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'Thakuri Baba - Mahadevi Varma'
'Thakuri Baba - Mahadevi Varma'
'Thakuri Baba - Mahadevi Varma'
- महादे वी वमाा
भक्तिन को जब मैंने अपने कल्पवास संबंधी ननश्चय की
सूचना दी िब उसे ववश्वास ही न हो सका। प्रनिददन ककस िरह
पढाने आऊँगी, कैसे लौटूंगी, िाँगेवाला तया लेगा, मल्लाह तया
लेगा, मल्लाह ककिना मांगेगा, आदद-आदद प्रश्नों की झडी लगाकर,
उसने मेरी अदरू दर्शििा प्रमाणिि करने का प्रयत्न ककया।
मझ
ु े इस कल्पवास का मोह है , तयोंकक इस थोडे समय में
जीवन का क्जिना ववस्िि
ृ ज्ञान मुझे प्राप्ि हो जािा है , उिना
अन्य उपाय से संभव नहीं। और जीवन के संबंध में ननरं िर
क्जज्ञासा मेरे स्वभाव का अंग बन गई है ।
उठकर दे खा – एक वद्
ृ ध के नेित्ृ व में बालक, प्रौढ, स्त्री,
परु
ु र् आदद की सक्म्मधिि भीड थी। गठरी-मोटरी, बरिन, हुतका-
धचलम, चटाई, वपटारा, लोटा-डोर सब गह
ृ स्थी लादे - फांदे यह
अननयंबत्रि अभ्यागि मेरे बरामदे में कैसे आ घुसे, यह समझना
कदठन था।
मझ
ु े दे खकर जब भक्तिन की उग्रमद्र
ु ा में अपराधी की रे खाएँ
उभरने लगीं और उसका कडकडािा स्वर एक हल्की कम्पन में खो
गया, िब संभविः अभ्यागिों को समझिे दे र नहीं लगी कक मैं
ही उस फूस र्सरकी के प्रासाद की एकित्र स्वार्मनी हूँ।
यथ
ू प वद्
ृ ध ने दो पग आगे बढकर परम शांि, पर स्नेहर्सति
स्वर में कहा- ‘बबदटया रानी, का हम परदे र्सन का ठहरै न दै ही?
बडी दरू से पांय वपयादे चले आइि है । ई िो रै न- बसेरा है – ‘भोर
भयो उदठ जाना रे ’ का झूठ कदहि है ? हम िो बूढ-बाढ मनई हैं।
ऊपर समुन्दरकूप के महराज ठहरै बरे कहि रहे , उहां चढे -उिरै
की सांसि रहीं। नीचे कौननउ टपरी मां निल धरै का दठकाना
नादहन बा। अब ददया-बािी की बबररया कहाँ जाई कसि करी!’
वद्
ृ ध के कण्ठस्वर और उसके कथन की आत्मीयिा ने मुझे
बलाि ् आकवर्िि कर र्लया। भक्तिन की दृक्ष्ट में अस्वीकार के
अक्षर पढकर भी मैंने उसे अनदे खा करिे हुए कहा ‘आप यहीं ठहरें
बाबा! मेरे र्लए िो यह कोठरी ही काफी है । न होगा िो भक्तिन
खाना बाहर बना र्लया करे गी। इिना बडा बरामदा है आप सब
आ जाएंगे। रै न बसेरा िो है ही।‘
उस राि िो मझ
ु े नये संसार की व्यवस्था दे खने का अवसर
न प्राप्ि हो सका। दस
ू रे ददन संक्ांनि की िुट्टी थी। मुझमें इिनी
आधुननकिा नहीं कक स्नान न करं और इिनी पुरािनिा भी नहीं
कक भीड के धतकम धतके में स्नान का पण्
ु य लट
ू ने जाऊँ। सो मैं
मुँह-अंधेरे ही भक्तिन को जगाकर कोहरे के भारी आवरि के नीचे
करवट बदल-बदलकर अपने अक्स्ित्व का पिा दे ने वाली गंगा की
ओर चली।
जब लौटी, िब कोहरे पर सन
ु हली ककरिें ऐसे लग रही थीं,
जैसे सफेद आबेरवां की चादर पर सोने के िारों की हल्की जाली
