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श्रीमद् भागवतम्, सभी पुराणों में शिरोमणि ।

श्री श्रीमद् अभयचरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद (संस्थापकाचार्य : अन्तर्राष्ट्रीय कृ ष्णभावनामृत संघ) के द्वारा

भागवत श्रीमान् राधेश्याम दास, इस्कॉन NVCC, पुणे, द्वारा


श्रीमद् भागवतम् के प्रथम स्कन्ध पर १९ - सत्र की प्रस्तुति
रसमालयम् www.live.radheshyamdas.com
भागवत रसमालयम्
हिन्दी भाषांतर Courtesy Slides & Overview
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२ . आ दि गो पा ल दा स 1. Gauranga Darshan Das
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६ . भ क्त चे त न
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७ . भ क्त ज य प्र का श
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१ ० . भ क्त प्र बी न
१ १ . भ क्त प्रां ज ल
१ २ . भ क्त पु ष् प क रा ज
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१ ४ . त मा ल गो विं द दा स 2. Raghava Charan Das
१ ५ . भ क्त उ ज्ज् व ल 3. Gauranga Darrshan Das
१ ६ . वे द ना थ दा स
१ ७ . अ म र ह रि ना म दा स
प्रथम स्कन्ध
अध्याय १
मुनियों की जिज्ञासा
श्रीमद् भागवतम् एक सूर्य के रूप में
राक्षसों की गलत धारणाओं को नष्ट कर
देता है और भक्तों को हर्षित करता है ।
(स्कन्ध ३-९)
श्रीमद् भागवतम् माधुर्य रस, राधा रस
भागवतम् की और भक्ति रस का स्वादिष्ट फल
प्रदान करता है । इस रस को प्राप्त करने
तुलना वाले के वल भक्त होते हैं, जो देवताओं
की तरह होते हैं । (स्कन्ध १०)

 श्रीमद् भागवतम् मोहिनी मूर्ति की तरह है


topic जो के वल परंपरा में आने वाले भक्तों को
अमृत वितरित करती हैं और अभक्तों को
मोहित करती हैं । (स्कन्ध ११-१२)
सूत गोस्वामी शौनक
आदि मुनियों से बात कर रहे हैं ।
1 प्रथम स्कन्ध का सारांश
Canto

शुकदेव गोस्वामी ने महाराज परीक्षित और


सूत गोस्वामी ने शौनक आदि मुनियों को
कै से भागवतम् सुनाया ?
अध्याय १-३ : सूत गोस्वामी और नैमिषारण्य के मुनियों के बीच संवाद ।

• अध्याय १ : नैमिषारण्य के मुनियों द्वारा छह प्रश्न


• अध्याय २-३ : सूत गोस्वामी के उत्तरों ने कृ ष्ण को पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् सिद्ध
किया ।

अध्याय ४ : सभी वैदिक ग्रन्थों के रचनाकर श्रील व्यासदेव की असंतुष्टि

अध्याय ५-६ : नारद मुनि और व्यासदेव का संवाद

• अध्याय ५ : भक्ति की महिमा और नारद मुनि का पूर्व जन्म


• अध्याय ६ : नारद मुनि की तपस्या और पूर्णता
अध्याय ७-१२ : परीक्षित के जन्म के पूर्व के प्रसंग
• अध्याय ७ : अश्वत्थामा को दण्ड
• अध्याय ८ : महारानी कु न्ती द्वारा प्रार्थना और महाराज युधिष्ठिर का शोक
• अध्याय ९ : भीष्म देव की शिक्षायें और प्रयाण
• अध्याय १०-११ : भगवान् कृ ष्ण का हस्तिनापुर से प्रस्थान और द्वारका में आगमन
• अध्याय १२ : परीक्षित का जन्म और उनके गुण
अध्याय १३-१५ : पांडवों के निवृत्ति
• अध्याय १३ : विदुर के धृतराष्ट्र को उपदेश और नारद मुनि द्वारा महाराज युधिष्ठिर
को सांत्वनायें
• अध्याय १४ : कलियुग की विसंगति और युधिष्ठिर द्वारा अर्जुन को कृ ष्ण के प्रस्थान
के विषय में जिज्ञासा ।
• अध्याय १५ : कृ ष्ण की पांडवों पर करुणा और पांडवों की निवृत्ति
अध्याय १६-१८ : परीक्षित की निवृत्ति के पूर्व प्रसंग
• अध्याय १६ : धर्म और पृथ्वी का संवाद
• अध्याय १७ : परीक्षित द्वारा कलि को दण्डित करना ।
• अध्याय १८ : शृंगी, एक ब्राह्मण-पुत्र द्वारा परीक्षित को शाप दिया जाना ।

