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गुण
गुण
द्रव्याश्रित जिस पदार्थ के कारण लोक (विश्व) (पुरुष) द्रव्य की ओर आकर्षित होता है, उसे गुण कहते हैं।
गुण में क्रिया नहीं होती, यह कर्ता भी नहीं है, अप्रधान है। अतः गौण (द्रव्य की अपेक्षा) होने से इसे गुण कहा गया है।–
Gun
आकृ ष्यन्ते जनाः यस्मात् द्रव्य प्रति बलादिव|
गुर्वादयस्तता ख्याता गुणाख्या रज्जवो यथा ।
( प्रियवृत शर्मा)
जिन गुर्वादि (गुणों) के कारण लोग सहज ही द्रव्य के प्रति आकृ ष्ट हो जाते हैं उन्हे गुण कहते है। जिस प्रकार तंतुओं से
निर्मित रज्जु (रस्सी) में खींचने की शक्ति तभी आती है जब उसमें गुणन हो, उसी प्रकार द्रव्य में भी कर्म करने की
सामर्थ्य तभी होती है जब उसमे गुण हो |
गुण परिभाषा/ लक्षण – Definition
1. वैशेषिक गुण प्रत्येक महाभूत का एक विशेष गुण होता है इस प्रकार इन पांचो गुणों को वैशेषिक गुण कहते हैं
जैसे आकाश का शब्द, वायु का स्पर्श, अग्नि का रूप, जल का रस तथा पृथ्वी का गंध ये गुण नियत होते हैं, वैशेषिक
या इन्द्रिय गुण कहलाते हैं।
गुण
2. सामान्य गुण - गुर्वादि गुण एवं परादि गुण पंच महाभूतों में सामान्य रूप से पाये जाते हैं इसलिये इनको सामान्य
गुण कहा जाता है।ये गुण दो प्रकार के होते हैं।
(अ) गुर्वादि गुण ये गुण द्रव्य के साथ-साथ शरीर में भी पाये जाते हैं इसलिए इनको शारीर गुण भी कहते हैं। चूंकि
चिकित्सा में भी इनका प्रयोग होता है इसलिए चिकित्सकीय गुण भी कहते हैं।
(ब) परादि गुण चिकित्सा कर्म में सफलता प्राप्त करने के लिये परादि गणों का ज्ञान अति आवश्यक हैं
3. आत्म गुण- इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, प्रयत्न, और बुद्धि इन छः गुणों को आत्म गुण कहा गया है।
गुणों की संख्या एवं वर्गीकरण
सार्थ गुर्वादयो बुद्धिः प्रयान्ताः परादयः ।गुणाः प्रोता:। (च. सू. 1/497)
1. शब्दादि गुण (अर्थ)2. गुर्वादि गुण 3. आत्म गुण 4. परादि गुण
वैशेषिक गुण, (शब्दादि गुण (अर्थ) ,गुर्वादि गुण, परादि गुण और आध्यात्मिक गुण। ( आत्म गुण )
(2) अध्यात्म गुण –आत्म गुण इच्छा, द्वेष, सुख, दुख, प्रयत्न, और बुद्धि इन छः गुणों को आत्म गुण कहा गया है।
जिस गुण में दोषों को शिथिल करने की शक्ति हो वह मन्द गुण कहलाता है। अर्थात यह शरीर में शिथिलता उत्पन्न
करता है।
भौतिक संगठन- जल महाभूत आकाश महाभूत प्रधान
दोष कफवर्धक व वातपित्तशामक
मुख्य कर्म –श्लथन
कर्म- मार्दवकर, दाहनाशक
धातु- धातुशैथिल्यकर
अग्नि -अग्निमांद्यकर
मल- शैथिल्यकर-
उदाहरण -माष, मुसली, षष्टिक, शालि, द्राक्षा, एरण्ड आदि ।
जांगम द्रव्य घृत, दुग्ध, वसा, मज्जा
12. कठिन गुण (Hard)
यस्य दृढीकरणे शक्तिः स कठिनः । (हेमाद्रि)
द्रव्य के जिस गुण शरीर में दृढता उत्पन्न होती है वह कठिन गुण कहलाता है।
मुख्य कर्म- दृढीकरण
भौतिक संगठन -पृथ्वी महाभूत की प्रधानता
