मानस दोष

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ROHILKHAND AYURVEDIC

MEDICAL COLLEGE AND


HOSPITAL

SUBMITTED BY - SUBMITTED TO-

1. ANITESH SINGH (7). DR. AKHINNA SHASHIDHARAN


2. DEEPAK MATHUR (16)
3. ILMA MIRZA (24) DR. M. P. PRAJAPATI

4. JITENDRA KUMAR. ( 25 )
. BAMS 1ST PROF.
मानस दोष
दोष
दूषयन्तीति दोषाः
 जो शरीर (शरीरगत धातुओं] को दूषित करे उसे दोष कहते हैं।

दूषयन्ति मनः शरीरं चेति दोषाः । (सिद्धान्त निदान, तत्वदर्शिनी)


अर्थात जो मन और शरीर दोनो को दूषित करता है या दूषित करने में
. सक्षम हो उसे दोष कहते है l
दोष दो प्रकार के होते हैं-
. 1-शारीरिक दोष
मानसिक दोष
वायुः पित्तं कफचोक्तः शारीरो दोषसंग्रहः।
मानसः पुनरुद्दिष्टो रजश्च तम एव च ।।(च.सू. 1/57)
आचार्य चरक ने वात, पित्त एवं कफ तीन शारीरिक दोषों के साथ रज एवं
. तम दो मानसिक दोष का भी उल्लेख किया है।

अष्टांग हृदयकार ने भी रज एवं तम दो मानस दोषों को माना है।


“रजतमश्च मनसो द्वै च दोषावुदाहृतौ। (अ.हृ.सू. 1/21)
त्रिगुण
सत्वगुण
 निर्मल, प्रकाश स्वरूप और निर्विकार होता है, अतः मन को भी निर्मल, ज्ञानवान,
विकार रहित कर आनन्द पूर्ण कर देता है।
 सतोगुण प्रधान या सात्विक प्रकृ ति का व्यक्ति ज्ञान,
विज्ञान से सम्पन्न, काम, क्रोध,
लोभ, अहंकार से रहित, ओजस्वी, पवित्र मैत्री भाव वाला, आस्तिक आदि
विशेषताओं से युक्त होता है।
रजोगुण
 रागात्मक अर्थात् आसक्तिमय, तृष्णा या विषयासक्त होता है। यह मनुष्य को
कर्म करने हेतु प्रेरित करता है।
 रजो गुण की प्रधानता होने पर मनुष्य में लोभ, कार्य करने की अतिप्रवृत्ति,
नाना प्रकार की कामनाएँ उत्पन्न हो जाती है।
 तमोगुण
 यह प्रकृ ति का जड़ता मूलक भाव है। यह अज्ञानता को उत्पन्न करता
है। यह प्राणी को मूढ़ बनाकर प्रमाद, आलस्य एवं निद्रा में आसक्त कर
देता है।
 तामस प्रकृ ति के व्यक्ति में विषाद, नास्तिकता, अधर्म शीलता,
अकर्मण्यता, दुर्बुद्धि, अधिक निद्रा आना आदि गुण होते हैं।
 वास्तव में मन को प्रभावित करने वाले तीन कारण हैं, सत्व, रज एवं तम।
 परन्तु सत्व अविकारी और प्रकाशक होता है अतः यह दोष नहीं है किन्तु गुण है। अतः उसके द्वारा मन में किसी प्रकार का
विकार उत्पन्न नहीं हो सकता है।
 शेष दोनों गुण रज एवं तम मन को विकृ त करते हैं। इसलिए मानस दोषों में इन्हीं दोनों की गणना की जाती है।
 इनमें रज प्रधान होता है क्योंकि बिना रज की प्रवृत्ति ही नहीं होती-’नारजस्कं तमः प्रवर्तते’ (वि. ६)। अतः रज पहले वता
कर बाद में तम बताया है।
 मानस दोषों से उत्पन्न विकार –

