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गुण

 गुण शब्द की व्युत्पत्ति-


 गुण धातु में अच् प्रत्यय लगाने से गुण शब्द बनता है, जिसका अर्थ है स्वभाव, धर्म, विशेषता, ख्याति, लाभ, प्रभाव, उत्तमता, शुभ
परिणाम, लक्षण।

 निरूक्ति - (i) गुण्यते आमंत्र्यते लोक अनेन इति गुणाः ।

 द्रव्याश्रित जिस पदार्थ के कारण लोक (विश्व) (पुरुष) द्रव्य की ओर आकर्षित होता है, उसे गुण कहते हैं।

 गुण में क्रिया नहीं होती, यह कर्ता भी नहीं है, अप्रधान है। अतः गौण (द्रव्य की अपेक्षा) होने से इसे गुण कहा गया है।–
Gun
आकृ ष्यन्ते जनाः यस्मात् द्रव्य प्रति बलादिव|
गुर्वादयस्तता ख्याता गुणाख्या रज्जवो यथा ।
( प्रियवृत शर्मा)
जिन गुर्वादि (गुणों) के कारण लोग सहज ही द्रव्य के प्रति आकृ ष्ट हो जाते हैं उन्हे गुण कहते है। जिस प्रकार तंतुओं से
निर्मित रज्जु (रस्सी) में खींचने की शक्ति तभी आती है जब उसमें गुणन हो, उसी प्रकार द्रव्य में भी कर्म करने की
सामर्थ्य तभी होती है जब उसमे गुण हो |
गुण परिभाषा/ लक्षण – Definition

 समवायी तु निश्चेष्टः कारणं गुणः ।


(च०सू० अ०1/51)
जो समवाय सम्बन्ध से द्रव्य के आश्रित रहता हो, निश्चेष्ट (निष्क्रिय या कर्म रहित) हो, कारण (कार्य के प्रति
असमवायी कारण) हो उसको गुण कहा जाता है।

वैशेषिक दर्शन के अनुसार-


 दव्याश्रय अगुणवान् संयोग विभागेष्वकारणम् अनपेक्ष इतिगुण: लक्षणम् | (वै०६० अ०
1/16)
 जो द्रव्य के आश्रित हो, गुण या गुणान्तर से रहित हो और संयोग-विभाग में कारण न हो अर्थात् क्रियारहित हो उसे
गुण कहते हैं
गुण
(ii) कारिकावली के अनुसार-
अथ द्रव्याश्रिता ज्ञेया निर्गुणा निष्क्रिया गुणाः ।
गुण द्रव्य के आश्रित, गुण और क्रिया से रहित होते हैं।

(iv) नागार्जुन के अनुसार-


विश्व लक्षण गुणाः । (२० वै० 1/168)
कोटि (अनेक) लक्षण वाले पदार्थ को गुण कहते हैं।

(vi) सुश्रुत के अनुसार - निर्गुणास्तु गुणाः स्मृताः ।


अर्थात् गुणगुणरहित होते हैं
गुण
उपरोक्त सभी परिभाषाओं / लक्षणों से स्पष्ट है कि गुण पदार्थ समवाय सम्बन्ध से द्रव्य के आश्रित रहता है, कर्म रहित (निश्चेष्ट)
होता है, गुण रहित (अगुणवान्) होता है, कार्य के प्रति असमवायी कारण होता है, गुणत्व जातीवान् होता है। इनमें (गुणों में)
अनेकविध लक्षण (विश्व लक्षण) मिलते हैं तथा ये बमन, बृंहण, लेखन आदि कर्मों के साधक होते हैं। जिस प्रकार द्रव्य को
'पञ्चाश्रयलक्षणं' विपाक को 'परिणामलक्षण' एवं वीर्य को 'कर्मलक्षण' कहा गया है और क्रमशः द्रव्य, विपाक और वीर्य के इन लक्षणों
से उनके समस्त भेद- उपभेद का भी ग्रहण हो जाता है, उस प्रकार गुण का कोई एक विशिष्ट लक्षण नहीं होता जिससे समस्त गुणों
(गुरू, लघु, शीत आदि) का ग्रहण हो जाये। गुणों के परस्पर स्वरूप में अति भिन्नता होती है, यथा-शीत, उष्ण, श्लक्ष्ण, खर गुण
स्पर्शेन्द्रिय द्वारा ग्राह्य हैं, जबकि स्निग्ध गुण चक्षुरेन्द्रिय ग्राह्य है। अतः नागार्जुन द्वारा बताया गया गुण का लक्षण 'विश्वलक्षणा: गुणाः'
अर्थात् अनेकविध लक्षण वाला पदार्थ 'गुण' होता है, तर्क संगत है।
गुण का वर्गीकरण (Classification of Guna)
 । आचार्य चक्रपाणि के अनुसार गुण तीन प्रकार के होते हैं।

 १ वैशेषिक गुण. २ .सामान्य गुण ३ आत्मगुण---

 1. वैशेषिक गुण प्रत्येक महाभूत का एक विशेष गुण होता है इस प्रकार इन पांचो गुणों को वैशेषिक गुण कहते हैं

जैसे आकाश का शब्द, वायु का स्पर्श, अग्नि का रूप, जल का रस तथा पृथ्वी का गंध ये गुण नियत होते हैं, वैशेषिक
या इन्द्रिय गुण कहलाते हैं।
गुण

