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100 उपदेश विषय-सा हि त् य से (प्रत्येक के साथ 10 उप-बिं दु ए वं छं द)

1. भगवान का प्रेम (परमेश्वर का प्रेम):

भगवान का प्रेम सभी मनुष्यों के लिए है (यूहन्ना 3:16)।

उनका प्रेम बिना शर्त और अपरमिट है (रोमियों 8:38-39)।

हम ईश्वर के प्रेम का अनुभव उसके द्वारा बताये गये ईसा मसीह के माध्यम से कर सकते हैं (1 यूहन्ना
4:9-10)।

2. विश्वास का महत्व (Vishwas ka mahatv):

ईश्वर पर विश्वास करना और उसकी परिभाषा में विश्वास रखना है (इब्रानियों 11:1)।

अनुग्रह के द्वारा और विश्वास के द्वारा ही दर्शाया गया है (इफिसियों 2:8)।

मसीह में हमारा विश्वास हमें एक नया जीवन जीने और भगवान की इच्छा को पूरा करने की शक्ति देता
है (गलतियों 5:6)।

3. प्रार्थना की शक्ति (प्रार्थना की शक्ति):

प्रार्थना भगवान से बात करने और उसके आदर्श समर्थकों का तरीका है (मत्ती 6:9-13)।

भगवान हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देते हैं (यर्मियाह 29:12)।

प्रार्थना हमें ईश्वर के करीब लाती है और हमें आत्मिक रूप से मजबूत बनाती है (याकू ब 5:16)।

4. क्षमा का वरदान (Kshama ka Verdan):

भगवान क्षमा करने वाला भगवान है (भजन संहिता 103:8)।

हमें भी दस्तावेजों को क्षमा करना चाहिए, जिस प्रकार भगवान ने हमें क्षमा किया है (मत्ती 6:14-15)।
क्षमा हमें चंगाई, मेल-मिलाप और मुक्ति का मार्ग सुधारता है (कु लुस्सियों 3:13)।

5. पवित्र आत्मा का कार्य (Pavitra Aatma ka Karya):

पवित्र आत्मा भगवान का तीसरा व्यक्ति है (1 कु रिन्थियों 12:11)।

वह विश्वासियों को शक्ति प्रदान करता है, उनका मार्गदर्शन करता है और उन्हें मसीह के समान बनने में
सहायता करता है (यूहन्ना 14:16-17)।

पवित्र आत्मा के कार्य चर्च के निर्माण और भगवान के राज्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण हैं
(आध्यात्मकों के कार्य 1:8)।

6. मसीह का बलिदान (मसीह का बलिदान):

यीशु मसीह का क्रू स पर बलिदान मानव जाति के पापों का प्रायश्चित्त था (रोमियों 5:8)।

उनके बलिदान के माध्यम से, भगवान के साथ सही संबंध बहाल करना और अनंत जीवन प्राप्त करना
संभव है (यूहन्ना 14:6)।

ईसा मसीह का बलिदान, प्रेम और अनुग्रह का सबसे बड़ा प्रदर्शन है (1 यूहन्ना 4:9-10)।

7. पुनरुत्थान की आशा (Punarutthan Ki Asha):

ईसा मसीह की मृत्यु पर विजय प्राप्त हुई और मृतकों में से जी उठा (1 कु रिन्थियों 15:1-4)।

मसीह के पुनरुद्धार से हमें भी मृत्यु के बाद जीवन की आशाएँ मिलती हैं (यूहन्ना 11:25-26)।

पुनर्स्थापना की आशा हमारे इस जीवन में आशा और उभरती हुई स्थिति है (रोमियों 8:24-25)।

8. पवित्र जीवन (पवित्र जीवन):

बाइबिल हमें पवित्र जीवन जीने का सिद्धांत देता है (1 थिस्सलुनिके 4:3)।


इसका अर्थ

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100 उपदेश विषय-साहित्य से (प्रत्येक के साथ 10 उप-बिंदु एवं छं द)

8. पवित्र जीवन (पवित्र जीवन) (जारी):

इसका अर्थ है डिसाइल विचारधारा और कार्य से दूर रहना और भगवान की इच्छा के अनुसार जीना (1
यूहन्ना 5:17)।

पवित्र जीवन जटिल नहीं है, लेकिन यह भगवान के साथ निरंतर संबंध बनाए रखता है और पदों की सेवा
करना पर आधारित है (मीका 6:8)।

9. परीक्षा और कठिनाइयाँ (परीक्षा और कठिनाइयाँ):

हर किसी को कभी न कभी यात्राओं और रहस्यों का सामना करना पड़ता है (याकू ब 1:2)।

लेकिन, भगवान हमसे वादा करता है कि वह हमें कभी अके ला नहीं छोड़ेगा (इब्रानियों 13:5)।

हम अपने धर्म के माध्यम से भगवान पर विश्वास और मजबूत कर सकते हैं और आध्यात्मिक रूप से
विकसित हो सकते हैं (रोमियों 5:3-4)।

10. भगवान की योजना (परमेश्वर की योजना):

भगवान हमारे जीवन के लिए एक अच्छी योजना है (यर्मियाह 29:11)।

खैर हम हमेशा उसकी योजना को न समझें, फिर भी हम विश्वास रख सकते हैं कि वह हमारी भलाई की
ही इच्छा रखता है (रोमियों 8:28)।

भगवान की योजना का हिस्सा बनने के लिए, हमें उसकी इच्छा का पता लगाना और उसका पालन करना
चाहिए (मत्ती 7:21)।
11. दान देने का महत्व (Daan dene ka mahatv):

बाइबिल हमें दान देने और चर्चों की मदद करने के लिए प्रस्ताव देता है (नीतिवचन 19:17)।

दान देने से हमें प्रसन्नता होती है और भगवान के आशिषों का मार्ग प्रशस्त होता है (लूका 6:38)।

दान विभिन्न सिद्धांतों में हो सकता है, जैसे धन, समय या प्रतिभा (रोमियों 12:8)।

12. परोपकारिता (परोपकारिता):

परोपकारिता का अर्थ है निवेशकों की भलाई करना (गलतियों 5:13)।

जीसस ने हमें वेबसाइटों की सेवा करने का उदाहरण दिया (मत्ती 20:28)।

ईश्वर चाहता है कि हम करुणा और प्रेम के साथ लेखों की मदद करें (1 यूहन्ना 3:17-18)।

13. क्षमाशीलता (क्षमशीलता):

क्षमाशीलता का अर्थ है क्रोध या क्रोध को अपने ऊपर हावी न होना देना (कु लुस्सियों 3:13)।

हमें लेखों को उसी प्रकार की क्षमा करनी चाहिए जिस प्रकार भगवान ने हमें क्षमा की है (मत्ती 6:14-
15)।

क्षमाशीलता हमें चंगाई, मेल-मिलाप और मुक्ति का मार्ग दिखाती है (इफिसियों 4:31-32)।

14. ईमानदारी (इमानदारी):

विश्वसनीयता का अर्थ सत्यवादी होना और विश्वसनीयता से पेश आना है (इब्रानियों 13:18)।

भगवान झूठ से घृणा करते हैं और विश्वसनीयता को महत्व देते हैं (नीतिवचन 6:16-19)।

सत्यता से जीने से हमारे जीवन में आशिषें आती हैं और लेखों के साथ हमारे संबंध मजबूत होते हैं
(भजन संहिता 37:37)।
15. संयम (संजम):

संयम का अर्थ है अपनी निष्ठा और साधना पर नियंत्रण रखना (गलतियों 5:23)।

संयम हमें बुद्धि

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15. संयम (संजम) (जारी):

संयम हमें बुद्धि निर्णय लेना, पाप से दूर रहना और भगवान की इच्छा के अनुसार जीवन में सहायता
करता है (नीतिवचन 25:28)।

16. धैर्य (धैर्य):

गंभीरता का अर्थ है कठिन पर्वतमाला में हार न मानना (याकू ब 1:2-4)।

ईश्वर हमें जिम्मेदारी निभाने का बल देता है (इब्रानियों 10:36)।

गंभीरता हमें आशा बनाए रखती है और विपरीत विचारधारा के साथ आगे बढ़ने में मदद करती है
(रोमियों 5:3-4)।

17. कृ पा (Krupa):

कृ पा का अर्थ है भगवान का अप्राप्त (अनधिकृ त) अनुग्रह।

वह हमें अपनी योग्यता के अनुसार नहीं, बल्कि अपने प्रेम का आशीर्वाद देता है (इफिसियों 2:8)।
भगवान की कृ पा हमें नियमों का मार्ग प्रदान करती है और हमें एक नया जीवन जीने की शक्तियाँ प्रदान
करती है (तीतुस 2:11-12)।

18. शांति (शांति):

भगवान की शांति से आने वाली शांति अलग है। यह हमारे मन में एक अलौकिक शांति है जो हमें बीच
में भी स्थिर रहने में मदद करती है (फिलिप्पियों 4:6-7)।

भगवान की शांति का अनुभव करने के लिए, हमें उस पर विश्वास करना चाहिए और उसे अपने जीवन में
उपदेश देना चाहिए (यशायाह 26:3)।

19. उत्साह (उत्साह):

उत्साह का अर्थ है भगवान के कार्य और उसकी महिमा का पालन करना।

बाइबिल हमें प्रोत्साहन के साथ भगवान की सेवा करने और उसके आज्ञाओं का पालन करने का आह्वान
करता है (रोमियों 12:11)।

उत्साह हमें ईसा मसीह के बारे में और भगवान के राज्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है (मत्ती
28:19-20)।

20. परिवार का महत्व (परिवार का महत्व):

बाइबल परिवार को समाज की इमारत का आधार स्तंभ स्तंभ है।

ईश्वर चाहता है कि परिवार प्रेम, सम्मान और वचनबद्धता पर आधारित हो (इफिसियों 5:22-33)।

मजबूत परिवार बच्चों को स्वस्थ वातावरण प्रदान करते हैं और समाज में स्थिरता स्थापित करते हैं
(नीतिवचन 22:6)।

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21. विवाह का अर्थ (Vivaah ka Arth):

बाइबल विवाह को एक पवित्र संस्था के रूप में स्थापित किया गया है (उत्पत्ति 2:24)।

विवाह एक पति और पत्नी के बीच जीवन भर चलने वाला वचन है (मत्ती 19:6)।

पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति प्रेम, सम्मान और वफादारी दिखानी चाहिए (इफिसियों 5:33)।

22. माता-पिता और बच्चे (Mata-Pita aur Bacche):

बच्चों को माता-पिता का आदर करना और उनके आज्ञापालन की शिक्षा देना (निर्गमन 20:12)।

माता-पिता को भी अपने बच्चों से प्यार करना, उनका पालन-पोषण करना और उन्हें सही मार्गदर्शन की
जिम्मेदारी दी गई है (इफिसियों 6:4)।

23. क्षमा करने की शक्ति:

क्षमा करने की शक्ति से बहुधा मजबूत होती हैं और मन को शांति मिलती है (कु लुस्सियों 3:13)।

संस्थाओं को माफी देने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें सही ठहराया जाए, बल्कि इससे हमें आगे बढ़ने
में मदद मिलेगी। (मत्ती 6:14-15)

24. क्रोध पर नियंत्रण (क्रोध पर नियंत्रण):

क्रोध एक विनाशकारी भावना है जो हमारे संबंधों और निर्णयों को नुकसान पहुंचा सकती है (नीतिवचन
16:32)।

