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कानों में कँगना

राजा राधिकारमण प्रसाद ससिंह

“किरन! तुम्हारे िानों में क्या है ?”

उसिे िानों से चंचल लट िो हटािर िहा – “िँगना।“

“अरे ! िानों में िँगना?” सचमुच दो िंगन िानों िो घेरिर बैठे


थे।

“हाँ, तब िहाँ पहनँ?”

किरन अभी भोरी थी। दनु नया में जिसे भोरी िहते हैं, वैसी भोरी
नहीं। उसे वन िे फलों िा भोलापन समझो। नवीन चमन िे फलों
िी भंगी नहीं; ववववध खाद या रस से जिनिी िीवविा है , ननरन्तर
िाट-छाँट से जिनिा सौन्दयय है , िो दो घडी चंचल चचिने बाल
िी भषा है – दो घडी तुम्हारे फलदान िी शोभा। वन िे फल ऐसे
नहीं। प्रिृनत िे हाथों से लगे हैं। मेघों िी धारा से बढे हैं। चटुल
दृजटट इन्हें पाती नहीं। िगद्वायु इन्हें छती नहीं। यह सरल सन्
ु दर
सौरभमय िीवन हैं। िब िीववत रहे , तब चारों तरफ अपने प्राणधन
से हरे -भरे रहे, िब समय आया, तब अपनी माँ िी गोद में झड
पडे।

आिाश स्वचछ था – नील, उदार सन्


ु दर। पत्ते शान्त थे। सन््या
हो चली थी। सुनहरी किरनें सुदर पवयत िी चडा से दे ख रही थीं।
वह पतली किरन अपनी मत्ृ यु-शैया से इस शन्य ननववड िानन में
क्या ढँ ढ रही थी, िौन िहे ! किसे एिटि दे खती थी, िौन िाने!
अपनी लीला-भमम िो स्नेह िरना चाहती थी या हमारे बाद वहाँ
क्या हो रहा है , इसे िोहती थी – मैं क्या बता सिँ ? िो हो, उसिी
उस भंगी में आिांक्षा अवश्य थी। मैं तो खडा-खड उन बडी आँखों
िी किरन लटता था। आिाश में तारों िो दे खा या उन िगमग
आँखों िो दे खा, बात एि ही थी। हम दर से तारों िे सन्
ु दर शन्य
झझिममि िो बार-बार दे खते हैं, लेकिन वह सस्पन्द ननश्चेटट
ज्योनत सचमुच भावहीन है या आप-ही-आप अपनी अन्तर-लहरी
से मस्त है, इसे िानना आसान नहीं। हमारी ऐसी आँखें िहाँ कि
उनिे सहारे उस ननगढ अन्तर में डबिर थाह लें।
मैं रसाल िी डोली थामिर पास ही खडा था। वह बालों िो हटािर
िंगन ददखाने िी भंगी प्राणों में रह-रहिर उठती थी। िब माखन
चुराने वाले ने गोवपयों िे सर िे मटिे िो तोडिर उनिे भीतर
किले िो तोड डाला या नर-िहाँ ने अंचल से िबतर िो उडािर
शाहंशाह िे िठोर हृदय िी धजज्ियाँ उडा दीं, कफर नदी िे किनारे
बसन्त-बल्लल्लभ रसाल पल्ललवों िी छाया में बैठी किसी अपरूप
बामलिा िी यह सरल जस्नग्ध भंचगमा एि मानव-अन्तर पर क्यों
न दौडे।

किरन इन आँखों िे सामने प्रनतददन आती ही िाती थी। िभी


आम िे दटिोरे से आँचल भर लाती, िभी मौलमसरी िे फलों िी
माला बना लाती, लेकिन िभी भी ऐसी बाल-सुलभ लीला आँखों
से होिर हृदय ति नहीं उतरी। आि क्या था, िौन शुभ या
अशुभ क्षण था कि अचानि वह बनैली लता मंदार माला से भी
िहीं मनोरम दीख पडी। िौन िानता था कि चाल से िुचाल िाने
में – हाथों से िंगन भलिर िानों में पदहनने में – इतनी माधरु ी
है । दो टिे िे िँगने में इतनी शजक्त है। गोवपयों िो िभी स्वप्न
में भी नहीं झलिा था कि बाँस िी बाँसरु ी में घँघट खोलिर नचा
दे नेवाली शजक्त भरी है।
मैंने चटपट उसिे िानों से िंगन उतार मलया। कफर धीरे -धीरे
उसिी उँ गमु लयों पर चढाने लगा। न िाने उस घडी िैसी खलबली
थी। मुँह से अचानि ननिल आया –

