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भारतीय_भक्ति_परंपरा_और_मानव_मूल्य_VAC_II_unit
भारतीय_भक्ति_परंपरा_और_मानव_मूल्य_VAC_II_unit
और उनके विचार
इकाई 1: भारतीय भक्ति परं परा
➢ भक्ति : अर्थ और अवधारणा
➢ भक्ति के वववभन्न संप्रदाय और वसद्ांत
➢ भारत की सांस्कृवत एकता और भक्ति
➢ भक्ति का अक्तिल भारतीय स्वरूप
• कबीर एवं इनके जीवन में आश्चयथजनक समानता है । न केवल जीवन बक्ति
ववचार ं में भी समानता दे िने क वमलती है
1) अराम- (सदगुण)
2) प रुल- (सरकार और समाज)
3) कामम- (प्रेम)
एक तनिःसंर्ान जल
ु ाहा दम्पत्ति की तनगाह इन पर पडी। ईश्वरीय कृपा समझकर दोनों
ने
न केवल बच्चे को स्वीकारा बल्ल्क बडे यत्न से बालक को पाला ।
➢तर्रुवल्लुवर जब वयस्क हुए र्ो मार्ा-त्तपर्ा से अनुमतर् लेकर
वे र्प हे र्ु जंगल की ओर चले गए।
➢संर् तर्रुवल्लव
ु र आजीत्तवका हे र्ु अपने पैर्क
ृ व्यवसाय बन
ु ाई के काम को
आरं भ ककया।
➢संर् तर्रुवल्लव
ु र का धमत
➢ संर् तर्रुवल्लव
ु र की सहजर्ा, सरलर्ा, समपतण एवं कल्याण की चाह ने उन्हें अत्यंर्
लोकत्तप्रय बना ठदया।
➢ इन्हें भारर्ीय धमत, अध्यात्म व संस्कृतर् का प्रर्ीक परु
ु ष कहा जार्ा है
➢ शैव, वैष्णव, जैन और बौद्ध सभी उन्हें अपना बर्ाने की चेष्टा करर्े हैं
➢ जहााँ सगण
ु मर् वालों का यह कहना है कक उन्होंने अपने ग्रंथ 'तर्रुक्कुरल' का आरम्भ
सवतशल्क्र्मान भगवान कोसादर नमन करर्े हुए ककया है , र्ो वहीं तनराकार वाठदयों का
यह कहना है कक उन्होंने इस ग्रंथ का पहला अध्याय जैन धमत के प्रथम र्ीथंकर ऋषभदे व
को समत्तपतर् ककया है ।
➢वे एक सच्चे उदार धमततनष्ि संर् थे।
अण्डाल ने कृष्ण के प्रवत अपनी समपथण क वजन शबद ं में , वजन भक्ति गीत
में व्यक्त वकया वह
(2) नवचयार वर्रुम ली में अण्डाल ने स्वयं क भगवान की दुल्हन के रूप में
प्रस्तुत वकया है । ये द न ं ग्रंर् आज भी दविण भारत में कृष्ण भक्ति और
श्रद्ा के प्रवतक बनी हुई हैं ।
आंडाल के त्तवचार
➢ जो मनष्ु य दृढ़ त्तवश्वास की भावना से भगवान की शरण में जार्ा है वहीं उसकी कृपा का पात्र बनर्ा
है
➢ यठद संसारी व्यल्क्र् भल्क्र् साधना का असभनय भी करर्ा है र्ो भगवान उसकी रिा में र्त्पर हो
जार्े हैं।
अक्कमहादे वी
संत अक्कमहादे वी बारहवी ं शताब्दी की प्रख्यात कन्नड़ कववयत्री र्ी
• उन्ह न
ं े इनसे वववाह का प्रस्ताव रिा।
• राजा के वववाह प्रस्ताव से वववश ह कर, इनका वववाह राजा कौवशक से ह जाता हैं ।
“चेन्नमक्तल्लकाजुथन” हैं ।
इस ववषय पर वनणथय करने के वलये राज्य-सभा बुलायी गई।
राजा ने क्र ध में आकर उनका पररत्याग करते हुए महादे वी जी क राज्य छ ड़कर चले जाने क कहा।
महादे वी जी क बड़ी सहजता से इस वनणथय क स्वीकारता दे िकर राजा क और क्र ध आ गया। उसने उनक