बाइबिल हमें क्रोध को अपने ऊपर आधिपत्य न देने और क्षमा और मेल-मिलाप का जुलूस का आह्वान
करता है (इफिसियों 4:26-27)।

25. इर्श्या से शिक्षा:


सेहत की सफलता और खुशियों को देखने के मन में जलन पैदा होती है। (नीतिवचन 27:4)

ईश्वर के आशीर्वाद से हमारा धर्म दूर हो सकता है। किताबों की ख़ुशी में ख़ुशी का प्रयास करें। (रोमियों
12:15)

26. धन का सही उपयोग (Dhan ka sahi upyog):

बाइबल धन को बुरा नहीं मानता, बल्कि यह धन के लोभ से बचने की शिक्षा देता है (1 तिमुथियुस 6:9-
10)।

धन की बुद्धि का उपयोग करना चाहिए। हमें भगवान के कार्यों और नारों की मदद के लिए दान देना
चाहिए (लूका 6:38)।

27. सामर्थ्‍य का सदुपयोग (Saamarthya ka Sarupyog):

ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिभा और शक्ति प्रदान करता है (1 कु रिन्थियों 12:7)।

हमें अपनी दृढ़ता का उपयोग भगवान की महिमा के लिए और लेखों की सेवा के लिए करना चाहिए
(मत्ती 25:14-30)।

28. ईमानदारी का व्यापार (इमानदारी का व्यापार):

बाइबल व्यापार में सत्यनिष्ठा का पालन करने की शिक्षा संस्थान है (नीतिवचन 16:8)।

हमें बेंचमार्क या मापदण्ड का सहारा नहीं लेना चाहिए (लैव्य व्यवस्था 19:35-36)।

29. पर्यावरण की देखभाल (पर्यावरण की देख-भाल):

भगवान ने हमें सारि सृष्टि का प्रबंधक बनाया है (उत्पत्ति 1:28)।


हमें पर्यावरण की देखभाल करनी चाहिए और पृथ्वी के प्राकृ तिक निर्माण का ज्ञान से उपयोग करना
चाहिए (बी

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30. पुर्नोत्थान का महत्व (Punarutthan ka mahatv):

ईसा मसीह के पुनरावलोकन में मृत्यु पर विजय प्राप्त हुई और हमें भी अनंत जीवन की आशा प्रदान की
गई (यूहन्ना 11:25-26)।

पुनर्स्थापना हमें इस जीवन में मृत्यु के भय से मुक्त करती है और एक बेहतर भविष्य की आशा देती है
(1 कु रिन्थियों 15:51-57)।

पुर्नवास का विश्वास हमें पाप पर विजय प्राप्त करना और भगवान की इच्छा के अनुसार जीवन की
प्रेरणा देता है (रोमियों 6:4-8)।

31. पवित्र आत्मा का वास (Pavitra Aatma ka Vaas):

जब हम ईसा मसीह के साथ विश्वास करते हैं, तो वे पवित्र आत्मा हमारे अवशेषों में निवास करते हैं
(रोमियों 8:9)।

पवित्र आत्मा हमें शक्ति प्रदान करती है, हमारा मार्गदर्शन करती है और हमें मसीह के समान बनने में
मदद करती है (गलतियों 5:22-23)।

पवित्र आत्मा के वास के द्वारा, हम भगवान के साथ एक गहरा रिश्ता विकसित कर सकते हैं और उसके
उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपवित्र हो सकते हैं (अध्यात्मों के काम 1:8)।

32. चर्च का महत्व (Church ka mahatv):


चर्च उन विश्वासों का समुदाय है जो ईसा मसीह में अपना विश्वास रखते हैं (1 कु रिन्थियों 12:27)।

चर्च एक ऐसा स्थान है जहाँ हम भगवान की पूजा कर सकते हैं, भगवान के वचनों का अध्ययन कर
सकते हैं, और एक और के साथ जेमिनशाफ्ट बना सकते हैं (इब्रानियों 10:25)।

चर्च का उद्देश्य भगवान के राज्य को आगे बढ़ाना, लोगों को मसीह के बारे में बताना और दुनिया में
परिवर्तन लाना है (मत्ती 28:19-20)।

33. प्रचार का कार्य (prachar ka karya):

यीशु मसीह ने अपने चेलों को यह आदेश दिया कि वे और सारे जगत में वस्तुओं का प्रचार करें (मरकु स
16:15)।

प्रचार का अर्थ है लोगों को ईसा मसीह के बारे में बताना और उनका मार्ग दिखाना।

प्रत्येक विश्वासी को किसी न किसी रूप में प्रचार कार्य में भाग लेने के लिए बुलाया जाता है (प्रेमियों के
काम 1:8)।

34. पवित्र आत्मा के उपदान (Pavitra Aatma ke Updaan):

पवित्र आत्मा विश्वासियों को विभिन्न आत्मिक उपदान देता है ताकि वे चर्च को भगवान की राज्य सेवा
करने में सक्षम बना सकें (1 कु रिन्थियों 12:7-11)।

ये उपदान सेवा करने के विभिन्न तरीके हैं, जैसे कि शिक्षा, पी भविष्यवाणी (भविष्यवाणी करना), चंगाई,
और सहायता करना।

महत्वपूर्ण बात यह है कि भगवान की महिमा और चर्च की उन्नति के लिए इन उपदानों का उपयोग


किया जाए (1 कु रिन्थियों 14:12)।

35. अंत के समय (Ant ke Samay):

लाइब्रेरी में भविष्य घटित होने वाली कहानियों के बारे में बताया गया है, जिसमें ईसा मसीह का दूसरा
आगमन, युद्ध और नई पृथ्वी की स्थापना शामिल है (वाक्य 21)।
अंत के समय के विषयों पर विजय प्राप्त करना कठिन हो सकता है, लेकिन वे हमें आशा और प्रेरणा दे
सकते हैं क्योंकि वे हमें ग्रहण करते हैं कि भगवान का एक निश्चित उद्देश्य है और वह अंत में विजय
प्राप्त करेंगे (यशायाह 46)

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36. कथिनाइयों में आशा:

जीवन में हर किसी को कभी न कभी किसी का सामना करना पड़ता है, लेकिन बाइबिल हमें आशा का
संदेश देता है (भजन संहिता 34:18)।

भगवान हमसे वादा करता है कि वह हमें कभी अके ला नहीं छोड़ेगा और हमारी परीक्षाओं में हमारा साथ
देगा (इब्रानियों 13:5)।

कठिनाइयाँ हमें आध्यात्मिक रूप से विकसित होने और भगवान पर अपना भरोसा मजबूत करने के
अवसर प्रदान करती हैं (याकू ब 1:2-4)।

37. परीक्षाओं में विजय (परीक्षाओं में विजय):

बाइबल हमें सिखाती है कि हम परीक्षाओं को पार कर सकते हैं और विजय प्राप्त कर सकते हैं (1
कु रिन्थियों 10:13)।

भगवान हमसे मुक्ति का वादा नहीं करता है, लेकिन वह वादा करता है कि वह हमें उनका सामना करने
की शक्ति देगा (1 कु रिन्थियों 10:13)।

परीक्षाओं के दौरान भगवान पर भरोसा रखें और अपनी बुद्धि को बनाए रखें, इससे हम विजयी हो सकते
हैं (याकू ब 1:5)।

38.निर्णय लेने में बुद्धि:


जीवन में निर्णय निर्णय लेना संभव हो सकता है, लेकिन बाइबिल हमें बुद्धि और समझ के लिए भगवान
से प्रार्थना करने का सिद्धांत देता है (याकू ब 1:5)।

ईश्वर का वचन हमें जीवन के विभिन्न विचारधाराओं में मार्गदर्शन प्रदान करता है।

बाइबल के सिद्धांतों का पालन करके हम ईश्वर की इच्छा के अनुसार निर्णय ले सकते हैं (भजन संहिता
119:105)।

39. लालच से शिक्षा

लालकृ ष्ण मिशनरीज़ और भगवान के आशिषों से दूर जा सकते हैं (1 तिमुथियुस 6:6-10)।

हमें संतोषी रहना चाहिए और जो हमारे पास है उसमें खुशी ढूंढनी चाहिए (फिलिप्पियों 4:11-13)।

लालचियों के समान से बचने के लिए, हमें भगवान पर अपना भरोसेमंद बनाए रखना चाहिए और अपना
मन ले जाना चाहिए (इब्रानियों 13:5)।

40. क्षमा मांगना (Kshama Maangna):

जब हम गलती करते हैं तो भगवान चाहते हैं कि हम नम्रतापूर्वक क्षमा मांगें (1 हन्ना 1:9)।

क्षमादान का अर्थ यह है कि हम अपनी स्वीकृ ति स्वीकार करते हैं और दस्तावेजों को चोट के लिए
नामांकित करते हैं।

फर्म से मजबूत मजबूत होते हैं और हमारे दस्तावेजों के साथ मेल-मिलाप का रास्ता खुलता है (मत्ती
5:23-24)।

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41. मूर्ति का महत्व (Vinamrata ka mahatv):

फ़ास्ट का अर्थ अभिमान न करना है और अपने अभिलेखों से श्रेष्ठ न स्कोर करना है (फ़िलिपियों 2:3)।

भगवान अभिमानियों का विरोध करता है, लेकिन वह विदेशी लोगों को अनुग्रह देता है (याकू ब 4:6)।

आस्था हमें दस्तावेजों की सेवा करने और भगवान की इच्छा के अनुसार जीवन में सहायता प्रदान करती
है (मत्ती 20:28)।

42. सेवा का जीवन (सेवा का जीवन):


ईसा मसीह ने लेखकों की सेवा करने का उदाहरण दिया (यूहन्ना 13:4-5)।

हमें भी इसी तरह के सहयोगियों को पूरा करने और उनकी सेवा करने के लिए प्रेरित करना चाहिए
(गलतियों 5:13)।

भगवान उन लोगों को आशिष देते हैं जो भगवान की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करते हैं (मत्ती
25:35-40)।

43. आत्मसंयम (आत्मसंयम):

आत्मसंयम का अर्थ है अपनी आज्ञा और आचरण पर नियंत्रण रखना (नीतिवचन 16:32)।

आत्मसंयम हमें बुद्धि निर्णय लेना, बुरी आदत से दूर रहना और भगवान की इच्छा के अनुसार जीवन में
मदद करना है (2 तिमुथियुस 1:7)।

44. पवित्रता (पवित्रता):

बाइबिल हमें पवित्र जीवन जीने का सिद्धांत देता है (1 थिस्सलुनिके 4:3)।

इसका अर्थ है पाप से दूर रहना और ईश्वर की इच्छा से जीना (इब्रानियों 12:14)।

पवित्रता का जीवन जीने के लिए, हमें भगवान के वचनों का अध्ययन करना चाहिए और पवित्र आत्मा के
उपदेश का पालन करना चाहिए (2 तिमुथियुस 3:16-17)।

45. मिशनरी कार्य (मिश्नारी कार्य):

यीशु मसीह ने अपने चेलों को यह आदेश दिया कि वे और सारे जगत में वस्तुओं का प्रचार करें (मरकु स
16:15)।

मिशनरी कार्य का अर्थ है उन लोगों तक भगवान का संदेश भेजना जिसके बारे में अभी तक नहीं सुना
गया है।
हर किसी के रूप में मिशनरी कार्य में भाग ले सकते हैं, अपने आस-पास के लोगों को बजट सुनाकर या
मिशन कार्य का आर्थिक सहयोग देकर (रोमियों 10:15)।

