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परमेश्वर की इच्छा क्या है और हम

इसे कै से जानें ?
SCRIPTURE: ROMANS 12:1–2
इसलिये हे भाइयो, मैं तुम से परमेश्वर की दया स्मरण दिला कर बिनती
करता हूं, कि अपने शरीरों को जीवित, और पवित्र, और परमेश्वर को
भावता हुआ बलिदान करके चढ़ाओ: यही तुम्हारी आत्मिक सेवा है। 2 और
इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से तुम्हारा
चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और
भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते रहो।
आप क्या हैं, बन जाइये
• वे जो मसीह यीशु में विश्वास करते हैं, मसीह में लोहू-से-खरीदे-गए नये जीव बन चुके हैं।
‘‘यदि कोई मसीह में है तो वह नई सृष्टि है-----------------’’ (2 कु रिन्थियों 5:17)।

• ‘‘तुम ने … नए मनुष्यत्व को पहिन लिया है जो अपने सृजनहार के स्वरूप के अनुसार


ज्ञान प्राप्त करने के लिये नया बनता जाता है’’ (कु लुस्सियों 3:10)। तुम्हें मसीह में
नया बना दिया गया है; और अब तुम दिन-प्रतिदिन नया बनते जाते हो।
परमेश्वर की दो मनसाएं/इच्छाएं
बाइबिल में ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ शब्द के लिए दो स्पष्ट और बहुत भिन्न अर्थ हैं। हमें उन्हें जानना और ये निर्णय लेना कि यहाँ
रोमियों 12:2 में कौन सा उपयोग किया जा रहा है, आवश्यक है। वास्तव में, ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ के इन दो अर्थों के बीच
अन्तर को जानना, सम्पूर्ण बाइबिल में सबसे बड़ी और सर्वाधिक व्याकु ल करनेवाली चीजों में से एक, की समझ के लिए महत्वपूर्ण
है, यथा, यह कि परमेश्वर सभी चीजों के ऊपर प्रभुसत्ता-सम्पन्न है और फिर भी कई चीजों को नापसन्द करता (या निर-
अनुमोदन करता) है। जिसका अर्थ है कि परमेश्वर कु छ को नापसन्द करता है जिसे ‘वह’ घटित होने के लिए निर्धारित करता है।
अर्थात्, ‘वह’ कु छ चीजों का निषेध करता है, जिन्हें ‘वह’ होने देता है। और ‘वह’ कु छ चीजों की आज्ञा देता है, जिन्हें ‘वह’
बाधित करता है। अथवा, इसे सर्वाधिक विरोधाभासी रूप में रखने के लिए: परमेश्वर कु छ घटनाओं की एक भाव में इच्छा करता है
जिनकी ‘वह’ दूसरे अर्थ में इच्छा नहीं करता।
1. परमेश्वर की राजाज्ञा-की-इच्छा, अथवा प्रभुसत्ताक-इच्छा

मत्ती 26:39 में ‘उसने’ कहा, ‘‘हे मेरे पिता, यदि हो सके , तो यह कटोरा मुझ से टल जाए; तौभी
जैसा मैं चाहता हूं वैसा नहीं, परन्तु जैसा तू चाहता है वैसा ही हो।’’

प्रेरित 4: 27-28 इसे कै से कहता है: ‘‘क्योंकि सचमुच तेरे पवित्र सेवक यीशु के विरोध में, जिसे तू
ने अभिषेक किया, हेरोदेस और पुन्तियुस पीलातुस भी अन्य जातियों और इस्राएलियों के साथ इस
नगर में इकट्ठे हुए कि जो कु छ पहिले से तेरी सामर्थ (तेरे हाथ) और मति से ठहरा था वहीं करें।’’

