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Madhur Vyavhar
Madhur Vyavhar
मधुर वयवहार
मधुर व यवहार
परमातमा परम आनंद और परम शािित के भंडार है | उनके साथ तुमहारा
समबिध िजतना ही बढ़ता जाएगा उतने ही आनंद और शािित भी तुमहारे अंदर बढ़ते
जायेगे | तुम जहाँ भी जाओगे, आनंद और शािित तुमहारे साथ जायेगे | जगत के
पािणयो को भी उससे शािित की पािि होगी |
ढं ग से कही हुई बात िपय और मधुर लगती है | माँ के भाई को 'मामा' कहकर
पुकारे तो अचछा लगता है िकंतु 'िपता का साला' कहकर पुकारे तो बुरा लगता है |
दस
ू री बात है की िबना अवसर की बात भी अलग पितभाव खडा करती है | भोजन
के समय कई लोग कबजी, शौच या और हलकी बाते करने लग जाते है | इससे िचत की
िनमन दशा होने से तन-मन पर बुरा असर पडता है | अतः भोजन के समय पिवतता,
शािित और पसिनता बढानेवाला ही िचंतन होना चािहए | भोजन मे तला हुआ, भुना हुआ
और अनेक पकार के वयंजन, यह सब सवासथय और आयु की तो हािन करते ही है , मन
की शािित को भी भंग करते है |
सही बात भी असामियक होने से िपय नहीं लगती | भगवान शीरामचंदजी अपने
वयवहार मे, बोल-चाल मे इस बात कर बडा धयान रखते थे की अवसरोचिरत भाषण ही
हो | वे िवरिभाषी नहीं थे | इससे से उनके दारा िकसीके िदल को दःुख पहुचाने का
पसंग उपिसथत नहीं होता था | वे अवसरोचािरत बात को भी युिि-पयुिि से
पितपािदत करते थे तभी उनकी बात का कोई िवरोध नहीं करता था और न तो उनकी
बात से िकसीका बुरा ही होता था |
बात करने मे दस
ू रो को मान दे ना, आप अमानी रहना यह सफलता की कूँजी है |
शीराम की बात से िकसी को उदे ग नहीं होता था |
जो बात-बात मे दस
ू रो को उिदगन करता है वह पािपयो के लोक मे जाता है |
बात मुँह से बाहर िनकलने से पहले ही उसके पितभाव की कलपना करे तािक बात
मे पछताना न पडे | िकसी किव ने कहा है :
और …
कुटु मब-पिरवार मे भी वाणी का पयोग करते समय यह अवशय खयाल रखा जाए
िक मै िजससे बात करता हूँ वह कोई मशीन नहीं है , रोबोट नहीं है , लोहे का पुतला नहीं
है , मनुषय है | उसके पास िदल है | हर िदल को सनेह, सहानुभूित, पेम और आदर िक
आवशयकता होती है | अतः अपने से बडो के साथ िवनययुि वयवहार, बराबरी वालो से
पेम और छोटो के पित दया तथा सहानुभूित-समपिन तुमहारा वयवहार जादई
ु असर करता
है |
िकसी के दक
ु ान-मकान, धन-दौलत छीन लेना कोई बडा जुलम नहीं है | उसके िदल
को मत तोडना कयोिक उस िदल मे िदलबर खुद रहता है | बातचीत के तौर पर आपसी
सनेह को याद रखकर सुझाव िदये जाये तो कुटु मब मै वैमनसय खडा नहीं होगा |
पती अगर आपसी सनेह को धयान मे रखकर यह कहती िक: "कल से मे िवशेष
धयान रखकर भोजन बनाऊँगी … आपको िशकायत करने का मौका नहीं िमलेगा …" …
तो ऐसी नौबत नहीं आती और सनेह का पतला तंतु टू टने न पाता | अिन का अनादर
भी न होता |
