परिचय शूकधान्य वर्ग अष्टांग हृदय सूत्र स्थान के छःटे अध्याय अन्नस्वरूपविज्ञानीय से लिया गया है अन्न शब्द ‘अद्’ भक्षणे धातु में क्त प्रत्यय लग कर सिद्ध होता है जो भक्षण किया जाए उसे अन्न कहते है अन्न का स्वभाव रस, वीर्य, विपाक, प्रभाव, गुण एवं कर्म आदि के रूप में प्रकट होता है, इसलिए उसका ज्ञान अन्नस्वरूपविज्ञान है। शूकधान्य वर्ग जिन धान्यों में शूक लगे होते हैं उन्हें शूक कहते हैं |
शूकधान्य
शालिधान्य व्रीहिधान्य तृणधान्य
शालिधान्य जिन धान्यों में शूक (टूण) लगा होता है, वे शूकधान्य कहे जाते हैं। पुरा शूकधान्य के भेदों में शालिधान्य की संज्ञा उन्हें देते हैं, जो हेमन्त ऋतु में होते हैं और बिना कू टे ही स्वच्छ निकलते हैं। शालि धान्य के सामान्य गुण सामान्यतः सभी शालि रस एवं विपाक में मधुर, स्निग्ध एवं वृष्य (शुक्रल) होते हैं। इनसे बंधा हुआ तथा अल्प मात्रा में मल निकलता है। ये कषाय अनुरस, पथ्य, लघु, मूत्रल तथा शीतवीर्य होते हैं। शालि भेद 1. रक्तशालि 2. महाशालि, 3. कलमशालि, 4. तूर्णकशालि 5. शकु न शालि, 6. सारामुख, 7. दीर्घशूक, 8. रोत्रशूक, 9. सुगन्धकशालि, 10. पुण्ड्रशालि, 11. पाण्डु शालि, 12. पुण्डरीकशालि, 13. प्रमोद, 14. गौर, 15. शाखि, 16. काञ्चन, 17. महिष, 18. शूकशालि, 19. दुषकशालि, 20. कु सुमाण्डकशालि 21. लालशालि, 22. लोहवालशालि 23. कर्दमशालि, 24. शीतभीस्कशालि, 25. पतंगशालि, 26 तपनीयशालि—इनके अतिरिक्त अन्य श्रेष्ठ शालि । शूक धान्य में श्रेष्ठत्व एवं अश्रेष्ठत्व
भवन्ति (च.स.सू.25/39) यवक आदि यथा पूर्व यवका हायनाः पा॑श॒वाय॑नैषधकादयः । स्वादूष्णागुरवः स्निग्धाः पाके ऽम्लाः श्लेष्मपित्तलाः ॥ सृष्टमूत्रपुरीषाश्च पूर्वं पूर्वं चनिन्दिताः । (अ.ह्र.सू.6/6) व्रीहिधान्य व्रीहिधान्य में श्रेष्ठ :- व्रीहिधान्यों में षष्टिक (साठी) चावल श्रेष्ठ है। यह स्निग्ध, ग्राही (स्तम्भन), लघु, रस में मधुर, त्रिदोषघ्न, स्थिर (शरीर में चिरकाल तक रहने वाला) तथा शीतवीर्य होता है। यह गौर तथा असित गौर (कृ ष्णगौर) दो प्रकार का होता है। इनमें कृ ष्णगौर की अपेक्षा गौर श्रेष्ठ होता है। व्रीहिधान्य में हीन :- षष्टिक की अपेक्षा क्रम से हीन गुण वाले निम्नलिखित व्रीहिधान्य हैं— 1. महाव्रीहि, 2 कृ ष्णव्रीहि, 3. जतूमुख, 4. कु क्कु टाण्ड, 5. कलावाक्ष, 6. पारावतक, 7 सूकर, 8 वरक, 9 उद्दालक, 10. उज्ज्याल, 11. चीन, 12. शारद, 13. दर्दुर, 14. गन्धन, 15 कु रुविन्द। इन ब्रीहिधान्यों से अन्य (इतर) धान्य रस में मधुर, अम्लविपाक, पित्तकारक, गुरु, मूत्र, पुरीष तथा शरीर की ऊष्मा (अग्नि) को बढ़ाने वाला होता है। तृणधान्य वक्तव्य-ये तृणधान्य बिना जोते बोये स्वयं उग जाते हैं और कहीं-कहीं बोये भी जाते हैं। हमारे धर्मशास्त्र के अनुसार अनेक व्रत ऐसे भी हैं, जिनमें 'हलकृ ष्टं न भुञ्जीत' अर्थात् हल जोतकर जो अन्न पैदा होते हैं, उन्हें व्रत के दिन खाने का निषेध रहता है, तब ये अन्न खाये जाते हैं। यही स्थिति वनवासी मुनियों की भी होती है, अतएव इन्हें मुनिअन्न भी कहते हैं। सुश्रुत ने इन अन्नों का परिगणन 'कु धान्यवर्ग' में किया है। (सु.सू. ४६/२१) । तृणधान्य के सामान्य गुण कङ् गुकोद्रवनीवारश्यामाकादि हिमं लघु ।। तृणधान्यं पवनकृ ल्लेखनंकफपित्तहृत् । (अ.ह्र.सू.6/11) कँ गू के विशेष गुण :- भग्नसन्धानकृ त्तत्र प्रियङ् गुर्बृहणी गुरुः| कोरदूषः परं ग्राही स्पर्शशीतो विषापहः । (अ.ह्र.सू.6/11) यव के गुण रूक्षः शीतो गुरुः स्वादुः सरो विड् वातकृ द्यवः ॥13 ॥ वृष्यः स्थैर्यकरो मूत्रमेदः पित्तकफान् जयेत् । पीनसश्वासकासोरुस्तम्भकण्ठत्वगामयान् न्यूनो यवादनुयवः रूक्षोष्णो वंशजो यवः । (अ.ह्र.सू.6/11) गेहूँ के गुण वृष्यः शीतो गुरुः स्निग्धो जीवनो वातपित्तहा ॥15 ॥ सन्धानकारी मधुरो गोधूमः स्थैर्यकृ त्सरः । पथ्या नन्दीमुखी शीता कषाया मधुरा लघुः ॥इति शूकधान्यवर्गः । (अ.ह्र.सू.6/13)