अध्याय १९ : श्रीमद् भागवतम् आविर्भाव के पूर्व प्रसंग


स्कन्ध १ : प्रस्तावना – भाग अ (१.१-३)
नैमिषारण्य मुनियों द्वारा ६ प्रश्न और सूत गोस्वामी द्वारा उनके उत्तर

प्र. ४ : प्र. ५ :
१.१.१ : परम सत्य प्र. १ : परम प्र. ३ : कृ ष्ण के प्र. ६ : कृ ष्ण के
प्र. २ : समस्त पुरुषावतार लीलावतार
की व्याख्या; कल्याण क्या प्रकट होने का अन्तर्धान होने के
शास्त्रों का सार (१.१.१७) (१.१.१८)
१.१.२ : श्रीमद् है ? (१.१.९) प्रयोजन बाद धर्म ने कहाँ
(१.१.११)
भागवतम् की शरण ली?
महिमा; (१.१.२३)
१.१.३ : भागवतम् उत्तर ३ : उत्तर ४ :
के मिठास का उत्तर १ : भक्ति
द्वारा भगवद् सत्त्वगुण में रहने १.२.३०-३३
स्वाद लेने के लिए उत्तर २ : उत्तर ५ :
प्रेम विकसित वालों के उद्धार श्लोकों में
मानवता को भक्तिमय सेवा अध्याय १.३ में
करना हेतु (१.२.३४, वर्णन आता
आमंत्रित करता है (१.२) वर्णन आता है
१.३.२८) है उत्तर ६ : श्रीमद्
(१.२.६,७)
भागवतम्
(१.३.४३)
स्कन्ध १ : प्रस्तावना – भाग ब (१.४-१९)
अध्याय १.४ में ऋषियों द्वारा ४ प्रश्न किये गये ।
सूत गोस्वामी अध्याय १.४-१९ में इन प्रश्नों के उत्तर देते है ।
प्र २. महाराज परीक्षित के प्र. ४.
प्र १. श्रीमद् जन्म और कर्म (१.४.९) प्र ३. परीक्षित हस्तिनापुर
भागवतम् क्यों महाराज ने नागरिकों ने
सब कु छ
लिखा गया ? त्याग कर गंगा शुकदेव
इसे कब और उत्तर २ : जन्म (१.७-१२) उत्तर २: कर्म के तट पर गोस्वामी को
कहा लिखा (१.१३-१७) बैठने का कै से पहचाना?
निर्णय क्यूँ राजा परीक्षित
गया ? इसकी लिया ?
प्रेरणा क्या ऋषि फिर (१.४.१०) की इस
परीक्षित के जन्म महामुनि के
है ? (१.४.३) से परीक्षित १.१३-१५ : परीक्षित १.१६-१७ :
सम्बंधित घटनाएँ साथ कै से भेट
के जन्म के के राज्याभिषेक परीक्षित
(१.७-११ : अश्वत्थामा हुई ? (१.४.६-
बारे में संबंधित घटनाएँ महाराज का
उत्तर १ को दण्ड, उत्तरा के गर्भ ८)
में परीक्षित की रक्षा ) पूछते हैं । राज और कलि उत्तर ३
(१.४-७) : को दण्ड
व्यासदेव की
१.१२.२ (१.१८-१९):
१.१३ : विदुर १.१४-१५ : श्रृंगी द्वारा
असंतुष्टि, नारद
व्यासदेव से
का हस्तिनापुर कृ ष्ण का राजा परीक्षित
