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साखियाँ एवं सबद

क्षितिज भाग -1

कक्षा-9(अ) पाठ्यक्रम
संक्षिप्त जीवन परिचय
संत कबीरदास हिंदी साहित्य में भक्ति काल के
इकलौते ऐसे कवि हैं, जो आजीवन समाज और
लोगों के बीच व्याप्त आडंबरों पर कु ठाराघात करते
रहे हैं। वह कर्म प्रधान समाज के पैरोकार थे
और इसकी झलक उनकी रचनाओं में साफ़
झलकती है। लोक कल्याण हेतु ही मानो उनका
समस्त जीवन था। कबीर को वास्तव में एक सच्चे
विश्व - प्रेमी का अनुभव था। कबीर की सबसे
बड़ी विशेषता यह थी कि उनकी प्रतिभा में अबाध
गति और अदम्य प्रखरता थी। समाज में कबीर को
जागरण युग का अग्रदूत कहा जाता है।
साहित्यिक विशेषताएँ :-
मानसरोवर सुभर जल, हंसा के लि कराहिं मुकताफल मुकता
चुगै ,अब उड़ी अनत न जाहिं।।

शब्दार्थ -
मानसरोवर- पवित्र मन
के ली - क्रीड़ा
मुक्ताफल - मोती
सुभर - भरा हुआ
मानसरोवर के जल में हंस क्रीड़ा करते हुए मोती चुग रहे हैं। उन्हें
इस क्रीड़ा में इतना आनंद आ रहा है कि वो इसे छोड़कर कहीं नहीं
जाना चाहते।
ठीक इसी प्रकार, अगर मनुष्य(आत्मा) भी खुद को ईश्वर की भक्ति
में लीन कर ले तो परम मोक्ष का आनंद प्राप्त कर लेगा Iफिर उसका
ध्यान कहीं और नहीं भटके गा। उसे प्रभु की भक्ति में मिलने वाला
आनंद और कहीं नहीं मिलेगा। वह प्रभु की भक्ति में ही मग्न रहेगा और
इस मार्ग को छोड़कर कहीं और नहीं जायेगा।
प्रेमी ढ़ूँढ़त मैं फिरौं, प्रेमी मिले न कोइ।
प्रेमी कौं प्रेमी मिलै, सब विष अमृत होइ।2

शब्दार्थ –
प्रेमी - प्रभु भक्त
विष - दुर्गुण
कबीर कहते हैं कि मै किसी सच्चे प्रभु भक्त को खोजने
निकला परंतु बहुत प्रयत्न करने पर भी वह नहीं मिला I
क्योंकि आज की दुनिया में दो सच्चे भक्तों का मिलन होना
बहुत ही दुर्लभ है Iजब दो सच्चे प्रभु-भक्त आपस में मिलते
हैं, तो उनके बीच कोई भेद-भाव, ऊँ च-नीच, ईर्ष्या इत्यादि
(विष ) बुरी भावनाएं समाप्त हो जाती हैं। अर्थात पाप भी
पुण्य में परिवर्तित हो जाता है,मन मे पवित्रता रूपी अमृत
का संचार हो जाता हैI
हस्ती चढ़िये ज्ञान कौ, सहज दुलीचा डारि।
स्वान रूप संसार है, भूँकन दे झख मारि।3।

शब्दार्थ
* हस्ती - हाथी
* दुलीचा - कालीन
* स्वान - कु त्ता
कवि आशय हैं कि हमे ज्ञान रूपी हाथी पर सहज आसान
बिछाकर और सवार होकर, इस समाज की निंदा की परवाह
किये बिना, निरंतर अपने मार्ग पर चलते रहना चाहिए। कबीर के
अनुसार, जब भी आप कोई ऐसा काम करेंगे, जो साधारण
मनुष्य के लिए कठिन हो या फिर सबसे अलग हो, तो आपके
आस-पड़ोस या समाज के लोग आपको ऐसी बातें कहेंगे, जिनसे
आपका मनोबल कमजोर हो जाए। इसीलिए कवि चाहते हैं कि
हम इन बातों को अनसुना करके , अपना मनोबल ऊँ चा करके
अपने कर्म पर ध्यान दें।
पखापखी के कारनै, सब जग रहा भुलान।
निरपख होइ के हरि भजै, सोई संतसुजान।4।
शब्दार्थ
* पखापखी - पक्ष-विपक्ष
* कारनै - कारण
* सुजान - सज्जन
* निरपख - निष्पक्ष
कवि के अनुसार, बिना किसी द्वेष-भाव के निष्पक्ष होकर प्रभु
की भक्ति करना ही मोक्ष की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग है।हमे पक्ष
विपक्ष मे नहीं पड़ना चाहिए I जो लोग एक-दूसरे को जाति,
र्म, आर्थिक आधार पर छोटा-बड़ा समझते हैं, वो लोग सच्चे
न से प्रभु की भक्ति नहीं कर पाते हैं और उन्हें मोक्ष की प्राप्ति
नहीं हो पाती। इसलिए हमें इन भेदभावों से ऊपर उठ कर,
निष्पक्ष मन से भगवान की भक्ति करनी होगी, तभी हमारा
कल्याण हो सकता है।वही सज्जन कहलाता हैI
हिंदू मूआ राम कहि, मुसलमान खुदाई।
कहै कबीर सो जीवता, जे दुहुँ के निकटि न जाइ।5।

