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पाठ 5 - पर्वत प्रदेश में पावस

सुमित्रानंदन पंत
सुबोध मिश्रा
पाठ का सार
कवि ने इस कविता में प्रकृ ति का ऐसा वर्णन किया है कि लग रहा है कि प्रकृ ति सजीव हो उठी है। कवि कहता है कि वर्षा ऋतु में
प्रकृ ति का रूप हर पल बदल रहा है कभी वर्षा होती है तो कभी धूप निकल आती है। पर्वतों पर उगे हजारों फू ल ऐसे लग रहे है जैसे
पर्वतों की आँखे हो और वो इन आँखों के सहारे अपने आपको अपने चरणों ने फै ले दर्पण रूपी तालाब में देख रहे हों। पर्वतो से गिरते
हुए झरने कल कल की मधुर आवाज कर रहे हैं जो नस नस को प्रसन्नता से भर रहे हैं। पर्वतों पर उगे हुए पेड़ शांत आकाश को ऐसे
देख रहे हैं जैसे वो उसे छू ना चाह रहे हों। बारिश के बाद मौसम ऐसा हो गया है कि घनी धुंध के कारण लग रहा है मानो पेड़ कही उड़
गए हों अर्थात गायब हो गए हों,चारों ओर धुँआ होने के कारण लग रहा है कि तालाब में आग लग गई है। ऐसा लग रहा है कि ऐसे
मौसम में इंद्र भी अपना बादल रूपी विमान ले कर इधर उधर जादू का खेल दिखता हुआ घूम रहा है।
पावस ऋतु थी, पर्वत प्रदेश,
पल-पल परिवर्तित प्रकृ ति-वेश।

कवि कहता है कि पर्वतीय क्षेत्र में वर्षा ऋतु का


प्रवेश हो गया है। जिसकी वजह से प्रकृ ति के रूप
में बार बार बदलाव आ रहा है अर्थात कभी
बारिश होती है तो कभी धूप निकल आती है।
मेखलाकर पर्वत अपार अपने सहस्‍त्र दृग-सुमन फाड़,
अवलोक रहा है बार-बार नीचे जल में निज महाकार,
-जिसके चरणों में पला ताल दर्पण सा फै ला है विशाल!

इस पद्यांश में कवि ने पहाड़ों के आकार की तुलना करघनी अर्थात कमर में
बांधने वाले आभूषण से की है । कवि कहता है कि करघनी के आकार वाले
पहाड़ अपनी हजार पुष्प रूपी आँखें फाड़ कर नीचे जल में अपने विशाल
आकार को देख रहे हैं।ठीक पर्वत के नीचे फै ला तालाब किसी दर्पण का
काम कर रहा है, जिसमें पर्वत अपनी पुष्प रूपी आँखों से अपना विशाल
रूप निहार रहा है।
गिरि का गौरव गाकर झर-झर
मद में नस-नस उत्‍तेजित कर
मोती की लड़ियों सी सुन्‍दर
झरते हैं झाग भरे निर्झर!

इन पंक्तियों में कवि ने किसी पर्वत से गिरते झरने की


सुंदरता का बखान किया है। झरना उसमें उठने वाले झाग के
कारण मोतियों की लड़ी की भाँति लग रहा है। उसके गिरने
से पैदा होती कल-कल की गूँज मानो ऐसी है, जैसे झरना
पर्वत का गुणगान कर रहा हो। गिरते हुए झरने की ध्वनि को
सुनकर लेखक की नस-नस में मानो ऊर्जा का संचार होने
लगता है।
गिरिवर के उर से उठ-उठ कर
उच्‍चाकांक्षायों से तरूवर
है झाँक रहे नीरव नभ पर
अनिमेष, अटल, कु छ चिंता पर।
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ऊँ चे पर्वत के ऊपर उगे हुए वृक्षों का वर्णन कर
रहा है। जिन्हें देखकर कवि को ऐसा प्रतीत हो रहा है कि यह पेड़ पर्वत के
हृदय से उगे हैं और सदैव ऊपर उठने की कामना से एकटक ऊपर
आकाश की ओर ही देख रहे हैं। उनकी ऊपर उठने की इच्छा कु छ इस
प्रकार प्रतीत हो रही है कि वे अपने इस लक्ष्य को पाकर ही रहेंगे, उन्हें
ऊपर उठने से कोई रोक नहीं सकता। साथ ही, कवि को ऐसा भी प्रतीत
हो रहा है मानो ये पेड़ किसी गहरी चिंता में डू बे हों।
उड़ गया, अचानक लो, भूधर
फड़का अपार पारद के पर!
रव-शेष रह गए हैं निर्झर!
है टू ट पड़ा भू पर अंबर!
अचानक बदलते इस मौसम में जब आकाश में बादल छा जाते
हैं, तो पर्वत भी ढक जाता है। इसीलिए कवि ने कहा है कि
अचानक पर्वत अपने चमकीले पंख फड़फड़ा कर कहीं उड़ गया
है। वह अब कहीं नजर नहीं आ रहा। चारों ओर कु छ दिखाई
नहीं दे रहा, सिर्फ झरने के गिरने की आवाज़ सुनाई दे रही है।
ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो आकाश पृथ्वी पर आ गिरा हो।
धँस गए धरा में सभय शाल!
उठ रहा धुआँ, जल गया ताल!
-यों जलद-यान में विचर-विचर
था इंद्र खेलता इंद्रजाल
मूसलाधार बरसात के कारण वातावरण में चारों ओर कोहरा फ़ै ल
जाता है। जिसकी वजह से शाल के विशाल पेड़ भी दिखाई नहीं देते।
इसीलिए कवि ने कहा है कि शाल के पेड़ डरकर धरती में घुस जाते
हैं। इस निरंतर उठते कोहरे को देखकर ऐसा प्रतीत हो रहा है, मानो
तालाब में आग लग गई हो। प्रकृ ति के विभिन्न रूपों को देखकर कवि
को ऐसा लग रहा है, जैसे इंद्र बादलों में घूम-घूम कर अपना खेल
खेल रहे हों।
धन्यवाद
- सुबोध मिश्रा

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