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Mantra Jap Mahima Evam Anushthan Vidhi
Mantra Jap Mahima Evam Anushthan Vidhi
भगवननाम -मिि मा
भगवननाम अननत मािुयय, ऐशयय और सुख की खान िै । सभी शासो मे नाम की
मििमा का वणन
य िकया गया िै । इस नानािवि आिि-वयािि से गसत कििकाि मे
ििरनाम-जप संसार सागर से पार िोने का एक उतम सािन िै । भगवान वेदवयास जी तो
किते िै -
िरेना य म िर ेना य म िर ेना य मैव केव िम।्
किौ नासतय ेव नासतय ेव नासतय ेव ग ितर नयथा।।
(बृ िननारदीय पुराणः 38.127)
पदपुराण मे आया िै ः
ये वदिनत नरा िनतय ं ििर िरतयकरद यम।्
तसयोचचारणमात ेण िवम ुकासत े न स ं शयः।।
‘जो मनुषय परमातमा के इस दो अकरवािे नाम ‘ििर’ का िनतय उचचारण करते
िै , उसके उचचारणमात से वे मुक िो जाते िै , इसमे शंका निीं िै ।’
गरड पुराण मे उपिदष िै िकः
यदीचछ िस पर ं जान ं जानाचच परम ं पद म।्
तदा यत े न मि ता कुर शीििर कीत य नम।् ।
‘यिद परम जान अथात
य आतमजान की इचछा िै और उस आतमजान से परम पद
पाने की इचछा िै तो खूब यतपूवक
य शी ििर के नाम का कीतन
य करो।’
एक बार नारद जी ने भगवान बहा जी से किाः
"ऐसा कोई उपाय बतिाइए, िजससे मै िवकराि कििकाि के काि जाि मे न
फँसूं।"
इसके उतर मे बहाजी ने किाः आिदप ुरषसय नाराय णसय नामोचचारणमात ेण
िनि ूय त किि भय वित ।
‘आिद पुरष भगवान नारायण के नामोचचार करने मात से िी मनुषय किि से तर
जाता िै ।’
(कििस ंवरणोपिनषद )
शीमदभागवत के अंितम शोक मे भगवान वेदवयास किते िै -
नामस ंकीत य नं यस य सव य पापपणा शनम।्
पणामो द ु ःखशमनसत ं नमा िम ि िरं पदम।् ।
‘िजसका नाम-संकीतन
य सभी पापो का िवनाशक िै और पणाम दःुख का शमन
करने वािा िै , उस शीििर-पद को मै नमसकार करता िूँ।’
कििकाि मे नाम की मििमा का बयान करते िुए भगवान वेदवयास जी
शीमदभागवत मे किते िै -
कृत े यद धयायतो िवषण ुं त ेताया ं यजतो मख ैः।
दापर े प िरचया य यां किौ तदिरकीत य नात।् ।
‘सतयुग मे भगवान िवषणु के धयान से, तेता मे यज से और दापर मे भगवान की
पूजा-अचन
य ा से जो फि िमिता था, वि सब किियुग मे भगवान के नाम कीतन
य मात से
िी पाप िो जाता िै ।’
(शीमदभागव तः 13.3.52)
‘शीरामचिरतमानस’ मे गोसवामी तुिसी दास जी मिाराज इसी बात को इस रप
मे किते िै -
कृ तजुग त ेत ाँ दापर पूजा म ख अर जोग।
जो ग ित िोइ सो क िि ि िर नाम त े पाविि ं िोग।।
‘सतयुग, तेता और दापर मे जो गित पूजा, यज और योग से पाप िोती िै , विी
गित किियुग मे िोग केवि भगवान के नाम से पा जाते िै ।’
(शीर ाम चिरत . उतरकाण डः 102 ख)
आगे गोसवामी जी किते िै -
किि जुग केव ि ििर ग ुन गा िा।
गाव त न र पाविि ं भ व थािा।।
कििज ु ग जोग न जगय न गया ना।
एक आ िार राम गुन ग ान ा।।
सब भरोस त िज जो भ ज रामिि।
पेम सम े त गाव ग ुन गाम िि।।
सोइ भव तर कछ ु स ंसय नािी ं।
नाम पताप पगय क िि माि ीं।।
‘किियुग मे तो केवि शी ििर की गुणगाथाओं का गान करने से िी मनुषय
भवसागर की थाि पा जाते िै ।
किियुग मे न तो योग और यज िै और न जान िी िै । शी राम जी का गुणगान
िी एकमात आिार िै । अतएव सारे भरोसे तयागकर जो शीरामजी को भजता िै और
पेमसिित उनके गुणसमूिो को गाता िै , विी भवसागर से तर जाता िै , इसमे कुछ भी
संदेि निीं। नाम का पताप किियुग मे पतयक िै ।’
(शी रामच िरत . उतरकाणड ः 102.4 से 7)
चिुँ ज ु ग चि ुँ श ु ित नाम पभाऊ।
किि िबस ेिष निि ं आन उ पाऊ।।
‘यो तो चारो युगो मे और चारो िी वेदो मे नाम का पभाव िै िकनतु किियुग मे
िवशेष रप से िै । इसमे तो नाम को छोडकर दस
ू रा कोई उपाय िी निीं िै ।’
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः 21.8)
गोसवामी शी तुिसीदास जी मिाराज के िवचार मे अचछे अथवा बुरे भाव से, कोि
अथवा आिसय से िकसी भी पकार से भगवननाम का जप करने से वयिक को दसो
िदशाओं मे कलयाण-िी-कलयाण पाप िोता िै ।
भाय ँ कुभाय ँ अनख आ िसि ूँ।
नाम जपत म ंगि िदिस दसि ूँ।।
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः 27.1)
यि कलपवक
ृ सवरप भगवननाम समरण करने से िी संसार के सब जंजािो को नष
कर दे ने वािा िै । यि भगवननाम कििकाि मे मनोवांिछत फिो को दे ने वािा, परिोक
का परम िितैषी एवं इस संसार मे वयिक का माता-िपता के समान सब पकार से पािन
एवं रकण करने वािा िै ।
नाम कामतर का ि करािा।
सु िमरत समन स कि जग जा िा।।
राम न ाम क िि अ िभम त दाता।
िि त परिोक िोक िप तु माता।।
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः 26.5-6)
इस भगवननाम-जपयोग के आधयाितमक एवं िौिकक पक का सुंदर समनवय करते
िुए गोसवामी जी किते िै िक बहाजी के बनाये िुए इस पपंचातमक दशयजगत से भिी
भाँित छूटे िुए वैरागयवान ् मुिक योगी पुरष इस नाम को िी जीभ से जपते िुए
