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प्र- कबीर दास जी एक विद्रोही कवि के साथ साथ समाज सुधारक भी रहे हैं स्पष्ट कीवजए?

अथिा
प्र- तत्कालीन पररवस्थवतयों में कबीरदास जी के प्रासंविकता पर विचार कीवजए?
उ०-
आज जब हम चहुँओर व्याप्त सामाजजक जडता तथा अराजकता की ओर उन्मुख होते हैं तब व्यवस्था के जवरुद्ध क्ाांजत का शांखनाद करने के जिए युगपुरुष
की आवश्यकता महसूस करते हैं। कबीर का कािजयी व्यजित्व इस समय हमारे जिए ज्योजतपुांज है। आज से िगभग 600 वषष पवू ष 1397 ई. में
काशी में जन्मे कबीर आजीवन अथक प्रयासों से समाज का मागषदशषन करते रहे। वे जुिाहा कमष को अपनाकर ग्राहस्थ जीवन के साथ सतां बनकर ‘समाज
सुधार’ का कायष भी करते रहे।
कबीर िोकिाज बचाने के जिए त्यागे गये तथा नीमा और नीरु मुजस्िम जुिाहे द्वारा पाजित पोजषत पुत्र् थे। आजीवन सांघषष उपरान्त उन्होंने अपना देह
त्याग मगहर में जकया। जजसका सांदेश उस अांधजवश्वास को जमटाना था जक यहाुँ मृत्यु होने पर व्यजि अगिे जन्म में गधा बनता है। जो िोग जीवनभर
कबीर के जवरोधी थे उनकी मृत्युपराांत शव को िेकर जहन्दू-मुजस्िम आपस में उिझे। कबीर की उिटबाुँजसया आगे चिकर जहन्दू सतां ों, पीरों, फकीरों,
‘गुरुग्रांथसाजहब’ आजद की जुबान बनी अथाषत् कबीर का सम्पूर्ष जीवन ही उनका सदां ेश है।
डॉ. अम्बेडकर के अनुसार जाजतवाद भारतीय समाज का सबसे बडा कोढ है। यहाुँ समय के साथ सब चीजें नष्ट हो जाती हैं, िेजकन ‘जाजत’ एक ऐसी
चीज शब्द है जो कभी नहीं जाती। सोपानीकृ त अवस्था में स्वर्ष, अवर्ष, अस्पृश्यता, ऊुँ च- नीच आजद से जजषर भारतीय समाज के जवरुद्ध कबीर ने मुखर
आवाज उठाई तथा मानव मजु ि की बात की। जन्म के आधार पर भेदभाव को वे अमान्य ठहराते हैं –
जो तू बामन बामजन जाया, आन बाट तैं काहे न आया ।
वे आम आदमी की आवाज थे। उन्होंने जनम्नवगीय चेतना को शब्द जदये। कबीर ने जन्म/जाजत या कुिगत उच्चता के बजाय कमष तथा जवचारों की
उच्चता को प्रजतष्ठा दी। उन्होंने एक आदशष समाज का सपना देखा एवां जो वर्षभेद जैसी मानव-मानव को अिग करने वािी परम्पराओ ां का खण्डन जकया।
आज जब जाजत का बोिबािा है, तब कबीर द्वारा जाजतवाद के जवरुद्ध की गयी इस एकतरफा िडाई की याद आती है। वे आमजन की आवाज थे तथा
अांधकारयुग के जन नेता थे।
धमषजनरपेक्ष िोकताांजकक भारत के जिए हमें आदशष समाज की रूपरेखा कबीर के सांदशों में जमिती है। जहन्दू समाज द्वारा बजहष्कृ त तथा मुजस्िम समाज द्वारा
जतरस्कृ त कबीर ने ईश्वरीय एकता की बात कही। उन्होंने धमष के नाम पर भेदभाव तथा ईश्वर के नाम पर िडाई का ताजककष खण्डन जकया। कबीर के राम
जनगुषर् एवां जनराकार ईश्वर थे। उन्होंने उसे सबका प्रभु बनाया तथा मानव धमष की प्रजतष्ठा की। उन्होंने आजस्तकों के ईश्वर, ईश्वरीय ग्रांथ, उपासना स्थि तथा
