फक मास्टर साहब नौकरी
पाने का रत्ती भर प्रयत्न नहीं करते। इच्छी भी नहीं है । जो कुछ शमल गया
है उसी से संतुष्ट हैं।
‘तयों बेटी?’
‘दोनों ही बच्चे हैं। क्जस तरह प्रशमला नहीं समझती फक उसे कब फकस
चीज की आिश्यकता है , कब खाना चाहहए, कब तया काम करना उधचत
है , उसके मास्टर भी िैसे ही हैं। अपनी आिश्यकताओं को नहीं जानते।
फफर भी असमय एसी चीज मांग बैठते हैं फक होिहिास ठीक रहने की
हालत में कोई व्यक्तत उसे नहीं मांग सकता।’
‘नहीं समझती।’
प्रकरण 4
‘उनसे कहने।’
प्रशमला जाकर गम
ु ाश्ता जी को बल
ु ा लाई। माधिी ने उनसे कहा, ‘मास्टर
साहब का चश्मा खो गया है । उन्हें एक अच्छा-सा चश्मा हदलिा दो।’
गम
ु ाश्ता जी के चले जाने के बाद िह फफर मनोरमा को पत्र शलखने लगी,
पत्र के अन्त में उसने शलखा-
मनोरमा ने मजाक करते हुए उत्तर हदया- ‘तुम्हाके पत्र से अन्य समाचारों
के साथ यह भी मालम
ू हुआ की तम
ु ने अपने घर में एक बन्दर पाल शलया
है और तम
ु उसकी सीता दे िी बन बैठी हो। फफर भी सािधान फकए दे ती हूं-
तुम्हारी मनोरमा।’
पत्र पढ़कर माधिी उदास हो गई। उसने उत्तर में शलख हदया, ‘तम
ु
मह
ु ं जली हो, इसशलए िह नहीं जानती फक फकसके साथे केसा मजाक
करना चाहहए।’
‘उन्होंने खद
ु कुछ नहीं कहा?’ माधिली ने पछ
ू ा।
‘अच्छा कह दं ग
ू ी।’
‘धत ु् पगली, भला ऐसी बातें भी कहीं कही जाती हैं। िायद िह अपने मन
में कुछ खयाल करने लगें ।’
ब्रज बाबू धचक्न्तत हो उठे , ‘तयो बेटी, तुम कािी चली जाओगी तो इस
गह
ृ स्थी का तया होगा?’
माधिी हं सकर बोली, ‘मैं लौट आऊंगी। हं मेिा के शलए थोड़े ही जा रही
हूं।’
माधिी ने समझ शलया फक ऐसा कहना उधचत नहीं हुआ। बात संभालने
के शलए बोली, ‘शसफष कुछ हदन घम
ू आऊंगी।’
‘तो चली जाओ, लेफकन बेटी यह गहृ स्थी तुम्हारे बबना नहीं चलेगी।’
‘मेरे बबना गह
ृ स्थी नहीं चलेगी?’
‘चलेगी तयों नहीं बेटी! जरूर चलेगी, लेफकन उसी तरह क्जस तरह
पतिार के टूट जाने पर नाि बहाि की ओर चलने लगती है ।’
लेफकन कािी जाना बहुत ही आिश्यत था। िहां उसकी विधिा ननद
अपने इकलौते बेटे के साथ रहे ती है । उसे एक बार दे खना जरूरी है ।
पैंशसल उठाकर सरु े न्रनाथ ने चश्मा उतारा। उसके दोनों िीिे साफ फकए
और फफर खाली आंखो से पुस्तक की ओर दे खने लगा।
दस
ू रे हदन उसने पछ
ू ा, ‘प्रशमला, तम
ु बड़ी बहन की धचठ्ठी नहीं शलखती?’
‘नहीं।’
प्रशमला बोली, ‘मास्टर साहब, अगर बड़ी बहन आ जाए तो अच्छा होगा?’
‘शलख दो।’
उसे ‘उसे शलख दो’ कहने में फकसी प्रकार की दवु िधा महसस
ू नहीं हुई।
तयोंफक िह कोई भी लोक व्यिहार नहीं जानता। उसकी समझ में यह
बात बबल्कुल नहीं आई फक बड़ी बहन से आने के शलए अनुरोध करना
उसके शलए उधचत नहीं है, सुनने में भी अच्छा नहीं लगता, लेफकन
क्जसके न रहने से उसे बहुत कष्ट होता है और क्जसके न होने से उसका
काम नहीं चलता, उसे आने के डरा भी अनुधचत प्रतीत नहीं हुआ।
इस पररिार में उसके इतने हदन बीत गए। इत तीन महीनों तक अपना
सारा भार बड़ी दीदी पर छोड़कर अपने हदन बड़े सख
ु से बबता हदए।
लेफकन उसके मन में यह जानने की रत्ती भर भी क्जज्ञासा नहीं हुई फक
बड़ी दीदी नाम का प्राणी कैसा है ? फकतना बड़ा है ? उसकी उम्र तया है ?
दे खने में कैसा है ? उसमें तया-तया गुण है ? िह कुछ भी नहीं जानता?
