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अभ्यंग

• अभ्यंग

• - अभ्यंग• 'अभ्यंग' शब्द 2 शब्दो से मिलकर बनता है-• अभि + अंग• अर्थात धातुओं की ओर गमन
• अष्टांग हृदय ने अभ्यंग से मालिश, उबटन, कान में तेल डालना, लेप लगाना आदि रूपों में ग्रहण किया है।
• इसका विस्तृत क्षेत्र इस प्रकार है-
1. दांतो या आंखों पर तेल लगाना
2. स्नेहमिश्रित काजल लगाना
3. स्नेहमय लेप या मलहम लगाना
अभ्यंग विधी
• सुखोष्ण, सुगंधी, वातघ्न,, ऋतु, दोषादि के अनुकू ल तेल लेकरसुखपूर्वक, धीरे-धीरे अनुलोम गति से शरीर पर मलना
अभ्यंग है। अभ्यंग सिर में, पांव मैं और कान पर (या कर्णपूरण से) विशेषतः करना चाहिये।
• सिर में अभ्यंग के लिए शीत स्नेह या सुखोष्ण स्नेह का उपयोग करें। सिर इंद्रियायतन है और प्रधान मर्म है, अतः उसे
उष्णता से बचाना चाहिये। हाथ-पांव इत्यादि भागों पर उष्ण स्नेहों से अभ्यंग करें। इसी तरह शीत ऋतु में उष्ण तैलों से और
उष्ण ऋतु में शीत तैलों से अभ्यंग करना उचित है। दीर्घाकारवाले अवयवों पर हाथ, पांव पर अनुलोमतः ऊपर से नीचे की
ओर; संधिस्थान में कू र्पर, अंस, जानु, गुल्फ, कटी में वर्तुलाकार अभ्यंग करें।
अभ्यंग कौनसी स्थिति में करना चाहिए
• १. पांव सीधा रख बैठाकर
• २. पीठ के बलपर लिटाकर
• ३. वामपार्श्व पर लिटाकर
• ४. वक्ष-उदर के बल पर लिटाकर
• ५. दक्षिण पार्श्व पर लिटाकर
• ६. पुनः पीठ के बल लिटाकर
• ७. पुनः बिठाकर ।
अभ्यंग काल अनुसार धातुओं पर परिणाम
त्वचा के रोमान्त तक– ३०० मात्रा i.e. approx (96 sec)
➤ त्वचा – ४०० मात्रा(133 sec.)
➤ रक्त -५०० मात्रा (160 sec.)
➤ मांस – ६०० मात्रा(190 sec.)
➤ मेद – ७०० मात्रा (228 sec.)
➤ अस्थि -८०० मात्रा (240 sec.)
➤ मज्जा- ९०० मात्रा (285 sec)
अभ्यंग के प्रकार

• अभ्यंग
• पादाभ्यांग
• शिरो अभ्यंग
• कर्ण अभ्यंग
• नेत्र अभ्यंग
अभ्यंग की उपयुक्तता –
1. स्नेहाभ्यङ्गाद्यथा कु म्भश्चर्म स्नेह-विमर्दनात् ॥ ८३ ॥
भवत्युपाङ्गादक्षश्च दृढ क्ले शसहो यथा ।
तथा शरीरमभ्यङ्गाद् दृढं सुत्वक्प्रजायते ॥ ८४ ॥ (च. सू. ५/८३-८४)

2. न चाभिघाताभिहतं गात्रमभ्यङ्गसेविनः ॥ ८६ ॥
विकारं भजतेऽत्यर्थ बलकर्माण वा कचित् ।
सुस्पर्शोपचिताङ्गश्च बलवान् प्रियदर्शनः ।। ८७ ।।
भवत्यभ्यङ्ग-नित्यत्वान्नरोऽल्पजर एव च । (च.सू. ५/ ८६-८७)

3. अभ्यङ्गमाचरेन्नित्यं, स जरा श्रमवातहा।


दृष्टिप्रसादपुष्ट्यायुः स्वप्नसुत्वक्त्वदायकृ त्।। (अ. हृ. सू. २/८)
4. अभ्यङ्गो मार्दवकरः कफवातनिरोधनः ।
धातूनां पुष्टिजननो मृजावर्णबलप्रदः ।। (सु. चि. २४/३०)
अभ्यंग के विशेष स्थान –

