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वात दोष

Represented by:- Manisha varshney

Guided by:- Dr.


M.P. prjapati
दोष:-
व्युत्पति:- जो शरीर को दूषित करते है उन्हें दोष कहते है|
“दुष्णात दोषा:”

परिभाषा:- जो मन और शरीर दोनों को दूषित करे वह दोष है|


“दुष्यन्ति मन: शरीरं चेति दोषा:”

प्रकार :- दोष दो प्रकार के होते है :-

1. शारीरिक दोष :- शारीरिक दोष तीन प्रकार के होते है|


1. वात
2. पित्त
3. कफ
2. मानसिक दोष :- मानसिक दोष तीन प्रकार के होते है|
1. रज
2. तम
वात दोष:-
“वा गति गन्धनयो:”
वा गति गन्धनयो: धातु मे ‘क्त’ प्रत्यय लगाकर वात शब्द निष्पन हुआ है या वा धातु मे ‘तन’ प्रत्यय लगाकर ‘न’ का लोप
होकर वात शब्द बनता है| वा धातु गति,प्राप्ति और ज्ञान इन तीनो अर्थो का बोधक है| इस प्रकार गति के उत्पादक, प्राप्ति
के साधक और ज्ञान के जनक को वायु कहते है|

पंचभौतिक स्वरूप:-
“वाय्वाकाश- धातुभ्या वायुः”
बात मे वायु और आकाश महाभूत की प्रधानता होती है।
वात के गुण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“तत्र रुक्ष लघुः शीतः खरः सूक्ष्मश्चलोअनिल:” । (अ.ह.सू.1/11)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“रुक्षः शीतो लघुः सूक्ष्मश्चनालोऽथ विशदः खरः” । (च.सू. 1/51)

वात के स्थान:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“पक्वाशय-कटीसक्थि- श्रोत्राऽस्थिस्पर्शनिन्द्रियम् । स्थानं वातस्य तत्रापि
पक्वाधानं विशेषतः” ।।(अ.हृ.सू. 12/1)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“बस्ति: पुरीषाधानं कटि: सक्थिनी पादावस्थीनि पक्वाशयश्च
वातस्थानानि,तत्रापि पक्वाशयो विशेषेण वातस्थानं । (च.सू.20/8)
वात के कर्म :-
“उत्साहोच्छ्वासनिश्वास-चेष्टावेगप्रवर्तनैः । सम्यग्गत्या च धातूनामक्षाणां
पाटवेन च । अनुगृह्णात्यविकृ तः ...............।। (अ.हृ.सू. 11/1-2)

वात के भेद :-
सभी आचार्यों ने वात के 5 भेद माने है|
1. प्राण वायु
2. उदान वायु
3. समान वायु
4. व्यान वायु
5. अपण वायु
प्राण वायु:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“उरः कण्ठचरो बुद्धि- हृदयेन्द्रियचित्तधृक् ।
ष्ठीवन क्षवथूद्गार निःश्वासान्नप्रवेशकृ त्” ।। (अ.ह.सू.12\4)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“स्थानं प्राणस्य सूर्योर: कण्ठ जिह्वास्य नासिकाः।
ष्ठीवनक्षवथूद्गारश्वासाऽऽहारादि कर्म च” ।। (च.चि. 28/6)
उदान वायु :-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“उरः स्थानमुदानस्य नासानाभिगलांश्चरेत् । वाक्प्रवृत्तिप्रयत्नोर्जा
बलवर्णस्मृतिक्रियः” ।।(अ.हृ.सू. 12/5)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“उदानस्य पुनः स्थानं नाभ्युरः कण्ठ एव च ।
वाक्प्रवृत्ति प्रयत्नौजोबलवर्णादि कर्म च” ।।(च.चि. 28/7)
समान वायु :-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“समानोऽग्निसमीपस्थः कोष्ठे चरति सर्वतः ।
अन्नं गृह्णाति पचतिविवेचयति मुञ्चति” ।। (अ.ह.सू.12/8)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“स्वेद दोषाम्बुवाहीनि खोतांसि समधिष्ठितः ।
अन्तरग्नेश्च पार्श्वस्थःसमानोऽग्नि बलप्रदः” ।। (च.चि.28/8)
व्यान वायु :-
अष्टसंग हृदय के अनुसार:-
“व्यानो हदि स्थितः कृ त्स्नदेहचारी महाजवः ।
गत्यपक्षेपणोत्क्षेप-निमेषोन्मेषणादिकाः। प्रायः सर्वाः क्रियास्तस्मिन्
प्रतिबद्धाः शरीरिणाम् ।। (अ.ह.सू. 12/6-7)