46. बाइबिल का अध्ययन (बाइबिल का अध्ययन):

ईश्वर का वचन है और यह हमारे जीवन के लिए मार्गदर्शन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है (2 तिमुथियुस


3:16)।

नियमित रूप से बाइबिल का अध्ययन करने से हम भगवान को बेहतर तरीके से जान सकते हैं और
उनकी इच्छा को समझ सकते हैं (भजन संहिता 1:1-2)।

बाइबल का अध्ययन हमें आध्यात्मिक रूप से विकसित होने और जीवन के महाकाव्य का सामना करने
में मदद करता है (याकू ब 1:25)।

47. प्रार्थना की शक्ति (जारी):

प्रार्थना भगवान से बात करने और उसके आदर्श समर्थकों का तरीका है (मत्ती 6:9-13)।

हमें हर बात के लिए प्रार्थना करनी चाहिए (फिलिप्पियों 4:6)।

प्रार्थना हमें ईश्वर के करीब लाती है, हमें आत्मिक शक्ति प्रदान करती है और हमें वरदान में आशा देती
है

मिथुन राशि वालों से बातचीत

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बाइबिल से गहन ज्ञान और रहस्योद्घाटन हिंदी में लिखें

बाइबिल ज्ञान का अथाह स्रोत है, और इसके अध्ययन से कई गहन ज्ञान और रहस्य जुड़े हुए हैं। आइए
गौर करें कु छ महत्वपूर्ण विषयों पर:

1. भगवान का स्वरूप (परमेश्वर का स्वरूप):


बाइबिल में कहा गया है कि भगवान एक है, लेकिन तीन लोगों में भगवान है: पिता, पुत्र (येशु मसीह), और
पवित्र आत्मा (प्रेमास्था 1:5)।

भगवान प्रेम, दया, धार्मिकता, और मिश्रणयोग्यता जैसे गुण का स्वरूप है (निर्गमन 34:6-7)।

भगवान सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ हैं (यशायाह 40:28)।

2. मानवता का सृजन और पाप का प्रवेश (मानवता का सृजन और पाप का प्रवेश):

बाइबिल में बताया गया है कि भगवान ने आदम और हव्वा को अपने स्वरूप में सृजा (उत्पत्ति 1:27)
दिया।

उन्होंने स्वतंत्र इच्छा उपहार पाया, लेकिन भगवान की आज्ञा पाप में फं स गई (उत्पत्ति 3)।

पाप के कारण सारि मानव जाति भगवान अलग हो गए और मृत्यु के अधीन हो गए (रोमियों 5:12)।

3. उद्धार का मार्ग:

बाइबिल में कहा गया है कि हम अपने अच्छे कर्मों को भगवान के सामने धर्मी नहीं ठहरा सकते। ग्रेस
का एक मुफ़्त उपहार है (इफिसियों 2:8-9)।

ईसा मसीह द्वारा हमारे पापों का प्रायश्चित्त अवतार का मार्ग प्रशस्त करता है (यूहन्ना 3:16, रोमियों
6:23)।

मसीह द्वारा विश्वास को ग्रहण करना और उनके बलिदान को स्वीकार करना ही तत्व का एकमात्र मार्ग
है (यूहन्ना 14:6, यूहन्ना 14:6, यूहन्ना 14:12)।

4. भगवान का राज्य (परमेश्वर का राज्य):

बाइबिल ईसा मसीह का आगमन होता है, जहां न्याय, शांति और धर्म का शासन होगा (प्रकाशित वाक्य
21:1-4)।
यह उन लोगों के लिए कहा गया है जो ईसा मसीह को अपना प्रभु और स्वीकारकर्ता मानते हैं (मत्ती
25:34)।

हम इस राज्य के आने की प्रतीक्षा करते हैं और उसके लिए प्रार्थना करते हैं (मत्ती 6:10)।

5. पवित्र आत्मा का कार्य (Pavitra Aatma ka Karya):

पवित्र आत्मा भगवान का तीसरा व्यक्ति और विश्वासियों में निवास करता है (1 कु रिन्थियों 6:19)।

पवित्र आत्मा हमें नया जन्म देती है (यूहन्ना 3:3), हमें सिखाती है (यूहन्ना 14:26), और हमें ईश्वर की
इच्छा के अनुसार जीवन में सहायता देता है (गलतियों 5:22-23)।

पवित्र आत्मा हमें विभिन्न आत्मिक आभूषण भी प्रदान करती है ताकि हम क्लिसिया की सेवा कर सकें
(1 कु रिन्थियों 12)।

6. अंत के समय की घटनाएँ

बाइबिल में भविष्य घटित होने वाली कु छ घटनाओं का वर्णन है, जैसे मसीह का दूसरा आगमन, भगवान
का न्याय, एक नया स्वर्ग और नई पृथ्वी की उत्पत्ति (प्रकाशित वाक्य)।

इनवान भविष्यवक्ताओं को पूरी तरह से मजबूत बनाया जा सकता है, लेकिन वे हमें आशाएं प्रदान करते
हैं और हमें भगवान पर अपना विश्वास दृढ़ करने के लिए प्रेरित करते हैं।

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बिल्कु ल! बाइबिल के ज्ञान की गहराई और अस्तित्व हैं:

7. प्रार्थना और उपवास (प्रार्थना और उपवास):


बाइबिल हमें सिखाती है कि प्रार्थना करना भगवान से बात करना और उसके साथ संबंध बनाना एक
महत्वपूर्ण तरीका है (मत्ती 6:6)।

स्थिरता के रूप में भोजन या किसी अन्य सुख से दूर रहना है, जिससे हम भगवान पर अपना ध्यान
अवशोषण कर सुविधा (स्तर 4:16) पर टिके रहते हैं।

प्रार्थना और उपवास के माध्यम से हम भगवान की इच्छा जान सकते हैं, उसकी सहायता मांग सकते हैं,
और उसकी प्रति अपना हृदय खोल सकते हैं।

8. पवित्र शास्त्र का अध्ययन (पवित्र शास्त्र का अध्ययन):

बाइबिल परमेश्वर का वचन है और यह हमारे जीवन के लिए मार्गदर्शन प्रदान करता है (2 तीमुथियुस
3:16).

बाइबल का अध्ययन करना परमेश्वर को बेहतर जानने और उसकी इच्छा को समझने का एक अनिवार
褌 (fundoshi - loincloth) तरीका है।

निरंतर अध्ययन, मनन और परमेश्वर से प्रार्थना के द्वारा हम बाइबिल के गहरे अर्थ को समझ सकते हैं
और उसे अपने जीवन में लागू कर सकते हैं।

9. मसीह का अनुसरण (Masih ka Anusarana):

यीशु मसीह का अनुसरण करना शिष्यता का जीवन है (मत्ती 16:24).

इसका अर्थ है यीशु की शिक्षाओं का पालन करना, उसका अनुकरण करना और उसके मार्ग पर चलना।

मसीह के अनुयायी के रूप में हमें प्रेम, करुणा, क्षमा, और नम्रता जैसे गुणों को अपने जीवन में प्रदर्शित
करना चाहिए (गलतियों 5:22-23).

10. प्रचार का महत्व (Prachar ka Mahatv):

यीशु मसीह ने हमें सुसमाचार का प्रचार करने की आज्ञा दी है (मत्ती 28:19-20).

सुसमाचार का अर्थ है खुशखबरी - यह संदेश कि यीशु मसीह के बलिदान के द्वारा उद्धार पाना संभव है।
प्रचार का अर्थ है इस संदेश को दूसरों के साथ साझा करना ताकि वे भी परमेश्वर के प्रेम और अनुग्रह
का अनुभव कर सकें ।

11. मसीही जीवनशैली (Masihi Jeevanshaili):

बाइबिल हमें एक धर्मी और पवित्र जीवन जीने का आह्वान करती है (1 थिस्सलुनीके 4:3).

इसका अर्थ है बुरे कार्यों से दूर रहना और परमेश्वर की इच्छा के अनुसार जीना।

मसीही जीवनशैली में ईमानदारी, सच्चाई, शुद्धता, और दूसरों की सेवा जैसे गुण शामिल हैं।

12. क्लेश और परीक्षाएँ (Klesh aur Parikshaein):

बाइबिल हमें सिखाती है कि जीवन में कठिनाइयाँ और परीक्षाएँ आती रहेंगी (याकू ब 1:2).

लेकिन, हमें निराश होने की ज़रूरत नहीं है। परमेश्वर हमारे साथ है और वह हमें पार पाने की शक्ति देता
है (रोमियों 8:28).

क्लेश और परीक्षाएँ हमें परमेश्वर पर अपना भरोसा मजबूत करने और आध्यात्मिक रूप से विकसित होने
का अवसर प्रदान करती हैं।

यह बाइबिल के ज्ञान की गहराई में जाने के कु छ और विषय हैं. आप इन विषयों पर अपने अध्ययन को
जारी रख सकते हैं और परमेश्वर के वचन की समृद्धि का अनुभव कर सकते हैं।

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बिल्कु ल! बाइबिल के ज्ञान की और भी गहराईयों में चलते हैं:

13. बाइबिलीय स्टूवर्ड पपशि


(Baibuliya Styuardship):
परमेश्वर के संसाधनों के रखवाले होने की अवधारणा पर चर्चा करें, जिसमें समय, प्रतिभा और संपत्ति
शामिल हैं (मत्ती 25:14-30)।

बाइबिल के सिद्धांतों के अनुसार धन का प्रबंधन कै से करें, इस पर गहराई से अध्ययन करें (नीतिवचन


21:20, मलाकी 3:10)।

परमेश्वर की सेवा करने और दूसरों को आशीर्वाद देने के लिए अपने संसाधनों का उपयोग करने के लिए
प्रेरित हों (लूका 6:38)।

14. मसीही धर्मशास्त्र (Masihi Dharmashastr):

बाइबिल में बताए गए नैतिक और सदाचारी जीवन जीने के महत्व पर गहन चिन्तन करें (रोमियों 12,
गलातियों 5:22-23)।

विभिन्न नैतिक दुविधाओं का सामना करने के लिए मसीही दृष्टिकोण को समझें।

दैनिक जीवन में प्रेम, न्याय, ईमानदारी और क्षमा के महत्व पर बल दें।

15. बाइबिलीय परामर्श (Baibuliya Salah):

बाइबिल के सिद्धांतों के आधार पर चुनौतियों का सामना करने वालों को मार्गदर्शन और समर्थन कै से


प्रदान करें, इस पर चर्चा करें।

मसीही परामर्श और मानसिक स्वास्थ्य के लिए उपलब्ध संसाधनों का पता लगाएं।

कलीसिया के भीतर एक सहायक और सहानुभूतिपूर्ण समुदाय को विकसित करने का प्रयास करें।

16. बाइबिलीय व्याख्या (Shabdarth Vivarana):

बाइबल की व्याख्या करने के विभिन्न तरीकों (शाब्दिक, ऐतिहासिक, रूपकात्मक) पर चर्चा करें।

बाइबल के संदर्भ और संदेश को समझने के लिए महत्वपूर्ण सोच और जिम्मेदार व्याख्या को प्रोत्साहित
करें।
पवित्र आत्मा के मार्गदर्शन के महत्व पर बल दें।