शिरः श्रवणपादेषु तं विशेषेण शीलयेत् । (अ. हृ. सू.२/८ & अ. सं.सू. 3/2८)
शिरोभ्यंग का लाभ -
• नित्यं स्नेहार्दशिरसः शिरःशूलं न जायते ।
• न खालित्यं न पालित्यं न के शाः प्रपतन्ति च ।।
• बलं शिरः कपालानां विशेषेणाभिवर्धते ।
• दृढमूलाश्च दीर्घाश्च कृ ष्णाः के शा भवन्ति च ।।
• इन्द्रियाणि प्रसीदन्ति सुत्वग्भवति चाननम् ।
• निद्रालाभः सुखं च स्यान्मूधिर्न तैलनिषेवणात्। (च.सू. ५/८१-८३)
• शिरोगतांस्तथा रोगाञ्छिरोभङ्गोऽपकर्षति ।
के शानां मार्दवं दैर्ध्य बहत्वं स्निग्धकृ ष्णताम् ||२५||
करोति शिरसस्तृप्तिं सुत्वक्कमपि चाननम् ।
सन्तर्पणं चेन्द्रियाणां शिरसः प्रतिपूरणम् ||२६|| (सु. चि. २४/२५-२६)
कर्णपूरण के लाभ –

न कर्णरोगा वातोत्था न मन्याहनसङ्ग्रहः । नोच्चैः श्रुतिर्न बाधिर्य स्यान्नित्यं कर्णतर्पणात् । (च.सू. ५/८४)

हनुमन्याशिरःकर्णशूलघ्नं कर्णपूरणम् ।। ( सु. चि.२४/२९)


पादाभ्यंग के लाभ –

निद्राकरो देहसुखश्चक्षुष्यः श्रमसुप्तिनुत् ||७०||


पादत्वड्मृदुकारी च पादाभ्यङ्गः सदा हितः । ७१ ।। (सु. चि. २४/७०-७१)
खरत्वं स्तब्धता रौक्ष्यं श्रमः सुप्तिश्च पादयोः ।
सद्य एवोपशाम्यन्ति पादाभ्यङ्गनिषेवणात् ।।
जायते सौकु मार्यं च बलं स्थैर्य च पादयोः ।
दृष्टिः प्रसादं लभते मारुतश्चोपशाम्यति ।।
न च स्याद्गृध्रसीवातः पादयोः स्फु टनं न च।
न सिरास्नायुसङ्कोचः पादाभ्यङ्गेन पादयोः || (च. सू. ५/९०-९२)
अभ्यंग के कार्य का वैज्ञानिक आधार
• 'स्पर्शनेऽभ्यधिको वायुः स्पर्शनं च त्वगाश्रितम् ।
त्वच्यश्च परमभ्यङ्गस्तस्मातं शीलयेन्नरः ।।'(च सू 5/87)
• स्पर्शन इन्द्रिय (त्वचा) में वायु अधिक होती है, स्पर्श (tactile sensation) का अनुभव त्वचा के आश्रित
होता है।तेल वातनाशक होता है अतः शरीर में मर्दन करने से यह त्वचा के लिए परम हितकारी होता है।अतः
प्रतिदिन तेल से अभ्यंग करना चाहिए ।वायु की तुलना आजकल से Nervous system से की जाती है। त्वचा
में sensory nerve endings का निवास होता है तथा उन्ही के आधार पर स्पर्शनेन्द्रीय अपना कार्य करती
है । अतः तेल अभ्यंग से शीघ्र लाभ होता है।
अभ्यंग में स्नेह की महत्वता
• आ. चरक ने चतुर्विध स्नेह को अभ्यंग की दृष्टि से अतिमहत्वपूर्ण बताया है-
• "सर्पिस्तैलं वसा मज्जा सर्वस्नेहोतमा मताः।
एषु चैवोतमं सर्पिः संस्कारस्यानुवर्तनात् ।।“ (च सू 13/13)
• यह चारो स्नेह सबसे उत्तम घृत माना जाता है क्योंकि यह संस्कारों से दूसरों के गुणों का ग्रहण करता है, बिना
अपने गुणों को छोड़े ।
स्नेह का प्रयोग 3 प्रकार से होता है
• अभ्यंग
• अवगाह
• परिषेक
अभ्यंग योग्य -
व्याधी संदर्भ
अधारणीय वेग (मूत्र , पुरीष, रेतस, निद्रा च.सू.( ७/५-९)

