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Eklavyasnatak 1
• Pdf notes
SATENDER PRATAP SINGH
लोभ और प्रीति निबंध का प्रतिपाद्य ?

'लोभ और प्रीति' आचार्य रामचंद्र शुक्ल का एक मनोतिकार सं बंंीी तनबंंी ै।

इस तनबंंी में उन्ोंने मानिीर् भािों 'लोभ' और 'प्रीति' का तिस्तृि तिश्लेषण


तकर्ा ै।

भाि और मनोतिकार संबंंीी तनबंंी मात्र मनोि।ज्ञातनक तनबंं ी न ैोकर


तिचारात्मक भी ैैं

र्ै तनबंंी न िो शुद्ध रूप में भाि प्रीान ै। और न ैी ि।चाररक


'लोभ’ - तकसी प्रकार का सुख र्ा आनंद दे ने िाली िस्तु के संबंंी में मन
की ऐसी स्थिति ैो तिसमें उस िस्तु के अभाि की भािना ैोिे ैी प्रास्ि,
सातिध्य र्ा रक्षा की प्रबंल इच्छा िग पडे , लोभ कैिे ैैं

लोभ का संबंंी सुख र्ा आनंद दे ने िाली िस्तु से ै। िो एक मनः स्थिति ै।


और र्ै तकसी िस्तु के अभाि से िुडी ै।
प्रीति के संबंंी में शुक्ल िी के तिचार बंेैद सैि एिं स्पष्ट ैैं

उनका मानना ै। तक मूल भाि में 'लोभ और प्रीति' एक समान ै। तकंिु िास्ति में
उनमें कुछ अंिर ै।

उनके अनुसार सामान्य रूप में तकसी िस्तु के प्रति मन में िो ललक ैोिी ै। िै
लोभ ै। और तकसी व्यस्ि तिशेष की चाै प्रीति ै।

उनका मानना ै। तक प्रेम का पूणय तिकास िभी ैोिा ै। िबं दो हृदर् एक-दूसरे की
ओर क्रमशः स्खंचिे हुए चले िािे ैैं

शुक्ल िी ने प्रेमी और प्रेर्सी की मनोिृति का तिस्तृि तििरण तदर्ा ै।


िे प्रेम के दो क्षेत्र मानिे ैैं - ि।र्स्िक क्षेत्र ििा सामातिक क्षेत्र

ि।र्स्िक क्षेत्र में प्रेम का प्रभाि सीतमि रूप में रैिा ै। तिसे उन्ोंने एकांतिक प्रेम
कैा ै।

सामातिक क्षेत्र में प्रेम का प्रभाि सामातिक स्तर पर ैोिा ै। ििा र्ै िनतैिकारी
ैोिा ै। र्ै व्यापक ैोिा ै। ििा साैस और िीरिा से भरा रैिा ै।

क्ोंतक इसमें कियव्यतनष्ठा, दृढ़िा, ीीरिा तनतैि ैोिी ै।


बसंि आ गया निबंध की समीक्षा कीनिय ?

बंसंि आ गर्ा ै। ैिारी प्रसाद तििेदी का एक लोकतप्रर् तनबंंी ै।

इस तनबंंी में उन्ोंने व्यंग्यात्मक श।ली में मन, प्रकृति और कालबंद्धिा की


स्थितिर्ों को बंहुि सैि ढं ग से उद् घातिि तकर्ा ै।

इस तनबंंी में उनके सैि व्यस्ित्व की झलक तमलिी ै।

इस तनबंंी में उनका प्रकृति और िनस्पति संबंंीी ज्ञान तदखाई दे िा ै।


र्ै तनबंंी लतलि तनबंंी ै।

लतलि का अिय सुंदर ैोिा ै।

लतलि तनबंंी तकसी एक तिषर् के सम्यक् प्रतिपादन से अलग


लेखक के मन के भािों की स्वच्छं द उडान ै।

व्यस्ित्व की अतभव्यस्ि-

लतलि तनबंंी में एक प्रकार से तनबंंीकार अपने व्यस्ित्व को ैी अतभव्यि


कर रैा ैोिा ै।
इस तनबंंी में भी ैिारी प्रसाद के व्यस्ित्व की तिशेस्ताएअ अतभव्यि हुई ै।
प्रकृति प्रेम –

