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प्रकरण 1

इस धरती पर एक विशिष्ट प्रकार के लोग भी िसते है । यह फूस की आग


की तरह होते हैं। िह झट से जल उठते हैं और फफर चटपट बुझ जाते हैं।
व्यक्ततयों के पीठे हर समय एक ऐसा व्यक्तत रहना चाहहए जो उनकी
आिश्यकता के अनुसार उनके शलए फूस जट
ू ा सके।

जब गह
ृ स्थ की कन्याएं शमट्टी का दीपक जलाते समय उसमें तेल और
बाती डालती हैं, दीपक के साथ सलाई भी रख दे ती हैं। जब दीपक की लौ
मद्धधम होने लगती है, तब उस सलाई की बहुत आिश्यकता होती है ।
उससे बात्ती उकसानी पड़ती है । यहद िह छोटी-सी सलाई न हो तो तेल
और बात्ती के रहते हुए भी दीपक का जलते रहना असंभि हो जाता है ।

सुरेन्र नाथ का स्िभाि बहुत कुछ इसी प्रकार का है । उसमें बल, बद्
ु धध
और आत्मविश्िास सभी कुछ है लेफकन िह अकेला कोई काम परू ा नहीं
कर सकता। क्जस प्रकार िह उत्साह के साथ थोड़ा-सा काम कर सकता
है , उसी तरह अलसा कर बाकी का सारा काम अधरू ा छोड़कर चुपचाप बैठ
भी सकता है और उस समय उसे ऐसे व्यक्तत की आिश्यकता होती है ,
जो अधरू े काम को परू ा करने की प्रेरणा दे ।

सुरेन्र के वपता सद
ु रू पक्श्चम में िकालत करते हैं। िंगाल के साथ उनका
कोई अधधक सम्बन्ध नहीं है । िहीं पर सरु े न्र ने बीस िर्ष की उम्र में
एम.ए. पास फकया था। कुछ तो अपने गण
ु ों से और कुछ अपनी विमाता
के गण
ु ों से। सरु े न्र की विमाता एसे पररश्रम और लगन से उसके पीछे
लगी रहती है फक अनेक अिसरों पर िह यह नहीं समझ पाता फक स्ियं
उसका भी कोई स्ितंत्र व्यक्ततत्ि है या नहीं। सरु े न्र नाम का कोई स्ितंत्र
प्राणी इस संसार में रहता है या नहीं। विमाता की इच्छा ही मानि रूप
धारण करसे उससे सोना, जागना, पढ़ना, शलखना, परीक्षाएं पास करना
आहद सभी काम करा लेती है । यह विमाता अपनी संतान के प्रतत बहुत
कुछ उदासीन रहने पर भी सरु े न्र के प्रतत क्जतनी सतकष रहती है, उसकी
कोई सीमा नहीं है । उसका थक
ू ना-खखारना तक उसकी आंखों से नहीं
तछप सकता। इस कतषव्यपरायण नारी के िासन में रहकर सरु े न्र ने
पढ़ना शलखना तो सीख शलया लेफकन आत्मतनभषरता बबल्कुल नहीं
सीखी। उसे अपने ऊपर रत्ती भर भी विश्िास नहीं है । उसे यह विश्िास
नहीं है फक िह फकसी भी काम को कुिलता से परू ा कर सकता है ।

मुझे कब फकस चीज की आिश्यकता होगी और कब मुझे तया काम


करना होगा, इसके शलए िह भी तनक्श्चत नही कर पाता फक मुझे तया
नींद आ रही है, भूख लग रही है । जब से उसने होि संभाला है, तब से अब
तक के पन्रह िर्ष उसने विमाता पर तनभषर रहकर ही विताएं है , इसशलए
विमाता को उसके शलए ढे र सारे काम करने पड़ते हैं। रात-हदन के चौबीस
घंटे में से बाईस धंटे ततरस्कार, उलाहने, डांट-फटकार और मंह
ु बबगाड़ने
के कामों के साथ-साथ परीक्षा में पास होने के शलए उसे अपनी तनंरा सख

से हाथ धो लेना पड़ता है । भला अपनी सौत के लड़के के शलए कौन कब
इतना करता है । मोहल्ले-टोले के लोग एक मुख से राय-गहृ णी की प्रिंसा
करते हुए उधाते नहीं हैं।

सरु े न्र के प्रतत उसके आंतररक प्रयास में नाम के शलए भी कभी नहीं
होती। यहद ततरस्कार और लांछना सुनने के बाद सरु े न्र की आंखें और
चेहरा लाल हो जाता तो रायगह
ृ णी उस ज्िर आने का लक्षण समझकर
तीन हदन तक साबद
ू ाना खाने की व्यिस्था कर दे ती। मानशसक विकास
और शिक्षा-दीक्षा की प्रगतत के प्रतत उनकी दृक्ष्ट और भी अतघक पैनी
थी। सरु े न्र के िरीर पर साफ-सुथरे या आधुतनक फैिन के कपड़े दे खते
ही िह साफ समझ लेती थी फक ल़ड़का िौकीन बनने लगा है । बाबू
बनकर रहना चाहता है और उसी समय दो-तीन सप्ताह के शलए सरु े न्र
के कपड़े के धोबी के घर जाने पर रोक लगा दे ती है ।

बस इसी तरह सुरेन्र के हदन बीतते थे। इस प्रकार स्नेहपण


ू ष सतकषता के
बीच कभी-कभी िह सोचने लगता फक िायद सभी लोंगों के जीिन का
प्रभात इसी प्रकार व्यततत होता हो, लेफकन बीच-बीच में कभी-कभी
आस-पास के लोग उसके पीछे पड़कर उसके हदमाग में कुछ और ही
प्रकाि के विचार भर दे ते थे।

एक हदन यही हुआ उसके एक शमत्र ने आकर उसे परामिष हदया फक अगर
तम्
ु हारे जैसा बद्
ु धधमान लड़का इंग्लैंड चला जाए तो भविष्य में उसकी
उन्नतत की बहुत कुछ आिाएं हो सकती है और स्िदे ि लौटकर िह
अनेक लोगों पर अनेक उपकार कर सकता है । यह बात सरु े न्र को कुछ
बुरी मालम
ू नहीं हुई। िन मे रहने िाले पक्षी की अपेक्षा वपंजड़े में रहने
िाला पक्षी अधधक फडफड़ाता है । सरु े न्र की कल्पना की आंखों के आगे
स्िाधीनता के प्रकाि से भरा स्िछन्द िातािरण झझलमलाने लगा। और
उसके पराधीन प्राण पागलों की तरह वपंजेर के चारों और फ़ड़फड़ाकर
धम
ू ने लगे।

उसने वपता के पास पहुंचकर तनिेदन फकया फक चाहे क्जस तरह हो मेरे
इंग्लैंड जाने की व्यिस्था कर दी जाए। साथ ही उसने यह भी कह हदया
फक इंग्लैंड जाने पर सभी प्रकार की उन्नतत की आिा है । वपता ने उत्तर
हदया, ‘अच्छा सोचग
ुं ा।’ लेफकन घर की मालफकन फक इच्छा इसके
बबल्कुल विरुद्ध थी। िह वपता और पत्र
ु के बीच आंधी की तरह पहुंच गई
और इस तरह ठहाका मार कर हंस पड़ी फक िह दोनों सन्नाटे में आ गए।

गह
ृ णी ने कहा, ‘तो फफर मुझे भी विलायत भेज दो। िरना िहां सुरेन्र को
संभालेगा कौन? जो यही नहीं जानता फक कब तया खाना होता है और
कब तया पहनना होता है उस अकेले विलायत भेज रहे हो? क्जस तरह घर
के घोड़े को विलायत भेजना है उसी तरह इसे भेजना है । धोड़े और िैल
कम-से-कम इतना तो समझते हैं की उसे भख
ू लगी है या नींद आ रही है ।
लेफकन तम्
ु हारा सरु े न्र तो इतना भी नहीं समझता।’

और इतना कहकर िह फफर हंस पड़ी।

हास्य की अधधकता दे ख राय महािय बहुत हह िशमषदा हुए। सरु े न्र ने


समझ शलया फक इस अखण्डनीय तकष के विरुद्ध फकसी भी प्रकार का
प्रततिाद नहीं फकया जा सकता। उसने विलायत जाने की आिा छोड़ दी।
यह सुनकर उसके शमत्र को बहुत दुःु ख हुआ, लेफकन िह विलायत जाने
का कोई अन्य उपाय नही बता सका। हां, यह जरूर कहा फक ऐसा
पराधीन जीिन जीने की अपेक्षा भीख मांगकर जीना कही बहे तर है, और
यह तनक्श्चत है फक जो व्यक्तत इस तरह सम्मानपूिक
ष एम.ए.पास कर
सकता है, उस अपना पेट पालने में कोई कहठनाई नहीं होगी।

घर आकर सरु े न्र इसी बात को सोचने लगा। उसने क्जतना ही सोचा
उतना ही अपने शमत्र की कथन की सच्चाई पर विश्िास हो गया। उसने
तनश्चय कर शलया फक भीख मांगकर ही क्जया जाए। सभी लोग तो
विलायत जा नहीं सकते लेफकन इस तरह क्जन्दगी और मौत के बीच
रहकर भी उन्हें जीना नहीं पड़ता।

एक हदन अंधेरी रात में िह घर से नकला और स्टे िन पहुंच गया। और


कलकत्ता का हटकट खरीदकर ट्रे न पर सिार हो गया। चलते समये उसने
ड़ाक द्िारा वपता के पास पत्र भेड फकया फक मैं कुछ हदनों के शलए घर
छोड़ रहा हूं। खोजने से कोई वििेर् लाभ नहीं होगा। और यहद मेरा पता
चल भी गया तो मेरे लौटने की कोई सम्भािना नहीं है ।

राय महािय ने गहृ हणी को पत्र हदखाया और बोले, ‘सरु े न्र अब बड़ा हो
गया है । पढ़-शलख चुका है । अब उसके पंख तनकल आए हैं। अगर िह अब
भी उड़कर न भागेगा तो और कब भागेगा?’

फफर भी उन्होंने उस तलाि फकया। कलकता में उनके जो भी पररधचत थे


उन्हें पत्र शलखे, लेफकन पररणाम कुछ न तनकला। सरु े न्र का कोई पत्ता
नहीं चला।

प्रकरण 2

कलकत्ता की भीड़ और कोलाहल भरी सड़कों पर पहुंचकर सरु े न्र नाथ


धबरा गया। िहां न तो कोई डांटने-फटकारने िाला था और न कोई रात-
हदन िासन करने िाला। मुंह सुख जाता तो कोई न दे खता था और मुंह
भारी हो जाता तो कोई ध्यान न दे ता। यहां अपने आप को स्ियं ही दे खना
पड़ता है । यहां शभक्षा भी शमल जाती है और करूणा के शलए स्थान भी है ।
आश्रय भी शमल जाता है लेफकन प्रयत्न की आिश्यकता होती है । यहां
अपनी इच्छा से तुम्हारे बीच कोई नहीं आएगा।
यहां आने पर उसे पहली शिक्षा यहा शमली फक खाने की चेष्टा स्ियं करनी
पड़ती है । आश्रय के शलए स्ियं ही स्थान खोजना पड़ता है और नींद तथा
भूख में कुछ भेद है ।

उसे घर छोड़े कई हदन बीत गए थे। गली-गली घमते रहने के कारण


िरीर एकदम कमजोर पड़ गया था। पास के रुपये बी खत्म हो चले थे।
कपड़े मैले और फटने लगे थे। रात को सोने तक के शलए कहीं हठकाना
नहीं था। सरु े न्र की आंखों मे आंसू आ गए। घर को पत्र शलखने की इच्छा
नहीं होती, लज्जा आती है और सबसे बढ़कर जब उसे अपनी विमाता के
स्नेहहीन कठोर चेहरे की याद आ जाती है तो घर जाने की इच्छा एकदम
आकाि कुसुम बन जाती है । उसे इस बात को सोचते हुए भी डर लगता
था फक िह कभी िहां था।

एक हदन उसने अपने जैसे ही एक दररर आदमी की और दे खकर पछ


ू ा,
‘तयों भाई, तम
ु यहां खाते फकस तरह हो?’ िह आदमी भी कुछ मख
ु -ष सा
ही था िरना सुरेन्र की हंसी न उड़ाता। उसने कहा, ‘नौकरी करके कमात-
खाते हैं। कलकत्ता में रोजगार की तया कमी है ।’

सरु े न्र ने पछ
ू ा, ‘मझ
ु े भी कोई नौकरी हदलिा सकते हो?’

उसने पूछा, ‘तुम तया जानते हो?’

सुरेन्रनाथ कोई भी काम नहीं जानता था, इसशलए चप


ु रहकर कुछ
सोचने लगा।

‘तम
ु भले घर के लड़के हो?’

सुरेन्रनाथ ने शसर हहला हदया।


‘तो शलखना-पढ़ना तयों नही सीखा?’

‘सीखा है ।’

उस आदमी ने कुठ सोचकर कहा, ‘तो फफर उस बड़े मकान में चले जाओ।
इसमें एक बहुत बड़े जमींदार रहते है । िह कुछ-न-कुछ इंतजाम कर
दें गे।’

यह कहकर िह चला गया।

सुरेन्र नाथ फाटक के पास गया। कुछ दे र िहीं खड़ा रहा। फफर जरा पीछे
हटा। एक बार फफर आगे बढ़ा और फफर पीछे हट आया।

उस हदन कुछ भी न हुआ। दस


ू रा हदन भी इसी तरह बीत गया।

दो हदन में साहस संजोकर उसने फकसी तरह फाटक में कदम रखा।
सामने एक नौकर खड़ा था। उसने पछ
ू ा, ‘तया चाहत हो?’

‘बाबू साहब से...!

‘बाबू साहि घर पर नहीं है ’

सुरेन्र नाथ का चेहरा खि


ु ी से चमक उठा। एक बहुत ही मक्ु श्कल काम से
छुट्टी शमली। बाबू साहब घर पर नहीं है । नौकरी की बात, दुःु ख की
कहानी कहानी नहीं पड़ी। यही उसकी खि
ु ी का कारण था।

दन
ू े उत्साह से लौटकर उसने दक
ु ान पर बैठकर भरपेट भोजन फकया।
थोड़ी दे र तक बड़ी प्रसन्नता से िह इधर-उधर घम
ू ता रहा और मन-ही-
मी िह सोचता रहा फक कल फकस प्रकार बातचीत करने पर मेरा कुछ
हठकाना बन जाएगा।

लेफकन दस
ू रे हदन िह उत्साह नहीं रहा। जैसे-जैसे उस मकान के तनकट
पहुंचता गया, िैसे-िैसे उसकी लौट चलने की इच्छा िढ़ती गई। फफर जब
िह फाटक के पास पहुंचा तो पूरी तरह हतोत्साहहत हो गया। उसके पैर
अस फकसी भी तरह अन्दर की ओर बढ़ने के शलए तैयार नहीं थे। फकसी
भी तरह िह यह नहीं सोच पा रहा था फक आज िह स्ियं अपने शलए ही
यहां आया है । ऐसा लग रहा था जैसे फकसी ने ठे लठालकर उसे यहां भेज
हदया है, लेफकन आज िह दरिाजे पर खड़ा रहकर और अधधक अपेक्षा
नहीं करे गा, इसशलए अन्दर चला गया।

फफर उसी नौकर से भेंट हुई। उसने कहा, ‘बाबू साहब घर पर हैं।’ ‘आप
उनसे भेंट करें गे?’

‘हां’

‘अच्छा तो चशलए।’

लेफकन यह और भी कहठनाई हुई। जमींदार साहि का मकान बहुत बड़ा


है । बड़े सलीके से साहबी ढं ग से साज-सामान सडे हुए हैं। कमरे -पर-
कमरे , संगमरमर की सीहढ़यां, हर कमरे में झाड़-फानस
ू और उस पर सुखष
कपड़े के धगलाफ िोभा पा रहे है । दीिारों पर लगे हुए बड़े-बड़े िीिे। न
जाने फकतने धचत्र और फोटोग्राफ। दस
ू रों के शलए यह सब चीजें चाहे जैसेी
हो लेफकन सुरेन्र के शलए नयी नहीं थी, तयोंफक उसके वपता का घर भी
कोई तनधषन की कुहटया नहीं है और चाहे जो कुछ भी हो लेफकन िह दररर
वपता के आश्रय में पल कर इतना बड़ा नहीं हुआ है । सुरेन्र सोच रहा था
फक उस आदमी की बात क्जसे साथ भेंट करने फक शलए और क्जससे
प्राथषना करने के शलए िह जा रहा है फक िह तया प्रश्न करें गे और मैं तया
उत्तर दं ग
ू ा।

लेफकन इतनी बात सोचने का समय नहीं शमला। माशलक सामने ही बैठे
थे। सरु े न्रनाथ से बोले, ‘तया काम है ?’

आज तीन हदन से सुरेन्र यही बात सोच रहा था, लेफकन इस समय िह
सारी बातें भूल गया। बोला, ‘मैं....मैं....।’

ब्रजनाथ लाहहड़ी पि
ू ष बंगला के जमींदार है । उनके शसर के दो-चार बाल भी
पक गए है और िह बाल समय के पहले नहीं, बल्के ठीक उम्र में ही पके
हैं। बड़े आदमी हैं, इसशलए उन्होंने फौरन सरु े न्रनाथ के आने का उद्दे श्य
समझ शलया और पछ
ू ा, ‘तया चाहते हो?’

‘मझ
ु े कोई एक...!’

‘तया?’

‘नौकरी।’

ब्रजराज बाबू ने कुछ मस्


ु कुराकर कहा, ‘यह तम
ु से फकने कहा फक मैं
नौकरी दे सकता हूं?’

‘रास्ते में एक आदमी से भेंट हुई थी। मैंने उससे पछ


ू ा था और उसने
आपके बारे में....।’

‘अच्छी बात है, तम्


ु हारा मकान कहां है?’
‘पक्श्चम में’

‘िहां तम्
ु हारे कौन है ?’

सुरेन्र ने सब कुछ बता हदया।

ितषमान क्स्थतत से सुरेन्र ने एक नया ढं ग सीख शलया था। अटकते-


अटकते बोला, ‘मामूली नौकरी करते हैं।’

‘लेफकन तयोंफक उससे काम नहीं चलता इसशलए तम


ु भी कुछ कमाना
चाहते हो?’

‘जी हां।’

‘यहां कहां रहे त हो?’