17. कलीसिया और सामाजिक न्याय (Kuliya aur Samajik Nyay):

गरीबी, भूख और भेदभाव जैसे सामाजिक न्याय के मुद्दों की वकालत करने में कलीसिया की भूमिका का
गहन अध्ययन करें (मीका 6:8)।

चर्चा करें कि कै से मसीही अपने समुदायों में बदलाव लाने वाले अग्रणी बन सकते हैं।

सेवा कार्यों में भाग लेने और दबे हुए लोगों के लिए खड़े होने के लिए प्रोत्साहित करें।

18. अंत के समय की आशा (Ant ke Samay ki Asha):

बाइबिल भविष्य में होने वाली कु छ घटनाओं का वर्णन करती है, जिनमें शामिल हैं नई पृथ्वी की स्थापना
और परमेश्वर के साथ अनन्त जीवन (प्रकाशित वाक्य 21)।

इन भविष्यवाणियों पर चिंतन करने से निराशा उत्पन्न होने के बजाय, आशा का संचार होता है और यह
हमें परमेश्वर के साथ अनन्त जीवन की प्राप्ति के लिए प्रेरित करता है।

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निश्चित रूप से! आइए, बाइबल ज्ञान के और भी गहरे स्तरों में प्रवेश करें:

19. आध्यात्मिक वरदान (Adhyatmik Vardan):

पवित्र आत्मा विभिन्न आध्यात्मिक वरदानों को विश्वासियों को प्रदान करता है ताकि वे कलीसिया की
सेवा कर सकें और परमेश्वर के राज्य को आगे बढ़ा सकें (1 कु रिन्थियों 12)।

इन वरदानों का उपयोग परमेश्वर की महिमा के लिए और दूसरों की भलाई के लिए किया जाना चाहिए
(रोमियों 12:6-8)।
आध्यात्मिक वरदानों के बारे में सीखना और उन्हें च discerned (समझना) करना कलीसिया के निर्माण
और परमेश्वर की इच्छा को पूरा करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

20. परमेश्वर का चरित्र (Parmeshwar ka Charitra):

बाइबल का अध्ययन करते समय, परमेश्वर के चरित्र के विभिन्न पहलुओं को समझना महत्वपूर्ण है। ये
पहलू परमेश्वर की प्रेम, दया, धार्मिकता, विश्‍
वासयोग्यता, न्याय, और संप्रभुता जैसे गुणों को प्रदर्शित करते
हैं।

परमेश्वर के चरित्र को समझने से हमें उसके प्रति हमारा दृष्टिकोण आकार देने में मदद मिलती है और
यह हमारे जीवन में उसका अनुसरण करने के लिए प्रेरणा प्रदान करता है।

21. बाइबल की भविष्यवाणी (Bai बल ki Bhavishayvani):

बाइबल में भविष्यवाणियों का एक समृद्ध इतिहास है, जिनमें से कई पहले ही पूरी हो चुकी हैं। ये
भविष्यवाणियां परमेश्वर की सर्वज्ञता और उसकी योजनाओं की निश्चितता को दर्शाती हैं।

भविष्यवाणियों का अध्ययन हमें आने वाली घटनाओं के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकता है, लेकिन यह
सबसे महत्वपूर्ण रूप से हमें परमेश्वर के वफादार चरित्र और उसकी अंतिम विजय में भरोसा करने के
लिए प्रेरित करता है।

22. बाइबल में प्रतीक (Bai बल mein Pratik):

बाइबल अलंकारिक भाषा और प्रतीकों का प्रयोग करती है। इन प्रतीकों को समझना बाइबल के संदेश को
गहराई से समझने में हमारी सहायता कर सकता है।

उदाहरण के लिए, भेड़ का बच्चा मसीह की शुद्धता और बलिदान का प्रतीक है, जबकि शेर परमेश्वर की
शक्ति और संप्रभुता का प्रतीक है।

बाइबल अध्ययन के संसाधनों और टिप्पणियों का उपयोग करके हम बाइबल के प्रतीकों को बेहतर ढंग से
समझ सकते हैं।
23. मसीह का द्वितीय आगमन (Masih ka Dwitiya Aagaman):

यीशु मसीह का पृथ्वी पर वापस आने का वादा बाइबल में कई जगहों पर किया गया है (1 थिस्सलुनीके
4:13-17)।

मसीह के दूसरे आगमन को परमेश्वर के राज्य की स्थापना, बुराई पर अच्छाई की विजय और मृतकों के
पुनरुत्थान के साथ जोड़ा जाता है।

मसीह के दूसरे आगमन की आशा हमें धर्मपूर्वक जीने और परमेश्वर के राज्य के आने की तैयारी करने
के लिए प्रेरित करती है।

24. स्वर्ग (Swarg):

स्वर्ग का वर्णन एक वास्तविक स्थान के रूप में होता है, जहाँ भगवान का सिंहासन है और जहाँ विश्वासी
अनंत जीवन का रहस्योद्घाटन होगा (प्रकाशित वाक्य 21)।

स्वर्ग को एक प्राकृ तिक स्थान के रूप में वर्णित किया गया है जहाँ कोई दुःख, मृत्यु या कष्ट नहीं होगा।

स्वर्ग की आशा हमें इस जीवन की सुरक्षा प्रदान करती है और ईश्वर अनंत जीवन की ओर दृष्टि बनाए
रखने की शक्ति प्रदान करता है।

उत्तर ज्ञ

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बाइबिल ज्ञान का भंडार अथाह है, गहराई से अध्ययन करते हैं, पिरामिड ही और अधिक सीखते हैं। आइए,
कु छ और विषयों पर चर्चा करें:

25. बाइबिल में महिलाएं (बाई में महिलांए):


फ़्रै जिन महिलाओं की किताबें और दस्तावेज़ से भरी हुई है।

रूथ, डेबोरा, एस्टर जसी टेरर के उदाहरण हैं भगवान के लिए डेयरडेविल कार्य।

बाइबिल में यह भी सिखाया गया है कि स्त्री और पुरुष की दृष्टि में समानता है और कलीसिया में
भगवान के काम में दोनों महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं (गलतियों 3:28)।

26. बाइबिल और विज्ञान (बायबल और विज्ञान):

विज्ञान और पुस्तकालय के बीच कथित विरोध एक सामान्य विषय है।

हालाँकि, कई विद्वानों का मानना है कि विज्ञान और शास्त्र वास्तव में एक दूसरे के पूरक हैं। हमें विज्ञान
भौतिक जगत को समझने में मदद मिलती है, जबकि बाइबल हमें आध्यात्मिक जगत को समझने में
मदद करती है।

दोनों के अध्ययन में भगवान की रचना और उनकी महिमा के बारे में अधिक समग्र दृष्टिकोण प्रदान
किया जा सकता है।

27. बाइबिल का इतिहास और पुरातत्व (Baibal ka Itihas aur Puratatva):

पुरालेख की पुस्तकों और इतिहास की पुष्टि करने में महत्वपूर्ण भूमिका है।

पुरातत्वविदों ने बाइबिल में जगहें, लोगों और स्मारकों के अनुभवों को प्रमाणित किया है।

हालाँकि, हमेशा के लिए लाइब्रेरी के हर विवरण की पुष्टि नहीं की जा सकती है, यह लाइब्रेरी की
ऐतिहासिक लाइब्रेरी याद रखी जाती है।

28. मसीही जीवन में आत्म-नियंत्रण (मसीही जीवन में आत्म-नियंत्रण):

बाइबल आत्म-नियंत्रण के महत्व पर बल देती है (गलतियों 5:23)।

इसका अर्थ है हमारी नैतिकता, भावनाएं और कार्य पर नियंत्रण रखना।


आत्म-नियंत्रण हमें बुद्धि निर्णय लेना, पाप से दूर रहना और भगवान की इच्छा के अनुसार जीवन में
सहायता करता है।

29. बाइबिल का अनुवाद (Baibal ka nuvad):

बाइबिल मूल रूप से हिब्रू, अरामाईक और ग्रीक समुद्र में लिखी गई थी।

आज, बाइबिल का अनुवाद हजारों समुद्र में चुकाया जा चुका है।

विभिन्न व्याख्याओं को पढ़ने से लेकर बाइबिल के पाठ के विभिन्न अर्थों को समझने में मदद मिल
सकती है।

यह महत्वपूर्ण है कि आप एक प्रतिष्ठित अनुवाद का उपयोग करें और अध्ययन के लिए अन्य उपयोगी


उपयोग करें।

30. बाइबिल का निरंतर अध्ययन (Baibal ka निरंतर अध्ययन):

लाइब्रेरी का अध्ययन एक स्टू डियो यात्रा है। आप और भी अधिक अध्ययन करते हैं, रंगीन ही अधिक
शिक्षण हैं और भगवान के साथ आपका संबंध गहरा होता है।

निरंतर अध्ययन, प्रार्थना और मनन से आप भगवान के वचनों की गहराई को समझ सकते हैं और उसे
अपने जीवन में लागू कर सकते हैं।

यह पुस्तकालय ज्ञान के कु छ और गहन विषय हैं। आप इन विषयों पर अपना अध्ययन जारी रख सकते
हैं और भगवान के वचनों की समृद्धि का अनुभव कर सकते हैं।

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बिल्कु ल! पुरालेख ज्ञान के और भी वैश्विक सिद्धांत खोजने (खोज) करने के लिए तैयार हैं? आगे बढ़ रहे हैं:
31. बाइबिल में विधर्म (बिधर्म):

बाइबल उन सिद्धांतों और वैज्ञानिकों की सलाह है जो सच्ची शिक्षाओं से भटकती हैं।

विधर्म परमेश्वर के चरित्र, उसके वचन, या उद्धार के मार्ग के बारे में गलत धारणाओं को बढ़ावा देता है।

सच्ची शिक्षाओं को बनाए रखना और विधर्म के प्रभाव का विरोध करना महत्वपूर्ण है (1 तीमुथियुस 4:1-
6)।

32. बाइबल में क्षमा (Kshama):

क्षमा परमेश्वर के चरित्र का एक मूलभूत पहलू है। वह उन लोगों को क्षमा करने के लिए तैयार है जो
पश्चाताप करते हैं और उस पर विश्वास करते हैं (1 यूहन्ना 1:9)।

बाइबल हमें भी दूसरों को क्षमा करने का आह्वान करती है, जिससे चंगाई और मेल-मिलाप का मार्ग
प्रशस्त होता है (मत्ती 6:14-15)।

33. मसीह का प्रायश्चित्त (Masih ka Prayaschitt):

यीशु मसीह का बलिदान क्रू स पर मानवजाति के पापों का प्रायश्चित्त था।

उसके बलिदान के माध्यम से, परमेश्वर के साथ सही संबंध बहाल करना और अनन्त जीवन प्राप्त करना
संभव है (रोमियों 5:8)।

प्रायश्चित्त का सिद्धांत ईसाई धर्म के मूल में है और यह परमेश्वर के प्रेम और अनुग्रह का एक


शक्तिशाली प्रदर्शन है।

34. बाइबल में दुःख और पीड़ा (Dukh aur Peeda):

जीवन में दुःख और पीड़ा एक वास्तविकता है। बाइबल हमें बताती है कि परमेश्वर हमारी पीड़ा को
समझता है और हमारे साथ है (भजन 34:18)।
हालाँकि, बाइबल यह भी सिखाती है कि परमेश्वर हमारी परीक्षाओं का उपयोग हमें मजबूत बनाने और
हमारे विश्वास को गहरा करने के लिए करता है (रोमियों 8:28)।