ततवजानरप िदन मे जागते िै और नाम तथा रप से रिित अनुपम, अिनवच
य नीय, अनामय
बहसुख का अनुभव करते िै । जो परमातमा के गूढ रिसय को जानना चािते िै , वे िजहा
दारा भगवननाम का जप करके उसे जान िेते िै । िौिकक िसिदयो के आकाँकी सािक
िययोग दारा भगवननाम जपकर अिणमािद िसिदयाँ पाप कर िसद िो जाया करते िै ।
इसी पकार जब संकट से घबराये िुए आतय भक नामजप करते िै तो उनके बडे -बडे संकट
िमट जाते िै और वे सुखी िो जाते िै ।
नाम जीि ँ ज िप जाग ििं जोगी।
िबरती िबर ंिच पप ं च िबयोगी।।
बहसुखिि अन ुभविि ं अन ूपा।
अक थ अनामय नाम न रपा।।
जाना च ििि ं ग ूढ गित जेऊ।
नाम जीि ँ जिप जानिि ं त ेऊ।।
सािक नाम जप ििं िय िाए ँ।
िो ििं िसद अिन मािदक पाए ँ।।
जप ििं नाम ु जन आर त भारी।
िम टिि ं कु संकट िोिि ं स ुखा री।।
( शी रामच िरत . बािकाणड ः 21,1 से 5)
नाम को िनगुण
य (बह) एवं सगुण (राम) से भी बडा बताते िुए तुिसीदास जी ने तो
यिाँ तक कि िदया िकः
अगुन स गुन द ु इ बह स रपा।
अक थ अगाि अनािद अन ूपा।।
मोर े म त बड नाम ु द ु िू ते।
िकए ज े ििं ज ुग िन ज बस िनज ब ूत े।।
बह के दो सवरप िै - िनगुण
य और सगुण। ये दोनो िी अकथनीय, अथाि, अनािद
और अनुपम िै । मेरी मित मे नाम इन दोनो से बडा िै , िजसने अपने बि से दोनो को
वश मे कर रखा िै ।
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः 22,1-2)
अंत मे नाम को राम से भी अििक बताते िुए तुिसीदास जी किते िै -
सबरी गीघ सुस ेवकिन स ुगित दीिनि र घुनाथ।
नाम उिार े अ िमत ख ि ब ेद ग ुन गाथ।।
‘शी रघुनाथ जी ने तो शबरी, जटायु िगद आिद उतम सेवको को िी मुिक दी,
परनतु नाम ने अनिगनत दष
ु ो का भी उदार िकया। नाम के गुणो की कथा वेदो मे भी
पिसद िै ।’
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः 24)
अपत ु अजा िमि ु ग जु गिन काऊ।
भए म ुकुत ि िरनाम पभाऊ।।
किौ क िौ ििग नाम ब डाई।
राम ु न सक ििं नाम गुन गा ई।।
‘नीच अजािमि, गज और गिणका भी शीििर के नाम के पभाव से मुक िो गये।
मै नाम की बडाई किाँ तक किूँ? राम भी नाम के गुणो को निीं गा सकते।’
(शीर ाम चिरत . बाि काणडः 25,7-8)
िकनिीं मिापुरषो ने किा िै ः
आिो s यं सव य शास ािण िवचाय य च प ुन ः प ुनः।
एक मेव स ुिनषप ननं ि िरना य मैव केविम।् ।
सवश
य ासो का मनथन करने के बाद, बार-बार िवचार करने के बाद, ऋिष-मुिनयो को
जो एक सतय िगा, वि िै भगवननाम।
तुकारामजी मिाराज किते िै -
‘नामजप स े बढकर कोई भी सा िना नि ीं ि ै। त ुम और जो चािो स े
करो , पर नाम ि ेत े रिो। इसम े भ ूि न िो। यिी स बसे प ुकार -पुकारकर म ेरा
किना ि ै। अ नय िक सी स ािन की कोई जररत निी ं ि ै। बस िनषा के स ाथ
नाम ज पते रिो। ’
इस भगवननाम-जप की मििमा अनंत िै । इस जप के पसाद से िशवजी अिवनाशी
िै एवं अमंगि वेशवािे िोने पर भी मंगि की रािश िै । परम योगी शुकदे वजी, सनकािद
िसदगण, मुिनजन एवं समसत योगीजन इस िदवय नाम-जप के पसाद से िी बहनंद का
भोग करते िै । भवतिशरोमिण शीनारद जी, भक पहाद, धुव, अमबरीष, परम भागवत शी
िनुमानजी, अजािमि, गिणका, िगद जटायु, केवट, भीिनी शबरी- सभी ने इस भगवननाम-
जप के दारा भगवतपािप की िै ।
मधयकािीन भक एवं संत किव सूर, तुिसी, कबीर, दाद ू, नानक, रै दास, पीपा,
सुनदरदास आिद संतो तथा मीराबाई, सिजोबाई जैसी योिगिनयो ने इसी जपयोग की
सािना करके संपूणय संसार को आतमकलयाण का संदेश िदया िै ।
नाम की मििमा अगाि िै । इसके अिौिकक सामथयय का पूणत
य या वणन
य कर पाना
संभव निीं िै । संत-मिापुरष इसकी मििमा सवानुभव से गाते िै और विी िम िोगो के
ििए आिार िो जाता िै ।
नाम की मििमा के िवषय मे संत शी जानेशर मिाराज किते िै -
"नाम संकीतन
य की ऐसी मििमा िै िक उससे सब पाप नष िो जाते िै । िफर पापो
के ििए पायिित करने का िविान बतिाने वािो का वयवसाय िी नष िो जाता िै ,
कयोिक नाम-संकीतन
य िेशमात भी पाप निीं रिने दे ता। यम-दमािद इसके सामने फीके
पड जाते िै , तीथय अपने सथान छोड जाते िै , यमिोक का रासता िी बंद िो जाता िै । यम
किते िै - िम िकसको यातना दे ? दम किते िै - िम िकसका भकण करे ? यिाँ तो दमन के
ििए भी पाप-ताप निीं रि गया! भगवननाम का संकीतन
य इस पकार संसार के दःुखो को
नष कर दे ता िै एवं सारा िवश आनंद से ओत-पोत िो जाता िै ।"
(जान े शरीगीताः अ .9,197-200)
नामो चार ण का फ ि
शीमदभागवत मे आता िै :
सांकेतय ं पािरिासय ं वा स तोत ं ि ेिनम ेव वा |
वैकुणठनामगिणम शेषििर ं िवटुः ||
पितत ः सखिि तो भगन ः स ंदषसतप आ ितः |
ििरिरतयवश ेनाि प ुमा ननाि य ित यातन ाम ् ||
‘भगवान का नाम चािे जैसे ििया जाय- िकसी बात का संकेत करने के ििए, िँ सी
करने के ििए अथवा ितरसकार पूवक