कर्म- शारीरिक अवयवों में काठिन्य या दृढता लाने वाला।
दोष- वातवर्धक, कफशामक
धातु -दृढीकर- अग्नि- अग्निमांद्यकर
मल- मलशोषक –
उदाहरण- माषपर्णी माष मुशली, काकोली, ।
जांगम द्रव्य- प्रवाल, शंख, वराटिका, मुक्ता आदि।
13. विशद गुण (Clarity)
मनुष्य और अन्य प्राणियों को अपने शरीर कि रक्षा के लिए गुर्वादि गुण युक्त द्रव्यों का आहार रूप में उपयोग करते है।
जिसके फलस्वरूप अनेक शरीरगत दोषों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है।
Gurvadi
इन दोषों में निरन्तर वैषम्पर (उतार चढाव) होने के कारण नाना प्रकार के व्याधियों से ग्रस्त हो जाता है।
इन गुणों के माध्यम से क्षीर्ण एवं वृद्ध दोषों को क्रमशः वर्धन एवं क्षरन (क्षीणकरना) कर साम्यावस्था में लाया जाता है।
आचार्य चरक का सामान्य विशेष सिद्धांत है,जिसके अनुसार
(ख) चक्रपाणि मतानुसार- चरक के उपरोक्त कथन की टीका में ही चक्रपाणि ने 'पर' गुण की व्याख्या की हैं
तच्च परत्वं प्रधानत्वम् ।
परत्व का अर्थ है प्रधानता। एक ही जाति के द्रव्यों में से जो उत्कृ ष्ट (प्रधान) होता है वह 'पर' कहलाता है।
पर
इसे और विस्तृत रूप में बताते हुए चक्रपाणि ने कहा है
कि देशों में मरूदेश, काल में विसर्ग काल, वय में तरूण वयकाल, मान में शारीर स्थान में बताया शरीर का प्राकृ त
मान पाक वीर्य रस में शरीर हितकारी पाक वीर्य रस ही पर है हितकर (उत्तम) हों तो 'पर' कहलाते हैं।'
जबकि इसके उलट आग्नेय गुण वाली औषधियाँ हिमालय की अश्रेष्ठ (अपर) होती हैं तथा शीत गुण वाली
औषधियाँ उष्ण विध्यप्रदेश की अश्रेष्ठ (अपर) होती हैं।
काल के संदर्भ में- कालो विसर्गः परः, आदानमपरः-
बल की दृष्टि से काल में विसर्ग काल पर (श्रेष्ठ) है तथा आदान काल अपर (अश्रेष्ठ) है।
वय के संदर्भ में- वयस्तरुणं परम्, अपरमितरत्
आरोग्य की दृष्टि से तरुणावस्था पर (श्रेष्ठ) है तथा अन्य वय की अवस्थायें इससे अपर (अश्रेष्ठ) है।
अपर
मान के संदर्भ में -
शरीर का जो प्राकृ त मान बताया गया है वह पर (श्रेष्ठ) है तथा इससे भिन्न मान अपर (अश्रेष्ठ है।
इसके अलावा आयुर्वेद में कालिंग तथा मागध मान बताया गया है, जिसमे मागध मान श्रेष्ठ है तथा कालिंगमान हीन है।
विपाक के संदर्भ में- बलवर्धन की दृष्टि से मधुर विपाकी द्रव्य पर (श्रेष्ठ) है तथा कटु विपाक द्रव्य अपर(अश्रेष्ठ) होते हैं।
वीर्य के संदर्भ में -बलवर्धन की दृष्टि से शीत वीर्य द्रव्य पर (श्रेष्ठ) है तथा उष्ण वीर्य द्रव्य अपर (अश्रेष्ठ)होते हैं।
रस के संदर्भ में -बलवर्धन की दृष्टि से मधुर रस पर (श्रेष्ठ) है तथा कषाय रस अपर (अश्रेष्ठ) होते हैं। इसी प्रकार अन्य स्थानों पर
भी पर अपर का मनन किया जा सकता है।
( 3 ) युक्ति-
परिभाषा-युक्तिश्च योजना या तु युज्यते। (च०सू० अ० 26/31)
अर्थात् योजना को ही युक्ति कहा जाता है।
-(2) चक्रपाणि के अनुसार- दोषादि (दोष, देश, प्रकृ ति, काल आदि) का विचार कर औषध की समचीनी कल्पना
