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ीराधा-माधव-रस-सुधा

[षोडश-गीत]

महाभाव रसराज व दना

दोउ चकोर, दोउ चं मा, दोउ अिल, पंकज दोउ।

दोउ चातक, दोउ मेघ ि य, दोउ मछरी, जल दोउ॥

आ य-आलंबन दोउ, िबषयालंबन दोउ।

ेमी- ेमा पद दोउ, त सुख-सुिखया दोउ॥

लीला-आ वादन-िनरत, महाभाव-रसराज।

िबतरत रस दोउ दु न क , रिच िबिच सु ठ साज॥

सिहत िबरोधी धम-गुन जुगपत िन य अनंत।

बचनातीत अिच य अित, सुषमामय ीमंत॥

ीराधा-माधव-चरन बंद बारं बार।

एक तव दो तनु धर, िनत-रस-पाराबार॥


(१)

ीकृ णके म
े ो ार— ी राधा के ित
(राग मालकोस-तीन ताल)
रािधके ! तुम मम जीवन-मूल।
अनुपम अमर ान-संजीविन, न ह क ँ कोउ समतूल॥
जस सरीर म िनज-िनज थान ह सबही सोिभत अंग।
कतु ान िबनु सबिह यथ, न ह रहत कत ँ कोउ रं ग॥
तस तुम ि ये ! सबिन के सुख क एकमा आधार।
तुहरे िबना नह जीवन-रस, जास सब कौ यार॥
तुहारे ानिन स अनु ािनत, तुहरे मन मनवान।
तुहरौ ेम- सधु-सीकर लै कर सबिह रसदान॥
तुहरे रस-भंडार पु य त पावत िभ छु क चून।
तुम सम के वल तुमिह एक हौ, तिनक न मानौ ऊन॥
सोऊ अित मरजादा, अित सं म-भय-दै य-सँकोच।
न ह कोउ कत ँ कब ँ तुम-सी रस वािमिन िन संकोच।
तुहरौ व व अनंत िन य, सब भाँित पून अिधकार।
काययूह िनज रस-िबतरन करवावित परम उदार॥
तुहरी मधुर रह यमई मोहिन माया स िन य।
दि छन बाम रसा वादन िहत बनतौ र ँ िनिमा॥
(२ )

ीराधाके म
े ो ार— ीकृ णके ित
(राग रागे री-ताल दादरा)
ह तो दासी िन य ितहारी।
ाननाथ जीवनधन मेरे, ह तुम पै बिलहारी॥
चाह तुम अित ेम करौ, तन-मन स मोिह अपनाऔ।
चाह ोह करौ, ासौ, दुख देइ मोिह िछटकाऔ॥
तुहरौ सुख ही है मेरौ सुख, आन न कछु सुख जान ।
जो तुम सुखी होउ मो दुख म, अनुपम सुख ह मान ॥
सुख भोग तुहरे सुख कारन, और न कछु मन मेरे।
तुमिह सुखी िनत देखन चाह िनस- दन साँझ-सबेरे॥
तुमिह सुखी देखन िहत ह िनज तन-मन क सुख दे ँ।
तुमिह समरपन क र अपने क िनत तव िच क से ँ॥
तुम मोिह ’ ाने व र’, ’ दये व र’, ’कांता’ किह सचु पावौ।
यात ह वीकार कर सब, ज िप मन सकु चाव ॥
(३ )