य िी कयो न िो, वि संपूण य पापो का नाश करनेवािा
िोता िै | पतन िोने पर, िगरने पर, कुछ टू ट जाने पर, डँ से जाने पर, बाह या आनतर ताप
िोने पर और घायि िोने पर जो पुरष िववशता से भी ‘ििर’ ये नाम का उचचारण करता
िै , वि यम-यातना के योगय निीं |
(शीमदभागवत: 6.2.14,15)
भगवान बुद किा करते थे: “मंतज प असीम मानवता के सा थ तुमिार े हदय
को एकाकार कर द े ता िै |”
मंतजप करने से मनुषय के अनेक पाप-ताप भसम िोने िगते िै | उसका हदय शुद
िोने िगता िै तथा ऐसे करते-करते एक िदन उसके हदय मे हदतेशर का पाकटय भी िो
जाता िै |
मंत िदखने मे बिुत छोटा िोता िै िेिकन उसका पभाव बिुत बडा िोता िै | िमारे
पूवज
य ॠिष-मुिनयो ने मंत के बि से िी तमाम ॠिदयाँ-िसिदयाँ व इतनी बडी िचरसथायी
खयाित पाप की िै |
“वासतव मे, नाम की मििमा विी पुरष जान सकता िै िजसका मन िनरं तर शी
भगवननाम के िचंतन मे संिगन रिता िै , नाम की िपय और मिुर समिृत से िजसको
कण-कण मे रोमांच और अशप
ु ात िोते िै , जो जि के िवयोग मे मछिी की वयाकुिता के
समान कणभर के नाम-िवयोग से भी िवकि िो उठता िै , जो मिापुरष िनमेषमात के ििए
भी भगवान के नाम को छोड निीं सकता और जो िनषकामभाव से िनरं तर पेमपूवक
य जप
करते-करते उसमे तलिीन िो चुका िै |
सािना-पथ मे िवघनो को नष करने और मन मे िोने वािी सांसािरक सफुरणाओं
का नाश करने के ििए आतमसवरप के िचंतनसिित पेमपूवक
य भगवननाम-जप करने के
समान दस
ू रा कोई सािन निीं िै |”
सभी सािु नौका मे बैठ गये | केवट उनको बीच सरोवर मे िे गया जिाँ कुछ टीिे
थे | उन टीिो पर अिसथयाँ िदख रिीं थीं | तब कुतुिि वश सािुओं ने पूछा:
“केवट तुम िमे किाँ िे आये? ये िकसकी अिसथयो के ढे र िै ?”
दस
ू री बात: गुरपदत मंत कभी पीछा निीं छोडता | इसके भी कई दषांत िै |
साबरी तथा तांितक मंत से छोटी-मोटी िसिदयाँ पाप िोती िै िेिकन बहिवदा के ििए
तो वैिदक मंत िी िाभदायी िै | वैिदक मंत का जप इििोक और परिोक दोनो मे
िाभदायी िोता िै |
मंतदी का
गुर मंतदीका के दार िशषय की सुषुप शिक को जगाते िै | दीका का अथ य िै : ‘दी’
अथात
य जो िदया जाय, जो ईशरीय पसाद दे ने की योगयता रखते िै तथा ‘का’ अथात
य जो
पचाया जाय या जो पचाने की योगयता रखता िै | पचानेवािे सािक की योगयता तथा
दे नेवािे गुर का अनुगि, इन दोनो का जब मेि िोता िै , तब दीका समपनन िोती िै |
दीका बिुत बार निीं िोती कयोिक एक बार रासता पकड िेने पर आगे के सथान
सवयं िी आते रिते िै | पििी भूिमका सवयं िी दस
ू री भूिमका के रप मे पयव
य िसत िोती
िै |
िशषय के अििकार-भेद से िी मंत और दे वता का भेद िोता िै जैसे कुशि वैद रोग
का िनणय
य िोने के बाद िी औषि का पयोग करते िै | रोगिनणय
य के िबना औषि का
पयोग िनरथक
य िै | वैसे िी सािक के ििए मंत और दे वता के िनणय
य मे भी िोता िै | यिद
रोग का िनणय
य ठीक िो, औषि और उसका वयविार िनयिमत रप से िो, रोगी कुपथय न
करे तो औषि का फि पतयक दे खा जाता िै | इसी पकार सािक के ििए उसके पूवज
य नम
की सािनाएँ, उसके संसकार, उसकी वतम
य ान वासनाएँ जानकर उसके अनुकूि मंत तथा
दे वता का िनणय
य िकया जाय और सािक उन िनयमो का पािन करे तो वि बिुत थोडे
पिरशम से और बिुत शीघ िी िसिदिाभ कर सकता िै |
जब िशषय के िकसी भी केनद को सपशय करके उसकी कुणडििनी शिक जगायी जाती िै
तो उसे सपशय दीका किते िै |
कुिाणव
य तंत मे तीन पकार की दीकाओं का इस पकार वणयन िै :
सपश य द ीक ा :
य ीका
'सपशद उसी पकार की िै िजस पकार पिकणी अपने पंखो से सपशय से अपने
बचचो का िािन-पािन-वदय न करती िै |'
जब तक बचचा अणडे से बािर निीं िनकिता तब तक पिकणी अणडे पर बैठती िै
और अणडे से बािर िनकिने के बाद जब तक बचचा छोटा िोता िै तब तक उसे वि
अपने पंखो से ढाँके रिती िै |
द :
सवपतयािन य था कूमी वीकण े नैव पोषय ेत ् |
दगदीका खयोपद ेशसत ु ताद शः क िथ तः िपय े ||
‘दगदीका उसी पकार की िै िजस पकार कछवी दिषमात से अपने बचचो का पोषण
करती िै |’
धया नदी का :
यथा मत सी स वतनय ान ् धया नमात ेण पोषय ेत ् |
वेिदीकापद े शसत ु मनस ः सया तथा िविाः ||
सपश य :
सथू िं जा नं िद िवि ं ग ुरसामयासामयदतवभ ेदेन |
दीपपसतरयोिरव स ंसप शाय ितसनगिवतय य यसोः ||
िकसी जिते िुए दीपक से िकसी दस
ू रे दीपक की घत
ृ ाक या तैिाक बती को सपशय
करते िी वि बती जि उठती िै , िफर यि दस
ू री जिती िुई बती चािे िकसी भी अनय
िसनगि बती को अपने सपश य से पजविित कर सकती िै | यि शिक उसे पाप िो गयी |
यिी शिक इस पकार पजविित सभी दीपो को पाप िै | इसीको परमपरा किते िै | दस
ू रा
उदािरण पारस िै | पारस के सपश य से िोिा सोना बन जाता िै , परनतु इस सोने मे यि
सामथय य निीं िोता िक वि दस