प्र. २ का उत्तर देते उत्तर ४ (१.१८-१९) :
निवेदन करते हैं लौटना और अन्तर्धान होना, को शाप और
समय, सूत गोस्वामी १.१२ : श्रृंगी ने परीक्षित को
कि, वे भगवान् प्रमुख विषय से हटकर धृतराष्ट्र को पांडवों की परीक्षित का शाप दिया था, तब
परीक्षित का उपदेश देना, उन्होंने राज्य त्याग
की अध्याय १.८ : निवृत्ति, युधिष्ठिर पश्चाताप और
जन्म और किया और गंगा के
गतिविधियों महारानी कु न्ती की धृतराष्ट्र का गृह द्वारा परीक्षित का
ब्राह्मणों राज्य त्याग तट पर आए । शुकदेव
की प्रत्यक्ष रूप प्रार्थनाएं, १.९ : त्याग राज्याभिषेक
से स्तुति करें द्वारा उनके गोस्वामी का वहाँ
भीष्मदेव का देह त्याग, गुणों की आगमन हुआ, सभी
[नारद मुनि का १.१०-११ : भगवान् ऋषियों ने उनका
जीवन], स्तुति
का हस्तिनापुर से सम्मान किया,
व्यासदेव श्रीमद् अज्ञानीयों ने उनका
प्रस्थान और द्वारका में
भागवतम् की पीछा करना बंद
प्रवेश, का वर्णन करते किया, परीक्षित
रचना करते है
और शुकदेव हैं । महाराज ने शुकदेव
को सिखाते है गोस्वामी को प्रश्न पूछे
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
१.१ मुनियों की जिज्ञासा
विषय-सूची
• १.१.१ से १.१.३ तक प्रस्तावना :- श्रीमद् भागवतम् का विषय, महिमा और लक्ष्य
• १.१.४ से १.१.८ तक मुनियों की जिज्ञासा की पृष्ठभूमि, मुनियों द्वारा सूत गोस्वामी
की स्तुति
• १.१.९ से १.१.२३ तक मुनियों ने कलियुग की स्थिति बतायी और छह प्रश्न पूछे ।
श्रीमद् भागवतम् की महिमा और लक्ष्य
श्रीमद् भागवतम् (१.१.१)
जन्माद्यस्य यतोऽन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञ: स्वराट्
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरय: ।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा
धाम्ना स्वेन सदा निरस्तकु हकं सत्यं परं धीमहि ॥
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
हे प्रभु, हे वसुदेव-पुत्र श्रीकृ ष्ण, हे सर्वव्यापी भगवान्, मैं आपको
सादर नमस्कार करता हूँ ।
श्रील प्रभुपाद द्वारा तात्पर्य :- भगवान् वासुदेव को नमस्कार करना
प्रत्यक्ष रूप से वसुदेव तथा देवकी के दिव्य पुत्र भगवान् श्रीकृ ष्ण को
इंगित करता है ।