आचार्य चरक के अनुसार:-


देहं व्याप्नोति सर्वं तु व्यानः शीघ्रगर्तिनृणाम् ।
गति प्रसारणाक्षेपनिमेषादिक्रियः सदा ।। (च.वि. 28/9)
अपान वायु:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“अपानोअपानग: श्रोणि-वस्तिमेढोरुगोचरः ।
शुक्रार्तव शकृ न्मूत्र- गर्भनिष्क्रमणक्रियः” ।।(अ.हृ.सू. 12/9)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“वृषणौ वस्तिमेढ्रं च नाभ्यूरूवंक्षणौ गुदम् ।
अपानस्थानमन्त्रस्थः शुक्र-मूत्र - शकृ न्ति च ।। सृजत्यार्तवगर्भौच”.... ।
(च.चि.28/10-11)
वात वृद्धि के लक्षण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“कार्श्यकाष्र्योष्णकामत्व-कम्पाऽऽनाहशकृ त्ग्रहान् ।
बलनिद्रेन्द्रियभ्रंश - प्रलाप भ्रमदीनताः” ।। (अ.हृ.सू. 11/5-6)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“दोषप्रकृ तिवैशेष्यं नियतं वृद्धिलक्षणम् ।
दोषाणां प्रकृ तिर्हानिनिर्वृद्धिश्चैवं परीक्ष्यते” ।। (च.सू.18/53)
वात क्षय के लक्षण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“लिङ्गं क्षीणोऽनिलेऽङ्गस्य सादोऽल्पं भाषितेहितम् । संज्ञामोहस्तथा
श्लेष्मवृद्धयुक्तामय सम्भवः” ।। (अ.हृ.सू. 11/15)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“वाते पित्ते कफे चैव क्षीणे लक्षणमुच्यते । कर्मणः प्राकृ ताद्धानिर्वृद्धिर्वाऽपि
विरोधिनाम् ।।” (च.सू.18/52)
पित्त दोष
पित्त दोष:-
पित्त की उत्पत्ति “तप सन्तापे” धातु से की गयी है| तप का अर्थ उष्णिमा या दहन से है|
पित्त शब्द की निरुक्ति “तापयतीति पित्तम्” अर्थात् जो शरीर में ताप उत्पन्न करे वह पित्त शब्द से जाना
जाता है|
जो प्राकृ तिक अवस्था मैं रहता हुआ शरीर की रक्षा करे तथा विकृ त अवस्था मैं रहता हुआ शरीर का नाश
करे वह पित्त कहलाता है|

पंचभौतिक स्वरूप:-
“पित्तमाग्नेयं” (सु.सू. 42/5)
पित्त में अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है|
पित्त के गुण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“पित्तं सस्नेहतीक्ष्णोष्णं लघु विस्त्रं सरं द्रवम्” । (अ.ह.सू.1/11)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“सस्नेहमुष्णं तीक्ष्णं च द्रवमम्लं सरं कटु। विपरीत गुणै: पित्तं द्रव्यैराशु
प्रशाम्यति । (च.सू. 1/60)

पित्त के स्थान:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“नाभिरामाशय: स्वेदो लसीका रुधिरं रस: । दृक् स्पर्शनं च पित्तस्य,
नाभिरत्र विशेषतः” ।। (अ.हृ.सू. 12/2)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“स्वेदो रसो लसीका रुधिरमामाशयश्च पित्तस्थानानि,
तत्राप्योमाशयो विशेषेण पित्त स्थानम् । (च.सू.20/8)
पित्त के कर्म :-
“......पित्तस्य दाहरागोष्मपाकिता: । स्वेद: क्ले द: स्त्रुति: कोथ: सदनं मूर्च्छनं
मद: ।। काटुकाम्लौ रसौ वर्ण: पाण्डु रारुणवर्जित: ।। (अ.हृ.सू. 12/41-42)