अनुयाजययों के नाम पर जवभेद को नकारा तथा धाजमषक समन्वय की अवधारर्ा प्रजतपाजदत की।आज के धाजमषक वैमनस्य के वातावरर् में कबीर के जवचार
प्रासांजगक हैं जक ‘जहन्दू उसे राम कहता है। मुसिमान खुदा कहता है। तू उसकी परवाह न कर तब काबा काशी हो जाएगा और राम रहीम हो जाएगा।’ यही
कारर् है जक जब कबीर की मृत्यु हई तब उनके शव पर दावा प्रत्येक धमाषनुयायी ने जकया तथा मगहर में उसका स्मारक धाजमषक समन्वय की जमसाि है।
कबीर अपने समय के क्ाजन्तकारी प्रविा थे। उन्होंने आडम्बरों, कुरीजतयों, जडता, मूढता एवां अधां जवश्वासों का तकष पूर्ष खण्डन जकया। कबीर का अपने
यगु के प्रजत यथाथष बोध इतना था जक उन्होंने हर एक परम्परा, रूढ, कुरीजत तथा पाखण्ड को यथाथष के धराति पर खाररज जकया। अबि ु फजि ने आइने
अकबरी में जिखा है जक ‘‘कबीर ने समाज के सडे-गिे रीजत ररवाजों को नकार जदया। कबीर ने समाज सधु ार के जिए कोडे खाए तो व्यांग्य तथा हुँसी-
जठठौिी द्वारा भी जनमानस में सुधार के प्रजत सोच जवकजसत की।’’ उन्होंने आिोचना के साथ सृजन की रूपरेखा रखी। कबीर अराजकता, सामन्तवाद
तथा उथि-पुथि के दौर में क्ाजन्तकारी स्वप्नकार हैं। वे स्वभाव से सांत थे, िेजकन प्रकृ जत से उपदेशक। उन्होंने अधां जवश्वासों का उपहास कर ठीक जनशाने
पर चोट पहुँचाई। उन्होंने मजू तषपजू ा, तीथषयात्र, अवतारवाद एवां कमषकाण्डों का जवरोध जकया तथा ईश्वर और व्यजि के बीच जकसी भी मध्यस्थ को
अस्वीकार जकया। उन्होंने हर रूढ को खाररज जकया जो मानव-मानव में भेद कराती थी। आज के दौर में जब भौजतक साधनों हेतु भ्रष्टाचार, िूट- खसौट,
जमिावटखोरी जैसे अपराध मानवता को झकझोर रहे हैं तब कबीर के ये जवचार अजत प्रासांजगक हैं –
स ईां इतन दीजिए, ि मे कुटुम्ब सम य ।
मैं भी भूख न रहूँ, स धु न भूख ि ये ।।
अथाषत् कबीर सांग्रहवाद के बजाय अपररग्रह को महत्त्व देते हैं। रामानन्द के जशष्य कबीर ने धाजमषक आडम्बरों के जवरुद्ध आवाज उठाई और कहा जक –
क ांकर पत्थर िोरर के मजजिद लई बन य ।
त ऊपर मुल्ल ब ांग दे क्य बहर हुआ खुद य ।।
कबीर की उिटबाुँजसया पग-पग पर मानव को अांधकार से प्रकाश की ओर िे जाती हैं, वे हर उस व्यवस्था का जवरोध करते हैं जो मानव को अवनजत की
जांजीरों में जकडती है तथा उसे रसाति में िे जाती है।
कबीर ने मानवीय मूल्यों की प्रजतष्ठा स्थाजपत की। उन्होंने धैयष, सजहष्र्ुता, कमषयोग, गुरु का सम्मान, प्रेम, मानवता, आत्मा की पजवकता, दीन-दजु खयों की
सेवा, नैजतकता के पािन को मानवीय कर्त्षव्य माना। कबीर ने ‘मािी सींचे सौ घडा’ के माध्यम से धैयष के साथ कमष को महत्त्व जदया। उन्होंने ‘भृगु मारी
िात’ द्वारा क्षमा के महत्त्व तथा ‘माटी कहे कुम्हार से’ द्वारा सजहष्र्तु ा का पाठ पढाया। कबीर सच्चे अथों में कमषयोगी थे। उन्होंने समाज को सचेत जकया
जक जनबषि को मत सताओ नहीं तो उसकी हाय से सब कुछ नष्ट हो जायेगा –
जनबबल को न सत इये ि की मोटी ह य ।