“किरन! आि िी यह घटना मुझे मरते दम ति न भलेगी। यह


भीतर ति पैठ गई।“

उसिी बडी-बडी आँखें और भी बडी हो गईं। मुझे चोट-सी लगी।


मैं तत्क्षण योगीश्वर िी िुटी िी तरफ चल ददया। प्राण भी उसी
समय नहीं चल ददये, यही ववस्मय था।

एि ददन था कि इसी दनु नया में दनु नया से दर रहिर लोग दसरी
दनु नया िा सख
ु उठाते थे। हररचन्दन िे पल्ललवों िी छाया भलोि
पर िहाँ ममले; लेकिन किसी समय हमारे यहाँ भी ऐसे वन थे,
जिनिे वक्ष
ृ ों िे साये में घडी ननवारने िे मलए स्वगय से दे वता भी
उतर आते थे। जिस पंचवटी िा अनन्त यौवन दे खिर राम िी
आँखें भी झखल उठी थीं वहाँ िे ननवामसयों ने िभी अमरतरु िे
फलों िी माला नहीं चाही, मन्दाकिनी िे छींटों िी शीतलता नहीं
ढँ ढी। नन्दनोपवन िा सानी िहीं वन भी था! िल्लपवक्ष
ृ िी छाया
में शाजन्त अवश्य है; लेकिन िदम िी छदहयाँ िहाँ ममल सिती।
हमारी-तुम्हारी आँखों ने िभी नन्दनोत्सव िी लीला नहीं दे खी;
लेकिन इसी भतल पर एि ददन ऐसा उत्सव हो चुिा है , जिसिो
दे ख-दे खिर प्रिृनत तथा रिनी छह महीने ति ठगी रहीं, शत-शत
दे वांगनाओं ने पाररिात िे फलों िी वषाय से नन्दन िानन िो
उिाड डाला।

समय ने सब िुछ पलट ददया। अब ऐसे वन नहीं, िहाँ िृटण


गोलोि से उतरिर दो घडी वंशी िी टे र दें । ऐसे िुटीर नहीं जिनिे
दशयन से रामचन्र िा भी अन्तर प्रसन्न हो, या ऐसे मन
ु ीश नहीं
िो धमयधुरन्धर धमयराि िो भी धमय में मशक्षा दें । यदद एि-दो
भले-भटिे हों भी, तब अभी ति उन पर दनु नया िा परदा नहीं
उठा – िगन्माया िी माया नहीं लगी। लेकिन वे िब ति बचे
रहें गे? लोि अपने यहाँ अलौकिि बातें िब ति होने दे गा!
भवसागर िी िल-तरं गों पर चथर होना िब सम्भव है ?

हृषीिेश िे पास एि सुन्दर वन है ; सुन्दर नहीं अपरूप सुन्दर है ।


वह प्रमोदवन िे ववलास-ननिंु िों िैसा सुन्दर नहीं, वरं च चचत्रिट
या पंचवटी िी मदहमा से मजडडत है । वहाँ चचिनी चाँदनी में
बैठिर िनि घुँघरू िी इच्छा नहीं होती, वरं च प्राणों में एि ऐसी
आवेश-धारा उठती है , िो िभी अनन्त साधना िे िल पर पहुँचाती
है – िभी िीव-िगत िे एि-एि तत्व से दौड ममलती है। गंगा
िी अनन्त गररमा – वन िी ननववड योग ननरा वहीं दे ख पडेगी।
िौन िहे, वहाँ िािर यह चंचल चचत्त क्या चाहता है – गम्भीर
अलौकिि आनन्द या शान्त सुन्दर मरण।