जानने की इच्छा भी नहीं हुई और कभी ध्यान भी आया।
सब लोग उसे बड़ी दीदी कहते हैं, सो िह भी बड़ी दीदी कहता है । सभी उस
स्नेह करते हैं, उसका सम्मान करते हैं। िह भी करता है। उसके पास
संसार की हर िस्तु का भंडार भरा पड़ा है । जो भी मांगता है, उसे शमल
जाता है और यहद उसक भंडार में से सरु े न्र ने भी कुछ शलया है तो इसमे
अचम्भे की बात कौन-सी है । बादलों का काम क्जस तरह पानी बरसाना
है , उसी तरह बड़ी दीदी का काम सबसो स्नेह करना और सबकी खोज-
खबर रखना है । क्जस समय िर्ाष होती है , उस समय जो भी हाथ बढ़ता है
उसी को जब शमल जाता है । बड़ी दीदी के सामने हाथ फैलाने भी पर जो
मांगो शमल जाता है। जैसे िह भी बादलों की तरह नेत्रों, कामनाओं और
आकांक्षाओं से रहहत है । अच्छी तरह विचार करके उसने अपने मन में
इसी प्रकार की धारणा बना रखी है । आज भी िह जान गया है फक उनके
बबना उसका काम एक पल भी नहीं चल सकता।
लोग क्जस प्रकार अपने इष्ट दे िता को नहीं दे ख पाते, केिल नाम से ही
पररधचत होते हैं। उसी नाम के आगे दुःु ख और कष्ट के समय अपना
सम्पण
ू ष ह्दय खोलकर रख दे ते हैं, नाम के आगे घट
ु ने टे क कर दया की
शभक्षा मांगते हैं, आंखों मे आंसू आते हैं तो पोंछ डालते है और फफर सूनी-
सन
ू ी नजरों से फकसी को दे खना चाहते हैं लेफकन हदखाई नहीं दे ता।
अस्पष्ट क्जह्िा केिल दो-एक अस्फुट िब्दों का उच्चारण करके ही रुक
जाती है । ठीक इसी प्रकार दुःु ख पाने पर सरु े न्रनाथ स्फुर िब्दों में पक
ु ार
उठा-बड़ी दीदी।
तब तक सूयष उदय नहीं हुआ था। केिल आकाि में पूिी छोर पर उर्ा की
लाशलमा ही फैली थी। प्रशमला ने आकर सोए हुए सरु े न्रनाथ का गला
पकड़ कर पुकारा, ‘मास्टर साहब?’
बड़ी दीदी को दे खने की इच्छा उसके मन में फकस तरह पैदा हुई, कहा नहीं
जा सकता और यह भी समझ में नहीं आता फक इतने हदनों बाद यह
इच्छा तयों पैदा हुई। प्रशमला का हाथ थामकर आंखें मलता हुआ अंदर
चला गया। माधिी के कमरे के सामने पहुंचकर प्रशमला ने पक
ु ारा, ‘बड़ी
दीदी?’
बड़ी दीदी फकसी काम में लगी थी। बोली, ‘तया, है प्रशमला?’
‘मास्टर साहब...।’
िह अधधक बातें करना नहीं जानता था, और अधधक बातें करना भी नहीं
चाहता था, लेफकन हदन भर बादल छाए रहने के बाद जब सूयष तनकलता
है तो क्जस तरह बरबर सब लोग उसकी ओर दे खने लगते है और पलभर
मे शलए उन्हें इस बात का ध्यान नहीं रहता फक सूयष को दे खना उधचत
नहीं है या उसकी ओर दे खने से उसकी आंखों में पीड़ा होगी, ठीक उसी
प्रकार एक मास तक बादलों से धधर आकाि के नीचे रहे ने के बाद जब
पहले पहल सय
ू ष चमका तो सरु े न्रनाथ बड़ी उत्सक
ु ता और प्रसन्नता से
उसे दे खने के शलए चला गया था, लेफकन िह यह नहीं जानता था फक
इसका पररणाम यह होगा।
उसी हदन से उसकी दे ख-रे ख में कुछ कमी होने लगी। माधिी कुछ लजाने
लगी, तयोंफक इस बात को लेकर बबन्दम
ु ती मौसी कुछ हंसी थी।
सुरेन्रनाथ बी कुछ संकुधचत-सा हो गया था। िह महसूस करने लगा था
फक बड़ी दीदी का असीशमत भंडार अस सीशमत हो गया है । बहन की दे ख-
रे ख और माता का स्नेह उसे नहीं शमल पाता। कुछ दरू -दरू रहकर हट
जाता है ।
एक हदन उसने प्रशमला से पूछा, ‘बड़ी दीदी मझ
ु से कुछ नाराज है ?’
‘हा।’
‘तयों भला?’
‘इस तरह जाना होता है कही? बहन बहुत नाराज हुई थी।’
सुरेन्रनाथ ने पस्
ु तक बन्द करके कहा, ‘यही तो।’
‘रात को लाऊंगी।’
बबन्द ु ने कहा, ‘मास्टर साहब, बड़ी दीदी पूछ रही हैं फक आपने प्रशमला को
कुछ पढ़ाया तयों नहीं?’
‘तया है ?’
‘तया कहती है ?’
बबन्द ु ने सोचा, यह तो कोई बरु ी बात नहीं है, इसशलए उसने यही बात
जाकर माधिी को बताया। माधिी का गस्
ु सा और भी बढ़ गया।
उसने नीचे जाकर और दरिाजे की आड़ में खड़े होकर बबन्द ु से पछ
ू िाया,
‘प्रशमला को बबल्कुल ही तयों नही पढ़ाया?’