पित्त के भेद :-
सभी आचार्यों ने पित्त के 5 भेद माने है|
1. पाचक पित्त
2. रञ्जक पित्त
3. साधक पित्त
4. आलोचक पित्त
5. भ्राजक पित्त
पाचक पित्त :-
आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-
तच्चादृष्टहेतुके न विशेषेण पक्वामाशयमध्यस्थं पित्तं चतुर्विधमन्नपानं पचति विवेचयति च दोषरसमूत्रपुरीषाणि, तत्रस्थमेव
चात्मशक्तया शेषाणां पित्तस्थानानां शरीरस्य चाग्निकर्माऽनुग्रहं करोति, तस्मिन्पित्ते पाचकोऽग्निरिति संज्ञा ।
(सु.सू. 21/10)
रञ्जक पित्त:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
आमाशयाश्रयं पित्तं रञ्जकं रसरञ्जनात् । (अ.ह.सू. 12/13)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


यत्तु यकृ त्प्लीह्नोः पित्तं तस्मिन् रञ्जकोऽग्निरिति संज्ञा, स रसस्य
रागकृ दुक्तः ।। (सु.सू. 21/10)
साधक पित्त:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
बुद्धिमेघाभिमानाद्यैरभिप्रेतार्थसाधनात् ।
साधकं हृद् गतं पित्तम् ।। (अ.हृ.सू. 12/13)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


यत् पित्तं हृदयसंस्थितं तस्मिन् साधकोऽग्निरिति संज्ञा,
सोऽभिप्रार्थितमनोरथसाधनकृ दुक्तः । (सु.सू. 21/10)
आलोचक पित्त:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
रूपालोचनतः स्मृतम् । दृक्स्थमालोचकम् । (अ.हृ.सू. 12/13)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


यद्दृष्टयां पित्तं तस्मिनन्नालोचकोऽग्निरिति संज्ञा, स रूप ग्रहणेऽधिकृ तः ।
(सु.सू. 21/10)
भ्राजक पित्त:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
त्वकस्थं भ्राजकं भ्राजनात्त्वचः । (अ.हृ.सू. 12/14)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


यत्तु त्वचि पित्तं तस्मिन् भ्राजकोऽग्निरिति संज्ञा,
सोऽभ्यङ्गपरिषेकावगाहावलेपनादीनां क्रियाद्रव्याणां पक्ता, छायानां च
प्रकाशकः । (सु.सू. 21/10)
पित्त वृद्धि के लक्षण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
पीतविण्मूत्रनेत्रत्वक्क्षुत्तृड्दाहाऽल्पनिद्रताः पित्तम् । (अ.हृ.सू. 11/7)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


पित्तवृद्धौ पीतावभासता, सन्तापः, शीतकामित्वमल्पनिद्रता मूर्च्छा
बलहानिरिन्द्रियदौर्बल्यं पीतविण्मूत्रनेत्रत्वं च । (सु.सू. 15/18)
पित्त क्षय के लक्षण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
पित्ते मन्दोऽनलः शीतं प्रभाहानिः । (अ.हृ.सू. 11/16)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-

पित्तक्षये मन्दोष्माग्निता निष्प्रभत्वं च । (सु.सू.15/11)


कफ दोष
कफ दोष:-
अमकोश कार ने ‘कफ’ की व्युत्पत्ति “के न जलेन फलति इति कफ:” की है।कफ़ शब्द मे 'क' का अर्थ है जल
और ‘फ’ का अभिप्राय है फलित करना। वह वस्तु जो पार्थित और विशेषत: जलीय तत्व के प्रभाव से अनेक
परिणाम उत्पन्न करने की क्षमता रखता है। उसे कफ कहते हैं।

महर्षि सुश्रुत ने ‘श्लेष्मा' शब्द की व्युत्पत्ति “श्लिष् आलिंगने” धातु से मानी है।

पंचभौतिक स्वरूप:-
“सत्व तमोबहुला आप:”
कफ में जल एवं पृथिवी महाभूत की प्रधानता होती है ।
कफ के गुण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“स्निग्धः शीतो गुरुर्मन्दः श्लक्ष्णो मृत्स्नः स्थिरः कफः ।” | (अ.ह.सू.1/1)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“गुरुशीतमृदुस्निग्धमधुरस्थिरपिच्छिलाः ।
श्लेष्मणः प्रशमं यान्ति विपरीतगुणैर्गुणाः” ।। (च.सू. 1/61)