2. सामान्य गुण - गुर्वादि गुण एवं परादि गुण पंच महाभूतों में सामान्य रूप से पाये जाते हैं इसलिये इनको सामान्य
गुण कहा जाता है।ये गुण दो प्रकार के होते हैं।
 (अ) गुर्वादि गुण ये गुण द्रव्य के साथ-साथ शरीर में भी पाये जाते हैं इसलिए इनको शारीर गुण भी कहते हैं। चूंकि
चिकित्सा में भी इनका प्रयोग होता है इसलिए चिकित्सकीय गुण भी कहते हैं।
 (ब) परादि गुण चिकित्सा कर्म में सफलता प्राप्त करने के लिये परादि गणों का ज्ञान अति आवश्यक हैं
 3. आत्म गुण- इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, प्रयत्न, और बुद्धि इन छः गुणों को आत्म गुण कहा गया है।
गुणों की संख्या एवं वर्गीकरण

 चरक ने गुणों को चार भागों में बाटा है।

सार्थ गुर्वादयो बुद्धिः प्रयान्ताः परादयः ।गुणाः प्रोता:। (च. सू. 1/497)
 1. शब्दादि गुण (अर्थ)2. गुर्वादि गुण 3. आत्म गुण 4. परादि गुण
वैशेषिक गुण, (शब्दादि गुण (अर्थ) ,गुर्वादि गुण, परादि गुण और आध्यात्मिक गुण। ( आत्म गुण )

 (क) न्याय दर्शन इसमें गुणों की संख्या 24 बताई है।


 (ख) वैशेषिक दर्शन इसमें गुणों की संख्या 17 बताई गई है।
 (ग) चरक-गुणों की संख्या 41 कही है। .
गुण
 (1) वैशेषिक गुण-
 इन्हें साथ अर्थात् इन्द्रियार्थं या विशिष्ट गुण भी कहते हैं। शब्दादि गुण (अर्थ) आकाश में शब्द, वायु में स्पर्श, अग्नि में रूप, जल में
रस तथा पृथ्वी महाभूत में गंध गुण पाया जाता है। (च. शा. 1/27 )

(2) अध्यात्म गुण –आत्म गुण इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, प्रयत्न, और बुद्धि इन छः गुणों को आत्म गुण कहा गया है।

(3) गुर्वादि गुण-


इनकी संख्या के बारे में विभिन्न आचायों में मतभेद है। गुरु गुणों का पञ्चमहाभूत, शरीर और प्रयुक्त होने वाले आहार एवं औषध
द्रव्यों के साथ विशेष सम्बन्ध होने से गुर्वादि गुणों का द्रव्यगुण विज्ञान की दृष्टि से गुणों में सर्वोपरि स्थान है। गंगाधर सेन ने उपरोक्त
कारण से ही इन गुणों को 'शारीरगुण' कहा है।
गुर्वादि गुणों का विस्तृत अध्ययन
 गुर्वादि गुण- ये गुण द्रव्य के साथ साथ शरीर में भी पाये जाते हैं इसलिए इनको शारीर गुण भी कहते हैं। चिकित्सा में
भी इनका प्रयोग होता है इसलिए चिकित्सकीय गुण भी कहते हैं.

 गुरुमन्दहिमस्निग्धश्लक्ष्ण सान्द्र मृदुस्थिराः।


 गुणाः ससूक्ष्माविशदा विंशतिः सविपर्ययाः ॥ (अ०स०सू०1/38-39)

