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Unit – 2 भारत के कु छ प्रमुख भक्त

और उनके विचार
इकाई 1: भारतीय भक्ति परं परा
➢ भक्ति : अर्थ और अवधारणा
➢ भक्ति के वववभन्न संप्रदाय और वसद्ांत
➢ भारत की सांस्कृवत एकता और भक्ति
➢ भक्ति का अक्तिल भारतीय स्वरूप

इकाई- 2: भारत के कुछ प्रमुि भि और उनके ववचार


➢ संत वतरुवल्लुवर, आण्डाल, अक्कमहादे वी, ललद्यद, मीराबाई, तुलसीदास, कबीरदास, रै दास, गुरु नानक,
सूरदास, जायसी, तुकाराम, नामदे व, नरवसंह मेहता, वेमना, कंु चन, नक्तियार, चतैन्य महाप्रभु, चंडीदास,
सारला दास, शंकरदे व

इकाई 3: मानव मूल्य और भक्ति


➢ मानव मूल्य का अर्थ
➢ चयवनत भि कववय ं की जीवन मूल्यपरक कववताएँ
https://youtu.be/7L4vt0o-CJE
सं त वतरुिल्लुिर
• वतरुवल्लुवर एक तवमल कवव-संत र्े इन्हें वल्लुवर के नाम से भी जाना जाता है

• वतरुवल्लुवर क दविण का कबीर कहा जाता है

• कबीर एवं इनके जीवन में आश्चयथजनक समानता है । न केवल जीवन बक्ति
ववचार ं में भी समानता दे िने क वमलती है

• वतरुवल्लुवर क जैन धमथ से संबंवधत माना जाता है ।

• लेवकन वहं दुओ ं का दावा है वक वतरुवल्लुवर वहं दू धमथ से संबंवधत र्े।

• वतरुवल्लुवर जावत व्यवस्र्ा में ववश्वास नही ं रिते र्े।


वतरुवल्लुवर के द्वारा संगम सावहत्य में वतरुक्कुरल या 'कुराल' की रचना की गई र्ी।

वतरुक्कुरल में 10 कववताएँ व 133 िंड शावमल हैं ,

वजनमें से प्रत्येक क तीन पुस्तक ं में ववभावजत वकया गया है:

1) अराम- (सदगुण)
2) प रुल- (सरकार और समाज)
3) कामम- (प्रेम)

वतरुक्कुरल की तुलना ववश्व के सभी धमों की महान पुस्तक ं से की गई है ।


इसे वेद ं वजतना महत्वपूणथ माना जाता है
पाण्ड्य राजाओं की राजधानी मदरु ा वर्तमान मद्रास के एक छोटे से गााँव मयलापरु में
संर् तर्रुवल्लुवर का जन्म हुआ।

जन्म के समय ही न चाहर्े हुए मााँ- बाप को इन्हें त्यागना पडा।

एक तनिःसंर्ान जल
ु ाहा दम्पत्ति की तनगाह इन पर पडी। ईश्वरीय कृपा समझकर दोनों
ने
न केवल बच्चे को स्वीकारा बल्ल्क बडे यत्न से बालक को पाला ।
➢तर्रुवल्लुवर जब वयस्क हुए र्ो मार्ा-त्तपर्ा से अनुमतर् लेकर
वे र्प हे र्ु जंगल की ओर चले गए।

कठिन साधना से ध्यान, योग, ससद्धधयााँ आठद प्राप्र् की

उन्हें यह बोध हुआ कक संसार या गह


ृ स्थी में रहकर ही सच्ची सेवा एवं साधना की
जा सकर्ी है ।
➢तर्रुवल्लव
ु र ने वसुकी नामक कन्या से त्तववाह ककया बल्ल्क जीवनपयंर् बडे ही
श्रद्धा, तनष्िा एवं प्रेम से इसका तनवातह भी ककया।

➢त्तववाह के बाद तर्रुवल्लव


ु र अपनी पत्नी के साथ गााँव मयलापरु में आकर रहने
लगे।

➢संर् तर्रुवल्लव
ु र आजीत्तवका हे र्ु अपने पैर्क
ृ व्यवसाय बन
ु ाई के काम को
आरं भ ककया।
➢संर् तर्रुवल्लव
ु र का धमत
➢ संर् तर्रुवल्लव
ु र की सहजर्ा, सरलर्ा, समपतण एवं कल्याण की चाह ने उन्हें अत्यंर्
लोकत्तप्रय बना ठदया।
➢ इन्हें भारर्ीय धमत, अध्यात्म व संस्कृतर् का प्रर्ीक परु
ु ष कहा जार्ा है

➢ शैव, वैष्णव, जैन और बौद्ध सभी उन्हें अपना बर्ाने की चेष्टा करर्े हैं

➢ जहााँ सगण
ु मर् वालों का यह कहना है कक उन्होंने अपने ग्रंथ 'तर्रुक्कुरल' का आरम्भ
सवतशल्क्र्मान भगवान कोसादर नमन करर्े हुए ककया है , र्ो वहीं तनराकार वाठदयों का
यह कहना है कक उन्होंने इस ग्रंथ का पहला अध्याय जैन धमत के प्रथम र्ीथंकर ऋषभदे व
को समत्तपतर् ककया है ।
➢वे एक सच्चे उदार धमततनष्ि संर् थे।

➢उनकी ख्यातर् का ये प्रमाण है कक चेन्नई के कोत्तवल मंठदर से


लेकर लंदन यूतनवससतटी एवं कन्याकुमारी के दक्षिणी ससरे पर
स्थात्तपर् प्रतर्माएाँ उनके व्यल्क्र्त्व का प्रसार कर रही हैं।
कृतर्त्व/रचना -
➢संर् तर्रुवल्लव
ु र द्वारा संगम साठहत्य में तर्रुक्कुरल या 'कुराल' की रचना की गई
थी।
➢तर्रुक्कुरल में 10 कत्तवर्ाएाँ व 133 खंड शासमल हैं, ल्जनमें से प्रत्येक को र्ीन
पस्
ु र्कों में त्तवभाल्जर् ककया गया है :
➢अराम - (सदगण
ु )।
➢पोरुल - (सरकार और समाज)।
➢कामम - (प्रेम)।
➢तर्रुक्कुरल की र्ल
ु ना त्तवश्व के प्रमख
ु धमों की महान पस्
ु र्कों से की गई है ।
संर् तर्रुवल्लव
ु र के त्तवचार

