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भक्ति वृक्षा - नियम पुस्तिका - कृ ष्ण सेवक १८.

विधि-विधान
१८. विधि-विधान

अथ चितं समाधातुं न शक्नोपि मयि स्थिरं।


अभ्यासयोगेन ततो मामिच्छाप्तुं धनञ्जय॥ (भ. गी. १२.९)

अनुवाद:
हे अर्जुन, हे धनञ्जय! यदि तुम अपने चित्त को अविचल भाव से मुझ पर स्थिर नहीं कर सकते, तो तुम भक्तियोग
के विधि-विधानों का पालन करो। इस प्रकार तुम मुझे प्राप्त करने की चाह उत्पन्न करो।
तात्पर्य:
इस श्लोक में भक्तियोग की दो पृथक-पृथक विधियाँ बताई गई हैं। पहली विधि उस व्यक्ति पर लागू होती है,
जिसने दिव्य प्रेम द्वारा भगवान कृ ष्ण के प्रति वास्तविक आसक्ति उत्पन्न कर ली है। दूसरी विधि उसके लिए है,
जिसने इस प्रकार से भगवान कृ ष्ण के प्रति आसक्ति नहीं उत्पन्न की। इस द्वितीय श्रेणी के लिए नाना प्रकार के
विधि-विधान हैं, जिनका पालन करके मनुष्य अन्तत:
कृ ष्ण-आसक्ति अवस्था को प्राप्त हो सकता है।
भक्तियोग इन्द्रियों का परिष्कार (संस्कार) है। संसार कें इस समय सारी इन्द्रियाँ सदा अशुद्ध है, क्योंकि वे
इन्द्रियतृप्ति में लगी हुई है। लेकिन भक्तियोग के अभ्यास से ये इन्द्रियाँ शुद्ध की जा सकती हैं और शुद्ध हो जाने पर
वे परमेश्वर के सीधे सम्पर्क में आती हैं। इस संसार में रहते हुए मैं किसी अन्य स्वामी की सेवा में रत हो सकता हूँ,
लेकिन मैं सचमुच उसकी प्रेमपूर्ण सेवा नहीं करता। मैं के वल धन पाने के लिए सेवा करता हूँ। और वह स्वामी
भी मुझसे प्रेम नहीं करता है, वह मुझसे सेवा कराता है और मुझे धन देता है। अतएव प्रेम का प्रश्न ही नहीं उठता।
लेकिन आध्यात्मिक जीवन के लिए मनुष्य को प्रेम की शुद्ध अवस्था तक ऊपर उठना होता है। यह प्रेम अवस्था
इन्हीं इन्द्रियों के द्वारा भक्त के अभ्यास से प्राप्त की जा सकती है।
यह ईश्वरप्रेम अभी प्रत्येक हृदय में सुप्त अवस्था में है। वहाँ पर यह ईश्वरप्रेम अनेक रूपों में प्रकट होता है, लेकिन
भौतिक संगति से दूषित हो जाता है। अतएव उस भौतिक संगति से हृदय को विमल बनाना होता है और उस सुप्त
स्वाभाविक कृ ष्ण-प्रेम जागृत करना होता है। यही भक्तियोग की पूरी विधि है।
भक्तियोग के विधि-विधानों का अभ्यास करने के लिए मनुष्य को किसी सुविज्ञ गुरु के मार्गदर्शन में कटिबद्ध
नियमों का पालन करना होता है - यथा ब्राह्ममुहूर्त में जागना, स्नान करना, मन्दिर में जाना तथा प्रार्थना करना एवं
हरे कृ ष्ण कीर्तन करना, फ़िर अर्चविग्रह पर चढ़ाने के लिए फ़ू ल चुनना अर्चविग्रह पर भोग चढ़ाने के लिए भोजन
बनाना, प्रसाद ग्रहण करना आदि। ऐसे अनेक विधि-विधान हैं, जिनका पालन आवश्यक है। मनुष्य को शुद्ध