ीकृ णके म
े ो ार— ी राधा के ित
(राग भैरवी-तीन ताल)
हे आरा या राधा ! मेरे मनका तुझम िन य िनवास।
तेरे ही दशन कारण म करता ँ गोकु लम वास॥
तेरा ही रस-तव जानना, करना उसका आ वादन।
इसी हेतु दन-रात घूमता म करता वंशीवादन॥
इसी हेतु ानको जाता, बैठा रहता यमुना-तीर।
तेरी पमाधुरीके दशनिहत रहता िचत अधीर॥
इसी हेतु रहता कद बतल, करता तेरा ही िनत यान।
सदा तरसता चातकक य, प- वाितका करने पान॥
तेरी प-शील-गुण-माधु र मधुर िन य लेती िचत चोर।
ेमगान करता िनत तेरा, रहता उसम सदा िवभोर॥
(४ )
ीराधाके म
े ो ार— ीकृ णके ित
(राग भैरवी-तीन ताल)
मेरी इस िवनीत िवनतीको सुन लो, हे जराजकु मार !
युग-युग, ज म-ज मम मेरे तुम ही बनो जीवनाधार॥
पद-पंकज-परागक म िनत अिलनी बनी र ,ँ नँदलाल !
िलपटी र ँ सदा तुमसे म कनकलता य त ण तमाल॥
दासी म हो चुक सदाको अपणकर चरण म ाण।
ेम-दामसे बँध चरण म, ाण हो गये ध य महान॥
देख िलया ि भुवनम िबना तुहारे और कौन मेरा।
कौन पूछता है ’राधा’ कह, कसको राधाने हेरा॥
इस कु ल, उस कु ल-दोन कु ल, गोकु लम मेरा अपना कौन !
अ ण मृदल
ु पद-कमल क ले शरण अन य गयी हो मौन॥
देखे िबना तुह पलभर भी मुझे नह पड़ता है चैन।
तुम ही ाणनाथ िनत मेरे, कसे सुनाऊँ मनके बैन॥
प-शील-गुण-हीन समझकर कतना ही दुतकारो तुम।
चरणधूिल म, चरण म ही लगी र ग
ँ ी बस, हरदम॥
(५ )
ीकृ णके म
े ो ार— ी राधा के ित
हे वृषभानुराजनि दिन ! हे अतुल ेम-रस-सुधा-िनधान !
गाय चराता वन-वन भटकूँ , या समझूँ म ेम-िवधान !
वाल-बालक के सँग डोलू,ँ खेलूँ सदा गँवा खेल।
े -सुधा-स रता तुमसे मुझ त धूलका कै सा मेल !

तुम वािमिन अनुरािगिण ! जब देती हो ेमभरे दशन।
तब अित सुख पाता म, मुझपर बढ़ता अिमत तुहारा ऋण॥
कै से ऋणका शोध क ँ म, िन य ेम-धनका कं गाल !
तु ह दया कर ेमदान दे मुझको करती रहो िनहाल॥
(६)
ीराधाके म
े ो ार— ीकृ णके ित
(राग परज-तीन ताल)
सु दर याम कमल-दल-लोचन दुखमोचन जराज कशोर।
देखूँ तु ह िनर तर िहय-मि दरम, हे मेरे िचतचोर !
लोक-मान-कु ल-मयादाके शैल सभी कर चकनाचूर।
र खूँ तु ह समीप सदा म, क ँ न पलक तिनकभर दूर॥
पर म अित गँवार वािलिन गुणरिहत कलंक सदा कु प।
तुम नागर, गुण-आगर, अितशय कु लभूषण सौ दय- व प॥
म रस- ान-रिहत रसव जत, तुम रसिनपुण रिसक िसरताज॥
इतनेपर भी दयािस धु तुम मेरे उरम रहे िवराज॥
(७ )

ीकृ णके म
े ो ार— ी राधा के ित
(राग भैरवी तज-तीन ताल)