वैसे ही अगर बाप अपने बेटे को कहता है िक: "परीका मे तुमहारे नमबर ठीक नहीं
आए, तुम नालायक हो …" … तो बचचे के मानस पर उसका पितकूल पभाव पडे गा |
इसके बदले अगर बाप यह कहे िक: "बेटा ! मेहनत िकया करो | एकाग होने के िलए
थोडा धयान िकया करो | इससे तुम अवशय अचछे नमबर ला सकोगे |" इस पकार कहने
पर बचचे का उतसाह बढे गा | िपता के िलए आदर भी बना रहे गा और वह आगे चलकर
मेहनत करके अचछे नमबर से पास होने का पयत करे गा |
दक
ु ानदार के पास कोई गाहक आकर कहे िक: "यह चीज़ आपके पास से ले गया
था, अचछी नहीं है | वापस ले लो |" … तो उस समय दक
ु ानदार को उसके साथ तीखा
वयवहार नहीं करना चािहए | उसे कहना चािहए िक: "अगर आपको यह चीज़ पसंद नहीं
है तो कोई बात नहीं | मेरे पास इसकी और भी कई िकसमे है , िदखता हूँ | शायद आपको
पसंद आ जाए |" इस पकार गाहक की पसिनता का खयाल रखकर सनेह और सहानुभिू त
का वयवहार करना चािहए | इससे वह दक
ु ानदार का पकका गाहक हो जाएगा |
"तुमहे यह काम करना ही पडे गा |" नौकर से ऐसा कहने की बजाये यह कहो िक:
"कया यह काम कर दोगे?" ...तो वह नौकर उतसाह से आपकी पसिनता के िलए वह
काम कर दे गा | अियथा, उसे वह काम बोझ पतीत होगा और वह उससे छुटकारा पाने के
िलए िववश होकर करे गा िजसमे उसकी पसिनता लुि हो जायेगी और काम भी ऐसा ही
होगा |
कई खेलो मे जुट भावना से िमलजुलकर खेलने से पायः खेल मे दकता पाि होती
है और जुट को िवजय िमलती है | जुट मे जहाँ आपस मे मेलजोल नहीं है , समिवय नहीं
है और परसपर वैमनसय है वहाँ अचछे िखलािडयो के होते हुए भी वह जुट असफल होता
िदखाई दे ता है | जुट का मुिखया सब िखलािडयो के पित समान वयवहार एवं सममान की
भावना न रखकर ऊँच-नीच का भाव रखता है तो ऐसे जुट मे िवषमता पनपती है और
उसको असफलता ही हाथ लगती है |
दस
ू रो से काम लेने का ढं ग भी उिहीं लोगो को आता है जो पसिनिचत रहते है |
पसिनिचत वह रह सकते है जो धयान करते है और संतसमागम करते है | उनके कहे
अनुसार दस
ु रे लोग काम करते है |
कुछ लोगो के सवाभाव मे उिदगनता भरी रहती है , जैसे वह हमेशा इमली खाए हुए
है , िमसरी कभी खाई ही नहीं है | यिद वे िकसीको कुछ काम करने के िलए कहते है तो
सामनेवाले वयिि के हदय मे पितकूल पितिकया उतपिन होती है | इससे काम करनेवाला
पसिनिचत से उसमे भाग नहीं लेता, न अपनी िजममेदारी सवीकार करता है | पितकूल
पित भाव के कारण कहनेवाल े की जीवनश िि भी कीण होती है और काम िबगड
जाता है | इसके िवपरीत यिद शािित एवं पसिन िचत से िकसीको काम करने के िलए
कहते है तो वह पसिनतापूवक
थ उस काय थ को संपिन करता है | काम लेने का यही सही
ढं ग है और इसके िवपरीत सब ढं ग गलत है |
कोई वयिि हमारे कथन अथवा िनदे श पर िकस रप मे अमल करे गा यह हमारे
कहने के ढं ग पर िनभरथ करता है और सही तरीका वही है जो काम करनेवाले के िचत मे
