Prakriti

You might also like

Download as pptx, pdf, or txt
Download as pptx, pdf, or txt
You are on page 1of 8

R. A.

M COLLEGE AND HOSPITAL,


BAREILLY

शरीर क्रिया विज्ञान

SUBMITTED BY- SUBMITTED TO-


NAME-AYAN QAYUM Dr. MAYA PRAKASH
ROLL NO. 11
CLASS- B.A.M.S 1st yr.
अष्टविध आहार-विधि विशेषायतन

महर्षि चरक ने विमानस्थान के प्रथम अध्याय 'रस विमानाध्याय' में अष्टाहार विधि विशेषायतन का विस्तृत उल्लेख किया है।

खल्विमान्यष्टावाहारविधिविशेषायतनानि भवन्ति, तद्यथा प्रकृ तिकरणसंयोगराशिदेश

कालोपयोगसंस्थोपयोक्तष्टमानि (भवन्ति)। (च.वि. १/२१)


प्रकृ ति
देह प्रकृ ति
प्रकृ तिः स्वाभाव इति प्रकृ तिर्जन्मप्रभृति वृद्धो वातादिरित च ।(च.सू. १७/६२ चक्रपाणि)
बातादि दोषों का शरीर पर प्रभाव दो प्रकार से दिखायी देता है।
1.जन्मोत्तर
प्रथम अस्थायी होता है जो भोजन, दिन, रात एवं वय के प्रभाव से होता है.
2. जन्मजात (सहज)
• यह प्रभाव गर्भस्थापना के समय से पड़ने लगता है और जन्म के उपरान्त सम्पूर्ण जीवन तक बना
रहता है। इससे देह रचना के साथ-साथ मनो मस्तिष्क पर भी प्रभाव पड़ता है।
• यह वात, पित्त एवं कफ शरीर, मन पर गर्भ स्थापना के काल से जो शुभ- अशुभ प्रभाव डालता है,
उसे उस व्यक्ति की 'प्रकृ ति' कहते हैं।
प्रकृ ति निर्माण
महर्षि सुश्रुत के अनुसार-
शुक्र शोणित संयोगे यो भवेदोष उत्कटः ।
प्रकृ तिर्जायते तेन तस्या में लक्षणं मृणु ।
• शुक्र और शोणित के संयोग काल में जिस दोष की उत्कटता प्रबलता होती. है, उसी से पुरुष की
प्रकृ ति का निर्माण होता है।
• आचार्य इल्हण ने दोष उत्कटता से प्राकृ त दोष को प्रचलता को बतलाया है वैकत अवस्था का नहीं,
क्योंकि वैकृ त दोष को उत्कृ टता से गर्म का नाश हो जाता है।
• पुरुष का शुक्र (Sperm) और स्त्री का आर्तव (Ovum), इनके संयोग से गर्भ उत्पन्न होता है। यह
गर्म वात, पित्त एवं कफ युक्त होता है।
• पुरुष एवं स्त्री दोनों में इन दोषों की अल्पता या अधिकता हो सकती है। जब दोनों का संयोग
(Fertilization) होता है तब उनके अन्दर विद्यमान दोषों का भी संयोग होता है।
प्रकृ ति निर्माण
• इस प्रकार वात, वात के साथ, पित्त, पित्त के साथ तथा कफ, कफ के साथ मिलकर गर्म का निर्माण
करते है तब गर्भ में त्रिदोष बनता है।
• इस गर्भ में संयोगवश जब तीनों दोषों की समता रहती है तब सम प्रकृ ति बनती है,
• परन्तु इस समता का प्रायः अभाव रहता है तथापि कोई न कोई दोष प्रचल होकर वातल, पित्तल एवं
श्लेमल प्रकृ तियों का निर्माण होता है।
• इसी प्रकार दो दोषों की प्रबलता द्विदोषज प्रकृ तियों के निर्माण का कारण बनती है। दोषों की उत्कटता
सदैव संयोग के पश्चात् उत्पन्न होती है.
• इसे एक उदाहरण द्वारा समझा जा सकता है। जैसे यदि शुक्र में बात की प्रबलता है और आर्तव में
हीनता तो ऐसी स्थिति में संतान में न बात की उत्कटता होगी और न क्षीणता ही, बल्कि वात की
समता होगी।
प्रकृ ति निर्माण
• इसी प्रकार यदि शुक्र एवं आर्तव दोनों में बात की उत्कटता होगी। तो संतान में बात की प्रबलता दोनों
से अधिक होगी। इस प्रकार कहा जा सकता है। कि गर्भ में दोष को जो उत्कटता है वह माता-पिता के
शुक्र- शोणित में विद्यमान त्रिदोष के पृथक् पृथक् परिमाण के योग का परिणाम होता है।
• अष्टांग हृदयकार ने प्रकृ ति निर्माण में शुक्र शोणित में दोष उत्कटता को ही कारण नहीं माना है अपितु
उपर्युक्त शुक्र- शोणित के साथ गर्भवती के आहार-विहार, गर्भाशय एवं ऋतु में जो दोष अधिक होता है
उससे प्रकृ ति की उत्पत्ति होना माना है।
प्रकृ ति निर्माण अनेक कारणों
1. शुक्र प्रकृ ति- अर्थात् गर्भस्थापना के समय वीर्य में वात-पित्त-कफ का समरूप होना या किसी एक-दो
का प्रबलता के रूप में होना।
2. शोणित प्रकृ ति- इसका तात्पर्य है कि डिम्ब में दोष सम हैं या विषम अवस्था में हैं।
3. काल प्रकृ ति- जिस ऋतु या काल में गर्भस्थापना होती है उस काल में किस दोष की उत्कटता थी।
4. गर्भाशय प्रकृ ति- गर्भ स्थापना काल में गर्भाशय में स्थित त्रिदोष साम्य या विषम अवस्था में थे
5. माता के आहार की प्रकृ ति- इसका तात्पर्य है कि गर्भ स्थापना से पूर्व माता द्वारा किस प्रकार का
आहार सेवन किया गया।
6. माता के विहार की प्रकृ ति- अर्थात् गर्भ स्थापना से पूर्व या पश्चात् माता के विचार आचार एवं रहन-
सहन दोषों को साम्यावस्था में रखने वाला था या विषमावस्था में।
7. पञ्च महाभूत प्रकृ ति- इसका तात्पर्य यह है कि गर्भ निर्माण के समय जल, वायु, अग्नि आदि दोष
प्रकोपक थे या वैषम्य कारक।

You might also like