Professional Documents
Culture Documents
'Akashdeep kahani'
'Akashdeep kahani'
जयशंकर प्रसाद
“बंदी!”
“शस्त्र ममलेगा?”
“हाँ।“
समुद्र में हहलोरें उठने लगीं। दोनों बंदी आपस में टकराने लगे।
पहले बंदी ने अपने को स्त्वतंर कर मलया। दस
ू रे का बंधन खोलने
का प्रयत्न करने लगा। लहरों के धक्के एक-दस
ू रे को स्त्पशश से
पुलफकत कर रहे िे। मुक्क्त की आशा-स्त्नेह का असंभाववत
आमलंगन। दोनों ही अंधकार में मुक्त हो गए। दस
ू रे बंदी ने
हर्ाशनतरे क से उसको गले से लगा मलया। सहसा उस बंदी ने कहा-
“यह क्या? तम
ु स्त्री हो?”
“क्या स्त्री होना कोई पाप है ?” -अपने को अलग करते हुए स्त्री
ने कहा।
“चंपा।“
बध
ु गप्ु त ने कहा- “बोलो, अब स्त्वीकार है फक नहीं?”
चंपा ने यव
ु क जलदस्त्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी
क्स्त्नग्ध दृक्ष्ट और कोमल करों से वेदना ववहीन कर हदया। बुधगुप्त
के सुगहठत शरीर पर रक्त-बबन्द ु ववजय-नतलक कर रहे िे।
ववश्राम लेकर बध
ु गप्ु त ने पछ
ू ा “हम लोग कहाँ होंगे?”
“तुम्हारा घर कहाँ है ?”
“जाह्नवी के तट पर। चंपा-नगरी की एक क्षबरय बामलका हूँ। वपता
इसी मखणभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते िे। माता का दे हावसान
हो जाने पर मैं भी वपता के साि नाव पर ही रहने लगी। आठ
बरस से समद्र
ु ही मेरा घर है । तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे वपता
ने ही सात दस्त्यओ
ु ं को मारकर जल-समाथध ली। एक मास हुआ,
मैं इस नील नभ के नीचे, नील जलननथध के ऊपर, एक भयानक
अनंतता में ननस्त्सहाय हूँ, अनाि हूँ। मखणभद्र ने मुझसे एक हदन
घखृ णत प्रस्त्ताव फकया। मैंने उसे गामलयाँ सुनाईं। उसी हदन से बंदी
बना दी गई।“ -चंपा रोर् से जल रही िी।
उसी समय नायक ने कहा- “हम लोग द्वीप के पास पहुँच गए।“
शरद के धवल नक्षर नील गगन में झलमला रहे िे। चंद्र की
उज्ज्वल ववजय पर अंतररक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीवाशद के िूलों
और खीलों को बबखेर हदया।
चंपा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरुणी चंपा दीपक जला रही
िी। बडे यत्न से अरक की मजजूर्ा में दीप धरकर उसने अपनी
सुकुमार उँ गमलयों से डोरी खींची। वह दीपाधार ऊपर चढऩे लगा।
भोली-भोली आँखें उसे ऊपर चढ़ते बडे हर्श से दे ख रही िीं। डोरी
धीरे -धीरे खींची गई। चंपा की कामना िी फक उसका आकाश-दीप
नक्षरों से हहलममल जाए; फकंतु वैसा होना असंभव िा। उसने
आशाभरी आँखें फिरा लीं।
दरू ागत पवन चंपा के अजचल में ववश्राम लेना चाहता िा। उसके
हृदय में गुदगुदी हो रही िी। आज न जाने क्यों वह बेसुध िी।
वह दीघशकाल दृढ़ पुरुर् ने उसकी पीठ पर हाि रख चमत्कृत कर
हदया। उसने फिरकर कहा-“बुधगुप्त!”
“बावली हो क्या? यहाँ बैठी हुई अभी तक दीप जला रही हो, तुम्हें
यह काम करना है?”
“मझ
ु े इस बंदीगह
ृ से मक्
ु त करो। अब तो बाली, जावा और सम
ु ारा
का वाखणज्य केवल तुम्हारे ही अथधकार में है महानाववक! परन्तु
मुझे उन हदनों की स्त्मनृ त सुहावनी लगती है , जब तुम्हारे पास एक
ही नाव िी और चंपा के उपकूल में पण्य लाद कर हम लोग सुखी
जीवन बबताते िे-इस जल में अगखणत बार हम लोगों की तरी
आलोकमय प्रभात में ताररकाओं की मधुर ज्योनत में -थिरकती िी।
बुधगुप्त! उस ववजन अनन्त में जब माँझी सो जाते िे, दीपक
बुझ जाते िे, हम-तुम पररश्रम से िककर पालों में शरीर लपेटकर
एक-दस
ू रे का मँह
ु क्यों दे खते िे? वह नक्षरों की मधरु छाया.....”
5
ननजशन समुद्र के उपकूल में वेला से टकरा कर लहरें बबखर जाती
िीं। पक्श्चम का पथिक िक गया िा। उसका मख
ु पीला पड गया।
अपनी शान्त गम्भीर हलचल में जलननथध ववचार में ननमग्न िा।
वह जैसे प्रकाश की उन्ममलन फकरणों से ववरक्त िा।
“अच्छा होता, बध
ु गप्ु त! जल में बंदी होना कठोर प्राचीरों से तो
अच्छा है।“
चंपा के दस
ू रे भाग में एक मनोरम शैलमाला िी। वह बहुत दरू
तक मसन्धु-जल में ननमग्न िी। सागर का चजचल जल उस पर
उछलता हुआ उसे नछपाए िा। आज उसी शैलमाला पर चंपा के
आहद-ननवामसयों का समारोह िा। उन सबों ने चंपा को वनदे वी-सा
सजाया िा। ताम्रमलक्प्त के बहुत से सैननक नाववकों की श्रेणी में
वन-कुसुम-ववभूवर्ता चंपा मशववकारढ़ होकर जा रही िी।
बध
ु गप्ु त ववस्त्तत
ृ जलननथध की ओर दे ख रहा िा। उसे झकझोर
कर चंपा ने पूछा- “क्या यह सच है ?”
“मैं तम्
ु हारे वपता का घातक नहीं हूँ, चंपा! वह एक दस
ू रे दस्त्यु के
शस्त्र से मरे।“
“यहद मैं इसका ववश्वास कर सकती। बुधगुप्त, वह हदन फकतना
संद
ु र होता, वह क्षण फकतना स्त्पह
ृ णीय! आह! तम
ु इस ननष्ठुरता
में भी फकतने महान होते।“
“चंपा! मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दया
को नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में ववश्वास नहीं करता। पर
मझ
ु े अपने हृदय के एक दब
ु ल
श अंश पर श्रद्धा हो चली है । तम
ु
न जाने कैसे एक बहकी हुई ताररका के समान मेरे शून्य में उहदत
हो गई हो। आलोक की एक कोमल रे खा इस ननववडतम में
मस्त्
ु कराने लगी। पशु-बल और धन के उपासक के मन में फकसी
शान्त और एकान्त कामना की हँसी खखलखखलाने लगी; पर मैं न
हँस सका!