‘कोई जगह तनक्श्चत नहीं है ...जहां, तहां।’

ब्रज बाबू को दया आ गई। सरु े न्र को बैठाकर उन्होंने कहा, ‘तम
ु अभी
बच्चे हो। इस उम्र में तम
ु घर छोड़ने को वििि हुए तो यह जानकर दख

होता है । हालांफक मैं तो तम्
ु हें कोई नौकरी नहीं दे सकता लेफकन कुछ एसा
उपाय कर सकता हूं फक तुम्हारी कुछ व्यिस्था हो जाए।’

‘अच्छा।’ सरु े न्र जाने लगा।

उसे जाते दे ख ब्रज बाबु ने उसे फफर बल


ु ाकर पूछा, ‘तम्
ु हें और कुछ नहीं
पूछना है ?’

‘बस इतने से ही तम्


ु हारा काम हो गया? तुमने यग तक जानने-समझने
को जरूरत नहीं समझी फक मैं तुम्हारे शलिँ तया उपाय कर सकता हूं।’
सुरेन्र सकपकाया-सा लौटकर ख़ड़ा हो गया। व्रज बाबू ने हं सते हुए पूछा,
‘अब कहा जाओगे?’

‘फकसी दक
ु ान पर।’

‘िहीं भोजन करोगे?’

‘हा, रोजाना ऐसा ही करता हूं।’

‘तम
ु ने शलखना-पढ़ना कहां तक सीखा है ?’

‘यों ही थोड़ा सा सीखा है ।’

‘मेरे लड़कों को पढा सकते हो?’

सरु े न्र प्रसन्न होकर कहा, ! ‘हा, पढ़ा सकता हूं।’

ब्रज बाबू फफस हं स पडे। उन्होंने समझ शलया फक दुःु ख और गरीबी के


कारण इसका हदमाग हठकाने नहीं है । तयोंफक बबना यह जाने-समझे ही
फक फकसे पढ़ाना होगा और तया पढ़ाना हो इस प्रकार प्रसन्न हो उठना,
उन्हे कोरा पागलपन ही जान पड़ा। उन्होंने कहा, ‘अगर मैं कहूं फक िह
बी.ए. में पढ़ता है तो तुम फकस तरह पढ़ा सकोगे?’

सरु े न्र कुछ गंभीर हो गया। सोचकर बोला, ‘फकसी तरह काम चला ही
लंग
ू ा।’

ब्रज बाबू ने कुछ और नहीं कहा। नौकर को बुलाकर बोले, ‘िंद,ू इनके
रहने के शलए जगह का इंतजाम कर दो और भोजन आहद फक व्यिस्था
भी कर दो।’
फफर िह सुरेन्र की ओर दे खकर बोले, ‘संध्या के बाद मैं तुम्हें बुलिा
लूंगा। तम
ु मेरे मकान में ही रहो। जब तक फकसी नौकरी का इंतजाम न
हो तब तक तुम मजे में यहां रह सकते हो।’

दोपहर को जब ब्रज बाबू भोजन करने गए तो उन्होंने अपनी बड़ी लडकी


माधिी को बल
ु ाकर कहा, ‘बेटी, एक गरीब आदमी को घर में रहने के
शलए जगह दे दी है ।’

‘िह कौन है बाबुजी?’

‘गरीब आदमी है , इसके अलािा और कुछ नहीं जानता। शलखना-पढ़ना


िायद कुछ जानता है , तयोंफक जब तम्
ु हारे बड़े भाई को पढ़ाने के शलए
कहा तो िह राजी हो गया जो बी.ए. तलास को पढ़ाने का साहक कर
सकता है िह कम-से-कम तुम्हारी छोटीो़ बहन को तो जरूर ही पढ़ा
सकेगा मैं सोचता हूं प्रशमला को िही पढ़ाया करे ।’

माधिी ने इस पर कोई आपवत्त नहीं की।

संध्या के बाद ब्रज बाबू ने उसे बल


ु ाकर यही बात कह दी। दस
ू रे हदन से
सरु े न्रनाथ प्रशमला को पढ़ाने लगा।

प्रशमला की उम्र सात िर्ष की है । िह ‘बोधोदय’ पढ़ती है । अपनी बड़ी दीदी


माधिी से अंग्रेजी की पहली पस्
ु तक ‘मेढ़क की कहानी’ तक पढ़ी थी। िह
कॉपी, पस्
ु तक, स्लेट, पें शसल, तस्िीर, लोजेंजस लाकर बैठ गई।

‘Do not move’ सरु े न्रनाथ ने कहा, ‘Do not mpve’ यानी हहलो मत।

प्रशमला पढ़ने लगी, ‘Do not move’ -हहलो मत।


इसके बाद सरु े न्रनाथ ने उसकी और ध्यान दे कर स्लेट खींच ली ओर
पें शसल लेकर उस पर कुछ अंक शलखने लगा-प्राब्लम पर प्राब्लम साल्ि
होने लगे और घ़ड़ी में सात के बाद आठ और आठ के बाद नो बजने लगे।
प्रशमला कभी इस करिट और कभी उस करिट होकर फकताब के तस्िीरों
िाले पन्ने उलटती, कभी लेट जाती, कभी उठकर बैठ जाती। कभी मह
ंु में
लोजेजस रखकर चस
ू ने लगती। कभी बेचारे मेंढ़क के सारे िरीर पर
स्याही पोतती हुई पढ़ती, ‘Do not move’ - हहलो मत।

‘मास्टर साहब, हम अन्दर जाए?’

‘जाओ’

उसका सुबर का समय इसी प्रकार बीत जाता। लेफकन दोपहर का काम
कुछ और ही तरह का था। ब्रज बाबू ने दया करके सरु े न्रनाथ की नौकरी
का प्रबन्ध करने के शलए कुछ भले लोगों के नाम पत्र शलख हदए थे।
सुरेन्रनाथ उन पत्रों को जेब में रखकर घर से तनकल पड़ता। पता
लगाकर उन लोगों के मकानों के सामने पहुंच जाता और दे खता फक
मकान फकतना बड़ा है । उसमें फकतने दरिाजे और झखड़फकयां हैं। बाहर
की ओर फकतने कमरे हैं। मकान दो मंक्जला है या तीन मंक्जला। सामने
कोई रोिनी का खभ्भा हे या नहीं, आहद। इसके बाद संध्या होने से पहले
ही घर लौट आता।

कलकत्ता आने पर सरु े न्रनाथ ने कुछ पस्


ु तकें खरीदी थीं। उनके अलािा
कुछ पस्
ु तकें घर से भी ले आया था। गैस की रोिनी मैं बैठकर िह उन्हीं
पुस्तकों को पढ़ता रहता। ब्रज बाबू अगर कभी उससे काम-धन्धे की बात
पूछते तो या तो िह चुप रह जाता या कह हदया करता फक उन सज्जन से
भेंट नहीं हुई।

प्रकरण 3

लगभग चार िर्ष हुए, ब्रजराज बाबु की पत्नी का स्िगषिास हो गया था।
बंढ़
ु ापे के पत्नी वियोग का दुःु ख बढ़
ू े ही समझ सकते है, लेफकन इस बात
को जाने दीक्जए। उनकी लाडली बेटी माधिी इस सोलह िर्ष की उम्र में
अपना पतत गंिा बैठी है । उससे अपना पतत गंिा बैठी है । उससे ब्रजराज
बाबू के बदन का आधा लहू सूख गया है। उन्होंने बड़े िौक और धूमधाम
से अपनी कन्या का वििाह फकया था। िह स्ियं धन सम्पन्न थे, इसशलए
उन्होंने धन की ओर बबल्कुल ध्यान नही हदया। लड़के के पास धन-
सम्पवत्त हे या नहीं, इसकी खोज नहीं की। केिल यह दे खा फक लड़का
शलख-पढ़ रहा है, सन्
ु दर है, सि
ु ील है, सीधा-साधा है । बस यही दे खकर
उन्होंने माधिी का वििाह कर हदया था।

ग्यारह िर्ष की उम्र में माधिी का वििाह हुआ था। तीन िर्ष तक यह
अपने पतत के यहां रही। प्यार, दल
ु ार सब कुछ उसे शमला था, लेफकन
उसके पतत योगेन्रनाथ जीवित नहीं रहे । माधिी के इस जीिन के सारे
अरमानों पर पानी फेरकर और ब्रजराज बाबू के कलेजे में बछी भोंककर
िह स्िगष शसधाए गए। मरने के समय जब माधिी फूट-फूट कर रोने
लगी, तब उन्होंने बहुत ही कोलम स्िर में कहा था, ‘माधिी! मुझे इसी
बात का सबसे अधधक दुःु ख नहीं, दुःु ख है तो इस बात का फक तुम्हें जीिन
भर कष्ट भोगने पड़ेगे। मैं तम्
ु हें आदर-सम्मान कुछ भी तो नहीं दे
सका...।’
इसके बाद योगेन्रनाथ के सीने पर आंसुओं की धारा बह चली थी।
माधिी ने उनके आंसू पोंछते हुए कहा था, ‘जब मैं फफर तम्
ु हारे चरणों में
आकर शमलूं तब आदर मान दे ना...।’

योगेन्रनाथ ने कहा था, ‘माधिी, जो जीिन तुम मेरे सुख के शलए


समवपषत करती, िह जीिन अब सभी के सुख के शलए समवपषत कर दे ना।

क्जनके चेहरे पर दुःु ख और उदासी हदखाई दे , उसी चेहरे को प्रफुक्ल्लत


करने का प्रयत्न करना। और तयां कहूं माधिी...।’ इसके बाद फफर आंसू
मचलकर बहने लगे। माधिी ने उन्हें फफर पोंछ हदया।

‘तम
ु सत्यथ पर रहना। तम्
ु हारे पण्
ु य प्रताप से ही मैं तम्
ु हे फफर
पासकंू गा।’

तभी में माधिी बबल्कुल बदल गई है । क्रोध, द्िेर्, हहंसा आहद जो भी


उसके स्िभाि में िाशमल थे, उन सबको उसने अपने स्िामी की धचता की
भस्म के साथ-साथ सदा-सदा-सिषदा के शलए गंगा जल में प्रिाहहत कर
हदया है । जीिन में जो भी साध और आकांक्षाएं होती हैं विधिा हो जानें
पर कहीं चली नहीं जातीं। जब मन में कोई साध शसर उठाती है तो िह
अपने स्िामी की बात सोचने लगती है । जब िह नहीं है तब फफर यह सब
तयों? फकसके शलए दस
ू रों से डाह करू? फकससे शलए दस
ू रों की आंखों के
आंसू बहाऊं? और िह सब हीन प्रिवृ त्तयां उसमें कभी थी भी नहीं, िह बड़े
आदमी की बेटी है । ईष्याष-द्िेर् उसने कभी सीखा भी नहीं था।’

उसके बगीचे में बहुत से फूल झखलते हैं। पहले िह उन फूलों की माला
गूंथकर अपने स्िामी के गले में पहनाती थी, लेफकन अब स्िामी नहीं है,
इसशलए उसने फूलों के पेड-पौधे कटिाए नहीं। अब भी उन पर उसी
प्रकार फूल झखलते है , लेफकन िह धरती पर धगर कर मुरझा जाते है । अब
िह उन फूलों की माला नहीं वपरोती। उन सबको इकट्ठा करके अंजूली
भर-भरकर दीन-दझु खयों के बांट दे ती है। क्जनके पास नहीं है , उन्हीं को
दे ती है । इसमें जरा भी कंजस
ू ी नहीं करती, जरा भी मंह
ु भारी नहीं करती।

क्जस हदन ब्रज बाबू की पत्नी परलोक शसधारीं उसी हदन से इस घर में,
कोई व्यिस्था नहीं रह गई थी। सभी लोग अपनी-अपनी धचन्ता में रहते।
कोई फकसी की ओर ध्यान न दे ता। सभी के शलए एक-एक नौकर मक
ु रष र
था। हर नौकर केिल अपने माशलक का काम करता था। रसोई घर में
रसोइया भोजन बनाता ओर एक बड़े अन्न सत्र की तरह सब अपनी-
अपनी पत्तल बबछाकर बैठ जाते। फकसी को खाना शमल पाता, फकसी को
न शमल पाता। कोई इस बात को जानने का प्रयत्न भी न करता।

लेफकन क्जस हदन माधिी भादों मास की गंगा की तरह अपना रूप, स्नेह
और ममता लेकर अपने वपता के घर लौट आई, उसी हदन से धर में एक
नया बसन्त लोट आया। सभी लोग उसे बड़ी बहन कहकर पुकारते हैं। घर
का पालतू कुत्ता तक िाम को एक बार बड़ी बहन को अिश्य दे खना
चाहता है । मानो इतने आदशमयों में से उसने भी एक को स्नेहमयी और
दयामयी मनाकर चन
ु शलया है । घर के माशलक से लेकर नायब, गम
ु ाश्ते,
दास-दाशसयां बड़ी दीदी पर ही तनभषर रहते हैं। कारण कुछ भी हो, लेफकन
सभी के मन यह धारणा बैठ गई है फक बड़ी दीदी पर हमारा कुछ वििेर्
अधधकार है ।
स्िगष का कल्पतरु हममें से फकसी ने कभी नहीं दे खा। यह भी नहीं जानते
फक कभी दे ख पाएंगे या नहीं। इसशलए उसके बारे में कुछ कह नहीं
सकते। लेफकन ब्रज बाबू की गहृ स्थी के सभी लोगों ने एक कल्पिक्ष
ृ पा
शलया है । उसी कल्पिक्ष
ृ के नीचे आकर िह हाथ फैलाते हैं और मनचाही
िस्तु पाकर हं सते हुए लौट जाते है ।

इस प्रकार के पररिार के बीच सरु े न्रनाथ ने एक नए ढं ग का जीिन


व्यततत करने का मागष दे खा। जब सभी लोगों ने सारा भार एक ही
व्यक्तत पर डाल रखा है तो उसने भी िैसा ही फकया, लेफकन अन्य लोगों
की अपेक्षा उसकी धारणा कुछ और ही प्रकार की है । िह सोचता है फक
‘बड़ी दीदी’ नाम का एक जीवित पदाथष इस धर में रहता है । िही सबको
दे खता-सुनता है । सबके नाज-नखरे बदाषश्त करता है और क्जस-क्जस
चीज की आिश्यकता होती है , िह उसे शमल जाती है । कलकत्ता की सड़को
पर धम
ू -धम
ू कर उसने अपनी धचन्ता करने की आिश्यकता थोड़ी-सी
ो़
जानी-समझी थी, लेफकन इस घर में आने पर िह इस बात को एकदम
भल
ू गया फक कोई एसा हदन भी था जब मझ
ु े स्ियं अपनी धचन्ता करनी
पड़ी थी या भविष्य में फफर कभी करनी पड़ेगी।’

कुताष, धोती, जूता, छाता, घड़ी-जो कुछ भी चाहहए सभी उसके शलए
हाक्जर है । रुमाल तक कोई उसके शलए अच्छी तरह सजाकर रख जाता
है । पहले कौतह
ू ल होता था और िह पछ
ू ता था, ‘यह सब चीजें कहां से
आई।’ उत्तर शमलता, ‘बड़ी दीदी ने भेजी है ।’ आजकल जलपान की प्लेट
तक दे खरक िह समझ लेता है फक यह बड़ी दीदी ने ही बड़े प्रयत्न से
सजाया है ।
गझणत के प्रश्न हल करने बैठा तो एक हदन उसे कम्पास का ख्याल आया
उसने प्रशमला से कहा, ‘प्रशमला, बड़ी दीदी के यहां से कम्पास लाओ।’

बड़ी दीदी को कम्पास से कोई काम नहीं पड़ता इसशलए उसके पास नहीं
था। लेफकन उसने तत्काल ही आदमी को बाजार भेज हदया। संध्या को
सुरेन्रनाथ टहलकर लौटा तो उसने दे खा-टे बल पर िांतछत िस्तु रखी हैं।
दस
ू रे हदन सिेरे प्रशमला ने कहा, ‘मास्टर साहब, बडी बहन ने िह भेज
हदया है ।’

इसके बाद बीच-बीच में एकाध चीज एसी मांग बैठता क्जसके शलए
माधिी बड़ी संकट में पड़ जाती। बहुत खोज करती तब कहीं जाकर
प्राथषना परू ी कर पाती। फफर भी यह कभी न कहती फक मैं यह चीज नहीं दे
सकंू गी।

कभी िह अचानक ही प्रशमला से कह बैठता, ‘बड़ी दीदी से पांच परु ानी


धोततयां ले आओ, शभखाररयों को दे नी हैं।’ नई और परु ानी धोततयां
छांटने की फुसषत माधिी को हर समय नहीं रहती। इसशलए िह पहनने
की ही पांच धोततयां भेज दे ती और फफर ऊपर की झखड़की से दे खती फक
चार-पांच गरीब जय-जयकार करते चले जा रहे हैं। उन लोगों को कपड़े
शमल गए हैं।

सरु े न्रनाथ के इस प्रकार के छोटे -मोटे आिेदन रूपी अत्याचार तनत्य ही


माधिी को सहने पड़ते, लेफकन धीरे -धीरे माधिी को इन सब बातों का
ऐसा अभ्यास हो गया फक अब उसे कभी खयाल ही नहीं आता फक उसके
घर में कोई नया आदमी आकर तनत्य प्रतत के कामों में नई तरह के छोटे -
मोटे उपरि मचा रहा है ।
केिल यही नहीं, इस नये व्यक्तत के शलए आजकल माधिी को बहुत ही
सतकष रहना पड़ता है । काफी खोज-खबर लेनी पड़ती है । यहद िह अपनी
जरूरत की सभी चीजें स्ियं मांग शलया करता तो माधिी की महे नत
आधी कम हो जाती, लेफकन सबसे बड़ी धचन्ता फक बात यह है फक िह
अपने शलए कभी कोई चीज मांगता ही नहीं। पहले माधिी यह नहीं जान
सकी फक सरु े न्रनाथ उदासीन प्रकृवत्त का आदमी है । सब
ु ह की चाय ठण्डी
हो जाती और िह पीता ही नहीं। जलपान को छूने तक का उसे ध्यान न
रहता। कभी-कभी कुत्ते की झखला दे ता। खाने बैठता तो खाने की चीजों का
रत्ती भर भी सन्मान न करता एक और हटाकर, नीचे डालकर, तछपाकर
रख जाता, जैसे उसे कोई बी चीज न रुचती हो। नौकर-चाकर कहते,
‘भास्कर साहब तो पागल हैं, न कुछ दे खते हैं, न कुछ जानते हैं। बस
फकताब शलए बैठे रहते है ।’

ब्रज बाबू बीच-बीच में पूछते फक नौकरी की कोई व्यिस्था हुई या नहीं।
सुरेन्र इस प्रश्न का कुछ यों ही-सा उत्तर दे हदया करता। माधिी यह सब
बातें अपने वपता से सन
ु ती और समझ जाती फक मास्टर साहब नौकरी
पाने का रत्ती भर प्रयत्न नहीं करते। इच्छी भी नहीं है । जो कुछ शमल गया
है उसी से संतुष्ट हैं।

सिेरे दस बजे ही बड़ी बहन की और से स्नान और भोजन का तकाजा आ


जाता। अच्छी तरह भोजन न करने पर बड़ी दीदी की ओर से प्रशमला
आकर शिकायत कर जाती। अधधक रता तक फकताब शलए बैठे रहने पर
नौकर आकर गैस की चाबी बन्द कर दे ता। मना करने पर अनसुना कर
दे ता। कहता, ‘बड़ी बहन का हुम्ु् क है ।’
एक हदन माधिी ने अपने वपता से हंसते हुए कहा, ‘बाबूजी, जैसी प्रशमला
है , ठीक िैसे ही उसके मास्टर साहब हैं।’

‘तयों बेटी?’