ू रे िकसी िोिखणड को अपने सपश य से सोना बना सके |
सामयदान करने की शिक उसमे निीं िोती अथात
य परमपरा आगे निीं बनी रिती |
शबद ः
तदद िदिवि ं स ूकम ं श बदशवण ेन कोिक िामब ुदयोः |
ततस ुत मयूर योिरव तदज ेय ं य थास ंखयम ् ||
कौओं के बीच मे पिा िुआ कोयि का बचचा कोयि का शबद सुनते िी यि जान
जाता िै क मै कोयि िूँ | िफर अपने शबद से यिी बोि उतपनन करने की शिक भी उसमे
आ जाती िै | मेघ का शबद सुनकर मोर आननद से नाच उठता िै , पर यिी आननद दस
ू रे
को दे ने का सामथयय मोर के शबद मे निीं आता |
दिष :
इतथ ं सूकमतरम िप िद िवि ं कूमया य िनरीकणातसयाः |
पुतयासतथ ै व सिव तुिन य रीकणातक ोक िमथ ुनसय ||
कछवी के दिष िनकेपमात से उसके बचचे िनिाि िो जाते िै और िफर यिी
शिकपात उन बचचो को भी पाप िोती िै | इसी पकार सदगुर के करणामय दिषपात से
िशषय मे जान का उदय िो जाता िै और िफर उसी पकार की करणामय दिषपात से
अनय अििकािरयो मे भी जान उदय कराने की शिक उस िशषय मे भी आ जाती िै |
परनतु चकवा-चकवी को सूयद
य शन
य से जो आननद पाप िोता िै , विी आननद वे अपने दशन
य
के दारा दस
ू रे चकवा-चकवी के जोडो को निीं पाप करा सकते |
संक लपः
सूकमतम िप िदिवि ं मतसयाः स ंक लपतसत ु तद ु िित ुः |
तृ िपन य गरािदज िनमा य िनत कसं कलपति भ ुिव तद त ||
यिी बात परम भगवदभक संत तुकारामजी अपने अभंग मे इस पकार किते िै :
“सदगुर िबना रासता निीं िमिता, इसििए सब काम छोडकर पििे उनके चरण
पकड िो | वे तुरंत शरणागत को अपने जैसा बना िेते िै | इसमे उनिे जरा भी दे र निीं
िगती |”
शिकसंचार दीका पाप करने के पिात सािक अपने पुरषाथ य से कोई भी यौिगक
िकया निीं कर सकता, न इसमे उसका मन िी िग सकता िै | शिक सवयं अंदर से जो
सफूितय पदान करती िै , उसी के अनुसार सािक को सब िकयाएँ िोती रिती िै | यिद उसके
अनुसार वि न करे अथवा उसका िवरोि करे तो उसका िचत सवसथ निीं रि सकता, ठीक
वैसे िी जैसे नींद आने पर भी जागनेवािा मनुषय असवसथ िोता िै | सािक को शिक के
आिीन िोकर रिना िोता िै | शिक िी उसे जिाँ जब िे जाय, उसे जाना िोता िै और
उसीमे संतोष करना िोता िै | एक जीवन मे इस पकार किाँ-से-किाँ तक उसकी पगित
िोगी, इसका पििे से कोई िनिय या अनुमान निीं िकया जा सकता | शिक िी उसका
भार विन करती िै और शिक िकसी पकार उसकी िािन न कर उसका कलयाण िी करती
रिती िै |
योगाभयास की इचछा करनेवािो के ििए इस काि मे शिकपात जैसा सुगम सािन
अनय कोई निीं िै | इसििए ऐसे शिकसमपनन गुर जब सौभागय से िकसीको पाप िो तब
उसे चाििए िक ऐसे गुर का कृ पापसाद पाप करे | इस पकार अपने कतवयो का पिन
करते िुए ईशरपसाद का िाभ पाप करके कृ तकृ तय िोने के ििए सािक को सदा
पयतशीि रिना चाििए |
गुर मे िवश ास
गुरतय ागाद भव े नम ृ तयुम म ततयागादिरदता |
गुरम ंतप िरतय ागी र ैरव ं नरकं वज ेत ् ||
एक बार सदगुर करके िफर उनिे छोडा निीं जा सकता | जो िमारे जीवन की
वयवसथा करना जानते िै , ऐसे आतमवेता, शोितय, बहिनष सदगुर िोते िै | ऐसे मिापुरष
अगर िमे िमि जाये तो िफर किना िी कया ? जैसे, उतम पितवता सी अपने पित के
िसवाय दस
ू रे िकसीको पुरष निीं मानती | मधयम पितवता सी बडो को िपता के समान,
छोटो को अपने बचचो के समान और बराबरी वािो को अपने भाई के समान मानती िै
िकनतु पित तो उसे िरती पर एक िी िदखता िै | ऐसे िी सतिशषय को िरती पर सदगुर
तो एक िी िदखते िै | िफर भिे सदगुर के अिावा अनय कोई बहिनष संत िमि जाये
घाटवािे बाबा जैसे, उनका आदर जरर करे गे िकनतु उनके ििए सदगुर तो एक िी िोते िै
|
पावत
य ीजी से किा गया: “तुम कयो भभूतिारी, शमशानवासी िशवजी के ििए इतना
तप कर रिी िो ? भगवान नारायण के वैभव को दे खो, उनकी पसननता को दे खो | ऐसे वर
को पाकर तुमिारा जीवन िनय िो उठे गा |”
तब पावत
य ीजी ने किा: “आप मुझे पििे िमि गये िोते तो शायद, मैने आपकी बात
पर िवचार िकया िोता | अब तो मै ऐसा सोच भी निीं सकती | मैने तो मन से िशवजी
को िी पित के रप मे वर ििया िै |
सािक को भी एक बार सदगुर से मंत िमि गया तो िफर अटि िोकर िगे रिना
चाििए |
मंत म े िव शास
एक बार सदगुर से मंत िमि गया, िफर उसमे शंका निीं करनी चाििए | मंत चािे
जो िो, िकनतु यिद उसे पूणय िवशास के साथ जपा जाय तो अवशय फिदायी िोता िै |
वैसे तो गुरजी ने अपने िशषयो को अनेक मंत बतिाये थे , िकनतु िशषयो ने उनसे
कोई िसिद पाप निीं की थी | अतः उनिोने सोचा िक िसिद पाप करने के उपाय को
गुरजी िछपाये िी िै , िजसके कारण गुरजी का इतना मान िै | गुरजी के दशन
य ो के ििए
िशषयगण बडे दरू-दरू से आये और बडी आशा से रिसय के उदघाटन का इनतजार करने
िगे |
िशषय ने सोचा: ‘जो भी िो, उसे चिना िी िोगा कयोिक किीं ऐसा न िो िक दशन
य
पाये िबना िी गुरजी का दे िानत िो जाय…’