सभी वस्त्र-आभूषण ज वक राजा के वदये र्े- वे सब उतारने के बाद राजमहल छ ड़कर जाने क कहा।अपने
• इनके द्वारा रवचत कववताओं में भगवान वशव का सजीव वचत्रण वकया है ।
• भक्ति भाव के चार प्रकार (दास्य, सिा, वात्सल्य, और माधुयथ भाव ) में,
भि एवं संत सावहत्य के सार् सदै व एक बड़ी समस्या उनके वलक्तित रूप की
रही है ।
प्रायः कई भि एवं संत ं ने सावहत्य लेिन की दृवष्ट से उपासना नही ं की है इस
कारण उनकी वावणय ,ं वचन ं आवद के बारे में सम्यक जानकारी उपलब्ध नही ं
ह पाती।
वर्र भी अक्कमहादे वी के बारे में यह प्रचवलत है वक
➢ बाल्मीकी के बाद राम पर अवधकारपूवथक वलिने वाले कववय ं में तुलसी सवथप्रर्म हैं ।
➢ उनकी रचनाओं के आधार पर यह कहा जा सकता है वक उनका जन्म ब्राह्मण पररवार में
हुआ र्ा। उनकी माता का नाम हुलसी र्ा। उन्हें बचपन में रामब ला नाम वदया गया र्ा।
मूल नित्र में जन्म लेने के कारण इनके माता वपता ने उन्हें जन्म ले ते ही त्याग वदया र्ा।
➢ र्ुलसीदास ने अपने जीवन में अनेक ग्रंथों की रचना की अलग-अलग त्तवद्वान ् इनकी
अलग-अलग संख्या बर्ार्े हैं। डॉ. मार्ाप्रसाद गप्ु र् इनकी संख्या 13 र्क मानर्े हैं पर इर्ना
अवश्य है कक उनके प्रामाणणक ग्रंथों की संख्या 12 रही है ।
➢ इस ग्रंथ में जहााँ एक ओर र्ुलसी के भल्क्र् भाव की उत्कृष्टर्ा समलर्ी है वही और कत्तवत्व की
अपूवत शल्क्र् भी उपलब्ध होर्ी है ।
➢ इन 12 ग्रंथों में रामचररर्मानस रचना उनकी कीतर्त का आधार ग्रंथ है ।
➢ वाल्मीकक ने जहााँ नर राम की कथा कही है वहीं र्ल
ु सीदास ने अपने ग्रंथ में राम कथा की सार्
खण्डडों में त्तवभाल्जर् कर प्रस्र्र्
ु ककया है - बालकाण्डड, अयोध्याकाण्डड, अरण्डयकाण्डड,
ककल्ष्कन्धाकाण्डड, सन्
ु दरकाण्डड, लंकाकाण्डड और उिरकाण्डड रामचररर्मानस एक अत्यन्र् प्रौढ़
रचना है । यह सम्पूणत ठहन्दी साठहत्य में इस रचना के समान और कोई रचना नहीं है ।
❖भाषा
➢ र्ल
ु सीदास की कृतर्यों में हमें अवधी और ब्रज भाषा का प्रयोग समलर्ा है । जहााँ रामचररर्मानस की भाषा अवधी है
वहीं त्तवनय पत्रत्रका, गीर्ावली कत्तवर्ावली आठद की भाषा ब्रज है । इससलए इनकी भाषा में संस्कृर्, अवधी, बज, आठद
भाषाओं के शब्दों का प्रयोग समलर्े हैं।
❖ भल्क्र्-भावना
➢ र्ल
ु सीदास ने राम की प्रीतर् को भल्क्र् कहा है । र्ल
ु सीदास ने भगवान राम से प्रीतर् की है । उनकी भल्क्र् भगवान
राम के सगण
ु और तनगण
ुत रूप के प्रतर् है । ये उनके सगण
ु और तनगण
ुत दोनों रूपों को स्वीकार करर्े हुए कहर्े हैं-
अगन
ु सगन
ु दोई ब्रह्म स्वरूपा।
➢ र्ल
ु सीदास ने श्रद्धापव
ू क
त भगवान का स्मरण करने पर बल ठदया है । वात्सल्य भल्क्र् हमें रामचररर्मानस में