गुरु लघु सान्द्र द्रव


मंद तीक्ष्ण मृदु कठिन
हिम उष्ण स्थिर सर
स्निग्ध रुक्ष सूक्ष्म स्थूल
श्लक्ष्ण खर विशद पिच्छिल
1. गुरु गुण (Heavy)
 यस्य द्रव्यस्य बृंहणे शक्ति स गुरू: " (हेमाद्रि)
कार्मुकत्व -जो गुरूपाकी हो
शरीर में गुरूता उत्पन्न करे, बृंहण करने वाला।
कर्म -दोष: वातहर, कफवर्धक
धातु धातुवर्धक, बल्य
मल: मलवर्धक, माल अपकर्षण
अग्नि- अग्निमांधकर (चिरपाकी)
विशिष्ट कर्म- तृप्तिकारक, चिरपाकी, अग्निसादक, वृष्य
भौतिक संगठन- पृथ्वी और जल महाभूत की प्रधानता होतीहै।
रस: मधुर वीर्य : शीत , विपाक- मधुर
उदाहरण- माष, मुशली, घृत, दुग्ध
2. लघु गुण (Light)
 'लंघने लघु' (हेमाद्रि)
 लघु पथ्यं परं प्रोक्तं कफघ्नं शीघ्रपाकि च (भावप्रकाश मिश्र वर्ग)
 कार्मुकत्व यह गुरु गुण के विपरीत होता है मुख्य रूप से लेखन व रोपण कर्म करता है लघुपाकी शरीर में लघुता उत्पन्न करने वाला,
अग्निवर्धक।
 कर्म :दोष: कफहर, वातवर्धक
 धातु धातुक्षय, कृ शताकारक
 मल: मलक्षय
 विशिष्ट कर्म :स्त्रोतोशोधक, अतृप्तिकारक, शीघ्रपाकी, स्फू र्तिकारक, उत्साहकारक, दुर्बलताजनक
 भौतिक संगठन :- वायु, अग्नि, आकाश (नागार्जुन)
 उदाहरण:मुद्र, लाजा, शालि पटोल, मरिच, चव्य, जीरक, वचा
 जांगम द्रव्य कस्तूरी, प्रवाल, शंख, अजादुग्ध, एणमास
3. शीत गुण (Cold)
 स्तम्भने हिम:" (हेमाद्रि)
 जो शरीर में स्तंभन कर्म करे।
 कार्मुकत्व जिस गुण से शरीर में शीतलता उत्पन्न हो, दाहशामक, तुष्णाशामक
 रस : मधुर, तिक्त, कषाय विपाक मधुर वीर्य शीत
 कर्म -दोषकर्म : पितहर, वातकफवर्धक
 मल- मूत्रल, पुरोष स्तम्भक, स्वेद स्तम्भक
 धातु –धातुवर्धक अग्नि -अग्निमांधकर
विशिष्ट कर्म : रक्त स्तम्भक, दाहशामक, क्ले दकारक, गुरूपाकी, तृष्णानाशक
 भौतिक संगठन : जल महाभूत वायु पृथ्वी
 उदाहरण:चन्दन, दुर्वा, शतावरी, नारियल खरा, शालि षष्टिक, यव, गोधूम, मुदग् , जांगम द्रव्य प्रवाल, मुक्ता,
गोदुग्ध, भूत
4. उष्ण गुण (Hot)
 "स्वेदने उष्ण" (हेमाद्रि)
 कार्मुकत्व जिस गुण से शरीर में उष्णता या स्वेद उत्पन्न हो।
 उष्णो भवति शीतस्य विपरीतश्च पाचनः । (भावप्रकाश मिश्र वर्ग) :दोषकर्म :- पित्तवर्धक, वातकफहर
 धातु- धातुक्षय
 मल- पुरीषमूत्र ग्राही और स्वेद प्रवर्तक
 विशिष्ट कर्म: पाचन, दाहकर, तृष्णाजनक, स्वेदजनक, शीघ्रपाकी
 भौतिक संगठन- अग्नि महाभूत
 उदाहरण :मरिच, पिप्पली, हिंगु, चित्रक, चव्य, कण्टकारी
 जांगम द्रव्य -कस्तूरी, आनृपप्राणियों का मांस ।
5. स्निग्ध गुण (Lubricant)
 "यस्य क्ले दने शक्ति स स्निग्धः" [ हेमाद्रि ]
 द्रव्य में आश्रित जिस गुण में क्ले द उत्पन्न कर शरीर में स्निग्धता और मृदुता उत्पन्न करने की शक्ति हो, वह स्निग्ध गुण
कहा जायेगा।
 स्निग्ध गुण स्नेहकारक, मृदुता उत्पन करने वाला, बलवर्धक और वर्णकर है।( सु। सू।)
 भौतिक संगठन- जल महाभूत पृथ्वी
 रस- मधुर, अम्ल, लवण
कर्म -"स्त्रिग्धं वातहर श्लेष्मकारि वृष्यं बलावहम् " (भावप्रकाश मिश्र वर्ग) स्निग्ध गुण वातशामक, कफवर्धक, वृष्य
(पुस्त्वं शक्ति को बढ़ाने वाला) और बलवर्धक है।
दोषकर्म- वातहर कफवर्धक धातुकर्म- धातुवर्धक, बल वर्ण वर्धक
मलों पर कर्म- मल प्रवर्तक अग्नि -अग्निमांद्यकर
विशिष्ट कर्म- अभिष्यदि
उदाहरण -चतुर्विध स्नेह (मृत, तेल, वसा, मज्जा), बला, अतिबला, मुशली, अश्वगंधा, शालि, षष्टिक,गोधूम मुद्र
6. रूक्ष गुण (Dry)
'यस्य शोषणे शक्ति स रूक्षः" [ हेमाद्रि ]
 द्रव्याश्रित जिस गुण में शोषण के द्वारा शरीर में रूक्षता और शुष्कता उत्पन्न करने की शक्ति हो, वह रूक्ष गुण है।
 भौतिक संगठन - वायु अग्नि की प्रधानता। रस- कटुतिक्त, कषाय
 कर्म-" रूक्ष गुण वातकर परन्तु कफ का शमन करने वाला है।"( भा० प्र० मिश्र वर्ग)
 जिस गुण से स्निग्धता के विपरीत रूक्षता, खरता और स्तम्भन उत्पन्न हो। (सुश्रुत संहिता, सूत्र स्थान)
 दोषकर्म- वातकर, कफहर
 धातुकर्म धातु शोषक, बलवर्ण शोषक
 मलों मल शोषक, मल स्म्भक –
 विशिष्ट कर्म- अक्लिन्नकारक
 उदाहरण- यव, गुग्गुलु कोद्रव, अरहर, चणक, मुस्तक, वट, चव्य, चित्रक,
 जांगम द्रव्य -कस्तूरी, अम्बर, मधु गोमूत्र
7. मन्द गुण (Dull)
 यस्य शमने शक्तिः स मन्दः ।जिस गुण में दोषों को शमन करने की शक्ति हो वह मन्द गुण कहलाता है।
 मन्दः सकलकार्येषु शिथिलोऽल्पोऽपि कथ्यते । ( भावप्रकाश/मित्र वर्ग)
 मुख्य कर्म -शमन भौतिक संगठन- जल महाभूतपृथ्वी
 मन्द गुण सभी क्रियाओं को शिथिल और अल्प कर देता है।
 कर्म --
 दोष -कफवर्धक व पित्तशामक
 धातु- धातुवर्धक,बृंहण
 मल - मलसरण रोधक अग्नि- अग्निमांद्यकर
 उदाहरण- दही, गुडू ची, अतिविषा, कु टज,
8. तीक्ष्ण गुण (Sharp)
 यस्य शोधने शक्तिः स तीक्ष्णः (हेमाद्रि)
 जिस गुण में दोषों को शोधन करने की शक्ति हो वह तीक्ष्ण गुण कहलाता है।
 तीक्ष्ण गुण वाले द्रव्य शरीर में दाहजनक व स्त्राव वर्धक होते हैं।
 मुख्य कर्म –शोधन
 भौतिक संगठन -अग्नि महाभूत की प्रधानता
 कर्म-दोषक कफशामक व पित्तवर्धक
 धातु -धातुह्वास लेखन
 मल -मलशोधक व मलसारक
 अग्नि- अग्निवर्धक
 उदाहरण- मूलक, चित्रक, एरण्ड, कस्तूरी, अम्बर, मरिच, गोमूत्र, गोरोचन, भल्लातक
9. स्थिर गुण (Immobility)
 यस्य धारणे शक्ति: स स्थिर :
 जो धातुओ में स्थिरता उत्पन्न कर शरीर का धारण करे उसे स्थिर कहते है
 स्थिरो वातमलस्तम्भी सरस्तेषां प्रवर्तकः (भावप्रकाश मिश्र वर्ग)
 मुख्य कर्म -शमन
 भौतिक संगठन- पृथ्वी महाभूत
 स्थिर गुण अपानवायु व मल का स्तम्भन करता है।
 कर्म-दोष कफवर्धक व पित्तशामक
 धातु- धातुवर्धक, बृंहण
 मल- मलसरण रोधक
 अग्नि -अग्निमांद्यकर –
 उदाहरण- अश्वगंधा, क्षीरिणी, काकोली, बला, अतिबला,
 जांगम -द्रव्य मुक्ता, प्रवाल, शंख, शुक्ति।)
10. सर गुण (Mobility)
यस्य प्रेरणे शक्तिः स सरः। (हेमाद्रि)
जिस गुण में मल प्रवृत्ति की शक्ति हो वह सर गुण कहलाता है।
भौतिक संगठन- जल महाभूत की प्रधानता
मुख्य कर्म- मल प्रवर्तन
कर्मदोष -वातवर्धक
धातु- धातुह्वासकर
अग्नि -अग्निमांद्यकर –
मल -मलसारक
उदाहरण वास्तुक, आरवध, सनाय, गोमूत्र, गोरोचन, खुही, लांगली।
11. मृदु गुण (Soft)
 यस्य श्लथने शक्तिः स मृदुः । (हेमाद्रि)