कृ ष्ण स्वयं कहते है कि, उनको श्रीमद् भागवतम् (११.१६.३२) में


वासुदेव के नाम से भी जाना जाता है |
ओज: सहो बलवतां कर्माहं विद्धि सात्वताम् ।
सात्वतां नवमूर्तीनामादिमूर्तिरहं परा ॥
बलवानों में मैं शारीरिक तथा मानसिक बल हूँ और अपने भक्तों का
भक्तिमय कर्म हूँ । मेरे भक्तगण मेरी पूजा नौ विभिन्न रूपों में करते हैं
जिनमें से मैं आदि तथा प्रमुख वासुदेव हूँ ।
जन्माद्यस्य यत:
गरुड पुराण का श्लोक चैतन्य चरितामृत मध्यलीला
२५.१४३ में आता है ।
अर्थोऽयं ब्रह्म-सूत्राणां भारतार्थ-विनिर्णयः
गायत्री-भाष्य-रूपोऽसौ वेदार्थ-परिबृंहित:
पुराणानां साम-रूपः साक्षाद्-भगवतोदितः
द्वादश स्कन्ध-युक्तोऽयं शत-विच्छेद-संयुतः
ग्रन्थोऽष्टादश साहस्रः श्रीमद्-भागवताभिधः
“वेदांत सूत्र का अर्थ श्रीमद् भागवतम् में पाया
जाता है, महाभारत का पूरा सारांश भी इसमें है ।
ब्रह्म-गायत्री कि टीका भी इसी में है और समस्त
वैदिक ज्ञान के सहित इसे विस्तृत रूप दिया गया
है ।”
अन्वयादितरतश्चार्थेष्वभिज्ञ:
वे प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष रूप से सारे जगत्
से अवगत रहते हैं ।
श्रील प्रभुपाद तात्पर्य :-
देह के साथ जो कु छ घटित होता है, वह देही को
तुरन्त ज्ञात हो जाता है । इसी प्रकार यह सृष्टि उस
परम पूर्ण का शरीर है, अत: इस सृष्टि में जो कु छ
घटित होता है उसे वे प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप
से जानते हैं ।
जब किसी को नौकिली वस्तु चुभाई जाती है, तो
वह प्रत्यक्ष रूप से दर्द का अनुभव करता है और
परोक्ष रूप से चुभाने वाले को देखता है ।
स्वराट्
वह स्वतन्त्र हैं क्योंकि उनसे परे अन्य कोई
कारण नहीं है ।
श्रील प्रभुपाद का तात्पर्य :
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के ब्रह्मा से लेकर एक नगण्य चींटी तक सारे
बद्धजीव सृजन का कार्य करते हैं, किन्तु इनमें से कोई भी
परमेश्वर से स्वतन्त्र नहीं है ।
जैसा कि भगवद् गीता ७.७ में वर्णित है :
मत्त: परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय ।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव ॥

हे धनञ्जय ! मुझसे श्रेष्ठ कोई सत्य नहीं है । जिस प्रकार


मोती धागे में गुँथे रहते हैं, उसी प्रकार सब कु छ मुझ पर ही
आश्रित है ।
तेने ब्रह्म हृदा य आदिकवये मुह्यन्ति यत्सूरय:

उन्होंने ही सर्वप्रथम आदि जीव ब्रह्माजी के


ह्रदय में वैदिक ज्ञान प्रदान किया ।
श्रील प्रभुपाद के द्वारा तात्पर्य:
यहाँ पर यह कहा गया है कि परमेश्वर ने गौण
स्रष्टा ब्रह्मा को प्रेरित किया जिससे वे सृजन कार्य
कर सकें । अत: समस्त सृष्टि के पीछे जो परम
बुद्धि कार्य करती हैं, वह परब्रह्म श्रीकृ ष्ण हैं ।

ब्रह्मा नारद मुनि को समझाते हैं कि भगवान् ने


उन्हें यह ज्ञान कै से प्रदान किया ।
क्या आप जानते हैं कि ब्रह्माण्ड में प्रथम परस्पर
हस्तमिलन कै से हुआ था ?
श्रीमद् भागवतम् २.९.१९: भगवान् ने ब्रह्माजी को
अपने समक्ष देखकर उन्हें जीवों की सृष्टि करने तथा
जीवों को अपनी इच्छानुसार नियंत्रित करने के लिए
उपयुक्त पात्र समझा । इस प्रकार प्रसन्न होकर भगवान्
ने ब्रह्मा से मंद-मंद हँसते हुए हाथ मिलाया और उन्हें
इस प्रकार से सम्बोधित किया ।
श्रील प्रभुपाद के द्वारा तात्पर्य:
ब्रह्म संप्रदाय का कोई भी व्यक्ति जो भगवान् के सन्देश
का उपदेश देता है, भगवान् को प्रिय है और ऐसे ही
प्रामाणिक भक्ति संप्रदाय के प्रचारक से प्रसन्न होकर
वे उनसे हाथ मिलाते हैं ।
तेजोवारिमृदां यथा विनिमयो यत्र त्रिसर्गोऽमृषा
उन्हीं के कारण बड़े- बड़े मुनि तथा देवता मोह में पड़ जाते हैं ।
उन्हीं के कारण प्रकृ ति के तीन गुणों की प्रतिक्रिया से अस्थायी
रूप से प्रकट होने वाले ये सारे भौतिक ब्रह्माण्ड, अवास्तविक
होते हुए भी वास्तविक लगते हैं ।

