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Ch - Anuchchhed Lekhn (8)
Ch - Anuchchhed Lekhn (8)
अनु च्छेद एक विचार या भाि पर विखा गया िाक्य - समू ह होता है । इसमें शब्द सीमा के भीतर ही विषय-पररचय, िर्णन ि वनष्कषण
विखने होते हैं । अनु च्छेद विखने का विषय दै वनक घटना, अनु भि, सूक्ति या काव्य पंक्ति आवद कुछ भी हो सकता है ।
सोंकेत- लबों दु- भू वमका •बच्चे असुरवित क्यों? •असुरिा के कारर्• सुरिा के उपाय।
बच्चों को विद्यािय में भे जते समय माता-वपता इस बात के विए आश्वस्त होते हैं वक विद्यािय में उन्हें वशिा प्रदान करने के विए
वशिक और दे खभाि एिं सुरिा के विए प्रशासन मौजू द है , परं तु आजकि विद्याियों में बच्चों के साथ बढ़ती वहं सा एिं अनै वतक
आचरर् की घटनाओं ने बच्चों की सुरिा पर प्रश्नवचह्न िगा वदया है । बच्चे सुरवित रहकर वबना भय के वशिा प्राप्त कर सकें। इसके
विए आिश्यक है वक उन्हें सुरवित िातािरर् वमिे । िे वकन, आजकि विद्याियों में उनकी सुरिा एक गंभीर विषय बन गई है ।
वशिक, विद्यािय प्रशासन, अवभभािक एिं सरकार सभी को इसके विए वमिकर कायण करना होगा। माता- वपता विद्यािय में प्रिेश
वदिाते समय यह सुवनवित करें वक विद्यािय प्रशासन एिं वशिक बच्चों की सुरिा के प्रवत सजग हैं एिं विद्यािय में सुरिा के उवचत
प्रबंध हैं । बच्चों को विद्यािय िाते समय एिं घर पहुँ चाते समय उनको छोड़ने िािे िाहन में वशिक अथिा विद्यािय प्रशासन के
व्यक्ति को साथ आना जाना चावहए। िाहन हो। इस बात का ध्यान उन्हें नौकरी पर रखते समय रखना आिश्यक है । सरकार बच्चों
की सुरिा को िे कर विद्याियों को वनयमाििी प्रदान करे एिं उनके कड़ाई से पािन हे तु वनगरानी रखे । बच्चों को भी सजग रखने
के विए उन्हें उनकी सुरिा से जु ड़ी बातों से अिगत कराना चावहए । यवद सभी िोग अपना कतणव्य ईमानदारी से पूरा करें गे और
परस्पर सहयोग करें गे, तो वनवित ही हम बच्चों को विद्यािय में सुरवित रख पाएुँ गे।
सोंकेत- लबों दु- • बचपन में काटू ण न दे खने की आदत अनोखी शक्तियाुँ प्राप्त करने की चाहत • अचानक जादू नगरी पहुँ चना • वदव्य
शक्तियाुँ पाकर हिा में उड़ना • वगरने पर पता चिा वक सपना था।
मैं बचपन से काटू ण न दे खता आया हुँ । हमे शा इस बात से चमत्कृत रहा हुँ वक कैसे बैटमै न, सुपरमै न जै से व्यक्तियों के पास असीम
ताकत होती है । एक जादू की तरह कैसे ये शक्तियाुँ प्राप्त कर िे ते हैं ? विर है री पॉटर ने तो कमाि ही कर वदया ! एक वदन मैं यूुँ ही
सोचता था वक काश! मैं भी कुछ शक्तियाुँ प्राप्त कर पाता। अचानक एक वदन मैं ने स्वयं को जादू नगरी में पाया। मैं है रान था वक मैं
यहाुँ कैसे पहुँ च गया। एक आिाज़ आई, "बच्चे" तुम बहत भाग्यशािी हो जो यहाुँ तक पहुँ च गए। मैं तुम्हें तीन चीजें दू ुँ गा, माुँ गो क्या