✓ कमत और कर्तव्य के बदले में कुछ भी लालसा नहीं होनी चाठहए


✓ दान-र्प जैसे पण्ड
ु य कमत करने चाठहए
✓ सदै व सच बोलना चाठहए
✓ जीवों की रिा करनी चाठहए
✓ जो लोग दस
ू रों के साथ खश
ु ीपव
ू क
त रहना नहीं जानर्े उन्हें यह संसार ठदन में भी रार्
के समान अंधकारमय ठदखेगा।
✓ व्यल्क्र् की आसल्क्र् जैसे-जैसे समटर्ी जाएगी वह दिःु खों से मक्
ु र् होर्ा जाएगा।
आंडाल
आण्डाल अलवार मवहला संत र्ी

अलवार – ववष्णु भि ( कृष्ण )

आण्डाल बारह अलवार संत ं में वह एकमात्र मवहला संत र्ी ।

आण्डाल क दविण की मीरा भी कहा जाता है


आण्डाल क , दविण भारत में ऐसी कृष्ण भक्त के रूप
में जाना जाता है

ज कृष्ण की प्रेयसी र्ी और वजनका वववाह कृष्ण के


सार् ही हुआ र्ा।

ऐसी मान्यता र्ी वक आण्डाल पूवथ जन्म में कृष्ण की ग पी


र्ी, वजनकी कृष्ण से एकाकार ह नी की लालसा शेष रही
गई र्ी इस लालसा की पूवतथ दूसरे जन्म में आण्डाल के
रूप में हुआ ।
➢ आण्डाल कृष्ण प्रेम में ही खोयी रहर्ीं थी ।

➢ उन्होंने एक रार् स्वप्न दे खा कक उनका त्तववाह श्रीकृष्ण के साथ हो गया है ।

➢ वह सदै व श्री कृष्ण की उपल्स्थतर् की अनुभूतर् करर्ी और स्वयं को उनकी दासी


मानकर उनके ध्यान में डूबीं रहर्ीं।
रचना -
आण्डाल दविण भारत के अलवर परम्परा की एक संत र्ी

अण्डाल ने कृष्ण के प्रवत अपनी समपथण क वजन शबद ं में , वजन भक्ति गीत
में व्यक्त वकया वह

(1)वतरूप्पावै ग्रंर् के रूप प्रवसद् हुआ ( तवमल भाषा में )

वजसका गायन आज भी श्रद्ा के सार् वकया जाता है ।

(2) नवचयार वर्रुम ली में अण्डाल ने स्वयं क भगवान की दुल्हन के रूप में
प्रस्तुत वकया है । ये द न ं ग्रंर् आज भी दविण भारत में कृष्ण भक्ति और
श्रद्ा के प्रवतक बनी हुई हैं ।
आंडाल के त्तवचार

➢ उनकी साधना माधय


ु त एवं दांपत्य भाव की है ।

➢ आंडाल के पदों में कृष्ण के प्रतर् अनन्य समपतण का भाव ठदखर्ा है ।

➢ आंडाल का यह दृढ़ त्तवश्वास है कक भगवान सब जगह है

➢ जो मनष्ु य दृढ़ त्तवश्वास की भावना से भगवान की शरण में जार्ा है वहीं उसकी कृपा का पात्र बनर्ा

है

➢ यठद संसारी व्यल्क्र् भल्क्र् साधना का असभनय भी करर्ा है र्ो भगवान उसकी रिा में र्त्पर हो

जार्े हैं।
अक्कमहादे वी
संत अक्कमहादे वी बारहवी ं शताब्दी की प्रख्यात कन्नड़ कववयत्री र्ी

अक्का महादे वी एक परम वशव भि र्ी ं।

अक्का महादे वी का जन्म 1150 ई. में कणाथटक में हुआ

वपता वनमथल शेट्टी और माता सुमवत वशव भि र्े।

दस वषथ की आयु में महादे वी ने वशवमंत्र की दीिा प्राप्त की।


संत अक्कमहादे वी का वववाह –

• स्र्ानीय जैन राजा कौवशक इनके रुप पर मुग्ध ह गये।

• उन्ह न
ं े इनसे वववाह का प्रस्ताव रिा।

• माता वपता महादे वी जी का वववाह नही ं करना चाहते र्े।

• राजा के वववाह प्रस्ताव से वववश ह कर, इनका वववाह राजा कौवशक से ह जाता हैं ।

• अक्का महादे वी का पूरा मन त वसर्थ अपने “चेन्नमक्तल्लकाजुथन” की आराधना में ही रहता,

वजनक यह अपना पवत मान चुकी र्ी ं।

• महादे वी जी राजा क अपने पास ना आने दे ती ं और यही कहती ं रहती ं वक मे रे पवत त

“चेन्नमक्तल्लकाजुथन” हैं ।
इस ववषय पर वनणथय करने के वलये राज्य-सभा बुलायी गई।

महादे वी जी यही कहती ं रहती ं वक “मेरे पवत त चेन्नमक्तल्लकाजुथन ही हैं ।

राजा ने क्र ध में आकर उनका पररत्याग करते हुए महादे वी जी क राज्य छ ड़कर चले जाने क कहा।

महादे वी जी क बड़ी सहजता से इस वनणथय क स्वीकारता दे िकर राजा क और क्र ध आ गया। उसने उनक

सभी वस्त्र-आभूषण ज वक राजा के वदये र्े- वे सब उतारने के बाद राजमहल छ ड़कर जाने क कहा।अपने

चेन्नमक्तल्लकाजुथन की वप्रया महादे वी ने दे ह क लिे केश ं से ढका और राजमहल से चल दी ं।


संत अक्कमहादे वी की रचना –

• इनके द्वारा रवचत कववताओं में भगवान वशव का सजीव वचत्रण वकया है ।

• यह सगुण भक्ति करती।

• भक्ति भाव के चार प्रकार (दास्य, सिा, वात्सल्य, और माधुयथ भाव ) में,

• अक्क महादे वी जी की अपने इष्ट के प्रवत माधुयथ भक्ति र्ी।

• यह भगवान वशव क “चेन्नमक्तल्लकाजुथन” कहकर संब वधत करती ं।

• “चेन्नमक्तल्लकाजुथन” - “सुन्दर चमेली के र्ूल के समान श्वेत, सुन्दर प्रभु !”