तनबंंी में ैिारी प्रसाद का प्रकृति प्रेम का तचत्रण दे खने को तमलिा ै।


उैोने तितभि प्रकार के पेडों का इसमें िणयन तकर्ा ै।
फूलों के स्खलने पर िो फूलों की शोभा और मैत्त्व ैोिा ै। उसका िणयन
तकर्ा गर्ा ै।
इस तनबंंी में प्राचीन शास्त्ों में ितणयि पेडों का उल्ले ख तकर्ा गर्ा ै।
प्रकृति प्रेम –

तनबंंी में ैिारी प्रसाद का प्रकृति प्रेम का तचत्रण दे खने को तमलिा ै।


उैोने तितभि प्रकार के पेडों का इसमें िणयन तकर्ा ै।
फूलों के स्खलने पर िो फूलों की शोभा और मैत्त्व ैोिा ै। उसका िणयन
तकर्ा गर्ा ै।
इस तनबंंी में प्राचीन शास्त्ों में ितणयि पेडों का उल्ले ख तकर्ा गर्ा ै।
भाषा श।ली -
वैष्णव िि स अभभप्राय ?

तिष्णु प्रभाकर िी ने , ि।ष्णि िन के स्वरूप को स्पष्ट तकर्ा ै।

ि।ष्णि िन ईश्वर का िै दीिाना ैोिा ै। , ईश्वर प्रेमी ैोिा ै। ,

िो अपने ईश्वर को न िो शब्द से प्राि करिा ै। , न शास्त् से

उसकी खोि िो सत्य के सैारे , प्रेम के मागय से ैी ैोिी ै।

िे कैिे ैैं तक ि।ष्णि िन अिायि ईश्वर का सच्चा प्रेमी उसे ैी समझना चातैए
िो दूसरे की पीडा को, कष्ट को आत्मसाि करना िानिा ैो, समझिा ैो
िो दूसरे के दुख को दे खकर दुखी ैो िाए

और उसे दूर करने के तलए कमयरि ैो

ि।ष्णि िन िै ैोिा ै। िो ऐसा करिे हुए मन में अतभमान का भाि भी नैी ं लािा

ि।ष्णि िन िै ैोिा ै। िो लोक में सबंकी िंदना करिा ै। अिायि सबंके सामने
नम्रिा से झुकिा ै। , तकसी की तनंदा नैी ं करिा ै।

िो मन, िचन, कमय से तनश्चल बंनकर सद। ि परतैि में लगा रैिा ै। ,
अिायि िाणी से दृढ़ रैिा ै। , आचरण में दृढ़ रैिा ै।

और मन से भी दृढ़ रैिा ै। िै ना िो अशांि ैो सकिा ै। और न अस्थिर


ऐसे ि।ष्णि िन की मािा भी ीन्य ैोिी ै।

िे कैिे ैैं तक ि।ष्णि िन िै ै। िो समदृतष्ट रखिा ै। , िो िृष्णारतैि ैोिा ै।

िो एक पत्नी व्रिीारी ैोिा ै।, सत्य िृिपालक ैोिा ै। , र्ानी कभी असत्य नैी ं बंोलिा ै।

दूसरों के ीन पर कुदृतष्ट नैी ं रखिा ै।

ि।ष्णि िै ै। िो मार्ा से परे ैोिा ै। तिसमें िीिराग का भाि ैोिा ै।

िो राम नाम में िल्लीन ैोिा ै।

तिनके रोम-रोम में सारे िीिय समार्े ैोिे ैैं

ऐसी पतित्रात्मा ैी ि।ष्णि िन ै।


शायद एकांकी में निहिि सन्दश क्या िै ?
ठकुरी बाबा की चाहरतिक ववशषिा बिाइए ?