 जिस गुण में दोषों को शिथिल करने की शक्ति हो वह मन्द गुण कहलाता है। अर्थात यह शरीर में शिथिलता उत्पन्न
करता है।
 भौतिक संगठन- जल महाभूत आकाश महाभूत प्रधान
 दोष कफवर्धक व वातपित्तशामक
 मुख्य कर्म –श्लथन
 कर्म- मार्दवकर, दाहनाशक
 धातु- धातुशैथिल्यकर
 अग्नि -अग्निमांद्यकर
 मल- शैथिल्यकर-
 उदाहरण -माष, मुसली, षष्टिक, शालि, द्राक्षा, एरण्ड आदि ।
 जांगम द्रव्य घृत, दुग्ध, वसा, मज्जा
12. कठिन गुण (Hard)
यस्य दृढीकरणे शक्तिः स कठिनः । (हेमाद्रि)
 द्रव्य के जिस गुण शरीर में दृढता उत्पन्न होती है वह कठिन गुण कहलाता है।
 मुख्य कर्म- दृढीकरण
 भौतिक संगठन -पृथ्वी महाभूत की प्रधानता
 कर्म- शारीरिक अवयवों में काठिन्य या दृढता लाने वाला।
 दोष- वातवर्धक, कफशामक
 धातु -दृढीकर- अग्नि- अग्निमांद्यकर
 मल- मलशोषक –
 उदाहरण- माषपर्णी माष मुशली, काकोली, ।
 जांगम द्रव्य- प्रवाल, शंख, वराटिका, मुक्ता आदि।
13. विशद गुण (Clarity)

 यस्य क्षालने शक्तिः स विशदः (हेमादि)


 जिस गुण में क्षालन कर्म करने की शक्ति हो अर्थात् जो पिच्छिलता को नष्ट करता है वह विशद गुण कहलाता है।
 मुख्य कर्म – क्षालन
 भौतिक संगठन- पृथ्वी वायु अग्नि महाभूत की प्रधानता ।
 कर्म- रोपण, बलहास, क्ले दशोषक
 दोष- कफशामक व वातवर्धक –
 धातु -धातुहास, लेखन
 मल –मलशोषक
 अग्नि- अग्निवर्धक
 उदाहरण- यव, निम्ब, कदम्ब, खदिर
14. पिच्छिल गुण (Sliminess)

 यस्य लेपने शक्तिः स पिच्छिलः । (हेमाद्रि)


 जिस गुण में लेपन करने की शक्ति हो वह पिच्छिल गुण कहलाता है।
 पिच्छिलस्तन्तुलो बल्यः सन्धानः श्लेष्मलो गुरुः । (भावप्रकाश मिश्र वर्ग)
 मुख्य कर्म – लेपन
 भौतिक संगठन- जल महाभूत प्रधान
 दोष- कफवर्धक व पित्तशामक
 कर्म- बल्य, संधानकर, जीवनीय
 धातु- धातुवर्धक, बृंहण
 मल- मलसरण वर्धक
 अग्नि- अग्निमांद्यकर
 उदाहरण- श्लेष्मातक, तालमखाना, मूशली, माष, गोधूम
 जांगम द्रव्य - दधि ।
15. श्लक्ष्ण गुण (Smooth)

 यस्य रोपणे शक्तिः स श्लक्ष्णः । (हेमाद्रि)


 जिस गुण में रोपण करने की शक्ति हो वह श्लक्ष्ण गुण कहलाता है।
 मुख्य कर्म – रोपण
 भौतिक संगठन- अग्नि महाभूत प्रधान (नागार्जुन), आकाश महाभूत प्रधान (सुश्रुत)
 कर्म - बल्य, संधानकर, जीवनीय, व्रणरोपण
 दोष -कफवर्धक व वातशामक
 धातु- धातुवर्धक, बृंहण
 मल- मलसरण वर्धक
 अग्नि- अग्निमांद्यकर
 उदाहरण- अतसी, तिल,
 जांगम द्रव्य- प्रवाल, मुक्ता, शंख।
 पार्थिव द्रव्य -घृताश्म, माणिक्य
16. खर गुण (Rough)

 यस्य लेखने शक्तिः स खरः । (हेमाद्रि)