टांक दी गई हो।
वद्
ृ ध महोदय ने सेनानी के उपयत
ु ि आडम्बर के साथ मेरे
पढने के बरामदे में अधधकार जमा र्लया था। फटी और अननक्श्चि
रं गवाली दरी और मटमैली दस
ु ि
ू ी का बबिौना र्लपटा हुआ धरा
था। उनके पास ही रखी हुई एक मैले फटे कपडे की गठरी उसका
एकाकीपन दरू कर रही थी। लाल धचलम का मक
ु ु ट पहने, नाररयल
का काला हुतका बाँस के खम्भे से दटका हुआ था। िूल की गोटवाला
काला सुरिी का बटुआ दीवार से लटक रहा था। खम्भे और दीवार
से बँधी डोरी की अलगनी पर एक धोिी और रुईभरी काली र्मरजई
स्वामी के गौरव की घोर्िा कर रही थी। ननरं िर िैल -स्नान से
क्स्नग्ध लाठी का गांठ-गँठीलापन भी ककिना जान पडिा था।
पैिाने की ओर यत्न से रखी हुई काठ और ननवाड से बनी खटपटी
कह रही थी कक जि
ू े के अिूिेपन और खडाऊँ की ग्रामीििा के
बीच से मध्यमागि ननकालने के र्लए ही स्वामी ने उसे स्वीकार
ककया है।
बरामदे की दस
ू री ओर का जमघट कुि ववधचत्र-सा था। एक
सरू दास समाधधस्थ जैसे बैठे थे। उनके मख
ु के चेचक के दाग,
दृक्ष्ट के जाने के मागि की ओर संकेि करिे जान पडिे थे। श्याम
और दब
ु ल
ि शरीर में कण्ठ की उभरी नसों का िनाव बिािा था कक
वे अपनी ववकलांगिा का बदला कण्ठ से चुका लेना चाहिे हैं।
र्सरकी की टट्टी बाँधिे समय बाँस का एक कोना कुि बढकर
खंट
ू ी जैसा बन गया था, इसी से एक धचकारा और एक जोड
मंजीरा लटक रहा था। सामान में चादर, टाट और ऐसी लुदटया
भर थी, क्जसके ककनारे नघसिे-नघसिे टे ढे-मेढे और पैने हो गए थे।
टाट की सीमा से बाहर वीरासन से ववराजमान और निलक-
िाप से पांडडत्य की घोर्िा करिे हुए एक प्रौढ एक रं गीन वपटारी
खोले हुए थे। रप-रं ग में यह वपटारी शालग्राम या शंकर का
बन्दीगह
ृ जान पडिी थी और संभविः दे विा का भार हल्का करने
के र्लए ही वे उन पर लदे चंदन नघसने के पत्थर और चंदन की
अधनघसी मुदठया बाहर ननकाल रहे थे। रामनामी चादर के एक
टुकडे पर जो पोथी- पत्रा धरा था, उसमें सबसे ऊपर हनुमानचालीसा
का शोर्भि होना प्रकट कर रहा था कक उनके दे वत्व को ननत्य
भि
ू -प्रेिों की आसरु ी माया से लोहा लेना पड जािा है ।
टाटा का एक खंट
ू दबाकर ठं डी बालू में बैठने का कष्ट भल
ू ने
का प्रयत्न करने हुए दो ककशोर बालक, अनेक िे दों से ववधचत्र एक
काली कमली में र्सकुडे बैठे थे। उसमें एक की दृक्ष्ट िप्पर से
लटकिी हुई संभविः सत्तू-गुड जैसे र्मष्ठान्नों की गठरी को
दहप्नोटाइज कर रही थी और दस
ू रा चककि के समान पंडडि के
कक्या-कलाप का ित्व समझने में लगा हुआ था।
उस पर एक क्ोधपि
ू ि दृक्ष्ट डालकर मैं अभ्यागिों से
सम्भार्ि का बहाना सोच ही रही थी कक घूंघट वाली के सहज
स्वर ने मुझे चौंका ददया – ‘पां लागी ददददया! आपका िो हम पचै