समलर्ी है
➢ र्ल
ु सी के काव्य में दास्य, सख्य और शान्र् भाव की भल्क्र् समल जार्ी है । इसी र्रह से भल्क्र् के िेत्र में नवधा
भल्क्र् का बडा महत्त्व रहा है ।
कबीरदास
कबीरदास भक्तिकाल की वनगुथण काव्य धारा के प्रवतवित कवव हैं ।
इन्ह न
ं े अपने काव्य में वनगुथण वनराकर ईश्वर की उपासना की है ।
इन्ह न
ं े वहन्दू और मुसलमान द न ं धमो की बुराइय ं पर प्रहार वकया। इसके वलए
इन्ह न
ं े तीिी भाषा का प्रय ग वकया।
➢ कबीर मूल रूप से एक भि र्े। उनके गुरु का नाम रामानन्द र्ा। रामानन्द से ज्ञान प्राप्त
करने के पश्चात् कबीर वनगुथण ब्रह्म की उपासना में लग गए।
➢ भक्ति के िेत्र में कबीर ने गुरु क बहुत ऊँचा स्र्ान वदया है । उनका मानना है वक गुरु ही
भि क उवचत मागथ बताता है । माया से बचे रहने की प्रेरणा दे ता है । उसके अज्ञान क दूर
कर उसे ज्ञान का प्रकाश दे ता है ।
➢ कबीरदास मूलतः भि र्े। इनके काव्य में हमें भक्ति के ववववध रूप दे िने क वमलते हैं
दाशथवनक ववचारधारा –
➢ कबीर की कववता का एक अन्य महत्त्वपूणथ पहलू दशथन है । दशथन का अर्थ है दे िना। दशथन
के अन्तगथत चार बात ं पर ध्यान वदया जाता है - ईश्वर , जीव , जगत् और माया।
➢ दशथन के अन्तगथत जगत् यानी संसार की क्तस्र्वत पर भी ववचार वकया जाता है । संसार के
ववषय में कवव का मानना है वक यह संसार नश्वर है । प्रवतवदन मनुर्ष् इस संसार का त्याग
करता है । सभी क आगे-पीछे इस संसार से ववमुि ह ना है । इस बात का कवव ने उपवन
के माध्यम से इस प्रकार व्यि वकया है -
संत कवव रै दास का जन्म 'काशी' में माघ पूवणथमा के वदन हुआ ।
कहा जाता है वक इस वदन रवववार र्ा इसवलए इनका नाम रववदास रि वदया गया,
ज ब लने में रै दास ह गया।
इनके वपता का नाम संत ि दास तर्ा माता का नाम कलसा दे वी र्ा।
रै दास जूता बनाने का काम करते र्े। यही उनका व्यवसाय र्ा।
➢ उनके नाम पर 'रै दासी' अर्वा 'रववदासी' पंर् चला, वजसका प्रभाव र्रुथिाबाद
और वमजाथपुर के आस-पास पाया जाता है ।
➢ रै दास के अनुसार धरती पर सब व्यक्ति समान हैं , सबके समान अवधकार हैं क् वं क
ईश्वर ने सब इन्सान ं क बनाया है , न वक इन्सान ने ईश्वर क
रै दास का जन्म चमथकार जावत में हुआ र्ा। रै दास के समय दवलत समाज क वशिा से पूणथतया वंवचत रिा
जाता र्ा।
इस प्रकार रै दास की वशिा वलक्तित की अपेिा मौक्तिक हुई र्ी।
अपनी अलौवकक प्रवतभा और आत्म- ज्ञान के द्वारा उन्ह न
ं े ईश्वरीय तत्त्व का जैसा अनुभव वकया उसे साधारण
जनमानस की भाषा में व्यि करने का प्रयास वकया।
रै दास की क ई रचना ग्रंर्कार ं क नही ं वमलती। केवल र्ुटकर रचनाएँ ही वमलती है ।
वसि ं के पववत्र आवद गुरु ग्रंर् सावहब' में इनके लगभग चालीस पद ं क संकवलत वकया गया है
