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'Mere Ram Ka Mukt - Nibandh'
'Mere Ram Ka Mukt - Nibandh'
विद्यानििास ममश्र
रात के बारह बजे। लोग नहीीं लौटे । गदृ हणी बहुत उद्ववग्न हुईं,
झल्लायीीं; साथ में गए लमत्र पर नाराज होने के ललए सींकल्प बोलने
लगीीं। इतने में ज़ोर की बाररश आ गई। छत से बबथतर समेटकर
कमरे में आया। गदृ हणी को समझाया, बाररश थमेगी, आ जाएाँगे,
सींगीत में मन लग जाता है , तो उठने की तबीयत नहीीं होती, तुम
सोओ, ऐसे बच्चे नहीीं हैं। पत्नी फकसी तरह शाींत होकर सो गईं,
पर मैं अकुला उठा। बाररश तनकल गई, ये लोग नहीीं आए। बरामदे
में कुसी लगाकर राह जोहने लगा। दरू कोई भी आहट होती तो,
उदग्र होकर िाटक की ओर दे खने लगता। रह-रहकर बबजली चमक
जाती थी और सड़क ददप जाती थी। पर सामने की सड़क पर कोई
ररतशा नहीीं, कोई चचरई का पूत नहीीं। एकाएक कई ददनों से मन
में उमड़ती-घम
ु ड़ती पाँजततया गाँज
ू गईं :
लतछमन के पटुकवा
मोरी सीता के भीजै सेनुरवा
त राम घर लौटदहीं।“
(मेरे राम का मुकुट भीग रहा होगा, मेरे लखन का पटुका (दप
ु ट्टा)
भीग रहा होगा, मेरी सीता की मााँग का लसींदरू भीग रहा होगा, मेरे
राम घर लौट आते।)
राम का मक
ु ु ट इतना भारी हो उठता है फक राम उस बोझ से कराह
उठते हैं और इस वेदना के चीत्कार में सीता के माथे का लसींदरू
और दमक उठता है, सीता का वचयथव और प्रखर हो उठता है ।