‘दोनों ही बच्चे हैं। क्जस तरह प्रशमला नहीं समझती फक उसे कब फकस
चीज की आिश्यकता है , कब खाना चाहहए, कब तया काम करना उधचत
है , उसके मास्टर भी िैसे ही हैं। अपनी आिश्यकताओं को नहीं जानते।
फफर भी असमय एसी चीज मांग बैठते हैं फक होिहिास ठीक रहने की
हालत में कोई व्यक्तत उसे नहीं मांग सकता।’

ब्रज बाबू कुछ समझ नहीं सके। माधिी के मंह


ु की ओर दे खते रहे ।

माधिी ने हंसेत हुए पूठा, ‘तुम्हारी बेटी प्रशमला समझती है फक उसे कब


फकस चोज की जरूरत है ?’

‘नहीं समझती।’

‘ओर असमय उत्पात करती है ।’

‘हां, सो तो करती है।’

‘मास्टर साहब भी ऐसा ही करते है ।’

ब्रज बाबू ने हंसते हुए कहा, ‘मालम


ू होता है फक लड़का कुछ पागल है ।’

‘पागल नहीं है । जान पड़ता है फकसी बड़े आदमी के लड़के हैं।’

ब्रज बाबू ने चफकत होकर पूछा, ‘कैसे जाना?’


माधिी जानती नहीं थी, केिल समझती थी। सरु े न्र अपना एक भी काम
स्ियं नहीं कर सकता था। िह हं मेिा दस
ू रों पर तनभषर रहता था। अगर
कोई दस
ू रा कर दे ता है तो काम हो जाता है और अगर नहीं करता तो नहीं
होता। कायष करने की क्षमता न होने के कारण ही माधिी उसे जान गइ
है । िह सोचती है फक आरं भ से ही उसमें काम करने की आदत नहीं है ।
वििेर् रूप से उसके नए ढं ग से खाना खाने के तरीकों ने माधिी को और
भी अधधक चफकत कर हदया है । खाने की कोई-सी चीज उसे अपनी ओर
पूरी तरह आकवर्षत नहीं कर पाती। कोई भी चीज िह भरपेट नहीं खाता।
फकसी चीज के खाने की रुधच नहीं होती। उसका यह बूढ़ों जैसा िैराग्य,
बच्चों जैसी सरलता, पागलों जैसी उपेक्षा...। कोई खाने को दे दे ता है तो
खा लेता है , नहीं दे ता तो नहीं खाता। यह सब माधिी को बहुत ही
रहस्यपण
ू ष जाने पड़ता है , और इसशलए उसके मन में उसके प्रतत दया
और करुणा जाग उठी है । िह फकसी की और दे खता नहीं, इसका कारण
लज्जा नहीं, बक्ल्क उसे आिश्यकता ही नहीं होती इसशलए िह फकसी की
भी ओर नहीं दे खता, लेफकन जब उसे आिश्यकता होती है तो उसे समय
और असमय का ध्यान ही नहीं रहता। एकदम बड़ी दीदी के पास उसका
तनिेदन आ पहुंचता है । उसे सुनकर माधिी मस्
ु कुराती और सोचती फक
यह आदमी बबल्कुल बालकों जैसा सरब सीधा-सादा है ।

प्रकरण 4

मनोरमा माधिी की सहे ली है । बहुत हदनों से उसने मनोरमा को कोई पत्र


नहीं शलखा था। अपने पत्र का उत्तर न पाकर मनोरमा रूठ गई थी। आज
दोपहर को कुछ समय तनकालकर माधिी उसे पत्र शलखने बैठी थी।
तभी प्रशमला ने आकर पक
ु ारा, ‘बड़ी दीदी।’

माधिी ने शसर उठाकर पछ


ू ा, ‘तया है री?’

‘मास्टर साहब का चश्मा कहीं खो गया है, एक चश्मा दो।’

माधिी हं स पड़ी, बोली, ‘जाकर अपने मास्टर साहब को कह दे फक तया


मैंने चश्मों की कोई दक
ु ान खोल रखी है?’

प्रशमला दौड़कर जडाने लगी तो माधिी ने उसे पक


ु ारा, ‘कहा जा रही है?’

‘उनसे कहने।’

‘इसके बजाय गुमाश्ता जी को बुला ला।’

प्रशमला जाकर गम
ु ाश्ता जी को बल
ु ा लाई। माधिी ने उनसे कहा, ‘मास्टर
साहब का चश्मा खो गया है । उन्हें एक अच्छा-सा चश्मा हदलिा दो।’

गम
ु ाश्ता जी के चले जाने के बाद िह फफर मनोरमा को पत्र शलखने लगी,
पत्र के अन्त में उसने शलखा-

‘प्रशमला के शलए बाबूजी ने एक टीचर रखा है , उसे आदमी भी कह सकते


हैं और छोटा बालक भी कह सकते हैं। ऐसा जान पड़ता है फक इससे पहले
िह घर से बाहर कभी नहीं रहा। संसार का कुछ भी नहीं जानता। अगर
उसका ध्यान न रखा जाए, उसकी दे ख-रे ख न की जाए तो पलभर भी
उसका काम नहीं चल सकता। मेरा लगभग आधा समय उसने छीन रखा
है , तुम्हें पत्र कब शलखूं। अगर तुम जल्दी आईं तो मैं इस अकमषण्य
आदमी को हदखा दं ग
ू ी। ऐसा तनकम्मा और नकारा आदमी तुमने अपने
जीिन में नहीं दे खा होगा। खाना हदया जाता है तो खा लेता है िरना
चुपचाप उपिास करके रह जाता है िायद हदन भर भी उसे इस बात का
ध्यान नहीं आता फक उसने खाना खाया हे या नहीं। एक हदन भी िह
अपना काम आप नहीं चला सकता, इसशलए सोचती हूं की ऐसे लोग घर
से बाहर तनकलते ही तयों हैं? सन
ु ा है, उसके माता-वपता हैं। लेफकन मझ
ु े
तो ऐसा लगता है फक उसके माता-वपता इन्सान नहीं पत्थर हैं। मैं तो
िायद ऐसे आदमी को कभी आंख की ओट भी नहीं कर सकती।’

मनोरमा ने मजाक करते हुए उत्तर हदया- ‘तुम्हाके पत्र से अन्य समाचारों
के साथ यह भी मालम
ू हुआ की तम
ु ने अपने घर में एक बन्दर पाल शलया
है और तम
ु उसकी सीता दे िी बन बैठी हो। फफर भी सािधान फकए दे ती हूं-
तुम्हारी मनोरमा।’

पत्र पढ़कर माधिी उदास हो गई। उसने उत्तर में शलख हदया, ‘तम

मह
ु ं जली हो, इसशलए िह नहीं जानती फक फकसके साथे केसा मजाक
करना चाहहए।’

प्रशमला से माधिी ने पूछा, ‘तुम्हारे मास्टर का चश्मा कैसा रहा?’

प्रशमला ने कहा, ‘ठीक रहा।’

‘मास्टर साहब उस चश्मे को लगातार खब


ू मजे से पढ़ते हैं। इसी से
मालम
ू हुआ।’

‘उन्होंने खद
ु कुछ नहीं कहा?’ माधिली ने पछ
ू ा।

‘नहीं, कुछ नहीं।’

‘कुछ भी नहीं कहा? अच्छा है या बरु ा है?’


‘नहीं, कुछ नहीं कहा।’

माधिी का हर समय प्रफुक्ल्लत होने िाला चहे रा पलभर के शलए उदास


हो गया, लेफकन फफर तरु न्त ही हंसते हुए बोली, ‘अपने मास्टर साहब से
कह दे ना फक अपना चश्मा फफर कहीं न खो दें ।’

‘अच्छा कह दं ग
ू ी।’

‘धत ु् पगली, भला ऐसी बातें भी कहीं कही जाती हैं। िायद िह अपने मन
में कुछ खयाल करने लगें ।’

‘तो फफर कुछ भी न कहुं?’

‘हां, कुछ मत कहना।’

शििचन्र माधिी का भाई है । एक हदन माधिी ने उससे पूछा, ‘जानते हो,


प्रशमला के मास्टर रात-हदन तया पढ़ते रहते है ?’

शििचन्र बी.ए. पढ़ता था। प्रशमला के तुच्छ मास्टर जैसों को िह कुछ


समझता ही नहीं था। उपेक्षा से बोला, ‘कुछ नाटक-उपन्यास पढ़ते रहते
होंगे। और तया पढें गे?’

लेफकन माधिी को इस बात पर विश्िास नहीं हुआ। उसने प्रशमला के


द्िारा सरु े न्र की एक पुस्तक चोरी से मंगिा ली और अपने भाई के हाथ
में दे कर बोली, ‘मझ
ु े तो यह नाटक या उपन्यास नहीं हदखाइ दे ता।’

शििचन्र ने सारी पस्


ु तक उलट-पुलट कर दे खी लेफकन उसकी समझ में
कुछ नहीं आया। बस इतना ही समझ पाया फक िह इस पस्
ु तक का एक
भी अक्षर नहीं जानता और यह कोई गझणत की पस्
ु तक है ।
लेफकन बहन के सामने अपना सम्मान नष्ट करने की इच्छा नहीं हुई।
उसने कहा, ‘यह गझणत की पुस्तक है । स्कूल में छोटी तलासों में पढायी
ो़
जाती है ।’

दुःु खी होकर माधिी ने पूछा, ‘तया यह फकसी ऊंची तलास की पस्


ु तर नहीं
है ? तया कॉलेज में पढ़ायी जाने िाली पुस्तक नहीं है ?’

शििचन्र ने रुखे स्िर से उत्तर हदया, ‘नहीं, बबलकुल नहीं।’

लेफकन उस हदन से शििचन्र सुरेन्रनाथ के सामने कभी नहीं पड़ता।


उसके मन में यह डर बैठ कया है फक कहीं एसा न हो फक िह कोई बात
पछ
ू बैठे, ‘क्जससे सारी बातें खल
ु जाएं और फफर वपता की आज्ञा से उसे
भी सिेरे प्रशमला के साथ मास्टर साहब के पास कॉपी, पें शसल लेकर
बैठना पड़े।’

कुछ हदन बाद माधिी ने वपता से कहा, ‘बाबज


ू ी, मैं कुछ हदनो के शलए
कािी जाऊंगी।’

ब्रज बाबू धचक्न्तत हो उठे , ‘तयो बेटी, तुम कािी चली जाओगी तो इस
गह
ृ स्थी का तया होगा?’

माधिी हं सकर बोली, ‘मैं लौट आऊंगी। हं मेिा के शलए थोड़े ही जा रही
हूं।’

माधिी तो हंस पड़ी लेफकन वपता की आंखे छलक उठी।

माधिी ने समझ शलया फक ऐसा कहना उधचत नहीं हुआ। बात संभालने
के शलए बोली, ‘शसफष कुछ हदन घम
ू आऊंगी।’
‘तो चली जाओ, लेफकन बेटी यह गहृ स्थी तुम्हारे बबना नहीं चलेगी।’

‘मेरे बबना गह
ृ स्थी नहीं चलेगी?’

‘चलेगी तयों नहीं बेटी! जरूर चलेगी, लेफकन उसी तरह क्जस तरह
पतिार के टूट जाने पर नाि बहाि की ओर चलने लगती है ।’

लेफकन कािी जाना बहुत ही आिश्यत था। िहां उसकी विधिा ननद
अपने इकलौते बेटे के साथ रहे ती है । उसे एक बार दे खना जरूरी है ।

कािी जाने के हदन उसने हर एक को बल


ु ाकर गहृ स्थी का भार सौंप
हदया। फकसी दासी को बुलाकर वपता, भाई, और प्रशमला की वििेर् रुप से
दे खभाल करने की हहदायक दी लेफकन मास्टर साहब के बारे में फकसी से
कुछ नहीं कहा। ऐसा उसने भल
ू कर साहब के बारे में फकसी से कुछ नहीं
कहा। एसा उसने भल
ू कर नहीं बक्ल्क जान बझ
ू कर फकया था। इस समय
उस पर उसे गस्
ु सा भी आ रहा था। माधिी ने उसके शलए बहुत कुछ फकया
है , लेफकन इस समय उसने मंह
ु से एक िब्द भी कहकर कृतज्ञता प्रकट
नहीं की, इसशलए माधिी विदे ि जाकर इस तनकम्मे, संसार से अनजान
और उदासीन मास्टर को जतलाना चाहती है फक मैं भी कोई चीज हूं।
जरा-सा मजाक करने में हजष ही तया है? यह दे ख लेके में हातन ही तया है
उसके यहां न होने पर मास्टर के हदन फकस तरह कटते हैं? इसशलए िह
कािी जाते समय फकसी से सरु े न्र के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कह गई।

सुरेन्रनाथ उस समय कोई प्राब्लम साल्ब कर रहा था। प्रशमला ने कहा,


‘रात को बड़ी बहन कासी चली गई।’
प्रशमला की बात उसके कानों तक नहीं पहुंची। उसने इस बात पर कोई
ध्यान नहीं हदया।

लेफकन तीन हदन के बाद जब उसने दे खा फक दस बजे भोजन के शलए


कोई आग्रह नहीं करता। फकसी-फकसी हदन एक और दो बज जाते हैं।
नहाने के बाद धोती पहनते समय पता चलता है फक धोती पहले की तरह
साफ नहीं है । जलपान की प्लेट पहले की तरह सजाई हुई नहीं है । रात को
गैस की चाबी बन्द करने के शलए अब कोई नहीं आता। पढ़ने की झोंक में
रात के दो और तीन-तीन बज जाते हैं, सब
ु ह जल्दी नींद नहीं खल
ु ती।
उठने में दे र हो जाती है । हदन भर नींद आंखो की पलके छोड़कर जाना ही
नहीं चाहती और िरीर मानो बहुत ही शिधथल हो गया है । तब उसे पता
चला फक इस गह
ृ स्थी में कुछ पररितषन हो गया है । जब इंसान को गमी
महसस
ू होती है , तब िह पंखे की तलाि करता है ।

सरु े न्रनाथ ने पस्


ु तक पर से नजर हटा कर पछ
ू ा, ‘तयों प्रशमला, तया बड़ी
बहन यहां नहीं है ?’

उसने कहा, ‘िह कािी गई है ।’

‘ओह, तभी तो।’

दो हदन के बाद उसने अचानक प्रशमला की ओर दे खकर पछ


ू ा, ‘बड़ी बहन
कब आएगी?’

सरु े न्रनाथ ने फफर पस्


ु तक की ओर ध्यान लगाय हदया और भी पांच हदन
बीत गए। सरु े न्रनाथ ने पैंशसल पस्
ु तक के ऊपर रखकर पछ
ू ा ‘प्रशमला,
एक महहने में और फकतने हदन बाकी हैं।’
‘बहुत हदन।’

पैंशसल उठाकर सरु े न्रनाथ ने चश्मा उतारा। उसके दोनों िीिे साफ फकए
और फफर खाली आंखो से पुस्तक की ओर दे खने लगा।

दस
ू रे हदन उसने पछ
ू ा, ‘प्रशमला, तम
ु बड़ी बहन की धचठ्ठी नहीं शलखती?’

‘शलखती तयो नहीं?’

‘जल्दी आने के शलए नहीं शलखा?’

‘नहीं।’

सुरेन्रनाथ ने गरही सांस लेकर कहा, ‘तभी तो।’

प्रशमला बोली, ‘मास्टर साहब, अगर बड़ी बहन आ जाए तो अच्छा होगा?’