मुई ख ल की श् ांस सौं लौह भसम हो ि य ।।
उन्होंने पिायन न करके समाज के बीच में रहकर गृहस्थ के रूप में कमषयोगी बनकर समाज को जशजक्षत जकया। उन्होंने जि ु ाहा कमष को अपनाकर सभी के
समक्ष आदशष रखा जक कोई भी व्यवसाय हीन नहीं है अथाषत् कमष की महानता के वे साक्षात् प्रतीक थे। उन्होंने जीवन में कथनी और करनी की समानता
को महत्त्वपर्ू ष माना। वे दुःु खी मानव की पीडा को स्वयां भोग रहे थे –
चलती चक्की देखकर जदय कबीर रोए ।
दुई प टन के बीच में स बतु बच न कोए ।।
कबीर अनपढ थे, िेजकन वे िकीर के फकीर नहीं थे। वे यथाथष जीवन के जवद्वान् थे। वे कहते हैं –
मजसक गद छूयो नहीं, कलम गही नजहां ह थ ।
च ररउ िुगन मह तम् कबीर, मुखजह िन ई ब त ।।
उन्होंने जशक्षा प्रर्ािी को पोजथयों से बाहर िाकर प्रेम तथा यथाथष पर आधाररत जकया –
पोथी पढ-पढ िग मुआ, पांजित भय न कोय ।
ढ ई आखर प्रेम क , पढै सौ पांजित होय ।।
उन्होंने कमष तथा स्वाविम्बन की जशक्षा दी। कबीर वैज्ञाजनक दृजष्टकोर् तथा तकष बुजद्ध को सच्ची जशक्षा मानते थे। उनके यथाथषवाद पर हजारी प्रसाद जद्ववेदी
जिखते हैं, ‘‘कबीर ने कजवता के जिए कजवता नहीं जिखी, वह अपने आप हो गयी।’’ कबीर ने जनभाषा में जनता को जशजक्षत जकया। उनकी सधक्ु कडी
भाषा एक ओर मातृभाषा में जवद्याथी को जशजक्षत करने के जिए प्रेररत करती है, वहीं दसू री ओर भाषायी पाजण्डत्य, परायी भाषा में अपने िोगों से बात
करना तथा भाषा के नाम पर जववाद पैदा करना आजद प्रवृजर्त्यों पर प्रश्नजचह्न िगाती है।
आज 21वीं सदी के जवश्व में भारत जहाुँ अपनी पहचान स्थाजपत करना चाहता है, वहाुँ स्थानीय समस्याएुँ, नक्सिवाद, जाजतवाद, क्षेकवाद, भाषावाद,
सम्प्रदायवाद के दौर में एक ‘समग्र भारतीय व्यजित्व’ के रूप में कबीर हमारे व्योम में जाज्वल्यमान नक्षत्र् हैं। िॉ. हि री प्रस द जिवेदी ने कबीर के
जलए जलख है, ‘‘वे मुसलम न नहीं थे। जहन्दू होकर भी जहन्दू नहीं थे। वैष्णव होकर भी वे वैष्णव नहीं थे। योगी होकर भी योगी नहीं थे। वे
भगव न् के नरजसांह वत र की म नव प्रजतमजू तब थे। नरजसहां की भ ूँजत वे असम्भव समझी ि ने व ली पररजजथजतयों के जमलन जबन्दु पर
अवतररत हुए थे, िह ूँ एक ओर ज्ञ न जनकल ि त है और दूसरी ओर भजि म गब।’’ अकबर के दरबारी उफी ने उनके बारे में कहा है, ‘‘ऐसे रहो
अच्छे और बुरों के साथ, ओ ! उफी, जक जब तुम्हें मौत आए, मुसिमान तम्ु हारे शव को पाक पानी से नहिाये और जहन्दू उसका अजग्न सांस्कार करें।’’
यह कबीर का ही युग बोध है जक वे बीच बाजार में हाथ में जिता हआ मुराडा जिये खडे हैं और सत्य की खोज में समाज के अग्रदतू बने हैं –
हम घर ि र आपन , जलए मरु ि ह जथ ।
अब घर ि लौ त स क , िो चलै हम रे स थी ।।
भारतीय परम्परा में वे आज जझु ारू प्रेरर्ा के प्रतीक हैं एवां मानवता तथा भारतीयता के सच्चे पोषक हैं।

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