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भक्तों से नियमित रूप से भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत सुनना चाहिए। इस अभ्यास से कोई भी ईश्वर-प्रेम के स्तर
तक उठ सकता है और तब भगवद्धाम तक उसका पहुँचना दृढ है। विधि-विधानों के अन्तर्गत गुरु के
आदेशानुसार भक्तियोग का यह अभ्यास करके मनुष्य निश्चय ही भगवत्प्रेम की अवस्था को प्राप्त हो सके गा।
वैदिक ग्रंथों में अनेक प्रकार के विधि-विधान है और यदि कोई सचमुच भगवान कृ ष्ण को जानना चाहता है तो
उसे प्रामाणिक ग्रन्थों में उल्लिखित विधियों का पालन करना चाहिए। वह इन नियमों के अनुसार तपस्या कर
सकता है। उदाहरणार्थ, कठिन तपस्या के हेतु वह कृ ष्णजन्माष्टमी को, जो कि कृ ष्ण का आविर्भाव दिवस है, तथा
मास की दोनों एकादशियों को उपवास कर सकता है।
ब्रह्म वैवर्त पुराण में कहा गया है कि जो व्यक्ति एकादशी के दिन उपवास करता है वह सारे पापों से मुक्त हो जाता
है और पवित्र जीवन में अग्रसर होता है। मूल सिद्धांत मात्र उपवास करना नहीं है अपितु, गोविंद या कृ ष्ण के प्रति
श्रद्धा तथा प्रेम बढ़ाना है। एकादशी के दिन उपवास करने का असली कारण है शरीर की अवश्यकताओं को कम
करना और कीर्तन या अन्य ऐसे ही कार्य से अपने समय को भगवान की सेवा मे लगाना। उपवास के दिन गोविंद
की लीलाऒं का स्मरण करना और उनके पवित्र नाम का निरंतर श्रवण करना सर्वश्रेष्ठ होता है।
मनुष्य को पूर्ण तपस्या में भक्ति करनी होती है। उसे चाहिए कि मास के दोनों एकादशियो में भगवान राम तथा
चैतन्य महाप्रभु के जन्मदिनों में उपवास करें। ऐसे उपवास के दिन अनेक हैं। ‘योगेन’ का अर्थ है इन्द्रियों तथा मन
को नियंत्रित करके - योग इन्द्रिय संयम:। ‘योगेन’ बताता है कि मनुष्य अपने में लीन रहता है और ज्ञान के
विकास द्वारा परमात्मा के साथ अपनी स्वभाविक स्थिति को समझ सकता है। इस प्रकार वह भक्ति में स्थिर हो
जाता है और उसकी श्रद्धा किसी भौतिक प्रलोभन से विचलित नहीं होती।
आविष्कार
१. हमारे इन्द्रियाँ ज्यादातर किस में व्यस्त रहते हैं?
२. यहाँ भक्ति के दो प्रकार के बारे में संके त किया गया है, वह क्या हैं?
जानकारी
१. भौतिक जगत में सेवा करने और आध्यात्मिक जगत में सेवा करने में क्या फ़रक है?
२. भक्तियोग के विधि-विधान के मार्गदर्शक तत्व क्या हैं?
प्रयोग
१. हम भगवान को तृप्त करने के लिए अपने तन और मन का प्रयोग करके व्यावहारिक रीति से क्या कर सकते हैं?
श्री नामामृत (Adapted from the Teachings of Lord Caitanya)
एकादशी के दिन हरे कृ ष्ण महामंत्र का जप को बढ़ाना चाहिए। साधना भक्ति के समुचित अनुष्ठान में... (९)
एकादशी उपवास, यह प्रत्येक मास के कृ ष्ण एवं गौर पक्ष के ग्यारह्वे दिन आती है। इस दिन अन्न भोजन वर्जित है।
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के वल दूध एवं साग और फ़ल सीमित परिमाण में खाना चाहिए तथा ‘हरे कृ ष्ण’ कीर्तन, जाप और स्वाध्याय -
शास्त्र अध्ययन - अधिक करना चाहिए।

अगर हम (भक्ति सेवा का) विधि विधान का पालन करें तो हम दूसरों का उत्थान कर सकते हैं
जब कोई व्यक्ति कृ ष्ण भावनामृत में अत्याधिक उठ जाता है, तो संसार के समस्त दुखी प्राणियों के प्रति वह सहज
ही दयालू हो उठता है। वह सामान्य मनुष्य के कष्टों को ही ध्यान में रखता है। ... यदि वास्तव में पतित तथा
दुखी मानवता के प्रति दया भाव है, तो मनुष्य को चाहिए कि उन्हें आध्यात्मिक चेतना (भावना) तक ऊपर उठाये।
श्री कृ ष्ण के अनुग्रह से हम स्वयं विधि विधानों का पालन करते रहें तो किसी भी व्यक्ति को आध्यात्मिक भावना
प्रदान कर सकते हैं। किन्तु यदि हम अपनी आध्यात्मिक वृत्तियों को त्याग कर दूसरे के शारीरिक सुखों के प्रति
चिन्तित रहे तो हम स्वयं संकट्पूर्ण स्थिति को प्राप्त होंगे। (श्रीमद भागवत ५.८.९)
जब तक कोई विधि विधानों में दृढ़ नहीं रहता, भले ही वह कृ ष्ण भावनामृत आंदोलन का सदस्य क्यों ना हो, वह
धृषट्ता करता रहता है। फ़लत: हम शिष्यों को विधि विधानों के दृढ़ पालन का उपदेश देते हैं, अन्यथा शिष्यों में
विरोध होने पर मानवता के उत्थान के लिए किया जाने वाला यह महत्वपूर्ण आंदोलन अवरुद्ध हो जाएगा। अत:
जो इस कृ ष्ण भावनामृत आंदोलन को आगे बढाने के लिए इच्छु क हैं उन्हें इसे स्मरण रखना चाहिए और विधि
नियमों का कठोरता से पालन करना चाहिए, जिससे उनके मन विचलित न हो। (श्रीमद भागवत ५.१४.३५)

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