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• सूर्यातप तथा तापमान

• सूर्य पृथ्वी से 13 लाख गुना बड़ा है, जो पृथ्वी से औसत 15 करोड़ (14 करोड़ 96 लाख) किमी. की दूरी पर
स्थित है।
• सूर्य की किरणें इस दूरी को 3 लाख किमी. प्रति सेकं ड (1,86,000 मील प्रति सेकं ड) की गति से पूरा करती है।
• सूर्य के क्रोड में हाइड्रोजन के परमाणु निरंतर नाभिकीय संलयन के द्वारा हीलियम के परमाणु में परिवर्तित रहते हैं,
जिससे अपार ऊर्जा मुक्त होती है।
• सूर्य की बाहरी सतह (फोटोस्फे यर) पर 6000 डिग्री सेल्सियस तापमान होता है। सूर्य लगातार अंतरिक्ष में अपनी
ऊष्मा का विकिरण करता रहता है, जिसे सौर विकिरण कहते हैं। ये विकिरण लघु तरंगों के रूप में पृथ्वी तक पहुंचती
हैं।
• पृथ्वी सौर विकिरण का मात्र दो अरबवाँ भाग (0.0005 प्रतिशत) ही रोक पाती है। पृथ्वी पर पहुंचने वाली सौर
विकिरण को सूर्यातप कहते हैं। पृथ्वी का धरातल इस विकिरित ऊर्जा को 1.94 कै लोरी प्रति वर्ग सेमी. प्रति मिनट या
1.94 लैंजली (Langley)(2 Calcm2/min.) की दर से प्राप्त करता है। इसे सौर-स्थिरांक भी कहते हैं
• वायुमण्डल के बाह्य संस्तर तक पहुंचने वाली कु ल और विकिरण का मात्र 51 प्रतिशत ही पृथ्वी के धरातल
तक प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से पहुंच पाता है। यही विकिरण हमारी पृथ्वी पर औसत 15 डिग्री सेल्सियस बनाए
रखती है एवं हमारे जीवमण्डल के विकास का आधार तैयार करती है। पृथ्वी पर सूर्यातप की मात्रा और प्रति
इकाई क्षेत्रफल पर उसकी प्राप्ति मुख्यतः तीन कारकों द्वारा निर्धारित होती है-
• 1. धरातल पर पड़ने वाली सूर्य की किरणों का झुकाव
• 2. दिन की अवधि
• 3. वायुमण्डल की पारगम्यता
• सूर्य की किरणों का आपतन कोण
• पृथ्वी के गोलाकार होने के कारण सूर्य की किरणें इसके तल के साथ विभिन्न स्थानों पर अलग-अलग कोण बनाती है। पृथ्वी के
किसी बिन्दु पर सूर्य की किरण और पृथ्वी के वृत्त की स्पर्श रेखा के साथ बनने वाले कोण को आपतन-कोण कहते हैं। आपतन
कोण सूर्याताप को दो प्रकार से प्रभावित करता है। पहला, जब सूर्य की स्थिति ठीक सिर के ऊपर होती है, उस समय सूर्य की
किरणें लम्बवत् पड़ती हैं। आपतन कोण बड़ा होने के कारण सूर्य की किरणें छोटे से क्षेत्र पर संघनित हो जाती हैं, जिससे वहाँ
अधिक ऊष्मा (सूर्यातप) प्राप्त होती है। यदि सूर्य की किरणें तिरछी पड़ती हैं तो आपतन कोण छोटा होता है। इससे सूर्य की
किरणें बड़े क्षेत्र पर फै ल जाती हैं और उनसे वहाँ कम ऊष्मा (सूर्यातप) प्राप्त होती है। दूसरे, तिरछी किरणों को सीधी किरणों
(लम्बवत्-किरणों) की अपेक्षा वायुमंडल में अधिक दूरी पार करके धरातल पर आना पड़ता है। सूर्य की किरणें जितना अधिक
लम्बा मार्ग पार करेंगी उतनी ही अधिक उनकी ऊष्मा वायुमंडल द्वारा सोख ली जाएगी या परावर्तित कर दी जायेगी। इसी
कारण एक स्थान पर तिरछी किरणों से लम्बवत् किरणों की अपेक्षा कम सूर्यातप प्राप्त होता है।
• दिन की अवधि
• स्थान और ऋतुओं के अनुसार बदलती रहती है। पृथ्वी की सतह पर मिलने वाली सूर्यातप की मात्रा का दिन