ज इस प्रकार हैं - रागा वसरी , गौरी , असा , गुजारी , स रर् , धनसरर , जैतसारर , सुही ,वबलावल ,गौड़ ,
रामकली ,मारू , केदारा , भाईरक , बसंत , मलहार
इनके र्ुटकर पद 'बानी' के नाम से 'संतवानी सीररज' में संग्रहीत हैं ।
रै दास की भक्ति का स्वरूप-
➢ रै दास एक भि कवव र्े, उनकी भक्ति भावना उनके पद ं में बड़ी सरल भाषा में व्यि
हुई है । उन्हें केवल अपने आत्मज्ञान की अवभव्यक्ति की वचंता है ।
➢ रै दास भी 'वैष्णव रस' और 'वपया की बात पर करते हैं , वजसमें तीन बातें सवाथवधक
महत्त्वपूणथ हैं- वैष्णव भक्ति के अनुरूप प्रेमतत्त्व की प्रमुिता दाम्पत्य भाव और जावत
पावत क महत्त्व न दे ना।
➢ वे मूलतः वनगुथण ब्रह्म क मानते हैं , संत रै दास ने भी ब्राह्मण ं की आडं बर और आवरण-
वप्रयता का डट कर ववर ध वकया।
गरु
ु नानक
• गुरु नानक का जन्म 1469 में पावकस्तान के तलवंडी में ननकाना
सावहब में हुआ र्ा
• वर्र उन्ह न
ं े , भारत , अफ़ग़ावनस्तान , र्ारस , अरब की यात्रा की
और इनकी यात्राओं पर उदासी वलिी गयी
गुरु नानक बचपन से ही ववचारशील एवं शान्त स्वभाव के रहे हैं ।
एक बार वपता ने कुछ रूपये दे कर नानक क बाजार से सामान लाने के वलए भेजा
गुरु नानक दे व की वाणी 'गुरु ग्रंर् सावहब' आवद ग्रन्थ में संग्रवहत है ।
नानक की समग्रवाणी मुख्यत: सबद और सल क (शब्द पद और सािी) काव्यरूप ं में
संकवलत है ।
'जपुजी', 'आसा दी वार', 'पट्टी', 'आरती', 'दक्तिनी ओंकार वसंध ग सवट (वसद् ग िी) आवद
रचनाएँ नानक के नाम से प्रवसद् है ।
इसी प्रकार 'स वहला' और 'रवहरास' शीषथक पद समूह में भी आपके अनेक पद अर्वा
पौवड़याँ संकवलत हैं ।
• गुरु नानक दे व की महत्त्वपूणथ रचना 'जपुजी' है ।
• यह रचना सभी वसक्ख बन्धुओ ं एवं पं जाब - वसन्ध िेत्र ं से जुड़े हुए अनेक
• गुरु नानक द्वारा प्रवतपावदत वसक्ख सम्प्रदाय की ववचारधारा बहुत उदार, सहज और उदारवादी र्ी।
• वह मनुर्ष् ह कर जीवन सार्थक करने की भावना क पुष्ट करती है ।
• नानक कहते हैं वक ज परम सत्ता है , ज सत्य है उसमें चेतना क सुि प्राप्त ह ता है ।
• सेवक के वलए सेवा-धमथ सवोपरर है ।
• 'िुदी' (अहं कार) क दूर करने के वलए स्वयं के द ष दे िना, आत्माल चन करना आवश्यक है ।
• नानक के यहाँ सवथ धमथ समभाव सवोपरर है । नानक वकसी भी धमथ या पंर् क बुरा नही ं मानते बक्ति
उसकी बुराइय ं रूवढ़य ,ं द ष ं क बुरा कहते हैं ।
सामावजक चेतना –
• नानक सामावजक चेतना का संवहन करने वाले कववमथनीषी है ।
• नानक उन वदन ं अपनी यात्राएं समाप्त कर करतारपुर में रह रहे र्े। तभी नानक ने
अन्य भि कववय ं की भाँवत इनके जीवनवृत्त के संबंध में भी सावहत्येवतहासकार ववद्वान ं में
मत वभन्नता की क्तस्र्वत है ।