को योजना कहते हैं।
इस योजना को ही युक्ति कहते हैं।
यदि यह औषध कल्पना (योजना) यौगिकी अर्थात् सम्यक् हुई है या प्रयोग करने पर शरीर के लिए हितकर है तो हो
इसे युक्ति संज्ञा दी जाती है।
यदि यह कल्पना अयौगिकी अर्थात् असम्यक् या अहितकारी है तो इसे युक्ति की संज्ञा नहीं दी जाती है
युक्ति
युक्ति का महत्त्व बताते हुए आचार्य चरक ने कहा है-
योगविन्नामरूपस्तासां तत्त्वविदुच्यते (च०सू० 1/123)
अर्थात् औषधियों के तत्त्व को जानने वाला तत्त्वज्ञ कहलाता है। युक्ति को जानने वाले वैद्य का स्थान सर्वोपरि बताते
हुए कहा गया हैं
मात्रा कालाश्रया युक्तिः सिद्धिः युक्तौ प्रतिष्ठिता ।
तिष्ठत्युपरियुक्तज्ञो द्रव्यज्ञानवतां सदा (च०सू०310 2/26)
अर्थात् युक्ति मात्रा और काल' के आश्रित है। चिकित्सा में सिद्धि युक्ति पर आश्रित है, लेकिन द्रव्य का ज्ञान रखने
वाला युक्तिज्ञ सदा सर्वोपरि है।
( 4 ) संख्या
परिभाषा-
संख्या शब्द दो पदों अर्थात् सम्यक् और ख्यान को मिलाने पर बनता है। जिसका अर्थ होता है सम्यक् ज्ञान।
(क) संख्या स्याद् गणितम् । ( च०सू०अ० 26/32)
गणित को संख्या कहते हैं –
गणना व्यवहार के हेतु एक-दो-तीन आदि को संख्या कहते हैं।एक ही जाति के पदार्थ या प्राणियों के भेद बताने के
लिए संख्या का प्रयोग होता है,
2. द्वंदकर्मज संयोग- जब दो पक्षों के संयोग में दोनों पक्ष क्रियाशील हों।- जैसे- परस्पर लड़ते हुए दो भेडों का मिलना।
3. सर्वकर्मज संयोग - इस प्रकार के संयोग में सभी द्रव्य कार्य करते हैं। जैसे- बहुत से उड़द दाल के दाने एक बर्तन में डालने से
दानों की क्रिया से उत्पन्न संयोग ।-आधुनिक दृष्टि से संयोग 2 प्रकार का होता है।
1. भौतिक संयोग2. रासायनिक संयोग
विभाग (Division)
विभागस्तु विभक्तिः स्याद्वियोगो भागशो ग्रहः। (च.सू. 26/33 )
द्रव्यों के संयोग को अलग कर देना विभाग कहलाता है। यह भी अनित्य है क्यूंकि संयोग से विभाग का नाश हो जाता
है।
विभाग के भी तीन प्रकार होते हैं।
1. एक कर्मज विभाग- जब दो पक्षों के विभाग में एक पक्ष क्रियाशील हो तथा दूसरा पक्ष क्रियाहीन हो।जैसे किसी कौए
का वृक्ष से उड जाना ।
2. द्वंदकर्मज विभाग- जब दो पक्षों के विभाग में दोनों पक्ष क्रियाशील हों। - जैसे- परस्पर लडते हुए दो भेडों का
अलग हो जाना।
3. सर्वकर्मज विभाग -इस प्रकार के विभाग में सभी द्रव्य कार्य करते हैं।-जैसे बहुत से उड़द दाल के दाने अलग कर
देना।
विभाग
कु छ आचार्यों ने विभाग के अलग से तीन भाग किये हैं।
1. विभक्ति- किसी द्रव्य को टुकड़ों में बांट देना। जैसे गुड़ची के छोटे छोटे टुकडे करना। -
2. वियोग- जब दो पक्ष परस्पर अलग अलग हो जायें या अपने अपने गुण दर्शायें।जैसे सत्रिपातज विकारों में दोष दूष्यों
का पृथकभाव ।
3. भागशो ग्रह- किसी द्रव्य को कई मात्राओं में विभाजित कर देना भागशो ग्रह कहलाता है।जैसे त्रिफला चूर्ण को