दो-तीन बार पूछे जाने पर सरु े न्रनाथ ने कहा, ‘में नहीं पढ़ा सकंू गा।’
‘नहीं, मझ
ु पढ़ाना अच्छा नहीं लगता।’
माधिी ने अंदर से कहा, ‘अच्छा तो बबन्द ु पछ
ू ो फक फफर िह इतने हदनों
से यहां तयों रह रहे है ?’
बबन्द ु ने कह हदया।
सन
ु ते ही सरु े न्रनाथ प्रोब्लम िाला जाल एकदम तछन्न-शभन्न हो गया।
िह दुःु खी हो उठा। कुछ सोचकर बोला, ‘यह तो मझ
ु से बहुत बड़ी भल
ू हो
गई।’
‘हां, िही तो दे ख रहा हूं, लेफकन मुझे इस बात का इतना ख्याल नहीं था।’
दस
ु रे हदन प्रशमला पढ़ने नहीं आई। सरु े न्रनाथ ने भी कोई ध्यान नहीं
हदया।
प्रशमला तीसरे हदन भी नहीं आई। िह हदन भी यों ही बीत गया। जब चौथे
हदन भी सरु े न्रनाथ ने प्रशमला को नहीं दे खा तो एक नौकर से कहा,
‘प्रशमला को बल
ु ा बाओ।’
लेफकन सरु े न्रनाथ यह बात नहीं सुन पाया। बबना कोई उत्तर हदए फाटक
से तनकल गया।
‘कहां गए है ?’
‘यह तो मैं नहीं जानता। नौ बजे ही चले गए थे। चलते समय मुझसे कह
गए थे फक बड़ी दीदी से कह दे ना फक मैं जा रहा हूं।’
माधिी बेचेन हो उठी। उसने सरु े न्रनाथ के कमरे में जाकर दे खा, सारी
चीते ज्यों की त्यों रखी हैं। मेज के ऊपर खाने में बंद फकया चश्मा रखा है ।
केिल कुछ फकताब नहीं हैं।
िाम हो गई। फफर रता हो गई, लेफकन सरु े न्र नहीं लौटा।
दस
ू रे हदन माधिी ने नौकरों को बुलाकर कहा, ‘अगर मास्टर साहब का
पता लगाकर ले आओगे तो दस-दस रुपये इनाम शमलेंगे।’
इनाम के लालच में िह लोग चारों ओर दौड पड़े, लेफकन िाम को लौटकर
बोले, ‘कहीं पत्ता नहीं चला।’
दो हदन, तीन हदन करके जैसे-जैसे हदन बीतने लगे, माधिी की बेचैनी
बढ़ने लगी।
बबन्द ु ने कहा, ‘बड़ी दीदी, भला उसके शलए इतनी खोज और तलाि तयों!
तया कलकत्ता िहर में कोई और मास्टर नहीं शमलेंगा?’
माधिी झल्ला कर बोली, ‘चल दरू हो। एक आदमी हाथ में बबना एक
पैसा शलए चला गया है और तू कहती है फक तलाि तयों हो रही हैं?’
बबन्द ु चप
ु हो गई।
एक हदन रात को भख
ू और थकान से तनढ़ाल होकर िह काली घाट की
और जा रहा था। कहीं सन
ु शलया था फक िहां खाने को शमलता है । अंधेरी
रात थी। आकाि में बादल धधरे हुए थे। चौरं गी मोड़ पर एक गाड़ी उसके
ऊपर आ गई। गाड़ीिान ने फकसी तरह धोड़े की रफ्तार रोक ली थी,
इसशलए सरु े न्र के प्राण तो नहीं गए लेफकन सीने और बगल में बहुत
गहरी चोट लग जाने से बेहोि होकर धगरा पड़ा। पुशलस उसे गाड़ी पर
बैठाकर अस्पताल ले गई। चार-पांच हदन बेहोिी की हालत में बीतने के
बाद एक हदन रात को उसने आंखें खोलकर पक
ु ारा, ‘बड़ी दीदी।’
दस
ू रे हदन सरु े न्र को होि तो आ गया लेफकन उसने बड़ी दीदी की बात
नहीं की। बहुत तेज बुखार होने के कारण हदन भर छटपटाते रहने के बाद
उसने एक आदमी से पूछा, ‘तया मैं अस्पताल में हूं?’
‘हां।’
‘तयों?’
‘बचने की आिा तो है ?’
‘तया नहीं?’
दस
ु रे फकन उसी छात्र ने पास आकर पछ
ू ा, ‘यहां आप का कोई पररधचत या
ररश्तेदार है ?’
‘कोई नहीं।’
‘तब उस हदन रात को आप ब़ड़ी दीदी कहकर फकसे पुकार रहे थे? तया िह
यहां हैं?’
‘हैं, लेफकन िह आ नहीं सकेंगी। मेरे वपताजी को समाचार भेज सकते हैं?’
