'Thakuri Baba - Mahadevi Varma'

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ठाकुरी बाबा

- महादे वी वमाा
भक्तिन को जब मैंने अपने कल्पवास संबंधी ननश्चय की
सूचना दी िब उसे ववश्वास ही न हो सका। प्रनिददन ककस िरह
पढाने आऊँगी, कैसे लौटूंगी, िाँगेवाला तया लेगा, मल्लाह तया
लेगा, मल्लाह ककिना मांगेगा, आदद-आदद प्रश्नों की झडी लगाकर,
उसने मेरी अदरू दर्शििा प्रमाणिि करने का प्रयत्न ककया।

मेरे संकल्प के ववरुद्ध बोलना उसे और अधधक दृढ कर दे ना


है , इसे भक्तिन जान चुकी है , पर जीभ पर उसका वश नहीं। इसी
से अपने प्रश्नों की अजस्र वर्ाि में भी मझ
ु े अववचर्लि दे खकर वह
मँह
ु बबचकाकर कह उठी – ‘कल्पवास की उमरर आई िब उहौ हुई
जाई। का एकै ददन सब नेम-धरम समापि करे की परनिगया है ?’

यह सब, मैं ननयम-धमि के र्लए नहीं करिी, यह भक्तिन


को समझाना कदठन है , इसी से मैं उसे समझाने का ननष्फल
प्रयत्न करने की अपेक्षा मौन रहकर उसकी भ्ांनि को स्वीकृनि दे
दे िी हूँ। मौन मेरी पराजय का धचह्न नहीं, प्रत्युि ् वह जय की
सूचना है , यह भक्तिन से निपा नहीं, संभविः इसी कारि वह
मेरे प्रनिवाद से इिना नहीं घबरािी क्जिना मौन से आिंककि
होिी है, तयोंकक प्रनिवाद के उपरांि िो मि-पररवििन सहज है ,
पर मौन में इसकी कोई संभावना शेर् नहीं रहिी।
अंि में भक्तिन-जैसे मंत्री की सलाह और सम्मनि के ववरुद्ध
ही, र्सरकी; बांस आदद के गट्ठर समद्र
ु कूप की सीदढयों के ननकट
एकत्र हो गए और मल्लाह र्मलकर ववश्वकमाि का काम करने लगे।
बीच में दस फीट लम्बी और उिनी ही चौडी साफ-सुथरी कोठरी
बनी और उसके चारों ओर आठ फीट चौडा बरामदा बनाया गया।
उत्तर वाला बरामदा मेरे पढने-र्लखने के र्लए ननश्चय हुआ और
दक्षक्षि में भक्तिन ने अपने चौके का साम्राज्य फैलाया। पक्श्चम
वाले बरामदे में उसने सत्तू, गुड आदद रखने के र्लए सींका टांगा
और धोिी, कथरी आदद टांगने के र्लए अलगनी बांधी।

कोठरी का द्वार क्जसमें खुलिा था, वह अभ्यागिों के र्लए


बैठकखाना बना ददया गया। इस प्रकार सब बन चक
ु ने पर भक्ति
का टाट और मेरी शीिल पाटी, उसकी धुंधली लालटे न और मेरा
पीिल के दीवट में णझलर्मलाने वाला ददया, उसकी रांगे -जैसी
बाल्टी और मेरी लपट-जैसी चमकिी हुई िांबे की कलशी, उसकी
हल्दी, धननया, आटा, दाल आदद की भौनिकिा से भरी मटककयाँ
और मेरे न जाने कब के परु ािन िथा सक्ष्
ू म ज्ञान से आपि
ू ि
संस्कृि-ग्रंथ आदद से वह पििकुटी एक-दम बस गई।

िब भक्तिन का और मेरा कल्पवास आरं भ हुआ। हमारे


आसपास और जाने ककिनी पििकुदटयाँ थीं, पर वे काम- चलाऊ
भर कही जाएंगी।
ककसी समय इस कल्पवास का ककिना महत्व रहा होगा,
इसका अनम
ु ान लगाने के र्लए इसका आज का समारोह भी पयािप्ि
है । संभविः उस समय दे श के ववर्भन्न खण्डों में रहने वाले
व्यक्तियों के र्मलन, उनके पारस्पररक पररचय, ववचारों के आदान-
प्रदान िथा सांस्कृनिक समन्वय का यह महत्वपूिि साधन रहा
होगा। ये नददयाँ इस दे श की रतिवादहनी र्शराओं के समान
जीवनदायक रही हैं, इसी से इनके िट पर इस प्रकार के सम्मेलनों
की क्स्थनि स्वाभाववक और अननवायि हो गई हो, िो आश्चयि नहीं।
आज इस संबंध में तया और तयों िो हम भूल चुके हैं, पर बबना
जाने लीक पीटना धमि बन गया है ।

मझ
ु े इस कल्पवास का मोह है , तयोंकक इस थोडे समय में
जीवन का क्जिना ववस्िि
ृ ज्ञान मुझे प्राप्ि हो जािा है , उिना
अन्य उपाय से संभव नहीं। और जीवन के संबंध में ननरं िर
क्जज्ञासा मेरे स्वभाव का अंग बन गई है ।

गर्मियों में जहाँ-िहाँ फेंकी हुई आम की गठ


ु ली जब वर्ाि में
जम जािी है , िब उसके पास मझ
ु से अधधक सिकि माली दस
ू रा
नहीं रहिा। घर के ककसी कोने में धचडडया जब घोंसला बना लेिी
है , िब उसे मुझसे अधधक सजग प्रहरी दस
ू रा नहीं र्मल सकिा।
मेरे चारों ओर न जाने ककिने जंगली पेड-पौधे, पक्षी आदद मेरे
सामान्य जीवन-प्रेम के कारि ही पनपिे जीिे रहिे हैं। क्जसका
दध
ू लग जाने से आँख फूट जािी है , वह थूहर भी मेरे सयत्न
लगाये आम के पाश्वि में गवि से र्सर उठाये खडा रहिा है । धंसकर
न ननकलने वाले कांटों से जडा हुआ भट-कटै या, सुनहले रे शम के
लच्िों में ढके और उजले कोमल मोनियों से जडे मतका के भट्
ु टे
के ननकट साधधकार आसन जमा लेिा है ।

न जाने ककिनी बार सदी में दठठुरिे हुए वपल्लों की


दटमदटमािी आँखों के अनुनय ने मुझे उन्हें घर उठा ले आने पर
बाध्य ककया है । पानी से ननकले हुए जाल में मिर्लयों की िडप,
पक्षक्षयों के व्यापारी के संकीिि वपंजडे में पंखों की फडफडाहट, लोहे
की काल कटघरे जैसी गाडी में बंदी और हांफिे हुए कुत्तों की
करुिा वववशिा ने मुझे जाने ककिने ववधचत्र कामों के र्लए प्रेरिा
दी है।

ऐसा सनकी व्यक्ति मनष्ु य-जीवन के प्रनि ननमोही हो, िो


आश्चयि की बाि होगी, पर उसकी, सख
ु -दःु ख, जीवन-मत्ृ यु आदद
के संबंध में बहुि कुि जानने की इच्िा का सीमािीि हो जाना
स्वाभाववक है।

मेरी इस स्वाभाववकिा का अस्वाभाववक भार भक्तिन ही को


उठाना पडिा है । घोंसले से धगरे कूडे-ककिट को फेंकने के उपरांि
पववत्र होकर वह सूयि को अर्घयि दे ने खडी हुई कक वपल्ले ने आंगन
गंदा कर ददया। उसे भी धोने के उपरांि कफर स्नान करके वह
र्शवजी पर जल चढाने चली कक र्भखारी को सत्तू-गुड दे ने का
आदे श हुआ। वह इस कििव्य को भी पूरा करने के उपरांि नाक
बंद कर जप करने बैठी कक मैं ककसी बीमार को दे खने जाने के
र्लए प्रस्िुि हो, उसे पुकारने लगी। जीवन की ऐसी अव्यवस्था में
भी वह उलाहना दे ना नहीं जानिी। हाँ, कभी-कभी ओंठ र्सकोडकर
गंभीरिा का अर्भनय करिी हुई वह कह बैठिी है – ‘का ई ववद्या
का कौननउ इमथान नादहन बा? होि िौ हमहूँ बढौिी में एक ठौ
साटीकफकट पाय जाइि, अउर का!’

अपनी कििव्यपराििा के र्लए सटीकफकेट न पा सकने पर


भी भक्तिन उसका महत्त्व जानिी है । इसी कारि साधारि-सी
बीमारी में भी धचंनिि हो उठिी है – ‘हम मर जाब िौ इनकर का
होई, कउन बनाई-णखयाई। कउन इनकर ई अजायबघर दे खी-सुनी’।
भक्तिन को मत्ृ यु की धचंिा करिे-करिे मेरे अजायबघर की
व्यवस्था के र्लए, उद्ववग्न दे खकर ककसे हं सी नहीं आवेगी?

धमि में अखण्ड ववश्वास होने के कारि भक्तिन के ननकट


कल्पवास बहुि महत्वपूिि है । पर वह जानिी है कक मेरी ‘भानमिी
का कुनबा’ जोडने की प्रववृ त्त उसे मोह-माया के बंधन िोडने का
अवकाश न दे गी। गाँव के मेले से लेकर कल्पवास िक सब मेरे
र्लए पाठशाला है, पर इनमें मैं मोह बढाना ही सीखिी हूँ, ववराग-
साधन नहीं।

संक्ांनि के एक ददन पहले सन्ध्या समय जब मैं योगदशिन


खोलकर बैठी, िब बबरल बदर्लयाँ बबजली के िार में गुंथ- गुंथकर
सघन होने लगीं। भक्तिन ने चल्
ू हा सल
ु गाया ही था कक ग्रामीिा
याबत्रयों का एक दल उस ओर के बरामदे के भीिर आ घुसा। मेरे
र्लए परम अनुगि भक्तिन संसार के र्लए कठोर प्रनिद्वंद्वी है ।
वह भला इस आकक्स्मक चढाई को तयों क्षमा करने लगी?