वि जानता था िक गुरजी ने उसे जो मंत िदय िै वि बडा शिकशािी िै और
उसमे सब कुछ करने की शिक िै | ऐसा िवशास करके शदापूवक
य मंत जपता िुआ वि
नदी के जि पर पैदि िी चिकर आया |
“आपने िम सबको िोखा कयो िदया? िम सबने वषो आपकी सेवा की और बराबर
आपकी आजाओं का पािन िकया | िकनतु मंत का रिसय आपने एक ऐसे अजात िशषय
को बता िदया जो केवि एक िदन, सो भी बिुत िदन पििे, आपके पास रिा |”
दस ना मापराि
सदगुर से पाप मंत को िवशासपूवक
य तो जपे िी, साथ िी यि भी धयान रखे िक
जप दस अपराि से रिित िो | िकसी मिातमा ने किा िै :
अतः जो भी वयिक रामनाम का, पभुनाम का पूरा िाभ िेना चािे , उसे दस दोषो
से अवशय बचना चाििए | ये दस दोष ‘नामापराि’ कििाते िै | वे दस नामापराि कौन- से
िै ? ‘िवचारसागर’ मे आता िै :
सिनन नदाऽस ितनामव ैभवक था शीश े शय ोभे द ििः
अशदा श ु ित शासद ैिश कागरा ं नामनयथा य वादभ मः |
नामासतीित िनिषदव ृ ित िविि ततय ागो िि ि माय नतर ैः
सामय ं न ािमन जप े िशवसय च िर ेन ाय मापरािा दशा ||
1. सतपुरष की िननदा
2. असािु पुरष के आगे नाम की मििमा का कथन
3. िवषणु का िशव से भेद
4. िशव का िवषणु से भेद
5. शिुतवाकय मे अशदा
6. शासवाकय मे अशदा
7. गुरवाकय मे अशदा
8. नाम के िवषय मे अथव
य ाद ( मििमा की सतुित) का भम
9. ‘अनेक पापो को नष करनेवािा नाम मेरे पास िै ’ – ऐसे िवशास से
िनिषद कमो का आचरण और इसी िवशास से िविित कमो का तयाग तथा
10. अनय िमो (अथात
य नामो) के साथ भगवान के नाम की तुलयता जानना –
ये दस िशव और िवषणु के जप मे नामापराि िै
पि िा अ पर ाि िै , सतप ुर ष क ी िन ंदा :
यि पथम नामापराि िै | सतपुरषो मे तो राम-ततव अपने पूणतयव मे पकट िो चुका िोता
िै | यिद सतपुरषो की िनंदा की जाय तो िफर नामजप से कया िाभ पाप िकया जा
सकता िै ? तुिसीदासजी, नानकजी, कबीरजी जैसे संत पुरषो ने तो संत-िनंदा को बडा
भारी पाप बताया िै | ‘शीरामचिरतमानस’ मे संत तुिसीदासजी किते िै :
‘जो अपने कानो से भगवान िवषणु और िशव की िनंदा सुनता िै , उसे गोवि के
समान पाप िगता िै |’
िो ििं उि ूक स ंत िन ंदा रत |
मोि िन सा िपय ग यान भान ु ग त ||
‘संतो की िनंदा मे िगे िुए िोग उलिू िोते िै , िजनिे मोिरपी राित िपय िोती िै
और जानरपी सूयय िजनके ििए बीत गया (असत िो गया) िोता िै |’
‘संत का दशुमन सदा कष्ट सहता रहता है | संत का दु ं्मन कभी न जीता िै ,
न मरता िै | संत के दशुमन की आशा पूण य निीं िोती | संत का दशुमन िनराश िोकर
मरता िै |’
दू सर ा अप राि ि ै , असा िु पुर ष के आ गे ना म क ी म िि मा क ा क थन :
िजनका हदय सािन-संपनन निीं िै , िजनका हदय पिवत निीं िै , जो न तो सवयं
सािन-भजन करते िै और न िी दस
ू रो को करने दे ते िै , ऐसे अयोगय िोगो के आगे नाम-
मििमा का कथन करना अपराि िै |
चार बचचे आपस मे झगड रिे थे | इतने मे विाँ से एक सजजन गुजरे | उनिोने
पूछा: “कयो िड रिे िो ?”
इसी पकार जो िोग केवि शबद को िी पकड रखते िै , उसके िकयाथ य को निीं
समझते, वे िोग ‘नाम’ का पूरा फायदा निीं िे पाते |
जा पक के पक ार
कुछ ऐसे जापक िोते िै जो कुछ पाने के ििए, सकाम भाव से जप करते िै | वे
किनष कििाते िै |
दस
ू रे ऐसे जापक िोते िै जो गुरमंत िेकर केवि िनयम की पूित य के ििए 10 मािा
करके रख दे ते िै | वे मधयम कििाते िै |
तीसरे ऐसे जापक िोते िै जो िनयम तो पूरा करते िी िै , कभी दो-चार मािा जयादा
भी कर िेते िै , कभी चिते-चिते भी जप कर िेते िै | ये उतम जापक िै |
कुछ ऐसे जापक िोते िै िक िजनके सािननधयमात से, दशन
य -मात से सामनेवािे का
जप शुर िो जाता िै | ऐसे जापक सवोतम िोते िै |
ऐसे मिापुरष िाखो वयिकयो के बीच रिे , िफर िाखो वयिक चािे कैसे भी िो िकनतु
जब वे कीतन
य कराते िै तथा िोगो पर अपनी कृ पादिष डािते िै तो वे सभी उनकी कृ पा
से झूम उठते िै |
जप के पकार
वैिदक मंत जप करने की चार पदितयाँ िै
1. वैखरी
2. मधयमा
3. पशयंती
4. परा
दस
ू री िै मधयमा | इसमे िोठ भी निीं िििते, व दस
ू रा कोई वयिक मंत को सुन भी
निीं सकता |
चौथी िै परा | मंत के अथय मे िमारी विृत िसथर िोने की तैयारी िो, मंतजप करते-
करते आनंद आने िगे तथा बुिद परमातमा मे िसथर िोने िगे, उसे परा मंतजप किते िै |
‘याजवलकयसंििता’ मे आता िै :
• जैसे पानी की बूँद को बाषप बनाने से उसमे 1300 गुनी ताकत आ जाती िै वैसे िी
मंत को िजतनी गिराई से जपा जाता िै , उसका पभाव उतना िी जयादा िोता िै |
गिराई से जप करने से मन की चंचिता कम िोती िै व एकागता बढती िै |
एकागता सभी सफिताओं की जननी िै |
• भगवतकृ पा व गुरकृ पा का आवािन करके मंत जपना चाििए, िजससे छोटे -मोटे
िवघन दरू रिे औ शदा का पाकटय िो | कभी-कभी िमारा जप बढता िै तो आसुरी
