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आकाशदीप

जयशंकर प्रसाद

“बंदी!”

“क्या है? सोने दो।“

“मुक्त होना चाहते हो?”

“अभी नहीं, ननद्रा खल


ु ने पर, चुप रहो।“

“फिर अवसर न ममलेगा।“

“बडा शीत है , कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मक्


ु त
करता।“
“आँधी की संभावना है। यही अवसर है । आज मेरे बंधन मशथिल
हैं।“

“तो क्या तुम भी बंदी हो?”

“हाँ, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाववक और प्रहरी हैं।“

“शस्त्र ममलेगा?”

“ममल जाएगा। पोत से संबद्ध रज्जु काट सकोगे?”

“हाँ।“

समुद्र में हहलोरें उठने लगीं। दोनों बंदी आपस में टकराने लगे।
पहले बंदी ने अपने को स्त्वतंर कर मलया। दस
ू रे का बंधन खोलने
का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दस
ू रे को स्त्पशश से
पुलफकत कर रहे िे। मुक्क्त की आशा-स्त्नेह का असंभाववत
आमलंगन। दोनों ही अंधकार में मुक्त हो गए। दस
ू रे बंदी ने
हर्ाशनतरे क से उसको गले से लगा मलया। सहसा उस बंदी ने कहा-
“यह क्या? तम
ु स्त्री हो?”

“क्या स्त्री होना कोई पाप है ?” -अपने को अलग करते हुए स्त्री
ने कहा।

“शस्त्र कहाँ है – तम्


ु हारा नाम?”

“चंपा।“

तारक-खथचत नील अंबर और समद्र


ु के अवकाश में पवन ऊधम
मचा रहा िा। अंधकार से ममलकर पवन दष्ु ट हो रहा िा। समुद्र
में आंदोलन िा। नौका लहरों में ववकल िी। स्त्री सतकशता से
लुढक़ने लगी। एक मतवाले नाववक के शरीर से टकराती हुई
सावधानी से उसका कृपाण ननकालकर, फिर लढ
ु क़ते हुए, बंदी के
समीप पहुँच गई। सहसा पोत से पि-प्रदशशक ने थचल्लाकर कहा-
“आँधी!”
आपवि-सूचक तूयश बजने लगा। सब सावधान होने लगे। बंदी युवक
उसी तरह पडा रहा। फकसी ने रस्त्सी पकडी, कोई पाल खोल रहा
िा। पर युवक बंदी ढुलक कर उस रज्जु के पास पहुँचा, जो पोत
से संलग्न िी। तारे ढँ क गए। तरं गें उद्वेमलत हुईं, समुद्र गरजने
लगा। भीर्ण आँधी, वपशाथचनी के समान नाव को अपने हािों में
लेकर कंदक
ु -क्रीडा और अट्टहास करने लगी।

एक झटके के साि ही नाव स्त्वतंर िी। उस संकट में भी दोनों


बंदी खखलखखला कर हँस पडे। आँधी के हाहाकार में उसे कोई न
सुन सका।

अनंत जलननथध में ऊर्ा का मधुर आलोक िूट उठा। सुनहली


फकरणों और लहरों की कोमल सक्ृ ष्ट मस्त्
ु कराने लगी। सागर शांत
िा। नाववकों ने दे खा, पोत का पता नहीं। बंदी मक्
ु त हैं।

नायक ने कहा- “बुधगुप्त! तुमको मुक्त फकसने फकया?”


कृपाण हदखाकर बुधगुप्त ने कहा- “इसने।“

नायक ने कहा- “तो तुम्हें फिर बंदी बनाऊँगा।“

“फकसके मलए? पोताध्यक्ष मखणभद्र अतल जल में होगा-नायक!