रचना –

भि एवं संत सावहत्य के सार् सदै व एक बड़ी समस्या उनके वलक्तित रूप की
रही है ।
प्रायः कई भि एवं संत ं ने सावहत्य लेिन की दृवष्ट से उपासना नही ं की है इस
कारण उनकी वावणय ,ं वचन ं आवद के बारे में सम्यक जानकारी उपलब्ध नही ं
ह पाती।
वर्र भी अक्कमहादे वी के बारे में यह प्रचवलत है वक

अक्कमहादे वी ने भी संत बसवेश्वर की तरह ही वचन रचना की है ।

उनके करीब चार सौ वचन वमलते हैं ।

“उनकी रचनाएँ कन्नड़ भाषा में है

1. वचन, 2. य गांग (वत्रपवद छं द में), सृवष्ट वचन (सृवष्ट के वचन ) ।


अक्कमहादे वी के ववचार –
➢ अक्कमहादे वी ने अपने वचन ं में मन के ववववध ववकार ं एवं भाव ं क अवभव्यि वकया
है । उनका कहना है वक भूि-प्यास उसे व्याकुल न करे , नी ंद सताये नही ं, क्र ध उत्तेवजत
ह कर उर्ल-पुर्ल न मचाये, ल भ ललचाये नही ं, ईर्ष्ाथ जलाये नही ं समस्त प्रवणय ं क
इससे मुक्ति वमले, वजससे वे ईश्वर भक्ति कर सकें।
➢ अक्कमहादे वी अपने वचन में ईश्वर से स्तुवत करते हुए कहती हैं वक आप मेरे मन में
ववद्यमान हर प्रकार के अहं कार क नष्ट कर दें । तुम मेरा सब कुछ छीनकर मुझे भीि
माँगने पर बाध्य कर द । इस तरह मेरे मन के अहं कार क नष्ट करके मेरे मन क पववत्र
कर द । तु म मुझ पर ऐसी कृपा कर वक मैं अपना घर इस (सांसाररक म ह माया) क ही
भूल जाऊँ। इस प्रकार मैं अपनी सभी इच्छाओं क त्यागकर भगवान वशव के प्रवत पूरी
तरह समवपथत ह जाऊँ।
मीराबाई
मीराबाई क वहं दी और गुजराती द न ं की कववयत्री माना जाता है

मीरा के गुरु संत रै दास र्े

मीराबाई ने जावत प्रर्ा क नही ं माना र्ा

मीराबाई की भक्ति माधुयथ भाव की र्ी

मीरा के पद ं की भाषा – राजस्र्ानी , ब्रज , गुजराती का वमश्रण

पंजाबी , िड़ी ब ली और पूवी का प्रय ग भी इनके पद ं में वमलता है


साठहल्त्यक पररचय

➢मीरा द्वारा रधचर् कही जाने वाली पण


ू त या अपण
ू त रचनाओं की संख्या 11 है ।
यथा- गीर् गोत्तवंद की टीका, नरसी जी का मायरा (माहे रा), राग सोरि का पद
मलार राग राग गोत्तवंद, सर्भामाणु रूपणा, मीरा की गरवी , रुकमणी मंगल,
नरसी मेहर्ा की हुडी, चरीर् (चररत्र) स्फुट पद। लेककन अनेक तनरीिण
परीिण के उपरान्र् यह माना गया कक स्फुट पद ही मीरा की प्रामाणणक रचना
है . शेष रचनाएाँ अन्य कत्तवयों की है जो मीरा के नाम से प्रचसलर् हो गई।
❖मीरा की भल्क्र्-भावना

➢अज्ञार् सिा, ब्रह्म अथवा परमात्मा के प्रतर् सांसाररक जीव की सहज


अनुरागमय भावना का नाम ही भल्क्र् है । इस अलौककक अनुराग के र्ीन पि
होर्े हैं-
1. आलम्बन अथातर् ् ईश्वर
2. आश्रय अथातर् ् भक्र्
3. इन दोनों के बीच रागात्मक भावना अथातर् ् भल्क्र्।
➢मीरा ने अपने आराध्य श्रीकृष्ण की भल्क्र् दाम्पत्य अथातर् ् पतर्-पत्नी भाव से की
है । उन्होंने कृष्ण को त्तप्रयर्म पतर् धनी, स्वामी आठद त्तवसभन्न सम्बन्धों से पुकारा
है ।
➢भल्क्र् भाव के अनेक प्रकार है , जैसे- शान्र्, दास्य, संख्य, वात्सल्य और माधय
ु ।त
➢शान्र् भाव में भक्र् अपने भगवान के सगण
ु रूप की अनुभूतर् करर्ा है । उसके रूप-
सौन्दयत का धचन्र्न-मनन ककया करर्ा है । दास्य-भाव की भल्क्र् में भक्र् प्रभु के
ऐश्वयत का धचन्र्न करर्ा है । उसी में मग्न रहर्ा है ।
➢मीरा अपने त्तप्रयर्म से समलकर एकाकार हो गयी है । भल्क्र्, ईश्वर के प्रतर् प्रेम
रूपा है और प्रेम रूपा भल्क्र् को प्राप्र् करने के बाद न ककसी वस्र्ु की इच्छा रहर्ी
है , न शोक रहर्ा है और न दे ष रहर्ा है और ल्जसे प्राप्र् कर मनुष्य उन्मि हो जार्ा
र्ल
ु सीदास
➢ तुलसीदास राम काव्य परम्परा के आधार स्तम्भ हैं ।

➢ बाल्मीकी के बाद राम पर अवधकारपूवथक वलिने वाले कववय ं में तुलसी सवथप्रर्म हैं ।

➢ उनकी रचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है वक उनका जन्म ब्राह्मण पररवार में

हुआ र्ा। उनकी माता का नाम हुलसी र्ा। उन्हें बचपन में रामब ला नाम वदया गया र्ा।

मूल नित्र में जन्म लेने के कारण इनके माता वपता ने उन्हें जन्म ले ते ही त्याग वदया र्ा।
➢ र्ुलसीदास ने अपने जीवन में अनेक ग्रंथों की रचना की अलग-अलग त्तवद्वान ् इनकी
अलग-अलग संख्या बर्ार्े हैं। डॉ. मार्ाप्रसाद गप्ु र् इनकी संख्या 13 र्क मानर्े हैं पर इर्ना
अवश्य है कक उनके प्रामाणणक ग्रंथों की संख्या 12 रही है ।
➢ इस ग्रंथ में जहााँ एक ओर र्ुलसी के भल्क्र् भाव की उत्कृष्टर्ा समलर्ी है वही और कत्तवत्व की
अपूवत शल्क्र् भी उपलब्ध होर्ी है ।
➢ इन 12 ग्रंथों में रामचररर्मानस रचना उनकी कीतर्त का आधार ग्रंथ है ।
➢ वाल्मीकक ने जहााँ नर राम की कथा कही है वहीं र्ल
ु सीदास ने अपने ग्रंथ में राम कथा की सार्
खण्डडों में त्तवभाल्जर् कर प्रस्र्र्
ु ककया है - बालकाण्डड, अयोध्याकाण्डड, अरण्डयकाण्डड,
ककल्ष्कन्धाकाण्डड, सन्
ु दरकाण्डड, लंकाकाण्डड और उिरकाण्डड रामचररर्मानस एक अत्यन्र् प्रौढ़
रचना है । यह सम्पूणत ठहन्दी साठहत्य में इस रचना के समान और कोई रचना नहीं है ।
❖भाषा
➢ र्ल
ु सीदास की कृतर्यों में हमें अवधी और ब्रज भाषा का प्रयोग समलर्ा है । जहााँ रामचररर्मानस की भाषा अवधी है
वहीं त्तवनय पत्रत्रका, गीर्ावली कत्तवर्ावली आठद की भाषा ब्रज है । इससलए इनकी भाषा में संस्कृर्, अवधी, बज, आठद
भाषाओं के शब्दों का प्रयोग समलर्े हैं।