▪ ठकुरी बाबा स्वभावतः सरल, ववनम्र, सज्जन, भावक


ु और सेवाभावी व्यवि थे।
▪ वे सबको अपना अवतवथ बनाने को हमेशा आतरु रहते।
▪ ठकुरी बाबा बडे उदार और खुशवदल स्वभाव के इनसान थे।
▪ दूसरों को कुछ देने में उन्हें ववशेष प्रकार की आनदं ानभ
ु ूवत होती थी।
▪ इसी से वे स्वयं पूछ-पूछकर इस वववनमय व्यापार को खूब बढाते थे।
▪ उसे कभी कमजोर नहीं होने वदया।
• ठकुरी बाबा भावक
ु और ववश्वासी व्यवि थे।
• वह भजन करते थे
• पत्नी की मत्ृ यु के बाद उन्होंने अपनी पुत्री बेला को कभी माता की कमी नहीं होने दी
• वह माघ मेले में कल्पवास के वलए जाया करते थे
• ठकुरी बाबा कवी स्वभाव के व्यवि थे वह लोगों को कववताये सनु ाया करते थे
• वह एक सपं न्न खेवतहर व्यवि थे
• ठकुरी बाबा काव्य प्रेमी थे
अंगद का पााँव निबंध की भाषा शैली ?

साधारण आम बोल चाल की भाषा का प्रयोग

अंगरिी क शब्दों का प्रयोग

उदूद और हििंदी क शब्दों का प्रयोग

िीवि क पाखण्ड का वणूि

ऐसा व्यंग निसम क्रोध का प्रसार िो


ठल पर हिमालय रचिा का सार बिाइए ?
ीमयिीर भारिी का र्ात्रा िृिांि 'ठे ले पर तैमालर्' में कौसानी के प्राकृतिक सौद
ं र्य और
इस मनोरम थिल पर उनकी रोमांचक र्ात्रा का िणयन ै।

र्ै लेख एक ऐसे शीषयक के साि आरं भ ैोिा ै। िो अनार्ास ैी पाठक का ध्यान
आकतषयि करिा ै।

तिस दृश्य से लेख की शुरुआि ैोिी ै। िै एक सामान्य तदन का सामान्य सा दृश्य ै।


रचनाकार अपने एक तमत्र के साि एक पान की दुकान पर खडा ै।

िैी ं से एक बंफय िाला ठे ले पर बंफय की तसस्ल्लर्ाअ लेकर गुिरिा ै।


उसे िािे हुए दे खकर अल्मोडा से िाल्लुक रखने िाला उनका तमत्र कैिा ै। तक 'बंफय
िो तैमालर् की शोभा ै। तमत्र की बंाि सुनिे ैी ित्काल र्ै शीषयक लेखक के मन में
कौ ंी िािा ै।
लेखक अपनी एक र्ात्रा का अनुभि तमत्र से साझा करिे हुए कैिा ै।

तक तैम रातश को दे खने के तलए मैं अपनी पत्नी के साि कौसानी की र्ात्रा पर गर्ा िा

िे न।नीिाल, रानीखेि, मझकाली के भर्ानक रास्तों को पार करिे हुए कोसी पहुअ चे िे

कोसी िक का रास्ता बंेैद सूखा, कुरूप और ऊबंड-खाबंड तदखा

उस कष्टप्रद, सूखे रास्ते पर पानी और ैररर्ाली का कैी ं नाम नैी ं िा

पूरे रास्ते सूखे पैाड निर आ रैे िे एक िो रास्ता कष्टों से भरा हुआ िा उस पर बंस का
डर ाइिर नौतसस्खर्ा और लापरिाै तिसके कारण सभी र्ातत्रर्ों के चेैरे पीले पड गए िे
सभी की ैालि खराबं ैो चुकी िी

लेखक अपने सातिर्ों सतैि कोसी उिर गए और कौसानी िाने िाली बंस की प्रिीक्षा करने
लगे
लगभग दो घंिे के बंाद एक दूसरी बंस आई तिसमें लेखक के पररतचि शु क्ला िी िे