शब्दार्थ
दुहुं - दोनों
निकटि - निकट
मुआ - नकारा
कबीर कहते है कि हिन्दू राम नाम स्मरण कर
और मुस्लिम खुदा का नाम जपकर मूल्यवान
जीवन नष्ट कर देते है I कबीर दास जी का
आशय यह है कि हिन्दू-मुस्लिम दोनों एक हैं
और राम-खुदा दोनों ईश्वर के ही रूप हैं।
इसलिए हमें आपसी भेदभाव को छोड़कर
मानवता में लीन हो जाना चाहिए। तभी हम सच्चे
ईश्वर को प्राप्त कर पाएंगे।वही व्यक्ति अपने कर्मो
से अमर हो जाता है I
काबा फिरि कासी भया, रामहिं भया रहीम।
मोट चून मैदा भया, बैठि कबीरा जीम।6।
शब्दार्थ
काबा - मुस्लिम तीर्थ स्थल
कासी - हिन्दू तीर्थ स्थल
मोट चून - मोटा आटा
जीम - भोजन करना
प्रस्तुत दोहे में कबीर दास जी ने हिन्दू-मुसलमान के आपसी
भेदभाव को नष्ट करने का संदेश दिया है। कवि का मानना है
कि अगर हिन्दू या मुसलमान भेदभाव को छोड़कर, निष्पक्ष
होकर प्रभु की भक्ति में लीन हो जाए, तो उसके लिए
मंदिर(काशी)-मस्जिद(काबा) एक-समान प्रतीत होंगे।
भेदभाव दूर होने से हमारे जीवन मे राम - रहीम का अंतर
नहीं होगा। जिसे मै भ्रम से मोटा आटा समझकर अखाद्य
समझता था वो मेरे लिए महीन मैदा हो गया जो सहज ग्राह्य
हैIइस प्रकार मेरे मन मे हिन्दू व मुसलमान की दुर्भावना दूर
हो गई तथा मंदिर -मस्जिद समान भाव से पवित्र हो गएI
उँचे कु ल का जनमिया, जे करनी ऊँ च न होई।
सुबरन कलस सुरा भरा, साधू निंदा सोई।7।
शब्दार्थ
* सुबरन - स्वर्ण
* सुरा - शराब
* जनमिया - जन्मा
कवि का आशय है कि बड़े कु ल में पैदा होने के बाद भी
अगर कोई व्यक्ति बुरे कर्म करे और दूसरों के परोपकार से
जुड़े महान काम ना करे, तो वह बड़ा कहलाने लायक नहीं
है। इसलिए हमें किसी मनुष्य को उसके कु ल से नहीं, बल्कि
उसके कर्मों से पहचानना चाहिए। जैसे यदि एक स्वर्ण कलश
में मदिरा भरी हो, तो वह किसी साधु के लिए मूल्यहीन हो
जाता है। मूल्यवान धातु होने पर भी उसका कोई महत्व नहीं
रहताIइसलिए हमे कर्म करते रहना चाहिए
सबद (पद)

(१)
मोको कहाँ ढूँढ़े बंदे , मैं तो तेरे पास में ।
ना मैं देवल ना मैं मसजिद , ना काबे कै लास में ।
ना तो कौने क्रिया - कर्म में , नहीं योग वैराग में ।
खोजी होय तो तुरतै मिलिहौं , पलभर की तलास में ।
कहैं कबीर सुनो भई साधो , सब स्वाँसों की स्वाँस में॥
काठिन्य निवारण:
मोको = मुझे, देवल= देवालय, क्रिया-कर्म= पूजा-पाठ/ आडम्बर, खोजी= खोजने वाला,
भावार्थ (सबद-१)