हे ि यतमे रािधके ! तेरी मिहमा अनुपम अकथ अन त।

युग-युगसे गाता म अिवरत, नह कह भी पाता अ त॥

सुधान द बरसाता िहयम तेरा मधुर वचन अनमोल।

िबका सदाके िलये मधुर दृग-कमल कु टल ुकुटीके मोल॥

जपता तेरा नाम मधुर अनुपम मुरलीम िन य ललाम।

िनत अतृ नयन से तेरा प देखता अित अिभराम॥

कह न िमला ेम शुिच ऐसा, कह न पूरी मनक आश।

एक तुझीको पाया मने, िजसने कया पूण अिभलाष॥

िन य तृ , िन काम िन यम मधुर अतृि , मधुरतम काम।

तेरे द ेमका है यह जादूभरा मधुर प रणाम॥


(८)
ीराधाके म
े ो ार— ीकृ णके ित
(राग भैरवी तज-तीन ताल)
सदा सोचती रहती ँ म या दूँ तुमको, जीवनधन !
जो धन देना तु ह चाहती, तुम ही हो वह मेरा धन॥
तुम ही मेरे ाणि य हो, ि यतम ! सदा तु हारी म।
व तु तु हारी तुमको देते पल-पल ँ बिलहारी म॥
यारे ! तु ह सुनाऊँ कै से अपने मनक सिहत िववेक।
अ य के अनेक, पर मेरे तो तुम ही हो, ि यतम ! एक॥
मेरे सभी साधन क बस, एकमा हो तुम ही िसि ।
तुम ही ाणनाथ हो, बस, तुम ही हो मेरी िन य समृि ॥
तन-धन-जनका ब धन टू टा, छू टा, भोग-मो का रोग।
ध य ई म, ि यतम ! पाकर एक तु हारा ि य संयोग॥
(९)

ीकृ णके म
े ो ार— ी राधा के ित
(राग गूजरी-ताल कहरवा)
राधे, हे ि यतमे, ाण- ितमे, हे मेरी जीवन मूल !
पलभर भी न कभी रह सकता, ि ये मधुर ! म तुमको भूल॥
ास- ासम तेरी मृितका िन य पिव ोत बहता।
रोम-रोम अित पुल कत तेरा आ लगन करता रहता॥
ने देखते तुझे िन य ही, सुनते शद मधुर यह कान।
नासा अंग-सुग ध सूँघती, रसना अधर-सुधा-रस-पान॥
अंग-अंग शुिच पाते िनत ही तेरा यारा अंग- पश।
िन य नवीन ेम-रस बढ़ता, िन य नवीन दयम हष॥
(१०)
ीराधाके म
े ो ार— ीकृ णके ित
(राग गूजरी-ताल कहरवा)
मेरे धन-जन-जीवन तुम ही, तुम ही तन-मन, तुम सब धम।
तुम ही मेरे सकल सुखसदन, ि य िनज जन, ाण के मम॥
तु ह एक बस, आव यकता, तुम ही एकमा हो पू त।
तु ह एक सब काल सभी िविध हो उपा य शुिच सु दर मू त॥
तुम ही काम-धाम सब मेरे, एकमा तुम ल य महान।
आठ पहर बसे रहते तुम मम मन-मि दरम भगवान॥*
सभी इि य को तुम शुिचतम करते िन य पश-सुख-दान।
बा ाभय तर िन य िनर तर तुम छेड़े रहते िनज तान॥
कभी नह तुम ओझल होते, कभी नह तजते संयोग।
घुले-िमले रहते करवाते करते िनमल रस-सभोग॥
पर इसम न कभी मतलब कु छ मेरा तुमसे रहता िभ ।
ए सभी संक प भंग म-मेरेके समूल त िछ ॥
भो ा-भो य सभी कु छ तुम हो, तुम ही वयं बने हो भोग।
मेरा मन बन सभी तु ह हो अनुभव करते योग-िवयोग॥

*(दूसरा पाठ) आठ पहर सरसते रहते तुम मन सर-वरम रसवान ॥


(११)

ीकृ णके म
े ो ार— ी राधा के ित
(राग िशवरजनी-तीन ताल)
मेरा तन-मन सब तेरा ही, तू ही सदा वािमनी एक।
अ य का उपभो य न भो ा है कदािप, यह स ी टेक॥
तन समीप रहता न थूलतः, पर जो मेरा सू म शरीर।
णभर भी न िवलग रह पाता, हो उठता अ य त अधीर॥
रहता सदा जुड़ा तुझसे ही, अतः बसा तेरे पद- ा त।
तू ही उसक एकमा जीवनक जीवन है िन ा त॥
आ न होगा अ य कसीका उसपर कभी तिनक अिधकार।
नह कसीको सुख देगा, लेगा न कसीसे कसी कार॥
य द वह कभी कसीसे किचत् दखता करता-पाता यार।
वह सब तेरे ही रसका बस, है के वल पिव िव तार॥
कह सकती तू मुझे सभी कु छ, म तो िनत तेरे आधीन।
पर न मानना कभी अ यथा, कभी न कहना िनजको दीन॥
इतने पर भी म तेरे मनक न कभी ँ कर पाता।
अतः बना रहता ँ संतत तुझको दुःखका ही दाता॥
अपनी ओर देख तू मेरे सब अपराध को जा भूल।
करती रह कृ ताथ मुझको वे पावन पद-पंकजक धूल॥
(१२)