इसी वन में एि िुटी बनािर योगीश्वर रहते थे। योगीश्वर


योगीश्वर ही थे। यद्दावप वह भतल ही पर रहते थे, तथावप उन्हें
इस लोग िा िीव िहना यथाथय नहीं था। उनिी चचत्तववृ त्त सरस्वती
िे श्रीचरणों में थी या ब्रह्मलोि िी अनन्त शाजन्त में मलपटी थी।
और वह बामलिा – स्वगय से एि रजश्म उतरिर उस घने िंगल
में उिेला िरती कफरती थी। वह लौकिि मायाबद्ध िीवन नहीं
था। इसे बन्धन-रदहत बाधाहीन नाचती किरनों िी लेखा िदहए –
मानो ननमक्
ुय त चंचल मलय वायु फल-फल पर, डाली-डाली पर
डोलती कफरती हो या िोई मनतयमान अमर संगीत बेरोिटोि हवा
पर या िल िी तरंग-भंग पर नाच रहा हो। मैं ही वहाँ इस लोग
िा प्रनतननचध था। मैं ही उन्हें उनिी अलौकिि जस्थनत से इस
िदटल मत्यय-राज्य में खींच लाता था।

िुछ साल से मैं योगीश्वर िे यहाँ आता-िाता था। वपता िी आज्ञा


थी कि उनिे यहाँ िािर अपने धमय िे सब ग्रन्थ पढ डालो।
योगीश्वर और बाबा लडिपन िे साथी थे। इसीमलए उनिी मुझ
पर इतनी दया थी। किरन उनिी लडिी थी। उस िुटीर में एि
वही दीपि थी। जिस ददन िी घटना मैं मलख आया हँ, उसी ददन
सबेरे मेरे अ्ययन िी पणायहुनत थी और बाबा िे िहने पर एि
िोडा पीताम्बर, पाँच स्वणयमुराएँ तथा किरन िे मलए दो िनि-
िंगन आचायय िे ननिट ले गया था। योगीश्वर ने सब लौटा ददये,
िेवल िंगन िो किरन उठा ले गई।

वह क्या समझिर चुप रह गये। समय िा अद्भुत चक्र है । जिस


ददन मैंने धमयग्रन्थ से मुँह मोडा, उसी ददन िामदे व ने वहाँ िािर
उनिी किताब िा पहला सफा उलटा।

दसरे ददन मैं योगीश्वर से ममलने गया। वह किरन िो पास बबठा


िर न िाने क्या पढा रहे थे। उनिी आँखें गम्भीर थीं। मुझिो
दे खते ही वह उठ पडे और मेरे िन्धों पर हाथ रखिर गदगद स्वर
से बोले – “नरे न्र! अब मैं चला, किरन तम्
ु हारे हवाले है ।“ यह
िहिर किसी िी सुिोमल उँ गुमलयाँ मेरे हाथों में रख दीं। लोचनों
िे िोने पर दो बँदें ननिलिर झाँि पडीं। मैं सहम उठा। क्या उन
पर सब बातें ववददत थीं? क्या उनिी तीव्र दृजटट मेरी अन्तर-लहरी
ति डब चि
ु ी थी? वह ठहरे नहीं, चल ददये। मैं िाँपता रह गया,
किरन दे खती रह गई।
सन्नाटा छा गया। वन-वायु भी चप
ु हो चली। हम दोनों भी चप

चल पडे, किरन मेरे िन्धे पर थी। हठात अन्तर से िोई अिडिर
िह उठा – “हाय नरे न्र! यह क्या! तुम इस वनफल िो किस
चमन में ले चले? इस बन्धन-ववहीन स्वगीय िीवन िो किस
लोििाल में बाँधने चले?”

िंिडी िल में िािर िोई स्थायी वववर नहीं फोड सिती। क्षण
भर िल िा समतल भले ही उलट-पल
ु ट हो, लेकिन इधर-उधर से
िलतरं ग दौडिर उस नछर िा नाम-ननशान भी नहीं रहने दे ती।
िगत िी भी यही चाल है । यदद स्वगय से दे वेन्र भी आिर इस
लोि चलाचल में खडे हों, कफर संसार दे खते ही दे खते उन्हें अपना
बना लेगा। इस िाली िोठरी में आिर इसिी िामलमा से बचे
रहें , ऐसी शजक्त अब आिाश-िुसम
ु ही समझो। दो ददन में राम
‘हाय िानिी, हाय िानिी’ िहिर वन-वन डोलते कफरे । दो क्षण
में यही ववश्वाममत्र िो भी स्वगय से घसीट लाया।
किरन िी भी यही अवस्था हुई। िहाँ प्रिृनत िी ननमक्
ुय त गोद,
िहाँ िगत िा िदटल बन्धन-पाश। िहाँ से िहाँ आ पडी! वह
अलौकिि भोलापन, वह ननसगय उच््वास – हाथों-हाथ लुट गये।
उस वनफल िी ववमल िाजन्त लौकिि चमन िी मायावी
मनोहाररता में पररणत हुई। अब आँखें उठािर आिाश से नीरव
बातचीत िरने िा अवसर िहाँ से ममले? मलयवायु से ममलिर
मलयाचल िे फलों िी पछताछ क्योंिर हो?

