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'Kanom mein kangana'
'Kanom mein kangana'
किरन अभी भोरी थी। दनु नया में जिसे भोरी िहते हैं, वैसी भोरी
नहीं। उसे वन िे फलों िा भोलापन समझो। नवीन चमन िे फलों
िी भंगी नहीं; ववववध खाद या रस से जिनिी िीवविा है , ननरन्तर
िाट-छाँट से जिनिा सौन्दयय है , िो दो घडी चंचल चचिने बाल
िी भषा है – दो घडी तुम्हारे फलदान िी शोभा। वन िे फल ऐसे
नहीं। प्रिृनत िे हाथों से लगे हैं। मेघों िी धारा से बढे हैं। चटुल
दृजटट इन्हें पाती नहीं। िगद्वायु इन्हें छती नहीं। यह सरल सन्
ु दर
सौरभमय िीवन हैं। िब िीववत रहे , तब चारों तरफ अपने प्राणधन
से हरे -भरे रहे, िब समय आया, तब अपनी माँ िी गोद में झड
पडे।
एि ददन था कि इसी दनु नया में दनु नया से दर रहिर लोग दसरी
दनु नया िा सख
ु उठाते थे। हररचन्दन िे पल्ललवों िी छाया भलोि
पर िहाँ ममले; लेकिन किसी समय हमारे यहाँ भी ऐसे वन थे,
जिनिे वक्ष
ृ ों िे साये में घडी ननवारने िे मलए स्वगय से दे वता भी
उतर आते थे। जिस पंचवटी िा अनन्त यौवन दे खिर राम िी
आँखें भी झखल उठी थीं वहाँ िे ननवामसयों ने िभी अमरतरु िे
फलों िी माला नहीं चाही, मन्दाकिनी िे छींटों िी शीतलता नहीं
ढँ ढी। नन्दनोपवन िा सानी िहीं वन भी था! िल्लपवक्ष
ृ िी छाया
में शाजन्त अवश्य है; लेकिन िदम िी छदहयाँ िहाँ ममल सिती।
हमारी-तुम्हारी आँखों ने िभी नन्दनोत्सव िी लीला नहीं दे खी;
लेकिन इसी भतल पर एि ददन ऐसा उत्सव हो चुिा है , जिसिो
दे ख-दे खिर प्रिृनत तथा रिनी छह महीने ति ठगी रहीं, शत-शत
दे वांगनाओं ने पाररिात िे फलों िी वषाय से नन्दन िानन िो
उिाड डाला।
िंिडी िल में िािर िोई स्थायी वववर नहीं फोड सिती। क्षण
भर िल िा समतल भले ही उलट-पल
ु ट हो, लेकिन इधर-उधर से
िलतरं ग दौडिर उस नछर िा नाम-ननशान भी नहीं रहने दे ती।
िगत िी भी यही चाल है । यदद स्वगय से दे वेन्र भी आिर इस
लोि चलाचल में खडे हों, कफर संसार दे खते ही दे खते उन्हें अपना
बना लेगा। इस िाली िोठरी में आिर इसिी िामलमा से बचे
रहें , ऐसी शजक्त अब आिाश-िुसम
ु ही समझो। दो ददन में राम
‘हाय िानिी, हाय िानिी’ िहिर वन-वन डोलते कफरे । दो क्षण
में यही ववश्वाममत्र िो भी स्वगय से घसीट लाया।
किरन िी भी यही अवस्था हुई। िहाँ प्रिृनत िी ननमक्
ुय त गोद,
िहाँ िगत िा िदटल बन्धन-पाश। िहाँ से िहाँ आ पडी! वह
अलौकिि भोलापन, वह ननसगय उच््वास – हाथों-हाथ लुट गये।
उस वनफल िी ववमल िाजन्त लौकिि चमन िी मायावी
मनोहाररता में पररणत हुई। अब आँखें उठािर आिाश से नीरव
बातचीत िरने िा अवसर िहाँ से ममले? मलयवायु से ममलिर
मलयाचल िे फलों िी पछताछ क्योंिर हो?
आँखें मख
ु पर िा पडीं – वहीं िंगन थे। वैसे ही िानों िो घेरिर
बैठे थे। मेरी स्मनृ त तडडत वेग से नाच उठी। दटु यन्त ने अँगठी
पहचान ली। भली शिुन्तला उस पल याद आ गई; लेकिन दटु यन्त
सौभाग्यशाली थे, चक्रवती रािा थे – अपनी प्राणवप्रया िो आिाश-
पाताल छानिर ढँ ढ ननिाला। मेरी किरन तो इस भतल पर न थी
कि किसी तरह प्राण दे िर भी पता पाता। परलोि से ढँ ढ ननिालँ
– ऐसी शजक्त इस दीन-हीन मानव में िहाँ?
चढा नशा उतर पडा। सारी बातें सझ गईं – आँखों पर िी पट्टी
खल
ु पडी; लेकिन हाय! खल
ु ी भी तो उसी समय िब िीवन में
िेवल अन्धिार ही रह गया ।