पित्तज गुल्म च. चि. ५/१३१

अपस्मार च. चि.१०/३२

वातोदर च. चि. १३/१५५

वमन अतियोग च. चि. १७/८६

वृश्चिक दंश च. चि.२३/१७३

वातज हॄदरोग च. चि. २६/८२


अभ्यंग अयोग्य –
वज्र्योऽभ्यङ्गःकफग्रस्तकृ तसंशुद्ध्यजीर्णिभिः ||
के वलं सामदोषेषु न कथञ्चन योजयेत् । (अ.हृ.सू.२/९)

तरुणज्वर्यजीणी च नाभ्यक्तव्यौ कथञ्चन ||


तथा विरिक्तोवान्तश्च निरुढो यश्च मानवः ।
पूर्वयोः कृ च्छ्र ता व्याधेरसाध्यत्वमथापि वा ||
शेषाणां तदहः प्रोक्ता अग्निमान्यादयो गदाः ।
सन्तर्पणसमुत्थानां रोगाणां नैव कारयेत् ।। (सु. चि. २४/३५-३७)
Massage
• In Latin, the word "massa" means mass or dough.
• Systematic rubbing or manipulating body parts with oil, water, powder
or without them is called massage.
• However, natural massage does not requires massaging media like oil,
powder etc. Massage retards ageing, overcomes fatigue.
• It improves clarity of vision, nourishes the body.
• It promotes longevity, good sleep, good skin and strong physique.
CLASSIFICATION OF MASSAGE
• According to System-
1. Ayurvedic - Massage Away from heart or in the direction of arteries.
2. Swedish – Massage Towards the heart or in the direction opposite to arteries.
• By character of techniques –
1. Stroking
2. Pressure
3. Percussion
4. Vibration
• On basis of region-
1. General Massage
2. Local Massage
• On basis of depth of tissue-
1. Light Massage
2. Deep massage
POSTURE FOR MASSAGE

Seated with both legs extended.


Lying on the back of body.
Lying on the left side of body.
Lying on the chest/ abdomen.
• Lying on the right side of the body.
By Character Of Technique –
Stroking
Pressure
Manipulation.
Kneading (दालन)
Friction (घर्षण)
Towards the heart. (प्रतिलोम)
Away from heart. (अनुलोम)
Circular
Zig-zag
Percussion
Vibration
• ON THE BASIS OF REGION

1. General Massage- Massage applied to entire body is usually termed


as general massage done in large segment like back, lower limbs
etc.

2. Local Massage - When massage is administered in particular area of


body segment is termed as local massage.Eg-friction to lateral
ligament.
CONTRAINDICATION OF MASSAGE

1. Skin disorder which would be irritated by either increase in


warmth. Eg:- Eczema.
2. When superficial infections are suppurative.
3. In pressure of scar or open wounds.
4. Inflammation of joints
5. Massage near on recently fractured site..
EFFECTS OF MASSAGE-
1. Mechanical effects -Removes dead cells and allows sweat gland, hand
follicles and sebaceous glands to be free from obstruction and to function
better.

2. Physiological effects-On circulatory system Increase in venous and


lymphatic drainage and thus allowing fresh blood to the treated tissues.
Mode of action of Massage.

• The internal fluid of the skin are subjected to movement in the massage because
of osmotic pressure.
• Here, massage is causing mechanical hydrostatic pressure in the extra cellular
compartment.
• A forceful expulsion from peripheral vessels causing splanchnic pooling of the
body.
• Massage helps fluid enter into viscera, tissue and dilute the accumulated toxin.
• After massage, amino acid like tryptophan increases in neurotransmitters
serotonin.
• After the completion of procedure, the dilute toxin are brought out into general
circulation and during the course, the are expelled out via elimination
procedure.
Thank you!

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