❖ भल्क्र्-भावना

➢ र्ल
ु सीदास ने राम की प्रीतर् को भल्क्र् कहा है । र्ल
ु सीदास ने भगवान राम से प्रीतर् की है । उनकी भल्क्र् भगवान
राम के सगण
ु और तनगण
ुत रूप के प्रतर् है । ये उनके सगण
ु और तनगण
ुत दोनों रूपों को स्वीकार करर्े हुए कहर्े हैं-
अगन
ु सगन
ु दोई ब्रह्म स्वरूपा।
➢ र्ल
ु सीदास ने श्रद्धापव
ू क
त भगवान का स्मरण करने पर बल ठदया है । वात्सल्य भल्क्र् हमें रामचररर्मानस में
समलर्ी है
➢ र्ल
ु सी के काव्य में दास्य, सख्य और शान्र् भाव की भल्क्र् समल जार्ी है । इसी र्रह से भल्क्र् के िेत्र में नवधा
भल्क्र् का बडा महत्त्व रहा है ।
कबीरदास
कबीरदास भक्तिकाल की वनगुथण काव्य धारा के प्रवतवित कवव हैं ।

इन्ह न
ं े अपने काव्य में वनगुथण वनराकर ईश्वर की उपासना की है ।

कबीरदास एक भि कवव, समाज वचन्तक आवद सभी कुछ र्े ।

कबीरदास पढे वलिे नही ं र्े।

उनके वशर्ष् ं ने ही समय-समय पर वदए गए उनके उपदे श ं


क लेक्तिनीबद् वकया।

कबीरदास ने अपने काव्य क साक्तिय ,ं सवद, रमैनी के रूप में


वलिा।
इनका जन्म वजस काल में हुआ यह अज्ञानता और अंधववश्वास में जकड़ा हुआ र्ा।

इन्ह न
ं े वहन्दू और मुसलमान द न ं धमो की बुराइय ं पर प्रहार वकया। इसके वलए
इन्ह न
ं े तीिी भाषा का प्रय ग वकया।

कबीरदास ने अपने काव्य क साक्तिय ,ं सबद , रमैनी के रूप में वलिा।

कबीर ने साक्तिय ं में पद ं की रचना की तर्ा वभन्न-वभन्न राग-रागवनय ं का उसमें


प्रय ग वकया। कही ं-कही ं पर सबद नाम का भी प्रय ग इन्ह न
ं े वकया है ।
भक्ति भावना-

➢ कबीर मूल रूप से एक भि र्े। उनके गुरु का नाम रामानन्द र्ा। रामानन्द से ज्ञान प्राप्त
करने के पश्चात् कबीर वनगुथण ब्रह्म की उपासना में लग गए।

➢ भक्ति के िेत्र में कबीर ने गुरु क बहुत ऊँचा स्र्ान वदया है । उनका मानना है वक गुरु ही
भि क उवचत मागथ बताता है । माया से बचे रहने की प्रेरणा दे ता है । उसके अज्ञान क दूर
कर उसे ज्ञान का प्रकाश दे ता है ।

➢ कबीरदास मूलतः भि र्े। इनके काव्य में हमें भक्ति के ववववध रूप दे िने क वमलते हैं
दाशथवनक ववचारधारा –
➢ कबीर की कववता का एक अन्य महत्त्वपूणथ पहलू दशथन है । दशथन का अर्थ है दे िना। दशथन
के अन्तगथत चार बात ं पर ध्यान वदया जाता है - ईश्वर , जीव , जगत् और माया।

➢ दशथन के अन्तगथत जगत् यानी संसार की क्तस्र्वत पर भी ववचार वकया जाता है । संसार के
ववषय में कवव का मानना है वक यह संसार नश्वर है । प्रवतवदन मनुर्ष् इस संसार का त्याग
करता है । सभी क आगे-पीछे इस संसार से ववमुि ह ना है । इस बात का कवव ने उपवन
के माध्यम से इस प्रकार व्यि वकया है -

माली आयत दे ि कर कवलयन करी पुकार।


र्ूल र्ूले चुग वलए काक्ति तुमारी बार।
माया पर भी दशथन के अन्तगथत ववचार वकया जाता है ।

कबीर ने अज्ञान क माया बताया है ।

उसे ठवगनी मानते हुए कहा है - माया महा ठवगनी हम जानी।

उनके अनुसार माया ईश्वर और जीव के बीच वमलन में रूकावट है ।

जैसे ही माया का पदाथ हटता है जीव ब्रहम के सार् एक ह जाता है ।


सामावजक ववचारधारा-

कबीर का सिन्ध समाज के सार् बहुत नजदीक का रहा र्ा।


उन्ह न
ं े उसके ववववध रूप ं क गहराई से दे िा परिा र्ा।
उन्ह न
ं े समाज में दे िा वक वहन्दू और मुसलमान समाज में धमथ से जुड़े बहुत से
आडिर ववद्यमान है ।
वहन्दु के जप माला र्ेरना, वतलक, छापा, तीर्थ, व्रत मूवतथपूजा आवद सभी क
आडिर माना है ।
इसी तरह उन्ह न
ं े मुक्तिम धमथ के आडिर नमाज, हज, अजान लगाना आवद
बात ं क कबीर ने व्यर्थ माना है ।
रै दास
रै दास कबीर के समकालीन र्े और कबीर के समान इनकी साधना भूवम भी काशी
र्ी। अतः द न ं में परस्पर संपकथ ह ना स्वाभाववक र्ा।