यह माना जाता है वक एक गंभीर प्राकृवतक आपदा में इनका पूरा पररवार काल के गाल में
चला गया।
बचपन में शीतला प्रक प के कारण इनकी बाँयी आँ ि और बाँया कान िराब ह गया र्ा।
वजस कारण इनका चेहरा ववकृत ह गया, इसवलए कई स्र्ान ं पर इनके रूप का उपहास
भी उड़ाया गया
इनके गुरु के संबंध में द मत प्राप्त ह ते हैं ।
वही ं दूसरे मत के अनुसार इनके गुरु का नाम सैय्यद अशरर् माना गया है ।
यह भी प्रचवलत है वक उन्ह न
ं े अपना अंवतम समय अमेठी के पास जंगल ं में
व्यतीत वकया है ।
रचनाएँ -
जायसी प्रेमाश्रयी काव्य धारा के प्रवसद् सूर्ी संत एवं कवव हैं ।
ये प्रचवलत परं परागत रूवढ़य ं के स्र्ान पर अपने इष्ट क आचरण की पववत्रता एवं प्रेममागथ
इस रूप में जायसी की साधना पद्वत में सूवर्य ं के इसी उपासना मागथ का अनुसरण
वदिता है ।
इस साधना के केंद्र में मूलतः तसव्वुर् का दशथन है , वजसमें ईश्वर क
प्रेवमका तर्ा साधक क प्रेमी मानते हुए प्रे म मागथ से उसकी उपासना
की जाती है ।
उनका दृल्ष्टकोण समन्वयवादी है उन्होंने पारं पररक इस्लाम के ढााँचे में भारर्ीय
वेदांर् की मान्यर्ाओं का समन्वय ककया।
सांस्कृतर्क समन्वयशीलर्ा के पश्चार् ् जायसी के साठहत्य में सवातधधक बल प्रेम की
मल्
ू य के रूप में स्थापना का है
सूरदास
वहं दी काव्य जगत के सूयथ कहे जाने वाले भक्तिकाल के महाकवव सूरदास सगुण
भक्ति धारा के अंतगथत कृष्णभक्ति शािा के प्रधान कवव हैं ।
सूरदास शब्द क अंधे का पयाथय मान लेने के कारण कुछ ववद्वान सूरदास क
जन्मांध मानते हैं
हजारी प्रसाद वद्ववेदी ने स्पष्ट शब्द ं में वलिा है "सूर का सावहत्य कभी जन्मांध
व्यक्ति का वलिा सावहत्य नही ं ह सकता।“
उसके बाद जब 1565 ई. में वल्लभाचायथ के पुत्र ववट्ठल नार् के द्वारा 'अष्टछाप' की
स्र्ापना की गई तब उनमें ये सबसे प्रमुि वल्लभ संप्रदाय के कवव के रूप में
शावमल वकए गए।
करीब 50 वषथ श्रीनार् मंवदर पर श्रीकृष्ण उपासना के उपरांत 105 वषथ की अवस्र्ा
में ग वधथन के वनकट पारस ली गाँव के चंद्रसर वर के पास अपने प्राण त्याग वदए।
रचनाएँ –
I. सूरसागर:- इस ग्रंर् में कृष्ण के जन्म से लेकर मर्ुरागमन तक की कर्ा है । इस ग्रंर् में
मुख्यतः 5 ववषय ं का वणथन वकया गया है (1) बाललीला (2) वंशीवादन (3) ग चारण
लीला (4) रासलीला (5) भ्रमरगीत।
II . सूरसारावली :- सूरसारावली में कुल 1107 पद हैं सूरसागर की भाँवत
ब्रजभाषा में वलक्तित इस रचना में सूरदास की अवस्र्ा का वणथन वमलने के
सार् सार् श्रीनार् मंवदर में ह ने वाली उपासना का वणथन भी वमलता है ।
III. सावहत्यलहरी:- इस रचना में कुल 118 पद संकवलत हैं सूर की वंशावली
के सार्-सार् इस रचना में दृष्टकूट पद ं का संग्रह भी वकया गया है वजसका