अब इस नौका का स्त्वामी मैं हूँ।“

“तुम? जलदस्त्यु बुधगुप्त? कदावप नहीं।“ -चौंक कर नायक ने कहा


और अपना कृपाण टटोलने लगा! चंपा ने इसके पहले उस पर
अथधकार कर मलया िा। वह क्रोध से उछल पडा।

“तो तुम द्वंद्व युद्ध के मलए प्रस्त्तुत हो जाओ; जो ववजयी होगा,


वह स्त्वामी होगा।“ -इतना कहकर बुधगुप्त ने कृपाण दे ने का संकेत
फकया। चंपा ने कृपाण नायक के हाि में दे हदया।

भीर्ण घात-प्रनतघात आरम्भ हुआ। दोनों कुशल, दोनों त्वररत


गनतवाले िे। बडी ननपुणता से बुधगुप्त ने अपना कृपाण दाँतों से
पकडकर अपने दोनों हाि स्त्वतंर कर मलए। चंपा भय और ववस्त्मय
से दे खने लगी। नाववक प्रसन्न हो गए। परन्तु बुधगुप्त ने लाघव
से नायक का कृपाण वाला हाि पकड मलया और ववकट हुंकार से
दस
ू रा हाि कहट में डाल, उसे थगरा हदया। दस
ू रे ही क्षण प्रभात
की फकरणों में बुधगुप्त का ववजयी कृपाण हािों में चमक उठा।
नायक की कातर आँखें प्राण-मभक्षा माँगने लगीं।

बध
ु गप्ु त ने कहा- “बोलो, अब स्त्वीकार है फक नहीं?”

“मैं अनुचर हूँ, वरुणदे व की शपि। मैं ववश्वासघात नहीं करँगा।“


बुधगुप्त ने उसे छोड हदया।

चंपा ने यव
ु क जलदस्त्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी
क्स्त्नग्ध दृक्ष्ट और कोमल करों से वेदना ववहीन कर हदया। बुधगुप्त
के सुगहठत शरीर पर रक्त-बबन्द ु ववजय-नतलक कर रहे िे।

ववश्राम लेकर बध
ु गप्ु त ने पछ
ू ा “हम लोग कहाँ होंगे?”

“बालीद्वीप से बहुत दरू , सम्भवत: एक नवीन द्वीप के पास,


क्जसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है । मसंहल
के वखणकों का वहाँ प्राधान्य है ।“
“फकतने हदनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे?”

“अनुकूल पवन ममलने पर दो हदन में । तब तक के मलए खाद्य


का अभाव न होगा।“

सहसा नायक ने नाववकों को डाँड लगाने की आज्ञा दी, और स्त्वयं


पतवार पकडकर बैठ गया। बुधगुप्त के पूछने पर उसने कहा-
“यहाँ एक जलमग्न शैलखण्ड है । सावधान न रहने से नाव टकराने
का भय है।“

“तुम्हें इन लोगों ने बंदी क्यों बनाया?”

“वखणक मखणभद्र की पाप-वासना ने।“

“तुम्हारा घर कहाँ है ?”
“जाह्नवी के तट पर। चंपा-नगरी की एक क्षबरय बामलका हूँ। वपता
इसी मखणभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते िे। माता का दे हावसान
हो जाने पर मैं भी वपता के साि नाव पर ही रहने लगी। आठ
बरस से समद्र
ु ही मेरा घर है । तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे वपता
ने ही सात दस्त्यओ
ु ं को मारकर जल-समाथध ली। एक मास हुआ,
मैं इस नील नभ के नीचे, नील जलननथध के ऊपर, एक भयानक
अनंतता में ननस्त्सहाय हूँ, अनाि हूँ। मखणभद्र ने मुझसे एक हदन
घखृ णत प्रस्त्ताव फकया। मैंने उसे गामलयाँ सुनाईं। उसी हदन से बंदी
बना दी गई।“ -चंपा रोर् से जल रही िी।

“मैं भी ताम्रमलक्प्त का एक क्षबरय हूँ, चंपा! परं तु दभ


ु ाशग्य से
जलदस्त्यु बन कर जीवन बबताता हूँ। अब तुम क्या करोगी?”