शिकयाँ िमे पेिरत करके नीच कम य करवाकर िमारी शिकयाँ कीण करती िै | कभी
किियुग भी िमे इस माग य से शष
े पुरषो से दरू करने के ििए पेिरत करता िै
इसीििए कबीरजी कित िै :
“संत के दशन
य िदन मे कई बार करो | कई बर निीं तो दो बार, दो बार
निीं तो सपाि मे एक बार, सपाि मे भी निीं तो पाख-पाख मे (15-15 िदन मे)
और पाख-पाख मे भी न कर सको तो मास-मास मे तो जरर करो |”
भगवदशन
य , संत-दशन
य िवघनो को िटाने मे मदद करता िै |
• सािक को अपने गुर से कभी-भी, कुछ भी िछपाना निीं चाििए | चािे िकतना बडा
पाप या अपराि कयो न िो गया िो िकनतु गुर पूछे , उसके पििे िी बता दे ना
चाििए | इससे हदय शुद िोगा व सािना मे सिायता िमिेगी |
पििे िै उतम, दस
ू रे िै मधयम, तीसरे िै किनष और चौथे िै किनषतर |
सािक को सदै व उतम सेवक बनने के ििए पयतशीि रिना चाििए | अनयथा
बुिदमान और शदािु िोने पर भी सािक िोखा खा जाते िै | उनकी िजतनी याता
िोनी चाििए, उतनी निीं िो पाती |
• सािक को चाििए िक एक बार सदगुर चुन िेने के बाद उनका तयाग न करे | गुर
बनाने से पूवय भिे दस बार िवचार कर िे, िकसी टोने-टोटकेवािे गुर के चककर मे
न फँसे, बिलक ‘शीगुरगीता’ मे बताये गये िकणो के अनुसार सदगुर को खोज िे
| िकनतु एक बार सदगुर से दीका िे िी तो िफर इिर-उिर न भटके | जैसे
पितवता सी यिद अपने पित को छोडकर दस
ू रे पित की खोज करे तो वि
पितवता निीं, वयिभचािरणी िै | उसी पकार वि िशषय िशषय निीं, जो एक बार
सदगुर बन िेने के बाद उनका तयाग कर दे | सदगुर न बनाकर भवाटवी मे
भटकना अचछा िै िकनतु सदगुर बनाकर उनका तयाग कदािप न करे |
आगि निीं िै िक मािा िेकर जप करे , िेिकन नये सािक को मािा िेकर
आसन बैठकर 10 मािा करनी चाििए | िफर चिते-िफरते िजतना भी जप िो जाय,
वि अचछा िै |
कोई किता िै : ‘भाई ! कया करे ? समय िी निीं िमिता …’ अरे भैया !
समय निीं िमिता िफर भी भोजन तो कर िेते िो, समय निीं िमिता िफर भी
पानी तो पी िेते िो | ऐसे िी समय न िमिे िफर भी िनयम कर िो, तो बिुत
अचछा िै |
• सूयग
य िण, चंदगिण तथा तयौिारो पर जप करने से कई गुना िाभ िोता िै | अतः
उन दोनो मे अििक जप करना चाििए |
1. सम य:
सबसे उतम समय पातः काि बहमुिूतय और तीनो समय (सुबि सूयोदय के
समय, दोपिर 12 बजे के आसपास व सांय सूयास
य त के समय) का संधयाकाि िै |
पितिदन िनिित समय पर जप करने से बिुत िाभ िोता िै |
2. सथा न:
पितिदन एक िी सथान पर बैठना बिुत िाभदायक िै | अतः अपना
सािना-कक अिग रखो | यिद सथानाभाव के कारण अिग कक न रख सके तो
घर का एक कोना िी सािना के ििए रखना चाििए | उस सथान पर संसार का
कोई भी काय य या वाताि
य ाप न करो | उस कक या कोने को िूप-अगरबती से
सुगिं ित रखो | इष अथवा गुरदे व की छिव पर सुगिं ित पुषप चढाओ और दीपक
करो | एक िी छिव पर धयान केिनदत करो | जब आप ऐसे करोगे तो उससे जो
शिकशािी सपनदन उठे गे, वे उस वातावरण मे ओतपोत िो जायेगे |
3. िदश ा
जप पर िदशा का भी पभाव पडता िै | जप करते समय आपक मुख उतर अथवा
पूवय की ओर िो तो इससे जपयोग मे आशातीत सिायता िमिती िै |
4. आस न
आसन के ििए मग
ृ चमय, कुशासन अथवा कमबि के आसन का पयोग करना
चाििए | इससे शरीर की िवदुत-शिक सुरिकत रिती िै |
5. मािा
मंतजाप मे मािा अतयंत मितवपूण य िै | इसििए समझदार सािक मािा
को पाण जैसी िपय समझते िै और गुप िन की भाँित उसकी सुरका करते िै |
a. करमािा
अँगिु ियो पर िगनकर जो जप िकया जाता िै , वि करमािा जाप िै | यि दो पकार
से िोता िै : एक तो अँगिु ियो से िी िगनना और दस
ू रा अँगिु ियो के पवो पर
िगनना | शासतः दस
ू रा पकार िी सवीकृ त िै |
शीिवदा मे इससे िभनन िनयम िै | मधयमा का मूि एक, अनािमका का मूि एक,
किनिषका के तीन, अनािमका और मधयमा के अगभाग एक-एक और तजन
य ी के तीन –
इस पकार दस संखया पूरी िोती िै |
िाथ को हदय के सामने िाकर, अँगिु ियो को कुछ टे ढी करके वस से उसे ढककर
दाििने िाथ से िी जप करना चाििए |
b. वण य मािा
वणम
य ािा का अथ य िै अकरो के दारा जप की संखया िगनना | यि पायः अनतजप
य
मे काम आती िै , परनतु बििजप
य मे भी इसका िनषेि निीं िै |
वणम
य ािा के दारा जप करने का िविान यि िै िक पििे वणम
य ािा का एक अकर
िबनद ु िगाकर उचचारण करो और िफर मंत का- अवग य के सोिि, कवग य से पवग य तक
पचचीस और यवगय से िकार तक आठ और पुनः एक िकार- इस कम से पचास तक की
िगनती करते जाओ | िफर िकार से िौटकर अकार तक आ जाओ, सौ की संखया पूरी िो
जायेगी | ‘क’ को सुमेर मानते िै | उसका उलिंघन निीं िोना चाििए |
संसकृ त मे ‘त’ और ‘ज’ सवतंत अकर निीं, संयुकाकर माने जाते िै | इसििए
उनकी गणना निी िोती | वगय भी सात निीं, आठ माने जाते िै | आठवाँ सकार से पारमभ