इन्ी ं शुक्ला िी ने कौसानी के तलए लेखक को प्रोत्सातैि तकर्ा िा

शुक्ला िी के साि एक दुबंले-पिले व्यस्ि सेन भी िे, िो तचत्रकार िे

िबं उनकी बंस कोसी से चली िो रास्ते का सारा दृश्य भी बंदला हुआ नज़र आर्ा

कल-कल करिी कोसी नदी के िि पर छोिे -छोिे गाअि, मखमली खेि ििा सोमेश्वर घािी की
सुंदरिा उनकी आअ खों को सुकून तमला

उनके तमत्र ने बंिार्ा की र्ै थिान स्स्वि् ज़रलैंड से भी ज्यादा सुन्दर ै।


कौसानी सोमेश्वर घािी के उिर में पियि की चोिी पर बंसा एक छोिा सा गाअि िा

बंस ीीरे -ीीरे अपने लक्ष्य की ओर बंढ़ रैी िी लेतकन कुछ ैी दे र बंाद लेखक का मन तनराश
ैोने लगा

ज्यों-ज्यों उनकी बंस कौसानी के समीप िा रैी िी कोसी नदी के िि की


िै सुंदरिा समाि ैोिी निर आ रैी िी

अपने इसी तनराशा भरे भाि से िे कौसानी के बंस अड्डे पर पहुअ च गए

लेखक धर्मवीर भारती ने कौसानी की सद ुं रता का जो वर्मन सन


ु ा था उन्हें वहााँ वैसा कुछ
भी दे खने को नहीीं मर्ला। इतना ही नहीीं जजस हिम के दर्शन के लिए वि कौसानी पिुँचे थे
उसका कि ुं कोई चचह्न नि ुं था।

कुछ ही क्षर् र्ें जब उन्होंने बस से उतरकर घाट का सौंदर्श दे खा तो वे सब स्तब्ध रह


गए। वह सौंदर्म इतना ननष्कलींक था कक लेखक के र्न र्ें आर्ा कक जत ू े उतार कर, पााँव
पोंछ कर ही धरती पर रखने चाहहए।
लेखक की नजर ने दरू घाटी को पार ककर्ा

और क्षक्षनतज तक फैले खेत, वनों, नहदर्ों के बाद बादलों के धध


ुाँ लके र्ें
उन्हें पवमत हदखाई हदर्ा।

धीरे -धीरे बादलों के हटने पर लेखक ने उस पवमत पर बफम को दे खा।

उन्होंने प्रसन्न िोकर चचल्िा कर किा 'बरफ-वि दे खो।

साथ के सभी साथथर्ों ने उस ओर दे खा और दे खते-दे खते वह पवमत बादलों र्ें कफर


लप्ु त हो गर्ा।

क्षर् भर के हिम दर्शन से सभी के र्न र्ें अब तक की व्र्ाप्त खखन्नता धूमर्ल हो


गई और वे प्रसन्न हो उठे ।

उनकी रास्ते भर की थकान पूर्त


म ः दरू हो गई।
हहर्ालर् के सौंदर्म को पुनः दे खने के मलए सब व्र्ाकुल होकर बादलों
के छाँ टने की प्रतीक्षा करने लगे।

इसी सर्र् गींभीर शक्ु ला जी बस र्स्


ु करा कर दे ख रहे थे र्ानों,
र्ह कह रहे हों 'दे खा कौसानी का जाद।ू

अपना सार्ान डाक बींगले र्ें रखकर सब बरार्दे र्ें बैठे धीरे -धीरे बादलों के छाँ टने का
दृश्र् दे ख रहे थे।

एक-एक कर घाटी के सार्ने के पवमत हदखाई दे ने लगे जजस पर नई नई बफम जर्ी थी


लेखक को लगता है कक हहर्ालर् की शीतलता से अपने
सखु -दख
ु ों को दरू करने के मलए तपस्वी और साधक र्हााँ आते हैं।

उनके र्न र्ें र्ह भाव भी आर्ा कक र्ह बफम ककतनी परु ानी होगी,
न जाने ककतने कालों से र्ह अववनाशी हहर्इन पवमतों पर जर्ी हुई है ।

र्ह सब दे खते-दे खते सरू ज डूबने लगा और ऐसा लगा कक धीरे-धीरे ग्लेमशर्रों र्ें वपघला
हुआ केसर बहने लगा

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