“मैं अपने अदृष्ट को अननहदश ष्ट ही रहने दँ ग


ू ी। वह जहाँ ले जाए।“
-चंपा की आँखें ननस्त्सीम प्रदे श में ननरुद्दे श्य िी। फकसी आकांक्षा
के लाल डोरे न िे। धवल अपांगों में बालकों के सदृश ववश्वास
िा। हत्या-व्यवसायी दस्त्यु भी उसे दे खकर काँप गया। उसके मन
में एक सम्रमपूणश श्रद्धा यौवन की पहली लहरों को जगाने लगी।
समद्र
ु -वक्ष पर ववलंबमयी राग-रक्जजत संध्या थिरकने लगी। चंपा
के असंयत कंु तल उसकी पीठ पर बबखरे िे। दद
ु ाांत दस्त्यु ने दे खा,
अपनी महहमा में अलौफकक एक तरुण बामलका! वह ववस्त्मय से
अपने हृदय को टटोलने लगा। उसे एक नई वस्त्तु का पता चला।
वह िी-कोमलता!

उसी समय नायक ने कहा- “हम लोग द्वीप के पास पहुँच गए।“

बेला से नाव टकराई। चंपा ननभीकता से कूद पडी। माँझी भी उतरे ।


बुधगुप्त ने कहा- “जब इसका कोई नाम नहीं है , तो हम लोग इसे
चंपा-द्वीप कहें गे।“

चंपा हँस पडी।

पाँच बरस बाद-

शरद के धवल नक्षर नील गगन में झलमला रहे िे। चंद्र की
उज्ज्वल ववजय पर अंतररक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीवाशद के िूलों
और खीलों को बबखेर हदया।
चंपा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरुणी चंपा दीपक जला रही
िी। बडे यत्न से अरक की मजजूर्ा में दीप धरकर उसने अपनी
सुकुमार उँ गमलयों से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर चढऩे लगा।
भोली-भोली आँखें उसे ऊपर चढ़ते बडे हर्श से दे ख रही िीं। डोरी
धीरे -धीरे खींची गई। चंपा की कामना िी फक उसका आकाश-दीप
नक्षरों से हहलममल जाए; फकंतु वैसा होना असंभव िा। उसने
आशाभरी आँखें फिरा लीं।

सामने जल-रामश का रजत शंगार िा। वरुण बामलकाओं के मलए


लहरों से हीरे और नीलम की क्रीडा शैल-मालायें बन रही िीं और
वे मायाववनी छलनायें अपनी हँसी का कलनाद छोडकर नछप जाती
िीं। दरू -दरू से धीवरों का वंशी-झनकार उनके संगीत-सा मुखररत
होता िा। चंपा ने दे खा फक तरल संकुल जल-रामश में उसके कण्डील
का प्रनतबबम्ब अस्त्तव्यस्त्त िा! वह अपनी पण
ू त
श ा के मलए सैकडों
चक्कर काटता िा। वह अनमनी होकर उठ खडी हुई। फकसी को
पास न दे खकर पुकारा- “जया!”

एक श्यामा युवती सामने आकर खडी हुई। वह जंगली िी। नील


नभोमण्डल-से मख
ु में शद्
ु ध नक्षरों की पंक्क्त के समान उसके
दाँत हँसते ही रहते। वह चंपा को रानी कहती; बुधगुप्त की आज्ञा
िी।

“महानाववक कब तक आवेंगे, बाहर पूछो तो।“ चंपा ने कहा। जया


चली गई।

दरू ागत पवन चंपा के अजचल में ववश्राम लेना चाहता िा। उसके
हृदय में गुदगुदी हो रही िी। आज न जाने क्यों वह बेसुध िी।
वह दीघशकाल दृढ़ पुरुर् ने उसकी पीठ पर हाि रख चमत्कृत कर
हदया। उसने फिरकर कहा-“बुधगुप्त!”

“बावली हो क्या? यहाँ बैठी हुई अभी तक दीप जला रही हो, तुम्हें
यह काम करना है?”