1 पतरस 3:17 में पतरस लिखता है, ‘‘यदि परमेश्वर की यही इच्छा हो, कि तुम भलाई करने के कारण
दुःख उठाओ, तो यह बुराई करने के कारण दुःख उठाने से उत्तम है।’’
पौलुस इस सच्चाई का एक अतिरंजित सारांश बयान इफिसियों 1:11 में देता है, ‘‘उसी {मसीह} में जिस में हम भी उसी की
मनसा से जो अपनी इच्छा के मत के अनुसार सब कु छ करता है, पहिले से ठहराए जाकर मीरास बने।’’ परमेश्वर की इच्छा, जो
कु छ भी घटित होता है उसका, परमेश्वर का प्रभुसत्ताक अभिशासन, है। और बाइबिल में ऐसे अनेकों अन्य परिच्छेद हैं जो सिखाते
हैं कि विश्व के ऊपर परमेश्वर का विधान, प्रकृ ति के सबसे छोटे विवरण तक और मानव निर्णयों तक विस्तारित होता है। हमारे
पिता, जो स्वर्ग में है, के बिना एक गौरैया भूमि पर नहीं गिरती (मत्ती 10:29)। ‘‘चिट्ठी डाली जाती तो है, परन्तु उसका निकलना
यहोवा ही की ओर से होता है’’ (नीतिवचन 16:33)। ‘‘मन की युक्ति मनुष्य के वश में रहती है, परन्तु मुंह से कहना यहोवा की
ओर से होता है’’ (नीतिवचन 16:1)। ‘‘राजा का मन नालियों के जल की नाईं यहोवा के हाथ में रहता है, जिधर वह चाहता उधर
उसको फे र देता है’’ (नीतिवचन 21:1)।
परमेश्वर की इच्छा का यह पहिला अर्थ है: ये है सभी चीजों पर परमेश्वर का प्रभुसत्ताक नियंत्रण। हम इसे
‘उसकी’ ‘‘प्रभु -सत्ताक इच्छा’’ कहेंगे अथवा ‘उसकी’ ‘‘राजाज्ञा की इच्छा।’’ ये तोड़ी नहीं जा सकती। ये
सदा घटित होती है। ‘‘वह स्वर्ग की सेना और पृथ्वी के रहनेवालों के बीच अपनी ही इच्छा के अनुसार काम
करता है; और कोई उसको रोककर उस से नहीं कह सकता है, ‘तू ने यह क्या किया है?’’’ (दान्यियेल
4:35)।
2. परमेश्वर की, आदेश की इच्छा

अब, बाइबिल में ‘‘परमेश्वर की इच्छा’’ के लिए अन्य अर्थ है, वो जिसे हम ‘उसकी’ ‘‘आदेश की इच्छा’’ कह सकते हैं। जो
‘वह’ हमें करने का आदेश देता है, ‘उसकी’ इच्छा है। ये परमेश्वर की वो इच्छा है जिसकी हम अवज्ञा कर सकते और असफल हो
सकते हैं। राजाज्ञा-की-इच्छा, हम करते हैं चाहे हम इस में विश्वास करते हैं अथवा नहीं। आदेश-की-इच्छा पूरी करने में हम
असफल हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, यीशु ने कहा, ‘‘जो मुझ से, ‘हे प्रभु, हे प्रभु’ कहता है, उन में से हर एक स्वर्ग के राज्य
में प्रवेश न करेगा, परन्तु वही जो मेरे स्वर्गीय पिता की इच्छा पर चलता है’’ (मत्ती 7: 21)। सभी ‘उसके ’ पिता की इच्छा के
अनुसार नहीं करते। ‘वह’ ऐसा कहता है। ‘‘हर एक स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करेगा।’’ क्यों? क्योंकि सभी परमेश्वर की इच्छा के
अनुसार नहीं करते।
1 थिस्सलुनीकियों 4:3 में पौलुस कहता है, ‘‘परमेश्वर की इच्छा यह है, कि तुम पवित्र बनो: अर्थात् व्यभिचार से बचे रहो।’’ यहाँ हमारे
पास, परमेश्वर जो हमें आदेश देता है उसका एक विशिष्ट उदाहरण है: पवित्रता, पवित्रीकरण, यौन-शुद्धता। ये ‘उसकी’ आदेश-की-इच्छा
है। किन्तु, ओह, कितने लोग आज्ञा पालन नहीं करते।

फिर 1 थिस्सलुनीकियों 5:18 में पौलुस कहता है, ‘‘हर बात में धन्यवाद करो: क्योंकि तुम्हारे लिये मसीह यीशु में परमेश्वर की यही इच्छा
है।’’ वहाँ पुनः ‘उसकी’ आदेश-की-इच्छा का एक विशिष्ट पहलू है: सभी परिस्थितियों में धन्यवाद दो। किन्तु बहुतेरे परमेश्वर की इस इच्छा
को नहीं करते।