‘हां, अच्छा होगा।’

‘आने के शलए शलख दं ?ू ’

‘हा, शलख दो।’ सरु े न्रनाथ ने खि


ु होकर कहा।

‘आपके बारे में भी शलख दं ?ू ’

‘शलख दो।’

उसे ‘उसे शलख दो’ कहने में फकसी प्रकार की दवु िधा महसस
ू नहीं हुई।
तयोंफक िह कोई भी लोक व्यिहार नहीं जानता। उसकी समझ में यह
बात बबल्कुल नहीं आई फक बड़ी बहन से आने के शलए अनुरोध करना
उसके शलए उधचत नहीं है, सुनने में भी अच्छा नहीं लगता, लेफकन
क्जसके न रहने से उसे बहुत कष्ट होता है और क्जसके न होने से उसका
काम नहीं चलता, उसे आने के डरा भी अनुधचत प्रतीत नहीं हुआ।

इस संसार में क्जन लोगों में कौतूहल कम होता है िह साधारण मानि


समाज से कुछ बहार होते हैं। क्जस हदल में साधारण लोग रहते है, उस
दल के साथ उन लोगों का मेल नहीं बैठता। साधारण लोगों के विचारों से
उनके विचार नहीं शमलते। सुरेन्रनाथ के स्िभाि में कौतह
ु ल िाशमल
नहीं है । उसे क्जतना जानना आिश्यक होता है िह बस उतना ही जानने
की चेष्टा करता है । इससे बाहर अपनी इच्छा से एक कदम भी नहीं
रखना चाहता। इसके शलए उसे समय भी नहीं शमल पाता, इसशलए उसे
बड़ी बहन बारे मे कुछ भी मालूम नहीं था।

इस पररिार में उसके इतने हदन बीत गए। इत तीन महीनों तक अपना
सारा भार बड़ी दीदी पर छोड़कर अपने हदन बड़े सख
ु से बबता हदए।
लेफकन उसके मन में यह जानने की रत्ती भर भी क्जज्ञासा नहीं हुई फक
बड़ी दीदी नाम का प्राणी कैसा है ? फकतना बड़ा है ? उसकी उम्र तया है ?
दे खने में कैसा है ? उसमें तया-तया गुण है ? िह कुछ भी नहीं जानता?
जानने की इच्छा भी नहीं हुई और कभी ध्यान भी आया।

सब लोग उसे बड़ी दीदी कहते हैं, सो िह भी बड़ी दीदी कहता है । सभी उस
स्नेह करते हैं, उसका सम्मान करते हैं। िह भी करता है। उसके पास
संसार की हर िस्तु का भंडार भरा पड़ा है । जो भी मांगता है, उसे शमल
जाता है और यहद उसक भंडार में से सरु े न्र ने भी कुछ शलया है तो इसमे
अचम्भे की बात कौन-सी है । बादलों का काम क्जस तरह पानी बरसाना
है , उसी तरह बड़ी दीदी का काम सबसो स्नेह करना और सबकी खोज-
खबर रखना है । क्जस समय िर्ाष होती है , उस समय जो भी हाथ बढ़ता है
उसी को जब शमल जाता है । बड़ी दीदी के सामने हाथ फैलाने भी पर जो
मांगो शमल जाता है। जैसे िह भी बादलों की तरह नेत्रों, कामनाओं और
आकांक्षाओं से रहहत है । अच्छी तरह विचार करके उसने अपने मन में
इसी प्रकार की धारणा बना रखी है । आज भी िह जान गया है फक उनके
बबना उसका काम एक पल भी नहीं चल सकता।

िह जब अपने घर था तब या तो अपने वपता को जानता था या विमाता


को। िह यह भी समझता था फक उन दोनों के कतषव्य तया हैं। फकसी बड़ी
दीदी के साथ उसका कभी पररचय नहीं हुआ था और जबसे पररचय हुआ
है तब से उसने उसे ऐसा ही समझा है, लेफकन बड़ी दीदी नाम के व्यक्तत
को न तो िह जानता है और न पहचानता है । िह केिल उनके नाम को
जाना है और नाम को ही पहचानता है। व्यक्तत का जैसे कोई महत्ि ही
नहीं है, नाम ही सब कुछ है ।

लोग क्जस प्रकार अपने इष्ट दे िता को नहीं दे ख पाते, केिल नाम से ही
पररधचत होते हैं। उसी नाम के आगे दुःु ख और कष्ट के समय अपना
सम्पण
ू ष ह्दय खोलकर रख दे ते हैं, नाम के आगे घट
ु ने टे क कर दया की
शभक्षा मांगते हैं, आंखों मे आंसू आते हैं तो पोंछ डालते है और फफर सूनी-
सन
ू ी नजरों से फकसी को दे खना चाहते हैं लेफकन हदखाई नहीं दे ता।
अस्पष्ट क्जह्िा केिल दो-एक अस्फुट िब्दों का उच्चारण करके ही रुक
जाती है । ठीक इसी प्रकार दुःु ख पाने पर सरु े न्रनाथ स्फुर िब्दों में पक
ु ार
उठा-बड़ी दीदी।
तब तक सूयष उदय नहीं हुआ था। केिल आकाि में पूिी छोर पर उर्ा की
लाशलमा ही फैली थी। प्रशमला ने आकर सोए हुए सरु े न्रनाथ का गला
पकड़ कर पुकारा, ‘मास्टर साहब?’

सुरेन्रनाथ की नींद से बोझझल पलकें खुल गई, ‘तया है प्रशमला?’

‘बड़ी दीदी आ गई।’

सुरेन्रनाथ उठकर बैठ गया। प्रशमला का हाथ पकड़कर बोला, ‘चलो दे ख


आएं?’

बड़ी दीदी को दे खने की इच्छा उसके मन में फकस तरह पैदा हुई, कहा नहीं
जा सकता और यह भी समझ में नहीं आता फक इतने हदनों बाद यह
इच्छा तयों पैदा हुई। प्रशमला का हाथ थामकर आंखें मलता हुआ अंदर
चला गया। माधिी के कमरे के सामने पहुंचकर प्रशमला ने पक
ु ारा, ‘बड़ी
दीदी?’

बड़ी दीदी फकसी काम में लगी थी। बोली, ‘तया, है प्रशमला?’

‘मास्टर साहब...।’

िह दोनों कमरे में पहुच चक


ु े थे। माधिी हड़बडाकर खड़ी हो गई और शसर
पर एक हाथ लम्बा घंघ
ू ट खींचकर जल्दी से एक काने में झखसक गई।

सुरेन्रनाथ ने कहा, ‘बड़ी दीदी, तम्


ु हारे चले जाने पर मैं बहुत कष्टय...।’

माधिी ने घूंघट की आड़ में अत्यन्त लज्जा के कारण अपनी जीभ


काटकर मन-ही-मन कहा, ‘छी!’ ‘छी!’
‘तुम्हारे चले जाने पर...।’

माधिी मन-ही-मन कह उठी, ‘फकतनी लज्जा की बात है ।’ फफर धीरे से


बड़ी नमी से बोली, ‘प्रशमला, मास्टर साहब से बाहर जाने के शलए कह दे ।’

प्रशमला छोटी होने पर भी अपनी बड़ी दीदी के व्यिहार को दे खकर समझ


गई फक यह काम अच्छा नहीं हुआ। बोली, ‘चशलए मास्टर साहब।’

सुरेन्र कुछ दे र हतका-बतका खड़ा रहा, फफर बोला, ‘चलो।’

िह अधधक बातें करना नहीं जानता था, और अधधक बातें करना भी नहीं
चाहता था, लेफकन हदन भर बादल छाए रहने के बाद जब सूयष तनकलता
है तो क्जस तरह बरबर सब लोग उसकी ओर दे खने लगते है और पलभर
मे शलए उन्हें इस बात का ध्यान नहीं रहता फक सूयष को दे खना उधचत
नहीं है या उसकी ओर दे खने से उसकी आंखों में पीड़ा होगी, ठीक उसी
प्रकार एक मास तक बादलों से धधर आकाि के नीचे रहे ने के बाद जब
पहले पहल सय
ू ष चमका तो सरु े न्रनाथ बड़ी उत्सक
ु ता और प्रसन्नता से
उसे दे खने के शलए चला गया था, लेफकन िह यह नहीं जानता था फक
इसका पररणाम यह होगा।

उसी हदन से उसकी दे ख-रे ख में कुछ कमी होने लगी। माधिी कुछ लजाने
लगी, तयोंफक इस बात को लेकर बबन्दम
ु ती मौसी कुछ हंसी थी।
सुरेन्रनाथ बी कुछ संकुधचत-सा हो गया था। िह महसूस करने लगा था
फक बड़ी दीदी का असीशमत भंडार अस सीशमत हो गया है । बहन की दे ख-
रे ख और माता का स्नेह उसे नहीं शमल पाता। कुछ दरू -दरू रहकर हट
जाता है ।
एक हदन उसने प्रशमला से पूछा, ‘बड़ी दीदी मझ
ु से कुछ नाराज है ?’

‘हा।’

‘तयों भला?’

‘आप उस हदन घर के अन्दर इस तरह तयों चले गए थे?’

‘जाना नहीं चाहहए था, तयों?’

‘इस तरह जाना होता है कही? बहन बहुत नाराज हुई थी।’

सुरेन्रनाथ ने पस्
ु तक बन्द करके कहा, ‘यही तो।’

एक हदन दोपहर को बादल धधर आए और खब


ू जोरों की िर्ाष हुई।
ब्रजराजबाबू आज दो हदन से मकान पर नहीं हैं। अपनी जमींदारी दे खने
गए हैं। माधिी के पास कोई काम नहीं था। प्रशमला बहुत िरारतें कर रही
थी। माधिी ने कहा, ‘प्रशमला अपनी फकताब ला। दे खूं तो कहां तक पढ़ी
है ?’

प्रशमला एकदम काठ हो गई।

माधिी ने कहा, ‘जा फकताब ले आ’

‘रात को लाऊंगी।’

‘नहीं, अभी ला।’

बहुत ही दुःु खी मन से प्रशमला फकताब लेने चली गई और फकताब लाकर


बोली, ‘मास्टर साहब कुछ नहीं पढाते, खद ु ही पढ़ते रहते है ।’
माधिी उससे पूछने लगी। आरभ्भ से अन्त तक सब कुछ पूछने पर िह
समझ गई फक सचमुच मास्टर साहब ने कुछ नहीं पढ़ाया है , बक्ल्क पहले
जो कुछ पढ़ा था, मास्टर लगाने के बाद इधर तीन-चार महहने में प्रशमला
उसे भल
ू गई। माधिी ने नाराज होकर बबन्द ु को बल
ु ाया, ‘बबन्द,ु मास्टर
साहब से पछ
ू कर आ फक इतने हदनों तक प्रशमला को कुछ भी तयों नहीं
पढ़ाया।’

बबन्द ु क्जस समय पूछने गई उस समय मास्टर साहब फकसी प्राब्लम पर


विचार कर रहे थे।

बबन्द ु ने कहा, ‘मास्टर साहब, बड़ी दीदी पूछ रही हैं फक आपने प्रशमला को
कुछ पढ़ाया तयों नहीं?’

लेफकन मास्टर साहब को कुछ सुनाई नहीं हदया।

बबन्द ु ने फफर जोर से पक


ु ारा, ‘मास्टर साहब...।’

‘तया है ?’

‘बड़ी दीदी कहती हैं....।’

‘तया कहती है ?’

‘प्रशमला को पढ़ाया तयों नहीं?’

अनपमे भाि से उसने उत्तर हदया, ‘अच्छा नहीं लगता’

बबन्द ु ने सोचा, यह तो कोई बरु ी बात नहीं है, इसशलए उसने यही बात
जाकर माधिी को बताया। माधिी का गस्
ु सा और भी बढ़ गया।
उसने नीचे जाकर और दरिाजे की आड़ में खड़े होकर बबन्द ु से पछ
ू िाया,
‘प्रशमला को बबल्कुल ही तयों नही पढ़ाया?’

दो-तीन बार पूछे जाने पर सरु े न्रनाथ ने कहा, ‘में नहीं पढ़ा सकंू गा।’

माधिी सोचने लगी, ‘यह तया कह रहे है ?’

बबन्द ु ने कहा, ‘तो फफर आप यहां फकसशलए रहते है ?’

‘यहां न रहूं तो और कहा जाऊं?’

‘तो फफर पढ़ाया तयों नहीं?’

सुरेन्रनाथ को अब होि आया। घूमकर बैठ गया और बोला,‘तया कहती


हो?’

बबन्द ु ने जो कुछ कहा था उसे दोहरा हदया।

‘िह पढ़ती ही है, लेफकन आप भी कुछ दे खते है ?’

‘नहीं, मुझे समय नहीं शमलता।’

‘तो फफर फकसशलए इस घर में रहते है?’

सुरेन्रनाथ चुप होकर इस बात पर विचार करने लगा।

‘तो फफर आप उसे नहीं पढ़ा सकेगें ?’

‘नहीं, मझ
ु पढ़ाना अच्छा नहीं लगता।’
माधिी ने अंदर से कहा, ‘अच्छा तो बबन्द ु पछ
ू ो फक फफर िह इतने हदनों
से यहां तयों रह रहे है ?’

बबन्द ु ने कह हदया।

सन
ु ते ही सरु े न्रनाथ प्रोब्लम िाला जाल एकदम तछन्न-शभन्न हो गया।
िह दुःु खी हो उठा। कुछ सोचकर बोला, ‘यह तो मझ
ु से बहुत बड़ी भल
ू हो
गई।’

‘इस तरह लगातार चार महहने तक भल


ू ?’

‘हां, िही तो दे ख रहा हूं, लेफकन मुझे इस बात का इतना ख्याल नहीं था।’

दस
ु रे हदन प्रशमला पढ़ने नहीं आई। सरु े न्रनाथ ने भी कोई ध्यान नहीं
हदया।

प्रशमला तीसरे हदन भी नहीं आई। िह हदन भी यों ही बीत गया। जब चौथे
हदन भी सरु े न्रनाथ ने प्रशमला को नहीं दे खा तो एक नौकर से कहा,
‘प्रशमला को बल
ु ा बाओ।’

नौकर ने अन्दर से िापस आकर उत्तर हदया, ‘अब िह आपसे नहीं


पढ़े गी।’

‘तो फफर फकससे पढ़े गी?’

नौकर ने अपनी समझ लगाकर कहा, ‘दस


ू रे मास्टर आएगा।’
उस समय लगभग नौ बजे थे। सुरेन्रनाथ ने कुछ दे र सोचा और फफर दो-
तीन फकताबें बगल में दबा कर उठ खड़ा हुआ। चश्मा खाने में बन्द करके
मेज परक रख हदया और धीरे -धीरे िहां से चल हदया।

नौकर ने पूछा, ‘मास्टर साहब, इस समय कहां जा रहे है ?’

‘बड़ी दीदी से कह दे ना, मैं जा रहा हूं।’

‘तया आप नहीं आएंगे?’

लेफकन सरु े न्रनाथ यह बात नहीं सुन पाया। बबना कोई उत्तर हदए फाटक
से तनकल गया।

दो बज गए लेफकन सरु े न्रनाथ लौटकर नहीं आया। उस समय नौकर ने


जाकर माधिी को बताया फक मास्टर साहब चले गए।

‘कहां गए है ?’

‘यह तो मैं नहीं जानता। नौ बजे ही चले गए थे। चलते समय मुझसे कह
गए थे फक बड़ी दीदी से कह दे ना फक मैं जा रहा हूं।’

‘यह तया रे ? बबना खाए-वपए चले गए?’

माधिी बेचेन हो उठी। उसने सरु े न्रनाथ के कमरे में जाकर दे खा, सारी
चीते ज्यों की त्यों रखी हैं। मेज के ऊपर खाने में बंद फकया चश्मा रखा है ।
केिल कुछ फकताब नहीं हैं।

िाम हो गई। फफर रता हो गई, लेफकन सरु े न्र नहीं लौटा।
दस
ू रे हदन माधिी ने नौकरों को बुलाकर कहा, ‘अगर मास्टर साहब का
पता लगाकर ले आओगे तो दस-दस रुपये इनाम शमलेंगे।’

इनाम के लालच में िह लोग चारों ओर दौड पड़े, लेफकन िाम को लौटकर
बोले, ‘कहीं पत्ता नहीं चला।’

प्रशमला ने रोते हुए पछ


ू ा, ‘बड़ी दीदी, िह तयों चले गए?’

‘माधिी झझड़क कर बोली, बाहर जा, रो मत।’

दो हदन, तीन हदन करके जैसे-जैसे हदन बीतने लगे, माधिी की बेचैनी
बढ़ने लगी।

बबन्द ु ने कहा, ‘बड़ी दीदी, भला उसके शलए इतनी खोज और तलाि तयों!
तया कलकत्ता िहर में कोई और मास्टर नहीं शमलेंगा?’

माधिी झल्ला कर बोली, ‘चल दरू हो। एक आदमी हाथ में बबना एक
पैसा शलए चला गया है और तू कहती है फक तलाि तयों हो रही हैं?’

‘यह कैसे पता चला फक उसके पास एक भी पैसा नहीं हैं?’

‘मैं जानती हूं, लेफकन तुझे इन सब बातों से तया मतलब?’

बबन्द ु चप
ु हो गई।

धीरे -धीरे एक सप्ताह बीत गया। सुरेन्र लौटकर न आया तो माधिी ने


एक तरह जैसे अन्न, जल का त्याग ही कर हदया। उसे ऐसा लगता था
जैसे सरु े न्र भख
ू ा है। जो घर में चीज मांगकर नहीं खा सकता, िह बाहर
दस
ू रे से तया कभी कुछ मांग सकता है। उसे परू ा-परू ा विश्िास था फक
सुरेन्र के पास खरीदकर कुछ खाने के शलए पैसे नहीं हैं। भीख मांगने की
सामर्थयष नहीं है, इसशलए या तो छोटे बालकों जैसी असहाय अिस्था में
फूटपाथ पर बैठा रो रहा होगा या फकसी पेड़ के नीचे फकताबों पर शसर रखे
सो रहा होगा।

जब ब्रज बाबू लौटकर आए और उन्होंने सारा हाल सुना तो माधिी से


बोले, ‘बेटी, यह काम अच्छा नहीं हुआ।’

कष्ट के मारे माधिी अपने आंसू नहीं रोक पाई।

उधर सरु े न्रनाथ सड़को पर धम


ु ता रहता। तीन हदन तो बबना कुछ खाए
ही बबता हदया। नल के पानी में पैसे नहीं लगते, इसशलए जब भख
ू लगती
तो पेटभर नल से पानी पी लेता।

एक हदन रात को भख
ू और थकान से तनढ़ाल होकर िह काली घाट की
और जा रहा था। कहीं सन
ु शलया था फक िहां खाने को शमलता है । अंधेरी
रात थी। आकाि में बादल धधरे हुए थे। चौरं गी मोड़ पर एक गाड़ी उसके
ऊपर आ गई। गाड़ीिान ने फकसी तरह धोड़े की रफ्तार रोक ली थी,
इसशलए सरु े न्र के प्राण तो नहीं गए लेफकन सीने और बगल में बहुत
गहरी चोट लग जाने से बेहोि होकर धगरा पड़ा। पुशलस उसे गाड़ी पर
बैठाकर अस्पताल ले गई। चार-पांच हदन बेहोिी की हालत में बीतने के
बाद एक हदन रात को उसने आंखें खोलकर पक
ु ारा, ‘बड़ी दीदी।’

उस समय मेडडकल कॉलेज का एक छात्र ड्यूटी पर था। सन


ु कर पाक आ
खड़ा हुआ।

सुरेन्र ने पूछा, ‘बड़ी दीदी आई है ?’


‘कल सिेरे आएंगी।’

दस
ू रे हदन सरु े न्र को होि तो आ गया लेफकन उसने बड़ी दीदी की बात
नहीं की। बहुत तेज बुखार होने के कारण हदन भर छटपटाते रहने के बाद
उसने एक आदमी से पूछा, ‘तया मैं अस्पताल में हूं?’