रै दास कबीर की श्रेिता और वसद्ता क स्वीकार करते र्े।

संत कवव रै दास का जन्म 'काशी' में माघ पूवणथमा के वदन हुआ ।

कहा जाता है वक इस वदन रवववार र्ा इसवलए इनका नाम रववदास रि वदया गया,
ज ब लने में रै दास ह गया।
इनके वपता का नाम संत ि दास तर्ा माता का नाम कलसा दे वी र्ा।

उनकी पत्नी का नाम ल ना दे वी बताया जाता है ।

रै दास जूता बनाने का काम करते र्े। यही उनका व्यवसाय र्ा।

वे अपना काम पूरी लगन तर्ा पररश्रम से करते र्े


➢ कबीर के समान रै दास भी बहुत प्रवसद् हुए ।

➢ उनके नाम पर 'रै दासी' अर्वा 'रववदासी' पंर् चला, वजसका प्रभाव र्रुथिाबाद
और वमजाथपुर के आस-पास पाया जाता है ।

➢ रै दास के अनुसार धरती पर सब व्यक्ति समान हैं , सबके समान अवधकार हैं क् वं क
ईश्वर ने सब इन्सान ं क बनाया है , न वक इन्सान ने ईश्वर क

➢ वचत्तौड़गढ़ के कुम्भ श्याम मक्तन्दर में इनकी छतरी बनी हुई है ।


सावहक्तत्यक पररचय –

रै दास का जन्म चमथकार जावत में हुआ र्ा। रै दास के समय दवलत समाज क वशिा से पूणथतया वंवचत रिा
जाता र्ा।
इस प्रकार रै दास की वशिा वलक्तित की अपेिा मौक्तिक हुई र्ी।
अपनी अलौवकक प्रवतभा और आत्म- ज्ञान के द्वारा उन्ह न
ं े ईश्वरीय तत्त्व का जैसा अनुभव वकया उसे साधारण
जनमानस की भाषा में व्यि करने का प्रयास वकया।
रै दास की क ई रचना ग्रंर्कार ं क नही ं वमलती। केवल र्ुटकर रचनाएँ ही वमलती है ।
वसि ं के पववत्र आवद गुरु ग्रंर् सावहब' में इनके लगभग चालीस पद ं क संकवलत वकया गया है
ज इस प्रकार हैं - रागा वसरी , गौरी , असा , गुजारी , स रर् , धनसरर , जैतसारर , सुही ,वबलावल ,गौड़ ,
रामकली ,मारू , केदारा , भाईरक , बसंत , मलहार
इनके र्ुटकर पद 'बानी' के नाम से 'संतवानी सीररज' में संग्रहीत हैं ।
रै दास की भक्ति का स्वरूप-

➢ रै दास एक भि कवव र्े, उनकी भक्ति भावना उनके पद ं में बड़ी सरल भाषा में व्यि
हुई है । उन्हें केवल अपने आत्मज्ञान की अवभव्यक्ति की वचंता है ।

➢ रै दास भी 'वैष्णव रस' और 'वपया की बात पर करते हैं , वजसमें तीन बातें सवाथवधक
महत्त्वपूणथ हैं- वैष्णव भक्ति के अनुरूप प्रेमतत्त्व की प्रमुिता दाम्पत्य भाव और जावत
पावत क महत्त्व न दे ना।

➢ वे मूलतः वनगुथण ब्रह्म क मानते हैं , संत रै दास ने भी ब्राह्मण ं की आडं बर और आवरण-
वप्रयता का डट कर ववर ध वकया।
गरु
ु नानक
• गुरु नानक का जन्म 1469 में पावकस्तान के तलवंडी में ननकाना
सावहब में हुआ र्ा

• यह वसि धमथ के पहले गुरु र्े

• स लह वषथ की उम्र में उनका वववाह हुआ र्ा , इनके श्रीचन्द और


लक्ष्मीचन्द नामक द पुत्र हुए।

• नानक जी के चार वशर्ष् र्े – मरदाना , लहना , बाला और रामदास

• 1499 में नानक जी ने अपना सन्दे श दे ना शुरू वकया और 1507 में


उन्ह न
ं े घर छ ड़ वदया

• वर्र उन्ह न
ं े , भारत , अफ़ग़ावनस्तान , र्ारस , अरब की यात्रा की
और इनकी यात्राओं पर उदासी वलिी गयी
गुरु नानक बचपन से ही ववचारशील एवं शान्त स्वभाव के रहे हैं ।

एक बार वपता ने कुछ रूपये दे कर नानक क बाजार से सामान लाने के वलए भेजा

परन्तु मागथ में कुछ भूिे साधु-सन्त ं क भ जन कराने में ही उन्ह न


ं े रूपये िचथ कर वदये
और घर आकर सहज भाव से सच्चाईपूवथक कहा वक वे 'सच्चा सौदा’ करके आ गए हैं ।
सावहक्तत्यक पररचय –

गुरु नानक दे व की वाणी 'गुरु ग्रंर् सावहब' आवद ग्रन्थ में संग्रवहत है ।
नानक की समग्रवाणी मुख्यत: सबद और सल क (शब्द पद और सािी) काव्यरूप ं में
संकवलत है ।
'जपुजी', 'आसा दी वार', 'पट्टी', 'आरती', 'दक्तिनी ओंकार वसंध ग सवट (वसद् ग िी) आवद
रचनाएँ नानक के नाम से प्रवसद् है ।

इसी प्रकार 'स वहला' और 'रवहरास' शीषथक पद समूह में भी आपके अनेक पद अर्वा
पौवड़याँ संकवलत हैं ।
• गुरु नानक दे व की महत्त्वपूणथ रचना 'जपुजी' है ।

• यह रचना सभी वसक्ख बन्धुओ ं एवं पं जाब - वसन्ध िेत्र ं से जुड़े हुए अनेक

आक्तस्तक वहन्दुओ ं की कंठ वाणी है ।

• 'जपुजी' सूत्रात्मक शैली में रची गई है ।

• इसमें र् ड़े शब्द ं में गहन भाव ं का वणथन है ।


गुरु नानक दे व की ववचारधारा –

• गुरु नानक द्वारा प्रवतपावदत वसक्ख सम्प्रदाय की ववचारधारा बहुत उदार, सहज और उदारवादी र्ी।
• वह मनुर्ष् ह कर जीवन सार्थक करने की भावना क पुष्ट करती है ।

• नानक कहते हैं वक ज परम सत्ता है , ज सत्य है उसमें चेतना क सुि प्राप्त ह ता है ।
• सेवक के वलए सेवा-धमथ सवोपरर है ।

• 'िुदी' (अहं कार) क दूर करने के वलए स्वयं के द ष दे िना, आत्माल चन करना आवश्यक है ।