अनुकूल पिरणाम उतपिन करे |
िकसीको वयंग या कटाकयुि वचन कहे तो उसकी िचत मे कोभ पैदा होता है |
हमे भी हािन होती है |
"आप तो भगतडे हो ...बुिू हो ...कुछ जानते नहीं ..." इस पकार बात करने के
ढं ग से बात िबगड जाती है | बात कहने के ढं ग पर बात बनती या िबगडती है | िजनकी
वाणी मे िवनय-िववेक है वे थोडे ही शबदो मे अपने हदय के भाव पकट कर दे ते है | वे
ऐसी बात नहीं बोलते िजससे िकसीको ठे स पहुंचती हो |
कलज ु ग नही ं ०
वह त ेरे हक 4
मे तीर ह ै , िकस बात पर झ ू ला है त ू ||
मत आग म े डा ल और को , कया घ ास का प ू ला है त ू |
सुन रख यह नकता 5
बेखबर , िकस बात पर भ ू ला है त ू ||
कलज ु ग नही ं ०
जो और की बसती 9
रखे , उसका भी ब सता ह ै प ूरा |
कलज ु ग नही ं ०
कलज ु ग नही ं ०
कलज ु ग नही ं ०
कलज ु ग नही ं ०
कलज ु ग नही ं ०
कर च ुक जो करना ह ै अ ब , यह दम तो कोई आन 15
है |
रैहमान 16
को रहमान 17
है , शैतान को श ैतान है ||
कलज ु ग नही ं ०
गर त ुझको यह बावर 19
नह ीं तो त ू भी करक े द ेख ल े ||
कलज ु ग नही ं ०
िद लशाद 21
रख िद ल शाह रह , गमनाक रख गमनाक रह ||
अप ने नफे के वासत े , मत और का न ुकसान कर |
कलज ु ग नही ं ०
हर हा ल म े भी त ू नजीर 22
अब हर कद म की खाक रह |
कलज ु ग नही ं ०
िजसके बताव
थ मे पेमयुि सहानुभूित नहीं है वह मनुषय जगत मे भाररप है और
िजसके हदय मे दे ष है वह तो जगत के िलए अिभशापरप है |
िजतना दग
ु ुण
थ ो की कँटीली झाडी का फैलना सरल है उतना ही सदगुणो के िवकास
का माग थ भी सरल है | थोडा सा संयत िवचार हमारी पविृतयो को दग
ु ुण
थ ो से सदगुणो की
ओर उिमुख करता है |
भवय भवन और सुंदर सदन बनने मे अपनी शिि मत खचो | अपने िवचार नष
मत करो | बहुतेरे गह
ृ बडे ऊँचे और आलीशान है , पर उनमे रहनेवाले मनुषय िबिलकल
िठं गने और कुद है |
बडे -बडे मकान बनाने और उनमे चमकदार चीजो को सजाने मे अपनी शिि का
नाश करके अपनेको, अपनी पती और अपने िमतो को बडा बनने का यत मत करो | यिद
तुम इस दै वी िवचार को गहण कर लोगे , हदयंगम कर लोगे, जान लोगे, समझ लोगे की
मानव जीवन का एकमात आदश थ और उदे शय शिि का दर
ु पयोग और धन का संचय या
भवन का िनमाण
थ करना नहीं है वरन ् भीतरी शिियो का िवकास करना, आितमक बल को
जगाना, ईशरतव और मोकपिि के िलए आतमोिनित करना है , तो पािरवािरक, समािजक
या जागितक बिधन आपके िलए कभी भी िवघनरप न होगे |
मेरे पयारे ! सदा यह खयाल रखो की तुम अपने िलए जीते हो, न की दस
ू रो के
िलए | अपने जीवन मे दस
ू रो को हसतकेप करने के िलए कोई गुंजाइश ही न रखो |
अपना भोजन करते समय तुम भोजन करते हो िक कोई और ? अपना भोजन तुम सवयं
पचाते हो िक कोई और ? दे खते समय तुमहारी अपनी आंखो की पुतिलयाँ तुमहे साथ दे ती
है िक उन दस
ू रो की, िजनसे तुम नाहक पभािवत हो रहे हो?