 जिस गुण में लेखन कर्म करने की शक्ति हो वह खर गुण कहलाता है।
 मुख्य कर्म- लेखन
 भौतिक संगठन- पृथ्वी वायु महाभूत की प्रधानता । कर्म रोपण, बलहास, क्ले दशोषक
 दोष -कफशामक व वातवर्धक
 मल- मलशोषक
 धातु- धातुहास, लेखन
 अग्नि- अग्निवर्धक
 उदाहरण -गवेधुक, करंज –
 जांगम द्रव्य- शुक्ति
17. सूक्ष्म गुण (Subtle) fineness

 यस्य विवरणे शक्तिः स सूक्ष्मः। (हेमाद्रि)


 जिस गुण में विवरणे (स्त्रोतों में प्रवेश) करने की शक्ति हो वह सूक्ष्म गुण कहलाता है।
 देहस्य सूक्ष्मच्छिद्रेषु विशेद्यत्सूक्ष्ममुच्यते (भावप्रकाश मिश्र वर्ग)
 मुख्य कर्म विवरण (स्त्रोतों में प्रवेश) –
 भौतिक संगठन- आकाश वायु अग्नि महाभूत की प्रधानता।
 दोष- कफशामक व वातवर्धक –
 कर्म- बलहास-
 धातु- धातुहास
 मल- मलशोषक
 अग्नि- अग्निवर्धक
 उदाहरण- रसोन, तिल, गुग्गुल, एरण्डतैल, अहिफे न, वत्सनाभ, शिलाजतु
 जांगम द्रव्य- मधु गोमूत्र
 पार्थिव द्रव्य- पारस, शंखिया, गंधक आदि ।
 कटु, तिक्त ,अम्ल रस से युक्त ,कटु विपाकी, उष्ण वीर्य
18. स्थूल गुण (Bulkiness)
 यस्य संवरणे शक्तिः स स्थूलः (हेमाद्रि)
 जिस गुण में संवरण (मोटा करने की) शक्ति हो वह स्थूल गुण कहलाता है।
 स्थूलः स्थौल्यकरो देहे स्त्रोतसामवरोधकृ त् । (भावप्रकाश / वर्ग)
 मुख्य कर्म- संवरण
 भौतिक संगठन- पृथ्वी महाभूत प्रधान
 कर्म- बल्य, संधानकर, जीवनीय, स्त्रोतोरोधक
 दोष- कफवर्धक व वातशामक
 धातु- धातुवर्धक, बृंहण –
 मल- मलसरण वर्धक
 अग्नि- अग्निमांद्यकर
 उदाहरण- माष, कदली
 जांगम द्रव्य-दधि, श्रीखण्ड, पिष्टक, पिण्याक।
19. सांद्र गुण (Viscosity)
 यस्य प्रसादने शक्तिः स सांद्र: । (हेमाद्रि)
 जो गुण शरीर में जाकर अवयवों का प्रसादन करने की शक्ति रखता हो वह सांद्र गुण कहलाता है।
 मुख्य कर्म- प्रसादन
 भौतिक संगठन- पृथ्वी महाभूत प्रधान
 कर्म- बल्य संधानकर जीवनीय, बंधन
 दोष- कफवर्धक व वातशामक–
 धातु- धातुवर्धक बृंहण
 मल- मलवर्धक
 अग्नि- अग्निमांधकर
 उदाहरण- जीवक, ऋषभक काकोली आदि।
 जांगम द्रव्य- दधि, श्रीखण्ड, संतानिका । -
20. द्रव गुण (Liquid)

 यस्य विलोडने शक्तिः स द्रवः । (हेमाद्रि)


 जिस गुण में विलोडन की शक्ति हो वह द्रव गुण कहलाता है।
 द्रवः क्ले दकरो (भावप्रकाश / मित्र वर्ग)
 मुख्य कर्म- विलोडन( व्याप्त होने की शक्ति होती है )
 भौतिक संगठन- जल महाभूत प्रधान
 कर्म- क्ले द कारक स्यंदन
 दोष- कफवर्धक व वातशामक
 मल- मलसरण वर्धक
 धातु- धातुवर्धक, बृंहण
 अग्नि -अग्निमांद्यकर
 उदाहरण- तिल तेल, इक्षुरस, दूध, घृत, मूत्र
गुर्वादि गुणों की उपयोगिता
 ये गुण द्रव्य के साथ साथ शरीर में भी पाये जाते हैं इसलिए इनको शरीर भी कहते हैं।
 चिकित्सा में भी इनका प्रयोग होता है इसलिए चिकित्सकीय गुण भी कहते हैं
 शरीर पांचभौतिक है अतः शारीरिक तत्वों का वैषम्य होने पर सभी गुर्वादि गुणों का द्रव्यों के रूप में प्रयोग औषध के
लिये हो सकता है।
 शरीर में जिस महाभूत की कमी होती है, उसी महाभूतभूयिष्ठ गुण वाले द्रव्य का प्रयोग करना चाहिये, और अगर किसी
महाभूत की वृद्धि होती है
 तब उसके विपरीत गुणभूयिष्ठ महाभूत वाले गुण के द्रव्य का प्रयोग करना चाहिये।
 इस प्रकार सभी गुर्वादि गुणों वाले द्रव्यों का प्रयोग महाभूतों का चिंतन करके चिकित्सा में औषध के रूप में होता है।
Gurvadi
 इसी प्रकार आयुर्वेद के दोनों उद्देश्य
 स्वस्थस्य स्वास्थ्य रक्षणं,
 आतुरस्य विकार प्रशमनं (चरक संहित सूत्र 30126)

 अर्थात जो स्वस्थ है उसके स्वास्थ्य की रक्षा तथा जो रोगी हो गया है उसके रोग (विकार) का शमनकरना।
 और ये दोनों ही उद्देश्य गुर्वादि गुणों से युक्त द्रव्यों के युक्तिपूर्वक प्रयोग से सिद्ध होते हैं।