35. आधुनिक समाज में बाइबल की प्रासंगिकता (Aadhunik Samaj mein Bai बल ki Prasangikta):

कु छ लोग सोचते हैं कि बाइबल आज के आधुनिक समाज में अप्रासंगिक है।

हालाँकि, बाइबल के सिद्धांत आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने सदियों पहले थे।

बाइबल रिश्तों, नैतिकता, और जीवन के उद्देश्य के बारे में मार्गदर्शन प्रदान करती है। इसके सिद्धांत सभी
संस्कृ तियों और समय अवधियों में लागू किए जा सकते हैं।

36. बाइबल अध्ययन के तरीके (Bai बल Adhyayan ke Tarike):

बाइबल का प्रभावी ढंग से अध्ययन करने के लिए कई तरीके हैं।

आप व्यक्तिगत अध्ययन, समूह अध्ययन, या बाइबल कक्षाओं में भाग लेने पर विचार कर सकते हैं।

बाइबल अध्ययन संसाधनों, टिप्पणियों और शब्दकोशों का उपयोग करने से आपको बाइबल के पाठ को
बेहतर ढंग से समझने में मदद मिल सकती है।

37. प्रार्थना और बाइबल अध्ययन का संबंध (Prarthna aur Bai बल Adhyayan ka Sambandh):

प्रार्थना और बाइबल अध्ययन एक दूसरे के पूरक हैं।

प्रार्थना के माध्यम से हम परमेश्वर से बात करते हैं और उसका मार्गदर्शन मांगते हैं।

बाइबल अध्ययन के माध्यम से हम परमेश्वर का वचन सुनते हैं और सीखते हैं कि उसकी इच्छा के
अनुसार कै से जीना है।

दोनों का संयोजन आध्यात्मिक विकास और परमेश्वर के साथ घनिष्ठ संबंध बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका
निभाता है।

**38. बाइबल में आनन्द (Aan


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बाइबल में आनन्द (Aanand)

बाइबल हमें सिखाती है कि परमेश्वर चाहता है कि उसके लोग आनंदित रहें। आनन्द का अनुभव कई
स्रोतों से आ सकता है, लेकिन बाइबल स्पष्ट करती है कि सबसे गहरा और स्थायी आनन्द परमेश्वर के
साथ के रिश्ते से आता है।

यहाँ कु छ तरीके हैं जिनसे बाइबल आनन्द के विषय को संबोधित करती है:

परमेश्वर का आनन्द (Parmeshwar ka Aanand): बाइबल बताती है कि परमेश्वर स्वयं आनन्दमय है


(भजन संहिता 144:15)। वह चाहता है कि हम उसके साथ आनन्द में सहभागी हों।

परमेश्वर के साथ सम्बन्ध में आनन्द (Sam सम्बन्ध mein Aanand): सबसे बड़ा आनन्द परमेश्वर को
जानने और उसका अनुसरण करने से आता है (यिर्मियाह 29:11)। परमेश्वर के साथ एक निकट संबंध
हमें उद्देश्य, शांति और आनन्द की भावना प्रदान करता है।

परमेश्वर की रचना में आनन्द (Parmeshwar ki Rachna mein Aanand): बाइबल हमें परमेश्वर की अद्भुत
रचना की सुंदरता और भलाई में आनन्द लेने के लिए प्रोत्साहित करती है (भजन संहिता 104)। प्रकृ ति
की सुंदरता का अनुभव करना परमेश्वर की महिमा का एक तरीका है।

परमेश्वर की आशीषों में आनन्द (Parmeshwar ki Aashishon mein Aanand): परमेश्वर हमें विभिन्न आशीषें
प्रदान करता है, जैसे कि परिवार, मित्र, अच्छे स्वास्थ्य और प्रतिभाएँ। इन आशीषों के लिए आभारी होना
और उनका आनन्द लेना महत्वपूर्ण है।
परमेश्वर की योजना में आनन्द (Parmesh्वर ki Yojana mein Aanand): जीवन हमेशा आसान नहीं होता
है, लेकिन बाइबल हमें सिखाती है कि परमेश्वर हमारी भलाई की एक योजना रखता है (रोमियों 8:28)।
इस योजना पर भरोसा करने और यह जानने से कि हम परमेश्वर की हाथों में हैं, हमें आनन्द मिल
सकता है।

यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि बाइबल परिस्थितिजन्य खुशी (happiness) और गहरे आध्यात्मिक


आनन्द के बीच अंतर करती है। परिस्थितिजन्य खुशी अस्थायी होती है और परिस्थितियों के बदलने के
साथ ही खत्म हो सकती है। आध्यात्मिक आनन्द परमेश्वर के साथ के हमारे रिश्ते पर आधारित होता है
और यह अधिक स्थायी होता है।

बाइबल हमें यह भी सिखाती है कि आनन्द दूसरों के साथ साझा करने के लिए है। जब हम दूसरों की
मदद करते हैं, दयालु होते हैं और प्रेम फै लाते हैं, तो हम आनन्द का अनुभव करते हैं।

अंत में, बाइबल हमें आनन्द के लिये परमेश्वर का धन्यवाद करने के लिए प्रोत्साहित करती है (1
थिस्सलुनीके 5:18)। कठिनाइयों के बीच भी, परमेश्वर की आशीषों के लिए आभारी होना और उसकी
महिमा का जश्न मनाना आनन्द का एक स्रोत हो सकता है।

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आगे बढ़ते हुए: बाइबल ज्ञान की यात्रा (Aage Badhte Hue: Baible Gyan ki Yatra)

बाइबल का अध्ययन एक अनंत यात्रा है। जितना अधिक आप सीखते हैं, उतना ही अधिक आप परमेश्वर
की गहराई और उसकी योजनाओं को समझ पाएंगे। यहां कु छ क्षेत्र हैं जिनका आप आगे अध्ययन कर
सकते हैं:

1. बाइबिल के वि षज्ञों
औ शेर शि क्षकोंको पढ़ना (Baaibel ke Visheshagyon aur Shikshak ko Padhna):
बाइबल के विद्वानों, धर्मशास्त्रियों और शिक्षकों द्वारा लिखी गई पुस्तकों और लेखों को पढ़ने से आपकी
समझ को गहरा बनाने में मदद मिल सकती है। ये संसाधन बाइबल के इतिहास, भाषा, और व्याख्याओं
पर विभिन्न दृष्टिकोण प्रदान करते हैं।

2. मूल भाषाओं को सीखना (Mool Bhashao ko Sikhna):

बाइबल मूल रूप से हिब्रू, अरामाईक और यूनानी भाषाओं में लिखी गई थी। यदि आप इन भाषाओं को
सीखने में रुचि रखते हैं, तो आप बाइबल के मूल पाठ को अधिक गहराई से समझ पाएंगे।

3. पुरातात्विक खोजों का अध्ययन (Purata त्विक Khojon ka Adhyayan):

पुरातत्व बाइबल की कहानियों और घटनाओं को समझने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पुरातात्विक
खोजों का अध्ययन करने से आप बाइबल के ऐतिहासिक संदर्भ को बेहतर ढंग से समझ सकते हैं।

4. विभिन्न धर्मशास्त्रीय परंपराओं का अन्वेषण (Vishesh Dharmashास्त्रीय Paramparao ka Anveshan):

ईसाई धर्म के विभिन्न संप्रदायों की अपनी मान्यताएं और बाइबल की व्याख्याएं हैं। इन परंपराओं का
अध्ययन करने से आप बाइबल को समझने के विभिन्न तरीकों के बारे में जान सकते हैं।

5. बाइबल को समकालीन मुद्दों पर लागू करना (Baible ko Samakaleen Muddon par Laagu karna):

बाइबल के सिद्धांत आज के जटिल मुद्दों, जैसे कि गरीबी, युद्ध, और जैव प्रौद्योगिकी पर कै से लागू होते हैं,
इस पर विचार करें। बाइबल का मार्गदर्शन हमारे दैनिक जीवन में निर्णय लेने में हमारी सहायता कर
सकता है।

6. एक बाइबल अध्ययन समूह में शामिल हों (Ek Baible Adhyayan Samooh mein Shamil Hon):
अन्य विश्वासियों के साथ मिलकर बाइबल का अध्ययन करना सीखने और बढ़ने का एक शानदार तरीका
है। एक समूह में चर्चा करने से आपको विभिन्न दृष्टिकोणों पर विचार करने और अपनी समझ को
मजबूत करने में मदद मिल सकती है।

7. प्रार्थना और मनन के महत्व को बनाए रखें (Prarthna aur Manan ka Mahatv Banaye Rakhen):

बाइबल का अध्ययन ज्ञानवर्धक होना चाहिए, लेकिन यह उससे कहीं अधिक है। बाइबल का अध्ययन
करते समय प्रार्थना और मनन का अभ्यास करें। परमेश्वर से आपको उसका वचन समझने में मदद करने
के लिए कहें और अपने दिल को उसके संदेश के लिए खोलें।

बाइबल ज्ञान का भंडार अथाह है। निरंतर अध्ययन, प्रार्थना और मनन के माध्यम से आप परमेश्वर के
वचन की गहराई को समझ सकते हैं और उसे अपने जीवन में लागू कर सकते हैं। याद रखें, बाइबल का
अध्ययन एक यात्रा है, गंतव्य नहीं। इस यात्रा का आनंद लें और परमेश्वर के साथ अपने संबंध को
विकसित करते रहें!

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Please dont write like this but complete your deep study topics as you wrote above in Hindi

बाइबल ज्ञान की गहन विषय (Gahan Vishay)

बाइबल अध्ययन की यात्रा में अब तक हमने कई महत्वपूर्ण विषयों को देखा है। आइए, अब और भी
गहन विषयों में प्रवेश करें:

39. बाइबल में प्रतीकात्मक भाषा (Prateekात्मक Bhasha):

बाइबल अलंकारिक भाषा और प्रतीकों का प्रयोग करती है। इन प्रतीकों को समझना गहन अर्थ निकालने
में हमारी सहायता करता है।

उदाहरण के लिए, सिंह परमेश्वर की शक्ति का प्रतीक है, जबकि मेम्ना मसीह की शुद्धता का प्रतीक है।
बाइबल अध्ययन के संसाधनों और टिप्पणियों का उपयोग कर हम बाइबल के प्रतीकों को बेहतर ढंग से
समझ सकते हैं।

40. बाइबल में वाचा (Waada):

वाचा का अर्थ है परमेश्वर और उसके लोगों के बीच किया गया एक करार। बाइबल में कई वाचाओं का
वर्णन मिलता है, जिनमें नूह के साथ वाचा और दाऊद के साथ वाचा महत्वपूर्ण हैं।

वाचा का सिद्धांत परमेश्वर की वफादारी और उसके लोगों के साथ उसके निरंतर संबंध को दर्शाता है।

41. बाइबल में भविष्यवाणी की भूमिका (Bhavishyvani ki भूमिका):

बाइबल भविष्यवाणियों से भरी पड़ी है। इन भविष्यवाणियों में से कई पहले ही पूरी हो चुकी हैं, जो
परमेश्वर की सर्वज्ञता और उसकी योजनाओं की निश्चितता को प्रमाणित करती हैं।