आंधी के वेग के साथ जब वह चौके से ननकलकर ऐसे


अवसरों के र्लए सुरक्षक्षि शब्द-बािों का लाघव ददखाने लगी, िब
िो मेरा शीिलपाटी का र्संहासन भी डोल गया।

उठकर दे खा – एक वद्
ृ ध के नेित्ृ व में बालक, प्रौढ, स्त्री,
परु
ु र् आदद की सक्म्मधिि भीड थी। गठरी-मोटरी, बरिन, हुतका-
धचलम, चटाई, वपटारा, लोटा-डोर सब गह
ृ स्थी लादे - फांदे यह
अननयंबत्रि अभ्यागि मेरे बरामदे में कैसे आ घुसे, यह समझना
कदठन था।

मझ
ु े दे खकर जब भक्तिन की उग्रमद्र
ु ा में अपराधी की रे खाएँ
उभरने लगीं और उसका कडकडािा स्वर एक हल्की कम्पन में खो
गया, िब संभविः अभ्यागिों को समझिे दे र नहीं लगी कक मैं
ही उस फूस र्सरकी के प्रासाद की एकित्र स्वार्मनी हूँ।

यथ
ू प वद्
ृ ध ने दो पग आगे बढकर परम शांि, पर स्नेहर्सति
स्वर में कहा- ‘बबदटया रानी, का हम परदे र्सन का ठहरै न दै ही?
बडी दरू से पांय वपयादे चले आइि है । ई िो रै न- बसेरा है – ‘भोर
भयो उदठ जाना रे ’ का झूठ कदहि है ? हम िो बूढ-बाढ मनई हैं।
ऊपर समुन्दरकूप के महराज ठहरै बरे कहि रहे , उहां चढे -उिरै
की सांसि रहीं। नीचे कौननउ टपरी मां निल धरै का दठकाना
नादहन बा। अब ददया-बािी की बबररया कहाँ जाई कसि करी!’
वद्
ृ ध के कण्ठस्वर और उसके कथन की आत्मीयिा ने मुझे
बलाि ् आकवर्िि कर र्लया। भक्तिन की दृक्ष्ट में अस्वीकार के
अक्षर पढकर भी मैंने उसे अनदे खा करिे हुए कहा ‘आप यहीं ठहरें
बाबा! मेरे र्लए िो यह कोठरी ही काफी है । न होगा िो भक्तिन
खाना बाहर बना र्लया करे गी। इिना बडा बरामदा है आप सब
आ जाएंगे। रै न बसेरा िो है ही।‘

कफर जब मैं अपनी पुस्िकें और शीिलपाटी लेकर भीिर आ


गई िथा ददया जलाकर पढने बैठी, िब वे अपने-अपने रहने की
व्यवस्था करने लगे।

भक्तिन मेरे आराम की धचंिा के कारि ही दस


ू रों से झगडिी
है , पर जब उसे ववश्वास हो जािा है कक अमुक व्यक्ति या कायि
से मुझे कष्ट पहुंचना संभव नहीं, िब उसकी सारी प्रनिकूलिा न
जाने कहाँ गायब हो जािी है। भीड से मेरी शांनि भंग हो सकिी
है , इस संभावना ने उसे जो कठोरिा दी थी, वह उस संभावना के
साथ ही ववलीन हो गई। वह सत्तू रखने के सींके के नीचे ईंट-
पत्थर का चूल्हा बनाकर कम-से-कम स्थान घेरने की चेष्टा करने
लगी, क्जससे उन आक्मिकाररयों को सुख से बस जाने का
अवकाश र्मल सके।

उस राि िो मझ
ु े नये संसार की व्यवस्था दे खने का अवसर
न प्राप्ि हो सका। दस
ू रे ददन संक्ांनि की िुट्टी थी। मुझमें इिनी
आधुननकिा नहीं कक स्नान न करं और इिनी पुरािनिा भी नहीं
कक भीड के धतकम धतके में स्नान का पण्
ु य लट
ू ने जाऊँ। सो मैं
मुँह-अंधेरे ही भक्तिन को जगाकर कोहरे के भारी आवरि के नीचे
करवट बदल-बदलकर अपने अक्स्ित्व का पिा दे ने वाली गंगा की
ओर चली।

जब लौटी, िब कोहरे पर सन
ु हली ककरिें ऐसे लग रही थीं,
जैसे सफेद आबेरवां की चादर पर सोने के िारों की हल्की जाली
टांक दी गई हो।

समुद्रकूप की सीदढयों के दक्षक्षि ओर बनी हुई मेरी बडी, पर


कोलाहलशून्य पििकुटी आज पहचानी ही नहीं जािी थी। उसके
नीचे बसी हुई, अक्स्थर सक्ृ ष्ट को दे खकर जान पडिा था कक ककसी
प्रशांि साधक के ककसी असावधान श्वास के साथ इच्िाओं की
चंचल भीड उसके ननरीह हृदय के भीिर घुस पडी हो। ननकट
पहुंचकर मैंने अपनी कुटी की शांनि भंग करने वालों का अच्िा
ननरीक्षि ककया।

वद्
ृ ध महोदय ने सेनानी के उपयत
ु ि आडम्बर के साथ मेरे
पढने के बरामदे में अधधकार जमा र्लया था। फटी और अननक्श्चि
रं गवाली दरी और मटमैली दस
ु ि
ू ी का बबिौना र्लपटा हुआ धरा
था। उनके पास ही रखी हुई एक मैले फटे कपडे की गठरी उसका
एकाकीपन दरू कर रही थी। लाल धचलम का मक
ु ु ट पहने, नाररयल
का काला हुतका बाँस के खम्भे से दटका हुआ था। िूल की गोटवाला
काला सुरिी का बटुआ दीवार से लटक रहा था। खम्भे और दीवार
से बँधी डोरी की अलगनी पर एक धोिी और रुईभरी काली र्मरजई
स्वामी के गौरव की घोर्िा कर रही थी। ननरं िर िैल -स्नान से
क्स्नग्ध लाठी का गांठ-गँठीलापन भी ककिना जान पडिा था।
पैिाने की ओर यत्न से रखी हुई काठ और ननवाड से बनी खटपटी
कह रही थी कक जि
ू े के अिूिेपन और खडाऊँ की ग्रामीििा के
बीच से मध्यमागि ननकालने के र्लए ही स्वामी ने उसे स्वीकार
ककया है।

सारांश यह कक मेरे पुस्िकों के समारोह को लक्ज्जि करने


के र्लए ही मानो बूढे बाबा ने इिना आडम्बर फैला रखा था। वे
संभविः दािौन के र्लए नीम की खोज में गए हुए थे, इसी से
मैंने भेददये के समान िीव्र दृक्ष्ट से उनकी शक्ति के साधनों की
नाप-जोख कर ली।

बरामदे की दस
ू री ओर का जमघट कुि ववधचत्र-सा था। एक
सरू दास समाधधस्थ जैसे बैठे थे। उनके मख
ु के चेचक के दाग,
दृक्ष्ट के जाने के मागि की ओर संकेि करिे जान पडिे थे। श्याम
और दब
ु ल
ि शरीर में कण्ठ की उभरी नसों का िनाव बिािा था कक
वे अपनी ववकलांगिा का बदला कण्ठ से चुका लेना चाहिे हैं।
र्सरकी की टट्टी बाँधिे समय बाँस का एक कोना कुि बढकर
खंट
ू ी जैसा बन गया था, इसी से एक धचकारा और एक जोड
मंजीरा लटक रहा था। सामान में चादर, टाट और ऐसी लुदटया
भर थी, क्जसके ककनारे नघसिे-नघसिे टे ढे-मेढे और पैने हो गए थे।
टाट की सीमा से बाहर वीरासन से ववराजमान और निलक-
िाप से पांडडत्य की घोर्िा करिे हुए एक प्रौढ एक रं गीन वपटारी
खोले हुए थे। रप-रं ग में यह वपटारी शालग्राम या शंकर का
बन्दीगह
ृ जान पडिी थी और संभविः दे विा का भार हल्का करने
के र्लए ही वे उन पर लदे चंदन नघसने के पत्थर और चंदन की
अधनघसी मुदठया बाहर ननकाल रहे थे। रामनामी चादर के एक
टुकडे पर जो पोथी- पत्रा धरा था, उसमें सबसे ऊपर हनुमानचालीसा
का शोर्भि होना प्रकट कर रहा था कक उनके दे वत्व को ननत्य
भि
ू -प्रेिों की आसरु ी माया से लोहा लेना पड जािा है ।

टाटा का एक खंट
ू दबाकर ठं डी बालू में बैठने का कष्ट भल
ू ने
का प्रयत्न करने हुए दो ककशोर बालक, अनेक िे दों से ववधचत्र एक
काली कमली में र्सकुडे बैठे थे। उसमें एक की दृक्ष्ट िप्पर से
लटकिी हुई संभविः सत्तू-गुड जैसे र्मष्ठान्नों की गठरी को
दहप्नोटाइज कर रही थी और दस
ू रा चककि के समान पंडडि के
कक्या-कलाप का ित्व समझने में लगा हुआ था।

एक और अधेड बाहर बैठकर धूप ले रहा था। एक पुरानी


और झीनी चादर ने उसके दब
ु ले शरीर के ढाँचे को निपा रखा था,
पर नोकदार कंधों का आभास और उभरी नसों वाले सख
ू े हाथ
सच्ची कथा कह दे िे थे। कीचड से भरी हुई बेवाइयों से यत
ु ि पैर
कंकालशेर् शरीर से पुष्ट जान पडिे थे। मुख पर झुररि यों के अक्षरों
में भाग्य ने अनाडी बालक के समान इिना र्लखा था कक अब
उसका िात्पयि कदठन था।

क्स्त्रयों के डडपाटि मेंट की आधथिक क्स्थनि भी इससे कुि


अधधक अच्िी नहीं जान पडी। बडी सी गठरी के सहारे दो वद्
ृ धाएँ
सर्ु मरनी र्लए ठं डी ज़मीन पर बैठी थीं, क्जनमें एक ऊँघ रही थी
और दस
ू री अपने आसपास बसी सक्ृ ष्ट के प्रनि आवश्यक चौकन्नी
लगिी थी। ऊँघने वाली के पैरों में कसे हुए गोल धचकने कडे और
हाथ में चांदी की एक-एक चपटी चूडी उसके मुक्ण्डि मुण्ड के
भीिर निपकर बची हुई िंग
ृ ारवप्रयिा का पिा दे िे थे। दस
ू री के
गले में बंधे काले डोरे में वपरोये हुए रुद्राक्ष के दो बडे-बडे मनके
स्त्री की आभूर्ि परं परा का पालन मात्र जान पडिे थे।