सुरेन्रनाथ ने अपने वपता ता पत्ता बता हदया। उस छत्र ने उसी हदन पत्र
उन्हें शलख हदया। इसके बाद बड़ी दीदी का पता लगाने के शलए पछ
ू ा।
‘अगर क्स्त्रयां आना चाहें तो बड़े आराम से आ सकती हैं। हम लोग उनका
व्यिस्था कर सकते हैं। आपकी बड़ी दीदी का पता मालूम हो जाए तो
उनके पाक भी समाचार भेज सकते है ।’ उसने कहा।
‘मेरा मकान ब्रज बाबू के मकान के पास ही है । आज मैं उन्हें आपके बारे
में बता दं ग
ू ा। अगर िह चाहें गे तो दे खने के शलए आ जाएंगे।’
लेफकन छात्र ने दया करके ब्रज बाबू के पास समाचार पहुंचा हदया। ब्रज
बाबू ने चौंककर पछ
ू ा, ‘बच तो जाएगा न?’
माधिी का समच
ू ा व्यक्ततत्ि कांप उठा।
‘उसने तुम्हारा नाम लेकर ‘बड़ी दीदी’ कहकर पुकारा था। उसे दे खने
चलोगी?’
उसी समय पास िाले कमरे में प्रशमला ने न जाने तया धगरा फकया। खूब
जोर से झनझानहट की आिाज हुई। माधिी दौडकर उस कमरे में चली
गई। कुछ दे र बाद लौटकर बोली, ‘आप दे ख आइए, मैं नहीं जा सकंू गी।’
ब्रज बाबू दुःु झखत भाि से कुछ मस्
ु कुराते हुए बोले, ‘अरे िह जंगल का
जानिर है । उसके ऊपर तया गस्
ु सा करना चाहहए?’
माधिी ने कोई उत्तर नहीं हदया तो ब्रज बाबू अकेले ही सरु े न्र को दे खने
चले गए। दे खकर बहुज दुःु खी हुए। बोले, ‘अगर तुम्हारे माता-वपता के
पास खबर भेज दी जाए तो कैसा रहे ?’
‘खबर भेज दी है ।’
लेफकन सरु े न्र‘ इन बातों को अच्छी तरह न समझ सका। बोला, ‘बाबूजी
आ जाएंगे। उन्हें कोई असुविधा नहीं होगी।’
तब से ब्रज बाबू रोजाना सरु े न्र को दे खने के शलए अस्पताल जाने लगे।
उनके मन में उसके शलए स्नेह पैदा हो गया था।
एक हदन लौटकर बोले, ‘माधिी, तुमने ठीक समझा था। सरु े न्र के वपता
बहुत धनिान हैं।’
‘कैसे मालम
ू हुआ?’ माधिी ने उत्सुकता से पूछा।
‘तयो?’
‘उसके वपता के साथ आज बातचीत हुई थी। उन्होंने सारी बातें बताई।
इसी िर्ष उसने पक्श्चम के एक विश्िविद्यालय से सिोच्च सम्मान के
साथ एम.ए. पास फकया है । िह विलायत जाना चाहता था, लेफकन
लापरिाह और उदासीन प्रकृवत्त का लड़का है । वपता को विलायत भेजने
का साहस नहीं हुआ, इसशलए नाराज होकर घर से भाग आया था। अच्छा
हो दाने पर िह उसे घर ले जाएंगे।’
प्रकरण 5
दगाष पज
ू ा के समय मनोरमा अपने मैके आई और माधिी के पीछे पड़
गई, ‘तू अपना बन्दर हदखा।’
तेरे इन सन्
ु दर चरणों में कैसी िोभा पाता है ?’
‘कौन-सा बन्दर?’
‘कब?’
मनोरमा ने मस्
ु कुराते हुए कहा, ‘याद नहीं? जो तेरे अततररतत और फकसी
को जानता ही नहीं।’
‘ऐसे सन्
ु दर कमल जैसे उसे पसंद नहीं आए?’
माधिी ने मंह
ु फेर शलया। कोई उत्तर नहीं हदया। मनोरमा ने बड़े प्यार से
उसका मंह
ु हाथ से पकड़कर अपनी ओर घम
ु ा शलया। िह तो मजाक कर
रही थी। लेफकन माधिी की आंखों में मचलते आंसुओं को दे खकर हैरान
रह गई। उसने चफकत होकर पूछा, ‘माधिी, यह तया?’
‘कोन-सा काम?’
वपछले छुः महहने से माधिी क्जस बात को बड़ी चेष्टा से तछपाती चली आ
रही थी, मनोरमा से उसे तछपा नहीं सकी। जब पकड़ी गई तो मुंह
तछपाकर रोने लगी। और एकदम बच्चे की तरह रोने लगी।
मनोरमा उस हदन बहुत दुःु खी होकर घर लौटी और उसी रात अपने पतत
को पत्र शलखने लगी-
‘तम
ु सच कहते हो-क्स्त्रयां का कोई विश्िास नहीं। मैं भी अब यही कहती
हूं। तयोंफक माधिी ने आज मझु े यह शिक्षा दी है । मैं उसे बचपन से
जानती हूं। इसशलए उसे दोर् दे ने को जी नहीं चाहता। साहस ही नहीं हो
रहा। समूची नारी जातत को दोर् दे रही हूं। विधाता को दोर् दे रही हूं फक
उन्होंने इतने कोमल और जल जैसे तरल पदाथष से नारी के ह्दय का
तनमाषण तयों फकया। उनके चरणों में मेरी विनम्र प्राथषना है फक िह नारी
ह्दय को कठोर बनाया करे , और मैं तम्
ु हारे चरणों पर शसर रखकर
तम्
ु हारे मंह
ु की ओर दे खती हुई मरूं। माधिी को दे खकर बहुत ही डर
लगता है । उसने मेरी जन्म-जन्मांतर की धारणाएं उलट-पल
ु ट दी हैं।
मेरा भी अतघक विश्िास न करना और जल्दी आकर ले जाना।’
‘मह
ु ं जली माधिी-उसने िह फकया है जो एक-विधिा को नहीं करना
चाहहए था। उसने मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम फकया है ।’
पत्र पाकर मनोरमा के पतत मन-ही-मन हं से। फफर उन्होंने मजाक करते
हुए शलखा---
मनोरमा रोजाना आती है और-और बातें तो होती हैं, लेफकन यही बात
नहीं होती। मनोरमा समझती है फक माधिी को इससे दुःु ख होता है । अब
इन बातों की आलोचना क्जतनी न हो उतना ही अच्छा है । मनोरमा यह
भी सोचती है फक फकसी तरह यह अभागी यह सब भल
ू जाए।
बीच में उसे ज्िर हो गया था। बहुत कष्ट हुआ। आंखों में आंसू बहने
लगे। विमाता पास ही बैठी थी। उन्होंने यह नई बात दे खी तो उसकी
आंखों से भी आंसू बहने लगे। बड़े प्यार से उसके आंसू पोंछ कर पूछा,
‘तया हुआ सरु े न्र बेटा?’