‘हां।’

‘तयों?’

‘आप गाड़ी के नीचे दब गए थे।’

‘बचने की आिा तो है ?’

‘तया नहीं?’

दस
ु रे फकन उसी छात्र ने पास आकर पछ
ू ा, ‘यहां आप का कोई पररधचत या
ररश्तेदार है ?’

‘कोई नहीं।’

‘तब उस हदन रात को आप ब़ड़ी दीदी कहकर फकसे पुकार रहे थे? तया िह
यहां हैं?’

‘हैं, लेफकन िह आ नहीं सकेंगी। मेरे वपताजी को समाचार भेज सकते हैं?’

‘हां, भेज सकता हूं।’

सुरेन्रनाथ ने अपने वपता ता पत्ता बता हदया। उस छत्र ने उसी हदन पत्र
उन्हें शलख हदया। इसके बाद बड़ी दीदी का पता लगाने के शलए पछ
ू ा।
‘अगर क्स्त्रयां आना चाहें तो बड़े आराम से आ सकती हैं। हम लोग उनका
व्यिस्था कर सकते हैं। आपकी बड़ी दीदी का पता मालूम हो जाए तो
उनके पाक भी समाचार भेज सकते है ।’ उसने कहा।

सुरेन्रनाथ ने कुछ दे र तक सोचने के बाद ब्रज बाबू का पता बता हदया।

‘मेरा मकान ब्रज बाबू के मकान के पास ही है । आज मैं उन्हें आपके बारे
में बता दं ग
ू ा। अगर िह चाहें गे तो दे खने के शलए आ जाएंगे।’

सुरन्र ने कुछ नहीं कहा। उसने मन-ही-मन समझ शलया था फक बड़ी


दीदी का आना असंभि है ।

लेफकन छात्र ने दया करके ब्रज बाबू के पास समाचार पहुंचा हदया। ब्रज
बाबू ने चौंककर पछ
ू ा, ‘बच तो जाएगा न?’

‘हां, परू ी आिा है ।’

ब्रज बाबू ने घर के अन्दर आकर अपनी बेटी से कहा, ‘माधिी, जो सोचा


था िही हुआ। सरु े न्र गाड़ी के नीचे दब जाने के कारण अस्पताल में है ।’

माधिी का समच
ू ा व्यक्ततत्ि कांप उठा।

‘उसने तुम्हारा नाम लेकर ‘बड़ी दीदी’ कहकर पुकारा था। उसे दे खने
चलोगी?’

उसी समय पास िाले कमरे में प्रशमला ने न जाने तया धगरा फकया। खूब
जोर से झनझानहट की आिाज हुई। माधिी दौडकर उस कमरे में चली
गई। कुछ दे र बाद लौटकर बोली, ‘आप दे ख आइए, मैं नहीं जा सकंू गी।’
ब्रज बाबू दुःु झखत भाि से कुछ मस्
ु कुराते हुए बोले, ‘अरे िह जंगल का
जानिर है । उसके ऊपर तया गस्
ु सा करना चाहहए?’

माधिी ने कोई उत्तर नहीं हदया तो ब्रज बाबू अकेले ही सरु े न्र को दे खने
चले गए। दे खकर बहुज दुःु खी हुए। बोले, ‘अगर तुम्हारे माता-वपता के
पास खबर भेज दी जाए तो कैसा रहे ?’

‘खबर भेज दी है ।’

‘कोई डर की बात नहीं। उनके आते ही मैं सारा इंतजाम कर दं ग


ू ा।’

रुपये-पैसे की बात सोचकर ब्रज बाबू ने कहा, ‘मुझे उन लोगों का पता


बता दो क्जससे मैं एसा इंतजाम कर दं ू फक उन लोगों को यहां आने में
कोई असुविधा न हो।’

लेफकन सरु े न्र‘ इन बातों को अच्छी तरह न समझ सका। बोला, ‘बाबूजी
आ जाएंगे। उन्हें कोई असुविधा नहीं होगी।’

ब्रज बाबू ने घर लौटकर माधिी को सारा हल सन


ु ा हदया।

तब से ब्रज बाबू रोजाना सरु े न्र को दे खने के शलए अस्पताल जाने लगे।
उनके मन में उसके शलए स्नेह पैदा हो गया था।

एक हदन लौटकर बोले, ‘माधिी, तुमने ठीक समझा था। सरु े न्र के वपता
बहुत धनिान हैं।’

‘कैसे मालम
ू हुआ?’ माधिी ने उत्सुकता से पूछा।

‘उसके वपता बहुत बड़े बकील हैं । िह कल रात आए हैं।’


माधिी चुप रही।

‘सरु े न्र घर से भाग आया था।’ ब्रज बाबू ने बताया।

‘तयो?’

‘उसके वपता के साथ आज बातचीत हुई थी। उन्होंने सारी बातें बताई।
इसी िर्ष उसने पक्श्चम के एक विश्िविद्यालय से सिोच्च सम्मान के
साथ एम.ए. पास फकया है । िह विलायत जाना चाहता था, लेफकन
लापरिाह और उदासीन प्रकृवत्त का लड़का है । वपता को विलायत भेजने
का साहस नहीं हुआ, इसशलए नाराज होकर घर से भाग आया था। अच्छा
हो दाने पर िह उसे घर ले जाएंगे।’

तनुःश्िास रोककर और उमड़ते हुए आंसुओं को पीकर माधिी ने कहा,


‘यही अच्छा है ।’

प्रकरण 5

सरु े न्र को अपने घर गए हुए छुः महहने बीत चक


ु े हैं। इस बीच माधिी ने
केिल एक ही बार मनोरमा को पत्र शलखा था। उसके बाद नहीं शलखा।

दगाष पज
ू ा के समय मनोरमा अपने मैके आई और माधिी के पीछे पड़
गई, ‘तू अपना बन्दर हदखा।’

माधिी ने हंसकर कहा, ‘भला मेरे पास बन्दर कहां है ?’

मनोरमा उसकी ठोड़ी पर हाथ रखकर कोमल कंठ से बड़े सुर-ताल से


गाने लगी,
‘शसख अपना बन्दर हदखला दे , मेरा मन ललचाता है ।

तेरे इन सन्
ु दर चरणों में कैसी िोभा पाता है ?’

‘कौन-सा बन्दर?’

‘िही जो तूने पाला था।’

‘कब?’

मनोरमा ने मस्
ु कुराते हुए कहा, ‘याद नहीं? जो तेरे अततररतत और फकसी
को जानता ही नहीं।’

माधिी समझ तो पहले ही गई थी और इसशलए उसके चेहरे का रं ग


बबगड़ता जा रहा था। तो भी अपने को संयत करते बोली, ‘ओह, उनकी
चचाष करती हो। िह तो चले गए।’

‘ऐसे सन्
ु दर कमल जैसे उसे पसंद नहीं आए?’

माधिी ने मंह
ु फेर शलया। कोई उत्तर नहीं हदया। मनोरमा ने बड़े प्यार से
उसका मंह
ु हाथ से पकड़कर अपनी ओर घम
ु ा शलया। िह तो मजाक कर
रही थी। लेफकन माधिी की आंखों में मचलते आंसुओं को दे खकर हैरान
रह गई। उसने चफकत होकर पूछा, ‘माधिी, यह तया?’

माधिी अपने आप को संभाल न सकी। आंखों पर आंचल रखकर रोने


लगी।

मनोरमा के आश्चयष की सीमा न रही। कहने के शलए कोई उपयत


ु त बात
भी न खोज सकी। कुछ दे र माधिी को रोने हदया, फफर जबदष स्ती उसके
मुंह पर से आंचल हटाकर उसने दुःु खी स्िर में पूछा, ‘तयों बहन, एक
मामल
ू ी-सा मजाक भी बदाषस्त नहीं हुआ?’

माधिी ने आंसू पोछते हुए कहा, ‘बहन, मैं विधिा जो हूं।’

इसके बाद दोनो काफी दे र तक चप


ु चाप बैठी रही। फफर चप
ु के-चप
ु के रोने
लगीं। माधिी विधिा थी। उसके दुःु ख से दुःु खी होकर मनोरमा रोने लगी
थी, लेफकन माधिी के रोने कार कारण कुछ और ही था। मनोरमा ने बबना
सोचे-समझे जो मजाक फकया था फक ‘िह तेरे अततररतत और फकसी को
नहीं जानता,’ माधिी इसी के बारे में सोच रही थी। िह जानती थी फक
बात बबल्कुल सच है ।

बहुत दे र के बाद मनोरमा ने कहा, ‘लेफकन काम अच्छा नहीं हुआ।’

‘कोन-सा काम?’

‘बहन, तया यह भी बताना होगा? मैं सब कुछ समझा गई हूं।’

वपछले छुः महहने से माधिी क्जस बात को बड़ी चेष्टा से तछपाती चली आ
रही थी, मनोरमा से उसे तछपा नहीं सकी। जब पकड़ी गई तो मुंह
तछपाकर रोने लगी। और एकदम बच्चे की तरह रोने लगी।

अन्त में मनोरमा ने पछ


ू ा, ‘लेफकन चल तयों गए?’

‘मैंने ही जाने के शलए कहा था।’

‘अच्छा फकया था-बद्


ु धधमानी का काम फकया था।’
माधिी समझ गई फक मनोरमा कुछ भी समझ नहीं पाई है , इसशलए
उसने धीरे -धीरे सारी बातें समझाकर बता दीं। फफर बोली, ‘मनोरमा,
अगर उनकी मत्ृ यु हो जाती तो िायद मैं पागल हो जाती।’

मनोरमा ने मन-ही-मन कहा, ‘और अब भी पागल होने में तया कसर रह


गई है ?’

मनोरमा उस हदन बहुत दुःु खी होकर घर लौटी और उसी रात अपने पतत
को पत्र शलखने लगी-

‘तम
ु सच कहते हो-क्स्त्रयां का कोई विश्िास नहीं। मैं भी अब यही कहती
हूं। तयोंफक माधिी ने आज मझु े यह शिक्षा दी है । मैं उसे बचपन से
जानती हूं। इसशलए उसे दोर् दे ने को जी नहीं चाहता। साहस ही नहीं हो
रहा। समूची नारी जातत को दोर् दे रही हूं। विधाता को दोर् दे रही हूं फक
उन्होंने इतने कोमल और जल जैसे तरल पदाथष से नारी के ह्दय का
तनमाषण तयों फकया। उनके चरणों में मेरी विनम्र प्राथषना है फक िह नारी
ह्दय को कठोर बनाया करे , और मैं तम्
ु हारे चरणों पर शसर रखकर
तम्
ु हारे मंह
ु की ओर दे खती हुई मरूं। माधिी को दे खकर बहुत ही डर
लगता है । उसने मेरी जन्म-जन्मांतर की धारणाएं उलट-पल
ु ट दी हैं।
मेरा भी अतघक विश्िास न करना और जल्दी आकर ले जाना।’

उसके पतत ने उत्तर में शलखा-

‘क्जसके पास सौदयष है, गण


ु है , िह उसका प्रदिषन करे गा ही। क्जसके
ह्दय में प्रेम है, जो प्रेम करना जानता है िह प्रेम करे गा ही। माधिी की
लता आम के िक्ष
ृ का सहारा लेती है । संसार की यही रीतत है । इसमें हम-
तुम तया कर सकते हैं। मैं तुम पर अत्यधधक विश्िास करता हूं। इसके
शलए तुम धचक्न्तत मत होना।’

मनोरमा ने अपने पत्र को माथे से लगाकर और उनके चरणों में प्रणाम


करके शलखा--

‘मह
ु ं जली माधिी-उसने िह फकया है जो एक-विधिा को नहीं करना
चाहहए था। उसने मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम फकया है ।’

पत्र पाकर मनोरमा के पतत मन-ही-मन हं से। फफर उन्होंने मजाक करते
हुए शलखा---

‘इसमें कोई सन्दे ह नहीं फक माधिी मह


ुं जली है , तयोंफक उसने विधिा
होकर मन-ही-मन एक और आदमी को प्रेम फकया है । यह तुम लोगों के
नाराज होने की बात है फक विधिा होकर सधिाओं के अधधकार में हाथ
तयों डाला? मैं जब तक जीता रहूंगा तब तक तम्
ु हारे शलए धचन्ता की कोई
बात नहीं है ।’ यहद ऐसी सवु िधा तम्
ु हें शमल तो कभी मत छोड़ना खब
ू मजे
से फकसी आदमी के साथ प्रेम कर लो, लेफकन मनोरमा, तम
ु मुझे चफकत
नहीं कर सकी हो। मैंने एक बार एक लता दे खी थी। लगभग आधा कोस
जमीन पर रें गती-रें गती अंत में एक िक्ष
ृ पर चढ़ गई थी। अब उसमें न
जाने फकतने पत्ते और फकतनी पुष्प मंजररयां तनकल आई हैं। जब तम

यहां आओगी, तब हम दोनों उसे दे खने चलेंगे।’

मनोरमा ने नाराज होकर इस पत्र का कोई उत्तर नहीं हदया।

लेफकन माधिी के आंखो के कोनों मे लाशलमा छा गई थी। उसका हर


समय फूल की तरह झखला रहने िाला चेहरा कुछ गंभीर हो गया था।
काम-धन्धे में उतना जी नहीं लगता था। एक प्रकार की कमजोरी-सी आ
गई थी। आज भी उसमें उसी प्रकार की सबकी दे खभाल करने और सबसे
प्रतत आत्मीयता पण
ू ष व्यिहार करने की इच्छी पहले क्जतनी ही है । बक्ल्क
पहले की अपेक्षा िढ़ गई हैं, लेफकन अब सारी बातें पहले की तरह याद
नहीं रहती। बीच-बीच में भल
ू हो जाती है ।

अब भी सब लोग उसे बड़ी दीदी कहते हैं। अब भी सब लोग उसी कल्पतरू


की ओर दे खते है , उसी के सामने हाथ फैलाते हैं
और इक्च्छत फल प्राप्त कर लेते है । लेफकन अब िह कल्पिक्ष
ृ उतना
सरल नहीं हैं। परु ाने आदशमयों को बीच-बीच में आिंका होने लगती है फक
कहीं आगे चलकर यह सूख न जाए।

मनोरमा रोजाना आती है और-और बातें तो होती हैं, लेफकन यही बात
नहीं होती। मनोरमा समझती है फक माधिी को इससे दुःु ख होता है । अब
इन बातों की आलोचना क्जतनी न हो उतना ही अच्छा है । मनोरमा यह
भी सोचती है फक फकसी तरह यह अभागी यह सब भल
ू जाए।

सरु े न्र अच्छा होकर अपने वपता के घर चला गया है । विमाता उस पर


तनयंत्रण रखना कुछ कम कर हदया है। इसी से सरु े न्र का िरीर कुछ ठीक
होने लगा है , लेफकन िह पूरी तरह ठीक नहीं हो पाया है । उसके अंतर में
एक व्यथा है । सौंदयष और यौिन की आकांक्षा और प्यास अभी तक उसके
मन में पैदा नहीं हुई है । यह सब बाते िह नहीं सोचता अब भी िह पहले
की तरह लापरिाह है । आत्म-तनभषता उसमें नहीं है , लेफकन फकस पर
तनभषर रहना चाहहए, िह यह नहीं खोज पाता। खोज नहीं पाता तयोंफक
िह अपना काम आप कर ही नहीं पाता। अब भी अपने काम के शलए िह
दस
ू रों के मूंह की ओर दे खता रहता है , लेफकन अब पहले की तरह फकसी
भी काम में उसका मन नहीं लगता। सभी कामों में उसे कुछ-न-कुछ कमी
हदखाई दे ती है । थोड़ाो़ बहुत असंतोर् प्रकट करता है । उसकी विमाता यह
सब दे ख सन
ु कर कहती है, ‘सरु े न्र अब बदल गया हा।’

बीच में उसे ज्िर हो गया था। बहुत कष्ट हुआ। आंखों में आंसू बहने
लगे। विमाता पास ही बैठी थी। उन्होंने यह नई बात दे खी तो उसकी
आंखों से भी आंसू बहने लगे। बड़े प्यार से उसके आंसू पोंछ कर पूछा,
‘तया हुआ सरु े न्र बेटा?’