एक की आँखें माडे से धुंधली, नाक ठुड्डी पर झुकी हुई और


मुख के भाव में एक करुि उदासीनिा थी। पर कानों को धोिी से
बाहर ननकाले और ओंठों को खोलिी बंद करिी हुई दस
ू री, अपनी
िोटी काली आंखों को घुमाकर िथा िोटी नाक के गोल नथनों
को फुलाकर मानो चारों ओर बबखरे हुए रप-रस-गंध-शब्द की खोज
खबर ले रही थी। ननकट ही रखा एक बडा काशीफल और उससे
दटका हुआ हं र्सया दोनों ववरागी हृदयों का भोजन के प्रनि राग
प्रकट कर रहा था और ऊपर िप्पर से बंधी रस्सी की फांसी में
झूलिी हुई काली घी की हं डडया अपने चमकदार धचकनेपन से उन
दोनों के बाह्य रखेपन का ववरोध कर रही थी।
सफेद बुटेदार काली पुरानी धोिी पहने हुए जो अधेड स्त्री,
कोने में लोटे से खोली हुई डोर की अरगनी बांधने में व्यस्ि थी,
उसे मैं नहीं दे ख सकी, पर अरगनी पर गुदडी बाजार लगाने के
र्लए जो फटे पुराने कपडे संभाले खडी थी, उसने मेरे ध्यान को
ववशेर् रप से आकवर्िि कर र्लया। लाल ककनारी की मटमैली धोिी
का नाक िक खींचा हुआ घंूघट ही उसे ववशेर्िा नहीं दे िा, हाथ
की मोटी कच्ची शबििी रं ग की चडू डयाँ और पांव के कुि ढीले-
पिले कडे िथा दो-दो बबिवे भी उसकी र्भन्न सामाक्जक क्स्थनि
का पररचय दे रहे थे। घूंघट से बाहर ननकले मुख के अंश की
बेडौल चौडाई और उसमें व्यति सौम्य-भाव में कुि ऐसी खींच-
खांच थी कक न आँख उसे संद
ु र कहिी थी न मन उसे कुरप
मानिा था।

उसके एक ओर दो सांवली ककशोररयाँ एक बडे वपटारे में न


जाने तया खोज रही थी। उनके गोल मुखों पर झूलिी हुई उलझी
रखी और मैली लटें मानो दररद्रिा की कथा के अक्षर थीं। दस
ू री
ओर फटी दरी के टुकडे पर एक काली- कलट
ू ी बार्लका फटा और
िंग कुरिा पहने सो रही थी। उसका बीच-बीच में कांप उठना सदी
और नींद के संघर्ि की िीव्रिा बिािा था। एक अन्य बालक खम्भे
से दटककर बैठा हुआ, आंखें मलकर रोने की भूर्मका बांध रहा था।
कुरिे के अभाव में उसे एक परु ाने धारीदार अंगौिे का पररधान
र्मल गया था, पर उसका, ऊपर टं गी हं डडया और नीचे रखी गठरी
को दे खकर रोना प्रकट करिा था कक भीिर की शीि की मात्रा
बाहर की शीि से अधधक हो गई है ।

पूवि के कोने में पडे हुए पुआल का गट्ठा और उस पर


र्समटी हुई मैली चादर की र्सकुडन कह रही थी कक सोनेवालों ने
ठं ड से गठरी बनकर राि काटी है । एक श्यामांधगनी युविी बाहर
बालू में गड्ढे खोद-खोदकर चल्
ू हे बनाने में लगी थी। कुि गोलाई
र्लए हुए लम्बे, रखे और उभरी हड्डडयों वाले मख
ु पर िोटी नथ
दहल-दहलकर कभी ओंठ कभी कपोल का ऊपरी भाग िू लेिी थी।
सफेद बूटीदार लाल लहं गों की काली गोट फटकर जहाँ-िहाँ से
उघड रही थी। पीली पुरानी ओढनी में से व्यति शरीर की दब
ु ल
ि िा
को जल्दी- जल्दी बालू ननकालने में लगे हुए हाथों का फुिीलापन
निपा लेिा था।

भक्तिन दो उं गर्लयाँ ओंठ पर स्थावपि कर ववस्मय के भाव


से बड-बडाई – ‘अरे मोरे बपई! सगर मेला िो दहंयदह र्सककल आवा
है । अब ई अजाबघर िांडड के दस
ू रा मेला को दे खै जाई?’

उस पर एक क्ोधपि
ू ि दृक्ष्ट डालकर मैं अभ्यागिों से
सम्भार्ि का बहाना सोच ही रही थी कक घूंघट वाली के सहज
स्वर ने मुझे चौंका ददया – ‘पां लागी ददददया! आपका िो हम पचै
बडा कष्ट दददहन है।‘ पांलागन के उत्तर में तया कहा जाय, यह
मेरी नागररक प्रगल्भिा भी न बिा सकी, इसी से मैंने ‘नहीं, कष्ट
काहे का जगह की कमी से आप ही लोगों को िकलीफ हुई’ कहकर
र्शष्टाचार की परं परा का जैसे पालन ककया।

कफर मैं अपनी कोठरी की व्यवस्था में लग गई और भक्तिन


मोटे चावल और मूंग की दाल की णखचडी र्मलाकर और काले
निल के लड्डू लेकर दान-परं परा की रक्षा करने गई। वहाँ से
लौटकर उसने णखचडी चढाई।

खाने के समय भक्तिन को ददक करना मझ


ु े अच्िा लगिा
है , तयोंकक इसके अनिररति और ककसी भी अवसर पर वह मेरी
खुशामद नहीं कर सकिी। उल्टे दस-पांच सुनाने की कमर कसे
प्रस्िुि रहिी है।

गड
ु में बंधे काले निल के लड्डू बहुि मीठे होने के कारि मैं
नहीं खािी, इसी से भक्तिन मेरे ननकट ‘मोदकं समपियार्म’ का
अनुष्ठान पूरा करने के र्लए सफेद निल धो-कूटकर और थोडी
चीनी र्मलाकर लड्डू बना लेिी है । इस बार कल्पवास की गडबडी
में भक्तिन घर के दे विा से अधधक महत्व बाहर के दे विाओं को
दे बैठी। मेले में दे विाओं का िीन से िैंिीस कोदट हो जाना
स्वाभाववक हो गया, अिः भक्तिन के र्लए भी कुि नहीं बच
सका। घर की यह क्स्थनि भाँपकर ही मझ
ु े कौिुक सूझा और मैंने
बहुि गंभीर मुद्रा के साथ कहा – ‘मेरे र्लए लड्डू लाओ।‘

ककंिु भक्तिन की उद्ववग्निा दे खने का सख


ु र्मलने के पहले
ही कल का पररधचि कण्ठ-स्वर सुन पडा- ‘बबदटया रानी, का हमहूं
आय सककि है ?’ मैं िो िूि-पाक मानिी ही नहीं और भक्तिन
अपनी बटलोई सदहि कोयले की मोटी रे खा के भीिर सरु क्षक्षि थी।

‘इधर ननकल आइए बाबा’ – सुनकर वद्


ृ ध दोनों हाथों में दो
दोने संभाले हुए सामने आ खडे हुए। र्सर का अग्रभाग खल्वाट
होने के कारि धचकना चमकीला था, पर पीिे की ओर कुि सफेद
केशों को दे खकर जान पडिा था कक भाग्य के कठोर रे खाओं से
सभीि होकर वे दरू जा िपे हैं। िोटी आंखों में ववर्ाद, धचंिन
और ममिा का ऐसा सक्म्मधिि भाव था, क्जसे एक नाम दे ना
संभव नहीं। लम्बी नाक के दोनों ओर णखंची हुई गहरी रे खाएँ दाढी
में ववलीन हो जािी थीं।

ओंठों में व्यति, भावक


ु िा को बबरल मंि
ू े निपा लेिी थीं और
मुख की असाधारि चौडाई को दाढी ने साधारििा दे डाली थी।
सघन दाढी में कुि लम्बे सफेद बालों के बीच में िोटे , काले बाल
ऐसे लगिे थे जैसे चांदी के िारों में जहाँ- िहाँ काले डोरे उलझकर
टूट गए हों। स्फूनिि के कारि शरीर की दब
ु ल
ि िा और कुि झक
ु कर
चलने के कारि लम्बाई पर ध्यान नहीं जािा था। नंगे पांव और
घुटनों िक ऊंची धोिी पहने जो मूनिि सामने थी, वह साधारि
ग्रामीि वद्
ृ ध से अधधक ववशेर्िा नहीं रखिी।

बूढे बाबा मेरे र्लए निल का लड्डू घी आम के अचार की


एक फाँक और दही लाये थे। अरुधच के कारि घी-रदहि और पथ्य
के कारि र्मचि-अचार आदद के बबना ही मैं णखचडी खािी हूँ, यह
अनेक बार कहने पर भी वद्
ृ ध ने माना नहीं और मेरी णखचडी पर
दानेदार घी और थाली में एक ओर अचार रख ददया। दही का
दोना थाली से दटकाकर अनुनय के स्वर में कहा – ‘िननक सा
धचखौ िो बबदटया रानी! का पढे र्लखे मनई यहै । खाय के क्जयि
हैं।‘

उन ददन से उन अभ्यागिों से मेरे ववशेर् पररचय का सूत्रपाि


हुआ जो धीरे -धीरे साहचयि-जननि स्नेह में पररिि होिा गया।

मुझे सवेरे नौ बजे झुंसी से उस पार जाना पडिा था और


वहाँ से िांगे में यनू नवर्सिटी अकेले आना-जाना अच्िा न लगने के
कारि मैं भक्तिन को भी इस आवागमन का आनंद उठाने के
र्लए बाध्य कर दे िी थी। जब िक मैं लौटने के र्लए स्विंत्र होिी,
िब िक भक्तिन नारद के समान या िो िांगेवाले की आत्मकथा
सुनकर उसकी भूलों पर ननििय दे िी या अन्य पररधचिों के यहाँ
घम
ू -कफरकर संसार की समस्याओं का समाधान करिी रहिी।