बड़ी धम
ू धाम से उनका श्राद्ध हुआ। व्यिक्स्थत जमींदारी और अधधक
व्यिक्स्थत हो गई। अनुभिी, बद्
ु धधमान, परु ाने िकील राय महािय की
कठोर व्यिस्था में प्रजा और भी अधधक परे िान हो उठी। अब सरु े न्र का
वििाह होना भी आिश्यक हो गया। वििाह कराने बाले नाइयों के आने-
जाने से गांि भर में एक तफ
ू ान-सा आ गया। पचास कोस के बीच क्जस
धर में भी सन्
ु दर कन्या थी, उस घर में नाइयों के दल बार-बार अपनी
चरणधल
ू पहुंचाकर कन्या के माता-वपता को सम्मातनत और आिाक्न्ित
करने लगे।
प्रकरण 6
लगभग पांच िर्ष बीत चुके हैं। राय महािय अब इस संसार में नहीं हैं
और ब्रजराज लाहहडी भी स्िगष शसधार चक
ु े हैं। सरु े न्र की विमाता अपने
पतत की जी हुई सारी धन सम्पतत लेकर अपने वपता के घर रहने लगी है ।
यह सुनकर सरु े न्रनाथ चौंक पड़ता है और कहता है, ‘यदी तो। तया यह
सब बातें सच है ।’
सरु े न्रनाथ सख
ू ी हंसी हं सकर रह जाते, ‘मथरू ा बाब,ू दझु खयों का लहू
चस
ू कर जमींदारी रखने की जरूरत ही तया है ?’
चौथे हदन अपने पतत को पाकर िह दरिाजे पर पीठ लगाकर बैठ गई,
‘इतने हदन कहां थे?’
‘यही तो...!’
‘हर बात में यही तो... मैंने सब सुन शलया है ।’ इतना कहते-कहते िाक्न्त
रो पड़ी।
सरु े न्रनाथ ने उसे अपने पास खींचकर और अपने हाथ से उसकी आंखें
पोंछकर बड़े प्यार से पूछा, ‘तो फफर तया करोगी िांतत?’
सुरेन्र ने सहसा प्रसन्न होकर कहा, ‘अच्छी बात है, चलो। िहां बड़ी दीदी
भी है ।’
‘लाउं गा तयों नहीं’, इसके बाद कुछ सोचकर बोला, ‘िह जरूर आएंगी,
जब सन
ु ेंगी फक मैं मर रहा हूं।’
िांतत ने सुरन्र का मूंह बन्द करते हुए कहा, ‘मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं।
इस तरह की बातें मत करो।’
‘िह आ जाएं तो मझ
ु े कोई दुःु ख ही नहीं रह जाए।’
‘तम
ु स्ियं ही जाकर बड़ी दीदी को बल
ु ा लाना। तयों ठीक होगा न?’