ीराधाके म
े ो ार— ीकृ णके ित
(राग िशवरं जनी-तीन ताल)
तुमसे सदा िलया ही मने, लेती-लेती थक नह ।
अिमत ेम-सौभा य िमला, पर म कु छ भी दे सक नह ॥
मेरी ु ट, मेरे दोष को तुमने देखा नह कभी।
दया सदा, देते न थके तुम, दे डाला िनज यार सभी॥
तब भी कहते-’दे न सका म तुमको कु छ भी, हे यारी !
तुम-सी शील-गुणवती तुम ही, म तुमपर ँ बिलहारी’॥
या म क ँ ाणि यतमसे, देख लजाती अपनी ओर।
मेरी हर करनीम ही तुम ेम देखते न द कशोर !॥
(१३)

ीकृ णके म
े ो ार— ी राधा के ित

(राग वागे ी-तीन ताल)


राधे ! तू ही िच रं जनी, तू ही चेतनता मेरी।
तू ही िन य आ मा मेरी, म ँ बस, आ मा तेरी॥
तेरे जीवनसे जीवन है, तेरे ाण से ह ाण।
तू ही मन, मित, च ु, कण, वक् , रसना, तू ही इि य- ाण॥
तू ही थूल-सू म इि यके िवषय सभी मेरे सुख प।
तू ही म, म ही तू बस, तेरा-मेरा सब ध अनूप॥
तेरे िबना न म ,ँ मेरे िबना न तू रखती अि त व।
अिवनाभाव िवल ण यह सब ध, यही बस, जीवन-त व॥
(१४)

ीराधाके म
े ो ार— ीकृ णके ित
(राग वागे ी-तीन ताल)
तुम अन त सौ दय-सुधा-िनिध, तुमम सब माधुय अन त।
तुम अन त ऐ य-महोदिध, तुमम सब शुिच शौय अन त॥
सकल द सद्गुण-सागर तुम लहराते सब ओर अन त।
सकल द रस-िनिध तुम अनुपम, पूण रिसक, रस प अन त॥
इस कार जो सभी गुण म, रसम अिमत असीम अपार।
नह कसी गुण-रसक उसे अपे ा कु छ भी कसी कार॥
फर म तो गुणरिहत सवथा, कु ि सत-गित, सब भाँित गँवार।
सु दरता-मधुरता-रिहत ककश कु प अित दोषागार॥
नह व तु कु छ भी ऐसी, िजससे तुमको म दूँ रसदान।
िजससे तु ह रझाऊँ, िजससे क ँ तु हारा पूजन-मान॥
एक व तु मुझम अन य आ यि तक है िवरिहत उपमान।
’मुझे सदा ि य लगते तुम’-यह तु छ कतु अ य त महान॥
रीझ गये तुम इसी एक पर, कया मुझे तुमने वीकार।
दया वयं आकर अपनेको, कया न कु छ भी सोच-िवचार॥
भूल उ ता भगव ा सब स ाका सारा अिधकार।
मुझ नग यसे िमले तु छ बन, वयं छोड़ संकोच-सँभार॥
मानो अित आतुर िमलनेको, मानो हो अ य त अधीर।
तव पता भूल सभी ने से लगे बहाने नीर॥
हो ाकु ल, भर रस अगाध, आकर शुिच रस-स रताके तीर।
करने लगे परम अवगाहन, तोड़ सभी मयादा-धीर॥
बढ़ी अिमत, उमड़ी रस-स रता पावन, छायी चार ओर।
डू बे सभी भेद उसम, फर रहा कह भी ओर न छोर॥
ेमी, ेम, परम ेमा पद-नह ान कु छ, ए िवभोर।
राधा यारी ँ म, या हो के वल तुम ि य न द कशोर॥