“क्षीरननथधशायी अनन्त की प्रसन्नता के मलए क्या दामसयों से


आकाश-दीप जलवाऊँ?”

“हँसी आती है । तुम फकसको दीप जलाकर पि हदखलाना चाहती


हो? उसको, क्जसको तुमने भगवान ् मान मलया है ?”
“हाँ, वह भी कभी भटकते हैं, भल
ू ते हैं, नहीं तो, बध
ु गप्ु त को
इतना ऐश्वयश क्यों दे ते?”

“तो बुरा क्या हुआ, इस द्वीप की अधीश्वरी चंपारानी!”

“मझ
ु े इस बंदीगह
ृ से मक्
ु त करो। अब तो बाली, जावा और सम
ु ारा
का वाखणज्य केवल तुम्हारे ही अथधकार में है महानाववक! परन्तु
मुझे उन हदनों की स्त्मनृ त सुहावनी लगती है , जब तुम्हारे पास एक
ही नाव िी और चंपा के उपकूल में पण्य लाद कर हम लोग सुखी
जीवन बबताते िे-इस जल में अगखणत बार हम लोगों की तरी
आलोकमय प्रभात में ताररकाओं की मधुर ज्योनत में -थिरकती िी।
बुधगुप्त! उस ववजन अनन्त में जब माँझी सो जाते िे, दीपक
बुझ जाते िे, हम-तुम पररश्रम से िककर पालों में शरीर लपेटकर
एक-दस
ू रे का मँह
ु क्यों दे खते िे? वह नक्षरों की मधरु छाया.....”

“तो चंपा! अब उससे भी अच्छे ढं ग से हम लोग ववचर सकते हैं।


तुम मेरी प्राणदारी हो, मेरी सवशस्त्व हो।“
“नहीं-नहीं, तुमने दस्त्युववृ ि छोड दी परन्तु हृदय वैसा ही अकरुण,
सतष्ृ ण और ज्वलनशील है । तम
ु भगवान के नाम पर हँसी उडाते
हो। मेरे आकाश-दीप पर व्यंग कर रहे हो। नाववक! उस प्रचण्ड
आँधी में प्रकाश की एक-एक फकरण के मलए हम लोग फकतने
व्याकुल िे। मुझे स्त्मरण है , जब मैं छोटी िी, मेरे वपता नौकरी
पर समद्र
ु में जाते िे-मेरी माता, ममट्टी का दीपक बाँस की वपटारी
में भागीरिी के तट पर बाँस के साि ऊँचे टाँग दे ती िी। उस
समय वह प्रािशना करती-‘भगवान! मेरे पि-रष्ट नाववक को
अन्धकार में ठीक पि पर ले चलना।‘ और जब मेरे वपता बरसों
पर लौटते तो कहते-‘साध्वी! तेरी प्रािशना से भगवान ् ने संकटों में
मेरी रक्षा की है।‘ वह गद्गद हो जाती। मेरी माँ? आह नाववक!
यह उसी की पुण्य-स्त्मनृ त है । मेरे वपता, वीर वपता की मत्ृ यु के
ननष्ठुर कारण, जलदस्त्यु! हट जाओ।“-सहसा चंपा का मुख क्रोध
से भीर्ण होकर रं ग बदलने लगा। महानाववक ने कभी यह रप न
दे खा िा। वह ठठाकर हँस पडा।

“यह क्या, चंपा? तुम अस्त्वस्त्ि हो जाओगी, सो रहो।“-कहता हुआ


चला गया। चंपा मुठ्ठी बाँधे उन्माहदनी-सी घूमती रही।

5
ननजशन समुद्र के उपकूल में वेला से टकरा कर लहरें बबखर जाती
िीं। पक्श्चम का पथिक िक गया िा। उसका मख
ु पीला पड गया।
अपनी शान्त गम्भीर हलचल में जलननथध ववचार में ननमग्न िा।
वह जैसे प्रकाश की उन्ममलन फकरणों से ववरक्त िा।

चंपा और जया धीरे -धीरे उस तट पर आकर खडी हो गईं। तरं ग


से उठते हुए पवन ने उनके वसन को अस्त्त-व्यस्त्त कर हदया।
जया के संकेत से एक छोटी-सी नौका आई। दोनों के उस पर
बैठते ही नाववक उतर गया। जया नाव खेने लगी। चंपा मुग्ध-सी
समुद्र के उदास वातावरण में अपने को ममथश्रत कर दे ना चाहती
िी।

“इतना जल! इतनी शीतलता! हृदय की प्यास न बुझी। पी सकूँगी?