िांतत ने शसर हहलाकर सहमतत प्रकट की।
‘िह जब आएंगी तब तम
ु खद
ु ही दे ख लोगी फक मझ
ु े कोई कष्ट ही नहीं
रह जाएगा।’
दस
ू रे हदन उसने दासी के द्िारा मथूरा बाबू से कहलिा हदया फक बाग में
क्जसे लाकर रखा है अगर उसे इसी समय न तनकाल हदया तो उनके भी
मैनेजरी करने की जरूरत नहीं रह जाएगी। अपने स्िीमी से भी उसने
बबगड़कर कहा, ‘और जो भी हो, अगर तम
ु ने घर से बाहर पांि रखा तो मैं
अपना शसर पटक कर और खन
ू की नदी बहाकर मर जाऊंगी।’
सुअिरस दे ख मैनज
े र साहब क्जस तरह काम दे ख रहे थे उससे गांि-गांि
में दन
ू ा हाहाकार मच गया। िांतत भी बीच-बीच में सुनती, लेफकन अपने
स्िामी को बताने का साहस न कर पाती।
प्रकरण 7
उस समय वपता का राज्य था, अब भाई का राज्य है, इसशलए कुछ अन्तर
भी पड़ गया है । पहले उसका सम्मान भी होता था और िह जो भी चाहती
थी िही होत था, लेफकन अब केिल आदर है, क्जद नहीं है । पहे ल वपता के
कारण सब कुछ िही थी लेफकन अब िह केिल आत्मीयों और कुटुक्म्बयों
की श्रेणी में आदर रह गई।
इस पर यहद कोई यह कहे फक हम शििचन्र अथिा उसकी पत्नी को दोर्ी
ठहरा रहे हैं और सीधे-सीधे न कहकर घुमा फफराकर उसकी तनन्दा करते
है तो िह हमारे अशभप्राय को ठीक-ठीक नहीं समझ पा रहे । संसार को जो
तनयम है और आज तक जो रीतत-नीतत बराबर चली आ रही है हम केिल
उसी की चचाष कर रहे हैं। माधिी का भाग्य फूट गया है । अब उसके शलए
कोई स्थान नहीं रह गया है क्जसे िह अपना कह सके। केिल इसी से कोई
अपना अधधकार तयो छोड़ने लगा। यह बात कौन नहीं जानता फक पतत
की चीज पर स्त्री का अधधकार होता है, लेफकन िह माधिी की कौन होती
है ? दस
ू रे के शलए िह अपना अधधकार तयों छोड़ने लगी। माधिी सब कुछ
समझती है । बहू क्जस समय छोटी थी और ब्रजबाबू जीवित थे उस समय
माधिी की नजर में प्रशमला और बहू में कोई अन्तर नहीं था लेफकन अब
सब बातों में अन्तर है । िह सदा से अशभमातननी है , इसशलए िह सबसे
नीचे है । उसमें बात सहने का सामर्थयष नहीं है इसशलए कोई बात नहीं
कहती। जहां उसका कोई जोर नहीं हे िहां शसर ऊंचा करके खड़े होने से
उसका शसर कट जाता है । जब उसके मन में दुःु ख होता है तब िह चुपचाप
सह लेती है । शििचन्र से भी कुछ नहीं कहती। स्नेह की दहु ाई दे ना
उसका आदत हनीं है । केिल इसी आत्मीयता के भरोसे अपना अधधकार
जताने में उस लज्जा आती है । साधारण क्स्त्रयों की तरह लड़ाई-झगड़ा
करने से उसे फकतनी धण
ृ ा हे केिल िही जानती है ।
पािना क्जले के गोला गांि में माधिी की ससुराल थी। शििचन्र ने कुछ
हं सकर कहा, ‘भला यहा भी कहीं हो सकता है । िहां तुम्हें बहुत कष्ट
होगा।’
‘कष्ट तयों होने लगा। िहां का मकान तो अभी तक धगरा नहीं है । दस-
पांच बीघा जमीन भी है । तया इतने में एक विधिा का गज
ु ार नहीं हो
सकता?’
‘गज
ु ारे की बात नहीं है । रुपये की भी कोई धचन्ता नहीं है । लेफकतन
माधिी तम्
ु हें िहां बहुत ही कष्ट होगा।’
शििचन्र ने कुछ सोचकर कहा, ‘बहन आझखर तुम तयों जा रही हो? मुझे
सारी बात साफ-साफ बता दो। मैं सार झगड़ा शमटाए दे ता हूं।’
माधिी फकसी भी तरह िहां रहने के शलए राजी नहीं हुई और जाने की
तैयारी करने लगी। उसने नई बहू को घर-गह
ृ स्थी की सारी बातें समझा
दी। दास-दाशसयों को बल
ु ाकर आिीिाषद फकया। चलने के हदन आंखों में
आंसू भरकर शििचन्र ने कहा, ‘माधिी, तम्
ु हारे भैया ने तो तम
ु से कभी
कुछ कहा नहीं।’
‘सो नहीं। यहद फकसी अिुभ क्षण में फकसी हदन असािधानी से कोई
बात....।’
चटजी महािय के क्रोध की सीमा न रही। स्ियं आकर बोले, ‘िह सारी
जमीन बबक-बबका गई। कुछ बंदोबस्त में चली गई। आठ-आठ, दस-दस
साल तक जमींदार की मालगुजारी न चुकाने पर जमीन भला फकस तरह
रह सकती थी।’
चटजी महािय ने जो उत्तर हदया, माधिी उसे समझ नहीं सकी। पहले तो
ब्राह्मण दे िता न जाने बहुत दे र तक तया-तया बकते रहे और फफर शसर
पर छाता लगाकर, कमर में रामनामी दप
ु ट्टा बांधकर और अंगोछे में
एक धोती लपेटकर जमीदार साहब की लालता गांि िाली कचहरी की
ओर चल हदए। इसी लालता गांि में सुरेन्र नाथ का मकान और मैनेजर
मथुरा बाबू का दफ्तर है । ब्राह्मण दे िता आठ-दस कोस पैदल चलकर
सीधे मथरु ा बाबू के पास पहुंचे और रोते हुए कहने लगे, ‘दहु ाई सरकार
की। गरीब ब्राह्मण को अब गली-गली भीख मांगकर खाना पड़ेगा।’
‘ऐसे तो बहुत से आया करते हैं,’ मथुरा बाबू ने मुंह फेरकर पूछा, ‘तया
हुआ?’