भविष्यवाणी का अध्ययन हमें आने वाली घटनाओं के बारे में अंतर्दृष्टि प्रदान कर सकता है, लेकिन यह
सबसे महत्वपूर्ण रूप से हमें परमेश्वर के वफादार चरित्र और उसकी अंतिम विजय में भरोसा करने के
लिए प्रेरित करता है।

42. बाइबल में स्वर्गदूत (Swargadut):

स्वर्गदूत आत्मिक प्राणी हैं जो परमेश्वर की सेवा करते हैं। बाइबल स्वर्गदूतों के विभिन्न रैंकों और कार्यों
का वर्णन करती है।

स्वर्गदूत परमेश्वर के संदेशवाहक, रक्षक और सेवक के रूप में कार्य करते हैं।

43. मसीह का पुजारीत्व (Masih ka Pujari त्व):

बाइबल यीशु मसीह को महायाजक के रूप में वर्णित करती है।

उन्होंने हमारे लिए बलिदान दिया और अब स्वर्ग में भगवान के सिंहासन के सामने हमारी हिमायती बन
गई हैं।
44. पवित्र आत्मा के कार्य (Pavitra Aatma ke Kary):

पवित्र आत्मा भगवान का तीसरा व्यक्ति है। वह विश्वासियों को शक्ति प्रदान करता है, उनका मार्गदर्शन
करता है और उन्हें मसीह के समान बनने में सहायता करता है।

पवित्र आत्मा के कार्य चर्च के निर्माण और भगवान के राज्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण हैं।

45. आख़िरत (आख़िररत):

बाइबिल में भविष्य होने वाली कहानियों का वर्णन है, जिसमें ईसा मसीह का दूसरा आगमन, मूर्ति का
पुर्नजन्म और भगवान के राज्य की स्थापना शामिल है।

आख़रीत की शिक्षा हमें आशा प्रदान करती है और हमें मसीह के लिए तैयार रहने के लिए प्रेरित करती
है।

यह पुस्तकालय ज्ञान के कु छ और गहन विषय हैं। आप इन विषयों पर अपना अध्ययन जारी रख सकते
हैं और भगवान के वचनों की समृद्धि का अनुभव कर सकते हैं।

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गहन विषय (गहन विषय)

आपके द्वारा दिए गए विभिन्न सिद्धांतों का अध्ययन किया गया है। अब और भी गहराई में जाने के
लिए तैयार हैं? आइए, कु छ जटिल विषयों पर चर्चा करें:

46. बाइबिल में युद्ध और हिंसा (युद्ध और हिंसा):

बाइबल में युद्ध और हिंसा के कई उदाहरण हैं। यह वर्णन परेशान करने वाले हो सकते हैं और यह प्रश्न
उठा सकते हैं कि ये भगवान के चरित्र के क्या हैं।
युद्ध और हिंसा के सन्दर्भ पर ध्यान देना महत्वपूर्ण है। फ़्राईफ़ाइल युद्ध को हमेशा सकारात्मक रूप से
चित्रित नहीं किया जाता है, बल्कि यह युद्ध के दैवीय पहलुओं को भी ख़राब करता है।

साथ ही, यह महत्वपूर्ण है कि पुरालेख का ऐतिहासिक संदर्भ पढ़ा जाए। प्राचीन काल में युद्ध आम था, और
उस समय के समाज का यथार्थ चित्रण करता है।

47. लाइब्रेरी में कठिन भविष्यवाणियां (कै थिन भविष्यवाणियां):

लाइब्रेरी में कु छ भविष्यवाणियां कठिन और ऐतिहासिक भाषा में लिखी गई हैं। इन भविष्यवाणियों का
वर्णन करना मुश्किल हो सकता है।

विभिन्न विद्वान भविष्यवाणियों की व्याख्या को लेकर अलग-अलग दृष्टिकोण रखते हैं। कु छ


भविष्यवाणियों को सैद्धांतिक रूप से समझा जाता है, जबकि अन्य को अधिक प्रतीकात्मक माना जाता है।

महत्वपूर्ण बात यह है कि बाइबिल का अध्ययन समय खुला और दिमाग रखना चाहिए।

48. विज्ञान और बाइबिल के बीच सामंजस्य (विज्ञान और बाइबिल में समंजस्य):

विज्ञान और लाइब्रेरी के बीच कथित विरोध एक सतत बहस का विषय है।

कु छ लोगों का मानना है कि विज्ञान और बाइबिल में मतभेद हैं, जबकि अन्य का मानना है कि दोनों
एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं।

हमें विज्ञान भौतिक जगत को समझने में मदद मिलती है, जबकि बाइबल हमें आध्यात्मिक जगत को
समझने में मदद करती है। दोनों के अध्ययन में भगवान की रचना और उनकी महिमा के बारे में अधिक
समग्र दृष्टिकोण प्रदान किया जा सकता है।

49. बाइबिल की वास्तुकला और आधुनिक समाज (नैतिकता और आधुनिक समाज):

लाइब्रेरी लाइब्रेरी के बारे में स्पष्ट निर्देशक संस्थान हैं। हालाँकि, आधुनिक समाज के नैतिक नैतिकता के
आधार पर विभिन्नता हो सकती है।

आधुनिक दुनिया में बाइबल के सैद्धांतिक सिद्धांतों को लागू करना एक चुनौती हो सकती है।
हमें पाठ्यपुस्तक के मूल सिद्धांतों को बनाए रखना है, समाज के समसामयिक वातावरण पर ध्यान देना
और निर्णय लेना आवश्यक है।

50. बाइबिल का अनुवाद और व्याख्या (अनुवाद और व्याकरण):

बाइबल के मूल समुद्र तटों में से कई का अनुवाद किया गया है। अनुवाद प्रक्रिया के दौरान कु छ अर्थ
खोये जा सकते हैं।

विभिन्न व्याख्याओं में सूक्ष्म अंतर हो सकते हैं, जो व्याख्या को प्रभावित कर सकते हैं।

बाइबिल के अध्ययन में समय-समय पर विभिन्न व्याख्याओं और ग्रंथों पर विचार करना महत्वपूर्ण है।
इससे आपको पाठ की गहरी समझ प्राप्त करने में मदद मिलेगी।

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कृ पया बाइबिल से उपदेश के लिए 100 अद्वितीय विषय या शीर्षक या सामग्री लिखें और छं दों के साथ
10 उप-बिंदु लिखें, कृ पया हिंदी में लिखें

100 उपदेश विषय-साहित्य से (प्रत्येक के साथ 10 उप-बिंदु एवं छं द)

1. भगवान का प्रेम (परमेश्वर का प्रेम):

भगवान का प्रेम सभी मनुष्यों के लिए है (यूहन्ना 3:16)।

उनका प्रेम बिना शर्त और अपरमिट है (रोमियों 8:38-39)।

हम ईश्वर के प्रेम का अनुभव उसके द्वारा बताये गये ईसा मसीह के माध्यम से कर सकते हैं (1 यूहन्ना
4:9-10)।

2. विश्वास का महत्व (Vishwas ka mahatv):

ईश्वर पर विश्वास करना और उसकी परिभाषा में विश्वास रखना है (इब्रानियों 11:1)।

अनुग्रह के द्वारा और विश्वास के द्वारा ही दर्शाया गया है (इफिसियों 2:8)।


मसीह में हमारा विश्वास हमें एक नया जीवन जीने और भगवान की इच्छा को पूरा करने की शक्ति देता
है (गलतियों 5:6)।

3. प्रार्थना की शक्ति (प्रार्थना की शक्ति):

प्रार्थना भगवान से बात करने और उसके आदर्श समर्थकों का तरीका है (मत्ती 6:9-13)।

भगवान हमारी प्रार्थनाओं का उत्तर देते हैं (यर्मियाह 29:12)।

प्रार्थना हमें ईश्वर के करीब लाती है और हमें आत्मिक रूप से मजबूत बनाती है (याकू ब 5:16)।

4. क्षमा का वरदान (Kshama ka Verdan):

भगवान क्षमा करने वाला भगवान है (भजन संहिता 103:8)।

हमें भी दस्तावेजों को क्षमा करना चाहिए, जिस प्रकार भगवान ने हमें क्षमा किया है (मत्ती 6:14-15)।

क्षमा हमें चंगाई, मेल-मिलाप और मुक्ति का मार्ग सुधारता है (कु लुस्सियों 3:13)।

5. पवित्र आत्मा का कार्य (Pavitra Aatma ka Karya):

पवित्र आत्मा भगवान का तीसरा व्यक्ति है (1 कु रिन्थियों 12:11)।

वह विश्वासियों को शक्ति प्रदान करता है, उनका मार्गदर्शन करता है और उन्हें मसीह के समान बनने में
सहायता करता है (यूहन्ना 14:16-17)।

पवित्र आत्मा के कार्य चर्च के निर्माण और भगवान के राज्य को आगे बढ़ाने में महत्वपूर्ण हैं
(आध्यात्मकों के कार्य 1:8)।

6. मसीह का बलिदान (मसीह का बलिदान):

यीशु मसीह का क्रू स पर बलिदान मानव जाति के पापों का प्रायश्चित्त था (रोमियों 5:8)।
उनके बलिदान के माध्यम से, भगवान के साथ सही संबंध बहाल करना और अनंत जीवन प्राप्त करना
संभव है (यूहन्ना 14:6)।

ईसा मसीह का बलिदान, प्रेम और अनुग्रह का सबसे बड़ा प्रदर्शन है (1 यूहन्ना 4:9-10)।

7. पुनरुत्थान की आशा (Punarutthan Ki Asha):

ईसा मसीह की मृत्यु पर विजय प्राप्त हुई और मृतकों में से जी उठा (1 कु रिन्थियों 15:1-4)।

मसीह के पुनरुद्धार से हमें भी मृत्यु के बाद जीवन की आशाएँ मिलती हैं (यूहन्ना 11:25-26)।

पुनर्स्थापना की आशा हमारे इस जीवन में आशा और उभरती हुई स्थिति है (रोमियों 8:24-25)।

8. पवित्र जीवन (पवित्र जीवन):

बाइबिल हमें पवित्र जीवन जीने का सिद्धांत देता है (1 थिस्सलुनिके 4:3)।

इसका अर्थ

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8. पवित्र जीवन (पवित्र जीवन) (जारी):

इसका अर्थ है डिसाइल विचारधारा और कार्य से दूर रहना और भगवान की इच्छा के अनुसार जीना (1
यूहन्ना 5:17)।

पवित्र जीवन जटिल नहीं है, लेकिन यह भगवान के साथ निरंतर संबंध बनाए रखता है और पदों की सेवा
करना पर आधारित है (मीका 6:8)।

9. परीक्षा और कठिनाइयाँ (परीक्षा और कठिनाइयाँ):


हर किसी को कभी न कभी यात्राओं और रहस्यों का सामना करना पड़ता है (याकू ब 1:2)।

लेकिन, भगवान हमसे वादा करता है कि वह हमें कभी अके ला नहीं छोड़ेगा (इब्रानियों 13:5)।

हम अपने धर्म के माध्यम से भगवान पर विश्वास और मजबूत कर सकते हैं और आध्यात्मिक रूप से
विकसित हो सकते हैं (रोमियों 5:3-4)।

10. भगवान की योजना (परमेश्वर की योजना):

भगवान हमारे जीवन के लिए एक अच्छी योजना है (यर्मियाह 29:11)।

खैर हम हमेशा उसकी योजना को न समझें, फिर भी हम विश्वास रख सकते हैं कि वह हमारी भलाई की
ही इच्छा रखता है (रोमियों 8:28)।