 मनुष्य और अन्य प्राणियों को अपने शरीर कि रक्षा के लिए गुर्वादि गुण युक्त द्रव्यों का आहार रूप में उपयोग करते है।

जिसके फलस्वरूप अनेक शरीरगत दोषों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है।
Gurvadi
 इन दोषों में निरन्तर वैषम्पर (उतार चढाव) होने के कारण नाना प्रकार के व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है।
 इन गुणों के माध्यम से क्षीर्ण एवं वृद्ध दोषों को क्रमशः वर्धन एवं क्षरन (क्षीणकरना) कर साम्यावस्था में लाया जाता है।
आचार्य चरक का सामान्य विशेष सिद्धांत है,जिसके अनुसार

सर्वदा सर्वभावानां सामान्यं वृद्धिकारणम् ।


ह्रासहेतुर्विशेषश्च प्रवृत्तिरुभयस्य तु ।। (च. सू. 1/44)
 अर्थात् सामान्य भाव मिलकर वृद्धि का कारण बनते हैं
 तथा विपरीत गुण या भाव मिलकर हास का कारण बनते हैं। दोनों की प्रवृत्ति हो तभी यह होता है।
परादिगुण
 के वल आचार्य चरक ने 10 परादि गुणों का वर्णन किया है।
 अन्य किसी संहिता में परादि गुणों का वर्णन नहीं मिलता ।
 चक्रपाणि दत्त द्वारा वर्णित सामान्य गुणों में पहला वर्ग 20 गुर्वादि गुणों का है और दूसरा 10 परादि गुणों का है।
 परादि गुणों की संख्या –परापरत्वे युक्तिश्च संख्या संयोग एव च।
 विभागश्च पृथक्त्वं च परिमाणम् अथ अपि च ।
 संस्कारोऽभ्यास इत्येते गुणा ज्ञेयाः परादयः ।
 सिद्धयुपायाः चिकित्सायालक्ष्णेस्तान् प्रचक्ष्महे (च०सू०अ०] [26/29-30)
 पर, अपर, युक्ति, संख्या, संयोग, विभाग, पृथक्त्व, परिमाण, संस्कार और अभ्यास ये 10 गुण परादि गुण कहलाते
हैं।
 इन 10 गुणों के ज्ञान के बिना चिकित्सा ठीक तरह से नहीं हो सकती। लेकिन चक्रपाणि ने इन गुणों को अति उपयोगी
नहीं माना है।
(1) पर गुण-
 'पर' गुण का अर्थ आचार्यों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से बताया है।

 (क) चरकमतानुसार- देश-काल-वयो-मान- पाक-वीर्य रसादिषु। परापरत्वे............(च०सू०अ० 26/31)
 इनके अनुसार देश-काल-वय-मान- पाक- वीर्य रसादि के सन्दर्भ में परत्व- अपरत्व का व्यवहार करना चाहिए
अर्थात् जो इस सन्दर्भ में उत्कृ ष्ट या सन्निकृ ष्ट है, वह पर है।

 (ख) चक्रपाणि मतानुसार- चरक के उपरोक्त कथन की टीका में ही चक्रपाणि ने 'पर' गुण की व्याख्या की हैं
 तच्च परत्वं प्रधानत्वम् ।
 परत्व का अर्थ है प्रधानता। एक ही जाति के द्रव्यों में से जो उत्कृ ष्ट (प्रधान) होता है वह 'पर' कहलाता है।
पर
 इसे और विस्तृत रूप में बताते हुए चक्रपाणि ने कहा है

 कि देशों में मरूदेश, काल में विसर्ग काल, वय में तरूण वयकाल, मान में शारीर स्थान में बताया शरीर का प्राकृ त
मान पाक वीर्य रस में शरीर हितकारी पाक वीर्य रस ही पर है हितकर (उत्तम) हों तो 'पर' कहलाते हैं।'

 (ग) योगीन्द्रनाथ सेन-


 चरक संहिता के टीकाकार योगीन्द्रनाथ सेन आयुर्वेद में उपयोगिता की दृष्टि से जो सन्निकृ ष्ट (समीपवर्ती ।या हितकर)
है उसे 'पर' मानते है--
अपर
(2) अपर गुण- 'पर' गुण की ही तरह 'अपर' गुण के अर्थ के बारे में भी आचार्य अलग-अलग दृष्टिकोण, रखते हैं।
 दरअसल पर और अपर परस्पर सापेक्ष गुण हैं।
 (क) चक्रपाणि के अनुसार - अपरत्वम् अप्रधानम् ।अप्रधान (निकृ ष्ट) को अपर कहते हैं। पर गुण के वर्णन में देश
काल आदि के जो पर (प्रधान) भाव बताये हैं उनके विपरीत (अप्रधान) भाव को अपर बताया है,
 (ख) वैशेषिकदर्शन के अनुसार- पर गुण के विपरीत, देश और काल की दृष्टि से जो विप्रकृ ष्ट (दूरवर्ती) हो वह अपर
है।
 (ग) योगीन्द्रनाथ सेन- आयुर्वेदशास्त्र में उपयोगिता की दृष्टि से पर गुण के विपरीत विप्रकृ ष्ट (अहितकारी) भाव को
अपर कहते हैं।
अपर
 अर्थात आरोग्य की दृष्टि से देशो में मरु देश पर (श्रेष्ठ) है तथा आनूपदेश अपर (अश्रेष्ठ) है।
 आग्नेय गुण वाली औषधियाँ उष्ण विंध्यप्रदेश की श्रेष्ठ (पर) होती हैं तथा शीत गुण वाली औषधियाँ हिमालय की
श्रेष्ठ (पर ) होती हैं।