नहीं! तो जैसे वेला में चोट खाकर मसन्धु थचल्ला उठता है , उसी
के समान रोदन करँ? या जलते हुए स्त्वणश-गोलक सदृश अनन्त
जल में डूब कर बझ
ु जाऊँ?”-चंपा के दे खते-दे खते पीडा और ज्वलन
से आरक्त बबम्ब धीरे -धीरे मसन्धु में चौिाई-आधा, फिर सम्पूणश
ववलीन हो गया। एक दीघश ननश्वास लेकर चंपा ने मुँह िेर मलया।
दे खा, तो महानाववक का बजरा उसके पास है । बुधगुप्त ने झुक
कर हाि बढ़ाया। चंपा उसके सहारे बजरे पर चढ़ गयी। दोनों पास-
पास बैठ गए।
“इतनी छोटी नाव पर इधर घम
ू ना ठीक नहीं। पास ही वह जलमग्न
शैल खण्ड है। कहीं नाव टकरा जाती या ऊपर चढ़ जाती, चंपा
तो?”

“अच्छा होता, बध
ु गप्ु त! जल में बंदी होना कठोर प्राचीरों से तो
अच्छा है।“

आह चंपा, तुम फकतनी ननदश य हो! बुधगुप्त को आज्ञा दे कर दे खो


तो, वह क्या नहीं कर सकता। जो तम्
ु हारे मलए नये द्वीप की
सक्ृ ष्ट कर सकता है , नई प्रजा खोज सकता है , नये राज्य बना
सकता है , उसकी परीक्षा लेकर दे खो तो...। कहो, चंपा! वह कृपाण
से अपना हृदय-वपण्ड ननकाल अपने हािों अतल जल में ववसजशन
कर दे ।“ -महानाववक-क्जसके नाम से बाली, जावा और चंपा का
आकाश गँज
ू ता िा, पवन िराशता िा-घट
ु नों के बल चंपा के सामने
छलछलाई आँखों से बैठा िा।

सामने शैलमाला की चोटी पर हररयाली में ववस्त्तत


ृ जल-दे श में ,
नील वपंगल सन्ध्या, प्रकृनत की सहृदय कल्पना, ववश्राम की शीतल
छाया, स्त्वप्नलोक का सज
ृ न करने लगी। उस मोहहनी के रहस्त्यपण
ू श
नीलजाल का कुहक स्त्िुट हो उठा। जैसे महदरा से सारा अन्तररक्ष
मसक्त हो गया। सक्ृ ष्ट नील कमलों में भर उठी। उस सौरभ से
पागल चंपा ने बुधगुप्त के दोनों हाि पकड मलए। वहाँ एक
आमलंगन हुआ, जैसे क्षक्षनतज में आकाश और मसन्धु का। फकन्तु
उस परररम्भ में सहसा चैतन्य होकर चंपा ने अपनी कंचुकी से
एक कृपाण ननकाल मलया।

“बुधगुप्त! आज मैं अपने प्रनतशोध का कृपाण अतल जल में डुबा


दे ती हूँ। हृदय ने छल फकया, बार-बार धोखा हदया!”-चमककर वह
कृपाण समुद्र का हृदय बेधता हुआ ववलीन हो गया।