श्रील प्रभुपाद के द्वारा तात्पर्य:


यह जगत् प्रकृ ति के तीन गुणों की अंत:क्रिया से बनता है
और यह अनित्य जगत्, बद्ध जीव के मोहग्रस्त मन को
वास्तविकता का भ्रम प्रस्तुत करने वाला होता है ।
बद्धजीव अनेकानेक योनियों में प्रकट होते हैं जिनमे ब्रह्मा,
चन्द्र जैसे उच्चतर देवता भी सम्मिलित हैं । यथार्थ में प्रकट
जगत् में कोई वास्तविकता नहीं है, यह वास्तविक जैसा
प्रतीत होता है । वास्तविकता का अस्तित्व तो वैकु ण्ठलोक
में है, जहाँ पुरुषोत्तम भगवान् अपनी दिव्य सामग्री के साथ
धाम्ना स्वेन सदा
मैं उन भगवान् श्रीकृ ष्ण का ध्यान करता हूँ, जो अपने
दिव्य धाम में निरन्तर वास करते हैं ।
श्रील प्रभुपाद के द्वारा तात्पर्य:
भगवद् गीता मे भगवान् कहते है कि उनसे बढ कर
कोई परतत्त्व या अन्तिम लक्ष्य नही हैं । इसलिए श्री
व्यासदेव तुरन्त उन परतत्त्व श्रीकृ ष्ण की पूजा करते है
जिनकी दिव्य लीलाओं का वर्णन दशम स्कं ध मे
हुआ है ।
यह श्रीमद्भागवत पूर्वाग्रह रहित पाठक को धीरे-धीरे
अध्यात्म की पूर्णावस्था तक ले जाने वाला है ।
निरस्तकु हकं
जो भौतिक जगत् के भ्रामक रूपों से
सर्वथा मुक्त है ।
श्रील प्रभुपाद के द्वारा तात्पर्य:
यह वास्तविक जैसा प्रतीत होता है ।
वास्तविकता का अस्तित्व तो
वैकु ण्ठलोक मे है, जहाँ पुरुषोत्तम
भगवान् अपनी दिव्य सामग्री के साथ
नित्य विद्यमान रहते है ।
सत्यं परं धीमहि

मै उनका ध्यान करता हूँ,


क्योंकि वे ही परम सत्य है ।
श्रीमद् भागवतम् की महिमा और लक्ष्य

श्लोक १.१.१ : कृ ष्ण को परम सत्य


के रूप में परिभाषित करता है ।

श्लोक १.१.२ : श्रीमद् भागवतम् की


महिमा और वास्तविक धर्म को
परिभाषित करता है ।

श्लोक १.१.३ : श्रीमद् भागवतम् की


मधुरता
श्रीमद् भागवतम् १.१.२

धर्म: प्रोज्झितकै तवोऽत्र परमो निर्मत्सराणां सतां


वेद्यं वास्तवमत्र वस्तु शिवदं तापत्रयोन्मूलनम् ।
श्रीमद्भागवते महामुनिकृ ते किं वा परैरीश्वर:
सद्यो हृद्यवरुध्यतेऽत्र कृ तिभि: शुश्रूषुभिस्तत्क्षणात् ॥
श्रीमद् भागवतम् १.१.२
वेदों में इन्द्रिय तृप्ति के बारे में क्यों वर्णन है ?
इन्द्रिय तृप्ति के लिए अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचने के लिए, वेद नियम और निषेधों का वर्णन करते
हैं ।

श्रीमद् भागवतम् वेदों से किस प्रकार भिन्न है ?