• दूसर ं क बुरा समझने की प्रवृवत्त अहं कार का प षण करती है ।

• नानक के यहाँ सवथ धमथ समभाव सवोपरर है । नानक वकसी भी धमथ या पंर् क बुरा नही ं मानते बक्ति
उसकी बुराइय ं रूवढ़य ,ं द ष ं क बुरा कहते हैं ।
सामावजक चेतना –
• नानक सामावजक चेतना का संवहन करने वाले कववमथनीषी है ।

• नानक उन वदन ं अपनी यात्राएं समाप्त कर करतारपुर में रह रहे र्े। तभी नानक ने

मुगल ं द्वारा वकए गए युद् ं के दुष्पररणाम का आकलन वकया।

• सन्त, हृदय ह ते हुए भी नानक की बेचैनी यह है वक यवद ताकतवर ताकतवर से लड़ता

है त क ई बात नही ं, परन्तु यहाँ त बाबर की से ना हर तरर् वनरीह दुबथल ल ग ं पर

अत्याचार कर रही है । नानक की वाणी पािण्ड का वतरस्कार करती ह।

• एक ओर वे सच्चे मुसलमान का लिण बताते हैं त दूसरी ओर ब्राह्मण क क्रूरकमथ

छ ड़कर ब्रह्मचेतना प्रधान ह ने की प्रेरणा दे ते हैं


मसलक
मह
ु म्मद
जायसी
जायसी का जन्म स्र्ान आज उत्तर प्रदे श के रायबरे ली वजले के जायस नगर नामक स्र्ान
के कंचाना िुदं मुहल्ला में माना जाता है ।

अन्य भि कववय ं की भाँवत इनके जीवनवृत्त के संबंध में भी सावहत्येवतहासकार ववद्वान ं में
मत वभन्नता की क्तस्र्वत है ।

वर्र भी सवथमान्य रूप से इनका जीवनकाल 1464 ई. से 1542 ई. माना गया है ।

यह माना जाता है वक एक गंभीर प्राकृवतक आपदा में इनका पूरा पररवार काल के गाल में
चला गया।

बचपन में शीतला प्रक प के कारण इनकी बाँयी आँ ि और बाँया कान िराब ह गया र्ा।

वजस कारण इनका चेहरा ववकृत ह गया, इसवलए कई स्र्ान ं पर इनके रूप का उपहास
भी उड़ाया गया
इनके गुरु के संबंध में द मत प्राप्त ह ते हैं ।

प्रर्म मत के अनुसार इनके गुरु शेि महदी या म वहउद्दीन र्े।

वजसके बारे में इन्ह न


ं े 'पद्मावत' में वलिा है

वही ं दूसरे मत के अनुसार इनके गुरु का नाम सैय्यद अशरर् माना गया है ।

इसका आधार 'अिरावट' में है

जायसी का संबंध सूर्ी संप्रदाय के वचश्ती शािा से माना जाता है ।

यह भी प्रचवलत है वक उन्ह न
ं े अपना अंवतम समय अमेठी के पास जंगल ं में
व्यतीत वकया है ।
रचनाएँ -

'पद्मावत’ , अिरावट, आक्तिरी कलाम, कहरनामा, वचत्रावत,


सिरावत, प स्तीनामा, ह लीनामा, मुकहरनामा, मसलनामा. वचत्ररे िा,

जैसे प्रवसद् ग्रंर् इन्ही ं के द्वारा रवचत माने जाते हैं ।


जायसी की भक्ति –

जायसी प्रेमाश्रयी काव्य धारा के प्रवसद् सूर्ी संत एवं कवव हैं ।

सूवर्य ं का मूलतः संबंध इिाम धमथ के बेशरा शािा से है

वजन्हें मस्तमौला र्कीर भी कहा जाता र्ा।

ये प्रचवलत परं परागत रूवढ़य ं के स्र्ान पर अपने इष्ट क आचरण की पववत्रता एवं प्रेममागथ

से प्राप्त करने पर ज र दे ते हैं ।

इस रूप में जायसी की साधना पद्वत में सूवर्य ं के इसी उपासना मागथ का अनुसरण

वदिता है ।
इस साधना के केंद्र में मूलतः तसव्वुर् का दशथन है , वजसमें ईश्वर क
प्रेवमका तर्ा साधक क प्रेमी मानते हुए प्रे म मागथ से उसकी उपासना
की जाती है ।

इसी साधना क केंद्र में रिकर प्रतीकात्मक चररत्र ं द्वारा ज


प्रेमाख्यानक भारतीय भक्ति परं परा और मानव मूल्य सावहत्य इन
कववय ं के द्वारा वलिा गया

वही आगे चलकर सूर्ी काव्यधारा के रूप में ववकवसत हुआ और


जायसी उसके सबसे प्रधान महाकवव हैं ।
त्तवचार –
जायसी अपने समय के सुत्तवख्यार् सूफी संर् एवं कत्तव थे। इसी कारण उनके साठहत्य
में सूफी- दशतन की चचात र्ो समलर्ी है ककंर्ु उनका जन्म भारर्ीय उपमहाद्वीप में
हुआ था इसीसलए भारर्ीय संस्कृतर्, दशतन का उन पर व उनके साठहत्य पर त्तवशेष
प्रभाव है ।

उनका दृल्ष्टकोण समन्वयवादी है उन्होंने पारं पररक इस्लाम के ढााँचे में भारर्ीय
वेदांर् की मान्यर्ाओं का समन्वय ककया।
सांस्कृतर्क समन्वयशीलर्ा के पश्चार् ् जायसी के साठहत्य में सवातधधक बल प्रेम की
मल्
ू य के रूप में स्थापना का है
सूरदास
वहं दी काव्य जगत के सूयथ कहे जाने वाले भक्तिकाल के महाकवव सूरदास सगुण
भक्ति धारा के अंतगथत कृष्णभक्ति शािा के प्रधान कवव हैं ।

महाकवव सूरदास का जीवनकाल 1478-1583 ई. के मध्य माना जाता है ।

सूरदास ने अपनी वंशावली अपने ग्रंर् सावहत्यलहरी' के 118वें (अंवतम) पद में दी


है । वजसके अनुसार वे चंदबरदाई के वंशज र्े।

सूरदास शब्द क अंधे का पयाथय मान लेने के कारण कुछ ववद्वान सूरदास क
जन्मांध मानते हैं
हजारी प्रसाद वद्ववेदी ने स्पष्ट शब्द ं में वलिा है "सूर का सावहत्य कभी जन्मांध
व्यक्ति का वलिा सावहत्य नही ं ह सकता।“