कबीर दास जी के अनुसार ईश्वर किसी नियत स्थान पर ही नहीं रहता,वह तो सृष्टि के कण-कण मे व्याप्त है।
भगवान कहते हैं-- हे भक्तों ! तुम मुझे ढूँढ़ने के लिए कहाँ - कहाँ भटक रहे हो ।
मैं तुम्हें किसी देवालय या मस्ज़िद में नहीं मिलूँगा । ना ही क़ाबा या कै लास जैसे तीर्थ-स्थलों में ही तुम मुझे ढूँढ़ पाओगे ।
तुम मुझे पूजा,जप,तप या किसी भी कर्म - काण्ड के द्वारा नहीं पा सकते । यदि सोचते हो योगी बन जाने या वैराग्य धारण
कर लेने से तुम मुझे पा जाओगे तो ये तुम्हारा भ्रम है। मैं तुम्हें इन सांसारिक आडंबरों या दिखावों से कभी प्राप्त नहीं
होऊँ गा । यदि तुम मुझे खोजने वाले हो और सच्चे मन एवम् पवित्र भाव से खोजो तो मैं उसे पल भर में मिल जाऊँ गा
क्योंकि मैं कहीं बाहर नहीं बल्कि तुम्हरे अन्दर ही मौज़ूद हूँ । कबीर कहते हैं-- हे साधुजनों ! ईश्वर हमारी साँसों में
समाया हुआ है।
• अत: अपनी आत्मा में ढूँढ़ो ।अपनी आत्मा को जान लिए तो ईश्वर को जान जाओगे ।
सबद (पद)
(2)
संतौं भाई आई ग्याँन की आँधी रे ।
भ्रम की टाटी सबै उड़ानी , माया रहै न बाँधी ॥
हिति चित्त की द्वै थूँनी गिराँनी, मोह बलिण्डा तूटा ।
त्रिस्नाँ छाँनि परि घर ऊपरि , कु बुधि का भाण्डा फू टा॥
जोग जुगति करि संतौं बाँधी , निरचू चुवै न पाँणी ।
कू ड़ कपट काया का निकस्या , हरि की गति जब जाँणी॥
आँधी पीछै जो जल बूठा , प्रेम हरि जन भींनाँ । कहै कबीर भाँन के प्रगटै , उदित
भया तम खीनाँ II
काठिन्य निवारण: टाटी= बांस आदि का पर्दा, थूँनी = लकड़ी की टेंक, बलिंडा = छप्पर की मोटी
लकड़ी/बल्ली, छाँनि = छप्पर, भांडा फू टा = भेद खुला, निरचू = थोडा भी, चुवै= रिसता है, बूठा = बरसा,
खीनाँ = क्षीण होना
सार (सबद-२)
कबीर दास जी कहते हैं कि जिस प्रकार आँधी के आने से जो कमज़ोर झोपड़ी होती है सबसे पहले उसकी टाटी (चारों
ओर की दीवार ) उड़ जाती है,उसके बंधन खुल जाते हैं । जिन खम्भों पर वो टिकी होती है वे खम्भे धाराशायी हो जाते
हैं। फ़लस्वरूप छत को रोकने के लिए एक खम्भे से दूसरे खम्भे तक लगा बलिण्डा (मोटी लकड़ी) टू ट जाता है ।
बलिण्डा टू टने पर छत गिर जाती है जिससे झोपड़ी के अन्दर के भाण्डे (मिट्टी के बर्तन) टू ट-फू ट जाते हैं ।जिनकी
झोपड़ी अच्छी युक्ति लगाकर छाई रहती है उन पर आँधी का कोई प्रभाव नहीं पड़ता।उनमे एक बूँद भी पानी नहीं रिसता।
जिनकी झोपड़ी गिर जाती है वे लोग टू टे हुए बर्तनों को कू ड़ा-कचरा समझकर फें क देते हैं।घर की साफ़-सफ़ाई करते हैं।
वर्षा के कारण झोपड़ी के अन्दर की सारी चीज़ें धुल जाती हैं जिससे झोपड़ी स्वच्छ हो जाती है।वर्षा के बाद सूरज
निकलता है तो मेघों के कारण छाई अँधियारी भी दूर हो जाती है।वातावरण सुन्दर और मनोहारी हो जाता है।
भाव यह है कि ज्ञान के आगमन की तुलना ऎसी ही आँधी से करते हुए कहते हैं कि जब ज्ञान का आगमन होता है तो
सबसे पहले मन का भ्रम दूर हो जाता है,माया का बन्धन खत्म हो जाता है।फलस्वरूप अपने और के वल अपनों के स्वार्थ
के बारे में सोचने की मनोवृत्ति समाप्त हो जाती है एवम् मन का मोह भंग हो जाता है ।मोह भंग होने से और अधिक पाने
की लालसा मिट जाती है जिससे हमारे अन्दर की कु बुद्धि या दुर्बुद्धि और मन के समस्त विकार नष्ट हो जाते हैं। जो सच्चे
और संत प्रवृत्ति के होते हैं उन पर ज्ञान के आगमन से कोई विशेष परिवर्तन नहीं होता ।ज्ञान प्राप्ति के बाद जब अन्दर के
समस्त विकार मिट जाते हैं तब मन शान्त और निर्मल और प्रेम से परिपूर्ण हो जाता है।अज्ञान का अँधियारा दूर हो जाने
से मन में भक्ति भाव जग जाता है और भक्त ईश्वर मे लीन होने लगता है।
धन्यवाद
प्रस्तुति-दीपा जैन
टीजीटी हिंदी
कें द्रीय विद्यालय संगठन

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