(१५)

ीकृ णके म
े ो ार— ी राधा के ित

(राग भैरवी-तीन ताल)


राधा ! तुम-सी तु ह एक हो, नह कह भी उपमा और।
लहराता अ य त सुधा-रस-सागर, िजसका ओर न छोर॥
म िनत रहता डू बा उसम, नह कभी ऊपर आता।
कभी तु हारी ही इ छासे ँ लहर म लहराता॥
पर वे लहर भी गाती ह एक तु हारा र य मह व।
उनका सब सौ दय और माधुय तु हारा ही है व व॥
तो भी उनके बा पम ही बस, म ँ लहराता।
के वल तु ह सुखी करनेको सहज कभी ऊपर आता॥
एकछ वािमिन तुम मेरी अनुकपा अित बरसाती।
रखकर सदा मुझे संिनिधम जीवनके ण सरसाती॥
अिमत ने से गुण-दशन कर, सदा सराहा ही करती।
सदा बढ़ाती सुख अनुपम, उ लास अिमत उरम भरती॥
सदा सदा म सदा तु हारा, नह कदा कोई भी अ य।
कह जरा भी कर पाता अिधकार दासपर सदा अन य॥
जैसे मुझे नचाओगी तुम, वैसे िन य क ँ गा नृ य।
यही धम है, सहज कृ ित यह, यही एक वाभािवक कृ य॥
(१६)
ीराधाके म
े ो ार— ीकृ णके ित
(राग भैरवी तज-तीन ताल)
तुम हो य ी, म य , काठक पुतली म, तुम सू धार।
तुम करवाओ, कहलाओ, मुझे नचाओ िनज इ छानुसार॥
म क ँ , क ,ँ नाचूँ िनत ही परत , न कोई अहंकार।
मन मौन नह , मन ही न पृथक् , म अकल िखलौना, तुम िखलार॥
या क ँ , नह या क ँ -क ँ इसका म कै से कु छ िवचार ?
तुम करो सदा व छ द, सुखी जो करे तु ह सो ि य िवहार॥
अनबोल, िन य िनि य, प दनसे रिहत, सदा म िन वकार।
तुम जब जो चाहो, करो सदा बेशत, न कोई भी करार॥
मरना-जीना मेरा कै सा, कै सा मेरा मानापमान।
ह सभी तु हारे ही, ि यतम ! ये खेल िन य सुखमय महान॥
कर दया ड़नक बना मुझे िनज करका तुमने अित िनहाल।
यह भी कै से मानूँ-जानू,ँ जानो तुम ही िनज हाल-चाल॥
इतना म जो यह बोल गयी, तुम ान रहे-है कहाँ कौन ?
तुम ही बोले भर सुर मुझम मुखरा-से म तो शू य मौन॥
~ : पुि पका :~
महाभाव रस-राज के मधुर मनोहर भाव ।

द , मधुरतम, रागमय, दै य-िवभूिषत चाव ॥

दोन दोन के िलए सहज सभी कर याग ।

सुखद पर पर बन रहे,छलक रहा अनुराग ॥

दोन दोन के सदा ेमी- े महान ।

िन य,अन त , अिच य, शुिच, अिनवा य रसखान ॥

सुख-दुःख दोन ही सुखद, ि यतम-सुखके हेतु ।

अ य सभी टू टे सहज िम या िनजसुख-सेतु ॥

राधा-माधव- ेम-रस वाचा-िच -अतीत ।

करते शाखाच -से इं िगत सोलह गीत ॥

ीराधाकृ णचरणकमले योऽ पतम् ।

— िन यलीलालीन रस-िस -संत भाईजी ीहनुमान साद पो ार


(पदर ाकर पु तक से )

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