यह मान्यता है वक 1523 ई. के आस पास ये वल्लभाचायथ के वशर्ष् बने।

उसके बाद जब 1565 ई. में वल्लभाचायथ के पुत्र ववट्ठल नार् के द्वारा 'अष्टछाप' की
स्र्ापना की गई तब उनमें ये सबसे प्रमुि वल्लभ संप्रदाय के कवव के रूप में
शावमल वकए गए।

करीब 50 वषथ श्रीनार् मंवदर पर श्रीकृष्ण उपासना के उपरांत 105 वषथ की अवस्र्ा
में ग वधथन के वनकट पारस ली गाँव के चंद्रसर वर के पास अपने प्राण त्याग वदए।
रचनाएँ –

इनकी रचनाओं की संख्या क लेकर भी मतवभन्नता की क्तस्र्वत है ।


दीनदयालु गुप्त इनके द्वारा रवचत 25 ग्रंर् मानते हैं त वही ं नागरी प्रचाररणी सभा ररप टथ के
अनुसार इनके ग्रंर् ं की कुल संख्या 16 है ।

परं तु उपर ि के बावजूद आज सूरदास के तीन ग्रंर् ं क ही प्रामावणक माना जाता है -

I. सूरसागर:- इस ग्रंर् में कृष्ण के जन्म से लेकर मर्ुरागमन तक की कर्ा है । इस ग्रंर् में
मुख्यतः 5 ववषय ं का वणथन वकया गया है (1) बाललीला (2) वंशीवादन (3) ग चारण
लीला (4) रासलीला (5) भ्रमरगीत।
II . सूरसारावली :- सूरसारावली में कुल 1107 पद हैं सूरसागर की भाँवत
ब्रजभाषा में वलक्तित इस रचना में सूरदास की अवस्र्ा का वणथन वमलने के
सार् सार् श्रीनार् मंवदर में ह ने वाली उपासना का वणथन भी वमलता है ।

III. सावहत्यलहरी:- इस रचना में कुल 118 पद संकवलत हैं सूर की वंशावली
के सार्-सार् इस रचना में दृष्टकूट पद ं का संग्रह भी वकया गया है वजसका
संबंध रस, छं द, अलंकार, नायक-नावयका भेद जैसे काव्यांग वनरूपण से है ।
नामदे व
➢ संत नामदे व (वव.स. 1327-1407 ई. / सन् 1270-1350) का जन्म महाराष्टर के नरसी
ब्राह्मणी या नरसी नामक गाँव में एक दजी अर्वा वशंपी दं पवत के पररवार में हुआ।

➢ इनके माता-वपता (ग णाई - दयाशेठ) भी धावमथक प्रवृवत्त के र्े। नामदे व बचपन से ही वपता
और साधु-संत ं के सार् रहकर भजन-कीतथ न करते र्े। बचपन से ही इनकी श्रद्ा एवं
भक्ति ववट्ठल के प्रवत र्ी ज समय के सार् और अवधक प्रगाढ़ ह ती गई।

➢ वपता ग णाई नामदे व क समझाते रहते र्े वक भक्ति के अलावा भी क ई काम काज कर ।
कमथ करके ही पररवार का भरण-प षण कर पाओगे। अब तुम्हारा वववाह भी ह गया है ।
तभी तपाक से कहा वववाह त आपने कर वदया। मेरा मन त केवल भक्ति में ही रमता है
क्ा करू
ँ ।
नामदे व के मन में भक्ति की प्रगाढ़ता

➢ ववस बा िेचर से नामदे व ने दीिा ली, पंढररनार् की नगरी में म ि और अध्यात्म के िेत्र में
सब ल ग एक ही धरातल पर है . इस तथ्य क नामदे व ने आत्मसात् कर वलया और अपने
आचरण से भागवत धमथ के आदशथ स्वरूप क प्रत्यि कर वदिाया।
➢ गुरु के उपदे श एवं कृपा से जब नामदे व क आत्म स्वरूप ज्ञान प्राप्त ह गया यानी ईश्वर के
दशथन ह गए त उन्हें ज वदव्य-दृवष्ट प्राप्त हुई उसके र्लस्वरूप ये सगुण भक्ति के स्र्ान
पर वनगुथण भक्ति की ओर प्रवृत्त ह गए।
➢ आगे चलकर ये पंढरपुर में ही बस गये। इनके चार पुत्र और उनकी पुत्र वधुएँ भी श्रेि भि
एवं कववयत्री ह गई। इनका प्रभाव ऐसा र्ा वक घर में काम करने वाली जनाबाई भी उच्च
क वट के संत ं में वगनी जाती हैं ।
नामदे व की रचनायें और सावहक्तत्यक य गदान-

➢ नामदे व के सावहक्तत्यक य गदान पर दृवष्टपात करें त हम पाते हैं वक वसि ं के गुरुग्रंर्


साहब में भि नामदे व जी की मुिबानी नाम से 61 पद वमलते हैं । इसके अवतररि
वववभन्न स्र्ान ं से प्राप्त हस्तवलक्तित प वर्य ं के आधार पर वहं दी के 232 पद और 13
साक्तियाँ वमलती हैं ।
➢ नामदे व के लगभग द हजार अभंग यानी पद उपलब्ध हैं ज नामदे वागार्ा में संगृहीत हैं ।
भाँवत वभन्न-वभन्न ववषय ं पर अभंग रचे ज मुख्यतः इन वगों में ववभावजत वकए गए हैं -
आत्मचररतपरक, ज्ञानदे व के चररतपरक, वचत्तशुक्तद् ववषयक भगवन्नाम स्मरण व कीतथन से
संबद् अभंग आवद।
संत ललद्यद /लल्लेश्वरी –

ललद्यद का जन्म समय 1320-1391 माना है ।

उनका जन्म कश्मीर के ब्राह्मण वकसान पररवार में हुआ।

ललद्यद की प्रारं वभक वशिा अपने कुलगुरु श्री वसद्म ल से प्राप्त हुई।

गुरु वसद्म ल ने ललद्यद क धमथ, दशथन, ज्ञान और य ग संबंधी ववववध रहस्य ं से अवगत
कराया।

घर पररवार से ललद्यद की बढ़ती दूरी दे िकर पवत स नपंवडत ने गुरु वसद्म ल से उवचत
वशिा दे ने के वलए वनवेदन वकया वजससे वक वह सांसाररकता की ओर ध्यान दे ।