माुँ गते हो?" मु झे कुछ समझ में नहीं आ रहा था। आिाज़ विर से , " जल्दी करो, कहीं मौका चिा न जाए ।" मैं ने वहम्मत करके कहा,
"मु झे असीम शक्तियाुँ वमिे , समय आगे क्तखसक जाए और मैं वििरपूि का एक महत्वपूर्ण िुटबॉि क्तखिाड़ी बन जाऊुँ।" अगिे ही
पि में मैं िगभग 22 बरस का था। वििरपूि की शटण पहने मै च खे ि रहा था और जीतते ही मैं पूरे स्टे वियम को अपने साथ िे कर
हिा में खु शी से उड़ रहा था। मैं ज़ोर से वचल्लाया और आुँ ख खु िते ही खु द को वबस्तर से नीचे वगरा पाया।
सोंकेत-लबों दु- •संतोष सिोत्तम धन •असंतोष के कारर् नै वतकता का पतन • संतोष से इच्छाओं एिं दु भाण िनाओं का नाश • जीिन
में सुख, शां वत ।
मनु ष्य के पास अने क प्रकार के धन हो सकते हैं -सुख सुविधाओं के रूप में , भोग-वििास की सामवियों के रूप में या पैसे के रूप
में , परं तु इनमें से वकसी भी प्रकार का धन मनुष्य को सच्चा सुख नहीं दे ता। चंचि मन कभी भी संतुष्ट नहीं होता। ईष्याण , िािसा और
कामना की भािनाओं के कारर् मनु ष्य सदा असंतुष्ट रहता है और नै वतक मू ल्ों को ताक पर रखकर गित काम करने में भी नहीं
वहचवकचाता। परं तु जब मनु ष्य संतोष रूपी धन प्राप्त कर िे ता है , तब उसे अन्य वकसी प्रकार के धन की कामना नहीं रहती। िे वकन
इसका तात्पयण यह नहीं वक संतोष की भािना मनुष्य को उद्यमहीन बनाती है , बक्ति सच्ची संतुवष्ट तो कमण शीिता में ही है । जब संतोष
आ जाता है , तो सारी इच्छाएुँ और िोभ स्वयंमेि समाप्त हो जाते हैं । संतोष आ जाने से ऐसी आनं दमयी दशा हो जाती है , वजसमें न
ईष्याण होती है न द्वे ष, न असंतोष होता है न अशां वत, न िोभ होता है न िािच; जीिन बस सुखी, संतुष्ट ि वचंतारवहत हो आनं द से
भरपूर हो जाता है । संतोष रूपी धन प्राप्त हो जाने पर अन्य सभी प्रकार के धन धूि के समान वनरथण क प्रतीत होते हैं ।
सोंकेत- लबों दु- •पवियों का अनू ठा संसार • आसमान में बादिों को छूने की कोवशश • प्रकृवत की गोद में सुखी जीिन ।
पवियों की दु वनया वकतनी स्वच्छं द होती है , वकतनी अनोखी, मस्ती से भरपूर ! आसमान में उड़ते रं ग-वबरं गे पिी सदै ि मे रा मन
िु भाते रहे हैं । मे रे घर के बरामदे में एक बुिबुि अकसर आया करती है । जब भी मैं उसे दे खता हुँ तो सोचता हुँ वक मैं भी पिी बन
जाऊुँ तो वकतना अच्छा हो! पिी बनकर दू र आसमान में उड़ते हए मैं बादि को छूने की कोवशश करता। वदन भर उड़ते-उड़ते जब
मैं थक जाता तो वकसी तािाब के वकनारे बैठकर अपनी भूख-प्यास वमटाता । मैं कभी भी शहर में रहने िािी वचवड़या बनना पसंद
नहीं करता । मैं तो जं गि में रहता । बुँधकर रहना मु झे वबिकुि अच्छा नहीं िगता। मैं हमे शा सािधान रहता वक कोई मु झे पकड़