सवेरे आने की हडबडी में खाने-पीने की व्यवस्था ठीक होना


कदठन था और लौटने पर जलपान का प्रबंध होने में भी कुि
ववलम्ब हो ही जािा था। मेरी असुववधा को उन ग्रामीि अनिधथयों
ने कब और कैसे समझ र्लया, यह मैं नहीं जानिी, पर मेरे
पििकुटी में पैर रखिे ही जलपान के र्लए ववववध, पर सविथा
नवीन व्यंजन उपक्स्थि होने लगे।
फूल के बडे कटोरे में बाजरे का दर्लया और दध
ू , िोटी थाली
में सत्त,ू गड
ु या पए
ु , रं गीन डर्लया में मुरमरु े चने या भन
ु े शकरकंद
आदद के रप में जो जलपान र्मलिा था, उसे पंचायिी कहना
चादहए, तयोंकक सभी व्यक्ति अपने-अपने चौके में से मेरे र्लए
कुि-न-कुि बचाकर सीके रख दे िे थे। एक साथ इिना सब खाने
के र्लए मझ
ु े जीवन की ममिा िोडनी होगी, यह बार-बार समझाने
पर भी उनमें से कोई मानिा ही न था।

‘का ददददया न चणखहैं’, ‘बबदटया रानी िुइ भर दे िीं, िो


हमारा क्जयरा अस र्सराय जाि’, ‘ददददया जीभ पै िननक धर लेिी,
िोई सब अकारथ न जाि’ आदद अनुरोधों को सुनकर यह ननश्चय
करना कदठन हो जािा था कक ककसे अस्वीकृि के योग्य समझा
जावे। ननरुपाय चना-गुड से लेकर बाजरे के पुए िक सब प्रकार के
ग्रामीि व्यंजनों से मेरा शहरािी रुधच का संस्कार होने लगा।

जलपान के समारोह के उपरांि वे सब सन्ध्या-स्नान, गंगा


में दीपदान आदद के र्लए िट पर और मैं उत्सक
ु और क्जज्ञासु
दशिक के समान, उनका अनस
ु रि करिी।

कल्पवासी एक ही बार खािे और माघ के कडकडािे जाडे में


भी आग न िापने के ननयम का पालन करिे। इन ननयमों के मल

में कुि िो लकडी का महं गापन और अन्न का अभाव रहिा है
और कुि िपस्या की परम्परा।
पर मुझे सदी में अलाव जलिा हुआ दे खना अच्िा लगिा
है । लकडी-कण्डों का अभाव िो था ही नहीं। बस पििकुटी के बाहर
बडा-सा ढे र लगाकर मैं होली जलािी और अनिधथयों की गह
ृ स्थी
के साथ आई हुई एक पुरानी मधचया पर बैठकर िापिी। उनके
बच्चे, जो कल्पवास के कठोर ननयमों से मुति थे और मेरी
भक्तिन, क्जसका कल्पवास परलोक से अधधक इस लोक से संबंध
रखिा था, आग के ननकट बैठकर हाथ-पैर सेंकिे। सच्चे कल्पवासी
अपने और आग के बीच में इिना अंिर बनाए रखिे थे, क्जिने
में पापपुण्य का लेखा-जोखा रखने वाले धचत्रगुप्ि महोदय धोखा
खा सकें।

इस ववधचत्र सम्मेलन का कायिक्म भी वैसा ही अनोखा था।


कोई भजन सुनािा, कोई पौराणिक कथा कहिा। कभी ककम्वदं नियों
के नये भाष्य होिे, कभी लोकचचाि पर मौणखक टीकाएँ रची जािीं।
कबीर की रहस्यमय उलटबाँर्सयों से लेकर अच्िा बल खरीदने के
व्यावहाररक ननयम िक सब में उन ग्रामीिों की अच्िी गनि थी,
इसी से उनकी संगनि न एक-रस जान पडिी थी, न ननरथिक। इस
सम्पकि के कारि ही मैं उनकी जीवन-कथा से भी पररधचि होिी
गई।

बूढे ठकुरी बाबा भाटवंश में अविीिि होने के कारि कवव


और कवव होने के कारि मेरे सजािीय कहे जा सकिे हैं। आधनु नक
युग में भाट-चारिों के कििव्य और आवश्यकिा में बहुि अंिर पड
चुका है , इसी से न कोई उनके अक्स्ित्व को जानिा है और न
उसके कववत्व-व्यवसाय का मूल्य समझिा है । अब िो उनका
पैिक
ृ धंधा व्यक्तिगि मनोववनोद मात्र रह गया है ।

समय के प्रवाह को दे खकर ही ठकुरी बाबा के वपिा ने


िुकबंदी के र्लए र्मली हुई प्रनिभा का उपयोग साधारि ककसान
बनने में ककया और अपनी ददवंगि प्रथम पत्नी के दोनों सुयोग्य
पत्र
ु ों को भी नीनिशास्त्र में पारं गि बनाकर भावक
ु िा के प्रवेश का
मागि ही बंद कर ददया।

दस
ू री नवोढा पत्नी भी जब परलोकवार्सनी हुई, िब उसका
पुत्र अबोध बालक था, पर वपिा ने वप्रय पत्नी के प्रनि ववशेर्
स्नेह-प्रदशिन के र्लए उसे साक्षाि ् कौदटल्य बनाने का संकल्प
ककया। इस शभ
ु संकल्प की पनू िि के र्लए जैसा भगीरथ प्रयत्न
ककया गया, उसे दे खिे हुए असफलिा को दै वी ही कहा जाएगा।

संभविः पनि की नीनिमत्ता से भागकर परलोक में शरि


पाने-वाली माँ पुत्र को बचाने के र्लए उस पर भावुकिा की वर्ाि
करने लगी हो। हो सकिा है कक कौदटल्य ने दस
ू रे कौदटल्य की
संभावना से कुवपि होकर उसकी बद्
ु धध भ्ष्ट कर दी हो, पर यह
सत्य है कक हठी बालक ने अपना-पराया िक नहीं सीखा – नीनि
के अन्य अंगों की िो चचाि ही तया। हिाश वपिा ने इस कठोर
र्शक्षा का भार बडे पुत्रों पर िोडकर अपने जीवन से अवकाश
ग्रहि ककया।
सौिेले भाई बडे और गह
ृ स्थी वाले थे, इसी से घर-द्वार सब
उन्हीं के अधधकार में रहा और िोटा भाई चाकरी के बदले में
भोजन-वस्त्र पािा रहा। उसका कववत्व भाइयों के र्लए लाभप्रद ही
ठहरा, तयोंकक कोई भी कला सांसाररक और ववशेर्िः व्यावसानयक
बुद्धध को पनपने ही नहीं दे सकिी और बबना इस बुद्धध के
मनष्ु य अपने आपको हानन पहुँचा सकिा है , दस
ू रों को नहीं।

जब जाि-बबरादरी में िोटे को अवववादहि रखने पर टीका-


दटप्पिी होने लगी, िब भाइयों ने उसका एक सुशील बार्लका से
गठबंधन कर ददया और भौजाइयों ने दे वरानी को सेवाधमि की
र्शक्षा दे ना आरं भ ककया।

दम्पनि सुखी नहीं हो सके, यह कहना व्यथि है । दासों का


एक से दो होना प्रभुओं के र्लए अच्िा हो सकिा है , दासों के र्लए
नहीं। एक ओर उससे प्रभि
ु ा का ववस्िार होिा है और दस
ू री और
पराधीनिा का प्रसार। स्वामी िो साम- दाम-भेद द्वारा उन्हें परस्पर
लडाकर दासिा को और दृढ करिे रहे हैं और दास अपनी वववश
झुंझालाहट और हीन भावना के कारि एक दस
ू रे के अर्भशापों को
ववववध बनाकर उससे बाहर आने का मागि अवरुद्ध करिे रहिे
हैं।

दे वर-दे वरानी र्मलकर यदद गह


ृ स्थी बसा लेिे, िो सेवा का
प्रश्न कदठन हो जािा, इसी से भौजाइयाँ नई बहू की चुगली करके
उसे पनि के ननकट अपराधधनी के रप में उपक्स्थि करने लगीं।
पत्नी की ननदोर्िा के संबंध में पनि का मन ववश्वास और
अववश्वास के दहंडोले में झोंके खािा था, पर न उसने अपने ववश्वास
को प्रकट करके वधू को सान्त्वना दी, न अववश्वास प्रकट करके
अपने मन का समाधान ककया।

गवीली पत्नी भी अपनी ओर से कुि न कहकर अववराम


पररिम द्वारा मन का आक्ोश व्यति करने लगी। ठकुरी बेचारे
कवव ठहरे । शुष्क यथाथििा उनकी भाव-बोणझल कल्पना के घटाटोप
में प्रवेश करने के र्लए कोई रं ध्र ही न पािी थी।

कहीं बबरहा गाने का अवसर र्मल जािा, िो ककसी के भी


मचान पर बैठ कर राि-राि भर खेि की रखवाली करिे। कोई
बारहमासा वाला रर्सक िोिा र्मल जािा, िो उसके बैलों का सानी-
पानी करने में भी हेठी न समझिे। कोई आल्हा ऊदल की कथा
सुनना चाहिा, िो मीलों पैदल दौडे चले जािे। कहीं होली का
उत्सव होिा, िो अपने कबीर सन
ु ाने में भख
ू -प्यास भल
ू जािे।