भगवान की योजना का हिस्सा बनने के लिए, हमें उसकी इच्छा का पता लगाना और उसका पालन करना
चाहिए (मत्ती 7:21)।

11. दान देने का महत्व (Daan dene ka mahatv):

बाइबिल हमें दान देने और चर्चों की मदद करने के लिए प्रस्ताव देता है (नीतिवचन 19:17)।

दान देने से हमें प्रसन्नता होती है और भगवान के आशिषों का मार्ग प्रशस्त होता है (लूका 6:38)।

दान विभिन्न सिद्धांतों में हो सकता है, जैसे धन, समय या प्रतिभा (रोमियों 12:8)।

12. परोपकारिता (परोपकारिता):

परोपकारिता का अर्थ है निवेशकों की भलाई करना (गलतियों 5:13)।

जीसस ने हमें वेबसाइटों की सेवा करने का उदाहरण दिया (मत्ती 20:28)।

ईश्वर चाहता है कि हम करुणा और प्रेम के साथ लेखों की मदद करें (1 यूहन्ना 3:17-18)।
13. क्षमाशीलता (क्षमशीलता):

क्षमाशीलता का अर्थ है क्रोध या क्रोध को अपने ऊपर हावी न होना देना (कु लुस्सियों 3:13)।

हमें लेखों को उसी प्रकार की क्षमा करनी चाहिए जिस प्रकार भगवान ने हमें क्षमा की है (मत्ती 6:14-
15)।

क्षमाशीलता हमें चंगाई, मेल-मिलाप और मुक्ति का मार्ग दिखाती है (इफिसियों 4:31-32)।

14. ईमानदारी (इमानदारी):

विश्वसनीयता का अर्थ सत्यवादी होना और विश्वसनीयता से पेश आना है (इब्रानियों 13:18)।

भगवान झूठ से घृणा करते हैं और विश्वसनीयता को महत्व देते हैं (नीतिवचन 6:16-19)।

सत्यता से जीने से हमारे जीवन में आशिषें आती हैं और लेखों के साथ हमारे संबंध मजबूत होते हैं
(भजन संहिता 37:37)।

15. संयम (संजम):

संयम का अर्थ है अपनी निष्ठा और साधना पर नियंत्रण रखना (गलतियों 5:23)।

संयम हमें बुद्धि

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15. संयम (संजम) (जारी):


संयम हमें बुद्धि निर्णय लेना, पाप से दूर रहना और भगवान की इच्छा के अनुसार जीवन में सहायता
करता है (नीतिवचन 25:28)।

16. धैर्य (धैर्य):

गंभीरता का अर्थ है कठिन पर्वतमाला में हार न मानना (याकू ब 1:2-4)।

ईश्वर हमें जिम्मेदारी निभाने का बल देता है (इब्रानियों 10:36)।

गंभीरता हमें आशा बनाए रखती है और विपरीत विचारधारा के साथ आगे बढ़ने में मदद करती है
(रोमियों 5:3-4)।

17. कृ पा (Krupa):

कृ पा का अर्थ है भगवान का अप्राप्त (अनधिकृ त) अनुग्रह।

वह हमें अपनी योग्यता के अनुसार नहीं, बल्कि अपने प्रेम का आशीर्वाद देता है (इफिसियों 2:8)।

भगवान की कृ पा हमें नियमों का मार्ग प्रदान करती है और हमें एक नया जीवन जीने की शक्तियाँ प्रदान
करती है (तीतुस 2:11-12)।

18. शांति (शांति):

भगवान की शांति से आने वाली शांति अलग है। यह हमारे मन में एक अलौकिक शांति है जो हमें बीच
में भी स्थिर रहने में मदद करती है (फिलिप्पियों 4:6-7)।

भगवान की शांति का अनुभव करने के लिए, हमें उस पर विश्वास करना चाहिए और उसे अपने जीवन में
उपदेश देना चाहिए (यशायाह 26:3)।

19. उत्साह (उत्साह):

उत्साह का अर्थ है भगवान के कार्य और उसकी महिमा का पालन करना।


बाइबिल हमें प्रोत्साहन के साथ भगवान की सेवा करने और उसके आज्ञाओं का पालन करने का आह्वान
करता है (रोमियों 12:11)।

उत्साह हमें ईसा मसीह के बारे में और भगवान के राज्य को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित करता है (मत्ती
28:19-20)।

20. परिवार का महत्व (परिवार का महत्व):

बाइबल परिवार को समाज की इमारत का आधार स्तंभ स्तंभ है।

ईश्वर चाहता है कि परिवार प्रेम, सम्मान और वचनबद्धता पर आधारित हो (इफिसियों 5:22-33)।

मजबूत परिवार बच्चों को स्वस्थ वातावरण प्रदान करते हैं और समाज में स्थिरता स्थापित करते हैं
(नीतिवचन 22:6)।

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21. विवाह का अर्थ (Vivaah ka Arth):

बाइबल विवाह को एक पवित्र संस्था के रूप में स्थापित किया गया है (उत्पत्ति 2:24)।

विवाह एक पति और पत्नी के बीच जीवन भर चलने वाला वचन है (मत्ती 19:6)।

पति-पत्नी को एक दूसरे के प्रति प्रेम, सम्मान और वफादारी दिखानी चाहिए (इफिसियों 5:33)।

22. माता-पिता और बच्चे (Mata-Pita aur Bacche):

बच्चों को माता-पिता का आदर करना और उनके आज्ञापालन की शिक्षा देना (निर्गमन 20:12)।
माता-पिता को भी अपने बच्चों से प्यार करना, उनका पालन-पोषण करना और उन्हें सही मार्गदर्शन की
जिम्मेदारी दी गई है (इफिसियों 6:4)।

23. क्षमा करने की शक्ति:

क्षमा करने की शक्ति से बहुधा मजबूत होती हैं और मन को शांति मिलती है (कु लुस्सियों 3:13)।

संस्थाओं को माफी देने का मतलब यह नहीं है कि उन्हें सही ठहराया जाए, बल्कि इससे हमें आगे बढ़ने
में मदद मिलेगी। (मत्ती 6:14-15)

24. क्रोध पर नियंत्रण (क्रोध पर नियंत्रण):

क्रोध एक विनाशकारी भावना है जो हमारे संबंधों और निर्णयों को नुकसान पहुंचा सकती है (नीतिवचन
16:32)।

बाइबिल हमें क्रोध को अपने ऊपर आधिपत्य न देने और क्षमा और मेल-मिलाप का जुलूस का आह्वान
करता है (इफिसियों 4:26-27)।

25. इर्श्या से शिक्षा:

सेहत की सफलता और खुशियों को देखने के मन में जलन पैदा होती है। (नीतिवचन 27:4)

ईश्वर के आशीर्वाद से हमारा धर्म दूर हो सकता है। किताबों की ख़ुशी में ख़ुशी का प्रयास करें। (रोमियों
12:15)

26. धन का सही उपयोग (Dhan ka sahi upyog):

बाइबल धन को बुरा नहीं मानता, बल्कि यह धन के लोभ से बचने की शिक्षा देता है (1 तिमुथियुस 6:9-
10)।

धन की बुद्धि का उपयोग करना चाहिए। हमें भगवान के कार्यों और नारों की मदद के लिए दान देना
चाहिए (लूका 6:38)।
27. सामर्थ्‍य का सदुपयोग (Saamarthya ka Sarupyog):

ईश्वर प्रत्येक व्यक्ति को प्रतिभा और शक्ति प्रदान करता है (1 कु रिन्थियों 12:7)।

हमें अपनी दृढ़ता का उपयोग भगवान की महिमा के लिए और लेखों की सेवा के लिए करना चाहिए
(मत्ती 25:14-30)।

28. ईमानदारी का व्यापार (इमानदारी का व्यापार):

बाइबल व्यापार में सत्यनिष्ठा का पालन करने की शिक्षा संस्थान है (नीतिवचन 16:8)।

हमें बेंचमार्क या मापदण्ड का सहारा नहीं लेना चाहिए (लैव्य व्यवस्था 19:35-36)।

29. पर्यावरण की देखभाल (पर्यावरण की देख-भाल):

भगवान ने हमें सारि सृष्टि का प्रबंधक बनाया है (उत्पत्ति 1:28)।

हमें पर्यावरण की देखभाल करनी चाहिए और पृथ्वी के प्राकृ तिक निर्माण का ज्ञान से उपयोग करना
चाहिए (बी

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30. पुर्नोत्थान का महत्व (Punarutthan ka mahatv):

ईसा मसीह के पुनरावलोकन में मृत्यु पर विजय प्राप्त हुई और हमें भी अनंत जीवन की आशा प्रदान की
गई (यूहन्ना 11:25-26)।

पुनर्स्थापना हमें इस जीवन में मृत्यु के भय से मुक्त करती है और एक बेहतर भविष्य की आशा देती है
(1 कु रिन्थियों 15:51-57)।
पुर्नवास का विश्वास हमें पाप पर विजय प्राप्त करना और भगवान की इच्छा के अनुसार जीवन की
प्रेरणा देता है (रोमियों 6:4-8)।

31. पवित्र आत्मा का वास (Pavitra Aatma ka Vaas):

जब हम ईसा मसीह के साथ विश्वास करते हैं, तो वे पवित्र आत्मा हमारे अवशेषों में निवास करते हैं
(रोमियों 8:9)।

पवित्र आत्मा हमें शक्ति प्रदान करती है, हमारा मार्गदर्शन करती है और हमें मसीह के समान बनने में
मदद करती है (गलतियों 5:22-23)।

पवित्र आत्मा के वास के द्वारा, हम भगवान के साथ एक गहरा रिश्ता विकसित कर सकते हैं और उसके
उद्देश्य को पूरा करने के लिए अपवित्र हो सकते हैं (अध्यात्मों के काम 1:8)।

32. चर्च का महत्व (Church ka mahatv):

चर्च उन विश्वासों का समुदाय है जो ईसा मसीह में अपना विश्वास रखते हैं (1 कु रिन्थियों 12:27)।

चर्च एक ऐसा स्थान है जहाँ हम भगवान की पूजा कर सकते हैं, भगवान के वचनों का अध्ययन कर
सकते हैं, और एक और के साथ जेमिनशाफ्ट बना सकते हैं (इब्रानियों 10:25)।

चर्च का उद्देश्य भगवान के राज्य को आगे बढ़ाना, लोगों को मसीह के बारे में बताना और दुनिया में
परिवर्तन लाना है (मत्ती 28:19-20)।

33. प्रचार का कार्य (prachar ka karya):

यीशु मसीह ने अपने चेलों को यह आदेश दिया कि वे और सारे जगत में वस्तुओं का प्रचार करें (मरकु स
16:15)।

प्रचार का अर्थ है लोगों को ईसा मसीह के बारे में बताना और उनका मार्ग दिखाना।

प्रत्येक विश्वासी को किसी न किसी रूप में प्रचार कार्य में भाग लेने के लिए बुलाया जाता है (प्रेमियों के
काम 1:8)।
34. पवित्र आत्मा के उपदान (Pavitra Aatma ke Updaan):

पवित्र आत्मा विश्वासियों को विभिन्न आत्मिक उपदान देता है ताकि वे चर्च को भगवान की राज्य सेवा
करने में सक्षम बना सकें (1 कु रिन्थियों 12:7-11)।