िोता िै | इनके दारा ‘अं’, कं, चं, टं , तं, पं, यं, शं’ यि गणना करके आठ बार और जपना
चाििए- ऐसा करने से जप की संखया 108 िो जाती िै |
c. मिण मािा
मिणमािा अथात
य मनके िपरोकर बनायी गयी मािा दारा जप करना मिणमािा
जाप किा जाता िै |
मािा बनाने मे इतना धयान अवशय रखना चाििए िक एक चीज की बनायी िुई
मािा मे दस
ू री चीज न आये | मािा के दाने छोटे -बडे व खंिडत न िो |
यिद पमादवश मािा िाथ िगर जाये तो मंत को दो सौ बार जपना चाििए, ऐसा
अिगनपुराण मे आता िै :
धयान रिे िक मािा शरीर के अशुद माने जाने अंगो का सपशय न करे | नािभ के
नीचे का पूरा शरीर अशुद माना जाता िै | अतः मािा घुमाते वक मािा नािभ से नीचे
निीं िटकनी चििए तथा उसे भूिम का सपशय भी निीं िोना चििए |
गुरमंत िमिने के बाद एक बार मािा का पूजन अवशय करो | कभी गिती से
अशुदावसथा मे या िसयो दारा अनजाने मे रजसविावसथा मे मािा का सपशय िो गया िो
तब भी मािा का िफर से पूजन कर िो |
1. हसव : 'ििर ॐ ... ििर ॐ ... ििर ॐ ...' इस पकार का हसव उचचारण पापो का
नाश करता िै |
2. दीघ य : 'ििर ओऽऽऽऽम ् ...' इस पकार थोडी जयादा दे र तक दीघय उचचारण से
ऐशयय की पािप मे सफिता िमिती िै |
3. पिुत : ‘ििर ििर ओऽऽऽम ् ...' इस पकार जयादा िंबे समय के पिुत उचचारण
से परमातमा मे िवशांित पायी जा सकती िै |
7. पाणा याम : जप करने से पूवय सािक यिद पाणायाम करे तो एकागता मे विृद
िोती िै िकंतु पाणायाम करने मे साविानी रखनी चाििए |
िकसीका मंत 'ॐ राम' िै तो मािसक िमय के पांच िदनो तक या पूणय शुद
न िोने तक केवि 'राम-राम' जप सकती िै | िसयो का मािसक िमय जब तक जारी
िो, तब तक वे दीका भी निीं िे सकती | अगर अजानवश पांचवे-छठवे िदन भी
मािसक िमय जारी रिने पर दीका िे िी गयी िै या इसी पकार अनजाने मे
संतदशन
य या मंिदर मे भगवदशन
य िो गया िो तो उसके पायिित के ििए 'ऋिष
पंचमी' (गुरपंचमी) का वत कर िेना चाििए |
मंतान ु षा न
‘शीरामचिरतमानस’ मे आता िै िक मंतजप भिक का पाँचवाँ सोपान िै |
मंतजाप म म दढ िवशासा |
पंच म भिक यि ब ेद पाकासा ||
मंत एक ऐसा सािन िै जो मानव की सोयी िुई चेतना को, सुषुप शिकयो को
जगाकर उसे मिान बना दे ता िै |
िजस पकार टे िीफोन के डायि मे 10 नमबर िोते िै | यिद िमारे पास कोड व
फोन नंबर सिी िो तो डायि के इनिीं 10 नमबरो को ठीक से घुमाकर िम दिुनया के
िकसी कोने मे िसथत इिचछत वयिक से तुरंत बात कर सकते िै | वैसे िी गुर-पदत मंत
को गुर के िनदे शानुसार जप करके, अनुषान करके िम िवशेशवर से भी बात कर सकते िै
|
मंत जपने की िविि, मंत के अकर, मंत का अथय, मंत-अनुषान की िविि जानकर
तदनुसार जप करने से सािक की योगयताएँ िवकिसत िोती िै | वि मिे शर से मुिाकात
करने की योगयता भी िवकिसत कर िेता िै | िकनतु यिद वि मंत का अथ य निीं जानता
या अनुषान की िविि निीं जानता या िफर िापरवािी करता िै , मंत के गुथ
ं न का उसे
पता निीं िै तो िफर ‘राँग नंबर’ की तरि उसके जप के पभाव से उतपनन आधयाितमक
शिकयाँ िबखर जायेगी तथा सवयं उसको िी िािन पिुंचा सकती िै | जैसे पाचीन काि मे ‘
इनद को मारनेवािा पुत पैदा िो’ इस संकलप की िसिद के ििए दै तयो दारा यज िकया
गया | िेिकन मंतोचचारण करते समय संसकृ त मे हसव और दीघ य की गिती से ‘इनद से
मारनेवािा पुत पैदा िो’ – ऐसा बोि िदया गया तो वत
ृ ासुर पैदा िुआ, जो इनद को निीं
मार पाया वरन ् इनद के िाथो मारा गया | अतः मंत और अनुषान की िविि जानना
आवशयक िै |
1. अनुषान कौन करे ?: गुरपदत मंत का अनुषान सवयं करना सवोतम िै | किीं-
किीं अपनी िमप
य ती से भी अनुषान कराने की आजा िै , िकनतु ऐसे पसंग मे पती
पुतवती िोनी चाििए |
िसयो को अनुषान के उतने िी िदन आयोिजत करने चाििए िजतने िदन उनके
िाथ सवचछ िो | मािसक िमय के समय मे अनुषान खिणडत िो जाता िै |
2. सथान : जिाँ बैठकर जप करने से िचत की गिािन िमटे और पसननता बढे अथवा
जप मे मन िग सके, ऐसे पिवत तथा भयरिित सथान मे बैठकर िी अनुषान
करना चाििए |
3. िद शा : सामानयतया पूव य या उतर िदशा की ओर मुख करके जप करना चाििए |
िफर भी अिग-अिग िे तुओं के ििए अिग-अिग िदशाओं की ओर मुख करके
जप करने का िविान िै |
‘शीगुरगीता’ मे आता िै :
“उतर िदशा की ओर मुख करके जप करने से शांित, पूवय िदशा की ओर वशीकरण,
दिकण िदशा की ओर मारण िसद िोता िै तथा पििम िदशा की ओर मुख करके
जप करने से िन की पािप िोती िै | अिगन कोण की तरफ मुख करके जप करने
से आकषण
य , वायवय कोण की तरफ शतु नाश, नैॠतय कोण की तरफ दशन
य और
ईशान कोण की तरफ मुख करके जप करने से जान की पािप िोती िै | आसन
िबना या दस
ू रे के आसन पर बैठकर िकया गया जप फिता निीं िै | िसर पर
कपडा रख कर भी जप निीं करना चाििए |
‘पिरपश े न ...’