एक और उदाहरण: ‘‘और संसार और उसकी अभिलाषाएं दोनों मिटते जाते हैं, पर जो परमेश्वर की इच्छा पर चलता है, वह सर्वदा बना
रहेगा’’ (1 यूहन्ना 2:17)। सभी सर्वदा बने नहीं रहते। कु छ रहते हैं। कु छ नहीं रहते। अन्तर? कु छ परमेश्वर की इच्छा को करते हैं। कु छ
नहीं करते। इस अर्थ में, परमेश्वर की इच्छा, सदैव घटित नहीं होती।
अतः मैं इन से और बाइबिल के अन्य अनेकों परिच्छेदों से ये निष्कर्ष निकालता हूँ कि परमेश्वर की इच्छा के बारे में बात
करने के दो तरीके हैं। दोनों सच हैं, और दोनों समझने के लिए और उसमें विश्वास करने के लिए महत्वपूर्ण हैं। एक को हम
परमेश्वर की राजाज्ञा की इच्छा (या ‘उसकी’ प्रभुसत्ताक इच्छा) कह सकते हैं और दूसरी को हम परमेश्वर की आदेश की
इच्छा कह सकते हैं। ‘उसकी’ राजाज्ञा की इच्छा सदैव घटित होती है चाहे हम इसमें विश्वास करें या न करें। ‘उसकी’ आदेश
की इच्छा तोड़ी जा सकती है, और हर दिन तोड़ी जा रही है।
रोमियों 12: 2 में किस इच्छा का उल्लेख है ?
अब, रोमियों 12: 2 में इन में से कौन व्यक्त की गई है, ‘‘इस संसार के सदृश न बनो; परन्तु तुम्हारी बुद्धि के नए हो जाने से
तुम्हारा चाल-चलन भी बदलता जाए, जिस से तुम परमेश्वर की भली, और भावती, और सिद्ध इच्छा अनुभव से मालूम करते
रहो।’’ उत्तर निश्चित रूप से ये है कि पौलुस परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ का उल्लेख कर रहा है। मैं कम से कम दो कारणों से
यह कहता हूँ। एक यह कि परमेश्वर का हमारे लिए ये ध्येय नहीं है कि समय से पूर्व ‘उसकी’ अधिकांश ‘प्रभुसत्ताक इच्छा’ को
जानें। ‘‘गुप्त बातें हमारे परमेश्वर यहोवा के वश में हैं; परन्तु जो प्रगट की गई हैं वे सदा के लिए हमारे और हमारे वंश के वश में
रहेंगी’’ (व्यव.वि. 29:29)। यदि आप परमेश्वर की ‘राजाज्ञा की इच्छा’ के भविष्य के विवरण जानना चाहते हैं, तो आप एक
नयी बुद्धि नहीं चाहते, आप एक ‘क्रिस्टल-बॉल’ (भविष्यकथन हेतु प्रयुक्त काँच या स्फटिक का गोला) चाहते हैं। इसे रूपान्तरण
और आज्ञाकारिता नहीं कहा जाता; इसे शकु न-विद्या, ज्योतिष-करना कहते हैं।
रोमियों 12: 2 में परमेश्वर की इच्छा, परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ है और ‘उसकी’ ‘राजाज्ञा की इच्छा’ नहीं, ये है कि
वाक्यांश ‘‘अनुभव से मालूम करते रहो,’’ का आशय ये है कि हमें परमेश्वर की इच्छा का समर्थन करना चाहिए और फिर
आज्ञाकारितापूर्ण ढंग से इसे करना चाहिए। परन्तु वास्तव में हमें पाप का समर्थन या इसे करना नहीं चाहिए, भले ही यह परमेश्वर
की ‘प्रभुसत्ताक इच्छा’ का हिस्सा क्यों न हो। रोमियों 12: 2 में पौलुस के अर्थ का, लगभग सटीक रूप से इब्रानियों 5: 14 में
भावानुवाद किया गया है, जो कहता है, ‘‘अन्न सयानों के लिए है, जिन के ज्ञानेन्द्रिय अभ्यास करते करते, भले बुरे में भेद करने
के लिये पक्के हो गए हैं।’’ (एक अन्य भावानुवाद फिलिप्पियों 1: 9-11 में देखिये।) इस आयत का यही लक्ष्य है: परमेश्वर
की गुप्त इच्छा का पता लगाना नहीं, जो करने की योजना ‘वह’ करता है, अपितु परमेश्वर की प्रगट की गई इच्छा को मालूम
करना, जो हमें करना अवश्य है।
परमेश्वर की प्रगटित इच्छा को जानने और करने के तीन चरण

