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नाटक लिखने का व्याकरण
नाटक लिखने का व्याकरण
नाटक का अर्थ।
हिंदी की अन्य विधाओं और नाट्य विधा में अंतर
नाटक में समय का बंधन।
नाटक के तत्व(कथावस्तु, भाषा, संवाद, चरित्र चित्रण)
नाटक की शिल्प संरचना
कठिन स्थलों की व्याख्या
प्रवाह चित्र
भारतीय परंपरा में नाटक को दृश्य काव्य की संज्ञा दी गई है। नाटक साहित्य की वह विधा है जिसे पढ़ने और सुनने के साथ
-साथ देखा भी जा सकता है।साहित्य की अन्य विधाएं अपने लिखित रूप में ही अंतिम रूप को पा लेती हैं परंतु नाटक
लिखित रूप में एक आयामी होता है तथा मंचन के पश्चात ही उसमें संपूर्णता आती है।
नाटक चाहे किसी भी काल में हो उसे एक निश्चित समय में, एक निश्चित स्थान पर, वर्तमान काल में ही घटित होना
एक नाटककार को यह भीहोता
सोचना आवश्यक
है। इसी है नाटक
कारणका कि दर्शकके कितने समय सदैव
मंचचाहे
निर्देश अर्थातवर्तमान
समय के काल
कितने अंतरालजाते तक किसी
हैं। में,कहानी को अपने सामने
नाटक की एक मूल विशेषता
घटित होते देख सकता है। है समय बंधन। नाटक किसी भी काल का हो उसेमेंएकलिखे
निश्चित समय एक निश्चित
स्थान पर, वर्तमान काल में ही घटित होना होता है।
एक नाटककार को यह भी सोचना आवश्यक है कि दर्शक कितने समय अर्थात समय के कितने अंतराल तक किसी
कहानी को अपने सामने घटित होते देख सकता है। नाटक में किसी भी चरित्र का पूरा विकास होना भी आवश्यक है
इसलिए समय का ध्यान रखना बहुत आवश्यक हो जाता है।
नाटक में 3 अंक होते हैं इसलिए उसे भी समय को ध्यान में रखकर बांटने की आवश्यकता होती है। जब हम भरत
लिखित नाट्यशास्त्र पर नजर डालते हैं तो हम देखते हैं कि उसमें भी नाटक कारों से यह अपेक्षा की गई थी कि नाटक के
प्रत्येक अंक की अवधि कम से कम 48 मिनट की हो।
नाटक के तत्व
१)कथावस्तु
२)पात्र एवं चरित्र चित्रण
३)संवाद
४)भाषा शैली
५)देशकाल एवं वातावरण
६)अभिनेयता
एक नाटक के लिए आवश्यक होता है उसका कथानक। नाटककार को कथावस्तु इस बात को ध्यान में
रखकर लिखनी चाहिए कि नाटक को मंच पर मंचित होना है।नाटक की कथावस्तु सामाजिक, पौराणिक,
ऐतिहासिक या काल्पनिक भी हो सकती है।
• कौतूहल
• रोचकता
• शून्य से शिखर की तरफ विकास
• नाट्यशास्त्र में वाचिक अर्थात बोले जाने वाले शब्द को नाटक का शरीर कहा गया है।
• नाटककार द्वारा आवश्यक है कि वह ज्यादा से ज्यादा संक्षिप्त और सांके तिक भाषा का प्रयोग करें।
• नाटक की भाषा अपने आप में वर्णित ना होकर क्रियात्मक ज्यादा हो और उसमें दृश्य बनाने की क्षमता भरपूर हो।
• नाटक की भाषा ऐसी हो कि वह अपने शाब्दिक अर्थ से अधिक व्यंजना की ओर ले जाए।
• नाटक का के वल एक मौन, अंधकार या ध्वनि प्रभाव कहानी या उपन्यास के 20- 25 पृष्ठों की बराबरी कर सकता है।
नाटक का सबसे आवश्यक और सशक्त माध्यम है संवाद। संवाद संक्षिप्त और परिस्थिति अनुसार होने चाहिए।संवाद जितने
ज्यादा सहज एवं स्वाभाविक होंगे उतना ही दर्शकों के मर्म को छु एंगे। संवाद चाहे जितने भी तत्सम और क्लिष्ट भाषा में क्यों
न लिखे गए हो, स्थिति तथा परिवेश की मांग के अनुसार यदि वे स्वाभाविक जान पड़ते हैं तब उनके दर्शकों तक संप्रेषित
होने में कोई मुश्किल नहीं होगी।संवाद जितने क्रियात्मक होंगे नाटक उतना ही सफल होगा।
मिसाल के तौर पर हेमलेट का यह प्रसिद्ध संवाद-टू बी और नॉट टू बी या स्कं द गुप्त नाटक का संवाद अधिकार सुख
कितना मादक और सारहीन है।
पात्र अथवा चरित्र चित्रण
नाटक में जो चरित्र प्रस्तुत किए जाएं वह सपाट, सतही और टाइप्ड न हो।
चरित्रों के विकास में इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वह स्थितियों के
मुताबिक अपनी क्रियाओं प्रतिक्रियाओं को व्यक्त करते चलें।
पात्रों का चयन कथानक के अनुसार ही किया जाना चाहिए।
• वर्तमान काल में हिंदी के नाटक कारों के पास शिल्प की दृष्टि से अनेक प्रकार के विकल्प मौजूद हैं।
• सर्वप्रथम तो अभिज्ञान शाकुं तलम् ,मृच्छकटिकम् जैसे संस्कृ त नाटकों का ढांचा मौजूद है।
• दूसरा लोक नाटकों का फार्म है जिसमें कोई लिखित आलेख नहीं है और सभी कु छ मौखिक रचना प्रक्रिया के माध्यम से
घटित होता है।
• पारसी नाटक का अपना एक अलग शिल्प है जो शेरो शायरी गीत संगीत पर आधारित होता था।
• नुक्कड़ नाटक की अपनी अलग पहचान है।
कठिन स्थलों की व्याख्या
नाटक एक दृश्य काव्य है जिसे पढ़ने और सुनने नाटक अपनी संपूर्णता तब प्राप्त करता है जब
के साथ-साथ देखा भी जा सकता है। उसका मंचन किया जाता है।
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