“तो आज से मैं ववश्वास करँ, क्षमा कर हदया गया?” -


आश्चयशचफकत कंवपत कण्ठ से महानाववक ने पूछा।

‘ववश्वास? कदावप नहीं, बध


ु गप्ु त ! जब मैं अपने हृदय पर ववश्वास
नहीं कर सकी, उसी ने धोखा हदया, तब मैं कैसे कहूँ? मैं तम्
ु हें
घण
ृ ा करती हूँ, फिर भी तुम्हारे मलए मर सकती हूँ। अंधेर है
जलदस्त्यु। तुम्हें प्यार करती हूँ।“ चंपा रो पडी।
वह स्त्वप्नों की रं गीन सन्ध्या, तम से अपनी आँखें बन्द करने
लगी िी। दीघश ननश्वास लेकर महानाववक ने कहा- “इस जीवन की
पुण्यतम घडी की स्त्मनृ त में एक प्रकाश-गह
ृ बनाऊँगा, चंपा! चंपा
यहीं उस पहाडी पर। सम्भव है फक मेरे जीवन की धुंधली सन्ध्या
उससे आलोकपूणश हो जाए।“

चंपा के दस
ू रे भाग में एक मनोरम शैलमाला िी। वह बहुत दरू
तक मसन्धु-जल में ननमग्न िी। सागर का चजचल जल उस पर
उछलता हुआ उसे नछपाए िा। आज उसी शैलमाला पर चंपा के
आहद-ननवामसयों का समारोह िा। उन सबों ने चंपा को वनदे वी-सा
सजाया िा। ताम्रमलक्प्त के बहुत से सैननक नाववकों की श्रेणी में
वन-कुसुम-ववभूवर्ता चंपा मशववकारढ़ होकर जा रही िी।

शैल के एक उँ चे मशखर पर चंपा के नाववकों को सावधान करने


के मलए सुदृढ़ दीप-स्त्तम्भ बनवाया गया िा। आज उसी का
महोत्सव है । बुधगुप्त स्त्तम्भ के द्वार पर खडा िा। मशववका से
सहायता दे कर चंपा को उसने उतारा। दोनों ने भीतर पदापशण फकया
िा फक बाँसरु ी और ढोल बजने लगे। पंक्क्तयों में कुसम
ु -भर्
ू ण से
सजी वन-बालाएँ िूल उछालती हुई नाचने लगीं।
दीप-स्त्तम्भ की ऊपरी खखडक़ी से यह दे खती हुई चंपा ने जया से
पूछा-“यह क्या है जया? इतनी बामलकाएँ कहाँ से बटोर लाईं?”

“आज रानी का ब्याह है न?” -कह कर जया ने हँस हदया।

बध
ु गप्ु त ववस्त्तत
ृ जलननथध की ओर दे ख रहा िा। उसे झकझोर
कर चंपा ने पूछा- “क्या यह सच है ?”

“यहद तुम्हारी इच्छा हो, तो यह सच भी हो सकता है , चंपा!


“फकतने वर्ों से मैं ज्वालामख
ु ी को अपनी छाती में दबाये हूँ।

“चुप रहो, महानाववक! क्या मुझे ननस्त्सहाय और कंगाल जानकर


तुमने आज सब प्रनतशोध लेना चाहा?”

“मैं तम्
ु हारे वपता का घातक नहीं हूँ, चंपा! वह एक दस
ू रे दस्त्यु के
शस्त्र से मरे।“
“यहद मैं इसका ववश्वास कर सकती। बुधगुप्त, वह हदन फकतना
संद
ु र होता, वह क्षण फकतना स्त्पह
ृ णीय! आह! तम
ु इस ननष्ठुरता
में भी फकतने महान होते।“