श्रीमद् भागवतम् नितान्त दिव्य साहित्य है और इन्द्रिय तृप्ति सम्बन्धी इन सभी कर्मों से परे है ।
कौन श्रीमद् भागवतम् का श्रवण करने के लिए योग्य है ?
जो १) इर्ष्या से मुक्त
२) सभी पर दयालु
३) एक स्पर्धारहित समाज के लिए प्रयासरत रहते हैं ।
उदाहरण : कृ ष्णभावनाभावित समाज

शास्त्र भिन्न प्रकार के व्यक्तियों से कै से व्यवहार करते हैं ?


वेद : जैसे एक स्वामी अपने दास से व्यवहार करता है
पुराण और इतिहास : जैसे एक मित्र दूसरे मित्र से व्यवहार करता है
काव्य : एक प्रेमी अपने प्रिय से व्यवहार करता है
श्रीमद् भागवतम् इन तीनों का सार है, यह सभी से यथोचित व्यवहार करता है ।
प्रारम्भ :
मुनियों की जिज्ञासा
भगवान् और भक्तों की संतुष्टि के लिए नैमिषारण्य में ऋषियों द्वारा हजार वर्षों
तक यज्ञ ।
ऋषियों ने सूत गोस्वामी को सम्माननीय आसान पर विराजने का अनुरोध
किया और उनकी योग्यताओं का गुणगान किया ।
सूत गोस्वामी की योग्यता
श्लोक संस्कृ त हिंदी
१.१.६ अनघ समस्त पापों से मुक्त
१.१.६ आख्यातानि, सुपठित कहा गया
अधीतानि
१.१.७ वेद-विदाम् वेदों के ज्येष्ठतम
श्रेष्ठ: पंडित
१.१.८ सौम्य शुद्ध तथा सरल
व्यक्ति
१.१.८ स्निग्धस्य विनीत
साक्षात्कार ( श्रीमद् भागवतम् १.४.१)
• क्या होता है ?
• क्या नहीं होता है ?
प्रमाणित वक्ता :
• विषय को शुकदेव गोस्वामी के अनुसार वर्णित करता है
• यथाधितम्, यथा मति

प्रमाणित श्रोता :
• श्रवण करने के लिए लालायित, के वल परंपरा में श्रवण
करता है ।
आत्म-अनुभूति का यह अर्थ नही होता है कि गर्व
के कारण, पूर्ववर्ती आचार्य का उल्लघंन करके ,
कोई अपनी विद्वत्ता का प्रदर्शन करे । उसे पूर्ववर्ती
आचार्य पर पूरा विश्वास होना चाहिए और साथ ही
साथ उसे विषय का ऐसा उत्तम ज्ञान होना चाहिए
कि वह किसी विशिष्ट अवसर पर, उस विषय को
उपयुक्त ढंग से प्रस्तुत कर सके । विषय के मूल
उद्देश्य का पालन होना चाहिए । खींचतान कर
उसका कोई दुर्बोध अर्थ नही निकालना चाहिए,
अपितु श्रोताओं को समझाने के लिए उसे रोचक
ढंग से प्रस्तुत करना चाहिए । इसे आत्मसात करना
कहा जाता है ।
( श्रीमद् भागवतम् १.४.१)
आत्म अनुभूति का यह अर्थ नहीं होता कि
- व्यक्ति गर्व के कारण, पूर्ववर्ती आचार्य का उल्लघंन करके , कोई अपनी विद्वत्ता का
प्रदर्शन करे ।

एक प्रचारक को
- अपने पूर्ववर्ती आचार्य पर पूर्ण विशवास होना चाहिए
- विषय वस्तु का पूर्ण ज्ञान होना चाहिए
- किसी विशिष्ट अवसर पर, उस विषय को उपयुक्त ढंग से प्रस्तुत करना चाहिए ।

किसी विषय पर कथा करते हुए -


- विषय के मूल उद्देश्य का पालन होना चाहिए
- उसका कोई दुर्बोध अर्थ नहीं निकालना चाहिए
- श्रोताओं को समझाने के लिए उसे रोचक ढंग से प्रस्तुत करना चाहिए ।
आत्म अनुभूति
प्रचारक कौन है ?
- जो दूसरों को कृ ष्ण प्रदान करके उनके ह्रदय को परिवर्तित कर दे ।
- जो दूसरों को कृ ष्ण के पास लाये ।
- जो दूसरों को कृ ष्ण के पास आने का अनुभव कराता है ।
- कृ ष्ण भावनामृत को समझने के लिए लोगों को अपने दृढ़ विश्वास के माध्यम से
आकर्षित करता है, न कि दण्ड या बेईमान प्रचार तकनीकों के माध्यम से ।