सुरेन्र ने कुछ बताया नहीं।

उसने एक पोस्ट काडष मंगाया और उक पर टे ढ़े-मेढ़े अक्षरों में शलखा ‘बड़ी


दीदी, मुझे बुखार चढ़ा है , बहुत कष्ट हो रहा है ।’

लेफकन िह पत्र लेटर बोतस तक नहीं पहुंचा। पहले उसके पलंग पर से


जमीन पर धगरा पड़ा। उसके बाद जो नौकर उस कमरे में झाड़ दे ने आया,
उसने अनार के तछलको, बबस्कुट टुकडों और अंगरू के डंठलों के साथ िह
पत्र भी बुहार कर फेंक हदया। सरु े न्र ह्दय की आकांक्षा धूल में शमलकर,
हिा में उड़कर, ओस में भीगकर, ओर अंत में धूप खाकर एक बबूल के पेड़
के नीचे पड़ी रह गई।

पहले तो िह अपने पत्र के उत्तर की मूततषमती आिा की टकटकी लगाए


रहा, उसके बाद हस्ताक्षरों की, लेफकन बहुत हदन बीत गए, उत्तर नहीं
आया।
इसके बाद उसके जीिन में एक नई घटना हुई। यद्यवप नई थी लेफकन
बबल्कुल स्िभाविक थी। सुरेन्र के वपता राय महािय बहुत पहले से इसे
जानते थे और इसकी आिा कर रहे थे।

सुरेन्र के नाना पिना क्जले के बीच के दजें के जमींदार थे। बीस-पच्चीस


गािों में उनकी जमींदारी थी। लगभग पचास हजार रुपये सालाना फक
आमदनी थी। उनके पास कोई लड़का-बच्चा नहीं था, इसशलए खचष बहुत
कम था। उस पर िह एक प्रशसद्ध कंजस
ू थे। यह इसशलए िह अपने
लम्बे जीिन में ढे र सारा धन इकट्ठी कर सके थे। यहा राय महािय इस
बात फक तनक्श्चत रूप से जानते थे फक उसकी मत्ृ यु के बाद उनकी सारी
धन-सम्पतत उनके एकमात्र दोहहत्र सुरेन्रनाथ को ही शमलेगी। ऐसा ही
हुआ भी। राय महािय को समाचार शमला फक उनके ससरु मत्ृ यु िैया पर
पड़ हैं। िह लड़के के लेकर तत्काल पिना चले गए, लेफकन उनके पहुंचने
से पहले ही उनका स्िगषिास हो गया था।

बड़ी धम
ू धाम से उनका श्राद्ध हुआ। व्यिक्स्थत जमींदारी और अधधक
व्यिक्स्थत हो गई। अनुभिी, बद्
ु धधमान, परु ाने िकील राय महािय की
कठोर व्यिस्था में प्रजा और भी अधधक परे िान हो उठी। अब सरु े न्र का
वििाह होना भी आिश्यक हो गया। वििाह कराने बाले नाइयों के आने-
जाने से गांि भर में एक तफ
ू ान-सा आ गया। पचास कोस के बीच क्जस
धर में भी सन्
ु दर कन्या थी, उस घर में नाइयों के दल बार-बार अपनी
चरणधल
ू पहुंचाकर कन्या के माता-वपता को सम्मातनत और आिाक्न्ित
करने लगे।

इसी प्रकार छह महीने बीत गए।


अंत में विमाता आई और उसके ररश्ते-नाते के क्जतने भी लोग थे, सभी
आ गए। बन्धु-बान्धिों से घर भर गया।

इसके बाद एक हदन सिेरे तरु ही बजाकर ढोल-ढतके की भीर्ण आिाजों


और करतालों की खनखनाहट से सारे गांि को गुंजायमान कर
सुरेन्रनाथ अपना वििाह कर लाया।

प्रकरण 6

लगभग पांच िर्ष बीत चुके हैं। राय महािय अब इस संसार में नहीं हैं
और ब्रजराज लाहहडी भी स्िगष शसधार चक
ु े हैं। सरु े न्र की विमाता अपने
पतत की जी हुई सारी धन सम्पतत लेकर अपने वपता के घर रहने लगी है ।

आजकाल सरु े न्रनाथ की लोग क्जतनी प्रिंसा करते है, उतनी ही


बदनामी भी करते है । कुछ लोगों का कहना ही फक ऐसा उदार, सह्दय,
दयालु और कोमल स्िभाि का जमींदार और कोई नहीं है, और कुछ
लोगों का कहना है फक ऐसा अत्याचारी, अन्यायी और उत्पीड़क जमींदार
आज तक इस इलाके में कोई पैदा ही नहीं हुआ।

यह दोंनो ही बातें सच हैं। पहली बात सरु े न्रनाथ के शलए सच है और


दस
ू री उनके मैंनज
े र मथरु ानाथ के शलए सच है ।

सुरेन्रनाथ की बैठक में आजकल दोस्तों की खूब भीड़ लगी रहती है । िह


लोग बड़े सख
ु से संसार के िौक परू े करते है । पान, तम्बाकू, िराब-
कबाब, फकसी भी चीड की उन्हें धचता नहीं करनी पड़ती। सब चीजे स्ितुः
ही उनके मंह
ु में आ जाती है । इन बातों के प्रतत मथ
ु रा बाबू का वििेर्
उत्साह है । खचष के शलए रुपये िदाषश्त करना पड़ता है । मथुरा बाबू का
फकसी के भी पास एक पैसा भी बाकी नहीं रह सकता। घर जलाने, फकसी
को उजाड़ कर गांि से तनकाल दे ने या कचहरी की छोटी-सी तंग कोठरी में
बंद कर दे ने आहद-आहद में उनके साहस और उत्साह की कोई सीमा नहीं
है ।

प्रजा के रोने की ददष भरी आिाज कभी-कभी िाक्न्त दे िी के कानों तक भी


पहुंच जाती है । िह पतत को उलाहना दे ती हई कहती हैं-‘तम
ु खद
ु अपनी
जमींदारी नहीं दे खोगे तो सबकुछ जल कर भस्म हो जाएगा।’

यह सुनकर सरु े न्रनाथ चौंक पड़ता है और कहता है, ‘यदी तो। तया यह
सब बातें सच है ।’

‘सच नहीं है । सारा दे ि तनन्दा कर रहा है । केिल तम्


ु हारे ही कानों तक ये
बातें नहीं पहुंचतीं। चौबीस घंटे दोस्तों को लेकर बैठे रहने से कहीं यह
बातें सुनाई दे ती है । ऐसे मैनेजर की जरूरत नहीं। उसे तनकाल बाहर
करो।’

सुरन्रनाथ दुःु खी होकर कहता है , ‘ठीक है । अब कल से मैं खद


ु ही सब
दे खा करूंगा।’

इसके बाद कुछ हदनों कत जमींदारी दे खने की धम


ू मच जाती। कभी-
कभी मथरु ानाथ घबरा उठते और गंभीर होकर कह बैठते, ‘सुरेन्र बाब,ू
तया इस तरह जमींदारी रखी जा सकती है ?’

सरु े न्रनाथ सख
ू ी हंसी हं सकर रह जाते, ‘मथरू ा बाब,ू दझु खयों का लहू
चस
ू कर जमींदारी रखने की जरूरत ही तया है ?’

‘अच्छा तो फफर आप मुझे छुट्टी दीक्जए। मैं चला जाऊं?’


सुरेन्र तरु न्त नरम पड जाता। इसके बाद जो कुछ पहले होता था फफर
िही होने लगा जाता। सरु े न्रनाथ फफर बैठक तक सीशमत होकर रह
जाते।

इधर हाल ही में नई और जड़


ु गई। एक बाग बनकर तैयार हुआ है , उसमें
एक बंगला भी है । उसमें कलकत्ता से एलोकेिी नाम की एक िेश्या आकर
ठहरी है । बहुत अच्छा नाचती-गाती है और दे खने-सुनने में भी बरू ी नहीं
है । टूटे छत्ते की मधम
ु ुक्तखयों की तरह शमत्र लोग सरु े न्र की बैठक
छोड़कर उसी ओर दौड़ पड़े हैं। उन लोगों के आनन्द और उत्साह की कोई
सीमा नहीं है । सरु े न्र को भी िह उसी ओर खींच ले गए हैं। आज तीन हदन
हो गए, िाक्न्त को अपने पतत दे ि के दिषन नहीं हुए।

चौथे हदन अपने पतत को पाकर िह दरिाजे पर पीठ लगाकर बैठ गई,
‘इतने हदन कहां थे?’

‘बाग में था।’

‘िहां कौन है क्जसके शलए तीन हदन तक िहीं पड़े रहे ।’

‘यही तो...!’

‘हर बात में यही तो... मैंने सब सुन शलया है ।’ इतना कहते-कहते िाक्न्त
रो पड़ी।

‘मैंन ऐसा कोन-सा अपराध फकया है क्जसके शलए तम


ु इस तरह मुझे
ठुकरा रहे हो?’

‘कहां? मैं तो...।’


‘और फकस तरह पैरों से ठुकराना होता है ? हम लोगों के शलए इससे
बढ़कर और कौन-सा अपमान हो सकता है ?’

‘यही तो... िह सब लोग...?’

जैसे िाक्न्त ने यह बात सन


ु ी ही नहीं। और भी जोर से रोते हुए कहा, ‘तम

मेरे स्िामी हो, मेरे दे िता हो, मेरे यह लोक और परलोक तम्
ु हीं हो। मैं
तया तम्
ु हें नहीं पहचानती। मैं जानती हूं फक मैं तम्
ु हारी कोई नहीं हूं।♦एक
हदन के शलए भी मैंने तुम्हारा मन नहीं पाया। मेरी यह पीड़ी तुम्हें कौन
बताए? तुम िशमषन्दा होगे और तम्
ु हें दुःु ख होगा, इसशलए मैं कोई बात
नहीं कहती।’

‘तुम रोती तयों हो िांतत?’

‘तयों रोती हूं, यह तो अन्तयाषमी ही जानते है । यह भी समझती हूं की तम



लापरिाही नहीं करते। तम्
ु हारे मन में भी दुःु ख है । तम
ु और तया करोगे,’
िांततने कहा और फफर अपनी आंखें पोंछकर बोली, ‘यहद मैं जन्म भर
यातना भोगूं तब भी कोई हजष नहीं, लेफकन तुम्हें तया कष्ट है अगर जान
सकंू .....’

सरु े न्रनाथ ने उसे अपने पास खींचकर और अपने हाथ से उसकी आंखें
पोंछकर बड़े प्यार से पूछा, ‘तो फफर तया करोगी िांतत?’

भला इस बात का उत्तर िांतत तया दे ती। और भी जोर-जोर से रोने लगी।

कुछ दे र के बाद बोली, ‘तुम्हारा िरीर भी आजकल अच्छा नहीं हैं।’


‘आजकल की तयो? वपछले पांच िर्ष से अच्छा नहीं है । क्जस हदन
कलकत्ता में गाड़ी के नीचे दबा था। छाती और पीठ में चोट लगने के
कारण एक महहने तक बबस्तर पर पड़ा रहा था, तभी से िरीर अच्छा नहीं
है । िह ददष आज तक फकसी तरह नहीं गया। मझ
ु े स्ियं आश्चयष है फक मैं
फकस तरह जी रहा हूं।’

िांतत ने जल्दी से स्िीमी के सीने पर हाथ रखकर कहा, ‘चलो हम लोग


दे ि छोड़कर कलकत्ता चलें। िहां अच्छे -अच्छे डॉतयर हैं।’

सुरेन्र ने सहसा प्रसन्न होकर कहा, ‘अच्छी बात है, चलो। िहां बड़ी दीदी
भी है ।’

‘तुम्हारी बड़ दीदी को दे खने को मेरा भी जी बहुत चाहता है । उन्हें लाआगे


ने?’ िांतत ने कहा।

‘लाउं गा तयों नहीं’, इसके बाद कुछ सोचकर बोला, ‘िह जरूर आएंगी,
जब सन
ु ेंगी फक मैं मर रहा हूं।’

िांतत ने सुरन्र का मूंह बन्द करते हुए कहा, ‘मैं तुम्हारे पैरों पड़ती हूं।
इस तरह की बातें मत करो।’

‘िह आ जाएं तो मझ
ु े कोई दुःु ख ही नहीं रह जाए।’

अशभमान से िांतत का ह्दय फूल गया। अभी-अभी उसने कहा फक स्िामी


उसके कोई नहीं हैं, लेफकन सरु े न्र ने इतना नहीं समझा, इतना नहीं
दे खा। िह तो कुछ कह रहा था, उसे बहुत आनंद आ रहा था।

‘तम
ु स्ियं ही जाकर बड़ी दीदी को बल
ु ा लाना। तयों ठीक होगा न?’
िांतत ने शसर हहलाकर सहमतत प्रकट की।

‘िह जब आएंगी तब तम
ु खद
ु ही दे ख लोगी फक मझ
ु े कोई कष्ट ही नहीं
रह जाएगा।’

िांतत की आंखों मे आंसू बहने लगे।

दस
ू रे हदन उसने दासी के द्िारा मथूरा बाबू से कहलिा हदया फक बाग में
क्जसे लाकर रखा है अगर उसे इसी समय न तनकाल हदया तो उनके भी
मैनेजरी करने की जरूरत नहीं रह जाएगी। अपने स्िीमी से भी उसने
बबगड़कर कहा, ‘और जो भी हो, अगर तम
ु ने घर से बाहर पांि रखा तो मैं
अपना शसर पटक कर और खन
ू की नदी बहाकर मर जाऊंगी।’

‘ठीक है । लेफकन िह लोग...!’

‘मैं इन लोगों की व्यिस्था कर दे ती हूं। इतना कहकर िांतत ने दासी को


बुलाकर आज्ञा दी फक ‘दरबान से कह दो फक िह सब लोग अब मकान में
न घुसने पाएं।’

और कोई उपाय न दे खकर मथुरा बाबू ने एलोकेिी को विदा कर फकया।


यार लोग भी चम्पत हो गए।

सरु े न्रनाथ कलकत्ता न जा सका। छाती का ददष अब कुछ कम मालम



होता है । िांतत में भी अब कलकत्ता जाने का िैसा उत्साह नहीं रहा। यहीं
रहकर िह यथासंभि अपने पतत की सेिा-सुश्रूर्ा का प्रबन्ध करने लगी।
कलकत्ता से एक अच्छे डॉतटर को बुलाकर हदखाया गया। एतसपटष
डॉतटर ने सब-कुछ दे ख सुनकर एक दिा की व्यिस्था कर दी और वििेर्
रूप से सािधान कर हदया फक छाती की इस समय जो हालत है , उसे
दे खते हुए फकसी भी प्रकार का िारीररक या मानशसक श्रम करना उधचत
नहीं।

सुअिरस दे ख मैनज
े र साहब क्जस तरह काम दे ख रहे थे उससे गांि-गांि
में दन
ू ा हाहाकार मच गया। िांतत भी बीच-बीच में सुनती, लेफकन अपने
स्िामी को बताने का साहस न कर पाती।

प्रकरण 7

कलकत्ता के मकान में अब ब्रज बाबू के स्थान पर शििचन्र माशलक है


और माधिी के स्थान परक अब नई बहू धर की माशलक है। माधिी अब
भी िहीं है । भाई शििचन्र स्नेह और आदर करता है लेफकन अब माधिी
का िहां रहने को जी नहीं चाहता। घर के दास, दासी, मि
ुं ी, गम
ु ािते अब
भी बड़ी दीदी कहते हैं, लेफकन सभी जानते है फक सन्दक
ू की चाबी अब
फकसी और के हाथ में चली गई है, लेफकन यह बात नहीं फक शििचन्र की
पत्नी फकसी बात में माधिी का तनरादर या अिज्ञा करती है, फफर भी िह
ऐसा भाि प्रकट करने लगती है क्जससे माधिी अच्छी तरह समझ ले फक
अब बबंना इस नई स्त्री की अनम
ु तत और परामिष के उसे कोई काम नहीं
करना चाहहए।

उस समय वपता का राज्य था, अब भाई का राज्य है, इसशलए कुछ अन्तर
भी पड़ गया है । पहले उसका सम्मान भी होता था और िह जो भी चाहती
थी िही होत था, लेफकन अब केिल आदर है, क्जद नहीं है । पहे ल वपता के
कारण सब कुछ िही थी लेफकन अब िह केिल आत्मीयों और कुटुक्म्बयों
की श्रेणी में आदर रह गई।
इस पर यहद कोई यह कहे फक हम शििचन्र अथिा उसकी पत्नी को दोर्ी
ठहरा रहे हैं और सीधे-सीधे न कहकर घुमा फफराकर उसकी तनन्दा करते
है तो िह हमारे अशभप्राय को ठीक-ठीक नहीं समझ पा रहे । संसार को जो
तनयम है और आज तक जो रीतत-नीतत बराबर चली आ रही है हम केिल
उसी की चचाष कर रहे हैं। माधिी का भाग्य फूट गया है । अब उसके शलए
कोई स्थान नहीं रह गया है क्जसे िह अपना कह सके। केिल इसी से कोई
अपना अधधकार तयो छोड़ने लगा। यह बात कौन नहीं जानता फक पतत
की चीज पर स्त्री का अधधकार होता है, लेफकन िह माधिी की कौन होती
है ? दस
ू रे के शलए िह अपना अधधकार तयों छोड़ने लगी। माधिी सब कुछ
समझती है । बहू क्जस समय छोटी थी और ब्रजबाबू जीवित थे उस समय
माधिी की नजर में प्रशमला और बहू में कोई अन्तर नहीं था लेफकन अब
सब बातों में अन्तर है । िह सदा से अशभमातननी है , इसशलए िह सबसे
नीचे है । उसमें बात सहने का सामर्थयष नहीं है इसशलए कोई बात नहीं
कहती। जहां उसका कोई जोर नहीं हे िहां शसर ऊंचा करके खड़े होने से
उसका शसर कट जाता है । जब उसके मन में दुःु ख होता है तब िह चुपचाप
सह लेती है । शििचन्र से भी कुछ नहीं कहती। स्नेह की दहु ाई दे ना
उसका आदत हनीं है । केिल इसी आत्मीयता के भरोसे अपना अधधकार
जताने में उस लज्जा आती है । साधारण क्स्त्रयों की तरह लड़ाई-झगड़ा
करने से उसे फकतनी धण
ृ ा हे केिल िही जानती है ।

एक हदन उसने शििचन्र को बुलाकर कहा, ‘भैया, मैं ससरु ाल जाऊंगी।’

शििचन्र चफकत हो गया, ‘यह तया माधिी, िहां तो कोई नहीं है ।’


माधिी ने मत
ृ स्िामी का उल्लेख करके कहा, ‘उनका छोटा भानजा
कािी में ननद के पास है । उसी के साथ गोला में मजे से रह लूंगी।’

पािना क्जले के गोला गांि में माधिी की ससुराल थी। शििचन्र ने कुछ
हं सकर कहा, ‘भला यहा भी कहीं हो सकता है । िहां तुम्हें बहुत कष्ट
होगा।’

‘कष्ट तयों होने लगा। िहां का मकान तो अभी तक धगरा नहीं है । दस-
पांच बीघा जमीन भी है । तया इतने में एक विधिा का गज
ु ार नहीं हो
सकता?’

‘गज
ु ारे की बात नहीं है । रुपये की भी कोई धचन्ता नहीं है । लेफकतन
माधिी तम्
ु हें िहां बहुत ही कष्ट होगा।’

‘नहीं भैया, कुछ कष्ट नहीं होगा।’

शििचन्र ने कुछ सोचकर कहा, ‘बहन आझखर तुम तयों जा रही हो? मुझे
सारी बात साफ-साफ बता दो। मैं सार झगड़ा शमटाए दे ता हूं।’

िायद शििचन्र ने अपनी पत्नी से अपनी बहन के विरूद्ध कुछ बातें


सुनी होंगी। िही बातें िायद इस समय उसे याद आ गई। लज्जा से
माधिी का मुख लाला पड़ गया। बोली, ‘भैया, तया सह समझ रहे हो फक
मैं लड़ाई-झगड़ा करके तम्
ु हारे घर से जा रही हूं?’