अपने गुरतवाकषण
थ का केिद तुम आप बनो | सवाशयी बनो | अपने भीतर के
आधार और अिधषान को पा लो | मेहमानो के मत और आलोचना की परवाह मत करो |
चटपटे भोजन, फनीचर और गदी-तिकये को अितिथ-सतकार का मूल-मंत न बनाओ | लोग
समझते है िक मेहमानो को सवािदष भोजन और सुंदर पलंग नहीं दे गे तो हम पूरे
आितथय-भावना से युि न होगे | यह समझ अधूरी और ओछी है |
तुमहे तो यह करना चािहए को जब तुमहारा अितिथ तुमहारे घर से अपने घर जाने
लगे तब वह सवचछिचत, उिदत और समुिनत होकर जाए | वह अपने घर से जैसा आया
था उससे अिधक बुििमान, पसिन और सहज, सरल, सादा जीवन जीने की पेरणा लेकर
जाए | अपने सवजनो के पित यही अपना कतवथय समझो | अपने पिरवार को सुखी करने
का यही माग थ है | इसी तरीके से गहसथ अपने कुटु मब को िवघन-बाधा के सथान पर
उिनित का सोपान बना सकता है |
यिद मै तुमहे एक कौडी भी न दँ ू, कुछ भी शारीिरक सेवा न करँ, केवल पयार से,
सचचे और साफ िदल से तुमहारे पित पसिनता भरी मुसकान से हँ स दँ ू, तो तुमहारा
पफुिललत होना, समुिनत होना और ऊपर उठना अिनवाय थ है | इतने से तुमहारी बडी सेवा
हो जाती है |
तुमहे पिवत मुसकान दे ना, मोितयो का कोष दे ने से कहीं बढ़कर है | िकसी मनुषय
को धन दे कर तुम उससे पातकी का-सा आचरण करते हो | तुम उसे धोखा दे कर ईशरीय
पेम, जान, आनंद से भुलाना चाहते हो ? उसे पेम और जान दो | उसे सवचछ िचत और
समुिनत बनाओ | यह मानव जात की भारी सेवा है |
4. कटु बोलना |
जो वयिि धमान
थ ुसार आचरण करता हो और लोक-कलयाण के कायो मे रत हो,
उसके यदिप दशन
थ न िकए हुए हो तब भी केवल नाम सुन-सुनकर भी लोग उसे हदय से
पेम करने लग जाते है |
सुनने से उदे ग पैदा कर दे ऐसे नरक मे ले जानेवाले िनषु र वचन कदािप नहीं
बोलने चािहए | कोई असभय वयिि यिद कटु वचनरपी बाणो की वषा थ करे तो भी िवदान
मनुषय को शांत रहना चािहए | जो सामनेवाले के कोिधत हो जाने पर भी सवयं पसिन
ही रहता है वह कोिधत वयिि के पुणय गहण कर लेता है | जगत मे िनिदनीय और
आवेश उतपिन करने के कारण अिपय लगनेवाले कोध को जो िनयंितत कर लेता है , िचत
मे कोई िवकार या दोष आने नहीं दे ता, सदै व पसिन ही रहता है और दस
ू रो के दोष नहीं
दे खता वह मनुषय उसकी तरि शतुभाव रखनेवाले के पुणय ले लेता है | दस
ू रो के दारा
कटु वचन कहे गये हो तो भी उनके िलए कठोर या अिपय कुछ भी नहीं बोलता, सदा
समतव मे िसथत रहता है और सामनेवाले का बुरा भी नहीं चाहता ऐसे महातमा के दशन
थ
के िलए दे वतागण भी लालाियत रहते है |
यमराज कोधी मनुषय के यज, दान, तप, हवनादी कमो के फल कर लेते है | कोध
करनेवाले का सारा पिरशम वयथथ जाता है |
िजस मनुषय के उदर, उपसथ, दोनो हाथ व वाणी, यह चार अंग सुरिकत है वही