संबंध रस, छं द, अलंकार, नायक-नावयका भेद जैसे काव्यांग वनरूपण से है ।
नामदे व
➢ संत नामदे व (वव.स. 1327-1407 ई. / सन् 1270-1350) का जन्म महाराष्टर के नरसी
ब्राह्मणी या नरसी नामक गाँव में एक दजी अर्वा वशंपी दं पवत के पररवार में हुआ।
➢ इनके माता-वपता (ग णाई - दयाशेठ) भी धावमथक प्रवृवत्त के र्े। नामदे व बचपन से ही वपता
और साधु-संत ं के सार् रहकर भजन-कीतथ न करते र्े। बचपन से ही इनकी श्रद्ा एवं
भक्ति ववट्ठल के प्रवत र्ी ज समय के सार् और अवधक प्रगाढ़ ह ती गई।
➢ वपता ग णाई नामदे व क समझाते रहते र्े वक भक्ति के अलावा भी क ई काम काज कर ।
कमथ करके ही पररवार का भरण-प षण कर पाओगे। अब तुम्हारा वववाह भी ह गया है ।
तभी तपाक से कहा वववाह त आपने कर वदया। मेरा मन त केवल भक्ति में ही रमता है
क्ा करू
ँ ।
नामदे व के मन में भक्ति की प्रगाढ़ता
➢ ववस बा िेचर से नामदे व ने दीिा ली, पंढररनार् की नगरी में म ि और अध्यात्म के िेत्र में
सब ल ग एक ही धरातल पर है . इस तथ्य क नामदे व ने आत्मसात् कर वलया और अपने
आचरण से भागवत धमथ के आदशथ स्वरूप क प्रत्यि कर वदिाया।
➢ गुरु के उपदे श एवं कृपा से जब नामदे व क आत्म स्वरूप ज्ञान प्राप्त ह गया यानी ईश्वर के
दशथन ह गए त उन्हें ज वदव्य-दृवष्ट प्राप्त हुई उसके र्लस्वरूप ये सगुण भक्ति के स्र्ान
पर वनगुथण भक्ति की ओर प्रवृत्त ह गए।
➢ आगे चलकर ये पंढरपुर में ही बस गये। इनके चार पुत्र और उनकी पुत्र वधुएँ भी श्रेि भि
एवं कववयत्री ह गई। इनका प्रभाव ऐसा र्ा वक घर में काम करने वाली जनाबाई भी उच्च
क वट के संत ं में वगनी जाती हैं ।
नामदे व की रचनायें और सावहक्तत्यक य गदान-
ललद्यद की प्रारं वभक वशिा अपने कुलगुरु श्री वसद्म ल से प्राप्त हुई।
गुरु वसद्म ल ने ललद्यद क धमथ, दशथन, ज्ञान और य ग संबंधी ववववध रहस्य ं से अवगत
कराया।
घर पररवार से ललद्यद की बढ़ती दूरी दे िकर पवत स नपंवडत ने गुरु वसद्म ल से उवचत
वशिा दे ने के वलए वनवेदन वकया वजससे वक वह सांसाररकता की ओर ध्यान दे ।
ऐसा कहा जाता है वक य वगनी ललद्यद का वववाह बाल अवस्र्ा में ही पांप र ग्राम के एक
प्रवसद् ब्राह्मण पररवार में युवक स नपंवडत से ह गया र्ा।ललद्यद का वैवावहक जीवन वेदना
पूणथ र्ा।
सास के कटु व्यग्य एवं यंत्रणा का लगातार वशकार संत य वगनी ह ती रही।
सांसाररक बंधन ं से मुक्ति पा ललद्यद अपने ईश्वर के प्रवत भक्ति भाव के प्रवाह में
वनरं तर प्रवावहत ह ती रही।
इन्ह न
ं े ईश्वर से एकवनि प्रेम कर उन्हें पा वलया।
ललद्यद अपनी भक्ति से शैव दशथन वसिाने वाले गुरुओं और
महात्माओं के ववचार ं क सुनकर अद्वै त दशथन के जवटल मागथ क
समझने लगी।
इन्ह न
ं े अपनी कंु डवलनी ध्यान साधना से वशव क जानने का सर्लतम्
प्रयास करने लगी