अपनी इस काव्य-वाचकिा के कारि वे कोई और काम ठीक


से न कर पािे थे। नागररक र्शष्ट-समाज के समान कोई उन्हें
पचास रुपया फीस दे कर गलेबाजी के र्लए नहीं बुलािा था, इसी
से अथि की दृक्ष्ट से कवव ठकुरी दीन सुदामा ही रह गए। ककसी
ने मैली वपिौरी के बंट
ू में थोडा- सा निल-गड
ु बांधकर उदारिा
प्रकट की। ककसी न पथरौटी में सत्तू पर नमक के साथ हरी र्मचि
रखकर आनिथ्य- सत्कार ककया। ककसी ने सुलगे हुए कण्डों पर दो
भौररयां सेंकने का अनरु ोध करके काव्य-ममिज्ञिा का पररचय ददया।
इन पुरस्कारों को पाकर ठकुरी प्रसन्न न थे, यह कहना र्मथ्यावाद
होगा। उनकी काव्यजननि प्रनिभा भाइयों की उपेक्षा, भौजाइयों के
व्यंग्य और पत्नी की ममिपीडा का कारि थी, इसे भी वे नहीं
जानिे थे ।

कुि वर्ों में पत्नी ने उन्हें एक कन्या का उपहार ददया, पर


इसके उपरांि वह वविाम और पथ्य के अभाव में प्रसूनि ज्वर से
पीडडि हुई िथा उधचि धचककत्सा के अभाव में डेढ वर्ि की बार्लका
िोडकर अपने कठोर जीवन से मुक्ति पा गई। ठकुरी उसी राि
आल्हा सन
ु ाकर लौटे थे। मािा की मत्ृ यु का उन्हें स्मरि नहीं था,
वद्
ृ ध वपिा की ववदा ने उनके ममि को िे दा नहीं था, पर यौवन
के प्रथम प्रहर में स्नेह- बंधन िोड जाने वाली पत्नी ने उनके
हृदय को दहला ददया। खारे आंसुओं ने आंखों का गुलाबीपन धोकर
उन्हें जीवन- दशिन के र्लए स्वच्ि बनाया। पत्नी को खोकर ही
ठकुरी वास्िववक पनि और वपिा बन सके।

घर में बार्लका की उपेक्षा दे ख कर और उसके पररिाम की


कल्पना करके वे अलगौझे पर बाध्य हुए िथा घर की व्यवस्था
के र्लए अपनी बूढी मौसी को र्लवा लाए, पर कन्या की दे ख-रे ख
वे स्वयं करिे थे। आल्हा ऊदल की कथा के प्रेमी वपिा की बेला,
ववनोद के समय उनके कंधे पर चढी हुई घूमिी थी और काम के
समय पीठ पर बंधी हुई उनके काम की ननगरानी करिी थी। ककसी
के हं सने पर ठकुरी कह दे िे कक जब मजदरू माँ अपने बच्चों को
लेकर काम करिी है, िब वपिा के ऐसा करने में लजाने की कौन
बाि है! बेला के र्लए िो वही बाप है और वही मां।

बार्लका जब िः-साि वर्ि की हुई, िब ठकुरी ककसी काव्यप्रेमी


सजािीय के सश
ु ील, पर माि-ृ वपिह
ृ ीन भिीजे को ले आये और
बेला की सगाई करके भावी जामािा को अपना काम-काज र्सखाने
लगे। भाग्य संभविः इस दे हािी कवव से रुष्ट था, इसी से र्शक्षा
समाप्ि होिे ही भावी जामािा के चेचक ननकल आई। वह बच िो
गया, पर एक आंख के र्लए सम्पूिि सक्ृ ष्ट अन्धकारमय हो गई
और दस
ू री में इिनी ज्योनि शेर् रही कक ठोस संसार भाप का
बादल- सा ददखाई पडने लगा।

वपिा ने कन्या की इच्िा जाननी चाही, पर वह हठ में महोबे


की लडाई की उस बेला के समान ननकली, क्जसने वपिा के बाग
में लगे चंदन की धचिा पर ही सिी होने का प्रि ककया था। बेला
ने बचपन के साथी को िोडना नहीं चाहा और इस प्रकार ठकुरी
बाबा वचन-भंग के पािक से बचे गए।

अब कवव ससुर, उसकी बूढी मौसी, अन्धा दामाद और रपसी


बेटी एक ववधचत्र पररवार बनाये बैठे हैं। ससुर ने जामािा को भी
काव्य की पयािप्ि र्शक्षा दे डाली है । ठकुरी बनाकर भक्ति के पद
गािे हैं, िब वह खंजरी पर दो उं गर्लयों से थपकी दे कर िान
संभालिा है , बूढी मौसी िन्मयिा के आवेश में मंजीरा झनकार
दे िी है और भीिर काम करिी हुई बेला की गनि में एक धथरकन
भर जािी है।

घर में एक मुराि भैंस, दो पिाही गायें और एक हल की खेिी


होने के करि जीवन-यापन का प्रश्न ववशेर् समस्या नहीं उत्पन्न
करिा। यह ववधचत्र पररवार हर वर्ि माघ मेले के अवसर पर गंगा-
िीर कल्पवास करके पण्
ु यपवि मनािा है । इसके साथ गांव के अन्य
भतिगि भी णखंचे चले आिे हैं।

ठकुरी बाबा िो सबको अपना अनिधथ बनाने को प्रस्िि


ु रहिे
हैं। पर कल्पवास में दस
ू रे का अन्न खाने वाले को ववननमय में
अपना पुण्यफल दे दे ना पडिा है , इसी से वे सब अपनी-अपनी
गठरी-मट
ु री में खाने-पीने का सामान लेकर घर से ननकलिे हैं, पर
वस्िु का ववननमय वज्यि नहीं माना जािा, चाहे ववननमय वाली
वस्िुओं में ककिनी ही असमानिा तयों न हो। आवश्यकिा और
ननयम के बीच में वे सरल ग्रामीि जैसा समझौिा करा दिे हैं,
उसे दे खकर हं सी आये बबना नहीं रहिी। कोई गड
ु की एक डली
रखकर ठकुरी बाबा से आध सेर आटा ले जािा है , कोई चार र्मचि
दे कर आलू-शकरकन्द का फलाहार प्राप्ि कर लेिा है । कोई पत्ते
पर िोला भर दही रखकर कटोरा भर चावल नापिा है । कोई धूप
के र्लए रत्ती भर घी दे कर लुदटया भर दध
ू चाहिा है ।

ठकुरी बाबा को दे ने में एक ववशेर् प्रकार की आनन्दानभ


ु नू ि
होिी है , इसी से वे स्वयं पूि-पूिकर इस ववननमय व्यापार को
र्शधथल होने नहीं दे िे। वे भावुक और ववश्वासी जीव हैं। धचकारा
हाथ में लेिे ही उनके र्लए संसार का अथि बदल जािा है। उनकी
उदारिा, सहज सौहादि , सरल भावुकिा आदद गुि ग्रामीि-जीवन
के लक्षि होने पर भी अब वहाँ सुलभ नहीं रहे । वास्िव में गांव
का जीवन इिना उत्पीडडि और दव
ु ह
ि होिा जा रहा है कक उसमें
मनष्ु यिा को ववकास के र्लए अवकाश र्मलना ही कदठन है ।

सदा के समान इस वर्ि भी ठकुरी बाबा के दल में ववववधिा


है । भोजन की व्यवस्था के र्लए बालू खोदकर चूल्हे बनािी हुई
लोकधचन्िा-रि बेटी, धचकारा, मँजीरे और डफली आदद की
पष्ृ ठभर्ू म के साथ स्वप्न-दशिन में अचल जामािा और घी की
हँडडया, काशीफल आदद के बीच में बैठकर लोक और परलोक की
समस्या सुलझािी हुई मौसी से ठकुरी बाबा का कुटुम्ब बना है ।
शेर् मानो ववर्भन्न वगों और जानियों की सक्म्मर्लि पररर्द् है ।

एक वद्
ृ धा ठकुराइन हैं। पनि के जीवनकाल में वे पररवार में
रानी की क्स्थनि रखिी थीं, परं िु ववधवा होिे ही क्जठौिों ने
ननःसंिान काकी से मि दे ने का अधधकर भी िीन र्लया। गाँव के
नािे वे ठकुरी की बुआ होिी थीं, इससे पुण्य कमाने के अवसर
पर वे उन्हें साथ लाना नहीं भूलिे।

दस
ू री एक सहुआइन है , क्जनके पनि गाँव की िेली- बार्लका
को लेकर कलकत्ते में कििव्यपालन कर रहे हैं। वववादहिा जीवन के
डबल सटीकफकेट के समान दो-दो बबिुए पहनकर और नाक िक
णखंचे घंघ
ू ट में वधव
ू ंश की मयािदा को सरु क्षक्षि रखकर वे परचन

की दक
ु ान द्वारा जीवन-यापन करिी हैं।

हर माघ में वे अपने दो ककशोर बालकों के साथ आकर


कल्पवास की कठोरिा सहिी है और कमर िक जल में खडी होकर
भावी जन्मों में साहुजी को पाने का वरदान माँगिी है । पनि ने
उनका इहलोक बबगाड ददया है , पर अब उसके अनिररति ककसी
और की कामना करके वे परलोक नहीं बबगाडना चाहिी।

िीसरा एक ववधुर कािी है। ककसी के टुकडे में कुि िरकारी


बोकर ककसी की आम की बधगया की रखवाली करके अपना ननवािह
करिा है । उसकी घरवाली िीन पबु त्रयों की भें ट दे चक
ु ी थी। चौथा
पुत्र-उपहार दे ने के अवसर पर वह संसार के सभी आदान-प्रदानों
में िुट्टी पा गई। राि- ददन कठोर पररिम करके भी उसे प्रायः
भूखा सोना पडिा था। चौथी बार पुत्र-जन्म के उपरांि घर में थोडा
चावल र्मल सका। बडी लडकी ने उसी का भाि चढा ददया। भाि
यदद माँ खा लेिी, िो बच्चे भख
ू े सोिे, इसी से उसने चावल
पसाकर माड स्वयं पी र्लया और भाि उनके र्लए रख ददया। उसी
राि वह सक्न्नपािग्रस्ि हुई और िीसरे ददन नवजाि-पुत्र के साथ
ही उसके जीवन की कदठन िपस्या समाप्ि हो गई।