वासतव मे धमज
थ है अथात
थ ् जो वयिि भोजन मे संयम, काम-िवकार मे संयम, हाथो मे
पिवत व परोपकार के कायथ और वाणी मे मधुरता रखता है वही वासतिवक धमज
थ है |
जैसे जहाज समुद को पार करने के िलए साधन है वैसे ही सतय ऊधवल
थ ोक मे
जाने के िलए सीढ़ी है | वयथथ बोलने की उपेका मौन रहना बेहतर है | वाणी की यह पथम
िवशेषता है | सतय बोलना दस
ू री िवशेषता है | िपय बोलना तीसरी िवशेषता है |
धमस
थ ममत बोलना यह चौथी िवशेषता है |
िजस वयिि की भोहे सदा चढीं हुई हो, िकसीसे भी मीठी बाते नहीं करता, वह
अशांत वयिि सभी के दे ष का पात बनकर रह जाता है | लोगो से िमलते वि जो सवयं
ही बात का आरं भ करता है और सबके साथ पसिनता से बोलता है उस पर सब पसिन
रहते है |
जैसे रखा भोजन मनुषय को तिृि पदान नहीं कर सकता वैसे ही मधुर वचनो के
िबना िदया हुआ दान भी पसिनता नहीं उपजाता | मधुर वचनो से युि गहीता िकसीकी
वसतु लेकर भी सवयं की मधुर वाणी दारा इस समपूणथ जगत को वश मे कर लेता है |
यिद सुद
ं र रीित से, सांतवनापूणथ, मधुर एवं सनेह संयुि वचन सदै व बोले जाएं तो
इसके जैसा वशीकरण का साधन संसार मे और कोई नहीं है | परितु यह सदा समरण
रखना चािहए िक अपने दारा िकसीका शोषण न हो | मधुर वाणी उसीकी साथक
थ है जो
पाणीमात का िहतिचितक है | िकसीकी नासमझी का गैर-फायदा उठाकर गरीब, अनपढ़,
अबोध लोगो का शोषण करनेवाले शुरआत मे तो सफल होते िदखते है िकंतु उनका अंत
अतयित खराब होता है | सचचाई, सनेह और मधुर वयवहार करनेवाला कुछ गवां रहा है
ऐसा िकसीको बाहर से शुरआत मे लग सकता है िकंतु उसका अंत अनंत बहांडनायक
इशर की पािि मे पिरणत होता है |
4. िजससे िकसीके पित सदभाव तथा पेम बढ़े , दे ष हो तो िमट जाये या घट जाये, ऐसी
ही उसकी बात िकसीके सामने कहना |
6. िबना काय थ जयादा न बोलना, िकसीके बीच मे न बोलना, िबना पूछे अिभमानपूवक
थ
सलाह न दे ना, ताना न मरना, शाप न दे ना | अपनेको भी बुरा-भाला न कहना, गुससे
मे आ कर अपनेको भी शाप न दे ना, न िसर पीटना |
8. िकसीके दःुख के समय सहानुभिू तपूण थ वाणी से बोलना | हँ सना नहीं | िकसीको कभी
िचढ़ाना नहीं | अिभमानवश घरवालो को या कभी िकसीको मूख,थ मंदबुिि, नीच
विृतवाला तथा अपने से नीचा न मानना, सचचे हदय से सबका सममान व िहत करना
| मन मे अिभमान तथा दभ
ु ाव
थ न रखना, वाणी से कभी कठोर तथा िनंदनीय शबदो
का उचचारण न करना | सदा मधुर िवनामतायुि वचन बोलना | मूख थ को भी मूखथ
कहकर उसे दःुख न दे ना |
9. िकसीका अिहत हो ऐसी बात न सोचना, न कहना और न कभी करना | ऐसी ही बात
सोचना, कहना और करना िजससे िकसीका िहत हो |
10. धन, जन, िवदा, जाित, उम, रप, सवासथय, बुिि आिद का कभी अिभमान न करना |
