class 8 अध्याय 2

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बिलस्य वाणी न कदापि मे श्रुता

प्र स् तु त पा ठ सं स् कृ त के प्र सि द्ध कथा ग्र न् थ ‘पं चतं त्र ’ क्त तृ ती य तं त्र ‘का को लू की यं ’ से सं कलि त है |
इसके ले खक पण्डि त वि ष् णु शर्मा हैं |
1 कि सी वन में खरनखर ना मक शे र रहता था |कि सी दि न इधर-उधर घू मते हु ए भू ख से पी ड़ि त उसने
कु छ भी भो जन प्रा प्त नहीँ कि या | उसके
बा द शा म के समय एक बड़ी गु फा को दे खकर उसने सो चा - “नि श्चि त
नि श्चि त रू प से इस गु फ़ा में को ई प्रा णी आता है ’’ | इसलि ए यहीं छि पकर
बै ठता हूँ |
2 इसी बीच गुफा का स्वामी दधिपुच्छ नामक गीदड़ आ गया |और
उसने जब(धयान से) देखा तो शेर के पैरों के चिन्ह गुफा में प्रवेश
प्रवेश करते दिखे,बाहर की ओर आते नहीँ दिखे |गीदड़ ने सोचा | “अरे मै तो मारा गया | निश्चय हीं
इस गुफा में शेर है ,ऐसा सोचता हूँ | तो क्या करू ?” ऐसा सोचकर (उसने) दूर से हीं बोलना शुरू
कर दिया – “हे गुफा ! गुफा ! क्या तुम्हें स्मरण है कि मेरा तुम्हारे साथ समझौता हुआ है-कि जब मै
बाहर से लौटूँगा तो तुम मुझे पुकारोगी? यदि तुम मुझे नहीं बुलाती हो तो मैं दूसरी गुफा में चला
जाऊँ गा,ऐसा”
3 इसके बाद यह सुनका शेर ने सोचा- “निश्चय हीं यह गुफा (अपने) स्वामी
का आह्वाहन करती है |परन्तु (आज) मेरे भय से कु छ नहीं बोल रही है |
अथवा ठीक ही यह कहतें हैं-
भय संत्रस्त मनसाम् हस्तपादादिका: क्रियाः |
प्रवर्तन्ते न वाणी च वेपथुश्चाधिको भवेत् ||
अन्वयः-भय-संत्रस्तमनासां हस्त-पादाधिका: न प्रवर्तन्ते | वाणी च अधिकः वेपथु: भवेत् |

शब्दार्थः भयसंत्रस्तमनासां- डरे हुए मन वालोँ का ,हस्तपादादिका:-हाथ-पैर आदि से संबंधित | प्रवर्तन्ते-प्रकट


होते हैं,वेपथु:-कम्पन |

भय से डरे हुए मन वाले लोगों के हाँथ-पैर आदि क्रियाशील नहीं हो पाते


4 तो मैं इसे पुकारता हूँ | इस तरह वह बिल (गुफ़ा) में
प्रवेश करके मेरा भोजन बन जाएगा |इस प्रकार विचार करके
शेर अचानक गीदड़ को पुकारता है |शेर की ऊँ ची प्रतिध्वनी द्वारा
उस गुफा ने जोर से पुकारा | इससे दूसरे पशु भी भयभीत हो
गए | गीदड़ ने भी वहाँ से दूर भागते हुए कहा |
2 अनागतं य: कु रुते सह: शोभते स शोच्यते यो न करोत्यानागतम् |
वनेsत्र संस्थस्य समागता जरा बिलस्य वाणी न कदापि मे श्रुता ||

अन्वय यः अनागतं कु रुते सः शोभते | य: अनागतं न करोति सः शोच्यते | अत्र वने संस्थस्य (मे) जरा
समागता | मे बिलस्य वाणी कदापि न श्रुता |
शब्दार्थ-अनागता-आने वाले कल का,यः-जो,कु रुते-करता है | शोभते-शोभा पाता है
शोच्यते-चिंतनीय होता है | वनेsत्र- यहाँ वन में | संस्थस्य-रहते हुए का | जरा-
बुढ़ापा | वाणी-आवाज़ | कदापि-कभी भी | मे-मेरे द्वारा | श्रुता-सुनी गई |
सरलार्थ-जो आने वाले कल का उपाय करता है,वह संसार में शोभा पाता है और जो आने वाले कल का उपाय
नहीँ करता है वह दुखी होता है | यहाँ वन में रहते मेरा बुढापा आ गया (परन्तु} मैने बिल की वाणी नहीँ सुनी
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अभ्यास-कार्य
एकपदेन उत्तरत-
(क) खरनखर: (ख) श्रृंगाल: दधिपुच्छः(ग) सूर्यास्तसमये (घ) भयसंत्रस्तमनसां
(ङ) सिंहोच्चगर्जन-प्रति-ध्वनिना
पूर्णवाक्येन उत्तरत-
(क) खरनखर: कस्मिश्चित् वने वसति स्म |
(ख) महतीम् गुहां दृष्ट्वा सिंह दृष्ट्वा अचिन्तयत्- “नूनं एतस्यां गुहायां रात्रौ
कोsपि जीव: आगच्छति | अतः अत्रैव निगूढ़ो भूत्वा तिष्ठामि” इति |
(ग) श्रृंगालः अचिन्तयत्- “अहो विनष्टोsस्मि | नूनं अस्मिन् बिले सिंह: अस्ति | अतः अस्य
परिक्षणम् करणीयं” |
(घ) श्रृंगालः दूरं पलायितः |
(ङ) गुहासमीपम् आगत्य श्रृंगालः सिंह:पदपद्धतिम् पश्यति |
(च ) यः अनागतम् कु रुते स शोभते
प्रश्न निर्माण:
(क) कीदृश: (ख) किं (ग) कस्य (घ) काः (ङ) कु त्र

, घटना क्रमानुसारम् वाक्यानि लिखत-

प्रश्न 6 यथानिर्देशमुत्तरत-

(क् ) द्वे विशेषण पदे स्तः-एकां, महतीं च |

(ख) ‘अहम्’ पदं सिंहाय प्रयुक्तं |

(ग) ‘त्वं’ (गूहा) कर्तृ पदं |

(घ) ‘प्रविष्टा’ इति क्रिया पद अत्र

(ङ) अव्ययपद अत्र

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