कफ के स्थान:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“उरः कण्ठशिरः क्लोम पर्वाण्यामाशयो रसः ।
मेदो घ्राणं च जिह्वा च कफस्य सुतरामुरः” ।। (अ.हृ.सू. 12/3)

आचार्य चरक के अनुसार:-


“उरः शिरोग्रीवा पर्वाण्यामाशयो मेदश्च श्लेष्मस्थानानि, तत्राप्युरो विशेषेण
श्लेष्मस्थानम्” । (च.सू.20/8)
कफ के कर्म :-
“श्लेष्मा स्थिरत्व स्निग्धत्व, सन्धिवन्यक्षमादिभिः” । (अ.हृ.सू. 11/3)

कफ के भेद :-
सभी आचार्यों ने कफ के 5 भेद माने है|
1. अवलम्बक कफ
2. क्ले दक कफ
3. बोधक कफ
4. तर्पक कफ
5. श्लेषक कफ
अवलम्बक कफ:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
उरःस्थः स त्रिकस्य स्ववीर्यतः ।
हृदयस्यान्न वीर्याच्च तत्स्थएवाम्बुकर्मणा ।।
कफघाम्नां च शेषाणां यत्करोत्यवलम्बनम् |
अतोऽवलम्बकः श्लेष्मा ।। (अ.ह.सू. 12/15,16)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


उरःस्थस्त्रिकसन्धारणमात्मवीर्य्येणान्नरस सहितेन हृदयावलम्बनं करोति ।
(सु.सू. 21/10)
क्ले दक कफ:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
यस्त्वामाशयसंस्थितः । क्ले दकः सोऽप्रसङ्गात-क्ले दनात् .....।।
(अ.ह.सू. 12/16)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


माधुर्यात् पिच्छिलत्वाच्च प्रक्ले दित्वात्तथैव च ।
आमाशये सम्भवति श्लेष्मा मधुरशीतलः ।।
स तत्रस्थ एव स्वशक्तया शेषाणां श्लेष्मस्थानानां शरीरस्य
चोदककर्मणाऽनुग्रहं करोति ।। (सु.सू. 21/13-14)
बोधक कफ:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
रसबोधनात् । बोधको रसनास्थायी ।। (अ.ह.सू. 12/16)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


जिह्वामूलकण्ठस्थो जिह्वेन्द्रियस्य सौम्यत्वात् सम्यक् रसज्ञाने वर्त्तते ।
(सु.सू.21/14)
तर्पक कफ:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
शिरः संस्थोऽक्षतर्पणात् तर्पकः ।। (अ.ह.सू. 12/17)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


शिरःस्थः स्नेह सन्तर्पणाधिकृ तत्वाद् इन्द्रियाणामात्मवीर्येणानुग्रहं करोति ।
(सु.सू. 21/14)
श्लेषक कफ:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
सन्धिसंश्लेषाच्छ्लेषकः सन्धिषु स्थितः । (अ.ह.सू.12/17)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


सन्धिस्थस्तु श्लेष्मा सर्वसन्धिसंश्लेषात् सर्वसन्ध्यनुग्रहं करोति ।
(सु.सू. 21/14)
कफ वृद्धि के लक्षण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
श्लेष्माऽग्निसदन- प्रसेकालस्यगौरवम् श्वैत्यशैत्यश्लथाङ्गत्वं
श्वासकासातिनिद्रताः ।। (अ.हृ.सू. 11/7)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-


श्लेष्मवृद्धौ शौक्ल्यं शैत्यं स्थैर्य्यं गौरवमवसादस्तन्द्रा निद्रा
सन्ध्यस्थिविश्लेषश्च । (सु.सू. 15/18)
कफ क्षय के लक्षण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
कफे भ्रमः, श्लेष्माशयानां शून्यत्वं हृद्रवः श्लथसन्धिता ।
(अ.हृ.सू. 11/16)

आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-

श्लेष्मक्षये रूक्षताऽन्तर्दाह आमाशयेतरश्लेष्माशयशून्यता

सन्धिशैथिल्यं तृष्णा दौर्बल्यं प्रजागरणं च । (सु.सू.15/11)


thank you

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