की अवधि से सीधा संबंध है। दिन की अवधि जितनी लम्बी होगी सूर्यातप की मात्रा उतनी ही अधिक मिलेगी।
इसके विपरीत दिन की अवधि छोटी होने पर सूर्यातप कम मिलेगा।
• वायुमंडल की पारदर्शकता
• वायुमंडल की पारदर्शकता भी धरातल को मिलने वाली सूर्यातप की मात्रा को प्रभावित करती है। वायुमंडल की
पारदर्शकता बादलों की उपस्थिति, उनकी गहनता, धूलकण तथा जलवाष्प पर निर्भर करती है; क्योंकि वे
सूर्यातप को परावर्तित, अवशोषित तथा स्थानान्तरित करते हैं। घने बादल सूर्यातप को धरातल पर पहुँचने में
बाधा डालते हैं; जबकि बादलों रहित साफ आकाश धरातल पर सूर्यातप पहुँचने में बाधा नहीं डालता। इसी
कारण साफ आकाश की अपेक्षा बादलों से घिरे आकाश के समय सूर्यातप कम मिलता है। जलवाष्प भी
सूर्यातप को अवशोषित कर धरातल पर उसकी प्राप्ति की मात्रा कम कर देती है।
• पृथ्वी पर तापमान के वितरण में बहुत अधिक विषमता पायी जाती है। उदाहरण के लिए लीबिया का
अल-अजीजिया विश्व का सबसे गर्म प्रदेश है जहां पर अधिकतम तापमान 58 डिग्री सेल्सियस पाया जाता है
तो सबसे अधिक ठंड अंटार्क टिका के वोस्टाक में पड़ती है जहां तापमान -87.5 डिग्री सेल्सियस तक गिर
जाता है। अधिकतम औसत वार्षिक तापमान इथियोपिया के डलोप (35 डिग्री सेल्सियस) में है जबकि
न्यूनतम औसत वार्षिक तापमान अंटार्क टिका के पोल आफ कोल्ड (-58 डिग्री सेल्सियस) में मिलता है
• सूर्यातप के वितरण को प्रभावित वाले कारक
• 1. अक्षांशीय वितरण: उष्ण कटिबंधीय प्रदेशों में सूर्यातप की वार्षिक मात्रा सबसे अधिक होती है एवं ध्रुवों की
ओर क्रमशः इसकी मात्रा में कमी आती है। 45 डिग्री अक्षांशों पर यह मात्रा विषुवत रेखा की तुलना में 75
प्रतिशत रह जाती है; आर्क टिक और अंटार्क टिक रेखाओं पर यह 50 प्रतिशत और ध्रुवों पर 40 प्रतिशत है।
• 2. ऊँ चाई: ऊँ चाई बढ़ने के साथ तापमान में गिरावट आती है। क्षोभमण्डल में प्रति 165 मी. की ऊँ चाई पर
1 डिग्री सेल्सियस तापमान घटता है। प्रति किमी. की ऊँ चाई पर औसतन 6.5 डिग्री सेल्सियस की गिरावट
आती है। उदाहरण के लिए किलिमंजारो पर्वत विषुवत रेखा पर है परन्तु अधिक ऊँ चाई पर स्थित होने के
कारण यह हिमाच्छादित प्रदेश है। इसी प्रकार गुआंगझाऊ (चीन) व कोलकाता दोनों एक ही अक्षांश पर स्थित
है, परन्तु दोनों के तापमान में अंतर ऊँ चाई की भिन्नता के कारण है।
• 3. स्थल व जल का प्रभाव-स्थल की एक इकाई की तुलना में जल की एक इकाई का तापमान बढ़ाने के लिए
ढाई गुणा ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है। जल देर से गर्म होता है एवं देर से ठंडा होता है जबकि स्थल पर
यह प्रक्रिया तेज होती है। इसलिए महासागरों की अपेक्षा स्थलखण्डों पर तापांतर अधिक पाया जाता है।
• 4. समुद्री धाराएं-इन धाराओं का निकटवर्ती स्थलीय भागों के तापमान पर प्रभाव पड़ता है। गर्म धाराएं समुद्र
तटीय भागों के तापमान को बढ़ा देती हैं जबकि ठंडी धाराओं के प्रभाव के फलस्वरूप तापमान में गिरावट
आती है। उदाहरण के लिए गर्म समुद्री धारा गल्फस्ट्रीम का विस्तार उत्तरी अटलांटिक प्रवाह समस्त पश्चिमी