न िे । झरने का मीठा पानी, हरे -भरे पेड़ मु झे सदा आकवषण त करते। वकतनी अद् भु त दु वनया होती ! चारों ओर वबखरी प्रकृवत, न
पढ़ाई की वचंता न वकसी की िाुँ ट का िर। बस अपनी मरज़ी से उड़ना- घूमना और रात होते ही आराम से अपने नीड़ में विश्राम
करना
5. बु रा ज दे खन मैं चला
सोंकेत लबों दु - • दू सरे व्यक्ति में दोष वनकािना आसान • आत्मवनरीिर् करने पर ज्ञान से स्वयं को सुधारो, तो दू सरों में अिगुर्
कम नज़र आएुँ गे।
जब कभी मैं वकसी व्यक्ति को दू सरे व्यक्ति की बुराई करते हए दे खती हुँ , तब मे रे मन में यह विचार आता है वक वकतना सरि है ,
दू सरों में कवमयाुँ वनकािना या बुराइयाुँ ढू ुँ ढ़ना। हमें केिि बुराइयाुँ ही क्यों वदखाई दे ती हैं ? अच्छाइयाुँ क्यों नहीं वदखतीं ? क्या बुराई
करने िािा व्यक्ति कभी अपने भीतर की कमज़ोररयों या बुराइयों को दे खने या ढू ुँ ढ़ने का प्रयास करता है ? यवद प्रत्येक व्यक्ति दू सरों
की कवमयों पर ध्यान न दे कर आत्मवचंतन करे , तो िह पाएगा वक िह स्वयं भी बुराइयों का पुतिा है । परं तु ऐसा केिि ज्ञानी व्यक्ति
ही कर सकते हैं । साधारर् व्यक्ति को अपने भीतर केिि गुर् ही वदखाई दे ते हैं । िह अपनी प्रशं सा ि दू सरों की बुराई करते नहीं
थकता । यवद हम अपन कवमयों को पहचानकर उन्हें दू र करने का प्रयास करें , तो हम दे खेंगे वक संपूर्ण समाज स्वयं सु धर जाएगा।
दू सरों में बुराइयाुँ या अिगुर् ढू ुँ ढ़ना सबसे बड़ी बुराई है । इसीविए संत कबीर ने कहा है -
6. स्वािलोंबन
स्वाििं बन सििता की कुंजी है । स्वाििं बी व्यक्ति जीिन में यश और धन दोनों अवजण त करता है । दू सरे के सहारे जीने िािा व्यक्ति
वतरस्कार का पात्र बनता है । वनरं तर वनरादर और वतरस्कार पाता हआ िह अपने -आप में हीन भािना से िस्त होने िगता है । जीिन
का यह तथ्य व्यक्ति-जीिन पर ही नहीं, िरन जातीय ि राष्टरीय जीिन पर भी िागू होता है। यही कारर् है वक स्वाधीनता संिाम के
दौरान गां धी जी ने दे शिावसयों में राष्टरीय गौरि का भाि जगाने हे तु स्वाििं बन का संदेश वदया था। इस वदशा में गां धी जी के चरखा
आं दोिन और दां िी यात्रा बड़े प्रभािी कदम वसद्ध हए । स्वाििं बन के मागण पर चिकर ही व्यक्ति, जावत, समाज अथिा राष्टर उत्कषण
को प्राप्त करते हैं । एक कवि के शब्दों में 'स्वाििं बन की एक झिक पर न्योछािर कुबेर का कोष' ।
आओ कऱें
(क) समय का सदु पयोग (ख) परोपकार (ग) मन के हारे हार है , मन के जीते जीत
(घ) भारत में बुिेट टर े न (ङ) विद्याथी और अनु शासन (च) वशिक वदिस
(छ) मोबाइि फोन : िाभ एिं हावन (ज) वमत्रता बड़ा अनमोि रतन (झ) अने कता में एकता, वहं द की विशे षता
(ञ) प्रातः कािीन भ्रमर् का आनं द (ट) वनज भाषा उन्नवत अहै , सब उन्नवत को मू ि