िब किशोरी नये साँचे में ढलिर उतरी, उसे पहचानना भी िदठन


था। वह अब लाल चोली, हरी साडी पहनिर, सर पर मसन्दर-रे खा
सिती और हाथों िे िंगन, िानों िी बाली, गले िी िडठी तथा
िमर िी िरधनी – ददन-ददन उसिे चचत्त िो नचाये मारती थी।
िब िभी वह सिधििर चाँदनी में िोठे पर उठती और वसन्तवायु
उसिे आँचल से मोनतया िी लपट लािर मेरे बरामदे में भर दे ता,
कफर किसी मतवाली माधरु ी या तीव्र मददरा िे नशे में मेरा
मजस्तटि घम िाता और मैं चटपट अपना प्रेम चीत्िार फलदार
रं गीन चचट्ठी में भरिर िुही िे हाथ ऊपर भेिवाता या बािार से
दौडिर िटिी गहने वा ववलायती चडी खरीद लाता। लेकिन िो
हो – अब भी िभी-िभी उसिे प्रफुल्लल वदन पर उस अलोि-
आलोि िी छटा पवयिन्म िी सख
ु स्मनृ तवत चली आती थी, और
आँखें उसी िीवन्त सुन्दर झझिममि िा नाि ददखाती थीं। िब
अन्तर प्रसन्न था, कफर बाहरी चेटटा पर प्रनतबबम्ब क्यों न पडे।
यों ही साल-दो-साल मरु ादाबाद में िट गये। एि ददन मोहन िे
यहाँ नाच दे खने गया। वहीं किन्नरी से आँखें ममलीं, ममलीं क्या,
लीन हो गईं। नवीन यौवन, िोकिल-िडठा, चतुर चंचल चेटटा तथा
मायावी चमि – अब चचत्त िो चलाने िे मलए और क्या चादहए।
किन्नरी सचमच
ु किन्नरी ही थी नाचनेवाली नहीं, नचानेवाली थी।
पहली बार दे खिर उसे इस लोि िी सन्
ु दरी समझना दस्
ु तर था।
एि लपट िो लगती – किसी नशा-सी चढ िाती। यारों ने मुझे
और भी चढा ददया। आँखें ममलती-ममलती ममल गईं, हृदय िो भी
साथ-साथ घसीट ले गईं।

कफर क्या था – इतने ददनों िी धमयमशक्षा, शतवत्सर िी पज्य


लक्ष्मी, बाप-दादों िी िुल-प्रनतटठा, पत्नी से पववत्र-प्रेम एि-एि
िरिे उस प्रतीप्त वासना-िुडड में भस्म होने लगे। अजग्न और
भी बढती गई। किन्नरी िी चचिनी दृजटट, चचिनी बातें घी बरसाती
रहीं। घर-बार सब िल उठा। मैं भी ननरन्तर िलने लगा, लेकिन
ज्यों-ज्यों िलता गया, िलने िी इच्छा िलाती रही।

पाँच महीने िट गये – नशा उतरा नहीं। बनारसी साडी, पारसी


िैिेट, मोती िा हार, िटिी िणयफल – सब िुछ लािर उस
मायािारी िे अलक्ति-रं जित चरणों पर रखे। किरन हे मन्त िी
मालती बनी थी, जिस पर एि फल नहीं – एि पल्ललव नहीं। घर
िी वध क्या िरती? िो अनन्त सत्र से बँधा था, िो अनंत िीवन
िा संगी था, वही हाथों-हाथ पराये िे हाथ बबि गया – कफर ये
तो दो ददन िे चिमिी झखलौने थे, इन्हें शरीर बदलते क्या दे र
लगे। ददन भर बहानों िी माला गँथ-गँथ किरन िे गले में और
शाम िो मोती िी माला उस नाचनेवाली िे गले में सशंि ननलयज्ि
डाल दे ना – यही मेरा िीवन ननवायह था। एि ददन सारी बातें खल