विधु चटजी ने माधिी के हदए सौ रुपये दक्षक्षणा के रूप में मथुरा बाबू के
हाथ पर रखकर कहा, ‘आप धमाांितार हैं। अगर आपने मेरी रक्षा न की
तो मेरा सिषस्ि चला जाएगा।’
‘पच्चीस बीधे।’
मथुरा बाबू ने हहसाब लगाकर कहा, ‘कम-से-कम तीन हजार रुपये की
जमीन हुई। जमीदार कचहरी में फकतनी सलामी दोगे?’
‘तीन सो दे कर तीन हजार का माल लोगे। जाओ हमसे कुछ नहीं होगा।’
‘यह तयों?’
‘इसशलए फक तम
ु कह रही हो फक िह दे खने में परी जैसी है ।’
‘इसी से तो सबकुछ होता है । परी जैसी है इसशलए जमींदार सरु े न्र नाथ
के यहां उसकी कुिल नहीं।’
मौसी ने अपने गाल पर हाथ रखकर कहा, ‘तू कैसी बातें करता है?’
बहनौत ने मस्
ु कुराकर कहा, ‘हां, यही बात है । दे िभर के लोग इस बात
को जानते हैं।’
‘जब चटजी महािय इस मामले में हैं तब सम्पवत्त शमलने की कोई आिा
नहीं है और फफर िह गहृ स्थदार की लड़की ठहरी। सम्पवत्त के साथ तया
उसका धमष भी चला जाए?’
दस
ू रे हदन उस स्त्री ने सारी बाते माधिी को बता दीं। सुनकर िह है रान
रह गई। हदन भर जमींदार सरु े न्रनाथ के बारे में सोचती रही। उसने
सोचा, यह ना तो बहुत ही पररधचत है , लेफकन उस व्यक्तत के साथ मेल
नहीं खाता। यह नाम तो उसने मन-ही-मन फकतने ही हदनों तक याद
फकया है । उसे आज पूरे पांच िर्ष हो गए। भल
ू गई थी उसे, लेफकन आज
बहुत हदनों बाद फफर याद हो आया।
स्िप्न और तनरा में माधिी ने बड़े कष्ट से िह रात बबताई। अनेक बार
उसे परु ानी बातें याद आ जाती थीं और उसकी आंखों में आंसू उमड़ आते
थे।
संतोर् कुमार ने उसके मुख की और डरते-डरते कहा, ‘मामी, मैं अपनी मां
के पास जाऊंगा।’
गोला गांि से पन्रह कोस दरू सोमरापरु में प्रशमला का वििाह हुआ था।
आज एक िर्ष से िह ससरु ाल में ही है । िायद फफर िह कलकत्ता जाएगी,
लेफकन माधिी उस समय िहां कहां रहे गी? इसशलए उससे शमल लेना
आिश्यक है ।
सिेरे सूयष उदय होते ही माझझयों ने नाि खोल दी। धारा के साथ नाि
तेजी से बह चली। हिा अनक
ु ू ल नहीं थी, इसशलए नाि धीरे -धीरे बासों के
बीच से गज
ु रती, कटीले िक्ष
ृ ो और झाडड़यो को बचाती, घास-पता को
ठे लती हुई चलने लगी। संतोर् कुमार के आनंद की सीमा नहीं रही। िह
नाि की छत पर से हाथ बढ़ाकर िक्ष
ृ ों की पवत्तयां तोड़ने के शलए आतुर हो
उठा। माझझयों ने कहा, ‘अगर हिा नहीं रुकी तो नाि कल दोपहर तक
सोमरापुर नहीं पहुंच सकेगी।’
प्रकरण 8
‘कुछ चाहहए नहीं। शसफष मथरु ा बाबू से कुछ बातें करना चाहता हूं।’
रुपयों की बात सन
ु कर िांतत मथरू ा बाबू के प्रतत कुछ नमष पड़ गई और
मस्
ु कुराकर बोली, ‘इसमें मैनज
े र का दोर् है ? िह इतने रुपये कैसे छोड़
दे ते?’
िांतत ने पछ
ू ा, ‘तया इतने रुपये छोड़ दे ने चाहहए?’
सरु े न्र नाथ ने हंसते हुए कहा, ‘िांतत यह बात नहीं है । मेरे रुपये तया
तम्
ु हारे नहीं हैं? लेफकन यह बताओ, जब मैं न रहूंगा उस समय तम
ु ...।’
‘अच्छी लगती हैं, इसशलए करता हूं। िांतत तुम मेरी इच्छाओं और
आकांक्षाओं को याद नहीं रखोगी?’
कुछ दे र बाद सुरेन्र नाथ ने कहा, ‘यह तो मेरी बड़ी दीदी का नाम है ।’
सरु े न्र नाथ ने एक कागज हदखाते हुए कहा, ‘यह दे खो मेरी बड़ी दीदी का
नाम है ?’
‘कहा?’
सुरेन्र नाथ ने हंसते हुए उत्तर हदया, ‘हां, इसशलए। मैं सब कुछ लौटा
दं ग
ू ा।’
माधिी की बात सन
ु कर िांतत कुछ दुःु खी हो उठती। लगा उसके अन्दर
ईष्याष की भािना थी। उसने कहा, ‘हो सकता है फक िह तुम्हारी दीदी न
हो। केिल माधिी नाम है । शसफष नाम से ही तया...?’
‘तुम दग
ु ाष का नाम शलखकर उस पर पांि रख सकती हो?’