बडा कष्ट दददहन है।‘ पांलागन के उत्तर में तया कहा जाय, यह
मेरी नागररक प्रगल्भिा भी न बिा सकी, इसी से मैंने ‘नहीं, कष्ट
काहे का जगह की कमी से आप ही लोगों को िकलीफ हुई’ कहकर
र्शष्टाचार की परं परा का जैसे पालन ककया।
गड
ु में बंधे काले निल के लड्डू बहुि मीठे होने के कारि मैं
नहीं खािी, इसी से भक्तिन मेरे ननकट ‘मोदकं समपियार्म’ का
अनुष्ठान पूरा करने के र्लए सफेद निल धो-कूटकर और थोडी
चीनी र्मलाकर लड्डू बना लेिी है । इस बार कल्पवास की गडबडी
में भक्तिन घर के दे विा से अधधक महत्व बाहर के दे विाओं को
दे बैठी। मेले में दे विाओं का िीन से िैंिीस कोदट हो जाना
स्वाभाववक हो गया, अिः भक्तिन के र्लए भी कुि नहीं बच
सका। घर की यह क्स्थनि भाँपकर ही मझ
ु े कौिुक सूझा और मैंने
बहुि गंभीर मुद्रा के साथ कहा – ‘मेरे र्लए लड्डू लाओ।‘
दस
ू री नवोढा पत्नी भी जब परलोकवार्सनी हुई, िब उसका
पुत्र अबोध बालक था, पर वपिा ने वप्रय पत्नी के प्रनि ववशेर्
स्नेह-प्रदशिन के र्लए उसे साक्षाि ् कौदटल्य बनाने का संकल्प
ककया। इस शभ
ु संकल्प की पनू िि के र्लए जैसा भगीरथ प्रयत्न
ककया गया, उसे दे खिे हुए असफलिा को दै वी ही कहा जाएगा।
एक वद्
ृ धा ठकुराइन हैं। पनि के जीवनकाल में वे पररवार में
रानी की क्स्थनि रखिी थीं, परं िु ववधवा होिे ही क्जठौिों ने
ननःसंिान काकी से मि दे ने का अधधकर भी िीन र्लया। गाँव के
नािे वे ठकुरी की बुआ होिी थीं, इससे पुण्य कमाने के अवसर
पर वे उन्हें साथ लाना नहीं भूलिे।
दस
ू री एक सहुआइन है , क्जनके पनि गाँव की िेली- बार्लका
को लेकर कलकत्ते में कििव्यपालन कर रहे हैं। वववादहिा जीवन के
डबल सटीकफकेट के समान दो-दो बबिुए पहनकर और नाक िक
णखंचे घंघ
ू ट में वधव
ू ंश की मयािदा को सरु क्षक्षि रखकर वे परचन
ू
की दक
ु ान द्वारा जीवन-यापन करिी हैं।
पंडडिजी ने पज
ू ा के र्लए एक िोटे गमले में र्मट्टी भर कर
िुलसी रोप दी थी। उसी को बीच में स्थावपि करके बालू का एक
िोटा-सा चबूिरा बनाया गया।
कािी काका इन दोनों से कुि दरू फटी चादर में र्सकुडे हुए
थे। झुकी हुई पीठ के कारि जान पडिा था, मानो बालू के किों
में कुि पढ रहे हैं। दस-पाँच और ऐसे ही कल्पवासी आ गए थे।
धूप लाना, आरिी के र्लए फूल- बत्ती बनाना, घी ननकालना आदद
काम बेला के क्जम्मे थे, अिः वह कफरकनी के समान इधर-उधर
नाच रही थी।
साला दस
ु ाला मनदहं नदहं भावै रामा,
इधर दो वर्ि से ठकुरी बाबा माघ मेले में नहीं आ रहे हैं।
कभी-कभी इच्िा होिी है कक सैदपुर जाकर खोज करं, तयोंकक
वहाँ से 33 मील पर उनका गाँव है । उनके कुि पद मैंने र्लख
रखे हैं, क्जन्हें मैं अन्य ग्रामगीिों के साथ प्रकार्शि करने की
इच्िा रखिी हूँ। यदद ठकुरी बाबा से भें ट हो िो यह संग्रह और
भी अच्िा हो सकेगा।