ये उपदान सेवा करने के विभिन्न तरीके हैं, जैसे कि शिक्षा, पी भविष्यवाणी (भविष्यवाणी करना), चंगाई,
और सहायता करना।

महत्वपूर्ण बात यह है कि भगवान की महिमा और चर्च की उन्नति के लिए इन उपदानों का उपयोग


किया जाए (1 कु रिन्थियों 14:12)।

35. अंत के समय (Ant ke Samay):

लाइब्रेरी में भविष्य घटित होने वाली कहानियों के बारे में बताया गया है, जिसमें ईसा मसीह का दूसरा
आगमन, युद्ध और नई पृथ्वी की स्थापना शामिल है (वाक्य 21)।

अंत के समय के विषयों पर विजय प्राप्त करना कठिन हो सकता है, लेकिन वे हमें आशा और प्रेरणा दे
सकते हैं क्योंकि वे हमें ग्रहण करते हैं कि भगवान का एक निश्चित उद्देश्य है और वह अंत में विजय
प्राप्त करेंगे (यशायाह 46)

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36. कथिनाइयों में आशा:

जीवन में हर किसी को कभी न कभी किसी का सामना करना पड़ता है, लेकिन बाइबिल हमें आशा का
संदेश देता है (भजन संहिता 34:18)।

भगवान हमसे वादा करता है कि वह हमें कभी अके ला नहीं छोड़ेगा और हमारी परीक्षाओं में हमारा साथ
देगा (इब्रानियों 13:5)।
कठिनाइयाँ हमें आध्यात्मिक रूप से विकसित होने और भगवान पर अपना भरोसा मजबूत करने के
अवसर प्रदान करती हैं (याकू ब 1:2-4)।

37. परीक्षाओं में विजय (परीक्षाओं में विजय):

बाइबल हमें सिखाती है कि हम परीक्षाओं को पार कर सकते हैं और विजय प्राप्त कर सकते हैं (1
कु रिन्थियों 10:13)।

भगवान हमसे मुक्ति का वादा नहीं करता है, लेकिन वह वादा करता है कि वह हमें उनका सामना करने
की शक्ति देगा (1 कु रिन्थियों 10:13)।

परीक्षाओं के दौरान भगवान पर भरोसा रखें और अपनी बुद्धि को बनाए रखें, इससे हम विजयी हो सकते
हैं (याकू ब 1:5)।

38.निर्णय लेने में बुद्धि:

जीवन में निर्णय निर्णय लेना संभव हो सकता है, लेकिन बाइबिल हमें बुद्धि और समझ के लिए भगवान
से प्रार्थना करने का सिद्धांत देता है (याकू ब 1:5)।

ईश्वर का वचन हमें जीवन के विभिन्न विचारधाराओं में मार्गदर्शन प्रदान करता है।

बाइबल के सिद्धांतों का पालन करके हम ईश्वर की इच्छा के अनुसार निर्णय ले सकते हैं (भजन संहिता
119:105)।

39. लालच से शिक्षा

लालकृ ष्ण मिशनरीज़ और भगवान के आशिषों से दूर जा सकते हैं (1 तिमुथियुस 6:6-10)।

हमें संतोषी रहना चाहिए और जो हमारे पास है उसमें खुशी ढूंढनी चाहिए (फिलिप्पियों 4:11-13)।

लालचियों के समान से बचने के लिए, हमें भगवान पर अपना भरोसेमंद बनाए रखना चाहिए और अपना
मन ले जाना चाहिए (इब्रानियों 13:5)।
40. क्षमा मांगना (Kshama Maangna):

जब हम गलती करते हैं तो भगवान चाहते हैं कि हम नम्रतापूर्वक क्षमा मांगें (1 हन्ना 1:9)।

क्षमादान का अर्थ यह है कि हम अपनी स्वीकृ ति स्वीकार करते हैं और दस्तावेजों को चोट के लिए
नामांकित करते हैं।

फर्म से मजबूत मजबूत होते हैं और हमारे दस्तावेजों के साथ मेल-मिलाप का रास्ता खुलता है (मत्ती
5:23-24)।

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41. मूर्ति का महत्व (Vinamrata ka mahatv):

फ़ास्ट का अर्थ अभिमान न करना है और अपने अभिलेखों से श्रेष्ठ न स्कोर करना है (फ़िलिपियों 2:3)।

भगवान अभिमानियों का विरोध करता है, लेकिन वह विदेशी लोगों को अनुग्रह देता है (याकू ब 4:6)।

आस्था हमें दस्तावेजों की सेवा करने और भगवान की इच्छा के अनुसार जीवन में सहायता प्रदान करती
है (मत्ती 20:28)।

42. सेवा का जीवन (सेवा का जीवन):

ईसा मसीह ने लेखकों की सेवा करने का उदाहरण दिया (यूहन्ना 13:4-5)।

हमें भी इसी तरह के सहयोगियों को पूरा करने और उनकी सेवा करने के लिए प्रेरित करना चाहिए
(गलतियों 5:13)।

भगवान उन लोगों को आशिष देते हैं जो भगवान की सेवा में अपना जीवन व्यतीत करते हैं (मत्ती
25:35-40)।
43. आत्मसंयम (आत्मसंयम):

आत्मसंयम का अर्थ है अपनी आज्ञा और आचरण पर नियंत्रण रखना (नीतिवचन 16:32)।

आत्मसंयम हमें बुद्धि निर्णय लेना, बुरी आदत से दूर रहना और भगवान की इच्छा के अनुसार जीवन में
मदद करना है (2 तिमुथियुस 1:7)।

44. पवित्रता (पवित्रता):

बाइबिल हमें पवित्र जीवन जीने का सिद्धांत देता है (1 थिस्सलुनिके 4:3)।

इसका अर्थ है पाप से दूर रहना और ईश्वर की इच्छा से जीना (इब्रानियों 12:14)।

पवित्रता का जीवन जीने के लिए, हमें भगवान के वचनों का अध्ययन करना चाहिए और पवित्र आत्मा के
उपदेश का पालन करना चाहिए (2 तिमुथियुस 3:16-17)।

45. मिशनरी कार्य (मिश्नारी कार्य):

यीशु मसीह ने अपने चेलों को यह आदेश दिया कि वे और सारे जगत में वस्तुओं का प्रचार करें (मरकु स
16:15)।

मिशनरी कार्य का अर्थ है उन लोगों तक भगवान का संदेश भेजना जिसके बारे में अभी तक नहीं सुना
गया है।

हर किसी के रूप में मिशनरी कार्य में भाग ले सकते हैं, अपने आस-पास के लोगों को बजट सुनाकर या
मिशन कार्य का आर्थिक सहयोग देकर (रोमियों 10:15)।

46. बाइबिल का अध्ययन (बाइबिल का अध्ययन):

ईश्वर का वचन है और यह हमारे जीवन के लिए मार्गदर्शन का एक महत्वपूर्ण स्रोत है (2 तिमुथियुस


3:16)।
नियमित रूप से बाइबिल का अध्ययन करने से हम भगवान को बेहतर तरीके से जान सकते हैं और
उनकी इच्छा को समझ सकते हैं (भजन संहिता 1:1-2)।

बाइबल का अध्ययन हमें आध्यात्मिक रूप से विकसित होने और जीवन के महाकाव्य का सामना करने
में मदद करता है (याकू ब 1:25)।

47. प्रार्थना की शक्ति (जारी):

प्रार्थना भगवान से बात करने और उसके आदर्श समर्थकों का तरीका है (मत्ती 6:9-13)।

हमें हर बात के लिए प्रार्थना करनी चाहिए (फिलिप्पियों 4:6)।

प्रार्थना हमें ईश्वर के करीब लाती है, हमें आत्मिक शक्ति प्रदान करती है और हमें वरदान में आशा देती
है

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48. आ शा
का महत्व (Aasha ka mahatv):

बाइबल हमें आशा का संदेश सेवा प्रदान करता है (रोमियों 15:13)।

यह आशा हमें इस बात का भरोसा दिलाती है कि भविष्य उज्ज्वल है, वर्तमान परिस्थितियाँ कै सी भी हैं।

आशा हमें प्रमाणित करने और बेहतर भविष्य के लिए जीन की प्रेरणा देती है (यर्मियाह 29:11)।

49. विश्वास (विश्वास का विश्वास):

पुरालेख विश्वास के महत्व पर बल दिया गया है (इब्रानियों 11:1)।

सच्चा विश्वास के वल भगवान के वचनों पर विश्वास करना नहीं है, बल्कि उनके वचनों पर भी विश्वास
करना है।

विश्वास हमें मजबूत बनाता है भगवान की इच्छा के अनुसार जंगल और गुफाओं पर विजय प्राप्त करने
में सहायता मिलती है (मत्ती 17:20)।

50. परीक्षाओं में विवेक (Parikshon meinvivek):

जीवन में जीवन का सामना करने का तरीका सिखाया जाता है, लेकिन बाइबिल हमें बुद्धि से उनका
सामना करने का तरीका सिखाता है (याकू ब 1:2-4)।
पर्यटन के दौरान हमें कोई निर्णय नहीं लेना चाहिए बल्कि भगवान का मार्गदर्शन करना चाहिए
(नीतिवचन 3:5-6)।

भगवान की बुद्धि का मार्गदर्शन प्राप्त करने के लिए हमें प्रार्थना करनी चाहिए और उसके वचनों का
अध्ययन करना चाहिए (भजन संहिता 119:105)।

51. नकारात्मक विचारों को दूर करें:

नकारात्मक विचार हमें निराश और हतोत्साहित कर सकते हैं। बाइबल हमें सकारात्मक सोच रखता है
और भगवान के विचारों पर विश्वास करने का दावा करता है (फिलिप्पियों 4:8)।

हमें अपने मन में शुद्ध और सकारात्मक विचारों की आलोचना के लिए भगवान के वचनों का मनन करना
चाहिए (भजन संहिता 119:9)।

सकारात्मक दृष्टिकोण हमें उपन्यास का सामना करने और जीवन में सफल होने में मदद करता है।

52. टिंडिंग्स का सामना (टिंडिंग्स का सामना):

हमें टिप्पणियाँ देना अप्रिय हो सकता है और भगवान से दूर जा सकता है। बाइबिल हमें टिंडिंग का
विरोध करने और भगवान के वचन पर टिके रहने का दावा करता है (याकू ब 4:7)।

टिंडिंग का सामना करने के लिए, हमें भगवान के वचनों का अध्ययन करना चाहिए, प्रार्थना करना चाहिए
और भगवान के लोगों के साथ जेमिनशाफ्ट बनाना चाहिए।

भगवान हमें टिंडिंग पर विजय प्राप्त करने और पवित्र जीवन की शक्ति देता है (1 कु रिन्थियों 10:13)।

53. तृष्णा से मुक्ति (Irshya se Depression):

सेहत की सफलता और खुशियों को देखने के मन में जलन पैदा होती है। तीर्थ हमारे भगवान के आशिषों
से दूर हो सकता है (नीतिवचन 27:4)।

किताबों की ख़ुशी में ख़ुशी का प्रयास करें। लेखों की सफलता को अपनी प्रेरणा। (रोमियों 12:15).
भगवान से प्रार्थना करें कि वह हमारे पूर्वजों से मनोकामनाएं दूर कर दे और हमारे साथियों के साथ खुशी
की दुआ दे।

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