उदाहरण : श्रील प्रभुपाद ने हिप्पियों का पतन नहीं देखा जितना उन्होंने उनके आत्मा
का कृ ष्ण के साथ स्वाभाविक सम्बन्ध को देखा ।
के वल परम सत्य
सूत गोस्वामी उनके द्वारा सीखे गए सभी
विषयों पर बोलने के लिए सहमत हो सकते
हैं, लेकिन ऋषि "के वल पूर्ण और परम
सत्य" के विषय में श्रवण करना चाहते हैं ।

श्रीमद् भागवतम् १.१.९ – प्र. १ :


जन साधारण के समग्र एवं परम
कल्याण के लिए क्या निश्चय किया है ?
कलियुग के व्यक्ति

श्रीमद् भागवतम् १.१.१०


प्रायेणाल्पायुष: सभ्य कलावस्मिन् युगे जना: ।
मन्दा: सुमन्दमतयो मन्दभाग्या ह्युपद्रुता: ॥
कलियुग के व्यक्ति :
• न्यून आयु
• आलसी
• पथभ्रष्ट
• अभागे
• विचलित
पृष्ठभूमि
भगवद्भक्त सामान्य जनों की
आध्यात्मिक उन्नति के लिए
सदैव चिन्तित रहते हैं ।

नैमिषारण्य के ऋषि कलियुग के


लोगों की अवस्था का
विश्लेषण करके शुकदेव
गोस्वामी से आसान उपाय की
याचना करते हैं ।
मुनियों के छह प्रश्न
१. जन साधारण के समग्र एवं परम
कल्याण के लिए क्या निश्चय किया है ?

२. सभी शास्त्रों का सार क्या है ?

३. पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान्


श्रीकृ ष्ण किस प्रयोजन से प्रकट हुए ?
मुनियों के छह प्रश्न
४. उनके अपने विविध अवतारों में
सम्पन्न सर्ग की लीलाओं के विषय में
बतायें ?

५. भगवान् के विविध अवतारों


की दिव्य लीलाओं के विषय मे
बतायें ?

६. श्रीकृ ष्ण के निज धाम प्रयाण के


पश्चात् धर्म ने किसका आश्रय लिया है ?
अध्याय १ का अवलोकन
परम सत्य की व्याख्या

१-३ : प्रस्तावना श्रीमद् भागवतम् की महिमा, वास्तविक धर्म

श्रीमद् भागवतम् के आस्वादन का निमंत्रण

भगवान् और भक्तों की संतुष्टि के लिए ऋषियों


द्वारा यज्ञ की तैयारी
४-८ : मुनियों द्वारा सूत गोस्वामी की प्रशंसा
१.१ – मुनियों की जिज्ञासा सूत गोस्वामी को विशेष स्थान देना और
उनकी स्तुति करना

कलियुग के लोग

९-२३ : ऋषियों ने कलियुग के लोगों की


निंदनीय स्थिति का वर्णन किया और श्रवण की श्रवण की उत्सुकता
उत्सुकता व्यक्त करते हुए ६ प्रश्न पूछे

६ प्रश्न
अध्याय दो में प्रवेश

श्रील सूत गोस्वामी प्रश्नों से संतुष्ट थे और


उन्होंने धन्यवाद करते हुए उत्तर देने का प्रयत्न
किया ।
श्रीमद् भागवतम्, सभी पुराणों में शिरोमणि ।

प्रथम स्कन्ध अध्याय २


दिव्यता तथा दिव्य सेवा

श्री श्रीमद् अभयचरणारविन्द भक्तिवेदान्त स्वामी प्रभुपाद (संस्थापकाचार्य : अन्तर्राष्ट्रीय कृ ष्णभावनामृत संघ) के द्वारा

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