सुरेन्र नाथ हं स पडा, ‘अच्छा, दे िी का नाम न सही लेफकन मैं तुम्हें पांच
हजार रुपये दे सकता हूं, अगर एक काम कर सको।’
‘तया?’
सुरेन्र नाथ पहे ल तो कुछ दे र चुप बैठे रहे , फफर बाहर चले गए।
‘मत
ृ रामतनु सान्याल की विधिा पुत्रिधु की।’
‘तयों?’
‘िायद नहीं।’
मथुरा बाबू ने साहस बटोरकर उत्तर हदया, ‘इतने हदनों तक जहां थी, िही
रहे गी। ऐसा ही लगता है ।’
‘इतने हदनों तक कहां थी?’
‘माधिी दे िी।’
सुरेन्र नाथ शसर िहीं झुकाकर बैठ गए। मथरु ा बाबू ने घबराकर पूछा.
‘तया हुआ?’
धोड़े पर सिार रहने की हालल में ही सरु े न्र नाथ का शमचलाने लगा था।
लग रहा था फक जैसे अन्दर की सारी नसें कटकट बाहर तनकल पड़ेगी।
इसके बाद ही खांसी के साथ खन
ू की दो-तीन बंद
ू े टप से धल
ू से अटे कुते
पर टपक पड़ी। सरु न्र नाथ ने हाथ से मंह
ु पोंछ शलया।
रास्ते में एक दक
ु ानदार से पूछ्, ‘यह गोला गांि है?’
‘हां।’
‘उस और है ।’
‘कोई नहीं।’
‘दक्ति की और।’
‘नदी के फकनारे -फकनारे रास्ता है ? धोड़ा चल नहीं सकता था। सरु े न्र नाथ
ने धोड़ा छोड़ हदया और पैदल ही चल पड़े। रास्ते में एक बार उन्होंने दे खा
फक कुते पर कोई जगह खून की बद
ूं े धगरकर धल
ू में जम गई हैं। इस
समय भी उनके होठों पर से खून बह रहा था।
हदन ढलने लगा। पैर अब आगे नहीं बढ़ रहे । लगता है अगर लेट गए तो
हमेिा के शलए सो जाएगे, इसशलए जैसे अक्न्तम िैया पर इस जीिन का
महाविश्राम प्राप्त करने की आिा शलए पागलों की तरह दौड़ते चले जा
रहे हैं। िरीर में क्जतनी भी िक्तत है, उसे बबना फकसी कृपणता के खचष
करके अन्त में अनन्त आश्रय पा लेंगे और फफर कभी नहीं उठें गे।
नदीं के मोड़ के पास िह एक नाि है न? करे मूं के झरू मट
ु को हटाती हुई
रास्ता तनकाल रही है ।
लेफकन सख
ू े गले से आिाज नहीं तनकली। केिल दो बंद
ू खन
ू तनकलकर
बह गया।
सोने का हार दे खकर उनमे से तीन मांझी कंझे पर रस्सी लेकर नीचे उतर
पड़े।
संध्या के समय सरु े न्र नाथ को होि आया। आंखे खोलकर माधिी की
ओर दे खते रहे । उस समय माधिी के चेहरे पर धूंधट नहीं था। केिल माथे
का कुछ भाग आंचल से ढका था। िह अपनी गोद में सरु े न्र नाथ का शसर
रखे बैठी थी।
मानो सारे संसार का सुख इसी गोद में तछपा हुआ था। इतने हदनों के बाद
सरु े न्र नाथ िह सख
ु आज खोज पाया है, इसशलए होठों के कोनों पर
मासम
ू -सी मस्
ु कुराहट रें ग उठी है, ‘बड़ी दीदी, बहुत कष्ट है ।’
छलछल करती हुई नाि लगातार दौड़ी जा रही है । छप्पर के अन्दर
सुरेन्र के चेहरे पर चन्रमा की फकरणें पड़ रही हैं। नयनतारा की मां एक
टूटा हुआ पंखा लेकर धीरे -धीरे झल रही है ।
***
अपनी अट्टाशलका के सोने के कमरे में बड़ी दीदी की गोद में शसर रखकर
सरु े न्र नाथ मत्ृ यु िैया पर पड़े हुए हैं। उनके दोनों पैर िांतत अपनी गोद
में शलए आंसओ
ु ं से धो रही है । पिना में क्जतने डॉतटर और िैद्य हैं, उस
सबके सक्म्मशलत प्रयास से भी खन
ू रुक नहीं रहा। पांच िर्ष पहले की
चोट अब खून उगल रही है ।
िाम के बाद दीपक की उजली रोिनी में सरु े न्र नाथ ने माधिी के चेहरे
की ओर दे खा पैरां के पास िांतत बैठी हुई थी। िह सुन न कसे इसशलए
उसने माधिी का मख
ु अपने मुख के पास खींचकर धीरे से कहा, ‘बड़ी
दीदी, उस हदन की बात याद है क्जस हदन तुमने मझे घर से तनकाल हदया
था। आज मैंने तुमसे बदला ले शलया। तुम्हें भी तनकाल हदया, तयों बदला
चुक गया न?’
माधिी ने सबकुछ भुलकर अपना शसर सरु े न्र नाथ के कंधे पर रख हदया।
इसके बाद जब उसे होि आया तब घर में रोना-पीटना चमा हुआ था।
समाप्त