रजस्तमश्च मानसौ दोषौ-तयोर्विकाराः कामक्रोधलोभमोहेर्ष्या-


मानमदशोकचित्तोद्वेगभयहर्षादयः । (च० वि० 6/6)
रज और तम मानस दोषों से उत्पन्न विकार हैं –
काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, अंहकार, अभिमान, शोक, चित्तग्लानि, भय, हर्ष आदि।
 मानस विकारों में पहले मन विकृ त होता है और फिर उसके प्रभाव से शरीर दोष भी विषम हो शरीर में विकृ ति उत्पन्न करते हैं।
 यदि मन को विकृ त करने वाले कारण हट जाते हैं तो सामान्यतः शरीर से विकार स्वयमेव नष्ट हो जाते हैं
 इसी प्रकार यदि वात, पित्त तथा कफ में किसी भी असाम्यास्था से शारीरिक विकार उत्पन्न होते हैं तो उनके प्रभाव से मन में
भी विकार उत्पन्न होने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता तथा शारीरिक विकार के कारणों के नष्ट हो जाने से
मानसिक असंतुलन भी संतुलित हो जाता है।
 रोगस्तु दोषवैषम्यं दोषसाम्यमरोगता ।। (अ० हृ० सू० 1/20)
 दोषों की विषमता का नाम रोग है; दोषों की समता का नाम अरोगता (आरोग्य) है।
 असाम्यावस्था के कारण-
शारीर एवं मानस दोनों प्रकार की असाम्यावस्था (विषमताओं) के तीन प्रधान कारण हैं-
 तत्र खल्वेषां द्वयानामपि दोषाणां त्रिविधं प्रकोपणं,तद्यथा -असात्म्येन्द्रिार्थसंयोगः, प्रज्ञापराधः परिणामश्चेति। (च० वि० 6/7)
1) असात्म्येन्द्रिार्थसंयोगः इन्द्रियों का अपने विषयों के साथ असात्म्य संयोग होना। असात्म्य संयोग का अर्थ है इन्द्रियों का अपने-
अपने विषय के साथ समयोग न होकर अतियोग, अयोग अथवा मिथ्यायोग का होना।
 2) प्रज्ञापराध –
. धीधृतिस्मृतिविभ्रष्टः कर्म यत् कु रुतेऽ शुभम् ।
प्रज्ञापराधं तं विद्यात् सर्वदोषप्रकोपणम् ।। (च.शा. 1/102)
बुद्धि, धैर्य एवं स्मृति के भ्रष्ट हो जाने से जब व्यक्ति अशुभ कमों का सम्पादन करता
है तब सभी शारीरिक एवं मानसिक दोष प्रकु पित हो जाते हैं।
 प्रज्ञा के अन्तर्गत धी (निश्चयात्मक बुद्धि), धृति (धारणात्मक बुद्धि) तथा स्मृति [ स्मरणात्मक बुद्धि] का समावेश है। इनका
अतियोग, अयोग अथवा मिथ्यायोग होना प्रज्ञापराध का कारण होता है।
3) परिणाम-

काल [ऋतुजन्य काल अथवा वातावरणजन्य काल] का अतियोग, अयोग अथवा मिथ्यायोग होना।
मानस रोग की चिकित्सा-
मानसो ज्ञानविज्ञानधैर्यस्मृतिसमाधिभिः ( च.सू.1/58)
मानस रोग ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, स्मृति और समाधि से शान्त होते हैं।
आचार्य वाग्भट के अनुसार-
धीधैर्यात्मादिविज्ञानं मनोदोषीषधं परम् ।
- धी, धृति और आत्मा आदि से सम्बन्धित विज्ञान को मन की श्रेष्ठ औषध (उपचार) माना है।
. मानस दोषो की सत्त्वावजय चिकित्सा भी बताई गई है
.सत्त्वावजय का तात्पर्य है -सत्त्व (मन) का अवजय (जीतना) ।
.ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, स्मृति इत्यादि का प्रयोग तब तक नहीं हो सकता जब तक मन को स्थिर न किया जाय, अतएव मानस रोगों में सत्त्वावजय ही मूल
चिकित्सा है।
.सत्त्वावजय को आजकल की भाषा में ‘Psycotherapy’ कह सकते हैं।

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