वपिले वर्ि कािी आम के पेड पर से धगर पडा, िब से न


वह सीधा खडा हो सकिा है और न कदठन पररिम के योग्य है ।
दोनों ककशोरी बार्लकाएं कभी सहुआइन भौजी के कंडे पाथकर,
कभी पंडडिाइन का घर लीपकर कुि पा जािी हैं, पर िोटी बार्लका
वपिा के गले की फांसी हो रही है । ठकुरी बाबा के भरोसे ही वह
अपनी िीन जीवों की सक्ृ ष्ट लेकर कल्पवास करने आिा है , पर
गंगा माई से वह माँगिा तया है , इसका अनुमान लगाना कदठन
है ।

चौथे ब्राह्मि-दम्पनि हैं। गँवई-गाँव की यजमानी वह


कामधेनु नहीं है कक पंडडिजी महन्िी माँग लेिे, पर कहीं कथा
बाँचकर और कहीं पुरोदहिी करके वे आजीववका का प्रश्न हल कर
लेिे हैं। ववधािा ने जाने कैसा र्ड्यंत्र रचकर उन्हें पुं नामक नरक
से उबारने वाले को अविार नहीं लेने ददया। पर पंडडिजी अपनी
स्िुनियों द्वारा गंगा को गद्गद करके बेचारे धचत्रगुप्ि का लेखा-
जोखा व्यथि कर दे ना चाहिे हैं।

पंडडिाइन भी अच्िी है , पर संिान के र्लए इिनी लम्बी


प्रिीक्षा ने उनकी आशा के माधय
ु ि में वैसी ही खटाई उत्पन्न कर
दी है , जैसी दे र से रखे हुए दध
ू के फट जाने पर स्वाभाववक है ।

पनि के पूजा-पाठ का खटराग पंडडिाइन को फूटी आँख नहीं


सुहािा इसी से वह कभी चंदन का मुदठया नाज में गाड दे िी है ,
कभी सुर्मरनी मोखे में निपा आिी है और कभी पोथी-पत्रा अपनी
वपटारी में बंद कर रखिी है ।
एक ममेरी ववधवा बदहन का दे हांि हो जाने पर पंडडि, बालक
भांजे को आिय दे ने के र्लए बाध्य हो गए। िब से वही महाभारि
की द्रौपदी बन गया है । उससे पुत्र का अभाव भरने के स्थान में
और अधधक ररति होिा जा रहा है । अपना होिा िो कहना मानिा,
अपना रति होिा, िो अपनी ममिा करिा, आदद, का अथि बालक
की अबोधिा दे खकर समझ में नहीं आिा। वह बेचारा इन र्सद्धांि
वातयों को केवल चककि, ववक्स्मि भाव से सन
ु िा रहिा है , तयोंकक
अपने-पराये की पररभार्ा अभी िक उसने सीखी नहीं है । जैसे वह
माँ के जीवनकाल में था, वैसा ही आज भी है । अब अचानक वह
मामी को इिना क्ोधधि कैसे कर दे िा है , यह प्रश्न उसके मन
को जब मथ डालिा है , िब वह फूट- फूटकर रो उठिा है।।

इस ववधचत्र साम्राज्य के साथ मैंने माघ का महीना भर


बबिाया, अिः इिने ददनों के संस्मरि कुि कम नहीं हैं, पर इनमें
एक सन्ध्या मेरे र्लए ववशेर् महत्व रखिी है ।

मैं अधधक राि गए िक पढिी रहिी थी, इसी से मेरा वह


अनिधथ-वगि भजनकीििन के र्लए दस
ू रे कल्पवार्सयों की मण्डली
में जा बैठिा था। एक ददन ठकुरी बाबा ने स्नेह- भरी र्शष्टिा के
साथ कहा कक एक बार अपनी कुटी में भी भजन हो िो अच्िा
है । मैं कोलाहल से दरू रहिी हूँ, इसी से भजन-कीििन में सक्म्मर्लि
होना भी मेरे र्लए सहज नहीं होिा, पर उस ददन संभविः
कुिूहलवश ही मैंने उनका ननमंत्रि स्वीकार कर र्लया। ददन
ननक्श्चि हो गया।
माघी पूणििमा के पहले आने वाली त्रयोदशी रही होगी। सवेरे
कुि मेघखण्ड आकाश में एकत्र हो गए थे, पर सन्ध्या की सन
ु हली
आभा के खर प्रवाह में वे धारा में पडे नीले कमलों के समान
बहकर ककसी अज्ञाि कूल से जा लगे। सन्ध्या-स्नान और गंगा में
दीपदान करके वे सब कुटी के बरामदे में और बाहर बालू पर एकत्र
हो गये।

पंडडिजी ने पज
ू ा के र्लए एक िोटे गमले में र्मट्टी भर कर
िुलसी रोप दी थी। उसी को बीच में स्थावपि करके बालू का एक
िोटा-सा चबूिरा बनाया गया।

कफर बूढी मौसी के वपटारे में रतखी हुई द्वारकाधीश की


िाम्रमयी िाप, पंडडिजी की रं गीन काठ की डडबबया के बंदी
शालग्राम, ठकुराइन बुआ के चाँदी की जलहरी में ववराजमान
महादे वजी, ठकुरी बाबा का पुराने फ्रेम और टूटे शीशे में जडा हुआ
रामपंचायिन का धचत्र, सूर के हाथ से लड्डू र्लये पीिल के
बालमक
ु ु न्द, और सहुआइन भौजी के पास पनि की स्मनृ ि के रप
में रखे हुए र्मट्टी के गिेश सब उसी चबि
ू रे पर प्रनिक्ष्ठि हो
गए। जान पडिा था, भतिों ने अपने दे विाओं को सम्मेलन के
र्लए बाध्य कर ददया है ।

बैठने में भी व्यवस्था की कमी नहीं ददखाई दी। खुले बरामदे


में मेरे र्लए आसन बबिा था। दादहनी ओर दोनों बदु ढयाँ और कुि
हटकर सहुआइन और पंडडिाइन बैठी थीं। बाईं ओर बच्चों की
पंक्ति थी, क्जसे सदी से बचाने के र्लए सहुआइन ने अपनी दस
ु ूिी
चादर खोलकर ओढा दी थी, दे विाओं के सामने पंडडिजी परु ानी
पोथी खोले ववराजमान थे। उनसे कुि हटकर ठकुरी बाबा धचकारे
की खूटी ऐंठ रहे थे और उनके गीि की हर कडी ठीक-ठीक सुनने
के र्लए सटकर बैठा हुआ जामािा गोद में रखी खंजडी पर ममिा
से उँ गर्लयाँ फेर रहा था।

कािी काका इन दोनों से कुि दरू फटी चादर में र्सकुडे हुए
थे। झुकी हुई पीठ के कारि जान पडिा था, मानो बालू के किों
में कुि पढ रहे हैं। दस-पाँच और ऐसे ही कल्पवासी आ गए थे।
धूप लाना, आरिी के र्लए फूल- बत्ती बनाना, घी ननकालना आदद
काम बेला के क्जम्मे थे, अिः वह कफरकनी के समान इधर-उधर
नाच रही थी।

भतिों ने, ‘िुलसा महारानी नमो नमो’ गाया और पंडडिजी


ने पूजा का ववधान समाप्ि ककया। िब िाँबे के पञ्चपात्र और
आचमनी से गंगा-जल और िल
ु सीदल बाँटा गया। गंगाजल भति
मंडली पर निडक कर पंडडि दे विा ने कुि शद्
ु ध, कुि अशद्
ु ध
संस्कृि में गंगा के माहात्म्य का पाठ ककया। कफर उच्च स्वर से
रामायि गाया, क्जसमें िीरामजानकी-लक्ष्मि गंगा पार करिे हैं।
िोिागिों को वह अविरि कंठस्थ होने के कारि कथावाचक का
स्वर अन्य स्वरों की समक्ष्ट में डूबकर अपना बेसरु ापन निपा
सका।
िब गौरी-गिेश की वन्दना से गीि-सम्मेलन आरं भ हुआ।
यह कहना कदठन होगा कक उनमें कौन संद
ु र गािा था, पर यह
िो स्वीकार करना ही होगा कक सभी के गीि िन्मयिा के सन्चार
में एक-से प्रभुववष्िु थे।

कबीर, सूर, िुलसी जैसे महान ् कववयों से लेकर अज्ञािनामा


ग्रामीि ित
ु कडों िक के पद उन्हें स्मरि थे। एक जो कडी गािा
था, उसे सबका समवेि स्वर दोहरा दे िा था! दबे पाँव िक आकर
कफर णखलणखलािी हई-सी लौटने वाली लहरें मानो अववराम िाल
दे रही थीं।

गायकों में क्म था और गीिों में गाने वालों की अवस्था के


अनस
ु ार ववववधिा। सबसे पहले दो बदू ढयों ने गाया। ठकुरी बाबा
की मौसी ने ‘सो ठाढे दोउ भइया सुर िीर। ऐही पार से लर्न
पुकारे केवट लाओ नइया सूरसरर िीर।‘ गाकर वनवासी राम का
जो मार्मिक धचत्र उपक्स्थि ककया, उसी की प्रनिकृनि ठकुराइन की
‘दणखन ददसय भरि सकारे , आजु अवड्या मोरे राम वपयारे ! ददवस
धगनि मोरी पोरैं णखयानी, मग जी थाके नैन के िारे !’ आदद
पंक्तियों में र्मली साँस भर आने के कारि रुक-रुकर गाये हुए
गीि मानो हृदय के रस से भीगकर भारी हो गए थे।

पंडडिाइन के ‘कहन लागे मोह मइया मड्या’ में यदद भाव


का ववस्िार था, िो सहुआइन के ‘चले गए गोकुल से बलवीर चले
गए ... बबलखि ग्वाल बबसूरनि गौएँ, िलफि जमना-िीरा चले
गए।‘ में अभाव की गहराई। ‘सुनाये बबना गुजर न होई’ कह-
कहकर गवाये हुए कािी काका के, ‘मन मगर भया िब तया बोले’
में यदद िन्मयिा की र्सद्धध थी, िो अन्धे युवक के ‘सुधध ना
बबसरे मोदह श्याम िुम्हारे दरसन की’ में स्मनृ ि की साधना ।

ठकुरी बाबा ने खाँस-खाँसकर कण्ठ साफ करने के उपरांि


आँख मंद
ु कर गायाः

खेले लागे अँगना में कंु वर कन्हड्या हो!