ललद्यद ने अपने सावहत्य में समाज में व्याप्त आडं बर, ववषमता क दूर
करने का प्रयास और ववर ध भी वकया-
ललद्यद भक्ति भावना-
उन्ह न
ं े कश्मीरी भाषा क संस्कृत ज्ञान परं परा से ज ड़कर ल कजन
की भाषा में अपने मन भाव ं क प्रस्तुत वकया।
कववयत्री ललद्यद उन महान संत ं में से एक र्ी, वजन्ह न
ं े अपनी भक्ति से प्रभु
प्राक्तप्त का मागथ ि ज वलया र्ा। इन्ह न
ं े ईश्वर से एकवनि प्रे म कर उन्हें पा वलया।
ललद्यद अपनी भक्ति से शैव दशथन वसिाने वाले गुरुओं और महात्माओं के ववचार ं
क सुनकर अद्वै त दशथन के जवटल मागथ क समझने लगी। इन्ह न
ं े अपनी कंु डवलनी
ध्यान साधना से वशव क जानने का सर्लतम् प्रयास करने लगी
ललद्यद ने अपने सावहत्य में समाज में व्याप्त आडं बर, ववषमता क दूर करने का
प्रयास और ववर ध भी वकया-
ललद्यद की (भक्ति काव्य का दाशथवनक एवं सांस्कृवतक) ववचारधारा-
उनके अनुसार वेद, धमथ और शास्त्र आवद व्यर्थ हैं । इन धावमथक ग्रंर् ं और उद्दे श्य ं का सार ललद्यद ने अपनी
मौवलक प्रवतभा से ज ड़कर संत मत की शक्ति बनाया।
इन्ह न
ं े भारतीय संस्कृवत के प्रवत अपनी वनिा, समपणथ और भक्ति क त स्वीकारा ही है सार् ही इिाम के प्रवत भी
अपनी ववचारधारा क प्रस्तुत वकया है " इिाम के सूर्ी मत व वहं दू धमथ के शैव मत में सम तत्व ं क स्वीकारा।
1. ईश्वर एक है ।
2. वही परम सत्ता है .
वही सावथभौम, सवथव्यापक शक्ति है । इन द न ं धमों की अच्छाइय ं क वमलाकर एक श्रेि दशथन दे नेवाली शै व-
य वगनी ने समाज में सवहष्णुता जगाने का कायथ वकया। " उनके ववचार मानवतावादी दृवष्टक ण एवं धावमथक भावना
द न ं धमों के ल ग ं क समान रूप से प्रभाववत वकया है ।
चैतन्य महाप्रभु
➢ बंगाल के वैष्णव संत चैतन्य महाप्रभु ( सन् 1485-1533) का जन्म बं गाल के
नवदया या नवद्वीप नामक स्र्ान पर हुआ
➢ इनके वपता का नाम जगन्नार् वमश्र एवं माता का नाम शची दे वी र्ा।
➢ छ टी आयु में इन्ह न
ं े अच्छी वशिा पाई. इसीवलए अल्पायु में ही इनकी गणना
नवद्वीप के संस्कृत के ववद्वान ं में की जाने लगी।
➢ बचपन से ही कृष्णभक्ति का भाव इनके मन में बीज रूप में ववद्यमान र्ा
➢ चैतन्य महाप्रभु ने चौबीस वषथ की अवस्र्ा में (1510 ई. में) गृह त्याग कर केशव
भारती से संन्यास धमथ ग्रहण वकया।
➢ वपता के दे हावसान के पश्चात् जब ये वपंडदान हे तु गया गये त आध्याक्तत्मकता के
वशीभूत इन्ह न
ं े ईश्वरपुरी महाराज से दीिा ले ली।
ववचार –
चैतन्य महाप्रभु सभी मनुर्ष् ं में एक ही आत्मा मानते र्े। वे जावतगत भेदभाव क न मान कर
सभी क ब ल हरर ब लहरर कहते र्े
श्री चैतन्य महाप्रभु के ववश्व बन्धुत्व तर्ा कृष्ण भक्ति से प्रेररत ह कर बंगाल, वबहार आवद िेत्र
के ढाई हजार से भी अवधक मुसलमान पुन वहन्दू ह गए।
रचनाएँ –