गईं, किरन पछाड खािर भमम पर िा पडी। उसिी आँखों में आँस
न थे, मेरी आँखों में दया न थी।

बरसात िी रात थी। ररमझझम बँदों िी झडी थी। चाँदनी मेघों से


आँख-मुँदौवल खेल रही थी। बबिली िाले िपाट से बार-बार झाँिती
थी। किसे चंचला दे खती थी तथा बादल किस मरोड से रह-रहिर
चचल्ललाते थे – इन्हें सोचने िा मुझे अवसर नहीं था। मैं तो किन्नरी
िे दरवािे से हताश लौटा था; आँखों िे ऊपर न चाँदनी थी, न
बदली थी। बत्रशंिु ने स्वगय िो िाते-िाते बीच में ही टँ गिर किस
दख
ु िो उठाया – और मैं तो अपने स्वगय िे दरवािे पर सर
रखिर ननराश लौटा था – मेरी वेदना क्यों न बडी हो।

हाय! मेरी अँगमु लयों में एि अँगठी भी रहती तो उसे निर िर


उसिे चरणों पर लोटता।
घर पर आते ही िह
ु ी िो पि
ु ार उठा – “िह
ु ी, किरन िे पास िुछ
भी बचा हो तब फौरन िािर माँग लाओ।“

ऊपर से िोई आवाि नहीं आई, िेवल सर िे ऊपर से एि िाला


बादल िालान्त चीत्िार िे चचल्लला उठा। मेरा मजस्तटि घम गया।
मैं तत्क्षण िोठे पर दौडा।

सब सन्दि झाँिे, िो िुछ ममला, सब तोड डाला; लेकिन ममला


िुछ भी नहीं। आलमारी में िेवल मिडे िा िाल था। श्रग
ं ृ ार बक्स
में एि नछपिली बैठी थीं। उसी दम किरन पर झपटा।

पास िाते ही सहम गया। वह एि तकिये िे सहारे नन:सहाय


ननस्पंद लेटी थी – िेवल चाँद ने झखडिी से होिर उसे गोद में ले
रखा था और वायु उस शरीर पर िल से मभगोया पंखा झल रही
थी। मख
ु पर एि अपरूप छटा थी; िौन िहे , िहीं िीवन िी शेष
रजश्म क्षण-भर वहीं अटिी हो। आँखों में एि िीवन ज्योनत थी।
शायद प्राण शरीर से ननिलिर किसी आसरे से वहाँ पैठ रहा था।
मैं कफर पुिार उठा – “किरन, किरन। तुम्हारे पास िोई गहना भी
रहा है?”
“हाँ,” – क्षीण िडठ िी िािली थी।

“िहाँ हैं, अभी दे खने दो।“

उसने धीरे से घँघट सरिा िर िहा – वही िानों िा िँगना।

सर तकिये से ढल पडा – आँखें भी झझप गईं। वह िीवन्त रे खा


िहाँ चली गई – क्या इतने ही िे मलए अब ति ठहरी थी?

आँखें मख
ु पर िा पडीं – वहीं िंगन थे। वैसे ही िानों िो घेरिर
बैठे थे। मेरी स्मनृ त तडडत वेग से नाच उठी। दटु यन्त ने अँगठी
पहचान ली। भली शिुन्तला उस पल याद आ गई; लेकिन दटु यन्त
सौभाग्यशाली थे, चक्रवती रािा थे – अपनी प्राणवप्रया िो आिाश-
पाताल छानिर ढँ ढ ननिाला। मेरी किरन तो इस भतल पर न थी
कि किसी तरह प्राण दे िर भी पता पाता। परलोि से ढँ ढ ननिालँ
– ऐसी शजक्त इस दीन-हीन मानव में िहाँ?
चढा नशा उतर पडा। सारी बातें सझ गईं – आँखों पर िी पट्टी
खल
ु पडी; लेकिन हाय! खल
ु ी भी तो उसी समय िब िीवन में
िेवल अन्धिार ही रह गया ।

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