बोले लागे ‘मड्यानीकी खोटी बलभइया हो !

खटरस भोग उनदहं नदहं भावै रामा,

मइया माखन रोटी खवावै लै बलइया हो।

साला दस
ु ाला मनदहं नदहं भावै रामा,

हंर्सके कारी कमरी उढावै उनकर मइया हो !

लैके भौंरा चकई खेलन नदहं जावे रामा,

माँगै ‘दै दे लकुटी मै घेरर लावौ गड्या हो’?

कृष्ि के जीवन में साधारि व्यक्तियों को इिना अपनापन


र्मलिा है, इन प्रश्न का जो उत्तर उस ददन सहज ही र्मल गया,
उसका अन्यत्र र्मलना कदठन होगा।
स्वर, रे खाएँ और रं ग भी प्रत्यक्ष कर सकिे हैं, यह उनकी
गीि लहरी की धचत्रमयिा से प्रत्यक्ष हो गया।

बूढे से बालक िक सबको एक ही स्पन्दन, एक ही पुलक


और एक ही भाव बाँधे हुए था।

ककिनी दे र िक उन्होंने तया-तया गाया, यह बिाना संभव


नहीं, तयोंकक जब अंनिम आरिी ने इस सम्मेलन की समक्प्ि की
सच
ू ना दी, िब मैं मानो नींद से जागी।

थोडी दे र में, सब बरामदे में अपना-अपना बबिौना ठीक करके


लेट गए, ककंिु मैं अपनी कोठरी में पीिल की दीवट में जलिे हुए
ददये के सामने बैठकर कुि सोचिी रह गई।

सहुआइन ने पहले बाहर से झाँका, कफर एक पैर भीिर


रखकर ववनीि भाव से जो कहा, उसका आशय था कक अब ददये
को बबदा कर दे ना चादहए, उसकी माँ राह दे खिी होगी।

हँसी मेरे ओंठों िक आकर रुक गई। जब इनके र्लए सब


कुि सजीव है , िब ये दीपक की माँ की और उसकी प्रिीक्षा की
कल्पना तयों न करें ! बझ
ु ाये दे िी हूँ, कहने पर सहुआइन ने आगे
बढकर आँचल की हवा से उसे बुझा ददया। बेचारी को भय था कक
मैं शहरािी र्शष्टाचार हीनिा के कारि कहीं फँू क से ही न बुझा
बैहूँ।

ककिनी दे र िक मैं अंधकार में बैठकर सोचिी रही, यह


स्मरि नहीं, पर जब मैं कुटी के बाहर आकर खडी हुई, िब राि
ढल रही थी। ननस्िब्धिा से भीगी चाँदनी हल्की सफेद रे शमी
चादर की िरह लहरों में र्समटी और बालू में फैली हुई थी।

मेरी पििकुटी के बरामदे चाँदनी से घुल गए थे – उनमें ठं डी


ज़मीन चादर, पुआल आदद पर जो सक्ृ ष्ट सो रही थी, उसके बाह्य
रप और हृदय का संस्कार, उनकी स्वाभाववक र्शष्टिा, उसकी
रस-ववदग्धिा, उनकी कमिठिा आदद का तया इिना कम मल्
ू य है
कक उन्हें जीवन-यापन की साधारि सवु वधाएँ िक दल
ु भ
ि हो जावें।

उन मानव-हृदयों में उमडिे हुए भाव-समुद्र की जो स्पशि-


मधुर िरं ग मुझे िू भर गई थी, उसी की स्मनृ ि मेरे मानस- िट
पर न जाने ककिने ववरोधी धचत्र आँकने लगी।

ककिने ही ववराट कवव सम्मेलन, ककिनी ही अणखल भारिीय


कवव-गोक्ष्ठयाँ मेरी स्मनि के धरोहर है। मन ने कहा खोजो िो
उनमें कोई इससे र्मलिा हुआ धचत्र – और बुद्धध प्रयास में थकने
लगी।

सजे हाल, ऊँचे मन्च, माला-ववभवू र्ि सभापनि मेरी स्मनृ ि


में उदय हो आये। उनसे इधर-उधर दे वदि
ू ों के समान ववराजमान
कववगि रप और मूल्य दोनों में अपूिि थे। कोई फस्टि तलास का
ककराया लेकर थडि की शोभा बढािा हुआ आया था। कोई अपने
कायिवश पहले ही से उस नगर में उपक्स्थि था, पर थोडा समय
वहाँ बबिाने के र्लए इिनी फीस चाहिा था, क्जसमें आना-जाना
और आवश्यक कायि- सम्पन्न होने के उपरांि भी कुि बच सके।
ककसी ने अपने काव्य की महाघििा बढाने के र्लए ही अपनी
गलेबाजी का चौगन
ु ा मल्
ू य ननक्श्चि ककया था।

मूल्य से जो महत्ता नहीं व्यति हो सकी, वह वेश-भूर्ा में


प्रत्यक्ष थी। ककसी के नये र्सले सूट की अँगरे क्जयि, िाम्बूलराग
की स्वदे शीयिा में रक्ञ्जि होकर ननखर उठी थी। ककसी का
चीनांशक
ु का लहरािा हुआ भारिीय पररधान, र्सगरे ट की
धम
ू लेखाओं में उलझकर रहस्यमय हो रहा था। ककसी के र्सर के
बडे बाल अमामी से संगमूसा के चमकीले फशि की भ्ांनि उत्पन्न
करिे थे। ककसी की र्सल्की शैम्पू से धल
ु ी सीधी लटों का कृबत्रम
कुञ्चन ववधािा पर मनुष्य की ववजय की घोर्ि करिा था।

कुि प्राचीनवाददयों की कभी ननननिमेर् खल


ु ी आँखें और कभी
मीर्लि पलकें प्रकट करिी थीं कक काव्य-रस में ववश्वास न होने
के कारि उन्हें ववजया से सहायिा माँगनी पडी है ।

इन आश्चयि-पुत्रों के सामने िोिागिों की जो समक्ष्ट थी,


वह मानो उनके चमत्कारवाद की परीक्षा लेने के र्लए ही एकत्र
हुई थी!

कचहरी में गवाही की पुकार के समान नामों की पुकार होिी


थी। कववयों में कोई मुस्करािा, कोई लजािा, कोई आत्म-ववश्वास
से िािी फुलािा हुआ आगे आिा। कोई पंचम, कोई र्ड्ज, कोई
गान्धार और कोई सब स्वरों के अभाव में एक सानन
ु ार्सकिा के
साथ कलाबाक्जयो में काव्य को उलझा-उलझाकर िोिाओं के सामने
उपक्स्थि करिा और ‘वाह-वाह’ के र्लए सब ओर गदि न घम
ु ािा।

उनके इिने करिब पर भी दशिक चमत्कृि होना नहीं जानिे


थे। कही से आवाज आिी कण्ठ अच्िा नहीं है । कोई बोल उठिा
– भाव भी बिािे जाइए। ककसी ओर से सुनाई पडिा – बैठ जाइए।
कोई धष्ृ ट िोिा कवव से ककसी उच्ििंख
ृ ल शंगारमयी रचना को
सन
ु ाने की फरमाइश करके मदहलाओं की पलकों का झक
ु ना दे खिा।

कवव भी हार न मानने की शपथ लेकर बैठिे हैं। ‘वह नहीं


सुनना चाहिे िो इसे सुननए, यह मेरी नवीनिम कृनि है , ध्यान
से सुननए’ आदद-आदद कहकर वे पंडों की िरह पीिे पड जािे हैं।
दोनों ओर से कोई भी न अपनी हार स्वीकार करने को प्रस्िि

होिा है और न दस
ू रे को हराने का ननश्चय बदलना चाहिा है ।

कभी-कभी आठ-आठ घंटे िक यह कवायद चलिी रहिी है ,


पर इिने दीघि समय में ऐसे कुि क्षि भी ननकालना कदठन होगा,
क्जसमें कवव का भाव िोिा में अपनी प्रनिध्वनन जगा सका हो
और दोनों पक्ष, बाजीगर और िमाशबीन का स्वांग िोडकर
काव्यानन्द में एकत्व प्राप्ि कर सके हों। कवव कहे गा ही तया,
यदद उसकी इकाई बनकर अनेकिा नहीं पा सकी और िोिा सुनेंगे
ही तया, यदद उन सबकी ववर्भन्निाएँ कवव में एक नहीं हो सकीं।

जब यह समारोह समाप्ि हो जािा है , िब सन


ु ाने वाले ननराश
और सुनने वाले थके हुए से लौटिे हैं। उन पर काव्य का साक्त्वक
प्रभाव ककिना कम रहिा है , इसे समझने के र्लए उन सम्मेलनों
का स्मरि पयािप्ि होगा, क्जनसे लौटने वालों में कनिपय व्यक्ति
संगीि- व्यवसानयननयों के गान से मन बहलाने में नहीं दहचकिे।

भाव यदद मनुष्य की क्षुद्रिा, दभ


ु ािवना और ववकृनियाँ नहीं
बहा पािा िब वह उसकी दब
ु ल
ि िा बन जािा है । इसी से स्नेह,
करुिा आदद के भाव हृदय की शक्ति बन सकिे हैं और द्वेर्,
क्ोध के दभ
ु ािव उसे और अधधक दब
ु ल
ि क्स्थनि में िोड जािे हैं।

ग्रामीि समाज अपने रस-समुद्र में व्यक्तिगि भेदबुद्धध और


दब
ु ल
ि िाएँ सहज ही, डुबा दे िा है , इसी से इस भावस्नान के उपरांि
वह अधधक स्वस्थ रप प्राप्ि कर सकिा है ।

हमारे सभ्यिा-दवपिि र्शष्ट समाज का काव्यानन्द नििला


और उसका लक्ष्य सस्िा मनोरं जन मात्र रहिा है , इसी से उसमें
सक्म्मर्लि होने वालों की भेदबुद्धध एक दस
ू रे को नीचा ददखलाने
के प्रयत्न और वैयक्तिक ववर्मिाएँ और अधधक ववस्िार पा लेिी
हैं। एक वह दहंडोला है, क्जसमें ऊँचाई-नीचाई का स्पशि भी एक
आत्मववस्मनृ ि में वविाम दे िा है। दस
ू रा वह दं गल का मैदान है
क्जसका सम धरािल भी हार-जीि के दाँव-पेचों के कारि सिकििा
की िांनि उत्पन्न करिा है ।