शििचन्र स्ियं भी लक्ज्जत हो गया। जल्दी से बोला, ‘नहीं, नहीं यह


बात नहीं है , लेफकन यह घर सदा ही तम्
ु हारा है , फफर आज तयों जाना
चाहती हो?’
एक साथ उन दोनों को अपने स्नेहमय वपता की याद आ गई। दोनों की
आंखें भर आई। आंखें पोंछकर माधिी ने कहा, ‘मैं फफर आऊंगी। जब
तुम्हारे बेटे यज्ञोपिीत हो, तब ले आना। इस समय मैं जाती हूं।’

‘िह तो आठ-दस िरस बाद की बात है ।’

‘अगर तब तक क्जन्दा रही तो अिश्य आऊंगी।’

माधिी फकसी भी तरह िहां रहने के शलए राजी नहीं हुई और जाने की
तैयारी करने लगी। उसने नई बहू को घर-गह
ृ स्थी की सारी बातें समझा
दी। दास-दाशसयों को बल
ु ाकर आिीिाषद फकया। चलने के हदन आंखों में
आंसू भरकर शििचन्र ने कहा, ‘माधिी, तम्
ु हारे भैया ने तो तम
ु से कभी
कुछ कहा नहीं।’

‘कैसी बात करते हो भैया,’ माधिी बोली।

‘सो नहीं। यहद फकसी अिुभ क्षण में फकसी हदन असािधानी से कोई
बात....।’

‘नहीं भैया, ऐसी कोई बात नहीं है ।’

‘सच कहती हो?’

‘हां, सच कहती हूं।’

‘तो फफर जाओ। तम्


ु हें अपने घर जाने से मना नहीं करूंगा। जहां तुम्हें
अच्छा लगे, िहीं रहो, लेफकन समाचार भेजती रहना।’
माधिी ने पहले कािी जाकर अपने भानजे को साथ शलया और फफर
उसका हाथ थामे गोला गांि में पहुचकर लम्बे सात िर्ो के बाद अपने
पतत के मकान में प्रिेि फकया।

‘गोला गांि के चटजी महािय घोर विपवत्त मे पड़ गए। उनमें और


योगेन्रनाथ के वपता में बहुत ही घतनष्ठ शमत्रता थी इसशलए मरते समय
योगेन्रनाथ के जीिन काल में ही िही जमीन की दे ख-रे ख करते थे।
योगेन्र उसकी कुछ अधधक खोज-खबर नहीं लेते थे। उनके ससुर के पाक
ढे रों रुपया था इसशलए वपता की छोड़ी हुई इस मामल
ू ी सम्पतत पर उनकी
नजर ही नहीं पडती थी। उनकी मत्ृ यु के बाद चटजी महािय बहूत ही
न्यायपूणष अधधकार बबना फकसी बाधा के उस सम्पतत का उपयोग कर रहे
थे। अब इतने िर्ो के बाद विधिा माधिी ने आकर उनकी व्यिक्स्थत,
बनी बनाई गह
ृ स्थी में भारी बखेड़ा खड़ा कर हदया। चटजी महािय को
माधिी का यह हस्तक्षेप बहुत ही अखरा और यह बात भी स्पष्ट रूप से
उनकी समझ में आ गई फक माधिी ने केिल ईष्याष और द्िेर् के कारण
ऐसा फकया है । िह बहुत ही नाराज होकर आए और बोले, ‘दे खो बहू,
तम्
ु हारी जो दो बीधा जमीन थी उसकी दस साल की मालगज
ु ारी ब्याज
समेत सौ रुपये बाकी है । उसके न दे ने से तुम्हारी जमीन के नीलाम होने
की नौबत आ गई है।’

माधिी ने अपने भानजे संतोर् कुमार के द्िारा कहला हदया फक रुपये की


धचन्ता नहीं और साथ ही उसने सौ रुपये भी तत्काल भेज हदए। िह रुपये
चटजी महािय ने अपने काम में खचष कर शलए।
लेफकन माधिी इस तरह सहज में छोड़ने िाली नहीं थी। उसने संतोर् को
भेजकर कहलिाया फक केिल दो बीधे जमीन पर ही तनभषर रहकर मेरे
स्िगीय ससुर का जीिन तनिाषह नहीं होता था इसशलए बाकी की जो
जमीन जायदाद है िह कहां और फकसके पास है ?

चटजी महािय के क्रोध की सीमा न रही। स्ियं आकर बोले, ‘िह सारी
जमीन बबक-बबका गई। कुछ बंदोबस्त में चली गई। आठ-आठ, दस-दस
साल तक जमींदार की मालगुजारी न चुकाने पर जमीन भला फकस तरह
रह सकती थी।’

माधिी ने कहा, ‘तया जमीन से कोई आमदनी नहीं होती थी जो


मालगुजारी के थोड़े से रुपये नहीं हदए जा सके? और अगर जमीन
सचमच
ु ही बबक गई है तो यह बताईए, उसे फकसने बेचा और अब िह
फकसके पास है ? यह सब मालम
ू होने पर उसे तनकालने का इंतजाम
फकया जाए। और उसके कागज पत्र कहां है?’

चटजी महािय ने जो उत्तर हदया, माधिी उसे समझ नहीं सकी। पहले तो
ब्राह्मण दे िता न जाने बहुत दे र तक तया-तया बकते रहे और फफर शसर
पर छाता लगाकर, कमर में रामनामी दप
ु ट्टा बांधकर और अंगोछे में
एक धोती लपेटकर जमीदार साहब की लालता गांि िाली कचहरी की
ओर चल हदए। इसी लालता गांि में सुरेन्र नाथ का मकान और मैनेजर
मथुरा बाबू का दफ्तर है । ब्राह्मण दे िता आठ-दस कोस पैदल चलकर
सीधे मथरु ा बाबू के पास पहुंचे और रोते हुए कहने लगे, ‘दहु ाई सरकार
की। गरीब ब्राह्मण को अब गली-गली भीख मांगकर खाना पड़ेगा।’
‘ऐसे तो बहुत से आया करते हैं,’ मथुरा बाबू ने मुंह फेरकर पूछा, ‘तया
हुआ?’

‘भैया मेरी रक्षा करो।’

‘आझखर तया हुआ?’

विधु चटजी ने माधिी के हदए सौ रुपये दक्षक्षणा के रूप में मथुरा बाबू के
हाथ पर रखकर कहा, ‘आप धमाांितार हैं। अगर आपने मेरी रक्षा न की
तो मेरा सिषस्ि चला जाएगा।’

‘अच्छा साफ-साफ बताओ तया हुंआ है?’

‘गोला गांि के रामतनु सान्थाल की विधिा पत्र


ु िधू न जाने कहां से इतने
हदन बाद आकर मेरी सारी जमीन पर दखल करना चाहती है ।’ फफर
उन्होंने हाथ में जनेऊ लेकर मैनज
े र साहब का हाथ जोर से पकड़कर
कहा, ‘मैं तो दस िरस से बराबर सरकारी मालगूजारी दे ता चला आ रहा
हूं।’

‘तुम जमीन जोतते-बोते हो तो मालगज


ु ारी नहीं दोगे?’

मथरु ा बाबू ने उसका अशभप्राय अच्छी तरह समझ शलया। ‘विधिा को


ठगना चाहते हो न?’

ब्राह्मण चुपचाप दे खता रहा।

‘फकतने बीधा जमीन है ?’

‘पच्चीस बीधे।’
मथुरा बाबू ने हहसाब लगाकर कहा, ‘कम-से-कम तीन हजार रुपये की
जमीन हुई। जमीदार कचहरी में फकतनी सलामी दोगे?’

‘जो हुकुम होगा, िही दं ग


ू ा-तीन सो रुपये।’

‘तीन सो दे कर तीन हजार का माल लोगे। जाओ हमसे कुछ नहीं होगा।’

ब्राह्मण ने रुखी आंखों से आंसू बहाकर कहा, ‘फकतने रुपये का हुकुम


होता है ?’

‘एक हजार रुपये दे सकेगे?’

इसके बाद दे र तक दोनों आदशमयों मे गप


ु चप
ु सलाह-मििरा होता रहा।
पररणाम यह हुआ फक योगेन्र नाथ फक विधिा पर मालगज
ु ारी और
ब्याज शमलाकर डेढं हजार रुपये की नाशलि कर दी गई। सम्मन तनकला
तो सही लेफकन माधिी के पास नहीं पहुंचा। इसके बाद एकतरफा डडगरी
हो गई और ड़ेढ महहने के बाद माधिी को पता चला फक बाकी मालगुजारी
के शलए जमीदार के यहां से नीलाम का इश्तेहार तनकला और उसकी सारी
जमीन जायदाद नीलाम हो गई है ।

माधिी ने अपनी पड़ोशसन को बल


ु ाकर कहा, ‘यह तया यह बबल्कुल लट
ु े रों
का दे ि है ?’

‘तयों तया हुआ?’

‘एक आदमी धोखा दे कर मेरा सब कुछ हड़प लेना चाहता है और तम



लोगों में से कोई दे खता तक नहीं?’
उसने कहा, ‘भला हम लोग तया कर सकते है । अगर जमीदार नीलाम
कराए तो हम गरीब लोग उसमें तया कर सकते है ।’

‘खौर, िह तो जो हुआ सो हुआ, लेफकन मेरा घर नीलाम हो और मुझे


खबर तक न हो? कैसे हैं तुम लोगों के जमींदार?’

तब उस स्त्री ने विस्तार से सारी बातें बताकर कहा, ‘ऐसा अन्यायी और


अत्याचारी जमींदार इस दे ि में पहले कोई नहीं हुआ।’

इसके बाद उसने न जाने और फकतनी ही बातें बताई। अब तक क्जतनी


भी बातें उसे लोगों के मह
ंु से मालम
ू हुई थी एक-एक करके सब खोल दी।

माधिी ने डरते-डरते पूछ, ‘तया जमींदार साहब से भेंट करने से काम


नहीं तनकल सकता?’

अपने भानजे संतोर् कुमार के शलए माधिी यह भी करने को तैयार थी।


िह स्त्री उस समय तो कुछ न कह सकी लेफकन िचन दे गई फक कल
अपने लड़के से सारी बातें अच्छी तरह पूछने के बाद बताऊंगी। उसका
बहनौत दो-तीन बार लालता गांि गया था। जमींदार की बहुत सी बातें
जानता था, यहां तक फक िह बाग में ठरही एलोकेिी तक की कहनी सन

आया था। जब मौसी ने जमींदार के साथ रामतनंु बाबू की विधिा पत्र
ू िधू
के भेंट करने के बारे में पूछा तो उसने यथािक्तत अपने चेहरे को गंभीर
बनाकर पछ
ू ा, ‘इस विधिा पुत्रिधू की उम्र फकतनी है ?’

मौसी ने उत्तर, ‘दे खने में कैसी है ?’

‘बबल्कुल परी जैसी।’


इस पर उसने एक वििेर् प्रकार के भाि अपने चेहरे पर लाकर कहा, ‘हा,
उनसे भेंट करने के काम तो हो सकता है लेफकन मैं तो कहता हूं फक िह
आज राक तो िही नाि फकराए पर लेकर अपने वपता के घर चली जाए।’

‘यह तयों?’

‘इसशलए फक तम
ु कह रही हो फक िह दे खने में परी जैसी है ।’

‘तो इससे तया?’

‘इसी से तो सबकुछ होता है । परी जैसी है इसशलए जमींदार सरु े न्र नाथ
के यहां उसकी कुिल नहीं।’

मौसी ने अपने गाल पर हाथ रखकर कहा, ‘तू कैसी बातें करता है?’

बहनौत ने मस्
ु कुराकर कहा, ‘हां, यही बात है । दे िभर के लोग इस बात
को जानते हैं।’

‘तब तो उनसे भेंट करना उधचत नहीं है ।’

‘नहीं, फकसी भी तरह नहीं।’

‘लेफकन उसकी सारी सम्पवत्त तो चली जाएगी।’

‘जब चटजी महािय इस मामले में हैं तब सम्पवत्त शमलने की कोई आिा
नहीं है और फफर िह गहृ स्थदार की लड़की ठहरी। सम्पवत्त के साथ तया
उसका धमष भी चला जाए?’

दस
ू रे हदन उस स्त्री ने सारी बाते माधिी को बता दीं। सुनकर िह है रान
रह गई। हदन भर जमींदार सरु े न्रनाथ के बारे में सोचती रही। उसने
सोचा, यह ना तो बहुत ही पररधचत है , लेफकन उस व्यक्तत के साथ मेल
नहीं खाता। यह नाम तो उसने मन-ही-मन फकतने ही हदनों तक याद
फकया है । उसे आज पूरे पांच िर्ष हो गए। भल
ू गई थी उसे, लेफकन आज
बहुत हदनों बाद फफर याद हो आया।

स्िप्न और तनरा में माधिी ने बड़े कष्ट से िह रात बबताई। अनेक बार
उसे परु ानी बातें याद आ जाती थीं और उसकी आंखों में आंसू उमड़ आते
थे।

संतोर् कुमार ने उसके मुख की और डरते-डरते कहा, ‘मामी, मैं अपनी मां
के पास जाऊंगा।’

स्ियं माधिी ने भी यह बात कोई बार सोची थी, तयोंफक जब यहां


हठकाना ही नहीं रहा तब कािी िास करने के शसिा और कोई उपाय नहीं
है । उसने संतोर् के शलए ही जमींदार से भेंट करने के बारे में सोचाथा
लेफकने िह हो नहीं सकता। मोहल्ले टोले के और अड़ोसी-पड़ोसी मना कर
रहे हैं। इसके शसिा िह चाहे जहां जाकर रहे ।

अब एक नया बखेड़ा और खड़ा हो गया है । िह है उसका रूप और यौिन।


माधिी सौचने लगी, मेरा भाग्य भी कैसा फूटा है । यह सारे उपरि अभी
तक उसके िरीर के साथ जड़
ु े हुए हैं। आज सात िर्ष हो गए। यह सब बातें
उसके ध्यान में ही नहीं आईं और इन बातों का स्मरण करा दे ने िाला भी
कोई नहीं था। पतत की मत्ृ यु के बाद जब िह अपने वपता के घर चली गई
थी तब सभी ने उसे बड़ी दीदी और मां कहकर पक
ु ारा था। इन
सम्मानपूणष सम्बोधनों ने उसके मन को िद्
ृ ध बना डाला था। कहां का
रूप और कहां का यौिन? जहां उसे बड़ी बहन का काम करना पड़ता था
और मां जैसा स्नेह लुटना पड़ता था, िहां तया यह सब बातें याद रह
सकती? याद नहीं थी, लेफकन अब याद हो आई हैं। उसने लज्जा से काफी
हं सी हं सकर कहा, ‘यहां के लोग अंधे हैं या जानिर?’ लेफकन यह माधिी
की भल
ू थी। सभी का मन उसकी तरह इतकीस-बाईस िर्ष की उम्र में बढ़
ू ा
नहीं हो जाता।

तीन हदन बाद जमींदार का एक प्यादा उसके दरिाजे के ठीक सामने


आसन जमाकर बैठ गया ओर पुकार-पक
ु ारकर लोगों को जमींदार
सरु े न्रनाथ की नई कीततष के बारे में लोगों को बताने लगा। तब माधिी
संतोर् का हाथ पकड़कर दासी के साथ नाि पर जा बैठी।

गोला गांि से पन्रह कोस दरू सोमरापरु में प्रशमला का वििाह हुआ था।
आज एक िर्ष से िह ससरु ाल में ही है । िायद फफर िह कलकत्ता जाएगी,
लेफकन माधिी उस समय िहां कहां रहे गी? इसशलए उससे शमल लेना
आिश्यक है ।

सिेरे सूयष उदय होते ही माझझयों ने नाि खोल दी। धारा के साथ नाि
तेजी से बह चली। हिा अनक
ु ू ल नहीं थी, इसशलए नाि धीरे -धीरे बासों के
बीच से गज
ु रती, कटीले िक्ष
ृ ो और झाडड़यो को बचाती, घास-पता को
ठे लती हुई चलने लगी। संतोर् कुमार के आनंद की सीमा नहीं रही। िह
नाि की छत पर से हाथ बढ़ाकर िक्ष
ृ ों की पवत्तयां तोड़ने के शलए आतुर हो
उठा। माझझयों ने कहा, ‘अगर हिा नहीं रुकी तो नाि कल दोपहर तक
सोमरापुर नहीं पहुंच सकेगी।’

आज माधिी का तो एकादिी का व्रत है, लेफकन संतोर् कुमार के शलए


कहीं नाि बांधकर खाना बनाकर झखलाना होगा। माझझयों ने कहा,
‘हदस्ते पाड़ा के बाजार में अगर नाि बांधी जाए तो बहुत सुभाती रहे गा।
िहां सब चीजें शमल जाती है ।’

दासी ने कहा, ‘अच्छा भैया, ऐसा ही करो। क्जससे दस-ग्यारह बजे तक


लड़के को खाना शमल जाए।’

प्रकरण 8

काततषक के महीना समाक्प्त पर है । थोड़ी-थोड़ी सदी पड़ने लगी है । सुरेन्र


नाथ के ऊपर बाले कमरे में झखड़की के रास्ते प्रातुःकाल के सूयष का जो
प्रकाि बबखर रहा है, सरु े न्र हदखाई दे रहा है । झखड़की के पास ही ढे र सारे
बही-खाते और कागज-पत्र लेकर टे बल पर एक ओर सरु े न्र नाथ बैठे हैं।
अदायगी-िसूली, बाकी-बकाया, जमा खचे-बन्दोबस्त, मामले-मक
ु दमे,
फाइल आहद सब एक-एक करके उलटते और दे खते थे। इन सब बातों को
दे खना-सुनना उसके शलए एक तरह से आिश्यक भी हो गया है । न होने
से समय भी नहीं कटता है । िांतत के साथ इसके शलए बहुत कुछ झगड़ा
ही करना पड़ा है । बड़ी कहठनाई से िह उसे समझा सके हैं फक अक्षरों की
ओर दे खने से ही मनष्ु य के कलेजे का ददष नहीं बढ़ जाता या उसे तरु न्त
ही धर-पकड़कर बाहर ले जाने की आिश्यकता नहीं होती। लाचार होकर
िांतत ने स्िीकार कर शलया है और आिश्यकतानुसार िह सहायता भी
दे ती है ।

आजकल पतत पर िांतत का परू ा-परू ा अधधकार है । उसकी एक भी बात


टाली नहीं जाती। केिल दस-पांच कम्बख्त यार-दोस्त शमलकर कुछ
हदनों से िांतत को बहुत तलेि पहुंचा रहे थे, लेफकन पत्नी की आज्ञा से
अब सरु े न्र नाथ का घर से बाहर तनकलना तक बन्द है । िांतत ने डॉतटर
के परामिष और तनदे िों को जी-जान से पूरा करने की ठान ली है ।

अभी-अभी िह पास ही बैठी लालफीते से कागजों के बंडल बांध रही थी।


सुरेन्र नाथ ने एक कागज पर से शसर उठाकर पुकारा, ‘िांतत?’