यूरोपीय भाग को शीतकाल में भी अपेक्षित तापमान प्रदान करता है जिससे उनके बंदरगाह वर्ष भर खुले रहते हैं
तथा मौसम सुहावना हो जाता है। इसी प्रकार दक्षिण अफ्रीका के पश्चिमी तट पर बहने वाली ठंडी बेंगुएला धारा
तटीय भाग के तापमान में कमी लाती है।
• 5. प्रचलित वायु-ठंडी पवनें तापमान में तीव्र गिरावट लाती हैं जबकि गर्म पवनें तापमान में वृद्धि करती हैं।
उदाहरणतः मिस्ट्रल पवन फ्रांस के तापमान को हिमांक तक गिरा देती है जबकि चिनूक पवन यू.एस.ए. के
तापमान को बढ़ाती है, जिससे बर्फ पिघल जाती है।
• वायुमण्डल का शीतलन और उष्मन
• सूर्य से ताप पृथ्वी तक आता है और पार्थिव ऊर्जा में बदल जाता है, फिर यही पार्थिव ऊर्जा
वायुमण्डल के ताप का निर्धारण करती है। जब यह पार्थिव ऊर्जा ज्यादा होती है, तो वायुमण्डल गर्म हो जाता
है और इसके कम होने पर वायुमण्डल ठंडा हो जाता है। वायुमण्डल के तापमान परिवर्तन अथवा उसके शीतल
और गर्म होने की प्रक्रिया में निम्नलिखित चार तत्वों का योग होता है-
• 1. सूर्यातप
• 2. चालन
• 3. विकिरण
• 4. संवहन
• 1. सूर्यातप या सूर्य से प्राप्त प्रत्यक्ष ताप- सूर्य से वायुमण्डल को प्रत्यक्ष ताप बहुत कम मिल पाता हैं, इसलिए
वायुमण्डल के ताप परिवर्तन में इसका महत्व बहुत कम होता है।
• 2. चालन- जिस प्रकार लोहे की छड़ को एक छोर से गर्म किया जाता है तो धीरे-धीरे दूसरा छोर भी गर्म हो
जाता है, लेकिन यह दूसरा छोर अपेक्षाकृ त कम गर्म हो पाता है। ठीक यही प्रक्रिया वायुमण्डल में होती है। जब
धरातल का ताप घटने लगता है तो धरातलीय वायुमण्डल का ताप भी घटने लगता है। इसी क्रिया को संचालन
कहते हैं, इसमें एक अणु स्पर्श द्वारा दूसरे अणु को गर्म कर देता है। दिन में जैसे-जैसे पृथ्वी का धरातल
सूर्यातप से गर्म होता जाता है, वैसे-वैसे धरातल के सम्पर्क में आने वाला वायुमण्डल भी गर्म होता रहता है।
• 3. विकिरण- गर्म पानी या दूध को थोड़ी देर के लिए खुला रख दिया जाए, तो उसमें से तरंगें निकलती हैं और कु छ देर बाद
वह ठंडा हो जाता है, यही क्रिया विकिरण कहलाती है। गर्म पृथ्वी से ताप विकिरण द्वारा वायुमण्डल में चला जाता है।
वायुमण्डल में यदि बादल, धूलकण आदि होते हैं तो यह ताप निचली सतह में ही रह जाता है, अन्यथा यह धरातल से बहुत
ऊँ चा चला जाता है। गर्म मरूस्थलों में आकाश स्वच्छ रहता है, इसलिए विकिरण से प्राप्त ताप बहुत ऊपर चला जाता है और
रातें ठंडी प्रतीत होती हैं जबकि अन्य क्षेत्रों में बादल आदि रहते हैं जिससे ताप निचली सतह में ही रहता है और गर्मी का
अनुभव होता है।
• 4. संवहन- जब संचालन और विकिरण क्रिया द्वारा किसी स्थान की वायु गर्म हो जाती है, तो वह हल्की होकर ऊपर उठती है
और रिक्त जगह को भरने के लिए आस-पास से भारी एवं ठंडी हवा नीचे आ जाती है। ठंडी और गर्म हवा के इस प्रकार ऊपर
नीचे होने की क्रिया को ही संवहन कहते हैं। इस प्रक्रिया के द्वारा वायुमण्डलीय तापमान में परिवर्तन होता रहता है।
• दैनिक तापान्तर
• दिन के उच्चतम एवं रात्रि के न्यूनतम तापमान के अन्तर को दैनिक तापान्तर कहते हैं। उदाहरण के लिए, दिन का