जया नीचे चली गई िी। स्त्तम्भ के संकीणश प्रकोष्ठ में बुधगुप्त


और चंपा एकांत में एक दस
ू रे के सामने बैठे िे।

बुधगुप्त ने चंपा के पैर पकड मलए। उच््वमसत शब्दों में वह कहने


लगा-चंपा, हम लोग जन्मभूमम-भारतवर्श से फकतनी दरू इन ननरीह
प्राखणयों में इन्द्र और शची के समान पूक्जत हैं। पर न जाने कौन
अमभशाप हम लोगों को अभी तक अलग फकये है । स्त्मरण होता है
वह दाशशननकों का दे श! वह महहमा की प्रनतमा! मुझे वह स्त्मनृ त
ननत्य आकवर्शत करती है ; परन्तु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो,
इतना महत्त्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल हूँ! मेरा पत्िर-सा
हृदय एक हदन सहसा तम्
ु हारे स्त्पशश से चन्द्रकान्तमखण की तरह
द्रववत हुआ।

“चंपा! मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दया
को नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में ववश्वास नहीं करता। पर
मझ
ु े अपने हृदय के एक दब
ु ल
श अंश पर श्रद्धा हो चली है । तम

न जाने कैसे एक बहकी हुई ताररका के समान मेरे शून्य में उहदत
हो गई हो। आलोक की एक कोमल रे खा इस ननववडतम में
मस्त्
ु कराने लगी। पशु-बल और धन के उपासक के मन में फकसी
शान्त और एकान्त कामना की हँसी खखलखखलाने लगी; पर मैं न
हँस सका!

“चलोगी चंपा? पोतवाहहनी पर असंख्य धनरामश लाद कर राजरानी-


सी जन्मभमू म के अंक में ? आज हमारा पररणय हो, कल ही हम
लोग भारत के मलए प्रस्त्िान करें । महानाववक बुधगुप्त की आज्ञा
मसन्धु की लहरें मानती हैं। वे स्त्वयं उस पोत-पुजज को दक्षक्षण
पवन के समान भारत में पहुँचा दें गी। आह चंपा! चलो।“

चंपा ने उसके हाि पकड मलए। फकसी आकक्स्त्मक झटके ने एक


पलभर के मलऐ दोनों के अधरों को ममला हदया। सहसा चैतन्य
होकर चंपा ने कहा- “बुधगुप्त! मेरे मलए सब भूमम ममट्टी है ; सब
जल तरल है; सब पवन शीतल है । कोई ववशेर् आकांक्षा हृदय में
अक्ग्न के समान प्रज्वमलत नहीं। सब ममलाकर मेरे मलए एक शन्
ू य
है । वप्रय नाववक! तुम स्त्वदे श लौट जाओ, ववभवों का सुख भोगने
के मलए, और मुझे, छोड दो इन ननरीह भोले-भाले प्राखणयों के द:ु ख
की सहानुभूनत और सेवा के मलए।“
“तब मैं अवश्य चला जाऊँगा, चंपा! यहाँ रहकर मैं अपने हृदय पर
अथधकार रख सकँू -इसमें सन्दे ह है । आह! उन लहरों में मेरा
ववनाश हो जाय।“ -महानाववक के उच््वास में ववकलता िी। फिर
उसने पूछा- “तुम अकेली यहाँ क्या करोगी?”

“पहले ववचार िा फक कभी-कभी इस दीप-स्त्तम्भ पर से आलोक


जला कर अपने वपता की समाथध का इस जल से अन्वेर्ण करँगी।
फकन्तु दे खती हूँ, मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाश-दीप।“

एक हदन स्त्वणश-रहस्त्य के प्रभात में चंपा ने अपने दीप-स्त्तम्भ पर


से दे खा- सामुहद्रक नावों की एक श्रेणी चंपा का उपकूल छोडकर
पक्श्चम-उिर की ओर महा जल-व्याल के समान सन्तरण कर रही
है । उसकी आँखों से आँसू बहने लगे।

यह फकतनी ही शताक्ब्दयों पहले की किा है । चंपा आजीवन उस


दीप-स्त्तम्भ में आलोक जलाती रही। फकन्तु उसके बाद भी बहुत
हदन, दीपननवासी, उस माया-ममता और स्त्नेह-सेवा की दे वी की
समाथध-सदृश पज
ू ा करते िे।
एक हदन काल के कठोर हािों ने उसे भी अपनी चजचलता से
थगरा हदया।

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