11. भाव से, वाणी से, इशारे से भी कभी िकसीका अपमान न करना, िकसीकी िखलली न
उडना |
12. िदललगी न करना, मुँह से गिदी तथा कडवी जबान कभी न िनकालना | आपस मे दे ष
बढ़े , ऐसी सलाह कभी िकसीको भी न दे ना | दे ष की आग मे आहुित न दे कर पेम बढे
ऐसा अमत
ृ ही सींचना |
13. फैशन के वश मे न होना | कपडे साफ-सुथरे पहनना परितु फैशन के िलए नहीं |
17. दस
ू रो की सेवा करने का अवसर िमलने पर सौभागय मानना और िवनमभाव से
िनदोष सेवा करना |
20. मन मे सदा पसिन रहना, चेहरे को पसिन रखना, रोनी सूरत तथा रोनी जबान न
बोलना |
23. दस
ू रो की चीज़ पर कभी मन न चलाना | शौिकनी की चीजो से जहाँ तक हो सके दरू
ही रहना |
24. सदा उतसाहपूणथ, सविथहतकर, सुखपूणथ, शांितमय, पिवत िवचार करना | िनराशा, उदे ग,
अिहतकर, िवषादयुि और गंदे िवचार कभी न करना |
25. दस
ू रे को नीचा िदखाने का न कोई काम करना, न सोचना और न िकसीको अपमािनत
होते दे खकर ज़रा भी पसिन होना | सदै व सभीको सममान दे ना तथा ऊँचे उठते
दे खकर पसिन होना |
26. बुरा कमथ करनेवाले के पित उपेका करना, उसका संग न करना और उसका बुरा भी न
चाहना | बुरे काम से घण
ृ ा करना, बुरा करनेवाले से नहीं | उसको दया का पात
समझना |
27. गरीब तथा अभावगसत को चुपचाप, अपने से िजतना भी हो सके हर समभव उतनी
सहायता करना, पर न उस पर कभी एहसान करना, न बदला चाहना और न उस
सहायता को पकट करना | दस
ू रे से सेवा कराना नहीं, दस
ू रो की सेवा करना | दस
ू रो से
आशा रखना नहीं, दस
ू रा कोई आशा रखता हो तो भरसक उसे पूरी करना |
28. दस
ू रे से मान चाहना नहीं, सवथ
थ ा अमानी रहकर दस
ू रो को मान दे ना |
29. दस
ू रे के हक की कभी चोरी करने की बात ही न सोचना | करना तो नहीं है |
30. िकसीसे दे ष न करना, पर बेमतलब मोह-ममता भी न जोडना |
32. बिढ़या खाने-पहनने से यथासाधय परहे ज़ रखना, सादा खान-पान, सादा पहनावा रखना
|
33. धन की साथक
थ ता साििवक दान मे, शरीर की सेवा मे, वाणी की भगविनाम-गुणगान
मे, मन की भगविचचितन मे, जीवन की भगवतपािि मे, िकया की परदःुखहरण तथा
परोपकार मे, समय की साथक
थ ता भगवतसमरण तथा सेवा मे समझना |
38. गरीब पिरवार के भाई-बंधुओं के साथ िवशेष नमता तथा पेम का वयवहार करना |
िकसीको अपनी िकसी पकार की शान कभी न िदखाना |
40. िवकार पैदा करनेवाला अशील सािहतय न पडना, िचत न दे खना, बातचीत न करना |
43. यथासाधय िकसीकी िनंदा, बुराई, दोषचचा थ न सुनना | अपनी बडाई तथा भगवििनिदा
न सुनना | ऐसी बातो मे साथ तो दे ना ही नहीं |
44. पितिदन कुछ समय गीता, रामायण, अियािय सदगंथो के सवाधयाय, सतोत-पाठ, मंत
और भगविनाम-जप, भगवतपेम तथा भगवतपूजन मे लगाना | बडो को यथायोगय
पणाम करना |