 जबकि इसके उलट आग्नेय गुण वाली औषधियाँ हिमालय की अश्रेष्ठ (अपर) होती हैं तथा शीत गुण वाली
औषधियाँ उष्ण विध्यप्रदेश की अश्रेष्ठ (अपर) होती हैं।
 काल के संदर्भ में- कालो विसर्गः परः, आदानमपरः-
 बल की दृष्टि से काल में विसर्ग काल पर (श्रेष्ठ) है तथा आदान काल अपर (अश्रेष्ठ) है।
 वय के संदर्भ में- वयस्तरुणं परम्, अपरमितरत्
 आरोग्य की दृष्टि से तरुणावस्था पर (श्रेष्ठ) है तथा अन्य वय की अवस्थायें इससे अपर (अश्रेष्ठ) है।
अपर
 मान के संदर्भ में -
 शरीर का जो प्राकृ त मान बताया गया है वह पर (श्रेष्ठ) है तथा इससे भिन्न मान अपर (अश्रेष्ठ है।
 इसके अलावा आयुर्वेद में कालिंग तथा मागध मान बताया गया है, जिसमे मागध मान श्रेष्ठ है तथा कालिंगमान हीन है।
 विपाक के संदर्भ में- बलवर्धन की दृष्टि से मधुर विपाकी द्रव्य पर (श्रेष्ठ) है तथा कटु विपाक द्रव्य अपर(अश्रेष्ठ) होते हैं।
 वीर्य के संदर्भ में -बलवर्धन की दृष्टि से शीत वीर्य द्रव्य पर (श्रेष्ठ) है तथा उष्ण वीर्य द्रव्य अपर (अश्रेष्ठ)होते हैं।
 रस के संदर्भ में -बलवर्धन की दृष्टि से मधुर रस पर (श्रेष्ठ) है तथा कषाय रस अपर (अश्रेष्ठ) होते हैं। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर
भी पर अपर का मनन किया जा सकता है।
( 3 ) युक्ति-
 परिभाषा-युक्तिश्च योजना या तु युज्यते। (च०सू० अ० 26/31)
 अर्थात् योजना को ही युक्ति कहा जाता है।
 -(2) चक्रपाणि के अनुसार- दोषादि (दोष, देश, प्रकृ ति, काल आदि) का विचार कर औषध की समचीनी कल्पना
को योजना कहते हैं।
 इस योजना को ही युक्ति कहते हैं।
 यदि यह औषध कल्पना (योजना) यौगिकी अर्थात् सम्यक् हुई है या प्रयोग करने पर शरीर के लिए हितकर है तो हो
इसे युक्ति संज्ञा दी जाती है।

 यदि यह कल्पना अयौगिकी अर्थात् असम्यक् या अहितकारी है तो इसे युक्ति की संज्ञा नहीं दी जाती है
युक्ति
 युक्ति का महत्त्व बताते हुए आचार्य चरक ने कहा है-
 योगविन्नामरूपस्तासां तत्त्वविदुच्यते (च०सू० 1/123)

 अर्थात् औषधियों के तत्त्व को जानने वाला तत्त्वज्ञ कहलाता है। युक्ति को जानने वाले वैद्य का स्थान सर्वोपरि बताते
हुए कहा गया हैं

 मात्रा कालाश्रया युक्तिः सिद्धिः युक्तौ प्रतिष्ठिता ।
 तिष्ठत्युपरियुक्तज्ञो द्रव्यज्ञानवतां सदा (च०सू०310 2/26)

 अर्थात् युक्ति मात्रा और काल' के आश्रित है। चिकित्सा में सिद्धि युक्ति पर आश्रित है, लेकिन द्रव्य का ज्ञान रखने
वाला युक्तिज्ञ सदा सर्वोपरि है।
( 4 ) संख्या
 परिभाषा-
 संख्या शब्द दो पदों अर्थात् सम्यक् और ख्यान को मिलाने पर बनता है। जिसका अर्थ होता है सम्यक् ज्ञान।
 (क) संख्या स्याद् गणितम् । ( च०सू०अ० 26/32)
गणित को संख्या कहते हैं –

 गणना व्यवहार के हेतु एक-दो-तीन आदि को संख्या कहते हैं।एक ही जाति के पदार्थ या प्राणियों के भेद बताने के
लिए संख्या का प्रयोग होता है,

 यथा- मधुमक्खियों की 8 जातियों, स्नेह की चार योनियाँ, पचास महाकषाय आदि।


5. संयोग (Combination)
 द्रव्याणां द्वन्द्वसर्वककर्मजोऽनित्य एव च ।।
 योगः सह संयोग उच्यते
 दो या अधिक द्रव्यों के साथ जुड़ने को संयोग कहते हैं।
 या द्रव्यों के परस्पर योग को संयोग कहते हैं। यह संयोग अनित्य होता है। क्युंकि यह अलग हो सकता है।
 संयोग के तीन प्रकार होते हैं।
 1. एक कर्मज संयोग - जब दो पक्षों के संयोग में एक पक्ष क्रियाशील हो तथा दूसरा पक्ष क्रियाहीन हो।जैसे किसी कौए का वृक्ष पर
बैठना।