ऐसा कहा जाता है वक य वगनी ललद्यद का वववाह बाल अवस्र्ा में ही पांप र ग्राम के एक
प्रवसद् ब्राह्मण पररवार में युवक स नपंवडत से ह गया र्ा।ललद्यद का वैवावहक जीवन वेदना
पूणथ र्ा।
सास के कटु व्यग्य एवं यंत्रणा का लगातार वशकार संत य वगनी ह ती रही।

पवत स नपंवडत ललद्यद पर अनेक प्रकार से यातनाएँ और अत्याचार करता र्ा।

सांसाररक बंधन ं से मुक्ति पा ललद्यद अपने ईश्वर के प्रवत भक्ति भाव के प्रवाह में
वनरं तर प्रवावहत ह ती रही।

कववयत्री ललद्यद उन महान संत ं में से एक र्ी, वजन्ह न


ं े अपनी भक्ति से प्रभु
प्राक्तप्त का मागथ ि ज वलया र्ा।

इन्ह न
ं े ईश्वर से एकवनि प्रेम कर उन्हें पा वलया।
ललद्यद अपनी भक्ति से शैव दशथन वसिाने वाले गुरुओं और
महात्माओं के ववचार ं क सुनकर अद्वै त दशथन के जवटल मागथ क
समझने लगी।

इन्ह न
ं े अपनी कंु डवलनी ध्यान साधना से वशव क जानने का सर्लतम्
प्रयास करने लगी

ललद्यद ने अपने सावहत्य में समाज में व्याप्त आडं बर, ववषमता क दूर
करने का प्रयास और ववर ध भी वकया-
ललद्यद भक्ति भावना-

ललद्यद भि और कववयत्री ह ने के सार्-सार् कश्मीरी भाषा की भी


बड़ी ज्ञानी र्ी

उन्ह न
ं े कश्मीरी भाषा क संस्कृत ज्ञान परं परा से ज ड़कर ल कजन
की भाषा में अपने मन भाव ं क प्रस्तुत वकया।
कववयत्री ललद्यद उन महान संत ं में से एक र्ी, वजन्ह न
ं े अपनी भक्ति से प्रभु
प्राक्तप्त का मागथ ि ज वलया र्ा। इन्ह न
ं े ईश्वर से एकवनि प्रे म कर उन्हें पा वलया।

ललद्यद अपनी भक्ति से शैव दशथन वसिाने वाले गुरुओं और महात्माओं के ववचार ं
क सुनकर अद्वै त दशथन के जवटल मागथ क समझने लगी। इन्ह न
ं े अपनी कंु डवलनी
ध्यान साधना से वशव क जानने का सर्लतम् प्रयास करने लगी

ललद्यद ने अपने सावहत्य में समाज में व्याप्त आडं बर, ववषमता क दूर करने का
प्रयास और ववर ध भी वकया-
ललद्यद की (भक्ति काव्य का दाशथवनक एवं सांस्कृवतक) ववचारधारा-

उनके अनुसार वेद, धमथ और शास्त्र आवद व्यर्थ हैं । इन धावमथक ग्रंर् ं और उद्दे श्य ं का सार ललद्यद ने अपनी
मौवलक प्रवतभा से ज ड़कर संत मत की शक्ति बनाया।

इन्ह न
ं े भारतीय संस्कृवत के प्रवत अपनी वनिा, समपणथ और भक्ति क त स्वीकारा ही है सार् ही इिाम के प्रवत भी
अपनी ववचारधारा क प्रस्तुत वकया है " इिाम के सूर्ी मत व वहं दू धमथ के शैव मत में सम तत्व ं क स्वीकारा।
1. ईश्वर एक है ।
2. वही परम सत्ता है .

वही सावथभौम, सवथव्यापक शक्ति है । इन द न ं धमों की अच्छाइय ं क वमलाकर एक श्रेि दशथन दे नेवाली शै व-
य वगनी ने समाज में सवहष्णुता जगाने का कायथ वकया। " उनके ववचार मानवतावादी दृवष्टक ण एवं धावमथक भावना
द न ं धमों के ल ग ं क समान रूप से प्रभाववत वकया है ।
चैतन्य महाप्रभु
➢ बंगाल के वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु ( सन् 1485-1533) का जन्म बं गाल के
नवदया या नवद्वीप नामक स्र्ान पर हुआ
➢ इनके वपता का नाम जगन्नार् वमश्र एवं माता का नाम शची दे वी र्ा।
➢ छ टी आयु में इन्ह न
ं े अच्छी वशिा पाई. इसीवलए अल्पायु में ही इनकी गणना
नवद्वीप के संस्कृत के ववद्वान ं में की जाने लगी।
➢ बचपन से ही कृष्णभक्ति का भाव इनके मन में बीज रूप में ववद्यमान र्ा
➢ चैतन्य महाप्रभु ने चौबीस वषथ की अवस्र्ा में (1510 ई. में) गृह त्याग कर केशव
भारती से संन्यास धमथ ग्रहण वकया।
➢ वपता के दे हावसान के पश्चात् जब ये वपंडदान हे तु गया गये त आध्याक्तत्मकता के
वशीभूत इन्ह न
ं े ईश्वरपुरी महाराज से दीिा ले ली।
ववचार –

चैतन्य महाप्रभु सभी मनुर्ष् ं में एक ही आत्मा मानते र्े। वे जावतगत भेदभाव क न मान कर
सभी क ब ल हरर ब लहरर कहते र्े

चैतन्य महाप्रभु ने अत्याचारी धमाथध मुक्तिम शासक ं के ववधमी एवं कठ र वनयंत्रण क


अनदे िा कर भारतीय समाज का संगठन भक्ति के माध्यम से वकया। उन्ह न
ं े ल क की पीड़ा
क जान-समझकर उसके वनराकरण के वलए हरर भक्ति का सहारा वलया।

श्री चैतन्य महाप्रभु के ववश्व बन्धुत्व तर्ा कृष्ण भक्ति से प्रेररत ह कर बंगाल, वबहार आवद िेत्र
के ढाई हजार से भी अवधक मुसलमान पुन वहन्दू ह गए।
रचनाएँ –

चैतन्य ने क ई भी ववद्वान दाशथवनक ग्रंर् नही ं वलिा या सं गवठत धावमथक प्रचार


के संस्र्ान ं का वनमाथण नही ं वकया।

चैतन्य की अवधकां श व्यक्तिगत ल कवप्रयता और कररश्मा इस तरह की


वशिाओं की सरलता और सहजता से प्रवावहत हुए उन्ह न
ं े ल ग ं क ‘पे ड़ की
तरह सवहष्णु, घास की तरह ववनम्र’ ह ने के वलए कहा।
The End

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