अधिकतम तापमान 36 डिग्री सेल्सियस है, और रात का न्यूनतम 30 डिग्री सेल्सियस तो दैनिक तापान्तर 6 प्रतिशत (36
डिग्री - 30 डिग्री = 6 डिग्री सेल्सियस) हुआ।
• सूर्योदय के साथ तापमान बढ़ने लगता है और सूर्यास्त के साथ घटने लगता है। दोपहर में 12 बजे सूर्य की किरणें
सीधी चमकती है, इसलिए इसी समय सर्वाधिक गर्मी पड़नी चाहिए, लेकिन उच्चतम तापमान 2 से 4 बजे तक रहता है। इसका
कारण यह है कि धरातल पर जाने वाले सौर ताप को पार्थिव ऊर्जा में बदलने में समय लगता है। दूसरे शब्दों में 12 बजे
अधिकतम सूर्यातप प्राप्त होता है लेकिन उसके विकिरण में 2-4 घंटे लग जाते हैं, जिसके बाद ही उच्चतम ताप अंकित होता है,
जबकि न्यूनतम तापमान सुबह के 4-5 बजे के बीच में होता है।
• भूमध्यरेखीय क्षेत्रों में सूर्य की किरणें वर्ष भर सीधी पड़ती हैं, इसलिए दैनिक तापांतर अधिक होता है।
जैसे-जैसे ध्रुवों की ओर जाते हैं, सूर्य की किरणें तिरछी पड़ने लगती हैं। इससे दैनिक तापांतर भी घटता जाता
है। दैनिक तापान्तर की निम्नलिखित विशेषताएं हैं-
• 1. समुद्र के किनारे के भागों पर दैनिक तापान्तर कम होता है।
• 2. समुद्र से जैसे-जैसे दूर जाते हैं, तापान्तर बढ़ता जाता है।
• 3. मैदानी भागों की अपेक्षा पहाड़ी भागों में तापान्तर अधिक होता है।
• 4. गर्म एवं शुष्क मरूस्थलों एवं बर्फ से ढके क्षेत्रों में तापान्तर अधिक होता है।
• 5. मेघाच्छादित समयावधि में भी तापान्तर कम होता है।
• ऊष्मा बजट
• सूर्यातप और पार्थिव विकिरण में संतुलन के कारण पृथ्वी पर औसत तापमान एक समान रहता हैं। इस संतुलन को ही
पृथ्वी का ऊष्मा बजट कहते हैं। ऊष्मा की कु ल 100 इकाईयों में 35 इकाइयाँ पृथ्वी के धरातल पर पहुंचने के पहले ही
अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाती हैं। इनमें से 6 इकाइयाँ वायुमण्डल की ऊपरी परत से परावर्तन व प्रकीर्णन द्वारा, 27 इकाइयाँ
बादलों के ऊपरी छोर से तथा 2 इकाइयाँ मुख्यतः पृथ्वी के हिमाच्छादित क्षेत्रों द्वारा परावर्तित होकर वापस लौट जाती हैं।
सौर विकिरण के इस परावर्तित भाग को पृथ्वी का एल्बिडो कहते हैं। शेष 65 इकाइयाँ अवशोषित होती है। उनमें 14 इकाई
वायुमण्डल में तथा 51 इकाई पृथ्वी के धरातल द्वारा अवशोषित की जाती है। पृथ्वी द्वारा अवशोषित 51 इकाइयाँ पुनः
पार्थिव या भौमिक विकिरण द्वारा लौटा दी जाती है। इनमें से 17 इकाइयाँ सीधे अंतरिक्ष में परावर्तित हो जाती हैं जबकि 34
इकाइयाँ वायुमण्डल में प्रत्यक्ष पार्थिव विकिरण, तापीय संवहन व ऊष्मा विक्षोभ, वाष्पीकरण व संघनन की गुप्त ऊष्मा के द्वारा
अवशोषित कर ली जाती है। अंततः वायुमण्डल भी सौर विकिरण से प्राप्त 14 इकाइयों व पार्थिव विकिरण से प्राप्त 34
इकाइयों अर्थात कु ल 48 इकाइयों से अंतरिक्ष में परावर्तित है। अतः पृथ्वी के धरातल व वायुमण्डल से लौटने वाली विकिरण
की इकाइयाँ क्रमशः 17 और 48 यानि कु ल 65 हैं। इस प्रकार सूर्य से प्राप्त होने वाली 65 इकाइयों का संतुलन हो जाता है।
इसे ही पृथ्वी का ऊष्मा बजट या ऊष्मा संतुलन कहते हैं।

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