िांतत कहीं चली गई थी। थोड़ी दे र में लौटकर आ गई, ‘मझ


ु े बल
ु ा रहे थे?’

‘हां, मैं जरा दफ्तर जाऊंगा।’

‘नहीं, जो कुछ चाहहए बताओ, मैं ला दे ती हूं।’

‘कुछ चाहहए नहीं। शसफष मथरु ा बाबू से कुछ बातें करना चाहता हूं।’

‘उन्हें बुलिा दे ती हूं। तुम्हें जाने की जरूरत नहीं, लेफकन इस समय


उनकी तया जरूरत पड़ गई?’

‘कह दे ना अगहन के महीने से उन्हें काम करने की जरूरत नहीं है ।’

िांतत और िंफकत हो उठी, लेफकन संतष्ु ट होकर पछ


ू ा., ‘आझखर उनका
तया अपराध है ?’

‘अपराध तया है , सो तो अभी ठीक-ठीक नहीं बता सकता, लेफकन बहुत


ज्यादती कर रहे है ।’

इसके बाद अदालल का एक हुतमनामा और कई कागज पत्र हदखाकर


कहा, ‘यह दे खो, गोल गांि की एक विधिा का सारा घर-बार नीलाम
करके खरीद शलया है । मझ
ु से एक बार पछ
ू ा तक नहीं।’
िांतत ने दुःु खी होकर कहा, ‘हाय! हाय! विधिा का? तब तो यह काम
अच्छा नहीं हुआ, लेफकन बबका कैसे?’

‘उस पर दस साल की मालगूजारी बाकी थी। ब्याज और मूलधन


शमलाकर ड़ेढ हजार रुपये की नाशलि हुई थी।’

रुपयों की बात सन
ु कर िांतत मथरू ा बाबू के प्रतत कुछ नमष पड़ गई और
मस्
ु कुराकर बोली, ‘इसमें मैनज
े र का दोर् है ? िह इतने रुपये कैसे छोड़
दे ते?’

सरु े न्र नाथ गंभीर होकर सोचने लगे।

िांतत ने पछ
ू ा, ‘तया इतने रुपये छोड़ दे ने चाहहए?’

‘छोड़ेग नहीं तो तया एक असहाय विधिा को घर से तनकालेंगे? तम


ु तया
यही राय दे ती हो?’

इस प्रश्न के अन्दर जो आग तछपी थी, िह िांतत के िरीर में समा गई।


दुःु खी होकर बोली, ‘नहीं! घर से तनकाल दे ने को नहीं कहती। अगर तम

अपने रुपये दान करने लगे तो मैं उसमें बाधक तयों बनने लगी?’

सरु े न्र नाथ ने हंसते हुए कहा, ‘िांतत यह बात नहीं है । मेरे रुपये तया
तम्
ु हारे नहीं हैं? लेफकन यह बताओ, जब मैं न रहूंगा उस समय तम
ु ...।’

‘कैसी बातें करते हो?’

‘मुझे जो अच्छा लगता है, िह तुम करोगी न?’


िांतत की आंखों में आंसू आ गए, तयोंफक उसके पतत की िारीररक हालत
अच्छी नहीं थी। बोली, ‘इस तरह की बातें तयो करते हो?’

‘अच्छी लगती हैं, इसशलए करता हूं। िांतत तुम मेरी इच्छाओं और
आकांक्षाओं को याद नहीं रखोगी?’

िांतत ने आंखो पर आंचल रखकर शसर हहला हदया।

कुछ दे र बाद सुरेन्र नाथ ने कहा, ‘यह तो मेरी बड़ी दीदी का नाम है ।’

िांतत ने आंखों पर से आंचल हटाकर सुरेन्र नाथ की ओर दे खा।

सरु े न्र नाथ ने एक कागज हदखाते हुए कहा, ‘यह दे खो मेरी बड़ी दीदी का
नाम है ?’

‘कहा?’

‘यह दे खो माधिी दे िी-क्जसका मकान नीलाम हुआ है ।’

पल भर में िांतत बबल्कुल बझ


ु गई। ‘इसी से िायद लौटा दे ना चाहते है ।’

सुरेन्र नाथ ने हंसते हुए उत्तर हदया, ‘हां, इसशलए। मैं सब कुछ लौटा
दं ग
ू ा।’

माधिी की बात सन
ु कर िांतत कुछ दुःु खी हो उठती। लगा उसके अन्दर
ईष्याष की भािना थी। उसने कहा, ‘हो सकता है फक िह तुम्हारी दीदी न
हो। केिल माधिी नाम है । शसफष नाम से ही तया...?’

‘तया बड़ी दीदी के नाम का मैं कुछ सम्मान नहीं करूंगा?’


‘भले ही करो, लेफकन िह स्ियं तो इस जान नहीं पाएंगी।’

‘लेफकन मैं अनादर नहीं कर सकता। भले ही िह जान न पाए।’

‘नाम तो ऐसे बहुत लोगों के हैं।’

‘तुम दग
ु ाष का नाम शलखकर उस पर पांि रख सकती हो?’

‘छीुः कैसी बातें कहते हो? दे िी का नाम लेकर।’

सुरेन्र नाथ हं स पडा, ‘अच्छा, दे िी का नाम न सही लेफकन मैं तुम्हें पांच
हजार रुपये दे सकता हूं, अगर एक काम कर सको।’

‘कौन-सा काम?’ िांतत ने प्रसन्न होकर पूछा।

दीिार पर सरु े न्र नाछ का एक फोटो टं गा था। उसकी और उं गली से


इिारा करके बोले, ‘यह फोटो अगर...।’

‘तया?’

‘चार ब्राह्मणों के द्िारा यहद नदी के फकनारे जला सको तो...।’

कहीं पास ही बबजली धगरने पर जैसे सारा खन


ू पल भर में ही सख
ू जाता
है , सांप के काटे हुए रोगी की तरह बबल्कुल नीला पड़ जाता है, ठीक िही
दिा िांतत की हो गई। इसके बाद धीरे -धीरे उसके चेहरे का खून लौट
आया। दुःु ख भरी नजरों से पतत की ओर दे खती हुई चुपचाप नीचे उत्तर
गई। परु ोहहत को बल
ु ाकर िांतत और सिषस्ि िाचन की यथोधचत रूप से
व्यिस्था की और राजा की आधे राजस्ि की मन्नतें मानकर मन-ही-मन
प्रततज्ञा की फक यह बड़ी दीदी चाहे कोई भी हो, उनके बारे में कभी कुछ न
कहूंगी। इसके बाद बहुत दे र तक अपने कमरे का दरिाजा बन्द करके
आंसू बहाती रही। अपने जीिन में ऐसी कड़िी बात आज से पहले उसने
कभी नहीं सुनी थी।

सुरेन्र नाथ पहे ल तो कुछ दे र चुप बैठे रहे , फफर बाहर चले गए।

दफ्तर में मथरू ा बाबू से भेंट हुई। पछ


ू ा, ‘गोला गांि में फकसकी सम्पतत
नीलाम हुई है?’

‘मत
ृ रामतनु सान्याल की विधिा पुत्रिधु की।’

‘तयों?’

‘दस साल की मालगज


ु ारी बाकी थी।’

‘खाता कहां है ?’ दे खें।’

मथुरानाथ पहले तो सन्नाटे में रह गए। फफर बोले, ‘खाता िगैरह तो


अभी तक पिना से मंगाया ही नहीं गया है ।’

‘खाता लाने के शलए आदमी भेजो। विधिा के रहने तक के शलए जरा सी


जगह भी नहीं छोड़ी गई?’

‘िायद नहीं।’

‘तब िह रहे गी कहा?’

मथुरा बाबू ने साहस बटोरकर उत्तर हदया, ‘इतने हदनों तक जहां थी, िही
रहे गी। ऐसा ही लगता है ।’
‘इतने हदनों तक कहां थी?’

‘कलकत्ता में अपने वपता के धर।’

‘वपता का नाम जानते हो?’

‘हां जानता हूं। ब्रजराज लाहहड़ी।’

‘और विधिा का नाम?’

‘माधिी दे िी।’

सुरेन्र नाथ शसर िहीं झुकाकर बैठ गए। मथरु ा बाबू ने घबराकर पूछा.
‘तया हुआ?’

सरु े न्र नाथ ने इस प्रश्न का कोई उत्तर नहीं हदया। एक नौकर बल


ु ाकर
उससे कहा, ‘एक अच्छे धोड़े पर जीन कसने के शलए कह दो। मैं इसी
समय गोला गांि जाऊंगा। यहां से गोला गांि फकतनी दरू है, जानते हो?’

‘लगभग दस कोस।’ अभी नौ बजे हैं। एक बजते-बजते िहां पहुंच


जाएंगे।

‘उत्तर की ओर। आगे जाकर पक्श्चम की ओर मुड़ना होगा।’

इसके बाद चाबक


ु पड़ते ही धोड़ा दौड़ता हुआ तनकल गया।

िांतत को यह समाचार शमला तो ठाकुर जी िाले कमरे में अपना शसर


पटक-पटककर फोड़ शलया और बोली, ‘ठाकुर जी, तया यही था तुम्हारे
मन में? तया अब मैं उन्हें फफर पाऊंगी?’
इसके बाद दो प्यादे धोड़े पर सिार होकर गोला गांि की ओर तेजी से दौड़
पड़े। झखड़की में से उन्हें दे खकर िांतत धीरे -धीरे अपने आंसू पोंछने लगी।
उसने कहा, ‘मा दग
ु े, एक जोड़ भैंसा चढाऊंगी-जो चाहोगी िही दं ग
ू ी। बस
उन्हे लोटा लाओ। मैं अपना सलेजा चीरकर लहूं चढ़ाऊंगी। क्जतना भी
चाहो उतनी ही-जब तक तम्
ु हारी प्यास न बझ
ु े।’

गोलागांि पहुंचने में और दो कोस बाकी हैं। धोड़े की टापें तक फेन से बर


गई हैं। जी जान से धूल उड़ाता, खेतों की मेड़ो को तोड़ता हुआ और नालों
को फांदता हुआ घोड़ा भागता चला जा रहा है । शसर के ऊपर प्रचंड सय
ू ष
दहक रहा है ।

धोड़े पर सिार रहने की हालल में ही सरु े न्र नाथ का शमचलाने लगा था।
लग रहा था फक जैसे अन्दर की सारी नसें कटकट बाहर तनकल पड़ेगी।
इसके बाद ही खांसी के साथ खन
ू की दो-तीन बंद
ू े टप से धल
ू से अटे कुते
पर टपक पड़ी। सरु न्र नाथ ने हाथ से मंह
ु पोंछ शलया।

एक बजे से पहले ही िह गोला गांि में पहुंच गए।

रास्ते में एक दक
ु ानदार से पूछ्, ‘यह गोला गांि है?’

‘हां।’

‘रामतनु सान्याल का मकान फकधर है?’

‘उस और है ।’

धोड़ा फफर दौड़ने लगा और थोड़ी ही दे र में उस मकान के सामने पहुंच


गया।
दरिाजे पर ही एक शसपाही बैठा था। अपने माशलक को दे खकर उसने
प्रणाम फकया।

‘घर में कौन है ?’

‘कोई नहीं।’

‘कोई नहीं? ‘कहां गए?’

‘सिेरे नाि लेकर चले गए।’

‘कहां? फकस रास्ते से?’

‘दक्ति की और।’

‘नदी के फकनारे -फकनारे रास्ता है ? धोड़ा चल नहीं सकता था। सरु े न्र नाथ
ने धोड़ा छोड़ हदया और पैदल ही चल पड़े। रास्ते में एक बार उन्होंने दे खा
फक कुते पर कोई जगह खून की बद
ूं े धगरकर धल
ू में जम गई हैं। इस
समय भी उनके होठों पर से खून बह रहा था।

नदी में उतरकर एक अंजली जल वपया और फफर जी-जान से चलना िरू



कर हदया। पैंर में जत
ू े तक नहीं हैं। सारा िरीर कीचड़ से भर गया है । कुते
पर खून के दाग हैं, जैसे फकसी ने छाती पर खून तछड़क हदया हो।

हदन ढलने लगा। पैर अब आगे नहीं बढ़ रहे । लगता है अगर लेट गए तो
हमेिा के शलए सो जाएगे, इसशलए जैसे अक्न्तम िैया पर इस जीिन का
महाविश्राम प्राप्त करने की आिा शलए पागलों की तरह दौड़ते चले जा
रहे हैं। िरीर में क्जतनी भी िक्तत है, उसे बबना फकसी कृपणता के खचष
करके अन्त में अनन्त आश्रय पा लेंगे और फफर कभी नहीं उठें गे।
नदीं के मोड़ के पास िह एक नाि है न? करे मूं के झरू मट
ु को हटाती हुई
रास्ता तनकाल रही है ।

सुरेन्र नाथ ने पुकारा ‘बड़ी दीदी...।’

लेफकन सख
ू े गले से आिाज नहीं तनकली। केिल दो बंद
ू खन
ू तनकलकर
बह गया।

‘बड़ी दीदी...।’ फफर दो बद


ूं खून बाहर तनकल आया।

‘बड़ी दीदी।’ फफर दो बूंद खून।

करे मंू के झरु मट


ु ने नाि की गतत को रोक हदया है । सरु े न्र नाथ पास पहुंच
गए। उन्होंने फफर पक
ु ारा, ‘बड़ी दीदी...।’

हदन भर उपिास और मानशसक कष्ट के कारण माधिी बेजान-सी संतोर्


कुमार के पास ही आंखे मह
ंू लेटी थी। सहसा उसके कानों में आिाज
पहुंची। कोई धचर-पररधचत स्िर पक
ु ार रहा है । माधिी उठकर बैठ गई।
अंदर से मंह
ु तनकालकर दे खा। सार बदन धल ू और फकचड़ से भरा हुआ है ।
अरे , यह तो मास्टर साहब हैं।’

‘अरे नयनतारा की मां, माझी से जल्दी नाि लगाने के शलए कह दे ।’

सुरेन्र नाथ तब धीरे -धीरे फकनारे पर धगरे जा रहे थे। सब लोगों ने


शमलकर उन्हें उठाया और फकसी तरह नाि पर लाकर शलटा हदया। मुंह
और आंखो पर जल तछड़का।

एक माझी ने पहचानकर कहा, ‘यह तो लालता गांि के जमींदार है ।’


माधिी ने इष्ट-किच के साथ अपने गले का सोने का हार उतारकर उसके
हाथ में दे हदया और बोली, ‘एक राक तक लालता गांि में पहुंचा दो। मैं
तुम सभी को एक-एक हार इनाम में दं ग
ू ी।’

सोने का हार दे खकर उनमे से तीन मांझी कंझे पर रस्सी लेकर नीचे उतर
पड़े।

संध्या के समय सरु े न्र नाथ को होि आया। आंखे खोलकर माधिी की
ओर दे खते रहे । उस समय माधिी के चेहरे पर धूंधट नहीं था। केिल माथे
का कुछ भाग आंचल से ढका था। िह अपनी गोद में सरु े न्र नाथ का शसर
रखे बैठी थी।

कुछ दे र तक दे खते रहने के बाद सरु े न्र नाथ ने पछ


ू ा, ‘तुम बड़ी दीदी हो
न?’

माधिी ने पहले तो बड़ी सािधानी से सरु े न्र नाथ के होठों पर लगी खन



की बद
ंू े पोंछी। फफर अपने आंसू पोंछने लगी।

‘तुम बड़ी दीदी हो न?’

मैं माधिी हूं।’

सरु े न्र नाथ ने आंखे मद


ंू कर कोमल स्िर में कहा, ‘हां िही।’

मानो सारे संसार का सुख इसी गोद में तछपा हुआ था। इतने हदनों के बाद
सरु े न्र नाथ िह सख
ु आज खोज पाया है, इसशलए होठों के कोनों पर
मासम
ू -सी मस्
ु कुराहट रें ग उठी है, ‘बड़ी दीदी, बहुत कष्ट है ।’
छलछल करती हुई नाि लगातार दौड़ी जा रही है । छप्पर के अन्दर
सुरेन्र के चेहरे पर चन्रमा की फकरणें पड़ रही हैं। नयनतारा की मां एक
टूटा हुआ पंखा लेकर धीरे -धीरे झल रही है ।

सुरेन्र नाथ ने धीरे से पूछा, ‘कहां जा रही थी?’

माधिी ने रुं धे गले से कहा, ‘प्रशमला की ससरु ाल’

‘तछुः! बड़ी दीदी, भला इस तरह समधी के घर जाना होता है ?’

***

अपनी अट्टाशलका के सोने के कमरे में बड़ी दीदी की गोद में शसर रखकर
सरु े न्र नाथ मत्ृ यु िैया पर पड़े हुए हैं। उनके दोनों पैर िांतत अपनी गोद
में शलए आंसओ
ु ं से धो रही है । पिना में क्जतने डॉतटर और िैद्य हैं, उस
सबके सक्म्मशलत प्रयास से भी खन
ू रुक नहीं रहा। पांच िर्ष पहले की
चोट अब खून उगल रही है ।

माधिी के ह्दय के भीतर की बात स्पष्ट रूप से नहीं कही जा सकती


तयोंफक हम उस अच्छी तरह नही जानते है । जान पड़ता है जैसे उसे पांच
िर्ष पहले की बातें याद आ रही हों। उसने सरु े न्र नाथ को घर से तनकाल
हदया था और लौटा नहीं सकी थी और आज पांच िर्ष के बाद सुरेन्र नाथ
लौट आया है ।

िाम के बाद दीपक की उजली रोिनी में सरु े न्र नाथ ने माधिी के चेहरे
की ओर दे खा पैरां के पास िांतत बैठी हुई थी। िह सुन न कसे इसशलए
उसने माधिी का मख
ु अपने मुख के पास खींचकर धीरे से कहा, ‘बड़ी
दीदी, उस हदन की बात याद है क्जस हदन तुमने मझे घर से तनकाल हदया
था। आज मैंने तुमसे बदला ले शलया। तुम्हें भी तनकाल हदया, तयों बदला
चुक गया न?’

माधिी ने सबकुछ भुलकर अपना शसर सरु े न्र नाथ के कंधे पर रख हदया।

इसके बाद जब उसे होि आया तब घर में रोना-पीटना चमा हुआ था।

समाप्त

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