परमेश्वर की प्रगटित इच्छा को जानने और करने के तीन चरण हैं, अर्थात्, ‘उसकी’ ‘आदेश की इच्छा’;
और वे सभी, ‘पवित्र- आत्मा’ द्वारा दी गई समझ के साथ, बुद्धि के नये हो जाने की मांग करते हैं।
चरण एक
प्रथम, परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ अन्तिम, निर्णायक अधिकार के साथ के वल बाइबिल में प्रगट की जाती है। और
हमें नयी की गई बुद्धि की आवश्यकता है कि पवित्र-शास्त्र में परमेश्वर जो आज्ञा देता है उसे समझ सकें और गले लगा
सकें । बिना नयी की गई बुद्धि के , हम पवित्र-शास्त्र को तोड़-मरोड़ करेंगे कि स्वयँ-का-इन्कार करने, और प्रेम और
शुद्धता, और के वल मसीह में परम सन्तुष्टि की उनकी मूल-भूत आज्ञाओं को अनदेखा करें। परमेश्वर की अधिकारपूर्ण
‘आदेश की इच्छा’ के वल बाइबिल में पायी जाती है। पौलुस कहता है कि पवित्रशास्त्र प्रेरणा से लिखे गए और मसीहियों
को ‘‘सिद्ध, हर एक भले कामों के लिए तत्पर’’ (2 तीमुथियुस 3: 16) बनाते हैं। मात्र कु छ भले काम नहीं। ‘‘हर एक
भले काम।’’ ओह, मसीहियों को परमेश्वर के लिखित ‘वचन’ पर मनन करते हुए कितनी ऊर्जा और समय और उपासना
खर्च करना चाहिए।
चरण दो
परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ का दूसरा चरण है, उन नयी परिस्थितियों में बाइबिलशास्त्रीय सच्चाईयों का हमारा
अनुप्रयोग, जो बाइबिल में स्पष्टतः सम्बोधित की गई हों या नहीं। बाइबिल आपको नहीं बतलाती कि किस व्यक्ति से विवाह
करें, या कौन सी कार चलावें, या एक घर खरीदें या नहीं, आप अपनी छु ट्टियाँ कहाँ बितायें, सैल-फोन का कौन सा प्लान
खरीदें, या कौन से मार्का वाले संतरे का रस पियें। अथवा वे अन्य हजार चुनाव जो आपको करने होते हैं।
जो आवश्यक है वो ये कि हमारे पास नवीनीकृ त बुद्धि हो, जो बाइबिल में परमेश्वर की प्रगट की गई इच्छा के द्वारा इस
प्रकार से आकार पायी हुई और इस तरह परिचालित हो, कि हम मसीह के मन के द्वारा सभी संगत कारकों को देखें और
मूल्यांकन करें, और ये मालूम करें कि परमेश्वर हमें क्या करने के लिए बुला रहा है। निरन्तर परमेश्वर की ये कहती हुई
आवाज़ को सुनने का प्रयास करना कि ये करो व वो करो, से यह सर्वथा भिन्न है। लोग, जो आवाजें सुनने के द्वारा अपनी
जिन्दगियों को जीने का प्रयास करते हैं, रोमियों 12:2 के साथ समन्वय में नहीं हैं।
चरण तीन
अन्त में, परमेश्वर की ‘आदेश की इच्छा’ का तीसरा चरण, जीने का बहुत बड़ा हिस्सा है, जहाँ, इससे पूर्व कि हम कार्य करें,
सचेतन रूप से कु छ पूर्व-विचारित नहीं होता। मैं ये कहने का जोखि़म उठाता हूँ, कि आपके व्यवहार का अच्छा-भला 90
प्रतिशत, आप पहले से विचार नहीं करते। अर्थात्, आपके अधिकांश विचार, भाव, और कियाएँ स्व-इच्छित होते हैं। वे, उस
से, जो भीतर है, मात्र बाहर छलकते हैं। यीशु ने कहा, ‘‘जो मन में भरा है, वही मुंह पर आता है। भला मनुष्य मन के भले
भण्डार से भली बातें निकालता है; और बुरा मनुष्य बुरे भण्डार से बुरी बातें निकालता है। और मैं तुम से कहता हूं, कि जो जो
निकम्मी बातें मनुष्य कहेंगे, न्याय के दिन हर एक बात का लेखा देंगे’’
(मत्ती 12: 34-36)।
इसलिए क्या यह स्पष्ट नहीं है कि मसीही जीवन का एक बड़ा कार्य है: तुम्हारी बुद्धि के नये हो जाने से तुम बदलते जाओ।
हमें नये हृदयों और नये मनों की आवश्यकता है। पेड़ को अच्छा बनाइये और फल अच्छा होगा (मत्ती 12:33)। ये बड़ी
चुनौती है। वो ही है जिसके लिए परमेश्वर आपको बुलाता है। आप इसे अपने बल पर नहीं कर सकते। आपको मसीह की
आवश्यकता है जो आपके पापों के लिए मर गया। और आपको ‘पवित्र आत्मा’ की आवश्यकता है कि मसीह को ऊँ चा-
करनेवाले-सत्य में आपकी अगुवाई करे और आप में सत्य-आलिंगन करनेवाली नम्रता उत्पन्न करे।
अपने आप को इसे सौंप दीजिये। स्वयँ को परमेश्वर के लिखे हुए ‘वचन’ में डु बो दीजिये; अपने मन को इस से संतृप्त कर
लीजिये। और प्रार्थना कीजिये कि ‘मसीह का आत्मा’ आपको ऐसा नया बना दे कि जो बाहर छलके वो भला, भावता और
सिद्ध होवे — परमेश्वर की इच्छा होवे।
प्रभु आपकी सहायता करे और अपना अनुग्रह आपको दे कि आप
परमेश्वर कि भली और सिद्ध इच्छा को अपने जीवन में समझे और पूरा
कर सके

धन्यवाद 🙏

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