अपने इन सम्मेलनों की व्यथििा का मुझे ज्ञान था, पर उसमें


कदथिन की अनभ
ु नू ि उसी ददन सल
ु भ हो सकी। इसके कुि वर्ों
के उपरांि िो यह क्स्थनि इिनी दव
ु ह
ि हो उठी कक मुझे र्शष्ट
सम्मेलनों से ववदा ही लेनी पडी।

ख्यानि के मध्यान्ह में कवव के र्लए, अपने प्रशंसकों और


अपने बीच में ऐसा दभ
ु ेद्य परदा डाल दे ना सहज नहीं होिा। उस
सरल जीवन की साक्त्वकिा में यदद दस
ू रे पक्ष की कृबत्रमिा, इिनी
कदठन रे खाओं में आँक दी होिी, िो मेरा ववद्रोह इिना िीव्र न हो
पािा। ववशेर्िः ऐसा करना िब और भी कदठन हो जािा है , जब
आडम्बर के साथ अथि भी उपक्स्थि हो, तयोंकक अथि ही इस यग

का दे विा है।

कवव अपनी िोिा-मंडली में ककन गुिों को अननवायि समझिा


है यह प्रश्न आज नहीं उठिा, पर अथि की ककस सीमा पर वह
अपने र्सद्धांिों का बीज फेंककर नाच उठे गा, इसका उत्तर सब
जानिे हैं। उसकी इच्िा अथि के क्षेत्र में क्जिनी मुति है , वह
िोिाओं की इच्िा का उिना ही अधधक बंदी है ।

क्जस दररद्र समाज ने इस व्यावसानयक आस्था के संबंध में


मझ
ु े नाक्स्िक बना ददया, उसे अब िक मेरी ओर से धन्यवाद नहीं
र्मल सका।

जब ठाकुरी बाबा और उनके साथी वसंिपंचमी का स्नान


करके चल गए, िब जीवन में पहली बार मुझे कोलाहल का अभाव
अखरा। िब से अनेक माघ-मेलों में मैंने उन्हें दे खा है । ककिनी ही
बार नाव पर या िट पर उनकी भगि का आयोजन हुआ, ककिनी
बार उन्होंने णखचडी, बाजरे के पुए आदद व्यंजनों से मेरा सत्कार
ककया और ककिनी ही बार अपने जीवन का आख्यान सन
ु ाया।

मैंने उनसे अधधक सहृदय व्यक्ति कम दे खे हैं। यदद यह


वद्
ृ ध यहाँ न होकर हमारे बीच में होिा, िो कैसे होिा, यह प्रश्न
भी मेरे मन में अनेक बार उठ चुका है, पर जीवन के अध्ययन
ने मझ
ु े बिा ददया है कक इन दोनों समाजों का अंिर र्मटा सकना
सहज नहीं। उनका बाह्य जीवन दीन है और हमारा अंिजीवन
ररति। उस समाज में ववकृनियाँ व्यक्तिगि हैं, पर सद्भाव
सामूदहक रहिे हैं। इसके ववपरीि हमारी दब
ु ल
ि िाएँ समक्ष्टगि हैं,
पर शक्ति वैयक्तिक र्मलेगी।

ठकुरी बाबा अपने समाज के प्रनिननधध हैं, इसी ने उनकी


सहायिा वैयक्तिक ववधचत्रिा न होकर ग्रामीि जीवन में व्याप्ि
सहृदयिा को व्यति करिी है। हमारे समाज में उनकी दो क्स्थनियाँ
संभव थीं। यदद उनमें दब
ु ल
ि िाओं का प्राधान्य होिा, िो वे इस
समाज का प्रनिननधधत्व करिे और यदद शक्ति का प्राधान्य होिा,
िो अपवाद की कोदट में आ जािे।

इधर दो वर्ि से ठकुरी बाबा माघ मेले में नहीं आ रहे हैं।
कभी-कभी इच्िा होिी है कक सैदपुर जाकर खोज करं, तयोंकक
वहाँ से 33 मील पर उनका गाँव है । उनके कुि पद मैंने र्लख
रखे हैं, क्जन्हें मैं अन्य ग्रामगीिों के साथ प्रकार्शि करने की
इच्िा रखिी हूँ। यदद ठकुरी बाबा से भें ट हो िो यह संग्रह और
भी अच्िा हो सकेगा।

‘यदद भेंट न हो’ यह प्रश्न हृदय के ककसी कोने में उठिा है


अवश्य पर मैं उसे आगे बढने नहीं दे िी। ठकुरी बाबा जैसे व्यक्ति
कहीं अपनी धरिी का मोह िोड सकिे हैं!

वपिली बार जब वे आये थे, िब कुि र्शधथल जान पडिे


थे। हाथ दृढिा के साथ धचकारा थामिा था, पर उं गर्लयाँ िार के
साथ कांपिी थीं। पैर ववश्वास के साथ पथ्
ृ वी पर पडिे थे, पर
वपंडर्लयों की थरथराहट गनि को डगमग कर दे िी थी। कण्ठ में
पहले जैसा ही लोच था, पर कफ की घरघराहट उसे बेसुरा बनािी
रहिी थी। आँखों में ममिा का वही आलोक था, पर समय ने
अपनी िाया डालकर उसे धुंधला कर ददया था। मुख पर वैसी ही
उन्मुति हं सी का भाव था, पर मानो धीरे -धीरे साथ िोडने वाले
दांिों को याद रखने के र्लए ओंठों ने अपने ऊपर स्मनृ ि की रे खाएँ
खींच ली थीं।

व्यक्ति समय के सामने ककिना वववश है । समय को स्वीकृनि


दे ने के र्लए भी शरीर को ककिना मूल्य दे ना पडिा है ।

िब ठकुरी बाबा की मौसी ववदा ले चुकी थी। उनकी उपक्स्थनि


ठकुरी बाबा के र्लए इिनी स्वाभाववक हो गई थी कक अभाव की
अस्वभाववकिा ने उन्हें एकदम चककि कर ददया होगा। एक बार
भी उनके पररचय की सीमा में आ जाने वाला व्यक्ति ठकुरी बाबा
का आत्मीय बन जािा है , िब जो इिने वर्ों िक आत्मीय रहा
हो, उसके महत्व के संबंध में तया कहा जावे। मौसी के अभाव ने
ठकुरी बाबा के हृदय में एक और धचंिा भी जगा दी हो िो आश्चयि
नहीं : ऐसे ही एक ददन उनका अभाव बेला को सहना पडेगा और
िब वह ककस प्रकार जीवन की व्यवस्था करे गी, यही सोचना
स्वाभाववक कहा जायगा, पर वे अपनी धचंिा को व्यति कम होने
दे िे थे।

उनके स्वास्थ्य के संबंध में प्रश्न करने पर उत्तर र्मला ‘अब


चला चली कै बबररया ननयराय आई है बबदटया रानी ! पाके पािन
की भली चलाई। जौन ददन झरर जायं िौन ददन सही।‘

मैंने हँसी में कहा – ‘िम


ु स्वगि में कैसे रह सकोगे बाबा! वहाँ
िो न कोई िुम्हारे कूट पद और उलटवार्सयाँ समझेगा और न
आल्हा ऊदल की कथा सुनेगा। स्वगि के गन्धवि और अप्सराओं में
िुम कुि न जँचोगे।‘

ठकुरी बाबा का मन प्रसन्न हो गया। कहने लगे – ‘सो िो


हम जाननि है बबदटया ! हम उहां अस सोर मचाउब कक भगवानजी
पुन धरिी पै ढनकाय दे हैं। हम कफर धान रोपब, ककयारी बनाउब,
धचकारा बजाउब और िुम पचै का आल्हा ऊदल की कथा सुनाउब।
सरग हमका ना चही, मद
ु ा हम दस
ू र नवा सरीर मांगै बरे जाब
जरर। ई ससरु िौ बनाय के जरजर हुइग’ – और वे गा उठे :

“चलत प्रान काया काहे रोई राम।


उस कल्पवास की पुनराववृ त्त न हो सकी। संभव है , वे नया
शरीर मांगने चले गए हों, पर धरिी से उनका प्रेम इिना सच्चा,
जीवन से उनका संबंध ऐसा अटूट है कक उनका कहीं और रहना
संभव ही नहीं जान पडिा। अथवि के जो गायक अपने -आपको
धरिी का पुत्र कहिे थे, ठकुरी बाबा उन्हीं के सजािीय कहे जा
सकिे हैं। इनके र्लए जीवन धरिी का वरदान, काव्य उसके सौंदयि
की अनभ
ु नू ि, प्रेम उसके आकर्िि की गनि और शक्ति उसकी
प्रेरिा का नाम है। ऐसे व्यक्ति मुक्ति की ऊंची-ऊंची कल्पना को
दध
ू में णखले नीचे-से-नीचे फूल पर न्योिावर कर दें , िो आश्चयि
नहीं।

ठकुरी बाबा की कथा र्लखिे-र्लखिे राि ढल गयी जािी हुई


चांदनी के पीिे आिा हुआ प्रभाि का धर्ू मल आभास ऐसा लगिा
है , मानो उसी की िाया हो।

ककसी अलक्ष्य महाकवव के प्रथम जागरि-िं द के समान


पक्षक्षयों का कलरव नींद की ननस्िब्धिा पर फैल रहा है । राि की
गहरी ननस्पंद नींद से जागे हुए वक्ष
ृ ों में दीघिननःश्वास के समान
समीर बह रहा है । और ऐसे समय में मेरी स्मनृ ि ने मुझे भी ककसी
अिीिकाल के प्रभाव में जगा ददया है । जान पडिा है ठकुरी बाबा
गंगा िट पर बैठकर िन्मय भाव से प्रभािी गा रहे हैं – ‘जाधगए
कृपाननधान पंिी बन बोले।‘

अपनी प्रभािी से वे ककसे जगािे हैं, यह कहना कदठन है ।

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