विभिन्न मात्राओं में विभाजित कर देना
7. पृथकत्व (Sepration )
पृथक्त्वं स्यादसंयोगो वैलक्षण्यमनेकता।।
जब दो द्रव्य बिल्कु ल अलग हो जैसे घट और पट को देखकर ये अलग अलग हैं एसा ज्ञान हो उसे पृथक्व कहते हैं अर्थात पृथक्त्व
एक द्रव्य को दुसरे से भिन्न बताने वाला गुण है।
रोगों के सापेक्ष निदान हेतु पृथकत्व गुण का उपयोग किया जाता है।पृथक्त्व भी तीन प्रकार का होता है।
1. असंयोग- जब देश व काल के व्यवधान के कारण दो पक्षों का मिलन असंभव हो अर्थात कभी भी -संयोग की संभावना ना हो
उसे असंयोग कहते हैं।जैसे हिमालय और मेरु पर्वत का पृथकत्व
2. वैलक्षण्य- जब दो पक्षों का मिलन असंभव ना हो अर्थात संयोग की संभावना तो हो किं तु दोनों की - अपनी जाति हो। जैसे
संयुक्त हुये द्रव्यों में भी विजातीय महिष और वराह आदि का पृथकत्व वैलक्षण्य कहलायेगा।
3. अनेकता- एक ही जाति के द्रव्यों का अपने अपने लक्षणों के कारण पृथकत्व। जैसे एक जाति के माष को वर्ण, आकृ ति के आधार
पर पृथक कर देना
8. परिमाण (Measurement)
परिमाणं पुनर्मानं ।
मान को परिमाण कहते हैं।
मापने योग्य मान जैसे प्रस्थ आढक, तुला आदि –
परिमाण के दो प्रकार होते हैं –
1. दैधर्यमान (Dimension)-
2. गुरुत्वमान (Weight)
1. दैर्घ्यमान- (यह नित्य द्रव्य में नित्य तथा अनित्य द्रव्य में अनित्य होता है।) –
अनित्यमान कारण भेद से तीन प्रकार का होता है।
(अ) संख्या जन्य- जैसे दयगुक आदि में।
(ब) परिणाम जन्य जैसे घट आदि में।
(स) प्रचय जन्य जैसे रूई आदि में।
2. गुरुत्व मान- यह भी नित्य तथा अनित्य दो प्रकार का होता है। प्रस्थ आढक, तुला आदि के रूप में इसकी
अभिव्यक्ति की जाती है।
9. संस्कार
संस्कारो हि गुणान्तराधानमुच्यते। (च.वि. 1/22)
द्रव्य के गुणों में परिवर्तन (अन्तराधान) करने को ही संस्कार कहते हैं।
संस्कारो के द्वारा गुणों का अन्तराधान तथा दोषों को दूर किया जाता है।
संस्कार करण को कहते हैं। द्रव्यों में जो गुण उपस्थित नहीं हैं ऐसे गुणों का आधान करना तथा हानिकारक गुणों का
नाश करना संस्कार कहलाता है।
संस्कार के द्वारा द्रव्यों में स्थित दोषों को दूर कर नये गुण उत्पन्न किये जाते हैं।
द्रव्यों को संस्कारित करने के लिये स्वेदन, मर्दन, भावना, भर्जन, पुटपाक आदि प्रक्रियाएं की जाती हैं।
10. अभ्यास (Practice)
भावाभ्यसनमभ्यासः शीलनं सततक्रिया।। (च. सू. 26/34)
द्रव्य का सतत सेवन अभ्यास कहलाता है।
पर्याय- शीलन और सतत क्रिया
किसी भी आहार, विहार या औषध का लाभ उसके सतत सेवन से ही होता है।
विषम दोषों के विपरीत गुण वाले द्रव्यों के निरंतर सेवन से विषम दोष समाप्त होकर सम दोषों का पुनःस्थापन होता
है। चिकित्सा में इस गुण का बहुत महत्व है।
रोगों की स्थिति के अनुसार औषध द्रव्यों का उपयोग कब तक करना है यह अभ्यास गुण के कारण ही सम्भव हो पाता
है।