 2. द्वंदकर्मज संयोग- जब दो पक्षों के संयोग में दोनों पक्ष क्रियाशील हों।- जैसे- परस्पर लड़ते हुए दो भेडों का मिलना।
 3. सर्वकर्मज संयोग - इस प्रकार के संयोग में सभी द्रव्य कार्य करते हैं। जैसे- बहुत से उड़द दाल के दाने एक बर्तन में डालने से
दानों की क्रिया से उत्पन्न संयोग ।-आधुनिक दृष्टि से संयोग 2 प्रकार का होता है।
 1. भौतिक संयोग2. रासायनिक संयोग
विभाग (Division)
 विभागस्तु विभक्तिः स्याद्वियोगो भागशो ग्रहः। (च.सू. 26/33 )
 द्रव्यों के संयोग को अलग कर देना विभाग कहलाता है। यह भी अनित्य है क्यूंकि संयोग से विभाग का नाश हो जाता
है।
 विभाग के भी तीन प्रकार होते हैं।
 1. एक कर्मज विभाग- जब दो पक्षों के विभाग में एक पक्ष क्रियाशील हो तथा दूसरा पक्ष क्रियाहीन हो।जैसे किसी कौए
का वृक्ष से उड जाना ।
 2. द्वंदकर्मज विभाग- जब दो पक्षों के विभाग में दोनों पक्ष क्रियाशील हों। - जैसे- परस्पर लडते हुए दो भेडों का
अलग हो जाना।
 3. सर्वकर्मज विभाग -इस प्रकार के विभाग में सभी द्रव्य कार्य करते हैं।-जैसे बहुत से उड़द दाल के दाने अलग कर
देना।
विभाग
 कु छ आचार्यों ने विभाग के अलग से तीन भाग किये हैं।
 1. विभक्ति- किसी द्रव्य को टुकड़ों में बांट देना। जैसे गुड़ची के छोटे छोटे टुकडे करना। -

 2. वियोग- जब दो पक्ष परस्पर अलग अलग हो जायें या अपने अपने गुण दर्शायें।जैसे सत्रिपातज विकारों में दोष दूष्यों
का पृथकभाव ।

 3. भागशो ग्रह- किसी द्रव्य को कई मात्राओं में विभाजित कर देना भागशो ग्रह कहलाता है।जैसे त्रिफला चूर्ण को
विभिन्न मात्राओं में विभाजित कर देना
7. पृथकत्व (Sepration )
 पृथक्त्वं स्यादसंयोगो वैलक्षण्यमनेकता।।
 जब दो द्रव्य बिल्कु ल अलग हो जैसे घट और पट को देखकर ये अलग अलग हैं एसा ज्ञान हो उसे पृथक्व कहते हैं अर्थात पृथक्त्व
एक द्रव्य को दुसरे से भिन्न बताने वाला गुण है।
 रोगों के सापेक्ष निदान हेतु पृथकत्व गुण का उपयोग किया जाता है।पृथक्त्व भी तीन प्रकार का होता है।
 1. असंयोग- जब देश व काल के व्यवधान के कारण दो पक्षों का मिलन असंभव हो अर्थात कभी भी -संयोग की संभावना ना हो
उसे असंयोग कहते हैं।जैसे हिमालय और मेरु पर्वत का पृथकत्व
 2. वैलक्षण्य- जब दो पक्षों का मिलन असंभव ना हो अर्थात संयोग की संभावना तो हो किं तु दोनों की - अपनी जाति हो। जैसे
संयुक्त हुये द्रव्यों में भी विजातीय महिष और वराह आदि का पृथकत्व वैलक्षण्य कहलायेगा।
 3. अनेकता- एक ही जाति के द्रव्यों का अपने अपने लक्षणों के कारण पृथकत्व। जैसे एक जाति के माष को वर्ण, आकृ ति के आधार
पर पृथक कर देना
8. परिमाण (Measurement)
 परिमाणं पुनर्मानं ।
 मान को परिमाण कहते हैं।
 मापने योग्य मान जैसे प्रस्थ आढक, तुला आदि –
 परिमाण के दो प्रकार होते हैं –
 1. दैधर्यमान (Dimension)-
 2. गुरुत्वमान (Weight)
 1. दैर्घ्यमान- (यह नित्य द्रव्य में नित्य तथा अनित्य द्रव्य में अनित्य होता है।) –
 अनित्यमान कारण भेद से तीन प्रकार का होता है।
 (अ) संख्या जन्य- जैसे दयगुक आदि में।
 (ब) परिणाम जन्य जैसे घट आदि में।
 (स) प्रचय जन्य जैसे रूई आदि में।
 2. गुरुत्व मान- यह भी नित्य तथा अनित्य दो प्रकार का होता है। प्रस्थ आढक, तुला आदि के रूप में इसकी
अभिव्यक्ति की जाती है।
9. संस्कार
 संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते। (च.वि. 1/22)
 द्रव्य के गुणों में परिवर्तन (अन्तराधान) करने को ही संस्कार कहते हैं।
 संस्कारो के द्वारा गुणों का अन्तराधान तथा दोषों को दूर किया जाता है।

 संस्कारः करणं मतम्। (च. सू. )

 संस्कार करण को कहते हैं। द्रव्यों में जो गुण उपस्थित नहीं हैं ऐसे गुणों का आधान करना तथा हानिकारक गुणों का
नाश करना संस्कार कहलाता है।
 संस्कार के द्वारा द्रव्यों में स्थित दोषों को दूर कर नये गुण उत्पन्न किये जाते हैं।
 द्रव्यों को संस्कारित करने के लिये स्वेदन, मर्दन, भावना, भर्जन, पुटपाक आदि प्रक्रियाएं की जाती हैं।
10. अभ्यास (Practice)
भावाभ्यसनमभ्यासः शीलनं सततक्रिया।। (च. सू. 26/34)
 द्रव्य का सतत सेवन अभ्यास कहलाता है।
 पर्याय- शीलन और सतत क्रिया
 किसी भी आहार, विहार या औषध का लाभ उसके सतत सेवन से ही होता है।
 विषम दोषों के विपरीत गुण वाले द्रव्यों के निरंतर सेवन से विषम दोष समाप्त होकर सम दोषों का पुनःस्थापन होता
है। चिकित्सा में इस गुण का बहुत महत्व है।
 रोगों की स्थिति के अनुसार औषध द्रव्यों का उपयोग कब तक करना है यह अभ्यास गुण के कारण ही सम्भव हो पाता
है।

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