पशः ज प करत े समय भग वान के िकस सवरप का िवचार करन ा चा ििए ?
उतरः अपनी रिच के अनुसार सगुण अथवा िनगुण
य सवरप मे मन को एकाग िकया जा
सकता िै । सगुण का िवचार करोगे, िफर भी अंितम पािप तो िनगुण
य की िी िोगी। जप मे
सािन और साधय एक िी िै जबिक अनय सािना मे दोनो अिग िै । योग मे अषांग योग
का अभयास सािना िै और िनिवल
य प समािि साधय िै । वेदांत मे आतमिवचार सािन के
और तुरीयावसथा साधय िै । िकनतु जप-सािना मे जप के दारा िी अजपा िसथित को िसद
करना िै अथात
य ् सतकयपूवक
य िकये गये जप के दारा सिज जप को पाना िै । मंत के अथय
मे तदाकार िोना िी सचची सािना िै ।
पशः कया दो य ा तीन म ंतो का जप िकया जा स कता िै ?
उतरः निीं, एक समय मे एक िी मंत और वि भी सदगुर पदत मंत का िी जप करना
शष
े िै । यिद आप शी कृ षण भगवान के भक िै तो शीरामजी, िशवजी, दग
ु ाम
य ाता, गायती
इतयािद मे भी शीकृ षण के िी दशन
य करो। सब एक िी ईशर के रप िै । शी कृ षण की
उपासना िी शीराम की या दे वी की उपासना िै । सभी को अपने इषदे व के ििए इसी
पकार समझना चाििए। िशव की उपासना करते िै तो सबमे िशव की िी सवरप दे खे।
पशः कया ग ृ िस थ श ुद पणव का जप कर स कता ि ै ?
उतरः सामानयतया गिृसथ के ििए केवि पणव यािन ‘ॐ’ का जप करना उिचत निीं
िै । िकनतु यिद वि सािन-चतुषय से समपनन िै , मन िवकेप से मुक िै और उसमे
जानयोग सािना के ििए पबि मुमुकतव िै तो वि ‘ॐ’ का जप कर सकता िै ।
पशः ‘ ॐ नमः िशवाय’ प ंचाकरी म ंत ि ै या ष डाकरी ? इसका अन ुषान करन ा िो
तो िकत ने िाख जप कर े ?
उतरः केवि ‘न मः िशवाय’ पंचाकरी मंत िै एवं ‘ॐ नमः िशवाय’ षडाकरी मंत िै ।
अतः इसका अनुषान तदनुसार करे ।
पशः ज प करत े -करत े मन एकदम श ांत िो जा ता िै एव ं ज प छूट जा ता िै तो
कया कर े ?
उतरः जप का फि िी िै शांित और धयान। यिद जप करते-करते जप छूट जाये एवं मन
शांत िो जाये तो जप की िचंता न करो। धयान मे से उठने के पिात पुनः अपनी िनयत
संखया पूरी कर िो।
पशः ज ब जप करत े ि ै तो काम -को िािद िव कार अ ििक सतात े -से पतीत िोत े
िै और जप करना छोड द ेत े ि ै। कया यि उिच त िै ?
उतरः कई बार सािक को ऐसा अनुभव िोता िै िक पििे इतना काम-कोि निीं सताता
था िजतना मंतदीका के बाद सताने िगा िै । इसका कारण िमारे पूवज
य नम के संसकार िो
सकते िै । जैसे घर की सफाई करने पर कचरा िनकिता िै , ऐसे िी मंतजाप करने से
कुसंसकार िनकिते िै । अतः घबराओ निीं, न िी मंतजप करना छोड दो वरन ् ऐसे समय
मे दो-तीन घूँट पानी पीकर थोडा कूद िो, पणव का दीघय उचचारण करो एवं पभु से पाथन
य ा
करो। तुरंत इन िवकारो पर िवजय पाने मे सिायता िमिेगी। जप तो िकसी भी अवसथा
मे तयाजय निीं िै ।
पशः अ िि क जप स े ख ुशकी चढ जा ये तो कय ा कर े ?
उतरः जप से खुशकी निीं चढती, वरन ् सािक की आसाविानी से खुशकी चढती िै । नया
सािक िोता िै , दब
ु ि
य शरीर िोता िै एवं उतसाि-उतसाि मे अििक पाणायाम करता िै , िफर
भूखामरी करता िै तो खुशकी चढने की संभावना िोती िै । अतः उपरोक कारणो का
िनराकरण कर िो। िफर भी यिद िकसी को खुशकी चढ िी जाये तो पातःकाि सात काजू
शिद के साथ िेना चाििए अथवा भोजन के पिात िबना शिद के सात काजू खाने
चाििए। (सात से जयादा काजू िदनभर मे खाना शरीर के ििए िितावि निीं िै ।) इसके
अिावा िसर के तािू पर एवं ििाट के दोनो छोर पर गाय के घी की माििश करो। इससे
िाभ िोता िै । खुशकी चढने मे, पागिपन मे पकके पेठे का रस या उसकी सबजी िितावि
िै । कचचे पेठे निीं िेना चाििए। आिार मे घी, दि
ू , बादाम का उपयोग करना चाििए। ऐसा
करने से ठीक िोता िै । खुशकी या िदमाग की िशकायत मे िवदुत का झटका िदिाना बडा
िािनकारक िै ।
पश : सवपन मे मं त दीका िमिी िो तो कया करे ? कया पुनः पतयक रप मे
मंत दीका ि ेना अिनवाय य िै ?
उतर : िाँ
पश : पिि े िकसी मं त का जप करत े थे , विी मंत यिद मंतदीका के समय िमि े ,
तो कय ा कर े ?
उतर : आदर से उसका जप करना चाििए | उसकी मिानता बढ जाती िै |
पश : मंतदीका क े स मय कान म े अ ं गुिी कयो ड िवात े ि ै ?
उतर : दाये कान से गुरमंत सुनने से मंत का पभाव िवशेष रिता िै ऐसा किा गया िै |
पश : यिद ग ुर मंत न ििया िो , िफर भी अन ुषान िकया जा सकता ि ै कया ?
उतर : िाँ, िकया जाता िै |