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पंचभौतिक स्वरूप:-
“वाय्वाकाश- धातुभ्या वायुः”
बात मे वायु और आकाश महाभूत की प्रधानता होती है।
वात के गुण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“तत्र रुक्ष लघुः शीतः खरः सूक्ष्मश्चलोअनिल:” । (अ.ह.सू.1/11)
वात के स्थान:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“पक्वाशय-कटीसक्थि- श्रोत्राऽस्थिस्पर्शनिन्द्रियम् । स्थानं वातस्य तत्रापि
पक्वाधानं विशेषतः” ।।(अ.हृ.सू. 12/1)
वात के भेद :-
सभी आचार्यों ने वात के 5 भेद माने है|
1. प्राण वायु
2. उदान वायु
3. समान वायु
4. व्यान वायु
5. अपण वायु
प्राण वायु:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“उरः कण्ठचरो बुद्धि- हृदयेन्द्रियचित्तधृक् ।
ष्ठीवन क्षवथूद्गार निःश्वासान्नप्रवेशकृ त्” ।। (अ.ह.सू.12\4)
पंचभौतिक स्वरूप:-
“पित्तमाग्नेयं” (सु.सू. 42/5)
पित्त में अग्नि महाभूत की प्रधानता होती है|
पित्त के गुण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“पित्तं सस्नेहतीक्ष्णोष्णं लघु विस्त्रं सरं द्रवम्” । (अ.ह.सू.1/11)
पित्त के स्थान:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“नाभिरामाशय: स्वेदो लसीका रुधिरं रस: । दृक् स्पर्शनं च पित्तस्य,
नाभिरत्र विशेषतः” ।। (अ.हृ.सू. 12/2)
पित्त के भेद :-
सभी आचार्यों ने पित्त के 5 भेद माने है|
1. पाचक पित्त
2. रञ्जक पित्त
3. साधक पित्त
4. आलोचक पित्त
5. भ्राजक पित्त
पाचक पित्त :-
आचार्य सुश्रुत के अनुसार:-
तच्चादृष्टहेतुके न विशेषेण पक्वामाशयमध्यस्थं पित्तं चतुर्विधमन्नपानं पचति विवेचयति च दोषरसमूत्रपुरीषाणि, तत्रस्थमेव
चात्मशक्तया शेषाणां पित्तस्थानानां शरीरस्य चाग्निकर्माऽनुग्रहं करोति, तस्मिन्पित्ते पाचकोऽग्निरिति संज्ञा ।
(सु.सू. 21/10)
रञ्जक पित्त:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
आमाशयाश्रयं पित्तं रञ्जकं रसरञ्जनात् । (अ.ह.सू. 12/13)
महर्षि सुश्रुत ने ‘श्लेष्मा' शब्द की व्युत्पत्ति “श्लिष् आलिंगने” धातु से मानी है।
पंचभौतिक स्वरूप:-
“सत्व तमोबहुला आप:”
कफ में जल एवं पृथिवी महाभूत की प्रधानता होती है ।
कफ के गुण:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“स्निग्धः शीतो गुरुर्मन्दः श्लक्ष्णो मृत्स्नः स्थिरः कफः ।” | (अ.ह.सू.1/1)
कफ के स्थान:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
“उरः कण्ठशिरः क्लोम पर्वाण्यामाशयो रसः ।
मेदो घ्राणं च जिह्वा च कफस्य सुतरामुरः” ।। (अ.हृ.सू. 12/3)
कफ के भेद :-
सभी आचार्यों ने कफ के 5 भेद माने है|
1. अवलम्बक कफ
2. क्ले दक कफ
3. बोधक कफ
4. तर्पक कफ
5. श्लेषक कफ
अवलम्बक कफ:-
अष्टांग हृदय के अनुसार:-
उरःस्थः स त्रिकस्य स्ववीर्यतः ।
हृदयस्यान्न वीर्याच्च तत्स्थएवाम्बुकर्मणा ।।
कफघाम्नां च शेषाणां यत्करोत्यवलम्बनम् |
अतोऽवलम्बकः श्लेष्मा ।। (अ.ह.सू. 12/15,16)